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बुधवार, 22 जनवरी 2014

geet: gumsum kyon..? -shashikant geete

एक गीत
शशिकांत गीते
*
गुमसुम क्यों बैठे हो
मन कोरी लाग लिए,
बाँसों के वन गाते
अंतर में आग लिए.

अंतर में आग, चपल
दृ्ष्टि हो काग- सी
जिन्दगी रहे न महज
सागर के झाग- सी
संयम हो बंध नहीं
दामन में दाग लिए.

मौसम कब रोक सका
कोयल का कूकना
ऋतुओं की सीख नहीं
अपने से चूकना
नदियाँ भी राह तकें
मधुर- मधुर राग लिए.

उतनी ही सृष्टि नहीं
जितनी हम सोच रहे
स्लेट लिखे शब्दों को
पोते से पोंछ रहे
हल करते जीवन, ऋण,
जोड़, गुणा, भाग लिए.

मंगलवार, 21 जनवरी 2014



छंद सलिला:
दस मात्रिक दैशिक छंद:
संजीव
*
दस दिशाओं के आधार पर दस मात्रिक छंदों को दैशिक छंद कहा जाता है. विविध मात्रा बाँट से ८९ प्रकार के दैशिक छंद रचे जा सकते हैं.

(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रा वज्रा, उपेन्द्र वज्रा, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि, दीप, दोधक, निधि, प्रेमा, माला, वाणी, शक्तिपूजा, शाला, सार, सुगति/शुभगति, सुजान, हंसी,)
दस मात्रिक दीप छंद

*
दस मात्रक दीप छंद के चरणान्त में ३ लघु १ गुरु १ लघु अर्थात एक नगण गुरु-लघु या लघु सगण लघु या २ लघु १ जगण की मात्रा बाँट होती है.
उदाहरण:
१. दीप दस नित बाल, दे कुचल तम-व्याल
   स्वप्न नित नव पाल, ले 'सलिल' करताल
   हो न तनिक मलाल, विनत रख निज भाल
   दे विकल पल टाल, ले पहन कर-माल

२. हो सड़क-पग-धूल, नाव-नद-नभ कूल
   साथ रख हर बार, जीत- पर मत हार
   अनवरत बढ़ यार, आस कर पतवार
   रख सुदृढ़ निज मूल, फहर नभ पर झूल

३. जहाँ खरपतवार, करो जड़ पर वार
   खड़ी फसल निहार, लुटा जग पर प्यार
   धरा-गगन बहार, सलामत सरकार
   हुआ सजन निसार, भुलाकर सब रार
   =========================== 

shatpadee: sanjiv

​​
षट्पदी :
संजीव 
*
सु मन कु मन से दूर रह, रचता मनहर काव्य
झाड़ू मन हर कर कहे,  निर्मलता संभाव्य
निर्मलता संभाव्य, सुमन से बगिया शोभित
पा सुगंध सब जग, होता है बरबस मोहित
कहे 'सलिल' श्रम सीकर से जो करे आचमन
उसकी जीवन बगिया में हों सुमन ही सुमन

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शनिवार, 18 जनवरी 2014

chhand salila: sujan chhand -sanjiv

छंद सलिला:
सुजान छंद
संजीव
*
द्विपदीय मात्रिक सुजान छंद में चौदह तथा नौ मात्राओं पर यति तथा पदांत में गुरु-लघु का विधान होता है.

