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रविवार, 26 अप्रैल 2009

ग़ज़ल : मनु बेतखल्लुस, दिल्ली.

बेखुदी, और इंतज़ार नहीं,
छोड़ आई नज़र क़रार कहीं

तेरी रहमत है, बेपनाह मगर
अपनी किस्मत पे ऐतबार नहीं

निभे अस्सी बरस, कि चार घड़ी
रूह का जिस्म से, क़रार नहीं

सख्त दो-इक, मुकाम और गुजरें,
फ़िर तो मुश्किल, ये रह्गुजार नहीं

काश! पहले से ये गुमाँ होता,
यूँ खिजाँ आती है, बहार नहीं

अपने टोटे-नफे के राग न गा,
उनकी महफिल, तेरा बाज़ार नहीं

जांनिसारी, कहो करें कैसे,
जां कहीं, और जांनिसार कहीं

लेख : भवन निर्माण संबन्धी वास्तु सूत्र, 'सलिल'

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' / संजिव्सलिल.ब्लागस्पाट.कॉम / सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
लेख :
भवन निर्माण संबन्धी वास्तु सूत्र
वास्तुमूर्तिः परमज्योतिः वास्तु देवो पराशिवः
वास्तुदेवेषु सर्वेषाम वास्तुदेव्यम नमाम्यहम्
समरांगण सूत्रधार, भवन निवेश
वास्तु मूर्ति (इमारत) परम ज्योति की तरह सबको सदा प्रकाशित करती है. वास्तुदेव चराचर का कल्याण करनेवाले सदाशिव हैं. वास्तुदेव ही सर्वस्व हैं वास्तुदेव को प्रणाम. सनातन भारतीय शिल्प विज्ञानं के अनुसार अपने मन में विविध कलात्मक रूपों की कल्पना कर उनका निर्माण इस प्रकार करना कि मानव तन और प्रकृति में उपस्थित पञ्च तत्वों का समुचित समन्वय व संतुलन इस प्रकार हो कि संरचना का उपयोग करनेवालों को सुख मिले, ही वास्तु विज्ञानं का उद्देश्य है.
मनुष्य और पशु-पक्षियों में एक प्रमुख अन्तर यह है कि मनुष्य अपने रहने के लिए ऐसा घर बनते हैं जो उनकी हर आवासीय जरूरत पूरी करता है ज्ब्म्क अन्य प्राणी घर या तो बनाते ही नहीं या उसमें केवल रात गुजारते हैं. मनुष्य अपने जीवन का अधिकांश समय इमारतों में ही व्यतीत करते हैं.
एक अच्छे भवन का परिरूपण कई तत्वों पर निर्भर करता है. यथा : भूखंड का आकार, स्थिति, ढाल, सड़क से सम्बन्ध, दिशा, सामने व आस-पास का परिवेश, मृदा का प्रकार, जल स्तर, भवन में प्रवेश कि दिशा, लम्बाई, चौडाई, ऊँचाई, दरवाजों-खिड़कियों की स्थिति, जल के स्रोत प्रवेश भंडारण प्रवाह व् निकासी की दिशा, अग्नि का स्थान आदि. हर भवन के लिए अलग-अलग वास्तु अध्ययन कर निष्कर्ष पर पहुचना अनिवार्य होते हुए भी कुछ सामान्य सूत्र प्रतिपादित किए जा सकते हैं जिन्हें ध्यान में रखने पर अप्रत्याशित हानि से बचकर सुखपूर्वक रहा जा सकता है.
* भवन में प्रवेश हेतु पूर्वोत्तर (ईशान) श्रेष्ठ है. उत्तर, पश्चिम, दक्षिण-पूर्व (आग्नेय) तथा पश्चिम-वायव्य दिशा भी अच्छी है किंतु दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य), पूर्व-आग्नेय, उत्तर-वायव्य तथा दक्षिण दिशा से प्रवेश यथासम्भव नहीं करना चाहिए. यदि वर्जित दिशा से प्रवेश अनिवार्य हो तो किसी वास्तुविद से सलाह लेकर उपचार करना आवश्यक है.
* भवन के मुख्या प्रवेश द्वार के सामने स्थाई अवरोध खम्बा, कुआँ, बड़ा वृक्ष, मोची मद्य mans आदि की दूकान, गैर कानूनी व्यवसाय आदि नहीं हो.
* मुखिया का कक्ष नैऋत्य दिशा में होना शुभ है.
* शयन कक्ष में मन्दिर न हो.
* वायव्य दिशा में कुंवारी कन्याओं का कक्ष, अतिथि कक्ष आदि हो. इस दिशा में वास करनेवाला अस्थिर होता है, उसका स्थान परिवर्तन होने की अधिक सम्भावना होती है.
* शयन कक्ष में दक्षिण की और पैर कर नहीं सोना चाहिए. मानव शरीर एक चुम्बक की तरह कार्य करता है जिसका उत्तर ध्रुव सिर होता है. मनुष्य तथा पृथ्वी का उत्तर ध्रुव एक दिशा में ऐसा तो उनसे निकलने वाली चुम्बकीय बल रेखाएं आपस में टकराने के कारण प्रगाढ़ निद्रा नहीं आयेगी. फलतः अनिद्रा के कारण रक्तचाप आदि रोग ऐसा सकते हैं. सोते समय पूर्व दिशा में सिर होने से उगते हुए सूर्य से निकलनेवाली किरणों के सकारात्मक प्रभाव से बुद्धि के विकास का अनुमान किया जाता है. पश्चिम दिशा में डूबते हुए सूर्य से निकलनेवाली नकारात्मक किरणों के दुष्प्रभाव के कारण सोते समय पश्चिम में सिर रखना मना है.

* भारी बीम या गर्डर के बिल्कुल नीचे सोना भी हानिकारक है.
* शयन तथा भंडार कक्ष सेट हुए न हों.
* शयन कक्ष में आइना रखें तो ईशान दिशा में ही रखें अन्यत्र नहीं.
* पूजा का स्थान पूर्व या ईशान दिशा में इस तरह ऐसा की पूजा करनेवाले का मुंह पूर्व दिशा की ओर तथा देवताओं का मुख पश्चिम की ओर रहे. बहुमंजिला भवनों में पूजा का स्थान भूतल पर होना आवश्यक है. पूजास्थल पर हवन कुण्ड या अग्नि कुण्ड आग्नेय दिशा में रखें.
* रसोई घर का द्वार मध्य भाग में इस तरह हो कि हर आनेवाले को चूल्हा न दिखे. चूल्हा आग्नेय दिशा में पूर्व या दक्षिण से लगभग ४'' स्थान छोड़कर रखें. रसोई, शौचालय एवं पूजा एक दूसरे से सटे न हों. रसोई में अलमारियां दक्षिण-पश्चिम दीवार तथा पानी ईशान में रखें.
* बैठक का द्वार उत्तर या पूर्व में हो. deevaron का रंग सफेद, पीला, हरा, नीला या गुलाबी हो पर लाल या काला न हो. युद्ध, हिंसक जानवरों, शोइकर, दुर्घटना या एनी भयानक दृश्यों के चित्र न हों. अधिकांश फर्नीचर आयताकार या वर्गाकार तथा दक्षिण एवं पश्चिम में हों.
* सीढियां दक्षिण, पश्चिम, आग्नेय, नैऋत्य या वायव्य में हो सकती हैं पर ईशान में न हों. सीढियों के नीचे शयन कक्ष, पूजा या तिजोरी न हो. सीढियों की संख्या विषम हो.
* कुआँ, पानी का बोर, हैण्ड पाइप, टंकी आदि ईशान में शुभ होता है, दक्षिण या नैऋत्य में अशुभ व नुकसानदायक है.
* स्नान गृह पूर्व में, धोने के लिए कपडे वायव्य में, आइना पूर्व या उत्तर में गीजर तथा स्विच बोर्ड आग्नेय में हों.
* शौचालय वायव्य या नैऋत्य में, नल ईशान पूव्र या उत्तर में, सेप्टिक टंकी, उत्तर या पूर्व में हो.
* मकान के केन्द्र (ब्रम्ह्स्थान) में गड्ढा, खम्बा, बीम आदि न हो. यह स्थान खुला, प्रकाशित व् सुगन्धित हो.
* घर के पश्चिम में ऊंची जमीन, वृक्ष या भवन शुभ होता है.
* घर में पूर्व व् उत्तर की दीवारें कम मोटी तथा दक्षिण व् पश्चिम कि दीवारें अधिक मोटी हों. तहखाना ईशान, या पूर्व में तथा १/४ हिस्सा जमीन के ऊपर हो. सूर्य किरंनें तहखाने तक पहुंचना चाहिए.
* मुख्य द्वार के सामने अन्य मकान का मुख्य द्वार, खम्बा, शिलाखंड, कचराघर आदि न हो.
* घर के उत्तर व पूर्व में अधिक खुली जगह यश, प्रसिद्धि एवं समृद्धि प्रदान करती है.
वराह मिहिर के अनुसार वास्तु का उद्देश्य 'इहलोक व परलोक दोनों की प्राप्ति है. नारद संहिता, अध्याय ३१, पृष्ठ २२० के अनुसार-
अनेन विधिनन समग्वास्तुपूजाम करोति यः
आरोग्यं पुत्रलाभं च धनं धन्यं लाभेन्नारह.
अर्थात इस तरह से जो व्यक्ति वास्तुदेव का सम्मान करता है वह आरोग्य, पुत्र धन - धन्यादी का लाभ प्राप्त करता है.
- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
संजिव्सलिल.ब्लागस्पाट.कॉम / सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम

Book Review: Showers to the Bowers : Poetry full of emotions- 'Salil'

Book Review

Showers to the Bowers : Poetry full of emotions

(Particulars of the book _ Showers to Bowers, poetry collection, N. Marthymayam 'Osho', pages 72, Price Rs 100, Multycolour Paperback covr, Amrit Prakashan Gwalior )

Poetry is the expression of inner most feelings of the poet. Every human being has emotions but the sestivity, depth and realization of a poet differs from others. that's why every one can'nt be a poet. Shri N. Marthimayam Osho is a mechanical engineer by profession but by heart he has a different metal in him. He finds the material world very attractive, beautiful and full of joy inspite of it's darkness and peshability. He has full faith in Almighty.

The poems published in this collection are ful of gratitudes and love, love to every one and all of us. In a poem titled 'Lending Labour' Osho says- ' Love is life's spirit / love is lamp which lit / Our onus pale room / Born all resplendor light / under grace, underpeace / It's time for Divine's room / who weave our soul bright. / Admire our Aur, Wafting breez.'

'Lord of love, / I love thy world / pure to cure, no sword / can scan of slain the word / The full of fragrance. I feel / so charming the wing along the wind/ carry my heart, wchih meet falt and blend' the poem ' We are one' expresses the the poet's viewpoint in the above quoted lines.

According to famous English poet Shelly ' Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.' Osho's poetry is full of sweetness. He feels that to forgive & forget is the best policy in life. He is a worshiper of piece. In poem 'Purity to unity' the poet say's- 'Poems thine eternal verse / To serve and save the mind / Bringing new twilight to find / Pray for the soul's peace to acquire.'

Osho prays to God 'Light my life,/ Light my thought,/ WhichI sought.' 'Infinite light' is the prayer of each and every wise human being. The speciality of Osho's poetry is the flow of emotions, Words form a wave of feelings. Reader not only read it but becomes indifferent part of the poem. That's why Osho's feeliongs becomes the feelings of his reader.

Bliss Buddha, The Truth, High as heaven, Ode to nature, Journey to Gnesis, Flowing singing music, Ending ebbing etc. are the few of the remarkable poems included in this collection. Osho is fond of using proper words at proper place. He is more effective in shorter poems as they contain ocean of thoughts in drop of words. The eternal values of Indian philosophy are the inner most instict and spirit of Osho's poetry. The karmyoga of Geeta, Vasudhaiv kutumbakam, sarve bhavantu sukhinah, etc. can be easily seen at various places. The poet says- 'Beings are the owner of their action, heirs of their action" and 'O' eternal love to devine / Becomes the remedy.'

In brief the poems of this collection are apable of touching heart and take the reader in a delighted world of kindness and broadness. The poet prefers spirituality over materialism.

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Contact Acharya Sanjiv Verma 'Salil', email : salil.sanjiv@gmail.com / blog: sanjivsalil.blogspot.com

शब्द यात्रा : मार्कोपोलो -अजित वडनेरकर

वे लोग दस दिन बिना खाना खाए घुड़सवारी करते रहते थे और अपनी शारीरिक शक्ति बनाये रखने की लिए घोड़े की कोई नस खोल कर खून की धार को अपने मुंह मे छोड़ देते। मंगोल सैनिकों की इसी शारीरिक शक्ति ने उन्हें संसार का सबसे बड़ा अर्धांश जीतने में सहायता दी। असली मंगोल लोग इसी तरह की होते थे।
निरंतर सैन्य अभियानों में व्यस्त रहने वाले मंगोल सैनिकों की एक बानगी भर पेश करता है उपरोक्त वाक्य। वेनिस के इतिहास प्रसिद्ध यात्री ''मार्कोपोलो'' के यात्रा अनुभवों पर आधारित पुस्तक का ये अंश है और किताब बहुत रोचक है। ये पुस्तक 13वी सदी में मार्कोपोलो और उसके पिता की वेनिस से पीकींग तक की यात्रा का वर्णन करती है। मार्कोपोलो की पुस्तक का मूलपाठ मौले और पेलियट का अनुवाद है। इस पुस्तक के लेखक मॉरिस कॉलिस हैं और अनुवादक उदयकांत पाठक हैं। इसे सन्मार्ग प्रकाशन दिल्ली ने प्रकाशित किया है। इस पुस्तक में पोलो की चारित्रिक विशेषताओं को बताने के लिए यद्यपि काफी जानकारी नहीं है पर कम से कम उसकी बुद्धि की झलक तो मिल ही जाती है। वह अधिक पढ़ा लिखा नहीं था और उसकी पुस्तक की शैली में कुछ भी अनोखा या कलात्मक सा नहीं है मगर जो है, वह बांधे रखता है।
मार्कोपोलो की इस यात्रा का प्रारंभ 1271 में सत्रह वर्ष की उम्र में होता है। वेनिस से शुरू हुई उसकी यात्रा में वह कुस्तुन्तुनिया से वोल्गा तट, वहां से सीरिया, फारस, कराकोरम, कराकोरम से उत्तर की ओर बुखारा से होते हुए मध्य एशिया में स्टेपी के मैदानी से गुज़रकर पीकिंग पहुंचता है, जहां उसके पिता और चाचा कुबलाई खां के दरबार में अधिकारी हैं। इस पूरी यात्रा में साढ़े तीन वर्ष लग जाते हैं और इस अवधि में वह मंगोल भाषा सीख लेता है। पीकिंग में उसकी नियुक्ति मंगोल साम्राज्य की सिविल सेवा में हो जाती है। ऊपर की रूपरेखा में वर्णित सभी प्रदेश मंगोल साम्राज्य के अंतर्गत आते थे, जिसकी स्थापना 1206 में चंगेज खां ने मंगोल कबीलों की विकराल फौज की मदद से की थी। 1260 तक मंगोलों का उस समय ज्ञात विश्व के चार बटे पांच हिस्से पर अधिकार था, जिसकी सीमा चीन से लेकर जर्मनी तक और साइबेरिया से लेकर फारस तक थी। पोलो सिल्कमार्ग से होकर पीकिंग पहुंचता है और पंद्रह वर्ष तक वहां रहते हुए खाकान की निष्ठापूर्वक सेवा करता है और फिर यूरोप लौट जाता है।
इन पंद्रह वर्षों में वह एक बड़ा अधिकारी बन जाता है। वह कुबलाई खां के प्रतिनिधि के रूप में श्रीलंका, फारस, भारत और दक्षिण पूर्वी एशिया के अन्य देशों की की यात्रा करता है और यहां रहने वाले लोगों का वर्णन करता है। वह अंडमान निकोबार के आदिवासियों के बारे में भी बताता है और बर्मा के पैगोडा और श्रीलंका के बौद्ध मंदिरों की भी प्रशंसा करता है। 1295 में पोलो फिर वेनिस पहुंचता है और एक व्यापारिक युद्ध में जिनोआ(एक राज्य, कोलम्बस भी यहीं का निवासी था) द्वारा बंदी बना लिया जाता है, ... बुखारा में पोलो परिवार... जहां क़ैद में रहते हुए उसकी मुलाकात रस्तिशेलो नाम के व्यक्ति से होती है जो उसके एशिया के अनुभवों को कलमबद्ध करता है। यह पुस्तक उस काल के यूरोपियनों के लिए समझ से बाहर की चीज़ थी और उन्होंने एशिया की ज़्यादातर बातों पर यकीन करना काफी मुश्किल पाया। पोलो के मरते समय उसके कुछ मित्रों ने उसे पुस्तक में संशोधन करने के लिए कहा, लेकिन पोलो ने इनकार करते हुए कहा कि उसने जो देखा उसका आधा भी नहीं लिखा। उसकी पुस्तक जनसाधारण द्वारा समझी नहीं गई थी और विद्वानों ने उसे पसंद नहीं किया क्योंकि वे उसे उस समय के ज्ञान से संबंधित करने में असफल रहे थे। पोलो जब मरा तब वह सत्तर वर्ष का था और काफी धनी हो चुका था।

