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रविवार, 20 अप्रैल 2014

chhand salila: arun chhand -sanjiv

छंद सलिला:
अरुण छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति महादैशिक , प्रति चरण मात्रा २० मात्रा, चरणांत गुरु लघु गुरु (रगण), यति ५-५-१०


लक्षण छंद:
शिशु अरुण को नमन कर ;सलिल; सर्वदा 
मत रगड़ एड़ियाँ मंज़िलें पा सदा 
कर्म कर, ज्ञान वर, मन व्रती पारखी   
एक दो एक पग अंत में हो सखी 
 
उदाहरण:
१. प्रेयसी! लाल हैं उषा से गाल क्यों
   मुझ अरुण को कहो क्यों रही टाल हो?
   नत नयन, मृदु बयन हर रहे चित्त को-
   बँधो भुज पाश में कहो क्या हाल हो?
  
२. आप को आप ने आप ही दी सदा
    आप ने आप के भाग्य में क्या लिखा"
    व्योम में मोम हो सोम ढल क्यों गया?
    पाप या शाप चुक, कल उगे हो नया 
 
 ३. लाल को गोपियाँ टोंकती ही रहीं 
    'बस करो' माँ उन्हें रोकती ही रहीं 
    ग्वाल थे छिप खड़े, ताक में थे अड़े
    प्रीत नवनीत से भाग भी थे बड़े 
    घर गयीं गोपियाँ आ गयीं टोलियाँ 
    जुट गयीं हट गयीं लूटकर मटकियाँ
    
      *********************************************

(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसगति, हंसी)
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in

chhand salila: - sanjiv


छंद सलिला:
शास्त्र छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति महादैशिक , प्रति चरण मात्रा २० मात्रा, चरणांत गुरु लघु (तगण, जगण)


लक्षण छंद:
पढ़ो उठकर शास्त्र समझ-गुन कर याद 
रचो सुमधुर छंद याद रख मर्याद
कला बीसी रखें हर चरण पर्यन्त
हर चरण में कन्त रहे गुरु लघु अंत
उदाहरण:
१. शेष जब तक श्वास नहीं तजना आस
   लक्ष्य लाये पास लगातार प्रयास 
   शूल हो या फूल पड़े सब पर धूल
   सम न हो समय प्रतिकूल या अनुकूल
  
२. किया है सच सचाई को ही प्रणाम
    हुआ है सच भलाई  का ही सुनाम
    रहा है समय का ईश्वर भी गुलाम   
    हुआ बदनाम फिर भी मिला है नाम 

३. निर्भय होकर वन्देमातरम बोल 
    जियो ना पीटो लोकतंत्र का ढोल
    कर मतदान, ना करना रे मत-दान
    करो पराजित दल- नेता बेइमान
 *********************************************
विशेष टिप्पणी : 
हिंदी के 'शास्त्र' छंद से उर्दू के छंद 'बहरे-हज़ज़' (मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन) की मुफ़र्रद बह्र 'मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईल' की समानता देखिये. 
उदाहरण: 
१. हुए जिसके लिए बर्बाद अफ़सोस 
   वो करता भी नहीं अब याद अफ़सोस
२. फलक हर रोज लाता है नया रूप 
    बदलता है ये क्या-क्या बहुरूपिया रूप
३. उन्हें खुद अपनी यकताई पे है नाज़
    ये हुस्ने-ज़न है सूरत-आफ़रीं से
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसगति, हंसी)
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शनिवार, 19 अप्रैल 2014

chhand salila: yog chhand -sanjiv

छंद सलिला:
योग छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति महादैशिक , प्रति चरण मात्रा २० मात्रा, यति १२ - ८, चरणांत लघु गुरु गुरु (यगण).


लक्षण छंद:
योग छोड़ और कहाँ, राह मिलेगी?
यति बारह-आठ रखो, वाह मिलेगी 
लघु गुरु गुरु अंत रहे, छाँह मिलेगी
टेर देव को समीप, बांह मिलेगी

उदाहरण:
१. हम सब हैं एक भेद-भाव तजो रे
   धूप-छाँव भूल राम-नाम भजो रे
   फूल-शूल जो भी हो, प्रसाद गहो रे
   निर्मल जल धार सदृश, शांत बहो रे 
  
२. भारत सी पुण्य भूमि और नहीं है
    धरती पर स्वर्ग कहीं खोज- यहीं है
    तरसें भगवान जन्म हिन्द में मिले 
    गीता सा ग्रन्थ बोल और कहीं है?

३. लेकर क्या आये थे? सोच बताओ 
    लेकर क्या जाओगे? जोड़-घटाओ
    जोड़ो या छोडो कुछ शेष न होगा
    रिश्वत ले पाप व्यर्थ अब न कमाओ 
 
 *********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसगति, हंसी)
Sanjiv verma 'Salil'
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deewar hi deewar

विषय एक पहलू अनेक : 

दीवार ही दीवार 

*

एक विषय पर विविध रचनाकारों की काव्य पंक्तियों को प्रस्तुत करने का उद्देश्य उस विषय के विविध पहलुओं को जानने के साथ-साथ बात को कहने के तरीके और सलीके को समझना भी है. आप भी इस विषय पर अपनी बात कहें और इसे अधिक समृद्ध बनायें। सामान्यतः उर्दू में दो पंक्तियों में बात कहने की सशक्त परंपरा है।क्या हिंदी कवि खुद को इस कसौटी पर कसेंगे? (आभार नवीन चतुर्वेदी, साहित्यं)

हवा आयेगी आग पहने हुए
समा जायेगी घर की दीवार में – स्वप्निल तिवारी ‘आतिश’
*
पता तो चले कम से कम दिन तो है
झरोखा ये रहने दो दीवार में – याक़ूब आज़म
*
न परदा ही सरका, न खिड़की खुली
ठनी थी गली और दीवार में – गौतम राजरिशी
*
पहाड़ों में खोजूँगा झरना कोई
मैं खिड़की तलाशूँगा दीवार में – सौरभ शेखर
*
पसे-दर मकां में सभी अंधे हैं
दरीचे हज़ारों हैं दीवार में – खुर्शीद खैराड़ी
पसेदर – दरवाज़े के पीछे, दरीचा – खिड़की
*
हवा, रौशनी, धूप आने लगें
खुले इक दरीचा जो दीवार में – अदील जाफ़री
*
हरिक संग शीशे सा है इन दिनों
नज़र आता है मुँह भी दीवार में – मयंक अवस्थी
संग – पत्थर
*
फिर इक रोज़ दिल का खँडर ढह गया
नमी थी लगातार दीवार में – नवनीत शर्मा
*
नदी सर पटकती रही बाँध पर
नहीं राह मिल पाई दीवार में – दिनेश नायडू
*
खुला भेद पहली ही बौछार में
कई दर निकल आये दीवार में – इरशाद ख़ान सिकन्दर
*
उदासी भी उसने वहीं पर रखी
ख़ुशी का जो आला था दीवार में – शबाब मेरठी
*
ये छत को सहारा न दे पायेगी
अगर इतने दर होंगे दीवार में – आदिक भारती
*
फ़क़त एक दस्तक ही बारिश ने दी
दरारें उभर आईं दीवार में – विकास शर्मा ‘राज़’
*
कोई मौज बेचैन है उस तरफ़
लगाये कोई नक़्ब दीवार में – पवन कुमार
मौज – लहर, नक़्ब – सेंध
*
मुहब्बत को चुनवा के दीवार में
कहां ख़ुश था अकबर भी दरबार में – शफ़ीक़ रायपुरी
*
फिराती रही वहशते-दिल मुझे
न दर में रहा और न दीवार में – असलम इलाहाबादी
*
दबाया था आहों को मैंने बहुत
दरार आ गयी दिल की दीवार में – तुफ़ैल चतुर्वेदी
*
दरीचों से बोली गुज़रती हवा
कोई दर भी होता था दीवार में – आदिल रज़ा मंसूरी
*
मिरे इश्क़ का घर बना जब, जुड़ी
तिरे नाम की ईंट दीवार में – प्रकाश सिंह अर्श
*
दरो-दीवार पर हसरत की नज़र करते हैं 
खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं. -संकलित 
*
सारे शहर में दिख रहीं दीवार ही दीवार 
बंद खिड़कियां हुईं हैं, बंद है हर द्वार 
कैसे रहेगा खुश कोई यह तो बताइये 
दीवार से कैसे करे इसरार या तकरार -संजीव
*
 
 
 

 

chhand salila: kamini mohan / madan avtar chhand -sanjiv

छंद सलिला:
कामिनीमोहन (मदनअवतार) छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति महादैशिक , प्रति चरण मात्रा २० मात्रा तथा चार पंचकल, यति५-१५.

