कृति चर्चा :
दोहे पानीदार
चर्चाकार - आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
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भारत में किसी कार्य का श्री गणेश ईश वंदना से करने की परंपरा है। वरिष्ठ दोहाकार डॉ. ब्रह्मजीत गौतम ने एक नयी रीति का आरंभ ‘ध्यातव्य बातें’ शीर्षक के अंतर्गत दोहा-लेखन के दोषों की चर्चा से किया है। कबीर काव्य में प्रतीक विधान पर शोध और कबीर प्रतीक कोष की रचना करनेवाला दोषों को चुन-चुन कर चोट करने की कबीरी राह पर चले यह स्वाभाविक है। गौतम जी बहुआयामी रचनाकार हैं। शोधपरक कृति जनक छंद - एक विवेचन, काव्य संग्रह अंजुरी, ग़ज़ल संग्रह वक़्त के मंजर व एक बह्र पर एक ग़ज़ल, जनक छंद संग्रह जनक छंद की साधना, मुक्तक संग्रह दोहा मुक्तक माल तथा समीक्षा संग्रह दृष्टिकोण के रचनाकार सेवानिवृत्त हिंदी प्राध्यापक डॉ. गौतम ने दोहराव, अस्पष्टता तथा पूर्वापर संबंध को दोहा लेखन का कथ्यदोष तथा अनूठापन, धार और संदेशपरकता को दोहा लेखन का गुण ठीक ही बताया है। ‘शिल्प’ उपशीर्षक के अंतर्गत मात्रा गणना, अधिक मात्रा दोष, न्यून मात्रा दोष, ग्यारहवीं मात्रा लघु न होना, वाक्य भंजक दोष, लय दोष, मात्रा विभाजन दोष, तुक विधान दोष, अनुस्वार दोष, अवांछित व्यंजनागम की चर्चा है। भाषा रूप उपशीर्षक के अंतर्गत पुनरक्ति दोष, एक शब्द दो उच्चारण, शब्दों के मध्य अनावश्यक दूरी, पर का प्रयोग, अवैध संधि, लिंग, वचन, पुरुष, काल, अमानक शब्द-प्रयोग आदि पर विमर्श है तथा अंत में दोहा के २३ प्रकारों की निरर्थकता का संकेत है। डॉ. गौतम ने छंदप्रभाकरकार जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु’ द्वारा उल्लिखित नियमों का संदर्भ दिया है किन्तु पदारंभ में दग्धाक्षर व् जगण निषेध की चर्चा नहीं है। भाषा और नदी सतत परिवर्तित होकर निर्मल बनी रहती हैं। भानु जी ने ग्यारहवीं मात्रा को लघु रखे जाने का संकेत किया है किन्तु उनके पूर्व और पश्चात् के अनेक दोहाकारों (जिनमें कबीर, खुसरो, जायसी, तुलसी, बिहारी जैसे अमर दोहाकार भी हैं) ने इस नियम को अनुल्लंघनीय न मानकर दोहे रचे हैं।
अब वंदना के प्रथम दोहे से गौतम जी ने परंपरा-पालन किया है। दोहा मुक्तक छंद है। वह पूर्व या पश्चात् के दोहों से पूरी तरह मुक्त, अपने आप में पूर्ण होता है। आजकल एक विषय पर दोहों को एकत्र कर अध्यायों में विभक्त करने का चलन होने पर भी गौतम जी ने ५२० दोहे क्रमानुसार प्रकाशित कर लीक को ठीक ही तोडा है। सामान्य रचनाकार ‘स्वांत: सुखाय’ लिखता है जबकि गौतम जी जैसा रचनाकार इसके समानांतर श्रोता और पाठक में सत्साहित्य की समझ भी विकसित करते हैं। गौतम जी कबीर की तरह भाषा को शाब्दिक संस्कृतनिष्ठता का कुआँ न बनाकर कथ्यानुकूल विविध भाषाओँ से शब्द चयन कर ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के वैदिक आदर्श को मूर्त करते हैं। यह आदर्श धार्मिक समानता और समरसता की जननी है -