शनिवार, 25 अप्रैल 2009

गज़ल : स्व. नादाँ इलाहाबादी

कुछ तो दुनिया में रहे नादाँ की बाकी यादगार.
इसलिए पेशेनजर अदना सी ये सौगात है..

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होश मस्तों को है सागर का न पैमाने का.
फ़ैज़े-साकी से अजब रंग है मैखाने का..

अब उसे गम नहीं कुछ बज़्म में जल जाने का.
नाम तो शम'अ से रोशन रहा परवाने का..

अब तो मैं होश में भूले नहीं आने का.
अपने मुझको लकब दे दिया दीवाने का..

तालिबे-इश्क़ हूँ मज़हब से मुझे क्या मतलब?
मैं हूँ पाबन्द न काबे का न बुतखाने का..

मैं वो मैकश हूँ जहाँ शीश-ओ-सागर देखे.
आँख में खिंच गया नक्शा वहीं मैखाने का..

हो गयी पूरी तमन्ना तो मज़ा क्या 'नादाँ'.
ज़िन्दगी नाम है अरमां पे मिट जाने का..

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हिंदी के हित में ‘करो या मरो’

अंग्रेज़ी के विरुद्ध करो या न करो....किंतु

हिंदी के हित में ‘करो या मरो’

सु-समृद्ध संस्कृत की आत्मज – हिंदी की भारतीय जनमानस की वाणी के रूप में गौरवशाली परंपरा रही है । इसी कारण स्वतंत्र भारत के संविधान हिंदी के लिए उचित दर्जा मिला है । हिंदी बोलने, जानने वालों की आबादी के आधार पर भले ही उसके विश्व स्तर पर प्रथम स्थान पर होने के दावे पेश हो रहे हो, किंतु ‘विश्व भाषा’ के रूप में आज तक अपेक्षित मान्यता उसे नहीं मिल पाई है । ऐसी मान्यता दिलाने के लिए तथाकथित हिंदी-प्रेमियों द्वारा मांग किया जाना तथा मान्यता दिलाने की कोशिशें शुरू करने की घोषणाएँ सुनाई पड़ना सुखद समाचार है । ये मांगे भी अपनी जगह सही हैं, किंतु देश में हिंदी की समग्र स्थिति पर चिंतन एवं आत्ममंथन ज़रूरी है ।

हिंदी को अंतर राष्ट्रीय मान्यता दिलाने का जो प्रयास किया जो प्रयास किया जा रहा है, वह एक अर्थहीन पहल साबित हो रहा है । दरअसल भारत के भाल के बिंदी बनने से वंचित हिंदी को विश्व भाषा की संज्ञा देना ही कहीं अटपटा-सा लगता है । संविधान की मूल भावना को समझने, तदनुरूप अग्रसर होने से मुँह मोड़कर महज ‘हिंदी-प्रेम’ के आलाप में हम रुचि लेते रहे हैं । संवैधानिक दायित्व की पूर्ति महज आंकड़ों का मायाजाल साबित हो रहा है । शिक्षा, संचार, प्रशासन, विधि, चिकित्सा, अभियांत्रिकी आदि कई क्षेत्रों में निष्ठा पूर्वक हिंदी की प्रयोग वृद्धि के लिए अनुकूल शासकीय निर्णय लेना इन दिनों संभव होने की स्थिति नज़र नहीं आ रही है । हाँ, ऐसे एकाध निर्णय लिए भी गए हैं, जो या तो लंबित पड़े हैं या ‘धीरे धीरे रे मना.... ’ के अनुसरण में फँस गए हैं । जैसे कि स्पष्ट किया जा चुका है, यह कोई राज़ की बात नहीं है, सर्व विधित अराजकता है ।

लगता है कि तथाकथित हिंदी-प्रेम की उन्मत्तता से भी नेत्रोन्मीलन संभव नहीं हो पाया है । हिंदी संबंधी हमारी मानसिकता के संकुचित दायरों, संवैधानिक दायित्व-बोध से वंचित शासनिक क़दमों के कारण हिंदी की स्थिति आज बहुत ही नाज़ुक है । भूमंडलीकरण, निजीकरण, कंप्यूटरीकरण आदि हिंदी की गति की बुरी ढंग से प्रभावित करनेवाली घटनाएं साबित हो रही हैं ।

दुर्भाग्य से व्यवहार में भारतीय समाज की अधिमानित भाषा भी अंग्रेज़ी ही है । यहाँ किसी भी प्रकार की नौकरी पाने के लिए अंग्रेज़ी में प्रमाणपत्र की ज़रूरत पड़ेगा । पग-पग पर अंग्रज़ी ज्ञान की अपेक्षा करना, सामाजिक स्तर एवं सत्कार के लिए अंग्रेज़ी मोह - - ये सब आज की अनिवार्यताएँ साबित हो रही हैं । भारत में यत्र-तत्र-सर्वत्र अंग्रेज़ी का राज है, ऐसे में हम हिंदी को अंतर राष्ट्रीय मान्यता दिलाने के लिए लालायित हो रहे हैं । यह एक विडंबना है । हिंदी के समक्ष ऐसी कई विडंबनाएँ हैं । हिंदी रोजी-रोटी के साथ एक संकुचित अर्थ में जुड़ी है । संवैधानिक मान्यता मिलने के बावजूद ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित साहित्य हिंदी में आज तक उपलब्ध न हो पाने के बहाने हिंदी उच्च शिक्षा का माध्यम बनने से वंचित है । प्रचार से कतरानेवाली संस्थाओं को हिंदी प्रचार के नाम पर बड़ी मात्रा में अनुदान की राशियाँ मिल रहीं हैं, शायद इसी कारण हिंदी की अपेक्षाएँ भी पूरी नहीं हो रही हैं । हिंदी से कोई सरोकार न रखनेवाले आज हिंदी साम्राज्य के पदाधिकारी बन बैठे हैं । संवैधानिक अपेक्षाओं की खुलेआम की अवहेलना हो रही है ।

इधर एक आशा की किरण भी फूट रही है । आगामी जून, 2003 में सुरीनाम में सप्तम् विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित करने की तैयारियाँ शुरू हो चुकी हैं, जिसका विचाराधीन मुख्य विषय है – ‘विश्व हिंदी : नई शताब्दी की चुनौतियाँ’ । विगत विश्व हिंदी सम्मेलनों के संदर्भ में अध्ययन से यह बात स्पष्ट होती है कि ऐसे सम्मेलनों के बहाने बढ़ रहे भावावेश के अनुपात में हिंदी का हितवर्धन नहीं हो पा रहा है । अंग्रेज़ी का गढ़ ब्रिटेन साम्राज्य की राजधानी लंदन में संपन्न छठे विश्व हिंदी सम्मेलन का पटाक्षेप हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्यता दिलाने की दिशा में प्रयास शुरू करने के निष्कर्ष के साथ हुआ था । लंदन में संपन्न सम्मेलन की तमाम विसंगतियों के संदर्भ में कई गण्य-मान्य हिंदी हितचिंतकों की आलोचनाओं से बचने की दिशा में अवश्य चिंतन करेंगे, ऐसी आशा है । स्वाधीनता प्राप्ति की आधी सदी के बाद भी भाषाई उपनिवेशवाद के शिकार होनेवाले भारत को हिंदीमय बनाने के लिए अपेक्षित भावभूमि तैयार करने की ओर सम्मेलन का ध्यान जाएगा तो अवश्य ही सम्मेलन की प्रासंगिकता बढ़ेगी ।