चौदह-नौ यति रख रचें, कविगण छंद सुजान
हो पदांत लघु-गुरु 'सलिल', रचना रस की खान

उदाहरण :

१. चौदह-नौ पर यति सुजान / में'सलिल'-प्रवाह
   गुरु-लघु से पद-अंत करे, कवि पाये वाह

२. डर न मुझको किसी का भी / है दयालु ईश
   देश-हित हँसकर 'सलिल' कर / अर्पित निज शीश

३. कोयल कूके बागों में / पनघट पर शोर
   मोर नचे अमराई में / खेतों में भोर

            * * *

शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

chhand salila: nidhi chhand -sanjiv


छंद सलिला:
निधि छंद
संजीव
*
निधि नौ मात्रिक छंद है जिसमें चरणान्त में लघु मात्रा होती है. पद (पंक्ति) में चरण संख्या एक या अधिक हो सकती है.
उदाहरण :
१. तजिए न नौ निधि
   भजिए किसी विधि
   चुप मन लगाकर-
   गहिए 'सलिल' सिधि
२. रहें दैव सदय, करें कष्ट विलय
   मिले आज अमिय, बहे सलिल मलय
   मिटें असुर अजय, रहें मनुज अभय
   रचें छंद मधुर, मिटे सब अविनय
३. आओ विनायक!, हर सिद्धि दायक
   करदो कृपा अब, हर लो विपद सब
   सुख-चैन दाता, मोदक ग्रहण कर
   खुश हों विधाता, हर लो अनय अब 
=====================
  
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hasya kavita chay coffee -sanjiv


हास्य सलिला:
चाय-कॉफी
संजीव
*
लाली का आदेश था: 'जल्दी लाओ कॉफ़ी
देर हुई तो नहीं मिलेगी ए लालू जी! माफ़ी'
लालू बोले: 'मैडम! हमको है तुमरी परवाह
का बतलायें अधिक सोनिया जी से तुमरी चाह
चाय बनायी गरम-गरम पी लें, होगा आभार'
लाली डपटे: 'तनिक नहीं है तुममें अक्कल यार
चाय पिला मोड़ों-मोड़िन को, कॉफी तुरत बनाओ
कहे दुर्गत करवाते हो? अपनी जान बचाओ
लोटा भर भी पियो मगर चैया होती नाकाफ़ी
चम्मच भर भी मिले मगर कॉफ़ी होती है काफ़ी'
*
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गुरुवार, 16 जनवरी 2014

kavya salila: cheeta -sanjiv

कविता:
चीता
संजीव
*
कौन कहता है कि
चीता मर गया है?
हिंस्र वृत्ति
जहाँ देखो बढ़ रही है.
धूर्तता
किस्से नये
नित गढ़ रही है.
शक्ति के नाखून पैने
चोट असहायों पर करते
स्वाद लेकर रक्त पीते
मारकर औरों को जीते
और तुम?
और तुम कहते हो
चीता मर गया है.
नहीं,
वह तो
आदमी की
नस्ल में घर कर गया है.
झूठ कहते हो कि
चीता मर गया है.
=============

 kavita.vachaknavee@gmail.comSubject: {हिंदी-विमर्श:6634} सियोल मेट्रो में टैगोर की कविताएँ
To: hindi-bharat@yahoogroups.com


सियोल के एक मित्र से प्राप्त सूचना - 
स्मार्टफोन और टैबलेट में घुसी पड़ी कोरियन पब्लिक को साहित्य की ओर आकर्षित करने के लिए सरकार ने
​​
सियोल मेट्रो में टैगोर की कविताएँ लगाई हैं. भारत की सरकारें भी कुछ सीखें तो अच्छा हो.
__._,_.___

chaintan: ashok jamnani


काहे री बानी तू कुम्हलानी


Ashok Jamnani
- अशोक जमनानी
पिछले दिनों कहानी-पाठ के लिए दिल्ली जाना हुआ तो वहाँ कार्यक्रम के मुख्य अतिथि और सुप्रसिद्ध साहित्यकार प्रभाकर श्रोत्रिय की कही बात ने देर तक सोचने के लिए विवश कर दिया। उन्होंने कहा कि पिछले कुछ वर्षों में हमारी तीन सौ चालीस बोलियां हमेशा के लिए विलुप्त हो गईं और केवल तीन सौ चालीस बोलियां विलुप्त नहीं हुईं असल में उनके साथ-साथ तीन सौ चालीस संस्कृतियां भी विलुप्त हो गईं।एक देश जो अपने वैविध्य के सौंदर्य से पूरी दुनियां को चमत्कृत करता रहा हो और जब वो किसी तथाकथित समृद्धि का कोई बाना पहने, उसके साथ ही वो अपनी वाणी को दारिद्र्य देकर स्वयं को सदा-सदा के लिए श्री विहीन भी कर ले तो उसकी समृद्धि का यह दुशाला देह पर नहीं बल्कि अर्थी पर पड़े दुशाले की तरह ही लगता है।

