सलिल सृजन अगस्त ५
*
सॉनेट
भू सुता
•
हम भू सुता धरित्री माता,
इस युग की हम ही हैं सीता,
सास-बहू का स्नेहिल नाता,
हमने मिल हर संकट जीता।
श्रम-कोशिश दो हाथ हमारे,
चिंता हो भविष्य की क्यों फिर,
हाथ न हमने कभी पसारे,
चाहे मुश्किल मेघ रहे घिर।
भीख न चाहें अनुदानों की,
हमें बेचना वोट न अपना,
चिंता हमें न सम्मानों की,
हम न देखते झूठा सपना।
बहा पसीना फसल उगाएँ।
खिला और को तब हम खाएँ।।
५-८-२०२३
•••
सॉनेट
●
ई डी, क्रय-विक्रय, निष्कासन
तंत्र लोक पर हावी दिन-दिन
मार पटखनी मिले अगिन-गिन
अंधभक्ति, बुलडोजर, भाषण
लगा रहे दम, निकल जाए दम
जो वे नहीं शत्रु, हैं हमदम
सोचें राज करेंगे हरदम
सुनें न आहें, जनता को गम
हर दिन करते नया तमाशा
फूट डालते खिला बताशा
मिटा रहे हर मूल्य तराशा
सद्भावों की थामे थाती
बनो ध्वंस के मत बाराती
नीर-क्षीर सम हो संगाती
५-८-२०२२
●●●
आज विशेष
करवट ले इतिहास
*
वंदे भारत-भारती
करवट ले इतिहास
हमसे कहता: 'शांत रह,
कदम उठाओ ख़ास
*
दुनिया चाहे अलग हों, रहो मिलाये हाथ
मतभेदों को सहनकर, मन रख पल-पल साथ
देश सभी का है, सभी भारत की संतान
चुभती बात न बोलिये, हँस बनिए रस-खान
न मन करें फिर भी नमन,
अटल रहे विश्वास
देश-धर्म सर्वोच्च है
करा सकें अहसास
*
'श्यामा' ने बलिदान दे, किया देश को एक
सीख न दीनदयाल की, तज दो सौख्य-विवेक
हिमगिरि-सागर को न दो, अवसर पनपे भेद
सत्ता पाकर नम्र हो, न हो बाद में खेद
जो है तुमसे असहमत
करो नहीं उपहास
सर्वाधिक अपनत्व का
करवाओ आभास
*
ना ना, हाँ हाँ हो सके, इतना रखो लगाव
नहीं किसी से तनिक भी, हो पाए टकराव
भले-बुरे हर जगह हैं, ऊँच-नीच जग-सत्य
ताकत से कमजोर हो आहात करो न कृत्य
हो नरेंद्र नर, तभी जब
अमित शक्ति हो पास
भक्ति शक्ति के साथ मिल
बनती मुक्ति-हुलास
(दोहा गीत: यति १३-११, पदांत गुरु-लघु )
***
मुक्तिका
*
बिन सपनों के सोना क्या
बिन आँसू के रोना क्या
*
वह मुस्काई, मुझे लगा
करती जादू-टोना क्या
*
नहीं वफा जिसमें उसकी
खातिर नयन भिगोना क्या
*
दाने चार न चाँवल के
मूषक तके भगोना क्या
*
सेठ जमीनें हड़प रहे
जानें फसलें बोना क्या
*
गिरती हो जब सर पर छत
सोच न घर का खोना क्या
*
जीव न यदि 'संजीव' रहे
फिर होना-अनहोना क्या
५-८-२०१९
***
लघुकथा
पहल
*
''आपके देश में हर साल अपनी बहिन की रक्षा करने का संकल्प लेने का त्यौहार मनाया जाता है फिर भी स्त्रियों के अपमान की इतनी ज्यादा घटनाएँ होती हैं। आइये! हम सब अपनी बहिन के समान औरों की बहनों के मान-सम्मान की रक्षा करने का संकल्प इस रक्षाबंधन पर लें।''
विदेशी पर्यटक से यह सुझाव आते ही सांस्कृतिक सम्मिलन के मंच पर छा गया मौन, अपनी-अपनी कलाइयों पर रक्षा सूत्रों का प्रदर्शन करते नेताओं, अफ्सरों और धन्नासेठों में कोई भी नहीं कर सका यह पहल।
***
रक्षा बंधन के दोहे:
*
चित-पट दो पर एक है, दोनों का अस्तित्व.
