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शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2015

muktika

मुक्तिका:
संजीव
*
रात चूहे से चुहिया यूँ बोली
तू है पोरस तो मैं सिकंदर हूँ
.
चौंक चूहा छिपा के मुँह बोला:
तू बँदरिया, मैं तेरा बंदर हूँ
.
शोख चुहिया ने हँस जवाब दिया:
तू न गोरख, न मैं मछंदर हूँ
*
तू सुधा मेरी, मान जा प्यारी!
मैं तेरा अपना दोस्त चन्दर हूँ
.
दिया नहले पे दहला चुहिया ने
तू है मंदर मगर मैं मंदिर हूँ
.
सर झुका चूहे ने सलाम किया:
मलिका तूफान, मैं बवंडर हूँ
.
जा किनारे खड़े लहर गिनना
याद रखना कि मैं समंदर हूँ
.
बाहरी दुनिया मुबारक हो तुझे
तू है बाहर, मैं घर के अंदर हूँ
*

laghu katha

लघुकथा: 
गाइड
*
गाइड शिक्षिका से सूचना पाते है वह हर्ष से उछल पड़ी, सूचना थी ही ऐसी। उसे गाइड आंदोलन में राज्यपाल पदक से सम्मानित किया गया था।

कुछ वर्ष बाद किंचित उत्सुकता के साथ वह प्रतीक्षा कर रही थी आगंतुकों की। समय पर अतिथि पधारे, स्वल्पाहार के शिष्टाचार के साथ चर्चा आरंभ हुई: 'बिटिया! आप नौकरी करेंगी?'

मैंने जितना अध्ययन किया है, देश ने उसकी सुविधा जुटाई, मेरे ज्ञान और योग्यता का  उपयोग देश और समाज के हित में होना चाहिए- उसने कहा

लेकिन घर और परिवार भी तो.… 

आप ठीक - परिवार मेरी पहली प्राथमिकता है किन्तु उसके साथ-साथ मैं कुछ अन्य  तो घर के विकास में सहायक हो होऊंगी। 

तुम मांसाहारी हो या शाकाहारी?

मैं शाकाहारी हूँ, मेरे साथ बैठा व्यक्ति शालीनतापूर्वक जो चाहे खाये मुझे आपत्ति नहीं किंतु मैं क्या खाती पहनती हूँ यह मेरी पसंद होगी। 

ऐसा तो सभी लड़कियाँ कहती हैं पर बाद में नए माहौलके अनुसार बदल जाती हैं। मेरी बड़ी बहू भी शाकाहारी थी पर बेटे ने कहते-कहते उसे मुँह से लगा-खिला कर उसे माँसाहारी बना दिया। आगन्तुका अब उसके पिताश्री की ओर उन्मुख हुईं और पूछा: आपके यहाँ क्या रस्मो-रिवाज़ होते हैं? 

अन्य स्वजातीय परिवारों की तरह हमारे यहाँ भी सभी रस्में की जाती हैं. आपको स्वागत में कोई कमी नहीं मिलेगी, निश्चिन्त रहिए। पिताजी ने उत्तर दिया

मेरे बड़े बेटे की शादी में यह-यह हुआ था। बेंगलुरु से गोरखपुर एक व्यक्ति का जाने-आने का वायुयान किराया ही १५,००० रु.है। ८ लोगों का बार-बार आना-जाना, हमारे धनी-मानी संबंधी-मित्र आदि का आथित्य, बड़े बेटे को  कार और मकान मिला … 

बहुत देर से बेचैन हो रही वह बोल पड़ी: आई आई टी जैसे संस्थान में पढ़ने और ३० लाख रुपये सालाना कमाने के बाद भी जिसे दूसरों के आगे हाथ पसारने में शर्म नहीं आती, जो अपने माँ-बाप को अपना सौदा करते देख चुप रहता है, मुझे ऐसे भिखारी को अपना जीवनसाथी नहीं बनाना है। मैं ठुकराती हूँ तुम्हारा प्रस्ताव, और आप दोनों उम्र में मुझसे बहुत बड़े हैं पर आपकी सोच बहुत छोटी है। आपने अपने लड़कों को कमाऊ बैल तो बना दिया पर अच्छा आदमी नहीं बना सके। आपमें से किसी मुझ जैसी बहू पाने की योग्यता नहीं है। आपकी बातचीत मैंने रिकॉर्ड कर ली है कहिए तो थाने में रिपोर्ट कर आप सबको बंद करा दूँ। आप ने सुना नहीं पिता जी ने बताया था कि मुझे कोई गलत बात सहन नहीं होती, मैं हूँ गाइड। 

***  




    

