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बुधवार, 17 मार्च 2010

कविता: सिद्धि -श्यामलाल उपाध्याय

पूना का रेजिमेंट

जिसमें कथा की

पूर्णाहुति.

व्यास महाराज को

यथाशक्ति दान-दक्षिणा,

इसे बीच श्वेत

अधिकारी का प्रवेश

श्रद्धावनत विनयभाव

व्यास की अनुमति से

जिज्ञासा जनित एक प्रश्न-

मात्र स्थानान्तरण का.



व्यास कथा-वाचक का

मौन मूक चिंतन और

श्वास पर आधारित

लग्न-वेला-मेलापक पर

शांत सस्वर उत्तर-

कार्य-सिद्धि

मात्र सप्ताह में-

अंतिम निर्णय.



श्वेत अधिकारी का

कमीशंड अधिकारी को

इंगिति-

व्यास की व्यस्था और

श्वेत अधिकारी का

साभार प्रस्थान.

व्यास के मस्तिष्क में

विचारों के आरोह-अवरोह

जीवन संकट-ग्रस्त प्रभो!

धारित अवधि में यदि

कार्य-सिद्धि न हुई-

मात्र एक प्रश्न से आक्रांत,

पर वेला में आहुति के

कोई भी वचन मृषा

होता भी तो कैसे/

फिर भी यदि साधना

हुई न साकार.


जागा विवेक

सुन उद्घोष अंतर का

चित्त एकाग्र और

वालिश वृत्ति त्यागकर

ध्यान कर दुर्गा का.



व्यास ने संध्या को

ग्रहण किया आसान

प्रतीची मुख ध्यान में

प्रारंभ किया जप को

प्रातः उठ प्राच्य मुख

न्यौछावर कर सर्वस्व

दुर्गा मातेश्वरी को

ध्यान किया ब्राम्हण ने

एकनिष्ठ भाव से,

पर आशंका पिशाचिन की

विकल करती व्यास को.

साधना में सिद्धि का

अभाव रहा किंचित

तो पथ-भ्रष्ट, पदच्युत

प्रवंचना अनर्थ और

लोक-वेद च्युति

देव योग अथवा

एकाग्रता ने व्यास की

द्वादश प्रहर अंतराल पहुँचाया

एक पत्र उस रेजिमेंट में.



श्वेत अधिकारी नाम-

रेजिमेंट का स्थानान्तरण

मात्र चौबीस घंटों में

जर्मन-फ्रांस सीमा पार.

श्वेत अधिकारी

अपने सहायक को

शीघ्र सावधान कर

चला पास ब्राम्हण के.

विनय-युक्त भाव से

टोपी उतारकर

बोल उठा- महाराज!

आपने तपोबल से

कर दी मेरी कामना पूर्ण,

साधना की सिद्धि

जो प्राप्त हुई मुझको.

श्वेत अधिकारी ने

विदा दी ब्राम्हण को

और मंत्रसिक्त जल से

संवेग मार्जन कर

व्यास ने तिलक दिया-

शुभास्ते पन्थानं .

भारत के मंत्र-तंत्र

अध्यात्म, साधनाबल

करते हठात आव्हान

निज ईश का

इनकी अनुरक्ति-भक्ति

होती इतनी प्रबल

कि देव वर्ग होता

बलात उनके वश में.

देखे मैंने कितने देश

घूमे देशांतर

पर ऐसा देश, ऐसा स्थान

मिला नहीं मुझको .


देश का आकर्षण

और ममता इस देश की

भूलता फिर कैसे?

यही मेरी अंतिम इच्छा

पाऊँ अन्य जन्म यदि

गाऊँ गीत ईश के

बिकाकर हाथ दुर्गा के.

