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मंगलवार, 10 अक्तूबर 2017

devata

एक चर्चा 
तैंतीस कोटि देवता : मत मतान्तर 
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सनातन धर्म के अनुसार ३३ कोटि देव हैं। यहाँ 'कोटि' का अर्थ 'करोड़' है या 'प्रकार' इस पर मतभेद है। कोटि का अर्थ 'प्रकार' होता है और 'करोड़' भी होता है। ३३ प्रकार के देवी-देवताओं निम्न हैं-
 
देव- १. आदित्य- १२(१. अंशुमान, २. आर्यमा, ३. इन्द्र, ४. त्वष्टा, ५. धाता, ६. पर्जन्य, ७. पूषा, ८. भग, ९. मित्र, १०. वरुण, ११. विवस्वान और १२. विष्णु।), २. वसु ८ (१. अप, २. ध्रुव, ३. सोम, ४. धर, ५. अनिल, ६. अनल, ७. प्रत्यूष और ८. प्रभाष।),  ३. रुद्र ११ (१. शम्भू, २. पिनाकी, ३. गिरीश, ४. स्थाणु,५. भर्ग, ६. भव, ७. सदाशिव, ८. शिव, ९. हर, १०. शर्व और ११. कपाली।) और ४. इन्द्र १, ४. प्रजापति १ या अश्विनी कुमार : १. नासत्य और २. दस्त्र। कुल ३३ देवता। ३३ देवी-देवताओं के अलावा अन्य कई देवी-देवता हैं किन्तु सब मिलकर कुल संख्या ३३ करोड़ नहीं होती।
 
उपरोक्त तर्क का खंडन :
यहाँ कोटि का अर्थ करोड़ न होकर प्रकार है। कोटि का अर्थ प्रकार लें तो आदित्य एक प्रकार (श्रेणी, संवर्ग) है, आदित्य की कोटि में १२ देवता हैं। इन १२ को मिलकर एक कोटि है। ८ वसु, ११ रूद्र, तथा इंद्र व् प्रजापति को मिलकर ५ कोटि हुईं। अंतिम दो के स्थान पर अश्विनी कुमार लें तो देवों की ४ ही कोटि हुईं। 
 
देव योनि में मात्र यही ३३ देव नहीं, इनके अलावा मणिभद्र आदि अनेक यक्ष, चित्ररथ, तुम्बुरु, आदि गंधर्व, उर्वशी, रम्भा आदि अप्सराएँ, अर्यमा आदि पितृगण, वशिष्ठ आदि सप्तर्षि, दक्ष, कश्यप आदि प्रजापति, वासुकि आदि नाग, इस प्रकार और भी कई जातियाँ देवों में  हैं जिनमें से २-३ हजार के नाम सरलता से मिल सकते हैं।
 
शुक्ल यजुर्वेद के अनुसार: 'अग्निर्देवता, वातो देवता, सूर्यो देवता, चन्द्रमा देवता, वसवो देवता, रुद्रा देवता, आदित्या देवता, मरुतो देवता, विश्वेदेवा देवता, बृहस्पतिर्देवतेन्द्रो देवता, वरुणो देवता' अर्थात १२ कोटि के देवता हैं।
 
अथर्ववेद में आया है : अहमादित्यरुत विश्वेदेवै। इसमें अग्नि और वायु का नाम भी देवता के रूप में आया है। आरंभिक ३३ देव नामावली में न होने से क्या इन्हें दें देव नहीं गिना जाएगा? 
 
भगवती दुर्गा की ५ प्रधान श्रेणियों में ६४ योगिनियाँ हैं। हर श्रेणी में ६४ योगिनी। इनके साथ ५२ भैरव भी हैं। सैकड़ों योगिनी, अप्सरा, यक्षिणी आदि हैं। ४९ प्रकार के मरुद्गण और ५६ प्रकार के विश्वेदेव होते हैं। इन्हें देव क्यों न मानेंगे? 
 
