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गुरुवार, 22 मार्च 2012

गीत सलिला: तुम --संजीव 'सलिल'

गीत सलिला:
तुम
संजीव 'सलिल'
*
कौन हो तुम?
पूछता हूँ हो विकल
पर मौन हो तुम.
कभी परछाईं बने सँग-साथ आते.
कभी छलिया की तरह मुझको छकाते.
कभी सारी पीर पल में दूर करते-
कभी ठेंगा दिखाकर हँसते खिझाते.
कभी विपदा तुम्हीं लगते
कभी राई-नौन हो तुम.
कौन हो तुम?
*
आँख मूँदी तो लगे आकर गले.
आँख खोली गुम, कि ज्यों सूरज ढले.
विपद में हो विकल चाहा 'लग जा गले'-
खुशी में चाहा कि अब  मिलना टले.
मिटा दो अंतर से अंतर
जब, जहाँ हो,जौन हो तुम.
कौन हो तुम?
*

 .
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in



5 टिप्‍पणियां:

vijay2 ✆ ने कहा…

vijay2@comcast.net द्वारा yahoogroups.com ekavita


आ० ’सलिल’ जी,

आपकी इतनी सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति चिंतन के लिए बाधित करती है ।

आपको बधाई ।

सस्नेह और सादर ।

विजय

- pranavabharti@gmail.com ने कहा…

आ . सलिल जी ,
नमस्कार ,बहुत सुंदर अभिव्यक्ति |
आध्यात्म में खींचकर ले जाती है ,कौन हो तुम ?स्वयं का स्वयं से दर्शन |
बधाई स्वीकार करें |

प्रणव भारती

- pratapsingh1971@gmail.com ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी

बहुत सुन्दर !

सादर
प्रताप

kusum sinha ✆ ने कहा…

kusumsinha2000@yahoo.com

ekavita


kitni sundar kavita sajiv ji man ko bahut hi achhi lagi bhagwan kare aap aisi hi sundar sundar kavitayein hamesha likhte rahen
kusum

sn Sharma ✆ ने कहा…

ahutee@gmail.com द्वारा yahoogroups.com ekavita


आ० आचार्य जी,
यह गीत पढ कर मुग्ध हूँ । विशेष -


मिटा दो अंतर से अंतर
जब, जहाँ हो,जौन हो तुम.
कौन हो तुम?

कमल