मौजूदा वास्तविकता को देखते हुए यह कहना अनुचित न होगा कि भारतीय मानसिकता व्यवहार के धरातल पर आज काफ़ी हद तक पराई भाषा के पक्ष में है । देश में अंग्रेज़ी के हित में काफ़ी कुछ किया जा रहा है । अब अंग्रेज़ी के विरुद्ध करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है, किंतु हिंदी के हित में कार्य करने से वंचित रहने से बढ़कर कोई बड़ा ढोंग नहीं रह जाएगा । हिंदी के हित में ‘करो या मरो’ यही मूल भावना मनसा-वाचा-कर्मणा हिंदी के लिए हितवर्धक है ।

हिंदी का हितचिंतन : डा. सी. जय शंकर बाबु


हिंदी के विकास के लिए कई आयामों पर चिंतन के साथ-साथ पूरी निष्ठा के साथ हमें प्रयास करने की आवश्यकता है । देश में आज हिंदी की दुस्थिति को लेकर व्यथित एवं व्यग्र होकर संघर्षपूर्ण स्वर में कोसनेवालों की श्रेणी एक ओर, हिंदी को विश्वभाषा साबित करने की, संयुक्त राष्ट्र संघ से मान्यता दिलाने की मांग करनेवालों की श्रेणी दूसरी ओर है । बीच का रास्ता अपनाकर हिंदी के हितवर्धन हेतु अपने स्तर पर योग्य कार्य करनेवाले चंद हितैषी भी हैं । इन सबकी गति से सौ गुना अधिक तेजी से भारत में अंग्रेज़ी के दायरों का विस्तार होता जा रहा है । हिंदी की गति तभी बढ़ेगी जब हम जिम्मेदार एवं प्रभावशाली व्यक्तियों का ध्यान आकर्षित करने में सक्रिय रहेंगे तथा कर्तव्य निभाने के लिए उन्हें बाध्य करेंगे । भारतीय संविधान की मूल संकल्पना के अनुसार हिंदी को उचित दर्जा दिलाने हेतु उचित दिशा में संघर्ष करना आज हमारा कर्तव्य है ।

सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के परिप्रेक्ष्य में हिंदी की स्थिति के संदर्भ में भी हमें तुरंत सचेत होने की बड़ी आवश्यकता है । एक विडंबना है कि हम जानबूझकर कंप्यूटर में जिन चालन प्रणालियों (आपरेटिंग सिस्टम) को अपना चुके हैं उनका आधार अंग्रेज़ी भाषा है । हिंदी भाषा आधारित चालन प्रणालियों से युक्त कंप्यूटर उपलब्ध कराने के लिए हमने उत्पादकों को बाध्य नहीं किया है । सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के परिप्रेक्ष्य में राजभाषा नीति के उल्लंघन का यह मूलबिंदु है ।

यहाँ एक और तथ्य पर हमें गौर करने की आवश्यकता है कि कंप्यूटर चालन प्रणालियों में आज सहजतः विश्वभर में मानक अंग्रेज़ी का एक फांट (अक्षर रूप) मिल जाता है । अंग्रेज़ी के अन्य फांट साफ्टवेयर के साथ इसका आदान-प्रदान (परिवर्तनीयता एवं पठनीयता) भी संभव है । हिंदी भाषा आधारित चालन प्रणाली का अभाव तो है ही, मानक हिंदी फांट भी आज कहीं उपलब्ध नहीं हैं जैसे कि अंग्रेज़ी में उबलब्ध हैं । आज भारतीय बाज़ार में हिंदी के कई साफ्टवेयर उपलब्ध हैं, जिनका प्रचार राजभाषा विभाग के तकनीकी कक्ष की ओर से भी किया जा रहा है । किंतु मानक फांट साफ्टवेयर के अभाव में हिंदी के हित से बढ़कर अहित ही अधिक हो रहा है । हिंदी जिस देश की राजभाषा है वहाँ हिंदी साफ्टवेयर खरीदना पड़ रहा है जब कि अंग्रेज़ी जहाँ की राजभाषा भी नहीं, वहाँ भी मानक अंग्रेज़ी फांट निःशुल्क उपलब्ध हो रहा है । सरकार को चाहिए कि वह एक मानक हिंदी साफ्टवेयर को विकसित कराएँ जिससे कहीं परिवर्तनीयता अथवा पठनीयता की समस्या उत्पन्न न हो । हिंदी के हित में यह आवश्यक है कि विश्वभर में एक मानक फांट साफ्टवेयर निःशुल्क उपलब्ध कराने के लिए प्रावधान रखें । हिंदी के विकास के मार्ग अपने आप खुलने की दिशा में यह भी एक अपेक्षित कदम है । समस्त हिंदी प्रेमी इक दिशा में सरकार को बाध्य करने के लिए आज ही सक्रिय हो जावें

अश'आर : दोस्त -सलिल

दोस्त जब मेहरबां हुए हम पर.
दुश्मनी में न फिर कसर छोडी.

ए 'सलिल'! दिल को कर मजबूत ले.
आ रहे हैं दोस्त मिलने के लिए.

शिकवा न दुश्मनों से मुझको रहा 'सलिल'.
हैरत है दोस्तों ने ही प्यार से मारा..

संबंधों के अनुबंधों में प्रतिबंधों की.
दम टूटी, जब मिला दोस्त सच्चा कोई भी..

जिस्म दो इक जां रहे जो.
दोस्त उनको जानिए.

दोस्त ने दोस्त से न कुछ चाहा.
हुई चाहत तो दोस्ती न रही.

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सूक्ति कोष: प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़'

सूक्ति कोष

प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़'


विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं।

संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के.

इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ. अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है की वन प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'

जी कहते हैं- 'साहित्य उतना hee सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है।

..प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।

सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-

appearance आकृति:

one may smile and smile and be a villain.'

अधरों पर मुस्कान ह्रदय में पाप भरा है. / ऐसे कुटिलों से पूरित यह वसुंधरा है.

दोहानुवाद : मनमोहक मुस्कान पर, ज़हर ह्रदय में खूब.
कुटिलों से बचिए 'सलिल', नाव जायेगी डूब..

All that glitters is not gold, Gilded tombs do worms unfold.'

प्रत्येक चमक का आधार स्वर्ण नहीं है. स्वर्ण समाधि के खुलने पर भी कीटाणु ही मिलते हैं.

दोहानुवाद : जगमग-जगमग जो करे. कनक न उसको मान.
कनक-मकबरे में 'सलिल', मिले कीट-कृमि-खान..