संस्कृति इस देश की देह में प्राण की तरह बसती है और भाषाओं एवं बोलियों का वैविध्य इस प्राण को केवल तत्त्व मात्र नहीं रहने देता वरन इस तत्त्व को सगुण भी बनाता है। इस तत्त्व की महिमा ऐसी कि महल से लेकर झोपड़ी तक और संसद से लेकर सड़क तक वाणी का साम्राज्य रहता है और सामर्थ्य ऐसी कि कोई कबीर निर्गुण बखानता है तो उसे भी बानी का बाना ओढ़ना ही पड़ता है।क्या छूटा है इन भाषाओं से, इन बोलियों से … कुछ भी तो नहीं। फिर ऐसा क्या हो गया कि प्राणों के प्राण सूखने लगे ! भारत की समृद्ध भाषाएँ और बोलियां असमय ही प्राण विहीन होने लगीं !! कोस-कोस में बदलता पानी और बीस कोस में बदलती बानी अब बदलते नहीं बल्कि सूखे कंकाल बने मरघट के घट जा बैठे हैं!!!फ़िर वही उदारीकरण का गिरेबान पकड़कर, दोष का ठीकरा उसके माथे फोड़कर चाहूं तो बात ख़त्म कर दूँ, पर करूंगा नहीं। सोचता हूँ अपने गिरेबान में भी झांककर देख लूँ।

मैं जहाँ रहता हूँ उस मोहल्ले का नाम है-इतवारा बाज़ार। कभी इतवार का साप्ताहिक हाट घर के बाहर तक लगता था। कस्बा ज़रा छोटा था पर संस्कृति की समृद्धि बहुत बड़ी थी। वैसे भी बुंदेलखण्ड, निमाड़ , मालवा और भोपाल रियासत की सीमाओं ने मेरे क़स्बे को केवल स्पर्श ही नहीं किया है बल्कि अपनी भाषा-बोली के अंश भी इस कस्बे की भाषा में घोल दिए। इसलिए यहाँ की भाषा का वैविध्य भी अद्भुत था। फ़िर देखते ही देखते कस्बा बड़ा हो गया। इतवारा बाज़ार एक दिन लगने वाला हाट नहीं रहा बल्कि पक्की दुकानों की कतार अब घर तक आती है और सजी हुई दुकानों में जो संवाद है उसमें न तो बुंदेलखण्ड, न निमाड़ , न मालवा और न ही भोपाल रियासत का सुर गमकता है। उसमें तो बस एक रस होती अंग्रेज़ी घुसी खड़ी बोली का वर्चस्व है। कभी मैं इसे सभ्य समाज की भाषा समझाता था पर अब लगता है कि ये बाज़ारू बाना देह के लिए तो ठीक है पर न तो ये दिल तक पहुँचता है और न शेष अंतः करण को स्पर्श कर पाता है। और बात अगर यहाँ तक भी नहीं पहुँचती है तो घूंघट के पट खोलने का तो स्वप्न भी कौन देखे ?