अल्ला या ईसा कहो, या फिर कह लो राम।
करता ‘वही’ सहायता, जब पड़ता है काम।।
आत्मिक-भौतिक उन्नयन, दोनों हैं अनिवार्य।
यदि इनमें हो संतुलन, जीवन हो कृतकार्य।।
दोहों में लोकोक्तियों का प्रयोग करने की परंपरा गौतम जी को भाती है। लोकोक्ति दोहे को मुहावरेदार और लोक ग्राह्य बनाती है। ‘आप भले तो जग भला’ लोकोक्ति का सार्थक प्रयोग देखिए -
आप भले तो जग भला, कहें पुराने लोग।
जिसने समझा सूत्र यह, खुद पर करे प्रयोग।।
हिंदी व्याकरण के अनुसार ‘एक’ के स्थान पर ‘इक’ का प्रयोग गलत है किंतु गौतम जी ने ‘इक’ का प्रयोग किया है। भाषिक शुद्धता के पक्षधर विद्वान दोहाकार के लिए इससे बचना कठिन नहीं है पर संभवत: उर्दू ग़ज़ल से जुड़ाव के कारण उन्हें इसमें आपत्ति नहीं हुई।
इक तो आलस दूसरे, बात-बात में क्रोध।
कैसे ठहरे अनुज में, फिर विवेक या बोध।।
इक विरहानल दूसरे, सूरज का आतंक।
दो-दो ज्वालाएँ सहे, कैसे मुखी मयंक।।
महानगरीय स्वार्थपरक जीवन दृष्टि प्रकृति को भोग्य मानकर उसका शोषण कर विनाश को आमंत्रित कर रही है। दोहाकार उस जीवन पद्धति को अपनाने का गृह करता है जो प्रकृति के अनुकूल हो-
इस सीमा तक हो सहज, अपने जीवन-ढंग।
हो जाए जो प्रकृति से, एक रूप-रस-रंग।।
‘कर्म’ को महत्त्व देना भारतीय जन-जीवन का वैशिष्ट्य है. गीता ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते” कहती है तो तुलसी ‘कर्म प्रधान बिस्व करि राखा’ कहकर कर्म की महत्ता प्रतिपादित करते हैं। गौतम जी कर्मव्रती खद्योत को प्रणाम कर कर्म-पथ का महत्ता प्रतिपादित करते हैं-
उस नन्हें खद्योत को, बारंबार प्रणाम।
जो करता है रात में, तम का काम तमाम।।
कबीर ‘गुरु’ और ‘गोबिंद’ में से गुरु को पहले प्रणाम करते हैं चूँकि ‘गुरु’ ही ‘गोबिंद’ से मिलवाता है। कबीर के अनुयायी गौतम जी गुरु को कृपानिधान कहकर प्रणाम करते हैं-
उस सद्गुरु को है नमन, जो है कृपा-निधान।
ज्ञान-ज्योति से शिष्य का, जो हरता अज्ञान।।
शिक्षा जगत से जुड़े गौतम जी को भाषा की उपेक्षा और गलत प्रयोग व्यथित करे, यह स्वाभाविक है. वे स्वतंत्र देश में विदेशी सम्प्रभुओं की भाषा के बढ़ते वर्चस्व को देखकर हिंदी के प्रति चिंतित हैं-
ए बी सी आये नहीं, पर अंग्रेजी बोल।
हिंदी की है देश में, नैया डाँवाडोल।।
अमिधा के साथ-साथ लक्षणा और व्यंजना का प्रयोग जगह-जगह बखूबी किया गया है है इस दोहा संग्रह में।
ओ पानी के बुलबुले!, करता क्यों अभिमान?