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शब्द-यात्रा: चुनाव - अजित वडनेरकर

चु नाव की ऋतु में विभिन्न प्रकार के वचन सुनने को मिलते हैं। इन वचनों में याचना, संदेह, आरोप, भय, संताप, प्रायश्चित, प्रतिज्ञा, प्रार्थना आदि कई तरह के भाव होते हैं जिनका लक्ष्य आम आदमी होता है जो लगातार मौन रहता है। वह बोलता नहीं, अपना मत देता है जिसे वोट कहते हैं। वोट ही उसका वचन है, उस वचन के जवाब में, जो उसने नेताओं के मुंह से सुने हैं। वोट एक प्रार्थना भी है, जिसे मतपत्र के जरिये वह मतपेटी में काल के हवाले करता है, इस आशा में की उसकी वांछा पूरी होगी।
प्रजातंत्र में वोट vote का बड़ा महत्व है। कोई भी निर्वाचित सरकार वोट अर्थात मत के जरिये चुनी जाती है। यह शब्द अंग्रेजी का है जो बीते कई दशकों से इतनी बार इस देश की जनता ने सुना है कि अब यह हिन्दी में रच-बस चुका है जिसका मतलब है मतपत्र के जरिये अपनी पसंद या इच्छा जताना। चुनाव के संदर्भ में मत और मतदान शब्दों का प्रयोग सिर्फ संचार माध्यमों में ही पढ़ने-सुनने को मिलता है वर्ना आम बोलचाल में लोग मतदान के लिए वोटिंग और मत के लिए वोट शब्द का प्रयोग सहजता से करते हैं। वोटर के लिए मतदाता शब्द हिन्दी में प्रचलित है। वोट यूं लैटिन मूल का शब्द है मगर हिन्दुस्तान में इसकी आमद अंग्रेजी के जरिये हुई। लैटिन में वोट का रूप है वोटम votum जिसका अर्थ है प्रार्थना, इच्छा, निष्ठा, वचन, समर्पण आदि। भाषा विज्ञानी इसे प्रोटो इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार का शब्द मानते हैं। अंग्रेजी का वाऊ vow इसी श्रंखला का शब्द है जिसका मतलब होता है प्रार्थना, समर्पण और निष्ठा के साथ अपनी बात कहना। वोटिंग करने में दरअसल यही भाव प्रमुखता से उभरता है।
जब आप सरकार बनाने की प्रक्रिया के तहत अपने जनप्रतिनिधि के पक्ष में मत डालते हैं तब निष्ठा और समर्पण के साथ ही अपना मंतव्य प्रकट कर रहे होते हैं। इसी श्रंखला में वैदिक वाङमय में भी वघत जैसा शब्द मिलता है जिसका मतलब होता है किसी मन्तव्य की आकाक्षा में खुद को समर्पित करनेवाला। लैटिन के वोटम से ही बने डिवोटी devotee शब्द पर ध्यान दें। इसमें वहीं भाव है जो वैदिक शब्द वघत में आ रहा है अर्थात समर्पित, निष्ठावान आदि। डिवोशन इसी सिलसिले की कड़ी है। ये तमाम शब्द प्राचीन समाज की धार्मिक आचार संहिताओं से निकले हैं और अपनी आकांक्षाओं, इच्छाओं की पूर्ति के लिए ईश्वर के प्रति समर्पण व निष्ठा की ओर संकेत करते हैं। यह शब्दावली प्राचीनकाल के धर्मों, पंथों के प्रति उसके अनुयायियों के समर्पण व त्याग की अभिव्यक्ति के लिए थी। आधुनिक प्रजातांत्रिक व्यवस्था के संदर्भ में देखे तो ये बातें सीधे सीधे पार्टी या दल ... प्रत्याशियों के चरित्र को देख कर वोटर से समर्पण की अपेक्षा नहीं की जा सकती, जो वोटिंग का मूलभूत उद्धेश्य है।... विशेष से जुड़ रही हैं क्योंकि अधिकांश प्रत्याशियों की छवि या तो ठीक नहीं होती या आम लोग उससे सीधे सीधे परिचित नहीं होते। प्रत्याशियों के चरित्र को देख कर वोटर से समर्पण की अपेक्षा नहीं की जा सकती, जो वोटिंग का मूलभूत उद्धेश्य है। शायद राजनीतिक दलों को इन शब्दों के शास्त्रीय अर्थ पहले से पता होंगे इसीलिए वे हमेशा वोटर से निष्ठा की उम्मीद करते हैं।
संस्कृत-हिन्दी के मत शब्द का मतलब होता है सोचा हुआ, सुचिंतित, समझा हुआ, अभिप्रेत, अनुमोदित, इच्छित, राय, विचार, सम्मति, सलाह आदि। यह संस्कृत धातु मन् से निकला है जिसका अर्थ होता है जिसमें चिन्तन, विचार, समझ, कामना, अभिलाषा जैसे भाव हैं। आदि। वोटिंग के लिए मतदान शब्द इससे ही बनाया गया है। प्राचीन भारत में भी गणराज्य थे। वोटिंग से मिलती जुलती प्रणाली तब भी थी अलबत्ता शासन व्यवस्था के लिए वोटिंग नहीं होती थी बल्कि किन्ही मुद्दों पर निर्णय के लिए मतगणना होती थी। मतपत्र के स्थान पर तब शलाकाएं अर्थात लोहे की छोटी छड़ियां होती थीं। गण की विद्वत मंडली जिसे हम कैबिनेट कह सकते हैं, मुद्दे के पक्ष, विपक्ष के लिए दो अलग अलग शलाकाएं सभा में पदर्शित करती थीं। उनकी गणना की जाती थी। जिस रंग की शलाकाओं की संख्य़ा अधिक होती वही फैसले का आधार होता। मतपत्र, मतदान, मतदानकेंद्र, मतगणना, मताधिकार, सहमत, असहमत जैसे शब्द इसी मूल से बने हैं। बुद्धि-विवेक के लिए मति शब्द भी इसी श्रंखला की कड़ी है जिसका अभिप्राय समझ, ज्ञान, जानकारी,। मत अर्थात राय में सोच-विचार, चिन्तन-मनन का भाव समाया हुआ है। मगर यह चिन्तन लोकतांत्रिक प्रक्रिया के हर चरण से तिरोहित हो चुका है। पार्टियों में आंतरिक स्तर पर प्रत्याशियों के चयन में चिन्तन का आधार जीत-हार होता है, न कि प्रत्याशी की छवि, विकास के जनकल्याण के लिए संघर्ष करने का माद्दा।

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

सूक्ति कोष प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' / 'सलिल'

सूक्ति कोष

प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़'


विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं।

संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के.

इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ. अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है की वन प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'

जी कहते हैं- 'साहित्य उतना hee सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है।

..प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।

सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-

adversity विपत्ति:

'Sweet are the uses of adversity.' विपत्ति का फल मधुर होता है.

'Let me embrace thee, sour adversity,, For wise men say it is the wisest course.'

ओ दारुण दुर्भाग्य! आ, मैं तेरा आलिंगन करुँ क्योंकि विद्वानों के अनुसार यही मार्ग श्रेयस्कर है.

दोहानुवाद : आ, हँस आलिंगन करुँ, ओ मेरे दुर्भाग्य.

फल विपत्ति का हो मधुर, 'सलिल' बने सौभाग्य.

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लघुकथा : बुद्धिजीवी --लतीफ़ घोंघी

मैंने एक मित्र से पूछा- 'सांप्रदायिक सद्भावना बढ़ाने में आपकी क्या भूमिका रहेगी?'

वह बोले- 'क्या आप शाम को घर पर रहेंगे? मैं चाहता हूँ कि इस नाज़ुक विषय पर गंभीरतापूर्वक चर्चा करुँ।'


मैंने कहा - 'आपका स्वागत है, एक बुद्धिजीवी होने के नाते इस पर विचार करना हमारा नैतिक कर्तव्य है। शाम को वे मेरे घर आए, अपनी कविताओं की डायरी निकालकर उन्होंने मुझे सांप्रदायिक सद्भाव कि कवितायें सुनायी और बोले- 'कैसी लगीं मेरी रचनाएं आपको? मैं चाहता हूँ कि आप इन कविताओं को संग्रह रूप में प्रकाशित करने में मेरी मदद करें। कहिये, मेरे संग्रह की कितनी प्रतियाँ आप बिकवायेंगे?'
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नमन नर्मदा : कृष्ण गोप, मंडला.