कभी घर के बाहर तक आते इतवारी हाट में देहाती भाषा में बोलते लोगों के साथ वैसी ही भाषा में संवाद करता था। फ़िर पता नहीं कब असभ्य हो गया और तथाकथित सभ्य भाषा बोलने लगा। शायद उन विलुप्त हो गईं तीन सौ चालीस बोलियों में मेरे कस्बे की बोली भी होगी क्योंकि अब वो सुनाई देना बंद हो गयी है और केवल बोली नहीं मिटी बल्कि हाट की संस्कृति जबसे बाज़ार के रंग में रंगी है तो कितनी भद्दी और कैसी कुरंगी हो गयी है। दिल्ली में प्रभाकर श्रोत्रिय को सुन रहा था तो याद करने की कोशिश कर रहा था कि अपनी बोली जब बिछड़ी थी तो वो बरस कौन-सा था।पर अब ऐसी गैर ज़रूरी बातें कहाँ याद रहती हैं।

एक कबीर थे उन्होंने नलिनी से पूछा था - काहे री नलिनी तू कुम्हलानी ? तेरे तो नीचे सरोवर का पानी था !सोचता हूँ लुप्त हो चुकी तीन सौ चालीस बोलियों में से किसी एक से तो पूछूं कि काहे री बानी तू कुम्हलानी ? तेरे साथ तो ये महान हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानी थे। पर सच कहूं तो पूछने में ख़तरा भी बहुत है। कहीं इस कुम्हलायी बानी के निर्जीव होंठों पर मेरी अंग्रेजी निष्ठ हिंदी को निहारकर कोई व्यंग्य स्मित उभरी तो बताइये मैं कहाँ मुंह छुपाऊंगा ?????

Hindi vimarsh: gujrati quotes & books in hotel - jawahar karnavat

हिंदी विमर्श:

अहमदाबाद में स्वभाषा प्रेम

होटल में गुजराती के उद्धरण व् पुस्तकें
Jawahar Karnavat की प्रोफाइल फोटो

-जवाहर कर्नावट, मुम्बई 075063 78525
 
संदेश में फोटो देखें
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Hindi in abroad: Dr. Kavita Vachaknavee


हिंदी-विमर्श: 
सियोल मेट्रो में टैगोर की कविताएँ

डॉ. कविता वाचक्नवी
सियोल के एक मित्र से प्राप्त सूचना - 
स्मार्टफोन और टैबलेट में घुसी पड़ी कोरियन पब्लिक को साहित्य की ओर आकर्षित करने के लिए सरकार ने
​​
सियोल मेट्रो में टैगोर की कविताएँ लगाई हैं. भारत की सरकारें भी कुछ सीखें तो अच्छा हो.
 
__._,_.___From:  

बुधवार, 15 जनवरी 2014

hasya kavita: challenge -sanjiv

हास्य सलिला:
चैलेन्ज
संजीव
*
लाली ने चैलेन्ज दिया: 'ए जी लल्लू के पप्पा!
पल भर को गुस्साऊं अगले पल गुस्से से कुप्पा
बोलो ऐसे बोल बोलकर क्या तुम दिखला सकते?
सफल हुए तो पैर दबाने से छुट्टी पा सकते'
अक्ल लगाकर लालू बोले: 'हे प्राणों से प्यारी!'
लाली मुस्का, गुर्राई सुन: 'मेरी मति गयी मारी
ब्याही तुमको जीभ न देखी जो है तेज दोधारी'
रूठीं तुम, मैं सुखी हुआ, ए लल्ली की महतारी!
पैर दबाने से छुट्टी पा मैं सचमुच आभारी'
लाली गरजी: 'कपड़ा, बर्तन करो न जाओ बाहर
बाई आयी नहीं, काम निबटाओ हे नर नाहर!
***

hasya kavita: lalu-lali comedy show

हास्य कविता:
लालू -लाली कॉमेडी शो
संजीव
*
लालू से लाली हँस बोली: 'सुबह-सुबह सच सुन लो
भाग जगे जो मुझ सी बीबी पायी सपने बुन लो
अलादीन का ले चराग खोजो तो भी हारोगे
मुझ सी बीबी मिल न सकेगी, मुझ पर जां वारोगे'
लालू बोले: ' गलती की है एक बार सच मनो
दोबारा दोहराऊंगा मैं कभी नहीं सच जानो'
लालू-लाली की खिचखिच सुन बच्चे फिर मुस्काये
इनका कॉमेडी शो असली से ज्यादा मन भाये