भाई-बहिन अद्वैत का, लिए द्वैत में तत्व..
.
दो तन पर मन एक हैं, सुख-दुःख भी हैं एक.
यह फिसले तो वह 'सलिल', सार्थक हो बन टेक..
.
यह सलिला है वह सलिल, नेह नर्मदा धार.
इसकी नौका पार हो, पा उसकी पतवार..
.
यह उसकी रक्षा करे, वह इस पर दे जान.
'सलिल' स्नेह' को स्नेह दे, कर निसार निज जान ..
.
बहिना नदिया निर्मला, भाई घट सम साथ .
नेह नर्मदा निनादित, गगन झुकाये माथ.
.
कुण्डलिनी ने बांध दी, राखी दोहा-हाथ.
तिलक लगाकर गीत को, हँसी मुक्तिका साथ..
.
राखी की साखी यही, संबंधों का मूल.
'सलिल' स्नेह-विश्वास है, शंका कर निर्मूल..
.
सावन मन भावन लगे, लाये बरखा मीत.
रक्षा बंधन-कजलियाँ, बाँटें सबको प्रीत..
.
मन से मन का मेल ही, राखी का त्यौहार.
मिले स्नेह को स्नेह का, नित स्नेहिल उपहार..
.
आकांक्षा हर भाई की, मिले बहिन का प्यार.
राखी सजे कलाई पर, खुशियाँ मिलें अपार..
.
राखी देती ज्ञान यह, स्वार्थ साधना भूल.
स्वार्थरहित संबंध ही, है हर सुख का मूल..
.
मेघ भाई धरती बहिन, मना रहे त्यौहार.
वर्षा का इसने दिया, है उसको उपहार..
.
हम शिल्पी साहित्य के, रखें स्नेह-संबंध.
हिंदी-हित का हो नहीं, 'सलिल' भंग अनुबंध..
.
राखी पर मत कीजिये, स्वार्थ-सिद्धि व्यापार.
बाँध- बँधाकर बसायें, 'सलिल' स्नेह संसार..
.
भैया-बहिना सूर्य-शशि, होकर भिन्न अभिन्न.
'सलिल' रहें दोनों सुखी, कभी न हों वे खिन्न..
...
मुक्तक सलिला-
*
कौन पराया?, अपना कौन?
टूट न जाए सपना कौन??
कहें आँख से आँख चुरा
बदल न जाए नपना कौन??
*
राह न कोई चाह बिना है।
चाह अधूरी राह बिना है।।
राह-चाह में रहे समन्वय-
पल न सार्थक थाह बिना है।।
*
हुआ सवेरा जतन नया कर।
हरा-भरा कुछ वतन नया कर।।
साफ़-सफाई रहे चतुर्दिक-
स्नेह-प्रेम, सद्भाव नया कर।।
*
श्वास नदी की कलकल धड़कन।
आस किनारे सुन्दर मधुवन।।
नाव कल्पना बैठ शालिनी-
प्रतिभा-सलिल निहारे उन्मन।।
*
मन सावन, तन फागुन प्यारा।
किसने किसको किसपर वारा?
जीत-हार को भुला प्यार कर
कम से जग-जीवन उजियारा।।
*
मन चंचल में ईश अचंचल।
बैठा लीला करे, नहीं कल।।
कल से कल को जोड़े नटखट-
कर प्रमोद छिप जाए पल-पल।।
*
आपको आपसे सुख नित्य मिले।
आपमें आपके ही स्वप्न पले।।
आपने आपकी ही चाह करी-
आप में व्याप गए आप, पुलक वाह करी।।
*
समय से आगे चलो तो जीत है।
उगकर हँस ढल सको तो जीत है।।
कौन रह पाया यहाँ बोलो सदा?