**************

ॐ गणेश भजन : --संजीव 'सलिल'

          विनय करूँ प्रभु श्री गणेश जी!
विघ्न करो सब दूर हमारे...
*
सत-शिव-सुन्दर हम रच पायें,
निज वाणी से नित सच गायें.
अशुभ-असत से लड़ें निरंतर-
सत-चित आनंद-मंगल गायें.
भारत माता ग्रामवासिनी-
हम वसुधा पर स्वर्ग बसायें.
राँगोली-अल्पना सुसज्जित-
हों घर-घर के अँगना-द्वारे.
मतभेदों को सुलझा लें,
मनभेद न कोई बचे जरा रे.
विनय करूँ प्रभु श्री गणेश जी!
विघ्न करो सब दूर हमारे...
*
आस-श्वास हो सदा सुहागिन,
पनघट-पनघट पर राधा हो.
अमराई में कान्हा खेलें,
कहीं न कोई भव-बाधा हो.
ढाई आखर नित पढ़ पाना-
लक्ष्य सभी ने मिल साधा हो.
हर अँगना में दही बिलोती
जसुदा, नन्द खड़े हों द्वारे.
कंस कुशासन को जनमत का
हलधर-कान्हा पटक सुधारे.
विनय करूँ प्रभु श्री गणेश जी!
विघ्न करो सब दूर हमारे...
*
तुलसी चौरा, राँगोली-अल्पना
भोर में उषा सजाये.
श्रम-सीकर में नहा दुपहरी,
शीश उठाकर हाथ मिलाये.
भजन-कीर्तन गाती संध्या,
इस धरती पर स्वर्ग बसाये
निशा नशीली रंग-बिरंगे
स्वप्न दिखा, शत दीपक बारे.
ज्यों की त्यों चादर धरकर
यह 'सलिल' तुम्हारे भजन उचारे.
विनय करूँ प्रभु श्री गणेश जी!
विघ्न करो सब दूर हमारे...
*

मंगलवार, 16 मार्च 2010

नव गीत: प्लेटफ़ॉर्म सा फैला जीवन - आचार्य संजीव 'सलिल'

गीत _____ अपना बिम्ब निहारो ----- आचार्य संजीव सलिल

:: आदि शक्ति वंदना :: -- संजीव वर्मा 'सलिल'

संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आदि शक्ति जगदम्बिके, विनत नवाऊँ शीश.
रमा-शारदा हों सदय, करें कृपा जगदीश....
*
पराप्रकृति जगदम्बे मैया, विनय करो स्वीकार.
चरण-शरण हैं, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
अनुपम-अद्भुत रूप, दिव्य छवि, दर्शन कर जग धन्य.
कंकर से शंकर रचतीं माँ!, तुम सा कोई न अन्य..
परापरा, अणिमा-गरिमा, तुम रिद्धि-सिद्धि शत रूप.
दिव्य-भव्य, नित नवल-विमल छवि, माया-छाया-धूप..

जन्म-जन्म से भटक रहा हूँ, माँ ! भव से दो तार.
चरण-शरण हैं, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
परापरा तुम, रिद्धि-सिद्धि तुम. नेह नर्मदा-नाद.
भाव, ताल,ध्वनि, स्वर, अक्षर तुम, रस, प्रतीक, संवाद..
दीप्ति, तृप्ति, संतुष्टि, सुरुचि तुम, तुम विराग-अनुराग.
उषा-लालिमा, निशा-कालिमा, प्रतिभा-कीर्ति-पराग.

प्रगट तुम्हीं से होते तुम में लीं सभी आकार.
चरण-शरण हैं, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
वसुधा, कपिला, सलिलाओं में जननी तव शुभ बिम्ब.
क्षमा, दया , करुणा, ममता हैं मैया का प्रतिबिम्ब..
मंत्र, श्लोक, श्रुति, वेद-ऋचाएँ, करतीं महिमा गान-
करो कृपा माँ! जैसे भी हैं, हम तेरी संतान.
चरण-शरण हैं, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....


**************

:: फागुनी दोहे :: ---आचार्य संजीव 'सलिल'

*****

महुआ महका, मस्त हैं पनघट औ' चौपाल।

बरगद बब्बा झूमते, पत्ते देते ताल।
*****
सिंदूरी जंगल हँसे, बौराया है आम।

बौरा-गौरा साथ लख, काम हुआ बेकाम।
*****
पर्वत का मन झुलसता, तन तपकर अंगार।

वसनहीन किंशुक सहे, पञ्च शरों की मार। ।
*****
गेहूँ स्वर्णाभित हुआ, कनक-कुञ्ज खलिहान।

