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शनिवार, 15 जून 2013

doha geet: baat n sunen kabir ki -sanjiv

दोहा गीत :
http://www.wallpaperswala.com/wp-content/gallery/kabir-das/snat-kabir-das-jayanti.jpg
बात न सुनें कबीर की
संजीव
*
बात न सुनें कबीर की,
करते  जय-जयकार.
सच्चों की है अनसुनी-
झूठे हुए लबार….
*
एकै आखर प्रेम का, नफरत के हैं ग्रन्थ।
सम्प्रदाय सौ द्वेष के, लुप्त स्नेह के पन्थ।।
अनदेखी विद्वान की,
मूढ़ों की मनुहार.
बात न सुनें कबीर की,
करते  जय-जयकार...
*
लोई के पीछे पड़े, गुंडे सीटी मार।
सिसक रही है कमाली, टूटा चरखा-तार।।
अद्धा लिये कमाल ने,
दिया कुटुंब उबार।
बात न सुनें कबीर की,
करते  जय-जयकार...
*
क्रय-विक्रय कर राम का, जग माया का दास।
त्याग-त्याग वैराग का, पग-पग पर उपहास।।
नाहर की घिघ्घी बँधी,
गरजें कूकुर-स्यार।
बात न सुनें कबीर की,
करते  जय-जयकार...
*


 

doha salila hindi salil

दोहा सलिला
हिंदी नगपति हिमालय
संजीव
*
हिंदी नगपति हिमालय, बन छूती आकाश
हो नदीश नित तोड़ती, सीमाओं के पाश
*
हिंदी में रजनीश ने, दिया अनूठा ज्ञान
मिला महर्षि महेश से, दिव्य वेद विज्ञान
*
हिंदी ने युग-युग किया, वाणी का श्रृंगार
राष्ट्र अस्मिता बचने, दहकी बन अंगार
*
हिंदी है जनतंत्र के जन-जन की आवाज़
कोटि-कोटि कंठों बसी, करे ह्रदय पर राज
*
हिंदी दिल से दिल मिला, मिटा रही तकरार
हाथ मिला, पग साथ  धर, बांटो-पाओ प्यार
*

thought of the day : sardar poorn singh

आज का चितन: थॉट ऑफ़ थे डे
अध्यापक पूर्ण सिंह
*
''मैं तो अपनी खेती करता  हूँ,  अपने हल और बैलों को सुबह उठाकर प्रणाम करता  हूँ ! मेरा जीवन  जंगल के पेड़ों  और पत्तियों  की  संगति  में गुज़रता  है, आकाश के बादलों को  देखते मेरा दिन निकल  जाता है  ! मैं किसी को  धोखा नहीं देता,  हाँ, यदि  कोई मुझे  धोखा दे  तो  उससे मेरी  कोई  हानि नहीं !  मेरे खेत में अन्न  उग रहा है, मेरा घर  अन्न से भरा  है,  बिस्तर के  लिए मुझे एक कमली काफी हैं, कमर  के  लिए लंगोटी   और  सिर के लिए एक टोपी  बस  है !  हाथ - पाँव मेरे बलवान है, शरीर मेरा  आरोग्य  है, भूख खूब लगती  है, बाजरा  और मकई , छाछ  और दही , दूध  और मक्खन  बच्चों  को  खाने के लिए मिल जाता  है !'' 

क्या इस  'किसान' की सादगी  और सच्चाई में वह मिठास  नहीं  जिसकी प्राप्ति के लिए  भिन्न-भिन्न धर्म संप्रदाय  लम्बी- चौड़ी  और चिकनी  चुपडी  बातों द्वारा  दीक्षा  दिया करते हैं  ?

                                                                                     -   सरदार पूर्ण सिंह
प्रस्तुति: दीप्ति गुप्ता

             
पूर्ण सत्य का पूर्ण सिंह, करते यहाँ बखान
धन्य दीप्ति जी! कराया, हमें सत्य का भान
काश व्यर्थ मद-मोह से, 'सलिल' हो सके मुक्त
आत्म तनिक परमात्म से हो पाए संयुक्त
यदि कोशिश जारी रहे, सफर न रहे अपूर्ण
चौदह रात्रि अपूर्ण रह, बने चन्द्रमा पूर्ण
*

गुरुवार, 13 जून 2013

doha salila: ghar-ghar dhar hindi kalash -sanjiv

दोहा सलिला:
घर-घर धर हिंदी कलश...
संजीव
*
घर-घर धर हिंदी कलश, हिंदी-मन्त्र  उचार.
हिन्दवासियों  का 'सलिल', हिंदी से उद्धार..
*
दक्षिणभाषी सीखते, हिंदी स्नेह समेत.
उनकी  भाषा सीख ले, होकर 'सलिल' सचेत..
*
हिंदी मैया- मौसियाँ, भाषा-बोली अन्य.
मातृ-भक्ति में रमा रह, मौसी होगी धन्य..
*
पशु-पक्षी तक बोलते, अपनी भाषा मीत.
निज भाषा भूलते, कैसी अजब अनीत??
*
माँ को आदर दे नहीं, मौसी से जय राम.
करे जगत में हो हँसी, माया मिली न राम..
*