स्वप्न बनकर पल सको तो जीत है।।
*
शालिनी मन-वृत्ति हो, अनुगामिनी हो दृष्टि।
तभी अपनी सी लगेगी तुझे सारी सृष्टि।।
कल्पना की अल्पना दे, काव्य-देहरी डाल-
भाव-बिम्बों-रसों की प्रतिभा करे तब वृष्टि।।
*
स्वाति में जल-बिंदु जाकर सीप में मोती बने।
स्वप्न मधुरिम सृजन के ज्यों आप मृतिका में सने।।
जो झुके वह ही समय के संग चल पाता 'सलिल'-
वाही मिटता जो अकारण हमेशा रहता तने।।
*
सीने ऊपर कंठ, कंठ पर सिर, ऊपरवाला रखता है।
चले मनचला. मिले सफलता या सफलता नित बढ़ता है।।
ख़ामोशी में शोर सुहाता और शोर में ख़ामोशी ही-
माटी की मूरत है लेकिन माटी से मूरत गढ़ता है।।
*
तक रहा तकनीक को यदि आम जन कुछ सोचिए।
ताज रहा निज लीक को यदि ख़ास जन कुछ सोचिए।।
हो रहे संपन्न कुछ तो यह नहीं उन्नति हुई-
आखिरी जन को मिला क्या?, निकष है यह सोचिए।।
*
चेन ने डोमेन की, अब मैन को बंदी किया।
पीया को ऐसा नशा ज्यों जाम साकी से पीया।।
कल बना, कल गँवा, कलकल में घिरा खुद आदमी-
किया जाए किस तरह?, यह ही न जाने है जिया।।
*
किस तरह स्मार्ट हो सिटी?, आर्ट है विज्ञान भी।
यांत्रिकी तकनीक है यह, गणित है, अनुमान भी।।
कल्पना की अल्पना सज्जित प्रगति का द्वार हो-
वास्तविकता बने ऐपन तभी जन-उद्धार हो।।
५-८-२०१७
***
कृति विवेचन-
संजीव वर्मा ‘सलिल’ की काव्य रचना और सामाजिक विमर्श
- डॉ. सुरेश कुमार वर्मा
*
हिंदी जगत् मे साहित्यकार के रूप में संजीव 'सलिल' की पहचान बन चुकी है। यह उनके बहुआयामी स्तरीय लेखन के कारण संभव हो सका है। उन्होंने न केवल कविता, अपितु गद्य लेखन की राह में भी लम्बा रास्ता पार किया है। इधर साहित्यशास्त्र की पेचीदी गलियों में भी वे प्रवेश कर चुके हैं, जिनमें क़दम डालना जोखिम का काम है। यह कार्य आचार्यत्व की श्रेणी का है और 'सलिल' उससे विभूषित हो चुके हैं।
‘काल है संक्रान्ति का’ शीर्षक संकलन में उनकी जिन कविताओं का समावेश है, विषय की दृष्टि से उनका रेंज बहुत व्यापक है। उन्हें पढ़ने से ऐसा लगता है, जैसे एक जागरूक पहरुए के रूप में 'सलिल' ने समाज के पूरे ओर-छोर का मूल्यांकन कर डाला है। उन्होंने जो कुछ लिखा है, वह सब व्यक्ति की मनोवृत्तियों एवं प्रवृत्तियों के साक्ष्य पर लिखा है और जो कुछ कहा है, वह समाज के विघटनकारी घटकों का साक्षात अवलोकन कर कहा है। वे सब आँखिन देखी बातें हैं। इसीलिए उनकी अभिव्यंजाओं में विश्वास की गमक है। और जब कोई रचनाकार विश्वास के साथ कहता है, तो लोगों को सुनना पड़ता है। यही कारण है कि 'सलिल' की रचनाएँ पाठकों की समझ की गहराई तक पहुँचती है और पाठक उन्हें यों ही नहीं ख़ारिज कर सकता।
'सलिल' संवेदनशील रचनाकार हैं। वे जिस समाज में उठते-बैठते हैं, उसकी समस्त वस्तुस्थितियों से वाक़िफ़ हैं। वहीं से अपनी रचनाओं के लिए सामग्री का संचयन करते हैं। उन्हें शिद्दत से एहसास है कि यहाँ सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। पूरे कुँए ही में भाँग पड़ी है। जिससे जो अपेक्षा है, वह उससे ठीक विपरीत चल रहा है। आम आदमी बुनियादी जरूरतों से महरूम हो गया है -
‘रोजी रोटी रहे खोजते / बीत गया
जीवन का घट भरते-भरते/रीत गया।’
-कविता ‘कब आया, कब गया’
‘मत हिचक’ कविता में देश की सियासती हालात की ख़बर लेते हुये नक्लसवादी हिंसक आंदोलन की विकरालता को दर्शाया गया है -
‘काशी, मथुरा, अवध / विवाद मिटेंगे क्या?
