पूर्णिका : विश्ववाणी हिंदी की लोक हितैषी काव्य भंगिमा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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सृष्टि का निर्माण जड़ और चेतन दो तत्वों से हुआ है। चेतना का स्तर जितना उन्नत होता है जीव उतना ही अधिक संवेदनशील होता है। मनुष्य सृष्टि का सर्वाधिक बुद्धिमान व शक्तिशाली प्राणी है। संवेदना को अनुभूत और अभिव्यक्त करने की क्षमता का सतत विस्तार सृजन का पर्याय होता है। कविता का उद्देश्य आंतरिक अनुभूति की संवेदनपूर्ण लयात्मक अभिव्यक्त करना है। कविता परचना की प्रतिभा कभी जन्मजात होती है, कभी सतत अभ्यास से सीखी और लिखी जाती है। लोक अनुभूति को सस्वर अभिव्यक्त करता है। लय बद्ध वाचिक प्रस्तुति उच्चार पर निर्भर होती है। उच्चार को लघु और दीर्घ उच्चारकाल के आधार पर लघु और गुरु वर्गीकृत किया जाता है। लिपि के अन्वेषण पश्चात से कविता के उच्चरों को पहले वार्णिक फिर मात्रिक आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। लोक उच्चार काल के आधार पर लय बद्ध अभिव्यक्ति करता है। भारत में आदिकाल से आदिमानव प्राकृतिक घटनाओं और जीव जंतुओं को आधार बनाकार अपनी उच्चार सामर्थ्य और वाक् कला को उन्नत करता रहा है। ध्वनि सर्वत्र छा जाती है इसलिए ध्वनिखंडों के समुच्चय से बनी काव्य रचना को छंद कहा गया। आदि मानव ने सलिल-प्रवाह की कलकल, पंछियों के कलरव, मेघ की गर्जन, सांप की फुँकार, सिंह की दहाड़ आदि ध्वनियों के आधार पर छंद बनाए।
वन्य और ग्राम्य मानव सुबह-शाम वनों और खेतों में, वृक्षों और मचानों पर पवन प्रवाह में झूमते हुए एक पंक्ति गाता है, उससे अपीरिचित दूर खाद्य कोई अन्य जन दूसरी पंक्ति गाता और यह क्रम सतत चलता रहता। इससे शाम की तनहाई और रात का अकेलापन दूर हो जाता। ऐसी काव्य पंक्तियाँ सामान्यत: समभारिक और समतुकांती होती थीं किनती यह अनिवार्यता नहीं थी। इन गीतों में भाव और रस की प्रधानता होती थी, शिल्प और भाषिक शुद्धता की नहीं। इन लोकगीतों के रचनाकार प्राय: अशिक्षित होते थे। कालांतर में शिक्षा का प्रसार होने पर लोकगीतों को एकत्र और विश्लेषित कर उनके उच्चारकाल की गणना वर्ण और मात्रा के आधार पर की जाने लगी और उन्हें वार्णिक-मात्रिक छंद कहा गया। किताबी शिक्षा का प्रसार बढ़ने पर अपने पांडित्य और विद्वता की धाक जमाने के फेर में रचनाकारों ने रस और भाव पर शिल्प और भाषिक शुद्धता को वरीयता देना आरंभ कर दी। इस कारण कविता नगर वधू की तरह सुसज्जित और आकर्षक तो हुई किंतु ग्राहिणी के तरह शालीन और स्वीकार्य नहीं रह गई। इसकी अंतिम परिणति नीरस साहित्य सृजन के रूप में हुई। १९८० के आस-पास इस प्रवृत्ति के शमन हेतु मैंने पिंगल शास्त्र का ध्यायन कर सहस्त्राधिक नाव छंदों का अन्वेषण किया तथा नवगीत, लघुकथा, व्यंग्य लेख, कहानी, उपन्यास आदि में नकारात्मक प्रवृत्ति प्रधान लेखन के विरुद्ध न केवल आवाज उठाई अपितु सकारात्मक चिंतनपरक लेखन भी किया।