लक्षण छंद:
कामिनी, मोहिनी मानिनी भामनी 
फागुनी, रसमयी सुरमयी सावनी
पाँच पंद्रह रखें यति मिले गति 'सलिल'
चार पँचकल कहें मत रुको हो शिथिल

उदाहरण:
१. राम को नित्य भज भूल मत बावरे
   कर्मकर धर्म वर हों सदय सांवरे    
   कौन है जो नहीं चाहता हो अमर
   पानकर हलाहल शिव सदृश हो निडर

२. देश पर जान दे सिपाही हो अमर
    देश की जान लें सेठ -नेता अगर
    देश का खून लें चूस अफसर- समर 
    देश का नागरिक प्राण-प्राण से करे 
    देश से सच 'सलिल' कवि कहे बिन डरे 
    देश के मान हित जान दे जन तरे

३. खेल है ज़िंदगी खेलना है हमें
    मेल है ज़िंदगी झेलना है हमें
    रो नहीं हँस सदा धूप में, छाँव में
    मंज़िलें लें शरण, आ 'सलिल' पाँव में
*********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसगति, हंसी)

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

chitra par kavita: sanjiv

​चित्र पर कविता
संजीव
*


भगा साथियों को दिया, किन्तु न भागा आप
मधुर-मधुर मुस्कान से, हर मैया का ताप
कान खिंचा मुस्का रहा, ब्रिज का माखनचोर
मैया भूली डाँटना, होकर भाव विभोर
*
अग्निहोत्र नभ ने किया, साक्षी देते मेघ
मिलीं लालिमा-कालिमा, गले भूलकर भेद
आया आम चुनाव क्या?, केर-बेर का संग
नित नव गठबंधन करे, खिले नये गुल-रंग
*
फेरे सात लगा लिये, कदम-कदम रख साथ
कर आये मतदान भी, लिए हाथ में हाथ
करते हैं संकल्प यह, जब भी हों मतभेद
साथ बैठ सुलझाएँगे, 'सलिल' न हो मनभेद
*



मुस्कुराती रहो, खिलखिलाती रहो,
पंछियों की तरह गीत गाती रहो
जो तुम्हें भा रहा, है दुआ यह मेरी-
तुम भी उसको सदा खूब भाती रहो
*
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'

गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

hansgati chhand: sanjiv

छंद सलिला: हंसगति छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति महादैशिक , प्रति चरण मात्रा २० मात्रा, यति ११-९, चरणांत गुरु लघु लघु (भगण) होता है.


लक्षण छंद:
रचें हंसगति छंद, बीस मात्रा रख
गुरु लघु लघु चरणान्त, हर चरण में लख 
यति ग्यारह-नौ रहे, मधुर हो गायन
रच मुक्तक कवि करे, सतत पारायण

उदाहरण:
१. प्रजा तंत्र का अनुष्ठान है पावन
   जनमत संग्रह महायज्ञ मनभावन
   करी समर्पित मत-समिधा हमने मिल
   लोकतंत्र शतदल सकता तब ही खिल 

२. मिले सफलता तभी करो जब कोशिश
    मिटे विफलता तभी करो जब कोशिश
    रमा रहे मन सदा राम में बेशक
    लगा रहे तन सदा काम में बेशक

३. अन्य समय का देख उबलता सूरज
    पले पंक में अमल महकता नीरज
    काम अहर्निश करिए तजकर आलस
    मिले सफलता कर न गर्व प्रभु को भज
*********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसगति, हंसी)

chitr par kavita -sanjiv

चित्र पर कविता:
संजीव
*

श्वास तुला है आस दण्डिका, दोनों पल्लों पर हैं श्याम
जड़ में वही समाये हैं जो खुद चैतन्य परम अभिराम
कंकर कंकर में शंकर वे, वे ही कण-कण में भगवान-
नयन मूँद, कर जोड़ कर 'सलिल', आत्मलीन हो नम्र प्रणाम
*

व्यथा--कथा यह है विचित्र हरि!, नहीं कथा सुन-समझ सके
इसीलिए तो नेता-अफसर सेठ-आमजन भटक रहे
स्वयं संतगण भी माया से मुक्त नहीं, कलिकाल-प्रभाव-
प्रभु से नहीं कहें तो कहिये व्यथा ह्रदय की कहाँ कहें?
*

सूर्य छेडता उषा को हुई लाल बेहाल
क्रोधित भैया मेघ ने दंड दिया तत्काल
वसुधा माँ ने बताया पलटा चिर अनुराग-
गगन पिता ने छुड़ाया आ न जाए भूचाल
*


सेतु दूरियों को मिटा, जोड़ किनारे मौन
जोड़-जोड़ दिल टूटते, कहिए जोड़े कौन?
*


वन काटे, पर्वत मिटा, भोग रहे अभिशाप
उफ़न-सूख नदिया कहे, बंद करो यह पाप
रूठे प्रभु केदार तो मनुज हुआ बेज़ार-
सुधर न पाया तो असह्य, होगा भू का ताप
*

मोहन हो गोपाल भी, हे जसुदा के लाल!
तुम्हीं वेणुधर श्याम हो, बाल तुम्हीं जगपाल
कमलनयन श्यामलवदन, माखनचोर मुरार-
गिरिधर हो रणछोड़ भी, कृष्ण कान्ह इन्द्रारि।
*

हममें प्रभु का वास है, भूल रहे क्यों काट?
याद रखो हो रही है, खड़ी तुम्हारी खाट
वृक्ष बिना दे ओषजन, कौन तुम्हें बिन दाम?
मिटा वंश, है शाप यह, वंशज आये न काम
मुझ जैसे तुम अकेले, पा न सकोगे चैन
छाँह न बाकी रहेगी, रोओगे दिन-रैन
*

kshanikayen: poornima barman

चित्र-चित्र क्षणिका :
पूर्णिमा बर्मन

पूर्णिमा जी समकालिक हस्ताक्षरों में महत्वपूर्ण स्थान की अधिकारिणी हैं अपने रचना कर्म और हिंदी प्रसार दोनों के लिए. उनके पृष्ठ से साभार प्रस्तुत हैं कुछ क्षणिकाएँ>
फ़ोटो: इस अकेली शाम का
मतलब न पूछो
सर्द मौसम
और फैला दूर तक
एकांत सागर
एक पुल
थामे हुए हमको हमेशा -पूर्णिमा वर्मन

इस अकेली शाम का
मतलब न पूछो
सर्द मौसम
और फैला दूर तक
एकांत सागर
एक पुल
थामे हुए हमको हमेशा 

-
फ़ोटो: बदला मौसम गर्म हवाएँ
फागुन बीता जाए
दोपहरी की 
सुस्ती हल्की
बार बार दुलराए -पूर्णिमा वर्मन
बदला मौसम गर्म हवाएँ
फागुन बीता जाए
दोपहरी की
सुस्ती हल्की
बार बार दुलराए 
*
फ़ोटो: फिर वही वेवक्त बारिश
रात गहरी
नम फुहारें
भीगती सड़कें
हवा के सर्द झोंके
रुकें...
रुक रुक के पुकारें - पूर्णिमा वर्मन
फिर वही वेवक्त बारिश
रात गहरी
नम फुहारें
भीगती सड़कें
हवा के सर्द झोंके
रुकें...
रुक रुक के पुकारें - 
*
फ़ोटो: खिड़कियों के पार 
उजला फागुनी मौसम
गर्म दोपहरी 
नींद का झोंका 
गुनगुना की-बोर्ड, 
फिर से
काम की चोरी -पूर्णिमा वर्मन
खिड़कियों के पार
उजला फागुनी मौसम
गर्म दोपहरी
नींद का झोंका
गुनगुना की-बोर्ड,
फिर से
काम की चोरी 
*
फ़ोटो: दौड़ना हर रोज 
नंगे पाँव सागर के किनारे
आसमानों से गुजरना
पानियों पर नजर रखना
एक पूरा जनम जैसे
रोज जीना -पूर्णिमा वर्मन
दौड़ना हर रोज
नंगे पाँव सागर के किनारे
आसमानों से गुजरना
पानियों पर नजर रखना
एक पूरा जनम जैसे
रोज जीना 

