छोड़ अहिंसा शस्त्र उठाओ
काले बादल ने रोका है फ़िर से मार्ग मयंक का।
छोड़ अहिंसा शस्त्र उठायें, सिर काटें आतंक का...
राजनीति के गलियारों से आशा तनिक न शेष है।
लोकनीति की ताकत सचमुच अपराजेय अशेष है।
शासक और विपक्षी दल केवल सत्ता के लोभी हैं।
रामराज के हैं कलंक ये, सिया विरोधी धोबी हैं।
हम जनगण वानर भालू बन साथ अगर डट जाएँगे-
आतंकी असुरों का भू से नाम निशान मिटायेंगे।
मिल जवाब दे पाएंगे हम हर विषधर के डंक का।
छोड़ अहिंसा शस्त्र उठायें, सिर काटें आतंक का...
अब न करें अनुरोध कुचल दें आतंकी बटमारों को।
राज खोलते पुलिस बलों का पत्रकार गद्दारों को।
शासन और प्रशासन दोनों जनगण सम्मुख दोषी हैं।
सीमा पार करें, न संदेसा पहुंचाएं संतोषी हैं।
आंसू को शोलों में बदलें बदला लें हर चोट का।
नहीं सुरक्षा का मसला हो बंधक लालच नोट का
आतंकी शिविरों के रहते दाग न मिटे कलंक का।
छोड़ अहिंसा शस्त्र उठायें, सिर काटें आतंक का...
अनुमति दे दो सेनाओं को, एक न बैरी छोडेंगे।
काश्मीर को मिला देश में कमर पाक की तोडेंगे।
दानव है दाऊद न वह या संगी-साथी बच पायें।
सेना और पुलिस के बलिदानों की हम गाथा गायें।
पूजें नित्य शहीदों को, स्वजनों को गले लगायेंगे।
राष्ट्र हेतु तन-मन-धन दे, भारत माँ की जय गायेंगे।
राजनीति हो चादर उजली, दाग नहीं हो पंक का।
छोड़ अहिंसा शस्त्र उठायें, सिर काटें आतंक का...
********************
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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मंगलवार, 27 जनवरी 2009
नर्मदा परिक्रमा हेतु पर्यटन विभाग नियमित व्यवस्था करे .
नर्मदा परिक्रमा हेतु पर्यटन विभाग नियमित व्यवस्था करे .
सुझाव कर्ता ..
श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव
एम.एससी.
गृहणी
विवेक सदन , नर्मदागंज , मंडला म.प्र.
महोदय
नर्मदा विश्व की एक मात्र ऐसी नदी है जिसकी परिक्रमा का पौराणिक महत्व है . हमें गर्व है कि यह हमारे प्रदेश की जीवन दायनी है . मेरा सुझाव है कि यदि नर्मदा की परिक्रमा को विश्व स्तर पर प्रचारित किया जावे व सुविधा जनक पर्यटन यान की समुचित व्यवस्था हो तो यही नर्मदा परिक्रमा प्रदेश को आर्थिक लाभ भी पहुंचा सकती है . वर्तमान में नर्मदा परिक्रमा आस्थावान ग्रामीण परिवेश तक ही सीमित है , जो पैदल ही धार्मिक भावना से नर्मदा परिक्रमा करते हैं . नर्मदा तट अति रमणीय हैं व उनका पर्यटन की दृष्टि से महत्व निर्विवाद है . जरूरत केवल समुचित संसाधनो के विकास व व्यवस्था का है . यदि हमारे प्रदेश का पर्यटन विभाग मासिक रूप से नियमित नर्मदा परिक्रमा हेतु सुविधाजनक वाहन चलाने लगे तो अनेक संपन्न लोग भी आस्था , मनोरंजन , देशाटन की इच्छा से नर्मदा परिक्रमा करेंगे यह मेरा अनुमान है .
सुझाव कर्ता ..
श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव
एम.एससी.
गृहणी
विवेक सदन , नर्मदागंज , मंडला म.प्र.