मंगलवार, 11 जून 2013

shubh kamna : ऋचा-अनुज परिणय, मंगलवार ११ जून २०१३


श्री गणेशाय नमः
ऋचा-अनुज परिणय, मंगलवार ११ जून २०१३
*
रिद्धि-सिद्धि माँ हों सदय, हों प्रसन्न गणनाथ
ऋचा सुनाएँ 'ऋचा' सुन, रख दें सर पर हाथ
*
रीति सनातन-पुरातन, प्रकृति-पुरुष हों संग
मिटा दूरियाँ मन मिला, दें जीवन को रंग
*
नेह नर्मदा में नहा, 'अनुज' पधारे द्वार
अंजु-वंदना पुलककर, करें अतिथि मनुहार
*
विजय-अनिल भुज भेंटकर, जोड़ रहे सम्बन्ध
जबलपूर-भोपाल हँस, करें नवल अनुबंध
*
हुलस कन्हैया, पुलक दें- रविशंकर आशीष
कहें सुशीला त्रिवेणी, भला करें जगदीश
*
माया है गोविन्द की, गूंजे वैदिक मन्त्र
प्रेमनगर-गुप्तेश्वर, रचें प्रणय का तंत्र
*
आशा-आकांक्षा हुई, पूर्ण- मिली मृदु छाँव
ऋचा राजराजेश्वरी, चली पिया के गाँव
*
सजा कल्पना अल्पना, करे हथेली लाल
मेंहदी रचना सुर्ख तू, करतल हो करताल
*
अनिल अनल भू नभ 'सलिल', पंचतत्वमय देह
द्वैत मिटा अद्वैत वर, हों मन-प्राण विदेह
*
दीपक-रश्मि हरे तिमिर, श्रृद्धा करे निशांत
प्रांजल पूजा सुहानी, हों प्रसन्न दिग्कांत
*
ओशी शुभि नित्य विहँस, गायें बन्नी गीत
ऋतु समृद्धि उपहार ले, मुदित बढ़ाए प्रीत
*
खुश अनिकेत अरुण वरुण, नभ नीलाभ विभोर
आनंदित अनिमेष मन, खुशयां रहा अंजोर
*
चुटकी भर सिन्दूर दे, सात जन्म का साथ
ढाई आखर पढ़ युगल, रखे उठाकर माथ
*
घूँघट पर अचकन गयी, पल भर में दिल हार
कलगी पर बेंदा करे, तन-मन विहँस निसार
*
श्वास-आस, मन-प्राण हों, सुख-समृद्धि भरपूर
छेड़े सरगम सुखों की, साँसों का संतूर
******
शब्द्सुमन: संजीव, ९४२५१ ८३२४४
divyanarmada.blogspot.com
salil.sanjiv@gmail.com

bundeli, muktika, sanjiv

बुन्देली मुक्तिका:
बखत बदल गओ
संजीव
*
बखत बदल गओ, आँख चुरा रए।
सगे पीठ में भोंक छुरा रए।।
*
लतियाउत तें कल लों जिनखों
बे नेतन सें हात जुरा रए।।
*
पाँव  कबर मां लटकाए हैं
कुर्सी पा खें चना मुरा रए।।
*
पान तमाखू गुटका खा खें
भरी जवानी गाल झुरा रए।।
*
झूठ प्रसंसा सुन जी हुमसें
सांच कई तेन अश्रु ढुरा रए।।
*

सोमवार, 10 जून 2013

vinay: prabhu j! hamko den vardaan... sanjiv

भजन :
प्रभु जी! हमको दें वरदान
संजीव
*
प्रभु जी! हमको दें वरदान...
*
हम माटी के महज खिलौने,
प्रकृति मत के मृग-छौने.
कोशिश करें न जीवन में, नभ
छुए बिना रह जाएं बौने.
जड़ें जमा धरती वर विचरें
बनें धरा का मान...
*
हम किस्मत के बनें डिठौने,
करें न कोई काम घिनौने.
रंग भर सकें जग-जीवन में-
हों न अधूरे स्वप्न सलौने.
दॊए रहें दुर्गुण-दुःख हमसे
हों सद्गुण की खान...
*
स्वासों संग आसन के गौना,
प्यास हरे, रासों का दौना.
करे पूर्ण की प्राप्ति 'सलिल', पग
थामे नहीं पा औना-पौना.
समय-सत्य का कर पायें हम
समय-पूर्व अनुमान...
*

शनिवार, 8 जून 2013

bundeli muktika: sanjiv

बुन्देली मुक्तिका:
हमाये पास का है?...
 संजीव
*
हमाये पास का है जो तुमैं दें?
तुमाये हात रीते तुमसें का लें?
आन गिरवी बिदेसी बैंक मां है
चोर नेता भये जम्हूरियत में।।
रेत मां खे रए हैं नाव अपनी
तोड़ परवार अपने हात ही सें।।
करें गलती न मानें दोष फिर भी
जेल भेजत नें कोरट अफसरन खें।।
भौत है दूर दिल्ली जानते पै
हारियो नें 'सलिल मत बोलियों टें।।
***