33 कोटि बताने वालों का दूसरा खंडन : 
शिव-सती: सती ही पार्वती है और वही दुर्गा है। उसी के ९ रूप हैं। वही १० महाविद्या है। शिव ही रुद्र हैं, हनुमानजी जैसे उनके कई अंशावतार भी हैं।
 
विष्णु-लक्ष्मी : विष्णु के २४ अवतार हैं, वही राम, कृष्ण, बुद्ध और नर-नारायण भी हैं। विष्णु जिस शेषनाग पर सोते हैं वही नागदेवता भिन्न-भिन्न रूपों में अवतार लेते हैं। लक्ष्मण और बलराम उन्हीं के अवतार हैं।
 
ब्रह्मा-सरस्वती : ब्रह्मा को प्रजापति कहा जाता है। उनके मानस पुत्रों के पुत्रों में कश्यप ऋषि की कई पत्नियाँ हुईं। जिनसे धरती पर पशु-पक्षी, नर-वानर आदि प्रजातियों का जन्म हुआ। वे हमारे जन्मदाता हैं इसलिए ब्रह्मा को प्रजापिता भी कहा जाता है। गणेश, कार्तिकेय, वीरभद्र, अग्नि, वायु, कुबेर, यमराज जैसे प्रमुख देव, सभी ग्रामदेव, कुलदेव, अजर आदि क्षेत्रपाल को देव कोटि में क्यों न गिनेगे?
 
इनके तर्क का पुन: खंडन 
यदि कश्यप आदि को देव न मानें कि ब्रह्मा के द्वारा इनका प्राकट्य हुआ है, सो ये सब ब्रह्मरूप हुए सो इनकी गिनती नहीं होगी तो कश्यप के द्वारा प्रकट किए गए १२ आदित्य, ८ वसु तथा ११ रुद्रों को कश्यप रूप मानकर छोड़ना होगा। 
 
सब रूद्र (हनुमान जी भी) शिव के अवतार हैं, तो भी पार्वती जी को उनकी पत्नी नहीं कहा जा सकता। रुद्रावतारओं में रूद्र की ऊर्जा होने पर भी स्वरूप और उद्देश्य भिन्न है। इसी तरह समग्र संसार नारायण रूप होने पर भी स्वरूपत: और उद्देश्यत: भिन्न हैं। सीता को कृष्ण-पत्नी और रुक्मिणी को राम-पत्नी नहीं कह सकते, क्योंकि अभेद में भी भेद है। सभी को एक मानें तो क्या विधि, हरि, हर ही नहीं सकल सृष्टि एक है फिर कोटि का प्रश्न ही नहीं होगा। 
 
वेदों में कही १३, कहीं ३६, कहीं ३,३३९ और कहीं ६,००० देवों की  चर्चा है। अकेले वालखिल्यों की संख्या६०,०००  है। ३३ प्रकारों में इनमें से कुछ को लिया है, कुछ को नहीं। मनुष्य की चर्चा में केवल उनका ही नाम लेते हैं जिनका उस चर्चा से संबंध हो, सभी का नहीं। वैसे ही प्रसंगानुसार कुछ देवों का नाम लेने का अर्थ यह नहीं है कि जिनकी चर्चा नहीं की गई, या अन्यत्र की गई, उनका अस्तित्व ही नहीं है। इस ३३ की श्रेणी में गरूड़, नंदी आदि के नाम नहीं हैं,जबकि वेदों में हैं। विनायक और वक्रतुण्ड की श्रेणी में गणेशजी के सैकड़ों अवतार के नाम तंत्र में हैं।
 
देवता केवल स्वर्ग में नहीं रहते। उनके सैकड़ों अन्य दिव्यलोक और भी हैं। वे सभी एकरूप होने से सीधे ब्रह्म के ही अंश हैं तो इन सबको मिलाकर ३३ करोड़ होंगे जिन्हें व्यवहारत: गिना नहीं जा सकता। 
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