बुधवार, 16 अप्रैल 2014

geet: jevan ke dhaee aakhar ko -sanjiv

​गीत:
माननीय राकेश खण्डेलवाल जी को समर्पित

जीवन के ढाई आखर को
संजीव
*
बीती उमर नहीं पढ़ पाये, जीवन के ढाई आखर को
गृह स्वामी की करी उपेक्षा, सेंत रहे जर्जर बाखर को...
*
रूप-रंग, रस-गंध चाहकर, खुदको समझे बहुत सयाना
समझ न पाये माया-ममता, मोहे मन को करे दिवाना
कंकर-पत्थर जोड़ बनायी मस्जिद,  जिसे टेर हम हारे-
मन मंदिर में रहा विराजा, मिला न लेकिन हमें ठिकाना
निराकार को लाख दिये आकार न छवि उसकी गढ़ पाये-
नयन मुँदे मुस्काते  पाया कण-कण में उस नटनागर को...
*
श्लोक-ऋचाएँ, मंत्र-प्रार्थना, प्रेयर सबद अजान न सुनता
भजन-कीर्तन,गीत-ग़ज़ल रच, मन अनगिनती सपने बुनता
पूजा-अनुष्ठान, मठ-महलों में रहना कब उसको भाया-
मेवे छोड़ पंजीरी फाके, देख पुजारी निज सर धुनता
खाये जूठे बेर, चुराये माखन, रागी किन्तु विरागी
एक बूँद पा तृप्त हुआ पर है अतृप्त पीकर सागर को...
*
अर्थ खोज-संचित कर हमने, बस अनर्थ ही सदा किया है
अमृत की कर चाह गरल का, घूँट पिलाया सतत पिया है
लूट तिजोरी दान टेक का कर खुद को पुण्यात्मा माना-
विस्मित वह पाखंड देखकर मनुज हुआ पाषाण-हिया है
कैकट्स उपजाये आँगन में, अब तुलसी पूजन हो कैसे?
देश
​ ​
निकाला दिया हमीं ने चौपालों
​ ​
पनघट गागर को
​...
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'

मंगलवार, 15 अप्रैल 2014

sansmaran: difficult to understand india -dr. ram prakash saxena


डॉ. रामप्रकाश सक्सेना वर्धा हिंदी शब्दकोश के संपादक नियुक्त हुए ‘महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति ने वर्धा हिंदी शब्दकोश’ का प्रधान संपादक डॉ. रामप्रकाश सक्सेना को नियुक्त किया है. देश में वर्तमान भाषाविदों और कोशविज्ञानियों बद्रीनाथ कपूर, अरविंद कुमार, विमलेशकांति वर्मा, महावीर सरन जैन के अलावा कई कोशकार और भाषाविद मौजूद हैं, बद्रीनाथ कपूर ने कई कोश बनाए हैं, अरविंद कुमार का ‘अरविंद सहज समांतर कोश’ बहुत लोकप्रिय हुआ। विमलेशकांति वर्मा ने तीन कोश तैयार किए- ‘बल्गारियन हिंदी शब्दकोश’, ‘लरनर हिंदी-इंग्लिश डिक्शनरी’ और ‘लरनर हिंदी-इंग्लिश थीमेटिक विज्युअल डिक्शनरी’। महावीर सरन जैन देश के प्रतिष्ठित भाषाविद हैं। डॉ. सक्सेना पूर्व में हो चुके कार्यों की तुलना में अधिक उपयोगी शब्दकोश बना सकेंगे यही आशा है. शब्द विज्ञान में रूचि रखनेवाले सज्जन डॉ. सक्सेना से संपर्क कर उन्हें सहयोग दें तो कार्य अधिक व्यापक और बहुआयामी हो सकेगा।
हार्दिक बढ़ाई और शुभ कामनाएँ।
डॉ. रामप्रकाश सक्सेना जी का संपर्क - https://www.facebook.com/drramprakash.saxena
वर्धा हिंदी कोश - http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=3159&pageno=1

प्रस्तुत है एक मार्मिक संस्मरण जो भारत की गंगो-जमुनी सभ्यता की विरासत को सामने लाकर पंथ और राजनीति का विष घोल रही आबोहवा को शुद्ध करने  का ज़ज़्बा पैदा करता है. 
संस्मरण:                                                                                                                                    Ram Prakash Saxena
डिफि़कल्ट टु अंडस्टैंड इंडिया