महोदय
नर्मदा विश्व की एक मात्र ऐसी नदी है जिसकी परिक्रमा का पौराणिक महत्व है . हमें गर्व है कि यह हमारे प्रदेश की जीवन दायनी है . मेरा सुझाव है कि यदि नर्मदा की परिक्रमा को विश्व स्तर पर प्रचारित किया जावे व सुविधा जनक पर्यटन यान की समुचित व्यवस्था हो तो यही नर्मदा परिक्रमा प्रदेश को आर्थिक लाभ भी पहुंचा सकती है . वर्तमान में नर्मदा परिक्रमा आस्थावान ग्रामीण परिवेश तक ही सीमित है , जो पैदल ही धार्मिक भावना से नर्मदा परिक्रमा करते हैं . नर्मदा तट अति रमणीय हैं व उनका पर्यटन की दृष्टि से महत्व निर्विवाद है . जरूरत केवल समुचित संसाधनो के विकास व व्यवस्था का है . यदि हमारे प्रदेश का पर्यटन विभाग मासिक रूप से नियमित नर्मदा परिक्रमा हेतु सुविधाजनक वाहन चलाने लगे तो अनेक संपन्न लोग भी आस्था , मनोरंजन , देशाटन की इच्छा से नर्मदा परिक्रमा करेंगे यह मेरा अनुमान है .

शुक्रवार, 16 जनवरी 2009
गीत
ओढ़ कुहासे की चादर
ओढ़ कुहासे की चादर
धरती लगाती दादी।
ऊंघ रहा सतपुडा,
लपेटे मटमैली खादी...
सूर्य अंगारों की सिगडी है,
ठण्ड भगा ले भैया।
श्वास-आस संग उछल-कूदकर
नाचो ता-ता थैया।
तुहिन कणों को हरित दूब,
लगती कोमल गादी...
कुहरा छाया संबंधों पर,
रिश्तों की गरमी पर।
हुए कठोर आचरण अपने,
कुहरा है नरमी पर।
बेशरमी नेताओं ने,
पहनी-ओढी-लादी...
नैतिकता की गाय कांपती,
संयम छत टपके।
हार गया श्रम कोशिश कर,
कर बार-बार अबके।
मूल्यों की ठठरी मरघट तक,
ख़ुद ही पहुँचा दी...
भावनाओं को कामनाओं ने,
हरदम ही कुचला।
संयम-पंकज लालसाओं के
पंक-फंसा- फिसला।
अपने घर की अपने हाथों
कर दी बर्बादी...
बसते-बसते उजड़ी बस्ती,
फ़िर-फ़िर बसना है।
बस न रहा ख़ुद पर तो,
परबस 'सलिल' तरसना है।
रसना रस ना ले, लालच ने
लज्जा बिकवा दी...
हर 'मावस पश्चात्
पूर्णिमा लाती उजियारा।
मृतिका दीप काटता तम् की,
युग-युग से कारा।
तिमिर पिया, दीवाली ने
जीवन जय गुंजा दी...
*****
ओढ़ कुहासे की चादर
ओढ़ कुहासे की चादर
धरती लगाती दादी।
ऊंघ रहा सतपुडा,
लपेटे मटमैली खादी...
सूर्य अंगारों की सिगडी है,
ठण्ड भगा ले भैया।
श्वास-आस संग उछल-कूदकर
नाचो ता-ता थैया।
तुहिन कणों को हरित दूब,
लगती कोमल गादी...
कुहरा छाया संबंधों पर,
रिश्तों की गरमी पर।
हुए कठोर आचरण अपने,
कुहरा है नरमी पर।
बेशरमी नेताओं ने,
पहनी-ओढी-लादी...
नैतिकता की गाय कांपती,
संयम छत टपके।
हार गया श्रम कोशिश कर,
कर बार-बार अबके।
मूल्यों की ठठरी मरघट तक,
ख़ुद ही पहुँचा दी...
भावनाओं को कामनाओं ने,
हरदम ही कुचला।
संयम-पंकज लालसाओं के
पंक-फंसा- फिसला।
अपने घर की अपने हाथों
कर दी बर्बादी...
बसते-बसते उजड़ी बस्ती,
फ़िर-फ़िर बसना है।
बस न रहा ख़ुद पर तो,
परबस 'सलिल' तरसना है।
रसना रस ना ले, लालच ने
लज्जा बिकवा दी...