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शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

chhand salila: gang chhand -sanjiv

छंद सलिला:
नौ मात्रिक छंद गंग
संजीव
*
संजीव
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रा वज्रा, उपेन्द्र वज्रा, कीर्ति, घनाक्षरी, प्रेमा, वाणी, शक्तिपूजा, सार, माला, शाला, हंसी, दोधक, सुजान, छवि)

*
९ वसुओं के आधार पर नौ मात्राओं के छंदों को वासव छंद कहा गया है. नवधा भक्ति,  नौ रस, नौ अंक, अनु गृह, नौ निधियाँ भी नौ मात्राओं से जोड़ी जा सकती हैं. नौ मात्राओं के ५५ छंदों को ५ वर्गों में विभाजित किया जा सकता है.
१. ९ लघु मात्राओं के छंद                  १
२. ७ लघु + १ गुरु मात्राओं के छंद       ७
३. ५ लघु + २ गुरु मात्राओं के छंद     २१
४. ३ लघु + ३ गुरु मात्राओं के छंद     २०
५. १ लघु + ४ गुरु मात्राओं के छंद      ५

नौ मात्रिक छंद गंग
नौ मात्रिक गंग छंद के अंत में २ गुरु मात्राएँ होती हैं.
उदाहरण:
१. हो गंग माता / भव-मुक्ति-दाता
   हर दुःख हमारे / जीवन सँवारो
   संसार चाहे / खुशियाँ हजारों
   उतर आसमां से / आओ सितारों
   जन्नत जमीं पे, नभ से उतारो
   शिव-भक्ति दो माँ / भाव-कष्ट-त्राता
२. दिन-रात जागो / सीमा बचाओ
   अरि घात में है / मिलकर भगाओ
   तोपें चलाओ / बम भी गिराओ
​   ​
​सेना लड़ेगी / सब साथ आओ ​


​३. बचपन हमेशा / चाहे कहानी ​

​   है साथ लेकिन / दादी न नानी ​

​   हो ज़िंदगानी / कैसे सुहानी ​

​   सुने न किस्से, न / बातें बनानी

   *****​

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

hasya salila: yaad -sanjiv

हास्य सलिला:
याद
संजीव 'सलिल'
*
कालू से लालू कहें, 'दोस्त! हुआ हैरान.
घरवाली धमका रही, रोज खा रही जान.
पीना-खाना छोड़ दो, वरना दूँगी छोड़.
जाऊंगी मैं मायके, रिश्ता तुमसे तोड़'
कालू बोला: 'यार! हो, किस्मतवाले खूब.
पिया करोगे याद में, भाभी जी की डूब..
बहुत भली हैं जा रहीं, कर तुमको आजाद.
मेरी भी जाए कभी प्रभु से है फरियाद..'
____________________

ye hai bharat:

सबसे न्यारा भारत देश


kavita: geedh -sanjiv

काव्य सलिला:
गीध
संजीव
*
जब स्वार्थ-साधन,
लोभ-लालच,
सत्ता और सुविधा तक
सीमित रह जाए
नाक की सीध
तब समझ लो आदमी
इंसान नहीं रह गया
बन गया है गीध.