नक्सलवादी / तज विद्रोह / हटेंगे क्या?’
‘सच की अरथी’ एवं ‘वेश संत का’ रचनाओं में तथाकथित साधुओं एवं महन्तों की दिखावटी धर्मिकता पर तंज कसा गया है।
'सलिल' की रचनाओं के व्यापक आकलन से यह बात सामने आयी है कि उनकी खोजी और संवेदनशाील दृष्टि की पहुँच से भारतीय समाज और देश का कोई तबका नहीं बचा है और अफसोस कि दुष्यन्त कुमार के ‘इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके जुर्म हैं ’ की तर्ज पर उन्हें भी कमोबेश इसी भयावह परिदृश्य का सामना करना पड़ा। इस विभाषिका को ही 'सलिल' ने कभी सरल और सलीस ढंग से, कभी बिम्ब-प्रतिबिम्ब शैली में और कभी व्यंजना की आड़ी-टेढ़ी प्रणालियों से पाठकों के सामने रखा, किन्तु चाहे जिस रूप में रखा, वह पाठकों तक यथातथ्य सम्प्रेषित हुआ। यह 'सलिल' की कविता की वैशिष्ट्य है, कि जो वे सोचते हैं, वैसा पाठकों को भी सोचने को विवश कर देते हैं।
अँधेरों से दोस्ती नहीं की जाती, किन्तु आज का आदमी उसी से बावस्ता है। उजालों की राह उसे रास नहीं आती। तब 'सलिल' की कठिनाई और बढ़ जाती है। वे हज़रत ख़िज्र की भाँति रास्ता दिखाने का यत्न करते तो हैं, किन्तु कोई उधर देखना नहीं चाहता-
‘मनुज न किंचित् चेतते / श्वान थके हैं भौंक’।
इतना ही नहीं, आदमी अपने हिसाब से सच-झूठ की व्याख्या करता है और अपनी रची दुनिया में जीना चाहता है - ‘मन ही मन मनमाफ़िक / गढ़ लेते हैं सच की मूरत’। ऐसे आत्मभ्रमित लोगों की जमात है सब तरफ।
'सलिल' की सूक्ष्मग्राहिका दृष्टि ने ३६० डिग्री की परिधि से भारतीय समाज के स्याह फलक को परखा है, जहाँ नेता हों या अभिनेता, जहाँ अफसर हो या बाबू, पूंजीपति हों या चिकित्सक, व्यापारी हों या दिहाड़ी -- सबके सब असत्य, बेईमानी, प्रमाद और आडंबर की पाठशाला से निकले विद्यार्थी हैं, जिन्हें सिर्फ अपने स्वार्थ को सहलाने की विद्या आती है। इन्हें न मानव-मूल्यों की परवाह है और न अभिजात जीवन की चाह। ‘दरक न पाएँ दीवारें’, ‘जिम्मेदार नहीं है नेता’, ‘ग्रंथि श्रेष्ठता की’, ‘दिशा न दर्शन’ आदि रचनाएँ इस बात की प्रमाण हैं।
यह ज़रूर है कि सभ्यता और संस्कृति के प्रतिमानों पर आज के व्यक्ति और समाज की दशा भारी अवमूल्यन का बोध कराती है, किन्तु 'सलिल' पूरी तरह निराश नहीं हैं। वे आस्था और सम्भावना के कवि हैं। वे लम्बी, अँधेरी सुरंग के दूसरे छोर पर रोशनी देखने के अभ्यासी हैं। वे जानते हैं कि मुचकुन्द की तरफ शताब्दियों से सोये हुये लोगों को जगाने के लिए शंखनाद की आवश्यकता होती है। 'सलिल' की कविता इसी शंखनाद की प्रतिध्वनि है।