samiksha

कृति चर्चा :
घाट पर ठहराव कहाँ : लघुकथाओं पुष्पोंकी सुवासित बगिया 
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल
(कृति विवरण: घाट पर ठहराव कहाँ, लघुकथा संग्रह, कांता रॉय, ISBN ९७८-८१-८६८१०-३१-५ पृष्ठ १२४, २००/-पुस्तकालय संस्करण, १५०/- जन संस्करण, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द पेपर जैकेट सहित, समय साक्ष्य प्रकाशन, १५ फालतू लाइन, देहरादून २४८००१, रचनाकार संपर्क:९५७५४६५१४७  )
***
'देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर' सतसइया के दोनों के संदर्भ में कही गयी इस अर्धाली में 'छोटे' को 'छोटी' कर दें तो यह लघुकथा के सन्दर्भ में सौ टंच खरी हो जाती है। लघुकथा के शिल्प और कथ्य के मानकों में निरंतर परिवर्तन हो रहा है। भाषा और साहित्य जड़ता से जितना दूर और चेतना के जितने निकट हो उतना ही सजीव, व्यापक और प्रभावी होता है। पद्य के दोहा और शे'र को छोड़ दें तो नवगीत और मुक्तिका की सी आकारगत लघुता में कथ्य के असीम आकाश को अन्तर्निहित कर सम्प्रेषित करने की  अप्रतिम सामर्थ्य लघुकथा की स्वभावगत विशेषता है। लघु कथा की 'गागर में सागर' जैसी अभिव्यक्ति सामर्थ्य ने न केवल पाठक जुटाये हैं अपितु पाठकों के मन में पैठकर उन्हें लघुकथाकार भी बनाया है। विवेच्य कृति नव लघुकथाकारों की बगिया में अपनी सृजन-सुरभि बिखेर रही काँता रॉय जी का प्रथम लघुकथा संग्रह है. 'जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला ....' बच्चन जी की इन पंक्तियों को जीती लेखिका को जैसे हो वक़्त मिला वह 'मूषक'  (माउस) को थामकर सामाजिक शल्यों की चीरफ़ाड़ी करने में जुट गयी, फलत: ११० लघुकथाओं का पठनीय संग्रह हमारे हाथों में है। संतोष यह कि कृति प्रकाशन को लक्ष्य नहीं पड़ाव मात्र मानकर कांताजी निरंतर लघुकथा सृजन में संलग्न हैं।  

'घाट पर ठहराव कहाँ' की लघुकथाओं के विषय दैनंदिन जीवन से उठाये गये हैं। लाड़ली बिटिया, संकोची नवोढ़ा, ममतामयी माँ, संघर्षशील युवती और परिपक्व नारी के रूप में जिया-भोया-सँवारा जीवन ही इन लघुकथाओं का उत्स है। इनके विषय या कथ्य आकाशकुसुमी नहीं, धरा-जाये हैं। लेखिका के अनुसार 'मैंने हमेशा वही लिखा जो मैंने महसूस किया, बनावटी संविदाओं से मुझे सदा ही परहेज रहा है।' डॉ. मालती बसंत के अनुसार 'कांता रॉय के श्वास-श्वास में, रोम-रोम में लघुकथा है।'

कोई विस्मय नहीं कि अधिकाँश लघुकथाओं का केंद्र नारी है। 'पारो की वेदना' में प्रेमी का छल, 'व्यथित संगम' में संतानहीनता का मिथ्या आरोप, 'ममता की अस्मिता' में नारी-अस्मिता की चेतना, 'दरकती दीवारें चरित्र की' में धन हेतु समर्पण, 'घाट पर ठहराव में' जवान प्रवाह में छूटे का दुःख, 'रीती  दीवार' में सगोत्री प्रेमियों की व्यथ-कथा, 'गरीबी का फोड़ा' में बेटे की असफलता -जनित दुःख, 'रुतबा' मंत्रालय का में झूठी शान का खोखलापन, 'अनपेक्षित' में गोरेपन का अंधमोह, 'गले की हड्डी' में समधी के कुत्सित इरादों से युक्तिपूर्वक छुटकारा, 'श्राद्ध' में अस्पतालों की लोलुपता, 'पतित' में बदले की आग, 'राहत' में पति की बीमारी में शांति की तलाश, 'झमेला' में दुर्घटना-पश्चात पुलिस सूचना, 'दास्तान-ए-कामयाबी' में संघर्ष पश्चात सफलता,' डिस्टेंट  रिलेशनशिप' में नेट के संबंध, 'सुनहरी शाम' में अतीत की यादों में भटकता मन, 'जादू का शो' में मंचीय अश्लीलता, 'मिट्टी की गंध' में नगर प्रवास की व्यथा, 'मुख्य अतिथि' में समय की पाबंदी, 'आदर्श और मिसाल' में वर पक्ष का पाखंड,महिला पार्ष में अयोग्य उम्मीदवार,धर्म के ठेकेदा में मजहबी उन्माद की आग में ध्वस्त प्रेमी,एकलव् में आधुनिक परिप्रेक्ष्य में गुरु-शिष्य द्वन्द अर्थात जीवन के विविध पक्षों में व्याप्त विसंगतियाँ शब्दित हुई हैं। 

कांता जी की विशेषता जीवन को समग्र में देखना है। छद्म नारी हित रक्षकों के विपरीत उनकी लघुकथाएँ पुरुष मात्र को अपराधी मान सूली पर चढ़ाने की मांग नहीं करतीं। वे लघुकथाओं को अस्त्र बनकर पीड़ित के पक्ष में लिखती हैं, वह स्त्री है या पुरुष, बालक या वृद्ध यह गौड़ है। 'सरपंची' लघुकथा पूरे देश में राजनीति को व्यापार बना रही प्रवृत्ति का संकेत करती है। 'तख्तापलट' में वैज्ञानिक प्रगति पर कटाक्ष है। 'आतंकवादी घर के' लघुकथा स्त्री प्रगति में बाधक पुरुष वृत्ति को केंद्र में लाती है। 'मेरा वतन' में सम्प्रदायिकता से उपजी शर्म का संकेत है। 'गठबंधन' लघुकथा महाकल मंदिर की पृष्भूमि में सांसारिकता के व्यामोह में ग्रस्त सन्यासिनी पर केंद्रित है। 'मैं भक्ति के अतिरेक में डूब ही पाई थी कि ……मैं उस श्वेतांबरी के गठबंधन पर विचार करने लगा' यह लिंग परिवर्तन कब और कैसे हो गया, कौन बताये?