शुक्रवार, 7 जून 2013

doha geet: jitanee aankhen... sanjiv

दोहा गीत:
जितनी आँखें...
संजीव
*
मूंदीं आँखें देखे सपने,
हुए पराये पल में अपने…
*
चाहे निष्क्रिय कर-कमल, तजकर सक्रिय हाथ।
शीश झुका अभिमान का, उठा विनय का माथ।।
प्राणप्रिया जिसको कहा, बना उसीका नाथ-
हरजाई हो चाहता, जनम-जनम का साथ।।
चुने बेतुके-बेढब नपने,
सोच लगी है टाँगें कंपने...
*
घड़ियाली आँसू बहा, किया आत्म-संतोष।
अश्रु न पोछे दर्द के, अनदेखा कर रोष।।
टोटा जिसमें टकों का, लेकर ऐसा कोष-
अपने मुँह से कर रहा, खुद अपना जयघोष।।
पैर लगे पापों में गपने,
साथ न देते भगने-छिपने...
*
येन-केन पद पा किया, जी भर भ्रष्टाचार।
मूल्यहीनता-नग्नता, ठगी हुई व्यापार।।
शत्रु  देश की धरा पर, भले करे अधिकार-
मात्र यही है कामना, बनी रहे सरकार।।
चल पद-मद की माला जपने
चन्दन लगा भले जल-तपने...
*


virasat: geet naman karoon.. som thakur

विरासत :
गीत -
सौ सौ नमन करूँ...
http://chakradhar.in/wp-content/uploads/2012/08/Som-Thakur.jpg
सोम  ठाकुर
*
सागर  पखारे गंगा शीश चढ़ाए नीर,
मेरे भारत की माटी है  चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
उत्तर  मन मोहे, दक्षिण में रामेश्वर,
पूरब पूरी बिराजे, पच्छिम धाम द्वारका सुन्दर।
जो न्हावै मथुरा जी-कासी छूटै लख चौरासी-
कान्हा  रास रचै  में जमुना के तीर
मेरे भारत की माटी है  चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
फूटें  रंग भोर के वन में, खोलें गंध किवरियाँ,
हरी झील में दिप-दिप तैरें मछली सी किन्नरियाँ।
लहर-लहर में झेलम झूलै,  गाये मीठी लोरी-
परबत के पीछे सोहे नित चंदा सो कश्मीर
मेरे भारत की माटी है  चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
चैत चाँदनी हँसे पूस में, पछुवा तन-मन परसै,
जेठ तपै झरती गिरिजा सी, सावन अमृत बरसै।
फागुन  फर-फर भावै ऐंसी के सैयां पिचकारी-
आँगन भीजै, तन-मन भीजै औ' पचरंगी चीर
मेरे भारत की माटी है  चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
फूटें-फरें मटर की घुटियाँ, धरने झरें झरबेरी,
मिले कलेऊ में बाजरा की रोटी, मठा-महेरी।
बेटा मांगे गुड की डेली,  बिटिया चना-चबेना-
भाभी मांगें खट्टी अमिया, भैया रस की खीर
मेरे भारत की माटी है  चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
रजा बिकें टका में भैया ऐसो देस  हमारो,
सबकें पालनहारो सुत पै खुद चलवावै आरो।
लछमन जागें सारी रैना, सिया तपाएं रसोई-
वल्कल तन पर बाँधे सोहें जटा-जूट रघुवीर
मेरे भारत की माटी है  चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
मंगल  भवन अमंगलहारी के जस तुलसी गावैं,
सूरदास  काउ स्याम रंगो मन अनत कहै सुख पावै।
हँस कें पिए गरल को प्यालो प्रेम-दीवानी मीरां-
ज्यों की त्यों धर दई चदरिया, कह गै दास कबीर
मेरे भारत की माटी है  चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
नित रसखान पठान गाये ब्रिज की लीला लासानी,
रौशन सिंह के संग देंय अशफाकुल्ला क़ुर्बानी।
चार हांथ धरती पुतर है शाह ज़फर की काया-
गाये कन्हैया को बालापन जनकवि मियाँ नजीर
मेरे भारत की माटी है  चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
लाली  अभी न छूटी भैया, अभी न मेद न भूले,
बियर  लाडले सीना ताने फांसी ऊपर झूले।
गोलाबर सी नंगी पीठें बंधी तोप के आगे-
आन्गारण में कौंधी सन सत्तावन की  शमशीर
मेरे भारत की माटी है  चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
ऐसो कछू करौ मिल-जुल कें, ऐसो कछू बिचारो,
फहर-फहर फहराय तिरंगो पहियों चक्करबारो।
कहूं  न अचरा अटके याको कहूं न पिचै अंगुरिया
दूर करो या धरती मैया के माथे की पीर
मेरे भारत की माटी है  चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*






  

मंगलवार, 4 जून 2013

doha salila: hindi par dohe Acharya Sanjiv Verma 'Salil"

हिंदी दोहा सलिला
हिंदी प्रातः श्लोक है.....
-- संजीव 'सलिल'
*
हिंदी भारत भूमि के, जनगण को वरदान.
हिंदी से ही हिंद का, संभव है उत्थान..
*
संस्कृत की पौत्री प्रखर, प्राकृत-पुत्री शिष्ट.
उर्दू की प्रेमिल बहिन, हिंदी परम विशिष्ट..
*
हिंदी आटा माढ़िये, उर्दू मोयन डाल.
'सलिल' संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल..
*
ईंट बनें सब बोलियाँ, गारा भाषा नम्य.
भवन भव्य है हिंद का, हिंदी बसी प्रणम्य..
*
संस्कृत, पाली, प्राकृत, हिंदी उर्दू पाँच.
भाषा-बोली अन्य हैं, स्नेहिल बहने साँच..
*
सब भाषाएँ-बोलियाँ, सरस्वती के रूप.
स्नेह् पले, साहित्य हो, सार्थक सरस अनूप..
*
भाषा-बोली श्रेष्ठ हर, त्याज्य न कोई हेय.
सबसे सबको स्नेह ही, हो जीवन का ध्येय..
*
उपवन में कलरव करें, पंछी नित्य अनेक.
भाषाएँ हैं अलग पर, पलता स्नेह-विवेक..
*
भाषा बोलें कोई भी, किन्तु बोलिए शुद्ध.
दिल से दिल तक जा सके, बनकर प्रेम प्रबुद्ध..
*
मौसी-चाची ले नहीं, सकतीं माँ का स्थान.
सिर-आँखों पर बिठा पर, उनको माँ मत मान..
*
ज्ञान गगन में सोहाती, हिंदी बनकर सूर्य.
जनहित के संघर्ष में, है रणभेरी तूर्य..
*
हिंदी सजती भाल पे, भारत माँ के भव्य.
गौरव गाथा राष्ट्र की, जनवाणी यह दिव्य..
*
हिंदी भाषा-व्याकरण, है सटीक अरु शुद्ध.
कर सटीक अभिव्यक्तियाँ, पुजते रहे प्रबुद्ध..
*
हिंदी सबके मन बसी, राजा प्रजा फकीर.
केशव देव रहीम घन, तुलसी सूर कबीर..
*