पुष्पित-मुदित पलाश लख, लज्जित उषा-विहान।
*****
बाँसों पर हल्दी चढी, बंधा आम-सिर मौर,

पंडित पीपल बांचते, लगन पूछ लो और।
*****
तरुवर शाखा पात पर, नूतन नवल निखार।

लाल गाल संध्या किये, दस दिश दिव्य बहार।
*****
प्रणय-पंथ का मान कर, आनंदित परमात्म।

कंकर में शंकर हुए, प्रगट मुदित मन-आत्म।

********************************

सोमवार, 15 मार्च 2010

सलिल के हाइकु

आया वसंत,
इन्द्रधनुषी हुए
दिशा-दिगंत..
*
शोभा अनंत
हुए मोहित, सुर
मानव संत..
*
प्रीत के गीत
गुनगुनाती धूप
बनालो मीत.
*
जलाते दिए
एक-दूजे के लिए
कामिनी-कंत..
*
पीताभी पर्ण
संभावित जननी
जैसे विवर्ण..
*
हो हरियाली
मिलेगी खुशहाली
होगे श्रीमंत..
*
चूमता कली
मधुकर गुंजार
लजाती लली..
*
सूरज हुआ
उषा पर निसार
लाली अनंत..
*
प्रीत की रीत
जानकार न जाने
नीत-अनीत.
*
क्यों कन्यादान?
अब तो वरदान
दें एकदंत..
**********

दोहे: जबलपुर में चिटठा चर्चा पर - 'सलिल'

जबलपुर में चिटठा चर्चा पर दोहे:

चिट्ठाकारों को 'सलिल', दे दोहा उपहार.
मना रहा- बदलाव का, हो चिटठा औज़ार..

नेह नरमदा से मिली, विहँस गोमती आज.
संस्कारधानी अवध, आया- हो शुभ काज..
 

'डूबे जी' को निकाले, जो वह करे 'बवाल'.
किस लय में 'किसलय' रहे, पूछे कौन सवाल?.
 

चिट्ठाकारों के मिले, दिल के संग-संग हाथ.
अंतर में अंतर न हो, सदय रहें जगनाथ..

 

उड़ न तश्तरी से कहा, मैंने खाकर भंग.
'उड़नतश्तरी' उड़ रही', कह- वह करती जंग..

गिरि-गिरिजा दोनों नहीं, लेकिन सुलभ 'गिरीश'.
'सलिल' धन्य सत्संग पा, हैं कृपालु जगदीश..

अपनी इतनी ही अरज, रखे कुशल-'महफूज़'.
दोस्त छुरी के सामने, 'सलिल' न हो खरबूज..

 
बिना पंख बरसात बिन, करता मुग्ध 'मयूर'.
गप्प नहीं यह सच्च है, चिटठाकार हुज़ूर!..
 
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रविवार, 14 मार्च 2010

जबलपुर में चिट्ठाकारों की बैठक: अभिनन्दन महफूज़


जबलपुर,  १३-०३-२०१०. सनातन सलिला नर्मदा के तट पर स्थित संस्कारधानी जबलपुर में स्थानीय चिट्ठाकारों की बैठक सिटी कॉफ़ी हाउस में अपरान्ह २ बजे से आयोजित की गयी. इस अवसर पर बाएं से: शैली, संजीव 'सलिल', महफूज़, महेंद्र मिश्र, बवाल, गिरीश बिल्लोरे और मयूर.