‘काल है संक्रान्ति का’ कविता संग्रह ‘जाग उठो, जाग उठो’ के निनाद से प्रमाद में सुप्त लोगों के कर्णकुहरों को मथ देने का सामर्थ्य रखती है। अँधेरा इतना है कि उसे मिटाने के लिए एक सूर्य काफी नहीं है और न सूर्य पर लिखी एक कविता। इसीलिए संजीव 'सलिल' ने अनेक कविताएँ लिखकर बार-बार सूर्य का आह्नान किया है। ‘उठो सूरज’, ‘जगो! सूर्य आता है’, ‘आओ भी सूरज’, ‘उग रहे या ढल रहे’, ‘छुएँ सूरज’ जैसी कविताओं के द्वारा जागरण के मंत्रों से उन्होंने सामाजिक जीवन को निनादित कर दिया है।
सामाजिक सरोकारों को लेकर 'सलिल' सदैव सतर्क रहते हैं। वे व्यवस्था की त्रुटियों, कमियों और कमज़ोरियों को दिखाने में क़तई गुरेज नहीं करतेे। उनकी भूमिका विपक्ष की भूमिका हुआ करती है। अपनी कविता के दायरे में वे ऐसे तिलिस्म की रचना करते हैं, जिससे व्यवस्था के आर-पार जो कुछ हो रहा है, साफ-साफ दिखाई दे। वे कहीं रंग-बदलती राजनीति का तज़किरा उठाते हैं -
‘सत्ता पाते / ही रंग बदले / यकीं न करना किंचित् पगले / काम पड़े पीठ कर देता / रंग बदलता है पल-पल में ’।
राजनीति का रंग बदलना कोई नयी बात नहीं, किंतु कुछ ज़्यादा ही बदलना 'सलिल' को नागवार गुजरता है। यदि साधुओं में कोई असाधु कृत्य करता दिखाई देगा, तो 'सलिल' की कविता उसका पीछा करते दिखाई देगी ‘वेश संत का / मन शैतान’।
‘राम बचाये’ कविता व्यापक संदर्भों में अनेक परिदृश्यों को सामने रखती है। नगर से गाँव तक, सड़क से कूचे तक, समाज के विविध वर्णों, वर्गों और जातियों और जमातों की विसंगतियों को उजागर करती करती उनकी कविता ‘राम बचाये’ पाठकों के हृदय को पूरी तरह मथने में समर्थ है। यह उनके सामर्थ्य की पहचान कराती कविता ही है, जो बहुत बेलाग तरीक़े से, क्या कहना चाहिये और क्या नहीं कहना चाहिये, इसका भेद मिटाकर अपनी अभिव्यक्ति और अभिव्यंजना की बाढ़ में सबको बहाकर ले जाती है।
................................
समीक्षक संपर्क- डॉ. सुरेश कुमार वर्मा, ८१० विजय नगर, जबलपुर, चलभाष ९४२५३२५०७२।
***
नवगीत:
.
हमने
बोये थे गुलाब
क्यों
नागफनी उग आयी?
.
दूध पिलाकर
जिनको पाला
बन विषधर
डँसते हैं,
जिन पर
पैर जमा
बढ़ना था
वे पत्त्थर
धँसते हैं.
माँगी रोटी,
छीन लँगोटी
जनप्रतिनिधि
हँसते हैं.
जिनको
जनसेवा
करना था,
वे मेवा
फँकते हैं.
सपने
बोने थे जनाब
पर
नींद कहो कब आयी?
.
सूत कातकर
हमने पायी
आज़ादी
दावा है.