हिंदी प्रातः श्लोक है, दोपहरी में गीत.
संध्या वंदन-प्रार्थना, रात्रि प्रिया की प्रीत..
**************

gazal santosh bhauwala

ग़ज़ल:
चले आइए 
 संतोष भाऊवाला
 *


बज़्म-ए-उल्फ़त सजी है चले आइए
कैसी नाराज़गी है चले आइए
 
ख्वाब में ढूंढ़ती मैं रही आप को
ऐसी क्या बे रूखी है चले आइए
 
याद आकर सताती रही रात भर
आँसु ओं की झड़ी है चले आइए
 
ईद का चाँद भी मुन्तज़िर आपका
कैसी पर्दादरी है चले आइए
 
चाँदनी चाँद से होने को है जुदा
रात भी ढल चली है चले आइए

सोमवार, 3 जून 2013

muktika kya batyen achraya sanjiv verma 'salil'

मुक्तिका:
क्या बतायें?...
संजीव
*
फासले नजदीकियों के दरमियाँ हैं।
क्या बतायें हम कि क्या मजबूरियाँ है?

फूल तनहा शूल के घर महफिलें हैं,
तितलियाँ हैं या हसीं मगरूरियाँ हैं..

नुमाइंदे बोटियाँ खाकर परेशां.
वोटरों को चाँद दिखता रोटियाँ हैं..

फास्ट, रोजा, व्रत करो कब कहा उसने?
छलावा करते रहे पंडित-मियाँ हैं..

खेल मैदां पर न होता है तमाशा
खिलाड़ी छिप चला करते गोटियाँ हैं..

हाय गर्मी! प्यास है, पानी नहीं है.
प्रशासन मुस्तैद, मँहगी टोटियाँ हैं.. 


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virasat veeron ka kaisa ho basant subhadra kumari chauhan


विरासत :

वीरों का कैसा हो बसंत

सुभद्रा कुमारी चौहान 

सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। १९०४ में इलाहाबाद जिले के निहालपुर ग्राम में जन्मीं सुभद्रा खंडवा के ठाकुर लक्ष्मण सिंह से विवाहोपरांत जबलपुर में रहीं। उन्होंने १९२१ के असहयोग आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। नागपुर में गिरफ्तारी देकर वे असहयोग आन्दोलन में गिरफ्तार पहली महिला सत्याग्रही बनीं. वे दो बार १९२३ और १९४२ में गिरफ्तार होकर जेल भी गयीं। उनकी अनेकों रचनाएं आजादी के पूर्व के दिनों की तरह आज भी उसी प्रेम और उत्साह से पढी जाती हैं। "सेनानी का स्वागत", "वीरों का कैसा हो वसंत" और "झांसी की रानी" उनकी ओजस्वी वाणी के जीवंत उदाहरण हैं। वे जितनी वीर थीं उतनी ही दयालु भी थीं। वे लोकप्रिय विधायिका भी रहीं। १५ फरवरी १९४८ में एक कार दुर्घटना के बहाने से ईश्वर ने इस महान कवयित्री और वीर स्वतन्त्रता सेनानी को हमसे छीन लिया। प्रस्तुत है सुभद्रा कुमारी चौहान की मर्मस्पर्शी रचना, "जलियाँवाला बाग में वसंत"

यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।

कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।

परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।

ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।

वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना,
दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना।

कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें,
भ्रमर करें गुंजार कष्ट की कथा सुनावें।

लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले,
तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले।

किन्तु न तुम उपहार भाव आ कर दिखलाना,
स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना।

कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा कर,
कलियाँ उनके लिये गिराना थोड़ी ला कर।

आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं,
अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं।

कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना,
कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना।

तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर,
शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जा कर।

यह सब करना, किन्तु यहाँ मत शोर मचाना,
यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना।

रविवार, 2 जून 2013

doha gatha 11 acharya sanjiv verma 'salil'


दोहा गाथा :  ११ 

बहुरूपी दोहा अमर 
संजीव 
                                                                                *
बहुरूपी दोहा अमर, सिन्धु बिंदु में लीन.
सागर गागर में भरे, बांचे कथा प्रवीण.

दोहा मात्रिक छंद है, तेईस विविध प्रकार.
तेरह-ग्यारह दोपदी, चरण समाहित चार.

विषम चरण के अंत में, 'सनर' सुशोभित खूब.
सम चरणान्त 'जतन' रहे, पाठक जाये डूब.

