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शनिवार, 13 जून 2009

कविता: श्रीमती सरला खरे

अनुरोध

साहित्य तो रत्नात्मक है .
सीमा नहीं क्षितिज पार है .
मेरे तो क्षीण डैने(पंख) है .
छूट गई हूँ सागर में .

" साहित्य के "सा" का ज्ञान नहीं .
नवीन विधाओं से अनभिज्ञ रही .
सह्र्दये सज्जन का द्रवित हो रहा .
पहुँचा दिए करुण शब्द सागर में "

"कुछ साहित्य सेवियों के मन में दर्द था.
मुखर न हो रहा था , मन में था .
मेरे मन में गूँजते थे वो स्वर
कागज में उतरे अश्रु बनकर."

साहित्य को समाज का दर्पण दिखाइए .
अपनी क्षमता को अम्बर तक पहुचाइए .
रचनाये क्षितिज पार पहुंचे , लेखनी को सतत चलाइए

3 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

WOW...

महावीर ने कहा…

बहुत सुंदर

साहित्य को समाज का दर्पण दिखाइए .
अपनी क्षमता को अम्बर तक पहुचाइए .
रचनाये क्षितिज पार पहुंचे , लेखनी को सतत चलाइए

दिव्य नर्मदा divya narmada ने कहा…

आत्मीय!

वन्दे मातरम.

दिव्य नर्मदा रचनाकारों का अपना मंच है. इससे अपने स्नेहियों, स्वजनों, छात्रों को जोड़िये. हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु समर्पित इस सारस्वत अनुष्ठान में आप और आप द्वारा अनुशंसित जनों का स्वागत है.

आपके रचना अच्छी लगी.
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दिव्यनर्मदा@जीमेल.कॉम पर.

-संजीव 'सलिल'

शुभेच्छु

सलिल