      डॉ. रामप्रकाश सक्सेना
मैं अमेरिका में अठारह वर्ष की आयु से ही हायर एज्युकेशन के लिए आ गया था। आया तो था भारत वापस लौटने के लिए, पर क्या किया जाय? यहीं नौकरी भी मिल गर्इ और मैं यहीं का होकर रह गया। शादी भी ऐसी लड़की से हो गर्इ, जो हिंदुस्तानी तो थी, पर यहीं पली-बढ़ी। मेरी माँ का स्वर्गवास तो मेरे बचपन में ही हो गया था जब मैं केवल दस वर्ष का था। मेरे पिता ने मेरी ख़ातिर दूसरा विवाह नहीं किया, जब कि उस ज़माने में हिंदुस्तान में तो यह आम बात थी। मेरा पालन-पोषण मेरी एक विधवा बुआ ने किया। मेरे पिता व मेरी बुआ ने मेरी परवरिश इतने लाड़-प्यार से की कि कभी मुझे माँ की कमी महसूस नहीं हुर्इ।
जब बुआ का देहांत हो गया और पिता भी रिटायर हो गए, तो उन्हें काफ़ी हार-मनुहार से अमेरिका ले आया। मैं लाया तो इस शर्त पर था कि यदि उनका मन नहीं  लगा तो वे भारत वापस चले जाएँगे। पर शुरू में प्रतिवर्ष, फिर धीरे-धीरे एक-दो वर्ष बाद और फिर लगभग नहीं के बराबर ही भारत जाना हो गया। सच्चार्इ तो यह थी कि वे अपने पौत्र व पौत्री में इतने रम गए कि उन्हें भारत आने की ज़रूरत नहीं महसूस हुर्इ। बच्चे भी इतने ख़ुश थे कि वे किसी भी शर्त पर अपने बाबा को अपनी आँखों  से ओझल होने देना नहीं चाहते थे।
चूँकि हम पति-पत्नी दोनों ही नौकरी करते थे, इसलिए पिताजी की ज़रूरत हमें हमेशा हीं रहती थी। पिताजी ने बच्चों को न केवल पढ़ाया, बलिक उनको भारतीय संस्कार इतने अधिक दे दिए कि हमारे बच्चे संस्कारों  में मुझसे भी अधिक भारतीय हो गए।
पिता जी को बुढ़ापे ने घेर लिया। अब उनके पौत्र-पौत्री भी बड़े हो गए थे। उनको भी लगने लगा कि अब वह कुछ महीनों के ही मेहमान हैं । कर्इ बार हम अपनी माँ के बारे में उनसे पूछा करते थे। माँ के बारे में बताते-बताते वे भावुक हो जाते और इसीलिए उनकी बात कभी पूरी नहीं हो पाती। मैं भी इस कारण आगे बताने की जि़द न करता, क्योंकि इससे उन्हें दुख पहुँचता  था।
एक दिन शाम को मेरे आफि़स से आने के बाद उन्होंने मुझे कुछ घटनाएँ बताईं । उन्होंने बताया कि मेरे पैदा होने के बाद मेरी माँ को टी. बी. तथा बाद में पीलिया हो गया था। डाक्टर ने यह सलाह दी थी कि बच्चे को माँ का दूध न पिलाया जाए। उन परिसिथतियों में मेरा जीवित रहना ही र्इश्वर का एक करिश्मा ही हो सक्ता था। मेरे पिता के अभिन्न मित्र, जो कि मुसिलम थे, को भी उन्हीं दिनों एक पुत्र रत्न की प्रापित हुर्इ थी। मेरी हालत देख कर मुसलमान मित्र की पत्नी ने मेरे माँ-बाप को बताया कि वह उनके बच्चे को दूध पिला दिया करेंगी।
माँ ने इस ऑफर  को यह कह कर ठुकरा दिया, ''तुम गाय का मांस खाती हो।
मेरी हालत ख़राब होती गर्इ और मैं  मरणासन्न हो गया। फिर भी, माँ अपने संस्कारों के कारण नहीं पिघलीं। अंत में मुसिलम चाची को ही पिघलना पड़ा। उन्होंने माँ से कहा, 'मैं 'क़ुरान-ए-पाक की क़सम खाती हूँ कि मैं गाय का मांस नहीं खाऊँगी। अब तो मुझे दूध पिलाने दो।'
मेरे पिताजी के समझाने पर मेरी माँ मान गर्इं और मैं बच गया।
पिताजी बताया करते थे, ''जब भी मैं गाँव जाता, तब तुम्हारी चाची तुम्हारे बारे में हमेशा पूछा करतीं। तुम्हारी एक फ़ोटो भी उनके पास है। मैं मज़ाक में कहता- भाभी वह तुम्हारा ही बेटा है। वे बड़े गर्व से उत्तर देतीं -आखि़र मैंने उसे अपना दूध पिलाया है।'' इतना कहते-कहते पिता जी इतने भावुक हो गए कि कुछ देर तक कुछ न बोल सके । कुछ देर बाद उन्होंने मुझ से कहा, 'मेरी इच्छा हैं कि तुम एक बार उनसे अवश्य मिल लेना। कुछ हो सके तो कर देना। वैसे वे बहुत खुददार हैं। फिर भी शायद मान जाएँ।  मेरे दोस्त रहमत मियाँ के पास ज़मीन तो बहुत अधिक नहीं थी, पर अपनी मेहनत से इतना कमा लेते थे कि गुज़र-बसर मज़े से हो जाता था।  बुढ़ापे के कारण वे तो मेहनत कर नहीं पाते और लड़का सातवीं कक्षा के आगे पढ़ नहीं पाया और किसानी मन लगाकर करता नहीं है। इसलिए घर की माली हालत ख़राब है।  मैं ने कर्इ बार मदद करने की कोशिश की, पर न तो मेरा दोस्त तैयार हुआ  और ना ही भाभी। ज्यादातर हिंदुस्तानी गरीब तो हैं, पर खुददार इतने कि भूखों मर जाएँगे , पर किसी के आगे हाथ नहीं फैलाएँगे।
कहते कहते पिताजी का गला फिर अवरुद्ध हो गया और कुछ बोल न सके। मैंने भी बात को आगे न बढ़ाते हुए उनसे वादा किया कि मैं एक बार उनसे ज़रूर मिल लूँगा। 
पिताजी ने कहा, ''इच्छा तो मेरी यही थी कि मैं भी एक बार गाँव जाऊँ और वही मरूँ।" 
मैंने कहा, ''पिताजी, आप कैसी बात करते हैं ? मैं आपको खुद गाँव लेकर चलूँगा चाची से मिलाने।"
 ''झूठा ढाढ़स बँधाने से क्या फ़ायदा। पिताजी ने अश्रु पोछते हुए रुँधे गले से कहा, ''अगर गाँव जाओगे तो मेरी  अस्थियों को भी गंगा में  बहा देना।
इस घटना के बाद पिताजी एक सप्ताह बाद ही परलोक सिधार गए। मैं उनकी अस्थियों  को लेकर भारत आया। चाहता तो मैं यह था कि मेरी पत्नी व बच्चे भी मेरे पिता के पुश्तैनी गाँव चलें, परंतु वे भारत आने के इच्छुक न थे।
मैं भारत आया, पिता की अस्थियों  को गंगा में विसर्जित किया और सीधे गाँव जाने की योजना बनार्इ। उन्हीं दिनों भारत में हिंदू-मुस्लिम  दंगे शुरू हो गए । दिल्ली से मेरी बहिन का फ़ोन आया कि इस समय माहौल ठीक नहीं है इसलिए स्थिति  सामान्य होने तक मैं गाँव न जाऊँ।
मेरा कहना था, माहौल ठीक होने में  न जाने कितने दिन लगें। इतने दिनों तक मैं भारत रुक नहीं सकता था। अत: मैं ने अपनी बहिन को बताया, 'अगर अभी न जा पाया, तो शायद कभी न जा पाऊँ।  पिताजी की अंतिम इच्छा पूरी किए बिना मैं भारत छोड़ना नहीं चाहता था।'
आखि़र एक दिन अपने गाँव पहुँच  गया। गाँव में रहमत चाचा के घर का पता लगाया। पता चला कि वे पिछले ही वर्ष गुज़र गए। उनके पु़त्र मसरूर मियाँ को अपना परिचय दिया। उन की बातों से मुझे ऐसा लगा कि वे मेरे परिचय से कुछ अपरिचित या अल्पपरिचित हैं। अंदर से आवाज़ आर्इ - 'कौन आया है  ? मसरूर मियाँ ने कहा, ''कोर्इ अपने आपको महेश कुमार का बेटा बता रहा है और आपसे मिलने की ख़्वाइश कर रहा है।"
अंदर से आवाज़ आर्इ, 'अंदर बुला लो।'
मुझे महसूस हो रहा था कि मसरूर मियाँ अपने पारिवारिक वातावरण के कारण मुझे अंदर ले जाना नहीं चाह रहे थे। फिर भी बूढ़ी माँ की इज्ज़त  रखने के लिए अंदर ले गए।
घर के आँगन को पार करते हुए जैसे ही मैं ने एक कमरे में प्रवेश किया, सामने बान की अधटूटी खाट पर एक वृद्धा को पाया ऐसा लगा कि यदि उसके शरीर पर कपड़े न होते, तो पूरा नर कंकाल ही दीखता।  बाल पूरे सफे़द थे और उलझे हुए भी, शायद कर्इ दिनों से कंघी न की हो।  दंत विहीन पोपला मुँह।  माथे पर ज़हीफ़ी की झुर्रियाँ तो थीं हीं, लगता था कि ग़रीबी ने कुछ झुर्रियों का  इज़ाफ़ा कर दिेया हो।  क्षण भर तो मैं ठगा सा रह गया, क्योंकि चाची की जो इमेज मैं ने अपने पिता के वर्णन के आधार पर बनार्इ थी, वह उस से बिल्कुल विपरीत थी।  पिता जी कहा करते थे कि तुम्हारी चाची इतनी सुंदर हैं कि हम लोग उन्हें मेम भाभी कहकर पुकारते थे।
मसरूर ने अपनी माँ से कहा,' अम्मी, यह रहे आपके मेहमान।'
यह वाक्य न तो मुझे ही अच्छा लगा और न ही शायद चाची को।
मैं ने चाची के चरण स्पर्श किए और मैं श्रद्धावश उनके चरणों में ही बैठ गया। उन्होंने सिर पर हाथ फेरते हुए आशीर्वादों की झड़ी लगा दी - या अल्लाह, तू जुग-जुग जिए। ख़ूब तरक़्की करे।  ख़ुदा खूब बरकत दे। अब चाची ने मेरी ओर इशारा करते हुए अपने पुत्र से कहा, 'यह तुम्हारा चचेरा भार्इ है।  बैठ, कुछ देर इनसे बात कर।'
मसरूर ने अपने दाहिने हाथ को माथे से लगाते हुए कहा,' आदाब।'
मैं ने भी उसी प्रकार आदाब कर उत्तर आदाब से दे दिया।
मसरूर बोला,' अम्मी, आप इनसे बात कीजिए।  मुझे खेत पर जाना है।  आज शायद कोर्इ मज़दूर भी नहीं आया है।  मेरा जाना ज़रूरी है।  मैं जल्दी आने की कोशिश करूँगा।'
चाची ने कहा, ठीक है, जल्दी आना, अंदर बहू से कह दे कि इनको चाय नाश्ता करा दे।
मसरूर ने कुछ व्यंग्यात्मक शैली में कहा,' क्या यह हमारे घर की चाय पी लेंगे?'
मैं ने कहा,' क्यों नहीं।'
चाची बोलीं, 'क्यों नहीं पिएगा।  इन के वालिद तो उस वक़्त भी हमारे घर का खाना खा लिया करते थे, जब हिंदू लोग मुसलमानों के घर पानी भी नहीं पीते थे।'
यह सुनकर मसरूर दूसरे कमरे में चला गया।  थोड़ी देर बाद कमरे से निकला तो बोला, अम्मी, तुम्हारी बहू से कह दिया है, वह चाय पिला देगी। अब मैं चलता हूँ।  कोशिश करूँगा, कि जल्दी आ जाऊँ।  इतना कहकर उसने एक कोने से लाठी उठार्इ और बाहर चला गया। 
मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मसरूर को मेरा आना अच्छा नहीं लगा।  मैं तो उसके हमउम्र था।  कुछ देर तो बात कर ही सकता था।  खैर, मुझे तो चाची से मिलना था। 
चाची ने अब मेरी माँ के बारे मे बताना शुरू किया और घंटों बतियाती रहीं।
मैं ने चाची से पूछा, 'क्या यह सही है कि आपने मेरे कारण ही गाय का मांस खाना छोड़ दिया था। 
उत्तर मिला, 'हाँ। 
मैंने कहा - 'इतनी बड़ी  क़़ुर्बानी!
चाची बोली, ''बेटा, किसी की जान बचाने के लिए कोर्इ क़़ुर्बानी  बड़ी नहीं होती। तेरी माँ बहुत धार्मिक थीं। उनके आगे मुझको ही झुकना पड़ा। 
मैं ने कहा, ''अब तो पिताजी भी परलोक सिधार गए। मेरे लिए तो अब आप ही बुजुर्ग हैं । मैं आपके लिए अमेरिका से डिब्बाबंद गाय का गोश्त लाया हूँ। आप ने मेरी जान बचार्इ है।
चाची ने जवाब दिया, ''तुम्हें दूध पिलाने से पहले मैंने गाय का तो क्या, सभी गोश्त खाने छोड़ दिए थे। फिर अब तो आदत बन गर्इ है। अब मैं  कोर्इ गोश्त नहीं खाती । 
यह सुनकर मेरी आँखों से आँसू बहने लगे। आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। चाची का आँचल उन आँसुओं से गीला हो रहा था।
मैं ने कहा, ''चाची, आप ने वर्षों मेरे कारण गाय का मांस नहीं खाया। अब मेरे कहने पर खा लीजिए।
चाची ने कहा, 'बेटा, मैं ने तुम्हारी माँ को वचन दिया था कि मैं गाय का मांस नहीं खाऊँगी। अब तो पैर क़ब्र में लटके हैं । आखि़री वक़्त वचन क्या तोड़ना।' 
थोड़ी देर ख़ामोशी रही । मेरे असमंजस्य को देखकर चाची ने बड़ी आत्मीयता से मेरी ओर देखा और कहने लगीं ,''तू छोटा दिल मत कर । बड़ी मोहब्बत से लाया है । रख दे। मसरूर और उसकी बहू खा लेंगे।''
फिर मैंने बातों-बातों में उन्हें एक पैकेट देना चाहा, जिसमें दस हज़ार रुपए थे। उनकी आर्थिक हालत कुछ ज़्यादा अच्छी नहीं थी। शुक्राने में मेरे लिए तो यह रक़म बह़ुत छोटी थी।
चाची ने यह रक़म  लेने से इन्कार कर दिया और रुआँसे होकर कहा, ''दूध की क़ीमत देना चाहता हैं ? क्या कोर्इ माँ अपने बेटे से दूध का मोल लेती हैं !
मैं निरुत्तर था।  थोड़ी देर खामोशी रही।  ख़ामोशी को मैं ने ही तोड़ा, 'पिताजी आपके बारे में हमेशा बताते रहते थे कि आपने उनके ऊपर इतना बड़ा अहसान किया।'
चाची बोलीं। अहसान-वहसान काहे का? बेटा, तुम शहराती हो, तुम शायद समझ नहीं पाओगे कि हम मज़हब से अलग ज़रूर हैं, पर हम तो तेरी माँ को सगी देवरानी ही मानते थे। ... और उस ने भी मेरे ऊपर एक बहुत बड़ा अहसान किया था। 
'वह क्या? चाची', मैंने पूछा। 
'क्या तुम्हारे वालिद ने तुम्हें कुछ नहीं बताया?'  चाची ने कहा।
'नहीं, चाची। पिताजी ने तो मुझे सिफऱ् इतना ही बताया था कि आपने मुझे अपना दूध पिलाकर जीवनदान दिया था'
उन का उत्तर था, 'बेटा, तुम्हारे पिता भले आदमी थे।  भले आदमी जब किसी पर अहसान करते हैं, तो उसका ढिंढोरा नहीं पीटते।  खैर...।'
'चाची, आप ही बता दीजिए ऐसी कौन सी बात थी।'
चाची कुछ गंभीर हुर्इं और फिर कहा, 'मेरे बच्चे नहीं होते थे।  तेरी माँ पुन्ना गिरि की देवी के यहाँ मेरे लिए मन्नत माँगने गर्इं  थीं। खुदा की रहमत हुर्इ और एक साल के अंदर मसरूर पैदा हो गया। मैं तो मुसलमान ठहरी। मैं तो पुन्ना गिरि जा नहीं सकती थी।  मेरे कहने पर तुम्हारी माँ देवी को चढ़ावा चढ़ाने दुबारा गर्इं थीं।  मेरे लाख कहने पर भी उन्होंने मुझसे किराया नहीं लिया था।  तुम्हारी माँ का जवाब था- मन्नत तो मैं ने माँगी थी। अगर आप से किराया लिया तो पाप लगेगा।  बेटा, ऐसे इंसानी रिश्ते खून के रिश्तों से भी बड़े होते हैं और मज़हब से ऊपर। (हँसकर)  तू शहराती ठहरा। पता नहीं, क्या तू भी इन रिश्तों को समझ पाएगा!' 
शाम होने वाली थी।  मुझे आखि़री बस पकड़नी थी।  इसलिए मैं ने चाची से जाने की इज़ाज़त माँगी, तो चाची बोलीं, 'बेटा, मुझे याद है कि बचपन में तुझे सेवइयाँ बहुत अच्छी लगती थीं । मैं ने अपने हाथ से बनार्इं हैं।  थोड़ी ले जा।' 
थोड़ी देर में एक पोटली मेरे हाथ में थी । जाते-जाते मैं ने चाची के पैर छुए । उन्हों ने सिर पर हाथ फेरते हुए फिर दुआओं की झड़ी लगा दी । मसरूर अब तक आ गया था। चाची के कहने पर वह मुझे बस स्टैंड तक छोड़ने आया । चाहते हुए भी मैं इतनी हिम्मत न जुटा पाया कि वह रक़म मैं मसरूर को ही दे दूँ। चाची की खुददारी को चोट पहुँचाने की मैं सोच भी नहीं सकता था ।
कुछ दिनों भारत में रहने के बाद मैं अमेरिका के लिए रवाना हो गया।  सैन फ्रांसिस्को एअरपोर्ट पर उतरते ही मेरी पत्नी मुझे लेने आ गर्इ।  उन्होंने आते ही मुझे अपनी बाहों में भर लिया और बोली इंडिया में हिंदू मुसिलम राइटस चल रहे हैं।  मैं तो घबड़ा ही रही थी।  तुम्हारा गाँव तो मुसलमानी है।
मैं चुप रहा।  पत्नी ने कहा, अच्छा, तुम अपने गाँव गए थे।  क्या हुआ?
मैं ने पूरा वृतांत अपने पत्नी को सुनाया।  अंत में उनका कमेंट था- ओह, डिफिकल्ट टु अंडस्टैंड इंडिया।
मैं ने कहा, 'ओह, तुम्हारे लिए क्या, मैं तो इंडिया में पैदा हुआ।  मेरे लिए ही इट इज़ डिफिकल्ट टु अंडस्टैंड इंडिया। '
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Award to alok shrivastav