जनगण
का हित मिल
साधेंगे
झूठा हर
वादा है.
वीर शहीदों
को भूले
धन-सत्ता नित
भजते हैं.
जिनको
देश नया
गढ़ना था,
वे निज घर
भरते हैं.
जनता
ने पूछा हिसाब
क्यों
तुमने आँख चुरायी?
.
हैं बलिदानों
के वारिस ये
जमी जमीं
पर नजरें.
गिरवी
रखें छीन
कर धरती
सेठों-सँग
हँस पसरें.
कमल कर रहा
चीर हरण
खेती कुररी
सी बिलखे.
श्रम को
श्रेय जहाँ
मिलना था
कृषक क्षुब्ध
मरते हैं.
गढ़ ही
दे इतिहास नया
अब
‘आप’ न हो रुसवाई.
२६-२-२०१५
***
एक गीति रचना:
*
द्रोण में
पायस लिये
पूनम बनी,
ममता सनी
आयी सुजाता,
बुद्ध बन जाओ.
.
सिसकियाँ
कब मौन होतीं?
अश्रु
कब रुकते?
पर्वतों सी पीर
पीने
मेघ रुक झुकते.
धैर्य का सागर
पियें कुम्भज
नहीं थकते.
प्यास में,
संत्रास में
नवगीत का
अनुप्रास भी
मन को न भाता.
युद्ध बन जाओ.
.
लहरियां
कब रुकीं-हारीं.
भँवर
कब थकते?
सागरों सा धीर
धरकर
मलिनता तजते.
स्वच्छ सागर सम
करो मंथन
नहीं चुकना.
रास में
खग्रास में
परिहास सा
आनंद पाओ
शुद्ध बन जाओ.
२१-२-२०१५
***
नवगीत:
.
जन चाहता
बदले मिज़ाज
राजनीति का
.
भागे न
शावकों सा
लड़े आम आदमी
इन्साफ मिले
हो ना अब
गुलाम आदमी
तन माँगता
शुभ रहे काज
न्याय नीति का
.
नेता न
नायकों सा
रहे आम आदमी
तकलीफ
अपनी कह सके
तमाम आदमी
मन चाहता
फिसले न ताज
लोकनीति का
(रौद्राक छंद)
१४-२-२०१५
***
हाइकु नवगीत :
.
टूटा विश्वास
शेष रह गया है
विष का वास
.
कलरव है
कलकल से दूर
टूटा सन्तूर
जीवन हुआ
किलकिल-पर्याय
मात्र संत्रास
.
जनता मौन
संसद दिशाहीन
नियंता कौन?
प्रशासन ने
कस लिया शिकंजा
थाम ली रास
.
अनुशासन
एकमात्र है राह
लोक सत्ता की.
जनांदोलन
शांत रह कीजिए
बढ़े उजास
१३-२-२०१५
***
दिल्ली दंगल एक विश्लेषण:
.
- सत्य: आप व्यस्त, बीजेपी त्रस्त, कोंग्रेस अस्त.
= सबक: सब दिन जात न एक समान, जमीनी काम करो मत हो संत्रस्त.
- सत्य: आम चुनाव के समय किये वायदों को राजनैतिक जुमला कहना.
= सबक: ये पब्लिक है, ये सब जानती है. इसे नासमझ समझने के मुगालते में मत रहना.
- सत्य: गाँधी की दुहाई, दस लखटकिया विदेशी सूट पहनकर सादगी का मजाक.
= सबक: जनप्रतिनिधि की पहचान जन मत का मान, न शान न धाक.
- सत्य: प्रवक्ताओं का दंभपूर्ण आचरण और दबंगपन.
= सबक: दूरदर्शनी बहस नहीं जमीनी संपर्क से जीता जाता है अपनापन.
- सत्य: कार्यकर्ताओं द्वारा अधिकारियों पर दवाब और वसूली.
= सबक: जनता रोज नहीं टकराती, समय पर दे ही देती है सूली.
- सत्य: संसदीय बहसों के स्थान पर अध्यादेशी शासन.
= सबक: बंद न किया तो जनमत कर देगा निष्कासन.