माँ सुकुमारी वत्सल सलिला, उज्जवल मधुमय क्षीर नर्मदा।

मध्य प्रान्त की जीवन रेखा, विस्तृत नेहिल नीर नर्मदा॥

उर्वर मिट्टी रच कछार में, सब्जी-फल भर देती है।

मछुआरों को मछली देती, हरती तट की पीर नर्मदा॥

फसल सम्पदा बाँट रहा है अमृत जल जीवनकारी।

मेकल का मस्तक ऊंचा है, अंचल की जागीर नर्मदा॥

बस्ती के मकान जुड़ने को, बालू के भंडार विपुल।

मंदी-मस्जिद गढ़ हैं, स्वयं सजाती तीर नर्मदा॥

सुर सरिता के हरे-भरे तट, आशाओं के पोषक हैं।

कोई किनारा कैसे छोड, हर मन की जंजीर नर्मदा॥

गंगा की मैया कहलाती, पापनाशिनी वरदानी।

दर्शन से ही पुण्यदायिनी, देखें नयन अधीर नर्मदा॥

हर महानता उद्गम क्षण में, होती लघुतम बीजाकार।

एक विहंगम नदी कपिल धारा तक क्षीण लकीर नर्मदा॥

विविध स्वरुप अमरकंटक से सिन्धु तीर सौराष्ट्र तलक।

कहीं चपल चंचलता कल-कल, कहीं गहन गंभीर नर्मदा॥

पूर्वमुखी सारी नदियों से, अलग कहानी कहती है।

पूरब से पश्चिम को बहती, अद्भुत एक नजीर नर्मदा॥

नश्वर है शरीर माटी का, अजर अमर आत्मा सबकी।

साक्षी है बनने-मिटने की, अमर-धार अशरीर नर्मदा॥

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एक शे'र : इन्तिज़ार - आचार्य संजीव 'सलिल'

मिलन के पल तो कटे बाप के घर बेटी से।

जवां बेवा सी घड़ी इन्तिज़ार की है 'सलिल'॥

-दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
-संजिव्सलिल.ब्लागस्पाट.कॉम

शब्द यात्रा : अजित वडनेरकर - पूरी-कचौडी

दावतों में पूरियां न हों तो आनंद नहीं आता। भारतीय पूरियों की धूम पूरी दुनिया में है। रोज़ के खानपान में जो भूमिका रोटी दाल की हुआ करती है वही भूमिका पर्व त्योहारों पर बनने वाले विशिष्ट भोजन में पूरी सब्जी की होती है। आम दिनों भी में चपाती-रोटी के शौकीन बदलाव के लिए पूरी खाना पसंद करते हैं। पूरी शब्द बना है पूरिका से। पूरी के मूल में है संस्कृत धातु पूर् जिसमें समाने, भरने, का भाव है। इससे ही बना है पूर्ण शब्द जिसका अर्थ होता है भरना, संतुष्ट होना। समझा जा सकता है कि सम्पूर्णता में ही संतोष और संतुष्टि है। व्यंजन के रूप में पूरी नाम के पीछे उसका पूर्ण आकार नहीं बल्कि उसकी स्टफिंग से हैं। गौरतलब है की आमतौर पर बनाई जाने वाली पूरी के अंदर कोई भरावन नहीं होती है जबकि पूरी या पूरिका से अभिप्राय ऐसे खाद्य पदार्थ से ही है जो भरावन से बनाया गया है। पूरी बनाने के लिए आटे या मैदे की लोई में गढ़ा बनाया जाता है और फिर उसे मसाले से पूरा जाता है। यही है पूरना। इस तरह पूरने की क्रिया से बनती है कचौरियांतैयार कचौरीप्याज कचौरीपूरी। रोटी और पूरी में एक फर्क और है वह यह कि रोटी को तवे पर सेंका जाता है जबकि पूरी को पकाने की क्रिया तेल में सम्पन्न होती है अर्थात उसे तला जाता है। सामान्य तौर पर जो पूरियां बनाई जाती हैं उन्हें सादी पूरी कहना ज्यादा सही होगा। पूरियां कई प्रकार की होती हैं मगर उन सभी में आमतौर पर उड़द की दाल का ही भरावन होता है। आटे में पालक, बथुआ या मेथी गूंथकर भी पूरियां बनाई जाती है। नाश्ते में कचौरी भी लोकप्रिय हैं। बेहद लोकप्रिय और लज़ीज़ कचौरियां भी कई प्रकार की होती हैं और इसकी रिश्तेदारी भी पूरी से ही है। कचौरी शब्द बना है कच+पूरिका से। क्रम कुछ यूं रहा- कचपूरिका > कचपूरिआ > कचउरिआ > कचौरी जिसे कई लोग कचौड़ी भी कहते हैं। संस्कृत में कच का अर्थ होता है बंधन, या बांधना। दरअसल प्राचीनकाल में कचौरी पूरी की आकृति की न बन कर मोदक के आकार की बनती थी जिसमें खूब सारा मसाला भर कर उपर से लोई को उमेठ कर बांध दिया जाता था। इसीलिए इसे कचपूरिका कहा गया। मध्यप्रदेश के मालवान्तर्गत आने वाले सीहोर में आज भी मोदक के आकार की ही लौंग के स्वाद वाली कचौरियां बनती हैं जो इसके कचपूरिका नाम को सार्थक करती हैं। एक अन्य व्युत्पत्ति के अनुसार तमिल भाषा में दाल को कच कहते हैं इस तरह कच+पूरिका से बनी कचौरी। वैसे देखा जाए तो तमिल में दाल के लिए अगर कच शब्द है तो दक्षिण भारत में भी कचौरी बहुत लोकप्रिय होनी चाहिए, मगर इसे हम उत्तर भारतीय पदार्थ के रूप में ही जानते हैं। दूसरी बात यह कि पूरिका शब्द में स्वयं ही भरावन का भाव आ रहा है और सामान्यतः उत्तर भारत में घरों में बननेवाली पूरियां भी दाल के बहुत हल्के भरावन से ही बनती है जिन्हें कचौरी भी कहते हैं। कचौरी मूलतः उड़द की दाल की भरावन से ही बनती है मगर छिलका मूंग और धुली मूंगदाल से भी ज़ायकेदार कचौरियां बनती हैं। सावन के मौसम में मालवा में हींग की सुवास वाली भुट्टे की कचौरियां लाजवाब होती हैं। कचौरी और पूरी में एक फर्क यह भी है कि पूरी को बेला जाता है जबकि कचोरी को बेला नहीं जाता बल्कि लोई में मसाला भर कर उसे हाथ से आकार दिया जाता है। कचौरी के आकार को अगर देखें तो यह पूरी की ही तरह से फूली हुई होती है अलबत्ता इनका आकार अलग अलग होता है तथा कचोरी के मैदे में खूब मोहन डाला जाता है ताकि यह खस्ता बन सके। कचौरियां जितनी खस्ता होंगी उतनी ही ज़ायकेदार होती हैं। उत्तर भारत में जोधपुर की प्याज की कचौरी, कोटा की हींग वाली कचौरी और समूचे अवध क्षेत्र की उड़द दाल की कचोरियां मशहूर हैं।

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

एक कुण्डली : आचार्य संजीव 'सलिल'

भुला न पाता प्यार को, कभी कोई इंसान.
पाकर-देकर प्यार सब जग बनता रस-खान
जग बनता रस-खान, नेह-नर्मदा नाता.
बन अपूर्ण से पूर्ण, नया संसार बसाता.
नित्य 'सलिल' कविराय, प्यार का ही गुण गाता.
खुद को जाये भूल, प्यार को भुला न पाता.

नव गीत

नव गीत-
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
दिन भर मेहनत
आँतें खाली,
कैसे देखें सपना?
*

दाने खोज,
खीझता चूहा।
बुझा हुआ है चूल्हा।
अरमां की
बारात सजी- पर
गुमा सफलता दूल्हा।
कौन बताये
इस दुनिया का
कैसा बेढब नपना ?
*

कौन जलाये
संझा-बाती
गयी माँजने बर्तन।
दे उधार,
देखे उभार
कलमुँहा सेठ
ढकती तन।
नयन गड़ा
धरती में
काटे मौन
रास्ता अपना
*

ग्वाल-बाल
पत्ते खेलें
छिप चिलम चढ़ाएँ ।
जेब काटता
कान्हा-राधा छिप
बीड़ी सुलगाये।
पानी मिला
दूध में
जसुमति बिसरी
माला जपना
*

बैठ मुँडेरे
बोले कागा
झूठी आस बँधाये।
निठुर न आया,
राह देखते
नैना हैं पथराये।
ईंटों के
भट्टे में मानुस
बेबस पड़ता खपना
*
श्यामल 'मावस
उजली पूनम,
दोनों बदलें करवट।
साँझ-उषा की
गैल ताकते
सूरज-चंदा नटखट।
किसे सुनाएँ
व्यथा-कथा
घर की घर में
चुप ढकना
****************