आलोक श्रीवास्तव की वास्तव में श्री वृद्धि 
आलोक और आलोकित 

ग़ज़लकार और पत्रकार आलोक श्रीवास्तव Aalok Shrivastav को वॉशिंगटन में 'अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मान' से सम्मानित किया गया है। उन्हें यह सम्मान हिंदी ग़ज़ल में उनकी प्रतिबद्धता के लिए दिया गया। आलोक को यह सम्मान, अमेरिका में हिंदी के प्रचार-प्रसार में सक्रिय 'अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति' की ओर से दिया गया है। अमेरिका में बसे भारतीयों और हिंदी के कई जाने-माने साहित्यकारों की मौजूदगी में आलोक को यह सम्मान भारतीय दूतावास के काउंसलर शिव रतन के हाथों दिया गया। सम्मान के रूप में उन्हें सम्मान-पत्र के साथ प्रतीक चिह्न दिया गया। साल 2007 में प्रकाशित आलोक के पहले गजल संग्रह 'आमीन' से उन्हें विशेष पहचान मिली। हाल के बरसों में उन्हें रूस का प्रतिष्ठित 'अंतर्राष्ट्रीय पुश्किन सम्मान', मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी का दुष्यंत कुमार पुरस्कार, और 'परम्परा ऋतुराज सम्मान' भी मिल चुका है।