हवा चली हो जाएगा, पल में अंतर्ध्यान।।
नश्वर ज़िंदगी को ओस बूँद बताते इस दोहे में पापजनित ताप को नाशक ठीक ही बताया गया है-
ओस-बूँद सी ज़िंदगी, इसे सहेजें आप।
ताप लगा यदि पाप का, बन जाएगी भाप।।
‘बनने’ के लिए प्रयत्न करना होता है। नष्ट होने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करता। दोहाकार आप ही प्रथम पंक्ति में ज़िंदगी को सहेजने का संदेश देता है। ‘होना’ बिना प्रयास के होता है। ‘बन’ के स्थान पर ‘हो’ का प्रयोग अधिक स्वाभाविक होगा।
कब से यह मन रट रहा, सतत एक ही नाम।
कब यह मंज़िल पायगा, तू जाने या राम।।
यहाँ प्रयोग किया गया ‘पायगा’ शब्दकोशीय ‘पायेगा’ का अपभृंश है। इससे बच जाना उचित होता।
इस संग्रह का स्मरणीय दोहा शिव-निवासस्थली काशी और कबीर की इहलीला संवरणस्थली मगहर के मध्य सेतु स्थापित करने के साथ-साथ गौतम जी के दोहाकार की सामर्थ्य का भी परिचायक है -
कर दे मुझ पर भी कृपा, कुछ तो कृपा-निकेत।
तू काशी का देवता, मैं मगहर का प्रेत।।
‘आस्तीन में साँप’ मुहावरे का उपयोग कर गौतम जी ने एक और जानदार दोहा रचा है -
करते हैं अब साँप सब, आस्तीन में वास।
बांबी से बढ़कर उन्हें, यहाँ सुरक्षा ख़ास।।
काव्य रचना केवल मनोविलास या वाग्विलास नहीं है। यह सामान्यत: प्रसांगिक रहकर शांति और विशेष परिस्थितियों में क्रांति की वाहक होकर परिवर्तन लाती है -
कविता का उद्देश्य है, स्वांत: सुख औ’ शांति।
लेकिन वही समाज में, ला देती है क्रांति।।
कविता में यदि है नहीं, जन जीवन की पीर।
समझो सागर में भरा, केवल खारा नीर।।
सामाजिक विसंगतियों पर गौतम जी के दोहा-प्रहार सटीक हैं-
काम करना हो अगर, रखिये पेपरवेट।
जितना भारी काम हो, उतना भारी रेट।।
कुर्सी जिसको मिल गयी, हो जाता सर्वज्ञ।
कक्षा में जी उम्र भर, रहा भले हो अज्ञ।।
कोई चारा खा रहा, कोई खाता खाद।
नेताओं के स्वाद की, देनी होगी दाद।।
चाहे दिल्ली में रहो, या कि देहरादून।
पाओगे सर्वत्र ही, अंध-बधिर कानून।।
चिड़ियाँ चहकें किस तरह, किसे दिखाएँ नाज़।
मँडराते हैं जब निडर, नीड़-नीड़ पर बाज।।
जंगल काटे स्वार्थवश, बनकर वीर प्रचंड
पर्यावरण विनाश का, धरा भोगती दंड।।
जो भू पर न बना सके, एक प्रेम का सेतु।
जा पहुँचे वे चाँद पर, शहर बसाने हेतु।।
इन दोहों में अलंकारों (अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश, यमक, श्लेष, उपमा, रूपक, वक्रोक्ति, विरोधाभास, असंगति, अतिशयोक्ति आदि) के प्रचुर प्रयोग हैं-
पति पंचानन पुत्र हैं, गजमुख षड्मुख नाम।
देवि अन्नपूर्णा करें, उदर-पूर्ति अविराम।। -वक्रोक्ति
पत्ता हिले न ग्रीष्म में, हवा जेल में बंद।
कर्फ्यू में ज्यों गूँजते, सन्नाटों के छंद।। - अतिशयोक्ति
पीते हैं घी-दूध नित, पत्थर के भगवान्।
शिल्पकार उसके मगर, तजें भूख से प्राण।।
सारत: दोहे पानीदार के दोहे नवोदितों के लिए पाठ्य पुस्तक, स्थापितों के लिए प्रेरणा तथा सिद्धहस्तों के लिए संतोषकारक हैं। गौतम जी जैसे वरिष्ठ दोहाकार अपने मानक आप ही निर्धारित करते हैं -
भाषा-भाव समृद्ध हों, हो सुंदर अभिव्यक्ति।
कविता रस निष्पत्ति की, तब पाती है शक्ति।।
पाठक बेकली से गौतम जी के इस दोहा संग्रह कर काव्यानंद की जयकार करते हुए अगले दोहा संग्रह की प्रतीक्षा करेंगे।
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संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष - ९४२५१८३२४४, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com
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