भारत में समपदांतिक द्विपदियों के माध्यम से अपभ्रंश, प्राकृतिक और अन्य लोक भाषाओं में सदियों साहित्य रचा गया जिसे दोहड़ा, दोहत्तथम्, दोग्धक आधी कहा गया। दो संपदांतिक पंक्तियों के बाद एक भिन्न तुकांती पंक्ति और अंत में समतुकांती से चतुष्पदी या मुक्तक रचा गया। चतुष्पदी में भिन्न और सम तुकांती के एक से अधिक युग्म जोड़कर गीति रचनाएँ की गईं। संतों और साहित्यकारों के साथ भाषा और साहित्य निकटवर्ती देशों में भी गया और वहाँ की भाषा के अनुरूप बदला भी गया। द्विपदीक गीति रचना को फारस में गजल कहा गया। वहाँ की सामाजिक परंपराओं के आधार पर गजल को आयातित होने के सत्य से दूर रखने के लिए 'गज़ाला-चश्म' / मृगनयनी अर्थात सुंदरियों के रूप वर्णन का काव्य कहा गया जबकि भारत में यह लोक जीवन की दैनंदिन संवेदनाओं से संपृक्त था। मुगल काल में गजल शराब-शराब का काव्य होने पर समाज के लिए निरुपयोगी होनी ही थी। अंग्रेजों के शासन काल में यही गजल क्रांतिकारियों के सत्संग में क्रांतिधर्मी और संतों के साहचर्य में आध्यात्मिक हो गई। बिस्मिल और कबीर की गजलें इस सत्य को प्रमाणित करती हैं। दुष्यंत कुमार ने गज़लों को सामाजिक असंतोष, पीड़ा और संघर्ष का साक्षी बना दिया किंतु अधिकांश किताबी गजलकार हिंदी गज़लों को खारिज करते रहे कि वे बेबहर हैं।
विश्ववाणी हिंदी भारत की जनवाणी है। गजल को जनभावनाओं के अनुरूप बदलने की बेचैनी में अनेक साहित्यकारों ने इसके कलेवर और मानकों को बदलने के प्रयास किए। गोपाल दास सक्सेना, 'नीरज', चंद्र सेन 'विराट', सोम ठाकुर, बेकल उत्साही, बशीर अहमद 'मयूख' आदि के बाद ओम नीरव ने गीतिका, डॉ. अनिल गहलोत ने सजल, रमेश राज ने तेवरी, मैंने मुक्तिका नाम से द्विपदिक गीति रचना की विरासत को आगे बढ़ाया। इस सभी में फारसी बहरों से परहेज एक सामान्य तत्व था किंतु शेष मानकों में भिन्नता थी। परिवर्तन का क्रम कभी रुकता नहीं है। जबलपुर निवासी अधिवक्ता-कवि सलपनाथ यादव ने एक कदम आगे बढ़ते हुए आदि कालीन द्विपदिक गीत काव्य के अनुकूल गजल का पूर्ण कायाकल्प कर उसे 'पूर्णिका' नाम से पुनर्जन्म देने का प्रयास किया है। पूर्णिका अनुभूति की सस्वर प्रस्तुति का पर्याय है। समान पदभार या समान उच्चारकाल के साथ समान पदांत-तुकांत पूर्णिमा का मानक तत्व है। पूर्णिका में समान पदभार पालन में भी शिथिलता स्वीकार्य है यदि वाचिक समय काल समान है। पदंत टिकान्त में एक शब्द, एक वर्ण या एक एक उच्चार भी मान्य है। सारत: पूर्णिका पहाड़ी झरने की तरह है जबकि मुक्तिका, गीतिका, तेवरी और सजल नदी तथा गजल नहर की तरह कही जा सकती हैं। साहित्य सत्य-शिव-सुंदर की अभिव्ययक्ति का सर्वोपायोगी माध्यम है, इसलिए साहित्य में संघर्ष नहीं सामने और सामंजस्य होना आवश्यक है। पूर्णिका इसी समन्वय की पक्षधर है। पूर्णिका ने साहित्य सृजन करने के इच्छुक हर व्यक्ति के लिए अपनी भावों की भाषिक अभिव्यक्ति आसान कर दी है किंतु यह भी सत्य है कि मानक, नियम और काव्यानुशासन अभिव्यक्ति को तराशता और निखारता है। पूर्णिका लेखन में लेखकीय स्वतंत्रता होना तब ही श्रेष्ठ परिणामदायक होगा जब रचनाकार आत्मानुशासित होगा।
पूर्णिका को अपनानेवाले रचनाकारों की संख्या में आशातीत वृद्धि इसकी लोकप्रियता का प्रमाण है किंतु पूर्णिका को काव्य विधाओं में श्रेष्ठता प्रमाणित करना अभी शेष है और यह तब ही होगा जब संख्या के साथ-साथ गुणवत्तापूर्ण रचनाएँ, संकलन, सम्मेलन, समीक्षा और विमर्श निरंतर होते रहे। इस संक्रमनकाल में जब हिंदी भाषा दिन-ब-दिन अवहेलना, उपेक्षा और बेकदारी के दौर से गुजर रही है, नई पीढ़ी अगनरेजी दां होना जीवनोपलब्धि मान रही है, राजनीति अपने संकुचित स्वार्थ हेतु हिंदी को शेष भारतीय भाषाओं/बोलिओं की शत्रु बताकर इसकी जड़ में मठा डाल रही है, हिंदी का प्राध्यापक