बाएँ से : सर्वश्री बवाल, महफूज़ अली, किसलय, गिरीश बिल्लोरे, महेंद्र मिश्र, मयूर  

इस बैठक में विशेष रूप से उपस्थित हुए लखनऊ के युवा चिट्ठाकार श्री महफूज़ अली का स्वागत करते हुए भारत ब्रिगेड के संस्थापक श्री गिरीश बिल्लोरे ने उनका परिचय कराया. इस अवसर पर व्यंग्यचित्रों के माध्यम से ख्यातिप्राप्त चिट्ठाकार श्री राजेश कुमार दुबे 'डूबे जी', अपनी गायकी के माध्यम से सुपरिचित श्री बवाल, चलचित्र संबंधी लेखन के क्षेत्र में स्थान बना रहे श्री मयूर, सर्वाधिक पढ़े जा रहे चिट्ठाकार श्री महेंद्र मिश्र, पत्रकारिता और चिट्ठाकारी में एक साथ हाथ आजमा रही सुश्री शैली जी, अपने चर्चित श्वान पर गर्वित श्री विजय तिवारी किसलय, चिट्ठाकारी के विकास के प्रति समर्पित दिव्यनर्मदा के तकनीकी प्रबंधक तथा अन्य ५० चिट्ठों से जुड़े युवा चिट्ठाकार श्री मन्वंतर वर्मा एवं  दिव्यनर्मदा के संपादक सुपरिचित कवि-समीक्षक आचार्य संजीव 'सलिल' के साथ स्थानीय दैनिक समाचार पत्रों भास्कर, पत्रिका, देशबंधु, नई दुनिया, नवीन दुनिया, हितवाद, पीपुल्स समाचार आदि के संवाददाता व छायाकार उपस्थित थे. 

 
बायें से: सलिल, महफूज़, महेंद्र मिश्र, बवाल, मयूर, शैली

आरम्भ में गिरीश जी ने पत्रकारों को चिट्ठकारी विधा की जानकारी दी. बवाल जी ने हिन्दी चिट्ठाकारी के स्तम्भ श्री समीर लाल 'उड़नतश्तरी' की उपलब्धियाँ पत्रकारों को बताई. श्री महेंद्र मिश्र ने चिट्ठाकारी पर एक आलेख का वाचन किया. श्री डूबे जी ने व्यंग चित्रों और चिट्ठाकारी के अंतर्संबंधों पर प्रकाश डाला.

किसलय , महेंद्र मिश्र , मयूर , आचार्य संजीव 'सलिल' तथा पत्रकार

किसलय जी ने पत्रकारिता में उपयोग की जा रही भाषा की विसंगतियों पर चिंता व्यक्त की. मयूर जी ने अपने चिट्ठे की जानकारी देते हुए चलचित्रों को गंभीरता से लिए जाने की आवश्यकता प्रतिपादित की. अतिथि चिट्ठाकार श्री महफूज़ अली ने लखनऊ में चिट्ठाकारी के विकास की जानकारी दी.

पत्रकारों से चर्चारत आचार्य संजीव 'सलिल', पीछे मयूर जी 

सलिल जी ने पत्रकारों के लिए चिट्ठाकारी की उपादेयता प्रतिपादित करते हुए उन्हें खुद के चिट्ठे प्रारंभ करने की प्रेरणा दी. लखनऊ ब्लोगर्स एसोसिएशन, लखनऊ में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के कवि श्री नरेश सक्सेना की अध्यक्षता में संपन्न ३० अभियंताओं की चिट्ठाकारी पर केन्द्रित बैठक, जबलपुर में संपन्न  चिटठाकारी की कार्यशालाओं, हिंदी के विकास के लिए चिट्ठकारी के माध्यम से किए जा रहे प्रयासों, हिंद युग्म, साहित्य शिल्पी, अभिव्यक्ति तथा सृजन गाथा में दोहा लेखन, अलंकार, नवगीत तथा भाषिक व काव्य दोषों पर केन्द्रित अपनी लेख मालाओं की जानकारी देते हुए सलिल जी ने पत्रकारों से सहयोग का आव्हान किया. गिरीश जी ने चिट्ठाकारी के विकास में संस्कारधानी के योगदान पर चर्चा की.

चिट्ठाकारों से रू-ब-रू पत्रकार तथा छायाकार, पीछे मन्वंतर

राजनैतिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में चिट्ठाकारी के योगदान पर भी चर्चा हुई. मन्वंतर ने भारतीय जनता पार्टी के आई. टी. प्रकोष्ठ के प्रांतीय महामंत्री श्री सचिन खरे द्वारा राष्ट्रीय-प्रांतीय नेताओं के चिट्ठे बनाये जाने की चर्चा करते हुए पोडकास्टिंग की जानकारी चाही जो गिरीश जी ने उपलब्ध कराई.