***

chhand salila: chhavi chhand -sanjiv

छंद सलिला:
अष्ट मात्रिक छवि छंद
संजीव
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रा वज्रा, उपेन्द्र वज्रा, कीर्ति, घनाक्षरी, प्रेमा, वाणी, शक्तिपूजा, सार, माला, शाला, हंसी, दोधक, सुजान)
*
अष्ट मात्रिक छन्दों को ८ वसुओं के आधार पर 'वासव छंद' कहा गया है. इस छंदों के ३४ भेद सम्भव हैं जिनकी मात्रा बाँट निम्न अनुसार होगी:
अ. ८ लघु: (१) १. ११११११११,
आ. ६ लघु १ गुरु: (७) २. ११११११२ ३. १११११२१, ४. ११११२११, ५. १११२१११, ६. ११२११११, ७. १२१११११, ८. २११११११,
इ. ४ लघु २ गुरु: (१५) ९. ११११२२, १०. १११२१२, ११. १११२२१, १२, ११२१२१, १३. ११२२११, १४, १२१२११, १५. १२२१११,  १६. २१२१११, १७. २२११११, १८. ११२११२,, १९. १२११२१, २०. २११२११, २२. १२१११२, २३. २१११२१,
ई. २ लघु ३ गुरु: (१०) २४. ११२२२, २५. १२१२२, २६. १२२१२, २७. १२२२१, २८. २१२२१, २९. २२१२१, ३०. २२२११, ३१. २११२२, ३२. २२११२, ३३. २१२१२
उ. ४ गुरु: (१) २२२२
विविध चरणों में इन भेदों का प्रयोग कर और अनेक उप प्रकार हो सकते हैं.
उदाहरण:
१. करुणानिधान! सुनिए पुकार, / रख दास-मान, भव से उबार
२. कर ले सितार, दें छेड़ तार / नित तानसेन, सुध-बुध बिसार
३. जब लोकतंत्र, हो लोभतंत्र / बन कोकतंत्र, हो शोकतंत्र
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सोमवार, 30 दिसंबर 2013

mukatak -sanjiv

मुक्तक :
संजीव 'सलिल'
*
भारत नहीं झुका है, भारत नहीं झुकेगा
भारत नहीं चुका है, भारत नहीं चुकेगा
हम-आप मेहनती हों, ईमानदार हों तो-
भारत नहीं रुका है, भारत नहीं रुकेगा
*
आँसू पोंछे किसी आँख का मिलकर हम इस साल
श्रम-सीकर से रहे सुसज्जित सखे हमारा भाल
सघन तिमिर में दीप वर्तिका सदृश जल सकें मौन-
'सलिल' न व्यर्थ बजायें नेता जा संसद में गाल
*
पानी-पानी हो रहे बिन पानी तालाब
पानी खोकर आँख का मनुज हुआ बेआब
राजनीति के खेल में उल्टी चलते चाल-
कांटें सीने से लगा कुचले फूल गुलाब
***


doha salila: sanjiv

दोहा सलिला:
पौधरोपण कीजिए
संजीव
*
पौधारोपण कीजिए, शुद्ध हो सके वायु
जीवन जियें निरोग सब, मानव हो दीर्घायु
*
एक-एक ग्यारह हुए, विहँसे बारह मास
तेरह पग चलकर हरें, 'सलिल' सभी संत्रास
*
मैं-तुम मिल जब हम हुए, मंज़िल मिली समीप
हों अनेक जब एक तो, तम हरते बन दीप
*
चेतन जब चैतन्य हो, तब होता संजीव
अंतर्मन शतदल सदृश, खिल होता राजीव
*
विजय-पराजय से रहे, जब अंतर्मन दूर
प्रभु-कीर्तन पल-पल करे, श्वासों का संतूर
*
जब तक रीतेगा नहीं, आकांक्षा का कोष
जब तक पायेगा नहीं, अंतर्मन संतोष
*
नित लाती है रवि-किरण, दिनकर का पैगाम
लाली आती उषा के, गालों पर सुन नाम
*
आशीषों की रोटरी, कोशिश की हो राह
वाह परिश्रम की करें, मन में पले न डाह
*
अंकुर पल्लव पौध ही, बढ़ बनते उद्यान
संरक्षण पा ओषजन, से दें जीवन दान
*