'प्रतिभा', 'दोस्ती', 'नेतागिरी', 'व्रती', 'जीवन संकल्प', 'उम्रदराज', 'सुई', 'सहयात्री', 'रिश्ता', 'कब तक का रिश्ता', 'कश्मकश',  पनाह', 'पनाह', 'अनुकंपा', 'नमक', 'फैशन की रसोई'  आदि नारी जीवन के विविध पहलुओं पर केंद्रित हैं तो 'विरासत', 'पार्क', 'रिपोर्ट', 'ब्रेकिंग न्यूज', 'पुनर्जन्म', 'मनरेगा','सत्य अभी मारा नहीं'. इधर का उधर' आदि में सामाजिक पाखंडों पर प्रहार है. कांता जी कहीं-कहें बहुत जल्दबाजी में कथ्य को उभरने में चूक जाती हैं। 'कलम हमारी धार हमारी', 'हार का डर',  'आधुनिक लेखिका', 'नेकी साहित्य की' आदि में साहित्य जगत की पड़ताल की गयी है।

कांता जी की लेखन शैली सरस, प्रवाहमयी, प्रसाद गुण संपन्न है। भाषिक समृद्धि ने उनकी अभिव्यक्ति सामर्थ्य को धार दी है। वे हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी के साथ संस्कृतनिष्ठ और देशज शब्दों का यथास्थान प्रयोग कर अपनी बात बखूबी कह पाती हैं। स्नेहिल, स्वप्न, स्वयंसिद्धा, उत्तल, विभक्त, उंकुके, तन्द्रा, निष्प्राण जैसे संस्कृत शब्द, सौंधी, गयेला, अपुन, खाप, बुरबक, बतिया, बंटाधार, खोटी आदि देशज शब्द, जुदाई, ख़ामोशी, इत्तेफ़ाक़, परवरिश, अपाहिज, अहसास, सैलाब, मशगूल, दास्तां. मेहरबानी, नवाज़े, निशानियाँ, अय्याश, इश्तिहार, खुशबू, शिद्दत, आगोश, शगूफा लबरेज, हसरत, कशिश, वक्र, वजूद, बंदोबस्त जैसे उर्दू शब्द, रिमोट, ओन, बॉडी, किडनी, लोग ऑफ, पैडल बोट, बोट क्लब, टेस्ट ड्राइव, मैजिक शो, मैडम ड्रेसिंग टेबल, कंप्यूटर, मिसेज, इंटरनेट, ऑडिशन, कास्टिंग काउच जैसे अंग्रेजी शब्द काँता जी ने बखूबी उपयोग किये हैं। अंग्रेजी के जिन शब्दों के सरल और सटीक पर्याय प्रचलित हैं उन्हें उपयोग न कर अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग किया जाना अनावश्यक प्रतीत होता है। ऐसे शब्दों में डिस्टेंस (दूरी), मेसेज (संदेश), ( बंद, निकट), कस्टमर (ग्राहक), कनेक्शन (संबंध, जुड़ाव), अड्वान्स (अग्रिम), मैनेजमेंट (प्रबंधन), ग्रुप (समूह, झुण्ड), रॉयल (शाही), प्रिंसिपल (प्राचार्य) आदि हैं।

उर्दू शब्द ज़ज़्बा (भावना) का बहुवचन ज़ज़्बात (भावनाएँ) है, 'ज़ज़्बातों' (पृष्ठ ३८) का प्रयोग उतना ही गलत है जितना सर्वश्रेष्ठ या बेस्टेस्ट। 'रेल की रेलमपेल' में (पृष्ठ ४७) भी गलत प्रयोग है।बच्चों की रेलमपेल अर्थात बच्चों की भीड़, रेल = पटरी, ट्रेन = रेलगाड़ी,  रेल की रेलमपेल = पटरियों की भीड़ इस अर्थ की कोई प्रासंगिकता सनरभित लघुकथा 'भारतीय रेल' में नहीं है।  अपवादों को छोड़कर समूचे लघुकथा संकलन में भाषिक पकड़ बनी हुई है। कांता जी लघुकथा के मानकों से सुपरिचित हैं। संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, बेधकता, मर्मस्पर्शिता, विसंगति निर्देश आदि सहबी तत्वों का उचित समायोजन कांता जी कर सकी हैं। नवोदित लघु कथाकारों की भीड़ में उनका सृजन अपनी स्वतंत्र छाप छोड़ता है। प्रथम में उनकी लेखनी की परिपक्वता प्रशंसनीय है। आशा है वे लघुकथा विधा को नव आयामित करने में समर्थ होंगी।

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आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४

laghukatha

एक लघु कथा - एक चर्चा 

खास रिश्ते का स्वप्न
कान्ता राॅय, भोपाल
*
" ये क्या सुना मैने , तुम शादी तोड़ रही हो ? "
" सही सुना तुमने । मैने सोचा था कि ये शादी मुझे खुशी देगी । "
" हाँ ,देनी ही चाहिए थी ,तुमने घरवालों के मर्ज़ी के खिलाफ़, अपने पसंद से जो की थी ! "
" उन दिनों हम एक दुसरे के लिए खास थे , लेकिन आज ....! "
" उन दिनों से ... ! , क्या मतलब है तुम्हारा , और आज क्या है ? "
" आज हम दोनों एक दुसरे के लिये बेहद आम है । "
" ऐसा क्यों ? " उस व्याह की उमंग और उत्तेजना की इस परिणति से वह चकित थी ।
"क्योंकि , दो घंटे रोज वाली पार्क की दोस्ती , पति के रिश्ते में हर दिन औंधे-मुँह गिरता है । "
***
कांता जी! 