 महफूज़ को स्नेहोपहार :  बाएँ से सलिलजी, महफूज़जी, डूबेजी, बवालजी, शैलीजी

पत्रकारों ने ग्रामीण क्षेत्रों के विकास, सामाजिक विषमताओं के शमन, राष्ट्रीय एकता को सशक्त करने, विखंडनवादी शक्तियों से जूझने, जन जागरण आदि क्षेत्रों में चिट्ठाकारी के संभावित योगदान पर जिज्ञासा की जिनका सम्यक तार्किक समाधान चिट्ठाकारों ने किया. यथाशीघ्र फिर मिलने के वायदे और संकल्प के साथ चिट्ठाकारों की यह गोष्ठी समाप्त हुई.



सार्थक चर्चा का संतोष: सलिल, महफूज़, महेंद्र मिश्र, बवाल, शैली (ऊपर) और नीचे फिर मिलने के लिए बिछुड़ने के पहले: किसलय, सलिल, महफूज़, बवाल, मयूर, गिरीश और शैली.




चिटठा चर्चा के कुछ और चित्र :


कौन किसको दे रहा उपहार बूझो: सलिल. महफूज़, बवाल, शैली, मयूर


चिटठा चर्चा सुनते पत्रकार 



नव गीत: ओ मेरे प्यारे अरमानों! संजीव 'सलिल'

नव गीत: 
ओ मेरे प्यारे अरमानों!   
संजीव 'सलिल'
*
ओ मेरे प्यारे अरमानों!,
आओ, तुम पर जान लुटाऊँ.
ओ मेरे सपने अनजानों!-
तुमको मैं साकार बनाऊँ...
*
मैं हूँ पंख, उड़ान तुम्हीं हो.
मैं हूँ खेत, मचान तुम्हीं हो.
मैं हूँ स्वर, सरगम हो तुम ही-
मैं हूँ अक्षर गान तुम्हीं हो.

ओ मेरी निश्छल मुस्कानों!
आओ, लब पर तुम्हें सजाऊँ...
*
मैं हूँ मधु, मधुगान तुम्हीं हो.
मैं हूँ शर-संधान तुम्हीं हो.
जनम-जनम का अपना नाता-
मैं हूँ रस, रस-खान तुम्हीं हो.

ओ मेरे निर्धन धनवानों!
आओ, श्रम का पाठ पढाऊँ...
*
मैं हूँ तुच्छ, महान तुम्हीं हो.
मैं हूँ धरा, वितान तुम्हीं हो.
मैं हूँ षडरसमय मृदु व्यंजन-
'सलिल' मान का पान तुम्हीं हो.

ओ मेरी रचना संतानों!
आओ, दस दिश तुम्हें सजाऊँ...
***********************
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

कुण्डली : हिंदी की जय बोलिए -संजीव 'सलिल'












कुण्डली

संजीव 'सलिल'

हिंदी की जय बोलिए, हो हिंदीमय आप.
हिंदी में नित कार्य कर, सकें विश्व में व्याप..
सकें विश्व में व्याप, नाप लें समुद ज्ञान का.
नहीं व्यक्ति का, बिंदु 'सलिल' राष्ट्रीय आन का..
नेह-नरमदा नहा बोलिए होकर निर्भय.
दिग्दिगंत में गूज उठे, फिर हिंदी की  जय..
***********************************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

कविता: मिश्रण --श्यामलाल उपाध्याय

बाबा तपस्वी ने
एक मुक्त जीवन को
ऊर्जा की लालसा से
उपले जलाये थे
घटिका पूर्व,
पर उपलों में
ऊर्जा के अभाव ने
कर दी हड़ताल.

चार पाँच छः सात
उपले जलाने तक
पात्र की गर्मी अन्न तक न पहुँची.
बाबाजी किंचित
घोर व्यंग्य हास कर
बोल उठे-
गोमय में मिश्रण था
बालू और सज्जी का
कहीं राख का भी होता
तो अन्न सिद्ध होता
और क्षुधा शांत होती.
उसी सहानुभूति से
बाबा ने उठाया-
जल-जीवन-कमंडल
और हरिर्दाता के
स्वर के समापन पर
बन गए अगस्त्य.
हरिओम के साथ
बाबा के स्वर ने
एक बार फिर किया
उद्घोष हास
हा हा हा हा !
गोबर में मिश्रण
मिश्रण में गोबर-
बुद्धि की अधोगति
मानव का घोर पतन
होता यदि किंचित
विवेक मात्र स्पर्श
न होता कोई मिश्रण.