विषम चरण के आदि में, 'जगण' विवर्जित मीत.
दो शब्दों में मान्य है, यह दोहा की रीत.

छप्पय रोला सोरठा, कुंडलिनी चौपाइ.
उल्लाला हरिगीतिका, दोहा के कुनबाइ.

सुख-दुःख दो पद रात-दिन, चरण चतुर्युग चार.
तेरह-ग्यारह विषम-सम, दोहा विधि अनुसार.

द्रोह, मोह, आक्रोश या, योग, भोग, संयोग.
दोहा वह उपचार जो, हरता हर मन-रोग.

दोहा के २३ प्रकार लघु-गुरु मात्राओं के संयोजन पर निर्भर हैं। सम चरण में ११-११, विषम चरण में १३-१३ तथा दो पदों में २४-२४ मात्राओं के बंधन को मानते हुए २३ प्रकार के दोहे होना पिंगालाचार्यों की अद्‍भुत कल्पना शक्ति तथा गणितीय मेधा का जीवंत प्रमाण है। विश्व की किसी अन्य भाषा के पास ऐसी सम्पदा नहीं है। 

छंद गगन के सूर्य  दोहा की रचना के मानक समय-समय पर बदलते गए, भाषा का रूप, शब्द-भंडार, शब्द-ध्वनियाँ जुड़ते-घटते रहने के बाद भी दोहा प्रासंगिक रहा उसी तरह जैसे पाकशाला में पानी। दोहा की सरलता-तरलता ही उसकी प्राणशक्ति है। दोहा की संजीवनी पाकर अन्य छंद भी प्राणवंत हो जाते हैं। इसलिये दोहा का उपयोग अन्य छंदों के बीच में रस परिवर्तन, भाव परिवर्तन या प्रसंग परिवर्तन के लिए किया जाता रहा है। निम्न सारणी देखिये-
क्रमांक   नाम   गुरु   लघु   कुल कलाएं   कुल मात्राएँ 
- -                      २४     ०           २४              ४८
- -                      २३      २          २५              ४८
१.         भ्रामर   २२      ४           २६              ४८
२.      सुभ्रामर   २१      ६          २७               ४८
३.       शरभ      २०      ८          २८               ४८
४.       श्येन      १९     १०          २९               ४८
५.       मंडूक     १८    १२          ३०               ४८
६.       मर्कट     १७    १४          ३१                ४८
७.      करभ
     १६     १६          ३२               ४८
८.
        नर       १५     १८         ३३               ४८
९.
        हंस       १४     २०         ३४               ४८
१०.
     गयंद     १३      २२        ३५               ४८
११.
    पयोधर   १२     २४        ३६               ४८
१२.       बल       ११     २६         ३७               ४८
१३.      पान       १०     २८        ३८               ४८
१४.     त्रिकल      ९     ३०        ३९               ४८
१५.    कच्छप     ८     ३२        ४०               ४८
१६.      मच्छ       ७    ३४        ४१               ४८
१७.     शार्दूल      ६     ३६        ४२               ४८
१८.     अहिवर    ५    ३८        ४३               ४८
१९.     व्याल       ४     ४०       ४४               ४८
२०.    विडाल      ३     ४२       ४५              ४८
२१.     श्वान        २     ४४        ४६              ४८
२२.      उदर       १      ४६       ४७              ४८
२३.      सर्प        ०      ४८       ४८              ४८

इस लम्बी सूची को देखकर घबराइये मत। यह देखिये कि आचार्यों ने किसी गणितज्ञ की तरह समस्त संभावनायें तलाश कर दोहे के २३ प्रकार बताये। दोहे के दो पदों में २४ गुरु होने पर लघु के लिए स्थान ही नहीं बचता। सम चरणों के अंत में लघु हुए बिना दोहा नहीं कहा जा सकता।
२३ गुरु होने पर हर पद में केवल एक लघु होगा जो सम चरण में रहेगा। तब विषम चरण में लघु मात्र न होने से दोहा कहना संभव न होगा। आपने जो दोहे कहे हैं या जो दोहे आपको याद हैं वे इनमें से किस प्रकार के हैं, रूचि हो तो देख सकते हैं। क्या आप इन २३ प्रकारों के दोहे कह सकते हैं? कोशिश करें...कठिन लगे तो न करें...मन की मौज में दोहे कहते जाएँ...धीरे-धीरे अपने आप ही ये दोहे आपको माध्यम बनाकर बिना बताये, बिना पूछे आपकी कलम से उतर आयेंगे।

साखी से सिख्खी हुआ...

कबीर ने दोहा को शिक्षा देने का अचूक अस्त्र बना लिया। शिक्षा सम्बन्धी दोहे साखी कहलाये। गुरु नानकदेव ने दोहे को अपने रंग में रंग कर माया में भरमाई दुनिया को मायापति से मिलाने का साधन बना दिया। साखी से सिख्खी हुए दोहे की छटा देखिये-
पहले मरण कुबूल कर, जीवन दी छंड आस.
हो सबनां दी रेनकां, आओ हमरे पास..
सोचै सोच न होवई, जे सोची लखवार.
चुप्पै चुप्प न होवई, जे लाई लिवतार..
इक दू जीभौ लख होहि, लाख होवहि लख वीस.
लखु लखु गेडा आखिअहि, एकु नामु जगदीस..
दोहा की छवियाँ अमित

दोहा की छवियाँ अमित, सभी एक से एक.
निरख-परख रचिए इन्हें, दोहद सहित विवेक..