नमन. 

आदर के साथ कहना है कि आप लघुकथेतर कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत करें तो उन पर भी वाह-वाह की झड़ी लग जाएगी। पाठक टिप्पणी के पूर्व प्रस्तुत सामग्री को ध्यान से पढ़ लें तथा लघुकथा के तत्वों पर विचार करते हुए टिप्पणी करें तो वे भी पठनीय होंगी। 

शादी जन्म-जन्म का बंधन, इस जन्म में अंत तक साथ चलने का संकल्प या अपनी अपेक्षाओं पर खरी न उतरनेवाली बाई, मित्रता या नौकरी को बदलने की तरह जीवन की एक सामान्य घटना??? 

कथ्य के तौर पर विवाह जैसे गंभीर संस्कार के साथ-साथ यह लघुकथा न्याय नहीं करती। 

विवाह भंग का जो कारण दर्शित है यदि उसे ठीक मानें तो शायद हममें से किसी का विवाह अखंड न रहे. 

विवाह एक दूसरे को जो जैसा है, वैसा स्वीकारने और एक-दूसरे के अनुरूप ढलने से मजबूत होता है. 

विवाह भंग की प्रक्रिया तो अगणित प्रयासों की असफलता का दुष्परिणाम होता है. लघु कथा में कहीं ऐसा उल्लेख नहीं है कि प्रयास किये गए या असफल हुए. 

विवाह भंग का जो कारण 'आज हम दोनों एक दूसरे के लिये बेहद आम हैं' दर्शाया गया है. एक-दूसरे के लिये आम अर्थात सहज होना क्यों गलत है? सहज जीवन तो वरेण्य है. किसी 'ख़ास' के आने पर बनावट या कृत्रिमता का प्रवेश होता है, यह परिवर्तन अल्पकालिक होता है और उसके जाते ही फिर सब कुछ पूर्ववत हो जाता है. जैसे घर में मेहमान का आना-जाना।

'आम' का अर्थ विवाह के विशिष्ट सम्बन्ध का कइयों के साथ दुहराव होना है तो यहाँ दोनों के साथ यह स्थिति है, वह एक के द्वारा भंग का आधार नहीं बनती।' 

शिल्प के नाते यह मूलत: संवाद कथा है. लघुकथा के कुछ समीक्षक लघुकथा में संवाद को वर्ज्य मानते हैं. मेरी दृष्टि में लघुता आकारिक मानक है और संवाद शैल्पिक, ध्येय कथ्य को पाठक तक पहुँचाना है. गत ३०-३२ वर्षों में मैंने कई बार संवादात्मक लघुकथाएँ लिखी हैं और एव पाठकों तक कथ्य पहुँचाने के साथ-साथ सराही भी गयी हैं

इस लघुकथा के संदर्भित संवाद में संबंध एक के लिए 'खास' दूसरे के लिए आम होता तो भी अलगाव का कोई कारण बनता।

गुरुवार, 22 अक्टूबर 2015

laghukatha

लघुकथा:
बाजीगर
*
- आपका राज्य पिछले वर्षों में बहुत पिछड़ गया है आप अमुक दल की सरकार बनाइये और अपने राज्य को उन्नत राज्यों में सम्मिलित करिये।
- आपका प्रान्त अब तक आगे नहीं बढ़ सका, इसके कसूरवार वे हैं जो खुद को सम्पूर्ण क्रांति का मसीहा कहते रहे किन्तु सरकार बनाने के बाद ऐसे कारनामे किये की माननीय न्यायालय ने उनके चुनाव लड़ने पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया। हमारी पार्टी को मत दें।
- आपका प्रदेश बेरोजगारी का शिकार है, दोषी कौन? वे जो केंद्र में बैठे हैं और आपके प्रदेश के लिए कुछ नहीं करते। हमारे गठबंधन को जिताइए।
मेज पर फैले हैं अखबार और उनमें छपे हैं नेताओं के बयान। एक भी बयान ऐसा नहीं मिला जो कहता हो 'आपके पिछड़ेपन के लिये जिम्मेदार आप खुद हैं। जब तक मेहनत नहीं करेंगे, कुरीतियाँ नहीं छोड़ेंगे, बच्चों को नहीं पढ़ायेंगे, दहेज़ लेना बंद नहीं करेंगे, कानून का पालन नहीं करेंगे आगे नहीं बढ़ सकेंगे। किसी भी दल को चुनें, कोई नेता और कोई दल आपको आगे नहीं बढ़ा सकता। आपको कोई आगे बढ़ा सकता है तो वह हैं आप खुद। उठिए, जागिये और लक्ष्य पाइए। जो आपको भीख में अधिकार और उन्नति देने की बात करते हैं वे जनप्रतिनिधि नहीं हो सकते क्यों की वे हैं सपनों के सौदागर और शब्दों का मायाजाल रचनेवाले बाजीगर।
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laghukatha

लघुकथा:
अट्टहास
*
= 'वाह, रावण क्या खूब जल रहा है?'