अब नैतिकता की 
क्या भर्त्सना 
जब उसका विमान ही
धराधाम छोड़कर
चला गया अन्यत्र
मनु, विदुर,चाणक्य
नहीं रहे नैतिकता के
महान उपदेशक.

हाँ, बाबा तपस्वियों का
लगा है मेला कुम्भ
जगत के संगम पर
चाहे हो ज्ञान अथवा
सहज भक्ति ऊर्जा का
इनके अभाव में
जी रहे जीने को
लोक-परलोक,
मर्यादा की रक्षा में
साधना की सिद्धि में.

बाब तपस्वी उद्विग्न हो
मिश्रण से, बोल उठे-
अब नहीं रहा जाता
आज उड़े यह राजहंस
आश्रय पाने को
चरण-शरण में.


*******************

गुरुवार, 11 मार्च 2010

नव गीत: ऊषा को लिए बाँह में संजीव 'सलिल'

नव गीत:

ऊषा को लिए बाँह में

संजीव 'सलिल'
*
ऊषा को लिए बाँह में,
संध्या को चाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
पानी के बुलबुलों सी
आशाएँ पल रहीं.
इच्छाएँ हौसलों को
दिन-रात छल रहीं.
पग थक रहे, मंजिल
कहीं पाई न राह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
तृष्णाएँ खुद ही अपने
हैं हाथ मल रहीं.
छायाएँ तज आधार को
चुपचाप ढल रहीं.
मोती को रहे खोजते
पाया न थाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
शिशु शशि शशीश शीश पर
शशिमुखी विलोकती.
रति-मति रतीश-नाश को
किस तरह रोकती?
महाकाल ही रक्षा करें
लेकर पनाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*

दोहे - मुक्तक : --'सलिल'

दोहे - मुक्तक :

पर्वत शिखरों पर बसी धूप-छाँव सँग शाम.
वृक्षों पर कलरव करें, पंछी पा आराम..
*
बिना दाम मेहनत करे, रवि बँधुआ मजदूर.
आसमान चुप सिसकता, शोषण है भरपूर..
*
आँख मिचौली खेलते, बदल-सूरज संग.
यह भगा वह पकड़ता, देखे धरती दंग..
*
पवन सबल निर्बल लता, वह चलता है दाँव.
यह थर-थर-थर कांपती, रहे डगमगा पाँव..
*
कली-भ्रमर मद-मस्त हैं, दुनिया से बेफिक्र.
त्रस्त तितलियाँ हो रहीं, सुन-सुनकर निज ज़िक्र..
*
सदा सुहागिन रच रही, प्रणय ऋचाएँ झूम.
जूही-चमेली चकित चित, तकें 'सलिल' मासूम..
*
धूल जड़ों को पोसकर, खिला रही है धूल.
सिसक रही सिकता 'सलिल', मिले फूल से शूल..

समय बदला तो समय के साथ ही प्रतिमान बदले.
प्रीत तो बदली नहीं पर प्रीत के अनुगान बदले.
हैं वही अरमान मन में, है वही मुस्कान लब पर-
वही सुर हैं वही सरगम 'सलिल' लेकिन गान बदले..
*
रूप हो तुम रंग हो तुम सच कहूँ रस धार हो तुम.
आरसी तुम हो नियति की प्रकृति का श्रृंगार हो तुम..
भूल जाऊँ क्यों न खुद को जब तेरा दीदार पाऊँ-
'सलिल' लहरों में समाहित प्रिये कलकल-धार हो तुम..
*
नारी ही नारी को रोके इस दुनिया में आने से.
क्या होगा कानून बनाकर खुद को ही भरमाने से?.
दिल-दिमाग बदल सकें गर, मान्यताएँ भी हम बदलें-
'सलिल' ज़िंदगी तभी हँसेगी, क्या होगा पछताने से?
*
ममता को सस्मता का पलड़े में कैसे हम तौल सकेंगे.
मासूमों से कानूनों की परिभाषा क्या बोल सकेंगे?
जिन्हें चाहिए लाड-प्यार की सरस हवा के शीतल झोंके-
'सलिल' सिर्फ सुविधा देकर साँसों में मिसरी घोल सकेंगे?
*