दोहा के तेईस हैं, ललित-ललाम प्रकार.
व्यक्त कर सकें भाव हर, कवि विधि के अनुसार..

भ्रमर-सुभ्रामर में रहें, गुरु बाइस-इक्कीस.
शरभ-श्येन में गुरु रहें, बीस और उन्नीस..

रखें चार-छ: लघु सदा, भ्रमर सुभ्रामर छाँट.
आठ और दस लघु सहित, शरभ-श्येन के ठाठ..


भ्रमर- २२ गुरु, ४ लघु=४८

बाइस गुरु, लघु चार ले, रचिए दोहा मीत.
भ्रमर सद्रश गुनगुन करे, बना प्रीत की रीत.

सांसें सांसों में समा, दो हो पूरा काज,
मेरी ही तो हो सखे, क्यों आती है लाज?


सुभ्रामर - २१ गुरु, ६ लघु=४८

इक्किस गुरु छ: लघु सहित, दोहा ले मन मोह.
कहें सुभ्रामर कवि इसे, सह ना सकें विछोह..

पाना-खोना दें भुला, देख रहा अज्ञेय.
हा-हा,ही-ही ही नहीं, है सांसों का ध्येय..


शरभ- २० गुरु, ८ लघु=४८

रहे बीस गुरु आठ लघु का उत्तम संयोग.
कहलाता दोहा शरभ, हरता है भव-रोग..

हँसे अंगिका-बज्जिका, बुन्देली के साथ.
मिले मराठी-मालवी, उर्दू दोहा-हाथ..


श्येन- १९ गुरु, १० लघु=४८

उन्निस गुरु दस लघु रहें, श्येन मिले शुभ नाम.
कभी भोर का गीत हो, कभी भजन की शाम..

ठोंका-पीटा-बजाया, साधा सधा न वाद्य.
बिना चबाये खा लिया, नहीं पचेगा खाद्य..


दोहा के २३ प्रकारों में से चार से परिचय प्राप्त करें और उन्हें मित्र बनाने का प्रयास करें.
 
दोहा के आकर्षण से भारतेंदु हरिश्चन्द्र के अंग्रेज मित्र स्व. श्री फ्रेडरिक पिंकोट नहीं बच सके। श्री पिंकोट का निम्न सोरठा एवं दोहा यह भी तो कहता है कि जब एक विदेशी और हिन्दी न जाननेवाला इन छंदों को अपना सकता है तो हम भारतीय इन्हें सिद्ध क्यों नहीं कर सकते? प्रश्न इच्छाशक्ति का है, छंद तो सभी को गले लगाने के लिए उत्सुक है।
बैस वंस अवतंस, श्री बाबू हरिचंद जू.
छीर-नीर कलहंस, टुक उत्तर लिख दे मोहि.

शब्दार्थ: बैस=वैश्य, वंस= वंश, अवतंस=अवतंश, जू=जी, छीर=क्षीर=दूध, नीर=पानी, कलहंस=राजहंस, तुक=तनिक, मोहि=मुझे.

भावार्थ: हे वैश्य कुल में अवतरित बाबू हरिश्चंद्र जी! आप राजहंस की तरह दूध-पानी के मिश्रण में से दूध को अलग कर पीने में समर्थ हैं. मुझे उत्तर देने की कृपा कीजिये.

श्रीयुत सकल कविंद, कुलनुत बाबू हरिचंद.
भारत हृदय सतार नभ, उदय रहो जनु चंद.


भावार्थ: हे सभी कवियों में सर्वाधिक श्री संपन्न, कवियों के कुल भूषण! आप भारत के हृदयरूपी आकाश में चंद्रमा की तरह उदित हुए हैं.

सुविख्यात सूफी संत अमीर खुसरो (संवत १३१२-१३८२) ने दोहा का दामन थामा तो दोहा ने उनकी प्यास मिटाने के साथ-साथ उन्हें जन-मन में प्रतिष्ठित कर अमर कर दिया-

गोरी सोयी सेज पर, मुख पर डारे केस.
चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस..

खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग.
तन मेरो मन पीउ को, दोउ भये इक रंग..

सजन सकारे जायेंगे, नैन मरेंगे रोय.
विधना ऐसी रैन कर, भोर कभी ना होय..


गोष्ठी के समापन से पूर्व एक रोचक प्रसंग

एक बार सद्‍गुरु रामानंद के शिष्य कबीरदास सत्संग की चाह में अपने ज्येष्ठ गुरुभाई रैदास के पास पहुँचे। रैदास अपनी कुटिया के बाहर पेड़ की छाँह में चमड़ा पका रहे थे। उन्होंने कबीर के लिए निकट ही पीढ़ा बिछा दिया और चमड़ा पकाने का कार्य करते-करते बातचीत प्रारंभ कर दी। कुछ देर बाद कबीर को प्यास लगी। उन्होंने रैदास से पानी माँगा। रैदास उठकर जाते तो चमड़ा खराब हो जाता, न जाते तो कबीर प्यासे रह जाते... उन्होंने आव देखा न ताव समीप रखा लोटा उठाया और चमड़ा पकाने की हंडी में भरे पानी में डुबाया, भरा और पीने के लिए कबीर को दे दिया। कबीर यह देखकर भौंचक्के रह गये किन्तु रैदास के प्रति आदर और संकोच के कारण कुछ कह नहीं सके। उन्हें चमड़े का पानी पीने में हिचक हुई, न पीते तो रैदास के नाराज होने का भय... कबीर ने हाथों की अंजुरी बनाकर होठों के नीचे न लगाकर ठुड्डी के नीचे लगाली तथा पानी को मुँह में न जाने दिया। पानी अंगरखे की बाँह में समा गया, बाँह लाल हो गयी। कुछ देर बाद रैदास से बिदा लकर  कबीर घर वापिस लौट गये और अंगरखा उतारकर अपनी पत्नी लोई को दे दिया। लोई भोजन पकाने में व्यस्त थी, उसने अपनी पुत्री कमाली को वह अंगरखा धोने के लिए कहा। अंगरखा धोते समय कमाली ने देखा उसकी बाँह  लाल थी... उसने देख कि लाल रंग छूट नहीं रहा है तो उसने मुँह से चूस-चूस कर सारा लाल रंग निकाल दिया... इससे उसका गला लाल हो गया। तत्पश्चात कमाली मायके से बिदा होकर अपनी ससुराल चली गयी।

