गीतिका
आचार्य संजीव 'सलिल'
आते देखा खुदी को जब खुदा ही जाता रहा.
गयी दौलत पास से क्या, दोस्त ही जाता रहा.
दर्दे-दिल का ज़िक्र क्यों हो?, बात हो बेबात क्यों?
जब ये सोचा बात का सब मजा ही जाता रहा.
ठोकरें हैं राह का सच, पूछ लो पैरों से तुम.
मिली सफरी तो सफर का स्वाद ही जाता रहा.
चाँद को जब तक न देखा चाँदनी की चाह की.
शमा से मिल शलभ का अरमान ही जाता रहा
'सलिल' ने मझधार में कश्ती को तैराया सदा.
किनारों पर डूबकर सम्मान ही जाता रहा..
3 टिप्पणियां:
सलिल जी!
अच्छी रचना है. अक्सर लोग किनारे पर ही डूबते हैं क्योंकि किनारे आते-आते होशो-हवास खो देते हैं.
Nice poetry.
आप अच्छी गजल कहते हैं.
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