शब्द यात्रा : अजित वडनेरकर - निर्वाचन

नि र्वाचन के लिए चुनाव शब्द बड़ा आम और लोकप्रिय है। बोलचाल में निर्वाचन की जगह चुनाव शब्द का ही इस्तेमाल होता है। संचार माध्यम भी निर्वाचन के स्थान पर इसका प्रयोग ही करते हैं। पंचायत चुनाव, विधानसभा चुनाव या लोकसभा चुनाव-राज्यसभा चुनाव आदि। संसदीय चुनावों को आम चुनाव कहने का भी चलन है जो अंग्रेजी के जनरल इलेक्शन का अनुवाद ही है। चुनाव शब्द बना है चि धातु से जिससे चिनोति, चयति, चय जैसे शब्द बनते हैं जिनमें उठाना, चुनना, बीनना, ढेर लगाना जैसे भाव हैं। इन्ही भावों पर आधारित हिन्दी के चुनना, चुनाव,चयन जैसे शब्द भी हैं। निश्चय, निश्चित जैसे शब्द भी इसी कड़ी के हैं जो निस् उपसर्ग के प्रयोग से बने हैं जिनमें तय करना, संकल्प करना, निर्धारण करना शामिल है। इसके बावजूद सरकार चुनने की प्रक्रिया के लिए चुनाव शब्द में उतनी व्यापक अभिव्यक्ति नहीं है जितनी निर्वाचन शब्द में है। चि धातु में चुनने का जो भाव है वह सत्य की पड़ताल या विशिष्ट तथ्य के शोध से जुड़ा हुआ नहीं है बल्कि किसी समुच्चय में से कुछ चुन कर अलग समुच्चय बनाने जैसी भौतिक-यांत्रिक क्रिया अधिक लगती है और चिन्तन का अभाव झलकता है। चुनाव के लिए मराठी में निवडणूक शब्द है जो निर्वचन से ही बना है। निर्वचन का र मराठी के ड़ में तब्दील हुआ और अंत में ड में बदल गया। इसके साथ ही वर्ण विपर्यय भी हुआ। र ने व की जगह ली। क्रम कुछ यूं रहा। निर्वचन > निवड़अन > निवडन > निवडणूक। बीनने के लिए मराठी में निवड़न शब्द प्रचलित है और इसके क्रियारूप इस्तेमाल होते हैं। हिन्दी का निर्वाचन शब्द मूलतः संस्कृत वाङमय का ही शब्द है मगर लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत शासन प्रबंध के लिए योग्य प्रतिनिधियों के चुनाव का अभिप्राय इसमें नहीं था क्योंकि मूल रूप में यह निर्वचन है। संस्कृत में निर्वचन शब्द का मतलब होता है व्याख्या, व्युत्पत्ति या अभिप्राय लगाना। संस्कृत साहित्य में निर्वचन की परम्परा बहुत पुरानी है। मोटे रूप में समझने के लिए साहित्य की टीका लिखने के चलन को याद करें। इसे निर्वचन कहा जा सकता है। संस्कृत साहित्य में निर्वचन की परम्परा शुरू होने के पीछे भी साहित्य की वाचिक परम्परा का ही योगदान है। पुराणकालीन सूक्तों, श्लोकों के रचनाकारों नें इन्हें रचते वक्त जो व्याख्याएं कीं वे कालांतर में अनुपलब्ध हो गई। इनके आधार पर जो भाष्य़ लिखे गए उनमें विविधता रही। वैदिक-निर्वचन का उद्धेश्य ही यह है कि तमाम विविधताओं और विसंगतियों के बीच किसी भी उक्ति, भाष्य, श्लोक आदि की सार्थक व्याख्या हो। जाहिर है इस सार्थक व्याख्या के जरिये किसी एक निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। निर्वचन शब्द बना है निर्+वचन से अर्थात बहुत से वचनों के बीच से अर्थ को अलग करना। यूं कहें कि गूढ़ वचनों में छिपे संदेश को चुनना। स्पष्ट है कि निर्वचन में चुनने का भाव ही प्रमुखता से उभर रहा है। इसके दार्शनिक भाव को ग्रहण करें तो बहुत से तथ्यों, आयामों और व्याख्याओं में से किसी एक को चुनना। यह एक निश्चित ही सत्य है, क्योंकि असत्य या भ्रष्ट के चयन के लिए निर्वचन प्रक्रिया नहीं हो सकती। विडम्बना है कि वच् धातु, जिसमें कहना, बोलना, कथन, वचन जैसे भाव हैं, से बने इस शब्द में नेता के वचन ही प्रमुख हो गए। जो नेता जितनी वाचालता दिखाता है, उसके जीतने के योग उतने ही अधिक होते हैं। वाचाल-प्रयत्नों से चुनावी वैतरणी पार करने के तरीके सफल भी रहते हैं। इसके बाद जनप्रतिनधि महोदय के वचनों को सदन में चाहे असंदीय समझा जाए, जनता ने तो उन्ही वचनों के आधार पर उन्हें निर्वाचित कर अपना ईष्ट चुना है। दो हीन चरित्रों वाले प्रत्याशियों में से किसी एक के निर्वाचन से देश में शांति, स्थिरता और समृद्धि कैसे आएगी, जिन्हें पाने के लिए लोकतंत्र के इस यज्ञ का आयोजन होता है? स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को मान्यता देने के बाद राजभाषा के तौर पर हिन्दी की पारिभाषिक शब्दावली बनाने का काम शुरू हुआ। चुनाव के अर्थ में राजभाषा समिति के विद्वानों ने निर्वाचन शब्द तय किया। सरकार चुनने की प्रक्रिया के लिए मानक शब्द बनाने में अंग्रेजी के इलेक्शन शब्द को ही आधार बनाया गया। निर्वचन से बने निर्वाचन पर गौर करें तो इस शब्द की व्याख्या उसी तर्क प्रणाली पर आधारित जान पड़ती है जो इलेक्शन की है। इलेक्शन शब्द की रिश्तेदारी लैक्चर शब्द से है जिसमें पुस्तक से पाठ चुनने का जो भाव है वही भाव निर्वचन से बने निर्वाचन में आ रहा है यानी बहुतों में से एक को चुनना। विडम्बना है कि निर्वाचन जैसे गूढ़ दार्शनिक भावों वाले इस शब्द और प्रकारांतर से प्रक्रिया को वोट देने जैसी औपचारिकता का रूप दे दिया गया है। राजनीतिक पार्टियां ही प्रत्याशी तय करती हैं। वहां निर्वाचन के पवित्र अर्थ का ध्यान नहीं रखा जाता। भ्रष्ट-अपराधी अगर उम्मीदवार है तो उसका पार्टी स्तर पर उसका निर्वाचन सही कैसे कहा जा सकता है? महान राजनीतिक दलों को बहुतों में से एक परम सत्य के रूप में अगर अपराधी और दागी चरित्र के लोग ही जनप्रतिनिधि के रूप में विधायी संस्थाओं में देखने है तो यह निर्वाचन शब्द की घोर अवनति है। दो हीन चरित्रों वाले प्रत्याशियों में से किसी एक के निर्वाचन से देश में शांति, स्थिरता और समृद्धि कैसे आएगी, जिन्हें पाने के लिए लोकतंत्र के इस यज्ञ का आयोजन होता है?

लो हम वोट दे आये !