बुधवार, 10 मार्च 2010

गीत: ओ! मेरे प्यारे अरमानों --संजीव 'सलिल'

गीत:

ओ! मेरे प्यारे अरमानों

संजीव 'सलिल'
*
ओ! मेरे प्यारे अरमानों,
आओ, तुम पर जान लुटाऊँ.
ओ! मेरे सपनों अनजानों-
तुमको मैं साकार बनाऊँ...
*
मैं हूँ पंख उड़ान तुम्हीं हो,
मैं हूँ खेत, मचान तुम्हीं हो.
मैं हूँ स्वर, सरगम हो तुम ही-
मैं अक्षर हूँ गान तुम्हीं हो.

ओ! मेरी निश्छल मुस्कानों
आओ, लब पर तुम्हें सजाऊँ...
*
मैं हूँ मधु, मधु गान तुम्हीं हो.
मैं हूँ शर संधान तुम्हीं हो.
जनम-जनम का अपना नाता-
मैं हूँ रस रसखान तुम्हीं हो.

ओ! मेरे निर्धन धनवानों
आओ! श्रम का पाठ पढाऊँ...
*
मैं हूँ तुच्छ, महान तुम्हीं हो.
मैं हूँ धरा, वितान तुम्हीं हो.
मैं हूँ षडरसमधुमय व्यंजन.
'सलिल' मान का पान तुम्हीं हो.
ओ! मेरी रचना संतानों
आओ, दस दिश तुम्हें गुंजाऊँ...
***********************

रविवार, 7 मार्च 2010

बाल गीत: सोन चिरैया ---संजीव वर्मा 'सलिल'



सोनचिरैया फुर-फुर-फुर,      
उड़ती फिरती इधर-उधर.      
थकती नहीं, नहीं रूकती.     
रहे भागती दिन-दिन भर.    

रोज सवेरे उड़ जाती.         
दाने चुनकर ले आती.        
गर्मी-वर्षा-ठण्ड सहे,          
लेकिन हरदम मुस्काती.    

बच्चों के सँग गाती है,      
तनिक नहीं पछताती है.    
तिनका-तिनका जोड़ रही,  
घर को स्वर्ग बनाती है.     

बबलू भाग रहा पीछे,       
पकडूँ  जो आए नीचे.       
घात लगाये है बिल्ली,      
सजग मगर आँखें मीचे.   

सोन चिरैया खेल रही.
धूप-छाँव हँस झेल रही.
पार करे उड़कर नदिया,
नाव न लेकिन ठेल रही.

डाल-डाल पर झूल रही,
मन ही मन में फूल रही.
लड़ती नहीं किसी से यह,
खूब खेलती धूल रही. 

गाना गाती है अक्सर,
जब भी पाती है अवसर.
'सलिल'-धार में नहा रही,
सोनचिरैया फुर-फुर-फुर. 

* * * * * * * * * * * * * *                                                              
= यह बालगीत सामान्य से अधिक लम्बा है. ४-४ पंक्तियों के ७ पद हैं. हर पंक्ति में १४ मात्राएँ हैं. हर पद में पहली, दूसरी तथा चौथी पंक्ति की तुक मिल रही है.
चिप्पियाँ / labels : सोन चिरैया, सोहन चिड़िया, तिलोर, हुकना, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', great indian bustard, son chiraiya, sohan chidiya, hukna, tilor, indian birds, acharya sanjiv 'salil' 

नवगीत : चूहा झाँक रहा हंडी में... --संजीव 'सलिल'

नवगीत :

चूहा झाँक रहा हंडी में...