पेशे से टीवी पत्रकार आलोक श्रीवास्तव लगभग दो दशक से साहित्यिक-लेखन में सक्रिय हैं। उनकी गजलों-नज्मों को जगजीत सिंह, पंकज उधास, तलत अजीज़, शुभा मुद्गल से लेकर महानायक अमिताभ बच्चन तक ने अपना स्वर दिया है। ग़ज़लकार और पत्रकार आलोक श्रीवास्तव Aalok Shrivastav को वॉशिंगटन में 'अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मान' से सम्मानित किया गया है। उन्हें यह सम्मान हिंदी ग़ज़ल में उनकी प्रतिबद्धता के लिए दिया गया। आलोक को यह सम्मान, अमेरिका में हिंदी के प्रचार-प्रसार में सक्रिय 'अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति' की ओर से दिया गया है। अमेरिका में बसे भारतीयों और हिंदी के कई जाने-माने साहित्यकारों की मौजूदगी में आलोक को यह सम्मान भारतीय दूतावास के काउंसलर शिव रतन के हाथों दिया गया। सम्मान के रूप में उन्हें सम्मान-पत्र के साथ प्रतीक चिह्न दिया गया। साल 2007 में प्रकाशित आलोक के पहले गजल संग्रह 'आमीन' से उन्हें विशेष पहचान मिली। हाल के बरसों में उन्हें रूस का प्रतिष्ठित 'अंतर्राष्ट्रीय पुश्किन सम्मान', मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी का दुष्यंत कुमार पुरस्कार, और 'परम्परा ऋतुराज सम्मान' भी मिल चुका है।
पेशे से टीवी पत्रकार आलोक श्रीवास्तव लगभग दो दशक से साहित्यिक-लेखन में सक्रिय हैं। उनकी गजलों-नज्मों को जगजीत सिंह, पंकज उधास, तलत अजीज़, शुभा मुद्गल से लेकर महानायक अमिताभ बच्चन तक ने अपना स्वर दिया है।

chitra par kavita: sanjiv

चित्र पर कविता:
संजीव

रिश्तों पे जमीं बर्फ रास आ रही है खूब
गर्मी दिलों की आदमी से जा रही है ऊब
रस्मी बराए-नाम हुई राम-राम अब-
काम-काम सांस जपे जा रही है अब
कुदरत भी परेशान कि जीना मुहाल है
आदमी की आदमीयत पर सवाल है

chhand salila: shiv stavan -sanjiv

छंद सलिला;
शिव स्तवन
संजीव
*
(तांडव छंद, प्रति चरण बारह मात्रा, आदि-अंत लघु)

।। जय-जय-जय शिव शंकर । भव हरिए अभ्यंकर ।।
।। जगत्पिता श्वासा सम । जगननी आशा मम ।।
।। विघ्नेश्वर हरें कष्ट । कार्तिकेय करें पुष्ट ।।
।। अनथक अनहद निनाद । सुना प्रभो करो शाद।।
।। नंदी भव-बाधा हर। करो अभय डमरूधर।।
।। पल में हर तीन शूल। क्षमा करें देव भूल।।
।। अरि नाशें प्रलयंकर। दूर करें शंका हर।।
।। लख ताण्डव दशकंधर। विनत वदन चकितातुर।।
।। डम-डम-डम डमरूधर। डिम-डिम-डिम सुर नत शिर।।
।। लहर-लहर, घहर-घहर। रेवा बह हरें तिमिर।।
।। नीलकण्ठ सिहर प्रखर। सीकर कण रहे बिखर।।
।। शूल हुए फूल सँवर। नर्तित-हर्षित मणिधर ।।
।। दिग्दिगंत-शशि-दिनकर। यश गायें मुनि-कविवर।।
।। कार्तिक-गणपति सत्वर। मुदित झूम भू-अंबर।।
।। भू लुंठित त्रिपुर असुर। शरण हुआ भू से तर।।
।। ज्यों की त्यों धर चादर। गाऊँ ढाई आखर।।
।। नव ग्रह, दस दिशानाथ। शरणागत जोड़ हाथ।।
।। सफल साधना भवेश। करो- 'सलिल' नत हमेश।।
।। संजीवित मन्वन्तर। वसुधा हो ज्यों सुरपुर।।
।। सके नहीं माया ठग। ममता मन बसे उमग।।
।। लख वसुंधरा सुषमा। चुप गिरिजा मुग्ध उमा।।
।। तुहिना सम विमल नीर। प्रवहे गंधित समीर।।
।। भारत हो अग्रगण्य। भारती जगत वरेण्य ।।
।। जनसेवी तंत्र सकल। जनमत हो शक्ति अटल।।
।। बलिपंथी हो नरेंद्र। सत्पंथी हो सुरेंद्र।।
।। तुहिना सम विमल नीर। प्रवहे गंधित समीर।।
।। भारत हो अग्रगण्य। भारती जगत वरेण्य ।।
।। जनसेवी तंत्र सकल। जनमत हो शक्ति अटल।।
।। सदय रहें महाकाल। उम्मत हों देश-भाल।।
।। तुहिना सम विमल नीर। प्रवहे गंधित समीर।।
।। भारत हो अग्रगण्य। भारती जगत वरेण्य ।।
।। जनसेवी तंत्र सकल। जनमत हो शक्ति अटल।।

                         ***           

रविवार, 13 अप्रैल 2014

yahya khan & manek shaw -rehan faizal

कैसे चुकाया यहया ख़ां ने मानेकशॉ का क़र्ज़?

सैम मानेक शॉउनका पूरा नाम सैम होरमूज़जी फ़्रामजी जमशेदजी मानेकशॉ था लेकिन शायद ही कभी उनके इस नाम से पुकारा गया. उनके दोस्त, उनकी पत्नी, उनके नाती, उनके अफ़सर या उनके मातहत या तो उन्हें सैम कह कर पुकारते थे या "सैम बहादुर". सैम को सबसे पहले शोहरत मिली साल 1942 में. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान बर्मा के मोर्चे पर एक जापानी सैनिक ने अपनी मशीनगन की सात गोलियां उनकी आंतों, जिगर और गुर्दों में उतार दीं.

उनकी जीवनी लिखने वाले मेजर जनरल वीके सिंह ने बीबीसी को बताया, "उनके कमांडर मेजर जनरल कोवान ने उसी समय अपना मिलिट्री क्रॉस उतार कर कर उनके सीने पर इसलिए लगा दिया क्योंकि मृत फ़ौजी को मिलिट्री क्रॉस नहीं दिया जाता था." जब मानेकशॉ घायल हुए थे तो आदेश दिया गया था कि सभी घायलों को उसी अवस्था में छोड़ दिया जाए क्योंकि अगर उन्हें वापस लाया लाया जाता तो पीछे हटती बटालियन की गति धीमी पड़ जाती. लेकिन उनका अर्दली सूबेदार शेर सिंह उन्हें अपने कंधे पर उठा कर पीछे लाया. सैम की हालत इतनी ख़राब थी कि डॉक्टरों ने उन पर अपना समय बरबाद करना उचित नहीं समझा. तब सूबेदार शेर सिंह ने डॉक्टरों की तरफ़ अपनी भरी हुई राइफ़ल तानते हुए कहा था, "हम अपने अफ़सर को जापानियों से लड़ते हुए अपने कंधे पर उठा कर लाए हैं. हम नहीं चाहेंगे कि वह हमारे सामने इसलिए मर जाएं क्योंकि आपने उनका इलाज नहीं किया. आप उनका इलाज करिए नहीं तो मैं आप पर गोली चला दूंगा."
डॉक्टर ने अनमने मन से उनके शरीर में घुसी गोलियाँ निकालीं और उनकी आंत का क्षतिग्रस्त हिस्सा काट दिया. आश्चर्यजनक रूप से सैम बच गए. पहले उन्हें मांडले ले जाया गया, फिर रंगून और फिर वापस भारत.

'कोई पीछे नहीं हटेगा'

सैम मानेक शॉ, इंदिरा गांधीसाल 1946 में लेफ़्टिनेंट कर्नल सैम मानेकशॉ को सेना मुख्यालय दिल्ली में तैनात किया गया. 1948 में जब वीपी मेनन कश्मीर का भारत में विलय कराने के लिए महाराजा हरि सिंह से बात करने श्रीनगर गए तो सैम मानेकशॉ भी उनके साथ थे. 1962 में चीन से युद्ध हारने के बाद सैम को बिजी कौल के स्थान पर चौथी कोर की कमान दी गई. पद संभालते ही सैम ने सीमा पर तैनात सैनिकों को संबोधित करते हुए कहा था, "आज के बाद आप में से कोई भी जब तक पीछे नहीं हटेगा, जब तक आपको इसके लिए लिखित आदेश नहीं मिलते. ध्यान रखिए यह आदेश आपको कभी भी नहीं दिया जाएगा."
उसी समय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और रक्षा मंत्री यशवंतराव चव्हाण ने सीमा क्षेत्रों का दौरा किया था. नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी भी उनके साथ थीं. सैम के एडीसी ब्रिगेडियर बहराम पंताखी अपनी किताब सैम मानेकशॉ– द मैन एंड हिज़ टाइम्स में लिखते हैं, "सैम ने इंदिरा गाँधी से कहा था कि आप ऑपरेशन रूम में नहीं घुस सकतीं क्योंकि आपने गोपनीयता की शपथ नहीं ली है. इंदिरा को तब यह बात बुरी भी लगी थी लेकिन सौभाग्य से इंदिरा गांधी और मानेकशॉ के रिश्ते इसकी वजह से ख़राब नहीं हुए थे."