लो हम वोट दे आये !
विवेक रंजन श्रीवास्तव

लो हम वोट दे ही आये ! लाइन में लगकर .. ! दो दो लाइनों मे लगकर .. पोलिंग बूथ क्रमांक १०३ और १०३ क का ऐसा चक्कर हुआ कि पहले तो २० मिनट बूथ क्रमांक १०३ पर लाइन में लगे खड़े रहे , जब अंदर जाने का नम्बर आया तो द्वार पर खड़े कोटवार ने , जो आज सुरक्षा अधिकारी का बिल्ला लगाये हुये था दरवाजे से ही वापस कर दिया , यह कहकर कि आपकी सुविधा को ध्यान में रखकर ही कि जिससे एक केंद्र पर ज्यादा भीड़ न हो इस मतदान केंद्र को २ केंद्रो में बांट दिया गया है .. १०३ और १०३ क .... हमने उससे पूछा कि अब हमें कहां जाना है तो उसने कहा ढ़ूंढ़ लो .. स्कूल में हर कमरे में अलग अलग मतदान केंद्र थे.. हमने मन ही मन उसकी असंवेदन शीलता को कोसा ... पूंछ पांछ कर पता लगाया और नई लाइन में फिर कोई २५ मिनट खड़े रहकर अपने मताधिकार का सक्षम प्रयोग कर ही आये ...
महीने भर से शहर में गहमा गहमी थी , हमें मनाने के लिये हैलीकाप्टर पर , तक नेता गण दौड़े भागे आ जा रहे थे , रोड शो कर रहे थे , एस एमएस कर रहे थे ...टीवी चैनल , ब्लाग्स आदि हमसे लगातार जागरूख होने की अपील कर रहरे थे .. हम मान गये .. लो हम वोट दे आये ! अब शाम को सरकारी तंत्र हमारा मतदान प्रतिशत बतायेगा .. १६ मई तक हमारे मत की रखवाली करेगा .. फिर दो एक से घटिया चेहरों में से कोई ना कोई चुन ही लिया जायेगा ... हम तो फुरसत हुये लो हम वोट दे आये !

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

शब्द यात्रा - 'चुनाव' : अजित वडनेरकर



लोकतंत्र में चुनाव के जरिये ही शासक चुना जाता है। पुराने दौर में राजा-महाराजा होते थे, वही शासक कहलाते थे। अब जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनती है और बहुमत प्राप्त प्रतिनिधियों का समूह शासन व्यवस्था चलाता है। पसंद की सरकार बनाने की प्रक्रिया के लिए हिन्दी में निर्वाचन या चुनाव शब्द ज्यादा प्रचलित है। अरबी-फारसी-उर्दू में इसे इंतिखाबात कहते है और अंग्रेजी में इलेक्शन election। यह दिलचस्प है कि नेता का रिश्ता नेतृत्व से होता है मगर समाज को आगे ले जाने या राह दिखाने की बजाय नेता सिर्फ बोलता है। भाषण देता है। किसी ज़माने के नेताओं के मुखारविंद से जो वचन झरते थे उन्हें प्रवचन, व्याख्यान की श्रेणी में रखा जा सकता था मगर अब इनके भाषण सिर्फ शब्दों की जुगाली है जिसके प्रमुख तत्व हैं वोट की जुगत और विपक्षी को गाली। अंग्रेजी का इलेक्शन शब्द हिन्दी में सहज स्वीकार्य हो चुका है। यह बना है लैटिन के ऐलिगर से जिसका मतलब होता है उठाना, चुनना और जिसका रिश्ता है लैटिन के ही लीगर legere से जिसका अर्थ है पढ़ना। भारोपीय धातु लेग् leg, lego से बने ये शब्द जिसमें सामूहिकता, एकत्रीकरण या इकट्ठा होने का भाव है साथ ही इस धातु में चुनाव या चुनने का अर्थ भी निहित है। लैटिन का इलेक्टम भी इसी मूल का है जिसमें यही भाव समाए हैं। इलेक्शन में चुनने का भाव दरअसल अंग्रेजी के लैक्चर से आ रहा है जो खुद लैटिन के लीगर legere से ही बना है। लैक्चर का मतलब आज चाहे व्याख्यान या भाषण देना हो मगर लैटिन में इसका मूलार्थ है पुस्तक में से पठन-पाठन योग्य अंश को चुनना। यहां लैक्चर का मतलब पुस्तक के अध्याय अथवा आख्यान से है। व्याख्याता का काम हर रोज़ छात्रों को एक विशेष अध्याय अथवा आख्यान पढ़ाना ही है। वह उस आख्यान की विवेचना करता है, उसकी व्याख्या करता है। कुल मिला कर जो बात उभर रही है वह यह कि बहुत सारी सामग्री में से कुछ बातें सार रूप में चुनना। पुस्तकों में तथ्य होते हैं, शिक्षक का काम उनका निचोड़ निकाल कर, उनसे ज्ञान की बातें चुन कर छात्रों का मार्गदर्शन करना। इसी दार्शनिक भाव के साथ लैक्चर और इलेक्शन को देखना चाहिए। लैक्चर से ही बना है लैक्चरर अर्थात व्याख्याता। इस शब्द को भारतीय संस्कृति के आईने में देखें। प्राचीन गुरुकुलों के अधिष्ठाता प्रसिद्ध ऋषि-मुनि थे। प्रायः वे स्वयं अथवा अन्य विद्वान ब्राह्मण जो वेदोपनिषदों की दार्शनिक मीमांसा करते थे, आचार्य कहलाते थे। विद्यार्थी को वेदों के विशिष्ट अंश पढ़ाने के लिए नियमित वृत्ति अर्थात वेतन पर जो शिक्षक होते थे वे उपाध्याय कहलाते थे। कालांतर में शिक्षावृत्ति अर्थात पारिश्रमिक के बदले पढ़ानेवाले ब्राह्मणों का पदनाम ही उनकी पहचान बन गया। पुस्तक या ग्रंथ में समूह का भाव स्पष्ट देखा जा सकता है। कोई भी पुस्तक कई पृष्ठों का समूह होती है। ये तमाम पृष्ठ अलग अलग अध्यायों में निबद्ध होते हैं। लेगो lego का ही एक रूप लेक्टम है जिसमें किसी समूह से चुनने का भाव आ रहा है। विभिन्न उपसर्गों के प्रयोग से इस धातु से बनी कुछ और भी क्रियाएं हैं जो हिन्दी परिवेश में भी बोली जाती हैं जैसे कलेक्ट यानी एकत्रित। उपेक्षा के अर्थ में नेगलेक्ट शब्द है जिसका मूलार्थ किसी समूह से निकाले जाने का भाव है। इसी श्रंखला में इलेक्टम से होते हए इलेक्शन शब्द बना है जिसका चुनाव या निर्वाचन अर्थ स्पष्ट है। अरबी, फारसी, उर्दू में चुनाव के लिए इंतिखाब या इंतिखाबात शब्द है। मूल रूप से यह अरबी का है जिसका रूप है इंतिक़ा या अल-इंतिक़ा। फारसी प्रभाव में यह इंतेख़ाब या इंतिखाब हुआ। मोटे तौर पर इंतिक़ा का मतलब होता है बहुतों में से किसी एक को या कुछ को छांट लेना या बीन लेना। अंग्रेजी के इलेक्शन शब्द के पीछे जो दर्शन है वही दर्शन और तर्कप्रणाली अरबी के इंतिक़ा में भी है अर्थात किन्हीं दो व्याख्याओं या विवेचनाओं में से किसी एक परम तार्किक व्याख्या का चयन। अरबी में चुनाव के लिए इज्तिहाद शब्द भी है और चुनाव को इज्तिहाद इंतिकाई भी कहा जाता है। ऐसे चुनाव जो नस्ली आधार पर हों यानी मुस्लिम मुस्लिम को वोट दे और हिन्दू हिन्दू को, उन्हें इंतिखाबे-जुदाग़ानः कहते हैं और संयुक्त निर्वाचन को इंतिखाबे-मख्लूत कहते हैं। गौर करें कि प्राचीन समाज की ज्ञान परम्परा में सत्य की थाह लेने और निष्कर्ष पर पहुंचने के प्रयासों के लिए ही ये शब्द अस्तित्व में आए जिनका व्यापक प्रयोग बाद में समूह या समष्टि में से किसी एक या कुछ इकाइयों को छांटने या बीनने के लिए होने लगा। मूल रूप में चुनाव अगर होना है सच्चे पंथ का। सच्चे ज्ञान का और अंततः परम सत्य का। लोकतंत्र के तहत हम लगातार चुनावों से गुज़रते हैं क्या उसमें छांटने, बीनने, चुनने के बाद वैसा मूल्यवान, प्रदीप्त और शाश्वत तत्व हमारे हाथ लगता है जिसका संकेत इलेक्शन या इंतिखाब जैसे शब्दों में छुपा हैं? चुनाव परम सत्य का होना चाहिए मगर दागी, अपराधी उम्मीदवारों, जोड़-तोड़ वाले राजनीतिक दलों के बीच इस सच का चुनाव कैसे हो?