संजीव 'सलिल'
*
चूहा झाँक रहा हंडी में,
लेकिन पाई सिर्फ हताशा...
*
मेहनतकश के हाथ हमेशा
रहते हैं क्यों खाली-खाली?
मोती तोंदों के महलों में-
क्यों बसंत लाता खुशहाली?
ऊँची कुर्सीवाले पाते
अपने मुँह में सदा बताशा.
चूहा झाँक रहा हंडी में,
लेकिन पाई सिर्फ हताशा...
*
भरी तिजोरी फिर भी भूखे
वैभवशाली आश्रमवाल.
मुँह में राम बगल में छूरी
धवल वसन, अंतर्मन काले.
करा रहा या 'सलिल' कर रहा
ऊपरवाला मुफ्त तमाशा?
चूहा झाँक रहा हंडी में,
लेकिन पाई सिर्फ हताशा...
*
अँधियारे से सूरज उगता,
सूरज दे जाता अँधियारा.
गीत बुन रहे हैं सन्नाटा,
सन्नाटा निज स्वर में गाता.
ऊँच-नीच में पलता नाता
तोल तराजू तोला-माशा.
चूहा झाँक रहा हंडी में,
लेकिन पाई सिर्फ हताशा...
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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

शनिवार, 6 मार्च 2010

नवगीत: रंग हुए बदरंग --संजीव 'सलिल'

नवगीत:

संजीव 'सलिल'

रंग हुए बदरंग,
मनाएँ कैसे होली?...
*
घर-घर में राजनीति
घोलती ज़हर.
मतभेदों की प्रबल
हर तरफ लहर.
अँधियारी सांझ है,
उदास है सहर.
अपने ही अपनों पर
ढा रहे कहर.
गाँव जड़-विहीन
पर्ण-हीन है शहर.
हर कोई नेता हो
तो कैसे हो टोली?...
*
कद से  भी ज्यादा है
लंबी परछाईं.
निष्ठां को छलती है
शंका हरजाई.
समय करे कब-कैसे
क्षति की भरपाई?
चंदा तज, सूरज संग
भागी जुनहाई.
मौन हुईं आवाजें,
बोलें तनहाई.
कवि ने ही छंदों को
मारी है गोली...
*
अपने ही सपने सब
रोज़ रहे तोड़.
वैश्विकता क्रय-विक्रय
मची हुई होड़.
आधुनिक वही है जो
कपडे दे छोड़.
गति है अनियंत्रित
हैं दिशाहीन मोड़.
घटाना शुभ-सरल
लेकिन मुश्किल है जोड़.
कुटिलता वरेण्य हुई
त्याज्य सहज बोली...
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शुक्रवार, 5 मार्च 2010

गुलाल प्यार से थोड़ा सा लगा दीजिए

बच्चो के सपनो में,परियों की दुआ दीजिये

विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी
रामपुर
जबलपुर

बच्चो के सपनो में,परियों की दुआ दीजिये
नींद चैन की हमको भी लौटा दीजिये

प्यार का पाठ पढ़ना , अगर अपराध हो
तो इस गुनाह में हमको भी सजा दीजिये
नहा के आये हैं ,पहने हैं कपड़े झक सफेद
गुलाल प्यार से थोड़ा सा लगा दीजिए

रोशनी की किरण सीधी ही चली आयेगी
छोटा सा छेद छत में , करा दीजिये
फैला रहा है मुस्करा, खुश्बू वो हवाओ में
इस फूल के पौधे कुछ और लगा दीजिये

बनें न नस्लवादी , और न आत्मघाती ही
इंसानी नस्ल में , इंसान रहने दीजिये

नवगीत: आँखें रहते सूर हो गए --संजीव 'सलिल'

नवगीत;

संजीव 'सलिल'
*
आँखें रहते सूर हो गए,
जब हम खुद से दूर हो गए.
खुद से खुद की भेंट हुई तो-
जग-जीवन के नूर हो गए...
*
सबलों के आगे झुकते सब.
रब के आगे झुकता है नब.
वहम अहम् का मिटा सकें तो-
मोह न पाते दुनिया के ढब.
जब यह सत्य समझ में आया-
भ्रम-मरीचिका दूर हो गए...
*
सुख में दुनिया लगी सगी है.
दुःख में तनिक न प्रेम पगी है.
खुली आँख तो रहो सुरक्षित-
बंद आँख तो ठगा-ठगी है.
दिल पर लगी चोट तब जाना-
'सलिल' सस्वर सन्तूर हो गए...
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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com