- सत्य: विपक्षियों पर लगातार आघात.
= सबक: विपक्षी शत्रु नहीं होता, सौजन्यता न निबाहें तो जनता देगी मात.
- सत्य: आधाररहित व्यक्तित्व को थोपना, जमीनी कार्यकर्ता की पीठ में छुरा घोंपना.
= सबक: नेता उसे घोषित करें जिसका काम जनता के सामने हो, केवल नाम नहीं. जो अपने साथियों के साथ न रहे उसपर मतदाता क्यों भरोसा करे?
- सत्य: संसद ही नहीं टी.व्ही. पर भी बहस से भागना.
= सबक: अध्यादेशों में तानाशाही की आहात होती है. संसद में बहस न करना और दूरदर्शन पर उमीदवार का बहस से बचना, प्रवक्ताओं की अहंकारी और खुद को अंतिम मानने की प्रवृत्ति होती है बचकाना.
- सत्य: प्रवक्ताओं का दंभपूर्ण आचरण और दबंगपन.
= सबक: दूरदर्शनी बहस नहीं जमीनी संपर्क से जीता जाता है अपनापन.
- सत्य: आर एस एस की बैसाखी नहीं आई काम.
= सबक: जनसेवा का न मोल न दाम, करें निष्काम.
- सत्य: पूरा मंत्रीमंडल, संसद, मुख्यमंत्री तथा प्रधान मंत्री को उताराकर अत्यधिक ताकत झोंकना.
= सबक: नासमझी है बटन टाँकने के लिये वस्त्र में सुई के स्थान पर तलवार भोंकना.
- सत्य: प्रधानमंत्री द्वारा दलीय हितों को वरीयता देना, विकास के लिए अपने दल की सरकार जरूरी बताना.
= सबक: राज्य में सरकार किसी भी दल की हो, जरूरी है केंद्र का सबसे समानता जताना. अपना खून औरों का खून पानी मानना सही नहीं.
- सत्य: पूरा मंत्रीमंडल, संसद, मुख्यमंत्री तथा प्रधान मंत्री को उताराकर अत्यधिक ताकत झोंकना.
= सबक: नासमझी है बटन टाँकने के लिये वस्त्र में सुई के स्थान पर तलवार भोंकना.
- सत्य: हर प्रवक्ता, नेता तथा प्रधान मंत्री का केजरीवाल पर लगातार आरोप लगाना.
= सबक: खुद को खलनायक, विपक्षी को नायक बनाना या कंकर को शंकर बनाकर खुद बौना हो जाना.
- सत्य: चुनावी नतीजों का आकलन-अनुमान सत्य न होना.
= सबक: प्रत्यक्ष की जमीन पर अतीत के बीज बोना अर्थात आँख देमने के स्थान पर पूर्व में घटे को अधर बनाकर सोचना सही नहीं, जो देखिये कहिए वही.
- सत्य: आप का एकाधिकार-विपक्ष बंटाढार.
= सबक: अब नहीं कोई बहाना, जैसे भी हो परिणाम है दिखाना. केजरीवाल ने ठीक कहा इतने अधिक बहुमत से डरना चाहिए, अपेक्षा पर खरे न उतरे तो इतना ही विरोध झेलना होगा.
१०-२-२०१५
***
हास्य सलिला:
लाल गुलाब
*
लालू जब घर में घुसे, लेकर लाल गुलाब
लाली जी का हो गया, पल में मूड ख़राब
'झाड़ू बर्तन किये बिन, नाहक लाये फूल
सोचा, पाकर फूल मैं जाऊंगी सच भूल
लेकिन मुझको याद है ए लाली के बाप!
फूल शूल के हाथ में देख हुआ संताप
फूल न चौका सम्हालो, मैं जाऊं बाज़ार
सैंडल लाकर पोंछ दो जल्दी मैली कार.'
९-२-२०१५
***
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
सोमवार, 5 अगस्त 2024
अगस्त ५, सॉनेट, दोहा गीत, मुक्तिका, लघुकथा, राखी, सुरेश कुमार वर्मा, हास्य, लालू,
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