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गत-आगत में भक्ति ने, बाँधा शाश्वत सेतु।
जन मन हरि उन्मुख हुआ, भाव तारण के हेतु।।
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चौरासी बैठक करीं, कृष्ण भक्ति थी इष्ट।
साध्य साधने साधना, मेटे सकल अनिष्ट।।
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शुद्धाद्वैती पंथ का, रखा अटल आधार।
मायातीती ब्रह्म हो, लेता है अवतार।।
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ईश मनुज अवतार ले, फैलाता भ्रम-जाल।
भक्त सत्य क्या जानते, शेष बजाते गाल।।
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ब्रह्म एक मानें नहीं, उसको कभी अनेक।
रूप भिन्न पर चेतना, सबमें केवल एक।।
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ईश-कृपा कर दिखाते, छवि ज्यों सूर्य अनंत।
जो देखे वह लीन हो, आभा व्याप्त दिगंत।।
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वल्लभ ने टीका लिखीं, समझ-बूझ सदग्रन्थ।
श्री जी की श्री अलौकिक, पुष्टि दिव्य है पंथ।।
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जो असीम उस तक नहीं, पहुँचे कभी ससीम।
वाक् ईश गुण गा तरे, छोड़े कहकहे न नीम।।
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वल्लभ ने माधुर्य को, माना अपना पंथ।
गोपी-राधा कृष्ण मिल, पढ़ें प्रेम का ग्रंथ।।
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गुरु-शिष्यों की प्रथा ने, किया लोक कल्याण।
कृष्ण भक्ति अमृत चखा, किया जगत संप्राण।।
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वैश्वानर अवतार थे वल्लभ, हर तम घोर।
श्री जी भक्ति उजास से, जग को सके विभोर।।
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ज्ञान मार्ग अति कठिन है, सभी न सकते साध।
भक्तिमार्ग है सहज पथ, काट सके हर व्याध।।
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भक्तों तक भगवान खुद, आते उसको खोज।
भक्ति भाव सच्चा अगर, प्रभु दें दर्शन रोज।।
सख्य-भाव अति मधुर है, दास्य भाव है दीन।
दोनों श्रेष्ठ समान हैं, कोई उच्च न हीन।।
मूर्ति श्रेष्ठता मूर्त कर, लेती मन को मोह।
सीमित होकर यहीं तक, करें न प्रभु से द्रोह।।
मंदिर हो मोहक सदा, यही नहीं पर्याप्त।
मन मंदिर भी स्वच्छ हो, हो प्रसन्न प्रभु आप्त।।
भक्ति तीव्र जितनी अधिक, उतना हो वैराग्य।
बिसर मोह-माया सकल, तभी मिलर सौभाग्य।।
दास्य भाव कातर करे, बिसरे निज सामर्थ्य।
सख्य भाव उत्साह दे, प्रभु अर्पित कर अर्ध्य।।
पुष्टि मार्ग चल पुष्ट हो, प्रभु प्रति आस्था भाव।
मत अपुष्ट पथ पर चलें, हो दृढ़ प्रभु प्रति चाव।।
शुद्ध द्वैत पथ पर चलें, हो अद्वैत न साध्य।
विधि-हरि-हर त्रय रूप है, तीनों मिल आराध्य।।
ब्रह्म न क्षर, अक्षर अजर, अमर न होता नष्ट।
ब्रह्म सखा हम भी अमर, कभी न पाते कष्ट।।
सख्य भाव पुरुषार्थ का, होता है आधार।
दास्य भाव भर दीनता, कहे जगत निस्सार।।
पर-अक्षर अरु जगत हैं, तीन ब्रह्म जग मूल।
त्याज्य न जग को मानिए, मोह न मानें शूल।।
प्रभु सुंदर-श्री युक्त हैं, हो सम सखा हमेश।
प्रभु-प्रिय तब ही हो सके, भ्रमित न हों हम लेश।।
श्रीबल्लभ जी
छप्पय
व्रजबल्लभ ''बल्लभ'', परम दुर्लभ सुख नैननि दिए।
नृत्य गान गुन निपुन रास में रस बरसावत।।
अब लीला ललितादि बलित दंपतहिं रिझावत।
अति उदार निस्तार, सुजस बृजमण्डल राजत।।
महामहोत्सव करत, बहुत सबही सुख साजत।
श्रीनारायण भट्ट प्रभु, परम प्रीत रस बस किए।
ब्रजबल्लभ ''बल्लभ'', परम दुर्लभ सुख नैननि दिए।।८८।। (१२६)
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वार्तिक तिलक
श्री वल्लभ जी ब्रजभूमि से बड़ी ही प्रीति रखते और व्रजमण्डल के लोग भी आपसे बड़ी प्रीति करते थे क्योंकि आपने सबके नेत्रों को श्री रहस्य लीला का दुर्लभ सुख दिया था, नृत्य, संगीत और और गुणों में आप प्रवीण थे और रहस्यलीला में आप आनंद रस की वर्ष किया करते थे। श्री ललितादि सखियों समेत श्रीराधाकृष्णजी को रिझाया करते थे। आप कलिजीवों के निस्तारक हुए। श्रीव्रजमण्डल में आज भी आप का सुयश छा रहा है। बड़े सुख साज के साथ, महा-महोत्सव किया करते थे। श्री वल्लभाचार्यजी ने श्रीनारायण भट्ट को, परम प्रीति से रस वश किया था।
(गोस्वामि श्रीनाभाजी कृत श्री भक्तमाल श्रीप्रियादासजी प्रणीत टीका-कवित्त, सन २०११ ईस्वी, प्रकाशक टेजकुमार बुक डिपो (प्रा। ) लिमिटेड)
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