साहित्यकार को हेत समझ रहा है और खुद को हिंदी-हितैषी माननेवाले हिंदी साहित्यकार अपने वैचारिक वमन को ही आत्मतुष्टि का माध्यम बनाकर संतुष्ट है, संस्थाएँ सृजन सम्मान बेचने का माध्यम बन गई हैं हिंदी साहित्य में किसी नई सृजन विधा को व्यवहार में लाना और उसे अपननेवाला रचनाकार वर्ग तैयार करना असंभव नहीं किंतु दुष्कर अवश्य है। मेरे अनुजवात सलप नाथ जी ने सफल अधिवक्ता होते हुए भी अपने व्यस्त समय का कुशल प्रबंधन कर साहित्य सृजन और नव विधा स्थापन के महायज्ञ का होता बनने का दुस्साहस किया है इस हेतु वे बधाई और सहानुभूति दोनों के पात्र हैं। बधाई इसलिए की एक सुबह कार्य कर रहे हैं सहानुभूति इसलिए कि वे हवन करते हाथ जलाने का अनुभव लेने जा रहे हैं। मुझे भरोसा है कि वे 'दर्द बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की' जैसी विषमताओं का साहस और धैर्य के साथ सामना करेंगे और विचलित नहीं होंगे।
अनुजवत सलपनाथ यादव जी के ७६ वें जन्म दिवस के शुभ अवसर पर पूर्णिकाकारों और पूर्णिका संकलनों की संख्या में आशातीत वृद्धि होना सलपनाथ जी के अथक परिश्रम का ही सुपरिणाम है। १११ पूर्णिकाकारों की प्रतिनिधि रचनाओं के इस संकलन में स्व. आचार्य कृष्ण कुमार चतुर्वेदी, डॉ. विकास दवे, डॉ. श्याम मनोहर सिरोठिया, मोहन शशि, मनोहर चौबे 'आकाश', विजय तिवारी किसलय, विजय बागरी, सुशील श्रीवास्तव, रजनी कटारे, कविता राय, डॉ. खेदू भारती, डॉ. योगेश निर्भीक, डॉ. नरेश सागर, डॉ. ललित कुमार सिंह, निर्मला डोंगरे, गोधन सिंह फौदार, नीलम यादव, टी.के. सिंह परिहार, किरात सिंह यादव, जगदीश तपिश, सीमा मिश्रा, शी अलग, राम वल्लभ गुप्ता, बदन सिंह, ओमप्रकाश खरे, कृष्ण कुमार कनक, रामायण प्रसाद टंडन, दीनदयाल यादव, अब्दुल रफीक सिद्दीकी, आदि महानुभाव पूर्णिका के वैशिष्ट्य आदि पर प्रकाश करते हुए विविध पक्षों से विवेचना कर चुके हैं। इन सब पूर्णिकाप्रेमी विद्वानों के अभिमत से सहमत होते हुए मैं सभी सहभागी रचनाकारों के अभिनंदन करता हूँ।
इस महत्वपूर्ण कृति में पूर्णिका के जनक सलप नाथ जी की कुछ पूर्णिकाएँ सम्मिलित की गई हैं। पूर्णिकाओं में नर्मदा मैया -संस्कारधानी, योगेश्वर श्रीकृष्ण जी, गजानन जी आदि के प्रति प्रणति निवेदन, नाम जाप माहात्म्य आदि में सनातन भारतीय परंपरा का निर्वहन हुआ है। एक पूर्णिका मानवीय सद्गुणों का विवेचन करती है। 'करना भैया कभी न देरी' का लोकोपयोगी संदेश पूर्णिका के माध्यम से दिया है सलपनाथ जी ने। सलपनाथ जी की पूर्णिकाओं में सहजता, सरलता को गांभीर्य पर वरीयता दी गई है। वे शिल्प पर कथ्य की प्रधानता की मुरीद हैं। विविध पूर्णिकाओं में लयखंडों और पंक्तिभार में विविधता कवि-सामर्थ्य की परिचायक है। प्रिय सलपनाथ द्वारा किए जा रहे समय सापेक्ष साहित्यिक अवदान के लिए साधुवाद देते हुए प्रस्तुत हैं एक पूर्णिका
रहे समय सापेक्ष पूर्णिका
गहे न पक्ष-विपक्ष पूर्णिका
कहे सनातन सत्य हमेशा
होकर गुट निरपेक्ष पूर्णिका
तहे विगत को; आगत देखे
सबके हित समकक्ष पूर्णिका
सहे रात-दिन बदलावों को
कर कर कोशिश लक्ष पूर्णिका
ढहे वही तो लड़े सत्य से
युग परिवर्तन कक्ष पूर्णिका
बहे सलिल लहरों के जैसे
है संजीवित दक्ष पूर्णिका
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संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
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