- 'तो इसमें ख़ुशी की क्या बात है?'

= ख़ुशी की बात तो है ही. जैसा करा वैसा भर। पाप का फल ऐसा ही होता है.

__ झूठ, बिलकुल झूठ. रावण के पुतले में से आवाज़ आई.

= झूठ क्यों? यही तो सच है.

__ 'यदि यह सच होता तो आज मैं नहीं, इस देश के नेता, अफसर और व्यापारी मुझसे पहले जलते, तुम सब भी आंच में झुलसते और मैं कर रहा होता अट्टहास'

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laghukatha

लघुकथा: 
बाजीगर 
*
- आपका राज्य पिछले वर्षों में बहुत पिछड़ गया है आप अमुक दल की सरकार बनाइये और अपने राज्य को उन्नत राज्यों में सम्मिलित करिये। 

- आपका प्रान्त अब तक आगे नहीं बढ़ सका, इसके कसूरवार वे हैं जो खुद को सम्पूर्ण क्रांति का मसीहा कहते रहे किन्तु सरकार बनाने के बाद ऐसे कारनामे किये की माननीय न्यायालय ने उनके चुनाव लड़ने पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया। हमारी पार्टी को मत दें।

- आपका प्रदेश बेरोजगारी का शिकार है, दोषी कौन? वे जो केंद्र में बैठे हैं और आपके प्रदेश के लिए कुछ नहीं करते। हमारे गठबंधन को जिताइए।

मेज पर फैले हैं अखबार और उनमें छपे हैं नेताओं के बयान। एक भी बयान ऐसा नहीं मिला जो कहता हो 'आपके पिछड़ेपन के लिये जिम्मेदार आप खुद हैं। जब तक मेहनत नहीं करेंगे, कुरीतियाँ नहीं छोड़ेंगे, बच्चों को नहीं पढ़ायेंगे, दहेज़ लेना बंद नहीं करेंगे, कानून का पालन नहीं करेंगे आगे नहीं बढ़ सकेंगे। किसी भी दल को चुनें, कोई नेता और कोई दल आपको आगे नहीं बढ़ा सकता। आपको कोई आगे बढ़ा सकता है तो वह हैं आप खुद। उठिए, जागिये और लक्ष्य पाइए। जो आपको भीख में अधिकार और उन्नति देने की बात करते हैं वे जनप्रतिनिधि नहीं हो सकते क्यों की वे हैं सपनों के सौदागर और शब्दों का मायाजाल रचनेवाले बाजीगर।

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बुधवार, 21 अक्टूबर 2015

urpteksha alankar ke prakar

अलंकार सलिला २३ : उत्प्रेक्षा अलंकार *
* जब होते दो वस्तु में, एक सदृश गुण-धर्म एक लगे दूजी सदृश, उत्प्रेक्षा का मर्म इसमें उसकी कल्पना, उत्प्रेक्षा का मूल. जनु मनु बहुधा जानिए, है पहचान, न भूल.. जो है उसमें- जो नहीं, वह संभावित देख. जानो-मानो से करे, उत्प्रेक्षा उल्लेख.. जब दो वस्तुओं में किसी समान धर्म(गुण) होने के कारण एक में दूसरे के होने की सम्भावना की जाए तब वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है. सम्भावना व्यक्त करने के लिये किसी वाचक शब्द यथा मानो, मनो, मनु, मनहुँ, जानो, जनु, जैसा, सा, सम आदि का उपयोग किया जाता है. उत्प्रेक्षा का अर्थ कल्पना या सम्भावना है. जब दो वस्तुओं में भिन्नता रहते हुए भी उपमेय में उपमान की कल्पना की जाये या उपमेय के उपमान के सदृश्य होने की सम्भावना व्यक्त की जाये तो उत्प्रेक्षा अलंकार होता है. कल्पना या सम्भावना की अभिव्यक्ति हेतु जनु, जानो, मनु, मनहु, मानहु, मानो, जिमी, जैसे, इव, आदि कल्पनासूचक शब्दों का प्रयोग होता है.. उदाहरण: १. चारू कपोल, लोल लोचन, गोरोचन तिलक दिए. लट लटकनि मनु मत्त मधुप-गन मादक मधुहिं पिए.. यहाँ श्रीकृष्ण के मुख पर झूलती हुई लटों (प्रस्तुत) में मत्त मधुप (अप्रस्तुत) की कल्पना (संभावना) किये जाने के कारण उत्प्रेक्षा अलंकार है. २. फूले कांस सकल महि छाई. जनु वर्षा कृत प्रकट बुढाई.. यहाँ फूले हुए कांस (उपमेय) में वर्षा के श्वेत्केश (उपमान) की सम्भावना की गयी है. ३. फूले हैं कुमुद, फूली मालती सघन वन. फूली रहे तारे मानो मोती अनगन हैं.. ४. मानहु जगत क्षीर-सागर मगन है.. ५. झुके कूल सों जल परसन हित मनहुँ सुहाए. ६. मनु आतप बारन तीर कों, सिमिटि सबै छाये रहत. ७. मनु दृग धारि अनेक जमुन निरखत ब्रज शोभा. ८. तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप, उठे न चलहिं लजाइ. मनहुँ पाइ भट बाहुबल, अधिक-अधिक गुरुवाइ.. ९. लखियत राधा बदन मनु विमल सरद राकेस. १०. कहती हुए उत्तरा के नेत्र जल से भर गए. हिम के कणों से पूर्ण मानो हो गए पंकज नए.. ११. उस काल मारे क्रोध के तनु काँपने लगा. मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा.. १२. तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये. झुके कूल सों जल परसन हित मनहु सुहाए.. १३. नित्य नहाता है चन्द्र क्षीर-सागर में. सुन्दरि! मानो तुम्हारे मुख की समता के लिए. १४. भूमि जीव संकुल रहे, गए सरद ऋतु पाइ. सद्गुरु मिले जाहि जिमि, संसय-भ्रम समुदाइ.. १५. रिश्ता दुनियाँ में जैसे व्यापार हो गया। बीते कल का ये मानो अखबार हो गया।। -श्यामल सुमन १६. नाना रंगी जलद नभ में दीखते हैं अनूठे योधा मानो विविध रंग के वस्त्र धारे हुए हैं १७. अति कटु बचन कहति कैकेई, मानहु लोन जरे पर देई १८. दूरदर्शनी बहस ज्यों बच्चे करते शोर 'सलिल' न दें परिणाम ज्यों, बंजर भूमि कठोर