शरारती सैम

सार्वजनिक जीवन में हँसी मज़ाक के लिए मशहूर सैम अपने निजी जीवन में भी उतने ही अनौपचारिक और हंसोड़ थे.
सैम मानेक शॉउनकी बेटी माया दारूवाला ने बीबीसी को बताया, "लोग सोचते हैं कि सैम बहुत बड़े जनरल हैं, उन्होंने कई लड़ाइयां लड़ी हैं, उनकी बड़ी-बड़ी मूंछें हैं तो घर में भी उतना ही रौब जमाते होंगे. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था. वह बहुत खिलंदड़ थे, बच्चे की तरह. हमारे साथ शरारत करते थे. हमें बहुत परेशान करते थे. कई बार तो हमें कहना पड़ता था कि डैड स्टॉप इट. जब वो कमरे में घुसते थे तो हमें यह सोचना पड़ता था कि अब यह क्या करने जा रहे हैं."

रक्षा सचिव से भिड़ंत

शरारतें करने की उनकी यह अदा, उन्हें लोकप्रिय बनाती थीं लेकिन जब अनुशासन या सैनिक नेतृत्व और नौकरशाही के बीच संबंधों की बात आती थी तो सैम कोई समझौता नहीं करते थे.
उनके मिलिट्री असिस्टेंट रहे लेफ़्टिनेंट जनरल दीपेंदर सिंह एक किस्सा सुनाते हैं, "एक बार सेना मुख्यालय में एक बैठक हो रही थी. रक्षा सचिव हरीश सरीन भी वहाँ मौजूद थे. उन्होंने वहां बैठे एक कर्नल से कहा, यू देयर, ओपन द विंडो. वह कर्नल उठने लगा. तभी सैम ने कमरे में प्रवेश किया. रक्षा सचिव की तरफ मुड़े और बोले, सचिव महोदय, आइंदा से आप मेरे किसी अफ़सर से इस टोन में बात नहीं करेंगे. यह अफ़सर कर्नल है. यू देयर नहीं." उस ज़माने के बहुत शक्तिशाली आईसीएस अफ़सर हरीश सरीन को उनसे माफ़ी मांगनी पड़ी.

कपड़ों के शौकीन

सैम मानेक शॉमानेकशॉ को अच्छे कपड़े पहनने का शौक था. अगर उन्हें कोई निमंत्रण मिलता था जिसमें लिखा हो कि अनौपचारिक कपड़ों में आना है तो वह निमंत्रण अस्वीकार कर देते थे. दीपेंदर सिंह याद करते हैं, "एक बार मैं यह सोच कर सैम के घर सफ़ारी सूट पहन कर चला गया कि वह घर पर नहीं हैं और मैं थोड़ी देर में श्रीमती मानेकशॉ से मिल कर वापस आ जाऊंगा. लेकिन वहां अचानक सैम पहुंच गए. मेरी पत्नी की तरफ़ देख कर बोले, तुम तो हमेशा की तरह अच्छी लग रही हो.लेकिन तुम इस "जंगली" के साथ बाहर आने के लिए तैयार कैसे हुई, जिसने इतने बेतरतीब कपड़े पहन रखे हैं?"

सैम चाहते थे कि उनके एडीसी भी उसी तरह के कपड़े पहनें जैसे वह पहनते हैं, लेकिन ब्रिगेडियर बहराम पंताखी के पास सिर्फ़ एक सूट होता था. एक बार जब सैम पूर्वी कमान के प्रमुख थे, उन्होंने अपनी कार मंगाई और एडीसी बहराम को अपने साथ बैठा कर पार्क स्ट्रीट के बॉम्बे डाइंग शो रूम चलने के लिए कहा. वहां ब्रिगेडियर बहराम ने उन्हें एक ब्लेजर और ट्वीड का कपड़ा ख़रीदने में मदद की. सैम ने बिल दिया और घर पहुंचते ही कपड़ों का वह पैकेट एडीसी बहराम को पकड़ा कर कहा,"इनसे अपने लिए दो कोट सिलवा लो."

इदी अमीन के साथ भोज

एक बार युगांडा के सेनाध्यक्ष इदी अमीन भारत के दौरे पर आए. उस समय तक वह वहां के राष्ट्रपति नहीं बने थे. उनकी यात्रा के आखिरी दिन अशोक होटल में सैम मानेकशॉ ने उनके सम्मान में भोज दिया, जहां उन्होंने कहा कि उन्हें भारतीय सेना की वर्दी बहुत पसंद आई है और वो अपने साथ अपने नाप की 12 वर्दियां युगांडा ले जाना चाहेंगे.
सैम मानेक शॉसैम के आदेश पर रातोंरात कनॉट प्लेस की मशहूर दर्ज़ी की दुकान एडीज़ खुलवाई गई और करीब बारह दर्ज़ियों ने रात भर जाग कर इदी अमीन के लिए वर्दियां सिलीं.

सैम के ख़र्राटे

सैम को खर्राटे लेने की आदत थी. उनकी बेटी माया दारूवाला कहती है कि उनकी मां सीलू और सैम कभी भी एक कमरे में नहीं सोते थे क्योंकि सैम ज़ोर-ज़ोर से खर्राटे लिया करते थे. एक बार जब वह रूस गए तो उनके लाइजन ऑफ़िसर जनरल कुप्रियानो उन्हें उनके होटल छोड़ने गए.
जब वह विदा लेने लगे तो सीलू ने कहा, "मेरा कमरा कहां है?" रूसी अफ़सर परेशान हो गए. सैम ने स्थिति संभाली, असल में मैं ख़र्राटे लेता हूँ और मेरी बीवी को नींद न आने की बीमारी है. इसलिए हम लोग अलग-अलग कमरों में सोते हैं. यहां भी सैम की मज़ाक करने की आदत नहीं गई. रूसी जनरल के कंधे पर हाथ रखते हुए उनके कान में फुसफुसा कर बोले, "आज तक जितनी भी औरतों को वह जानते हैं, किसी ने उनके ख़र्राटा लेने की शिकायत नहीं की है सिवाए इनके!"

सैम मानेकशॉ1971 की लड़ाई में इंदिरा गांधी चाहती थीं कि वह मार्च में ही पाकिस्तान पर चढ़ाई कर दें लेकिन सैम ने ऐसा करने से इनकार कर दिया क्योंकि भारतीय सेना हमले के लिए तैयार नहीं थी. इंदिरा गांधी इससे नाराज़ भी हुईं. मानेकशॉ ने पूछा कि आप युद्ध जीतना चाहती हैं या नहीं. उन्होंने कहा, "हां." इस पर मानेकशॉ ने कहा, मुझे छह महीने का समय दीजिए. मैं गारंटी देता हूं कि जीत आपकी होगी.

इंदिरा गांधी के साथ उनकी बेतकल्लुफ़ी के कई किस्से मशहूर हैं. मेजर जनरल वीके सिंह कहते हैं, "एक बार इंदिरा गांधी जब विदेश यात्रा से लौटीं तो मानेकशॉ उन्हें रिसीव करने पालम हवाई अड्डे गए. इंदिरा गांधी को देखते ही उन्होंने कहा कि आपका हेयर स्टाइल ज़बरदस्त लग रहा है. इस पर इंदिरा गांधी मुस्कराईं और बोलीं, और किसी ने तो इसे नोटिस ही नहीं किया."