कुछ दिनों के बाद गुरु रामानंद तथा कबीर का काबुल-पेशावर जाने का कार्यक्रम बना। दोनों परा विद्या (उड़ने की कला) में निष्णात थे। मार्ग में कबीर-पुत्री कमाली की ससुराल थी। कबीर के अनुरोध पर गुरु ने कमाली के घर रुकने की सहमति दे दी। वे अचानक कमाली के घर पहुँचे तो उन्हें घर के आँगन में दो खाटों पर स्वच्छ गद्दे-तकिये तथा दो बाजोट-गद्दी लगे मिले। समीप ही हाथ-मुँह धोने के लिए बाल्टी में ताज़ा-ठंडा पानी रखा था। यही नहीं उन्होंने कमाली को हाथ में लोटा लिये हाथ-मुँह धुलाने के लिए तत्पर पाया। कबीर यह देखकर अचंभित रह गये ककि  हाथ-मुँह धुलाने के तुंरत बाद कमाली गरमागरम खाना परोसकर ले आयी।

भोजन कर गुरु आराम फरमाने लगे तो मौका देखकर कबीर ने कमाली से पूछा कि उसे कैसे पता चला कि वे दोनों आने वाले हैं? वह बिना किसी सूचना के उनके स्वागत के लिए तैयार कैसे थी? कमाली ने बताया कि रंगा लगा कुरता चूस-चूसकर साफ़ करने के बाद अब उसे भावी घटनाओं का आभास हो जाता है। तब कबीर समझ सके कि उस दिन गुरुभाई रैदास उन्हें कितनी बड़ी सिद्धि बिना बताये दे रहे थे तथा वे नादानी में वंचित रह गये।

कमाली के घर से वापिस लौटने के कुछ दिन बाद कबीर पुनः रैदास के पास गये... प्यास लगी तो पानी माँगा... इस बार रैदास ने कुटिया में जाकर स्वच्छ लोटे में पानी लाकर दिया तो कबीर बोल पड़े कि पानी तो यहाँ कुण्डी में ही भरा था, वही दे देते। तब रैदास ने एक दोहा कहा-

जब पाया पीया नहीं, था मन में अभिमान.
अब पछताए होत क्या नीर गया मुल्तान.


कबीर ने इस घटना अब सबक सीखकर अपने अहम् को तिलांजलि दे दी तथा मन में अन्तर्निहित प्रेम-कस्तूरी की गंध पाकर ढाई आखर की दुनिया में मस्त हो गये और दोहा को साखी का रूप देकर भव-मुक्ति की राह बताई -

कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूंढें बन माँहि .
ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाँहि.
==========
हिन्द युग्म, १८.४.२००९, २५.४.२००९



आज का विचार / Thought of the Day

आज का विचार / Thought of the Day
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 deepti gupta - sanjiv


आप सही है तो नहीं क्रोध की तनिक जरूरत
गलत हुए तो हक न क्रोंध का, बचें अहम् से,
अभिमानी त्रुटि नहीं मानता, भूल भुलाता-
करता है बहसें, याद रखें फिर रहें शांति से

If you are right then there is no need to get angry,
And if you are wrong then you don't have any right to get angry.


Beware  of  'Ego'! An  egoist  person - when  wrong, is  highly 
 
illogical & justifies himself without heeding over  his blunders.


Have  a  peaceful  & cheerful day!

                                             


geet yaad aaee aaj sanjiv

गीत:
याद आई आज
संजीव
*
याद आई आज…
फिर-फिर याद आई आज…
*
कर-कर कोशिश हिम्मत हारी,
मंद श्वास की है अग्यारी।
आस-प्यास सब तुम पर वारी-
अपनों ने भी याद बिसारी।
तुम्हीं हो जिससे न किंचित लाज
याद आई आज…
*
था नहीं सुख में तुम्हारा साथ,
आज गुम जो कह रहे थे नाथ!
अब न सूझे हाथ को ही हाथ-
झुक रहा अब तक तना था माथ।
जब न सिर पर शेष कोई ताज
याद आई आज…
*
बिसारा सब लेन-देन अशेष,
आम हैं सब, कौन खास-विशेष?
छाँह आँगन में नहीं है शेष-
जाऊं कम कर भार, विहँसें शेष।
ना किसी को, ना किसीसे काज
याद आई आज…
*
कुछ न सार्थक या निरर्थक मीत,
गाये कब किसने किसीके गीत?
प्रीत अविनश्वर हुई प्रतीत -
रीत सुख-दुःख-साक्षी संगीत।
शब्द होते गीत कब-किस व्याज?
याद आई आज...
*
अनिल से मिल तजूँ रूपाकार,
अनल हो, सच को सकूँ स्वीकार।
गगन होकर पाऊँ-दूँ विस्तार-
धरा जग-आधार प्राणाधार-
'सलिल' देकर तृप्ति, वर ले गाज
याद आई आज…
*

