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शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

श्रृद्धांजलि- एक युग का अंत: विजय महापात्र

एक साथ कई युगों में जीता है भारत

पत्रकारिता की दुनिया देखते-देखते मीडिया हो गयी | कभी एक अकेले व्यक्ति की मेहनत से अखबार निकलने की कहानी पर आज यकीं नहीं होता | पंडित युगुल किशोर शुक्ल , भारतेंदु हरिश्चंर और विष्णु राव पराड़कर की जीवटता आज बेमानी नजर आती है | यह दुनिया बड़ी अजीब है और भारतवर्ष की बात तो पूछिये मत ! 'एक साथ कई युगों में जीता है भारत'  आज फिर इस कथन पर यकीन करने को मजबूर हैं हम | जहाँ एक ओर टेलीविजन की चकाचौंध ने पत्रकार बिरादरी को अंधा बना रखा है वहीँ दूसरी ओर 'विजय महापात्र' जैसे भारतेंदु युगीन पत्रकार भी अपनी जिजीविषा के साथ जीते हुए अनंत यात्रा पर निकल गये हैं |

50 से अधिक भाषाओँ में पत्रिका निकालने वाले विजय महापात्र

विजय महापात्र को याद करते हुए ‘जयप्रकाश मानस ‘ लिखते हैं- 'ओड़िसा के जगतसिंहपुर जिला के पाकनपुर गांव के निवासी विजय कुमार महापात्र पिछले 20-22 साल से बच्चों की पत्रिका निकालते थे। तकरीबन 50 भारतीय भाषाओं में। ओड़िया, बांग्ला, नागपुरी, भोजपुरी, अंगरेजी, हिंदी (दुलारी बहन), संस्कृत, डोगरी आदि भाषाओं में। लिमका बुक में रिकार्ड बना चुके थे । अपनी साइकिल पर घूम-घूमकर अपनी पत्रिका बेचते थे । वे अपने लिए कुछ नहीं मांगते थे। सामनेवाले को पसंद आया तो पत्रिका की रसीद थमा देते थे । एक साल के लिए 100 रुपये। साल में छह माह दूसरे प्रदेशों की यात्रा पर रहते थे। रचनाकारों से मिलकर उनकी रचनाएं लेने के लिए। अनजान शहरों में भटकते रहते थे। हम कुछ साथी भी उनसे मिलकर दंग रह गये थे । वह हिम्मत और चुनौती स्वीकारने की हठ । अभी अभी पता चला कि वे पाई पाई को तरसते हुए पिछले 18 जनवरी को कैंसर से जूझते-जूझते चल बसे । उन्हें मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि'

NDTV भुवनेश्वर से जुड़े पुरुषोत्तम ठाकुर लिखते हैं- 'विजय महापात्रा का परिचय देना हो तो एक वाक्य में कहा जा सकता है- वे संपादक हैं, बाल पत्रिका के संपादक. लेकिन यह विजय का अधूरा परिचय होगा.  असल में विजय देश और दुनिया के किसी भी दूसरे संपादक से अलग हैं. वे पत्रिका का संपादन नहीं करते, 'पत्रिकाओं' का संपादन करते हैं. वह भी एक-दो नहीं, देश की अलग-अलग भाषाओं में कुल 50 पत्रिकाएं !'

उड़ीसा के जगतसिंहपुर में एक छोटा सा गांव है- पाकनपुर. इसी गांव में रहते थे 40 साल के बिजय महापात्रा   दो कमरों वाले उनके घर के एक कमरे में उनका कार्यालय है, आप चाहें तो इस कमरे को पत्रिकाओं का कारखाना कह सकते हैं

इस एक कमरे से कई बाल पत्रिकाएं निकलती हैं- तमिल में अंबू सगोथारी , अंगिका में अझोला बहिन, उड़िया में सुनाभाउनी , लद्दाखी में छू छू ले, कुमाउनी में भाली बानी, अंग्रेजी में लविंग सिस्टर, मंडीयाली में लाडली बोबो, उर्दू में प्यारी बहन, संस्कृत में सुबर्ण भगिनी, मराठी में प्रिय ताई, तेलुगु में प्रियमैना चेलेउ, कश्मीरी में त्याथ ब्यानी…….!

विजय इन बाल पत्रिकाओं के पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर हैं यानी अकेले पत्रिकाओं के लिए रचनाएं मंगवाते हैं, उनका संपादन करते हैं, प्रकाशन करते हैं और इन पत्रिकाओं को बेचते भी हैं। 

अधिकांश पाठकों तक ये पत्रिकाएं वे डाक से भेजते हैं. इसके अलावा वे अलग-अलग स्कूलों में जा कर सीधे बच्चों को भी ये पत्रिकाएं बेचते हैं. रोज कई-कई किलोमीटर दूर जाने-अनजाने रास्तों पर अपनी साईकल से वे इन पत्रिकाओं को बेचने के लिए जाते हैं

क्यों निकालते हैं वे इतनी पत्रिकाएं ?

इसके जवाब में विजय कहते हैं-" भारत वर्ष में जितनी भाषा और बोलियां हैं, मैं उन सभी भाषाओं में बाल पत्रिकाएं निकालना चाहता हूं   मैं इन सबकी लिपि का प्रचार-प्रसार करूं   इतने विशाल देश में शायद यह काम थोड़ा मुश्किल है, लेकिन नामुमकिन नहीं है  "

इन पत्रिकाओं का प्रकाशन काफी मुश्किल काम है   कई बार तो आर्थिक कारणों से किसी-किसी पत्रिका का एक अंक निकालने में साल लग जाते हैं. लेकिन अंग्रेजी, हिंदी और उड़िया की पत्रिका जी तोड़ मेहनत के बाद हर महीने निकल जाती है   लेकिन इन सबके लिए रचनाएं जुटाने में ही हालत खराब हो जाती है

1990 से इन पत्रिकाओं के प्रकाशन-संपादन में जुटे बिजय कहते हैं- " मैं निजी तौर पर हर लेखक से संपर्क करता हूं   अलग-अलग राज्यों में जा कर लेखकों से मुलाकात करता हूं, उनसे बिना मानदेय के रचनाएं भेजने के लिए अनुरोध करता हूं. फिर इन रचनाओं को टाईप करना…! मेरे पास तो कंप्यूटर भी नहीं है. जिनके पास है, उनसे बहुत सहयोग नहीं मिलता  "

विजय की मानें तो इसके चलते उनके परिवार को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि वो अपने घर के इकलौते कमाऊ सदस्य हैं

पत्रिका निकालने के इस जुनून के कारण उन्हें घर की ज़मीन भी बेचनी पड़ी है लेकिन वे हार मानने को तैयार नहीं हैं. घर के दूसरे सदस्य भी चाहते हैं कि बिजय अपने मिशन में जुटे रहें

विजय कहते हैं- " मैं कम से कम 300 भाषा और बोलियों में बाल पत्रिकाएं निकालना चाहता हूं

आभार: जनोक्ति 

विजय जी के जीवट और समर्पण को सौ बार सलाम. क्या समाज और सरकार ऐसे व्यक्तित्व को सहयोग और सम्मान न दे पाने का दोषी नहीं है? क्या आनेवाले समय में एक और विजय को पनपने का वातावरण देना हमारा अपना कार्य नहीं है? क्या भाषा के नाम पर ओछी राजनीती कर आम जन को विभाजित करनेवाले राजनेता विजय जैसे व्यक्तित्व से कुछ सीखेंगे?

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