टिक्का ख़ां से मुलाकात


(लाहौर में फ़ील्ड मार्शल मानेकशॉ का स्वागत करते जनरल टिक्का ख़़ां)
सैम मानेक शॉपाकिस्तान के साथ लड़ाई के बाद सीमा के कुछ इलाकों की अदलाबदली के बारे में बात करने सैम मानेकशॉ पाकिस्तान गए. उस समय जनरल टिक्का पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष हुआ करते थे. पाकिस्तान के कब्ज़े में भारतीय कश्मीर की चौकी थाकोचक थी जिसे छोड़ने के लिए वह तैयार नहीं था. जनरल एसके सिन्हा बताते है कि टिक्का ख़ां सैम से आठ साल जूनियर थे और उनका अंग्रेज़ी में भी हाथ थोड़ा तंग था क्योंकि वो सूबेदार के पद से शुरुआत करते हुए इस पद पर पहुंचे थे. उन्होंने पहले से तैयार वक्तव्य पढ़ना शुरू किया, "देयर आर थ्री ऑलटरनेटिव्स टू दिस."

इस पर मानेकशॉ ने उन्हें तुरंत टोका, "जिस स्टाफ़ ऑफ़िसर की लिखी ब्रीफ़ आप पढ़ रहे हैं उसे अंग्रेज़ी लिखनी नहीं आती है. ऑल्टरनेटिव्स हमेशा दो होते हैं, तीन नहीं. हां संभावनाएं या पॉसिबिलिटीज़ दो से ज़्यादा हो सकती हैं." सैम की बात सुन कर टिक्का इतने नर्वस हो गए कि हकलाने लगे... और थोड़ी देर में वो थाकोचक को वापस भारत को देने को तैयार हो गए.

ललित नारायण मिश्रा के दोस्त

बहुत कम लोगों को पता है कि सैम मानेकशॉ की इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल के एक सदस्य ललित नारायण मिश्रा से बहुत गहरी दोस्ती थी. सैम के मिलिट्री असिस्टेंट जनरल दीपेंदर सिंह एक दिलचस्प किस्सा सुनाते हैं, "एक शाम ललित नारायण मिश्रा अचानक मानेकशॉ के घर पहुंचे. उस समय दोनों मियां-बीवी घर पर नहीं थे. उन्होंने कार से एक बोरा उतारा और सीलू मानेकशॉ के पलंग के नीचे रखवा दिया और सैम को इसके बारे में बता दिया. सैम ने पूछा कि बोरे में क्या है तो ललित नारायण मिश्र ने जवाब दिया कि इसमें पार्टी के लिए इकट्ठा किए हुए रुपए हैं. सैम ने पूछा कि आपने उन्हें यहां क्यों रखा तो उनका जवाब था कि अगर इसे घर ले जाऊंगा तो मेरी पत्नी इसमें से कुछ पैसे निकाल लेगी. सीलू मानेकशॉ को तो पता भी नहीं चलेगा कि इस बोरे में क्या है. कल आऊंगा और इसे वापस ले जाऊंगा."

दीपेंदर सिंह बताते हैं कि ललित नारायण मिश्रा को हमेशा इस बात का डर रहता था कि कोई उनकी बात सुन रहा है. इसलिए जब भी उन्हें सैम से कोई गुप्त बात करनी होती थी वह उसे कागज़ पर लिख कर करते थे और फिर कागज़ फाड़ दिया करते थे.

मानेकशॉ और यहया ख़ां


                                                                            मानेक शॉ अपनी पत्नी और बेटी के साथ.
सैम मानेक शॉसैम की बेटी माया दारूवाला कहती हैं कि सैम अक्सर कहा करते थे कि लोग सोचते हैं कि जब हम देश को जिताते हैं तो यह बहुत गर्व की बात है लेकिन इसमें कहीं न कहीं उदासी का पुट भी छिपा रहता है क्योंकि लोगों की मौतें भी हुई होती हैं. सैम के लिए सबसे गर्व की बात यह नहीं थी कि भारत ने उनके नेतृत्व में पाकिस्तान पर जीत दर्ज की. उनके लिए सबसे बड़ा क्षण तब था जब युद्ध बंदी बनाए गए पाकिस्तानी सैनिकों ने स्वीकार किया था कि उनके साथ     भारत में बहुत अच्छा व्यवहार किया गया था.

साल 1947 में मानेकशॉ और यहया ख़ां दिल्ली में सेना मुख्यालय में तैनात थे. यहया ख़ां को मानेकशॉ की मोटरबाइक बहुत पसंद थी. वह इसे ख़रीदना चाहते थे लेकिन सैम उसे बेचने के लिए तैयार नहीं थे. यहया ने जब विभाजन के बाद पाकिस्तान जाने का फ़ैसला किया तो सैम उस मोटरबाइक को यहया ख़ां को बेचने के लिए तैयार हो गए. दाम लगाया गया 1,000 रुपए. यहया मोटरबाइक पाकिस्तान ले गए और वादा कर गए कि जल्द ही पैसे भिजवा देंगे. सालों बीत गए लेकिन सैम के पास वह चेक कभी नहीं आया. बहुत सालों बाद जब पाकितान और भारत में युद्ध हुआ तो मानेकशॉ और यहया ख़ां अपने अपने देशों के सेनाध्यक्ष थे. लड़ाई जीतने के बाद सैम ने मज़ाक किया, "मैंने यहया ख़ां के चेक का 24 सालों तक इंतज़ार किया लेकिन वह कभी नहीं आया. आखिर उन्होंने 1947 में लिया गया उधार अपना देश दे कर चुकाया."
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शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014

santosh shrivastav honoured


 
* संतोष श्रीवास्तव को प्रियंवदा साहित्य सम्मान

संतोष श्रीवास्तव को प्रियंवदा साहित्य सम्मान 

मूलचंद स्मृति संस्थान की अध्यक्ष डॉ.मिथिलेश मिश्र ने ख्यात कथा-लेखिका संतोष श्रीवास्तव Santosh Srivastava को प्रियंवदा साहित्य सम्मान से सम्मानित किया  है। यह पुरस्कार 20 नवंबर 2013 को लखनऊ में दिया जाना था लेकिन संतोष जी की अनुपस्थिति के कारण मुम्बई में उन्हें यह पुरस्कार दिया गया । पुरस्कार के अंतर्गत स्मृति चिन्ह, शॉल तथा मानधन दिया गया। इसी तरह कानपुर की भूतपूर्व सैनिकों एवं युद्ध विधवाओं के कल्याणार्थ स्थापित बिगुल संस्था ने  भी साहित्य के क्षेत्र में संतोष श्रीवास्तव के विशिष्ट योगदान के लिए प्रमुख अतिथि कमोडोर के.आई.रवि (वी.एस.एम. भारतीय वायुसेना)के करकमलों द्वारा प्रशस्तिपत्र तथा मानधन देकर सम्मानित किया। इस अवसर पर संतोष श्रीवास्तव ने सैनिक जीवन पर लिखी अपनी कहानी "उस पार प्रिये तुम हो" का पाठ किया।

मूलचंद स्मृति संस्थान की अध्यक्ष डॉ.मिथिलेश मिश्र ने ख्यात कथा-लेखिका संतोष श्रीवास्तव Santosh Srivastava को प्रियंवदा साहित्य सम्मान से सम्मानित किया है। यह पुरस्कार 20 नवंबर 2013 को लखनऊ में दिया जाना था लेकिन संतोष जी की अनुपस्थिति के कारण मुम्बई में उन्हें यह पुरस्कार दिया गया । पुरस्कार के अंतर्गत स्मृति चिन्ह, शॉल तथा मानधन दिया गया। इसी तरह कानपुर की भूतपूर्व सैनिकों एवं युद्ध विधवाओं के कल्याणार्थ स्थापित बिगुल संस्था ने भी साहित्य के क्षेत्र में संतोष श्रीवास्तव के विशिष्ट योगदान के लिए प्रमुख अतिथि कमोडोर के.आई.रवि (वी.एस.एम. भारतीय वायुसेना)के करकमलों द्वारा प्रशस्तिपत्र तथा मानधन देकर सम्मानित किया। इस अवसर पर संतोष श्रीवास्तव ने सैनिक जीवन पर लिखी अपनी कहानी "उस पार प्रिये तुम हो" का पाठ किया।
* कवि स्वप्निल श्रीवास्तव को वर्ष 2010 के अंतराष्ट्रीय पुश्किन पुरस्कार से सम्मानित किए जाने की घोषणा।

CHITR PAR KAVITA: SANJIV

चित्र पर कविता:
संजीव
*

बैल!
तुम सभ्य तो हुए नहीं,
मनुज बनना तुम्हें नहीं भाया।
एक बात पूछूँ?, उत्तर दोगे??
लड़ना कहाँ से सीखा?
भागना कहाँ से आया??
***
(स्व. अज्ञेय जी से क्षमा प्रार्थना सहित)