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मंगलवार, 20 अक्टूबर 2015

laghukatha

आलेख :
लघुकथा : एक परिचय
संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
हिंदी साहित्य की लोकप्रिय विधा है. हिंदी साहित्य की अन्य विधाओं की तरह लघुकथा का मूल भी संस्कृत साहित्य में हैं जहाँ बोध कथा, दृष्टान्त कथा, उपदेश कथा के रूप में वैदिक-पौराणिक-औपनिषदिक काल में इसका उपयोग एक अथवा अनेक व्यक्तियों के मानस को दिशा देने के लिये सफलतापूर्वक किया गया. हितोपदेश तथा पंचतंत्र की कहानियाँ, बौद्ध साहित्य की जातक कथाएँ आधुनिक लघुकथा का पूर्व रूप कही जा सकती हैं. लोक आश्रित्य में लघुकथा का अनगढ़ रूप मिलता है. भारतीय पर्वों में महिलाएँ पूजन अथवा व्रत का समापन करते हुए बहुधा कहानियाँ कहतीं है जिनमें लोक हितैषी सन्देश अन्तर्निहित होता है. साहित्यिक दृष्टि से लघुकथा न होते हुए भी ये आमजन के नज़रिये से कम शब्दों में बड़ा सन्देश देने के कारण लघुकथा के निकट कही जा सकती हैं.
आधुनिक लघु कथा:
हिंदी के आधुनिक साहित्य ने लघुकथा को पश्चिम से ग्रहण किया है. आधुनिक लघुकथा में किसी अनुभव अथवा घटना से उपजी टीस और कचोट को गहराई से अनावृत्त अथवा उद्घाटित किया जाता है. पारिस्थितिक वैषम्य, विडम्बना और विसंगति वर्त्तमान लघुकथा को मर्मवेधी बनाती है. लघुकथा में संक्षिप्तता, सरलता तथा मारकता अपरिहार्य है. लघुकथा हास्य नहीं व्यंग्य को पोषित करती है. अभिव्यंजना में प्रतीक और सटीक बिम्बात्मकता लघुकथा को प्रभावी बनाती है.
लघुकथा का इष्ट नकारात्मक आलोचना मात्र नहीं होता, वह सकारात्मक उद्वेलन से यथार्थ का विवेचनकर परोक्ष मार्गदर्शन करती है. विसंगति को इंगित करने का उद्देश्य बिना उपदेश दिए पाठक के अंतर्मन में विसंगति से मुक्त होने का मनोभाव उत्पन्न करना होता है. यहीं लघुकथा उपदेश कथा, बोध कथा अथवा दृष्टान्त कथा से अलग है.
लघुकथा की भाषा सहज-सरल किन्तु ताना-बाना गसा हुआ होना आवश्यक है. एक भी अनावश्यक शब्द लघुकथा के कथ्य को कमजोर बना देता है. लघुकथा जीवन के अल्प कालखंड का अप्रगटित सत्यांश सामने लाती है. लघुकथा की कसौटी लघुता, तीक्ष्णता, लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, कलात्मकता, गहनता, तेवर तथा व्यंजना है. लघुकथा मनोरंजन नहीं मनोमंथन के लिये लिखी जाती है. लघुकथा रुचिपूर्ण हो सकती है, रोचक नहीं।
वर्त्तमान लघुकथा का कथ्य वर्णनात्मक, संवादात्मक, व्यंग्यात्मक, व्याख्यात्मक, विश्लेषणात्मक, संस्मरणात्मक हो सकता है किन्तु उसका लघ्वाकरी और मारक होना आवश्यक है. लघुकथा यथार्थ से जुड़कर चिंतन को धार देती है. लघुकथा प्रखर संवेदना की कथात्मक और कलात्मक अभिव्यक्ति है. लघुकथा यथार्थ के सामान्य-कटु, श्लील-अश्लील, छिपे-नग्न, दारुण-निर्मम किसी रूप से परहेज नहीं करती।
लघुकथा में विषयवस्तु से अधिक महत्त्व प्रस्तुति का होता है. विषयवस्तु पहले से उपस्थित और पाठक को विदित होने पर भी उसकी प्रस्तुति ही पाठक को उद्वेलित करती है. प्रस्तुति को विशिष्ट बनती है लघुकथाकार की शैली और कथ्य का शिल्प। लघुकथा की रचना में शीर्षक भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है. शीर्षक ही पाठक के मन में कौतूहल उत्पन्न करता है. शिल्प को प्लेटो ने संरचना, कथ्य और कार्य के चरित का योग (total of structure, meaning and character of the work as a whole) कहा है. लघुकथा विसंगति को पहचानती-इंगित करती है, उसका उपचार नहीं करती। कहानी के आवश्यक तत्व कथोपकथन, चरित्रचित्रण, पृष्भूमि, संवाद आदि लघुकथा में नहीं होते।
हिंदी की लघुकथा में अंग्रेजी की 'शॉर्ट स्टोरी' और 'सैटायर' के तत्व देखे जा सकते हैं किन्तु उसे 'कहानी का सार तत्व' नहीं कहा जा सकता। लघुकथा एक प्रयोगधर्मी विधा है किन्तु असामाजिक अनुभवों की अभिव्यक्ति का साधन नहीं। लघुकथा किसी के उपहास का माध्यम भी नहीं है.
सशक्त लघुकथा अधिक शब्दों की नहीं, बात को सामने रखने के सही तरीके की माँग करती है.