शनिवार, 1 जून 2013

hindi lyric: acharya sanjiv verma 'salil'


गीत :

फोड़ रहा है काल फटाके...
संजीव
*
झाँक झरोखे से वह ताके, 
या नव चित्र अबोले आँके...
* http://img207.imageshack.us/img207/8596/17410865db63b8a8c81dc79.jpg
सांध्य-सुंदरी दुल्हन नवेली,
ठुमक-ठुमक पग धरे अकेली।
निशा-नाथ को निकट देखकर-
झट भागी खो धीर सहेली।
तारागण बाराती नाचे 
पियें सुधा रस मिलकर बाँके...
*https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjnRGnzIqnpTJPGXAVXCfM6PMb-PEz56Uuqzehl-yiXlCq8RzlCNHTai9k7_4-WF39kmgPbINsRwRhnv49PHgoGuJQNH9CusFOVtyqKSGG30SFbLR75TMrfYRNomz6hJ99YmSBI_nYxhMmO/s1600/seven_sisters800a.jpg
झींगुर बजा रहे शहनाई,
तबला ठोंकें दादुर भाई।
ध्रुव तारे को दिखा रही है-
उत्तर में पुरवैया दाई।
दें-लें सात वचन, मत नाके-  
कहाँ पादुका ऊषा ताके...
*http://statics.erasmusu.com/originals/sun-rise-41493966de312ae88e43953358215e95.jpg
धरा धरा ने अब तक धीरज,
रश्मि बहू ले आया सूरज।
अगवानी करती गौरैया-
सलिल-धार उपहारे नीरज।
चित्र गुप्त, चुप सुनो ठहाके-
फोड़ रहा है काल फटाके...
Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com/blogspot.in

bhajan (davotinal lyric) acharya sanjiv verma 'salil'



भजन:

संजीव
*
प्रभु! स्वीकारो करूँ  नमन शत...
*
हम मृण्मय मानव हैं माना,
आदत गलती कर पछताना.
पहले काम करें मनमाना-
दोष तुझे फिर देते नाना.
अब न करेंगे कोई बहाना,
जाने बस तेरा जस गाना.
प्रभु! हमसे क्रोधित होना मत 
प्रभु! स्वीकारो करूँ  नमन शत...
*
तुम बिन माटी है सारा जग,
चाह रही मन की मन को ठग.
कौन बताये चलना किस मग?
उठें न तुम तक जा पायें पग.
पिंजरा आस, विकल प्यासा खग-
हिम्मत नहीं बढ़ें रखकर डग.  
प्रभ!  विनती तुम ही राखो पत.
प्रभु! स्वीकारो करूँ  नमन शत...
*
अपने मैं से खुद ही हारा,
फिरता दर-दर हो बेचारा.
पर-संपति को ललच निहारा,
दौड़-गिरा फिर तका सहारा.
जाना है तज सकल पसारा।
तुझको अब तक रहा बिसारा.
प्रभु! पा लूँ तुमको दो हिम्मत  
प्रभु! स्वीकारो करूँ  नमन शत...
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in

chhayavaad (romanticism):

 हिंदी कविता का आकर्षण छायावाद Romanticism :

दीप्ति गुप्ता - संजीव 'सलिल'

*

जब मानवीय प्रवृत्तियों व कार्य-कलापों को प्रकृति के उपादानों के माध्यम से व्यक्त करनेवाली कविता छायावादी कविता है। प्रकृति पर मानवीय भावों का आरोपण छायावादी कविता होती है! छायावाद के चार प्रमुख स्तम्भ जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', महादेवी वर्मा तथा सुमित्रानन्दन पन्त हैं।  http://voutsadakis.com/GALLERY/ALMANAC/Year2011/Jan2011/01302011/jayashankar-prasad-3.jpghttp://lekhakmanch.com/wp-content/uploads/2012/01/suryakant-tripathi-nirala.jpghttp://upload.wikimedia.org/wikipedia/en/b/be/Sumitranandan_Pant,_(1900_-_1977).jpg
 
Kaamaayani - Nirved by Jaishankar Prasad     
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सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

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महादेवी वर्मा
        
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सुमित्रानंदन पन्त
  http://i234.photobucket.com/albums/ee147/MPMEHTA/poem.jpg  
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अंग्रेजी काव्य में छायावाद को रोमांटिसिज्म कहा गया है। 
Nature and love were a major themes of Romanticism favoured by 18th and 19th century poets such as Lord Byron, Percy Bysshe Shelley and John Keats. Emphasis in such poetry is placed on the personal experiences of the individual.
 
The Question
by
Percy Bysshe Shelley
I dreamed that, as I wandered by the way,
Bare Winter suddenly was changed to Spring,
And gentle odours led my steps astray,
Mixed with a sound of waters murmuring
प्रश्न: पर्सी ब्येश शैली
भटक रहा था पथ पर मैंने सपना देखा
कड़ी शीत को बासंती होते था लेखा
सलिल-धार की कलकल
मिश्रित मदिर सुरभि ने
मेरे कदमों को यायावर
कर बहकाया