आनंद लें कुछ अच्छी लघुकथाओं का-
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1. काजी का घर -सआदत हसन मंटो 
एक गरीब भूखा काजी के घर गया, कहने लगा: 'मैं भूखा हूँ, मुझे कुछ दो तो मैं खाऊँ।'
काजी ने कहा: 'यह काजी का घर है, कसम खा और चला जा.'
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2. सहानुभूति 
खलील जिब्रान 
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शहर भर की नालियां और मैला साफ़ करने वाले आदमी को देख दार्शनिक महोदय ठहर गए.
"बहुत कठिन काम है तुम्हारा ! यूँ गंदगी साफ़ करना. कितना मुश्किल होता होगा ! दुःख है मुझे ! मेरी सहानुभूति स्वीकारो. " दार्शनिक ने सहानुभूति जताते हुए कहा.
"शुक्रिया हुज़ूर !" मेहतर ने जवाब दिया.
"वैसे आप क्या करते हैं ?" उसने दार्शनिक से पूछा.
" मैं ? मैं लोगों के मस्तिष्क पढ़ता हूँ ! उन के कृत्यों को देखता हूँ ! उन की इच्छाओं को देखता हूँ ! विचार करता हूँ ! " दार्शनिक ने गर्व से जवाब दिया.
"ओह ! मेरी सहानुभूति स्वीकारें जनाब !" मेहतर का जवाब आया.
[खलील जिब्रान की 'सैंड एंड फ़ोम' से]
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3. खुशामद -भारतेंदु हरिश्चन्द्र 
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एक नामुराद आशिक से किसी ने पूछा, 'कहो जी, तुम्हारी माशूका तुम्हें क्यों नहीं मिली।'
बेचारा उदास होकर बोला, 'यार कुछ न पूछो! मैंने इतनी खुशामद की कि उसने अपने को सचमुच ही परी समझ लिया और हम आदमियों से बोलने में भी परहेज किया।'
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4. मुँह तोड़ जवाब - भारतेन्दु हरिश्चंद्र
एक ने कहा: ' न जाने इस लड़के में इतनी बुरी आदतें कहाँ से आयीं? हमें यकीन है इसने कोई बुरी बात हमसे नहीं सीखी।'
लड़का झट से बोल उठा: 'बहुत ठीक है क्योंकि हमने आपसे बुरी आदतें पाई होतीं तो आपमें बहुत सी कम हो जातीं।'
लघुकथा:
5. एकलव्य - संजीव वर्मा 'सलिल'
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?' 
-हाँ बेटा.' 
- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
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३. तोता-मैना - प्रज्ञा पाठक
तोता और मैना प्रेम-वार्ता में तल्लीन थे. मैना मान भरे स्वर में बोली: 'शादी के बाद मुझे बड़ा सा घर बनवा दोगे ना?'
तोते ने मनुहार के स्वर में कहा: 'प्रिये! हम छोटे से घर को अपने असीम प्रेम से बड़ा बना देंगे।'
यह सुनते ही मैना फुर्र से उड़कर दूसरे तोते की बगल में जा बैठी।
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laghukatha

लघुकथा:
जले पर नमक
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- 'यार! ऐसे कैसे जेब कट गयी? सम्हलकर चला करो.'
= 'कहते तो ठीक हो किन्तु कितना भी सम्हलकर चलो, कलाकार हाथ की सफाई दिखा ही देता है.'
- 'ऐसा कहकर तुम अपनी असावधानी पर पर्दा नहीं डाल सकते।'
= 'पर्दा कौन कम्बख्त डाल रहा है? जेबकतरे तो पूरी जनता जनार्दन की जेब काट रहे हैं पिछले ६७ सालों से कौन रोक पाया और कौन बच पाया?'
- 'तुम किस की बात कर रहे हो ?'
=' उन्हें की जो चुनाव की चौपड़ पर आश्वासन के पांसे फेंककर जनमत की द्रौपदी का दिल्ली के दरबार में दिन दहाड़े चीरहरण ही नहीं करते, प्यादों को शह देकर दाल, प्याज जैसी चीजों की जमाखोरी कर कई गुना ऊँचे दामों पर बिकवाकर जन गण की जेब कतरते रहते हैं. इतना ही नहीं दु:शासनी जनविरोधी नीतियों के पक्ष में दूरदर्शन पर गरज-गरज कर जन के जले मन पर नमक भी छिड़कते हैं.'
-'तुमसे तो कुछ कहना ही बेकार है .....'
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सोमवार, 19 अक्टूबर 2015

mahiya



वरिष्ठ लेखक और  प्रसिद्ध शायर हैं और इन दिनों ब्रिटेन में अवस्थित हैं। आप ग़ज़ल के जाने मानें उस्ता दों में गिने  जाते हैं। आप के "गज़ल कहता हूँ' और 'सुराही' - दो काव्य संग्रह प्रकाशित हैं, साथ ही साथ अंतर्जाल पर भी आप सक्रिय हैं।

माहिया" पंजाब का प्रसिद्ध  लोकगीत है। इसमें श्रृंगार रस के दोनोंपक्ष संयोग और वियोग की परम्पराहै किंतु अब अन्य रस  शामिल किये जाने लगे हैं। इस छंद में प्रेमी प्रेमिका की नोंक- झोंक भी होती है। यह तीन पंक्तियों का छंद है। पहली और तीसरी पंक्ति में बारह मात्राएँ यानि 2211222 दूसरी पंक्ति में दस मात्राएँ यानि 211222 होती हैं। तीनों पंक्तियों में सारे गुरु (2)  सकते हैं।

माहिया:

इसकी परिभाषा से
हम अनजान रहे
जीवन की भाषा से

सब कुछ पढ़कर देखा
पढ़ न सके लेकिन
जीवन की हम रेखा

आँखों में पानी है
हर इक प्राणी की
इक राम कहानी है

भावुकता में खोना
चलता आया है
मन का रोना-धोना

उड़ते गिर जाता है
कागज़ का पंछी
कुछ पल ही भाता है

नभ के बेशर्मी से
सड़कें पिघली हैं
सूरज की गर्मी से

कुछ ऐसा लगा झटका
टूट गया पल में
मिट्टी का इक मटका

हर बार नहीं मिलती
भीख भिखारी को
हर द्वार नहीं मिलती

सागर में सीप न हो
यह तो नहीं मुमकिन
मंदिर में दीप न हो

हर कतरा पानी है
समझो तो जानो
हर शब्द कहानी है

क्यों मुंह पे ताला है
चुप---चुप है राही
क्या देश- निकाला है

हर बार नहीं करते
अपनों का न्यौता
इनकार नहीं करते
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laghu katha :

लघुकथाः 
जेबकतरे :

= १९७३ में एक २० बरस के लड़के ने जिसे न अनुभव था, न जिम्मेदारी २८०/- आधार वेतन पर नौकरी आरंभ की। कुल वेतन ३७५/- , सामान्य भविष्य निधि कटाने के बाद ३५०/- हाथ में आते थे जिससे पौने तीन तोले सोना खरीदा जा सकता था। लड़का ही नहीं परिवारजन भी खुश, शादी के अनेक प्रस्ताव, ख़ुशी ही ख़ुशी । 

= ४० साल नौकरी  और अधिकतम पारिवारिक जिम्मेदारियों और अनुभव के बाद सेवानिवृत्ति के समय वेतन ३५०००/-  जिसमें डेढ़ तोला सोना आता है। पेंशन और कम, अधिकतम योग्यता, कार्य अनुभव और पारिवारिक जिम्मेदारियों के बावजूद  क्रय क्षमता में कमी.... ४० साल लगातार जेबकतरे जाने का अहसास अब रूह को कँपाने लगा है, बेटी के लिये नहीं मिलते उचित प्रस्ताव, दाल-प्याज-दवाई  जैसी  रोजमर्रा की चीजों के दाम आसमान पर और हौसले औंधे मुँह जमीन पर फिर भी पकड़ में नहीं आते जेबकतरे 

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रविवार, 18 अक्टूबर 2015

नवगीत:

एक रचना: मेरी आतुर आँखों में हैं * मेरी आतुर आँखों में हैं सपना मैं भी लौटा पाऊँ कभी कहीं तो एक इनाम। * पहला सुख सूचना मिलेगी कोई मुझे सराह रहा. मुझे पुरस्कृत करना कोई इस दुनिया में चाह रहा. अपने करते रहे तिरस्कृत सदा छिपाया कड़वा सच- समाचार छपवा सुख पाऊँ खुद से खुद कह वाह रहा. मेरी आतुर आँखों में हैं नपना, छपता अख़बारों में मैं भी देख सकूँ निज नाम। * दूजा सुख मैं लेने जाऊँ पुरस्कार, फूले छाती. महसूसूं बिन-दूल्हा-घोड़ा मैं बन पाया बाराती. फोटू खिंचे-छपे, चर्चा हो बिके किताब हजारों में भाषण - इंटरव्यू से गर्वित हों मेरे पोते-नाती। मेरी आतुर आँखों में हैं समारोह करतल ध्वनि सभागार की दिलकश शाम। * तीजा सुख मैं दोष किसी को दे, सिर ऊँचा कर पाऊँ. अपनी करनी रहूँ छिपाये दोष अन्य के गिनवाऊँ. चुनती जिसे करोड़ों जनता मैं उसको ही कोसूँगा- अहा! विधाता सारी गड़बड़ मैं उसके सर थोपूँगा. मेरी आतुर आँखों में हैं गर्वित निज छवि, देखूँ उसका मिटता नाम। *