हर 'मावस पश्चात्
पूर्णिमा लाती उजियारा।
मृतिका दीप काटता तम् की,
युग-युग से कारा।
तिमिर पिया, दीवाली ने
जीवन जय गुंजा दी...
*****
मंगलवार, 6 जनवरी 2009
प्रो. वीणा तिवारी
कवि और कविता : प्रो. वीणा तिवारी
३०-०७-१९४४ एम्. ए. , एम्,. एड.
प्रकाशित कृतियाँ - सुख पाहुना सा (काव्य संग्रह), पोशम्पा (बाल गीत संग्रह), छोटा सा कोना (कविता संग्रह} .
सम्मान - विदुषी रत्न तथा अन्य.
संपर्क - १०५५ प्रेम नगर, नागपुर मार्ग, जबलपुर ४८२००३.
बकौल लीलाधर मंडलोई --
'' वे जीवन के रहस्य, मूल्य, संस्कार, संबंध आदि पर अधिक केंद्रित रही हैं. मृत्यु के प्रश्न भी कविताओं में इसी बीच मूर्त होते दीखते हैं. कविताओं में अवकाश और मौन की जगहें कहीं ज्यादा ठोस हैं. ...मुख्य धातुओं को अबेरें तो हमारा साक्षात्कार होता है भय, उदासी, दुःख, कसक, धुआं, अँधेरा, सन्नाटा, प्रार्थना, कोना, एकांत, परायापन, दया, नैराश्य, बुढापा, सहानुभूति, सजा, पूजा आदि से. इन बार-बार घेरती अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए पैबंद, कथरी, झूलता पंखा, हाशिया, बेहद वन, धुन्धुआती गीली लकडी, चटकती धरती, धुक्धुकाती छाती, बोलती हड्डियाँ, रूखी-खुरदुरी मिट्टी, पीले पत्ते, मुरझाये पौधे, जैसे बिम्बों की श्रंखला है. देखा जाए तो यह कविता मन में अधिक न बोलकर बिम्बों के माध्यम से अपनी बात कहने की अधिक प्रभावी प्रविधि है. वीणा तिवारी सामुदायिक शिल्प के घर-परिवार में भरोसा करनेवाली मनुष्य हैं इसलिए पति, बेटी, बेटे, बहु और अन्य नातेदारियों को लेकर वे काफी गंभीर हैं. उनकी काव्य प्रकृति भावः-केंद्रित है किंतु वे तर्क का सहारा नहीं छोड़तीं इसलिए वहाँ स्त्री की मुक्ति व आज़ादी को लेकर पारदर्शी विमर्श है. वीणा तिवारी की कवितायें आत्मीय पथ की मांग करती हैं. इन कविताओं के रहस्य कहीं अधिक उजागर होते हैं जब आप धैर्य के साथ इनके सफर में शामिल होते हैं. इस सफर में एक बड़ी दुनिया से आपका साक्षात्कार होता है. ऐसी दुनिया जो अत्यन्त परिचित होने के बाद हम सबके लिए अपरिचय की गन्ध में डूबी हैं. समकालीन काव्य परिदृश्य में वीणा तिवारी की कवितायें गंभीरता से स्वीकार किए जाने की और अग्रसर हैं
घरौंदा
रेत के घरौंदे बनाना
जितना मुदित करता है
उसे ख़ुद तोड़ना
उतना उदास नहीं करता.
बूँद
बूँद पडी
टप
जब पडी
झट
चल-चल
घर के भीतर
तुझको नदी दिखाऊँगा
मैं
बहती है जो
कल-कल.
चेहरा
जब आदमकद आइना
तुम्हारी आँख बन जाता है
तो उम्र के बोझिल पड़ाव पर
थक कर बैठे यात्री के दो पंख उग आते हैं।
तुम्हारी दृष्टि उदासी को परत दर परत
उतरती जाती है
तब प्रेम में भीगा ये चेहरा
क्या मेरा ही रहता है?
चाँदनी
चाँदनी गुमसुम अकेले डोलती है
क्या करें सुनती है न कुछ बोलती है
शाख पर सहमे पखेरू
लरजती डरती हवाएं
क्या करें जब चातकी भ्रम तोड़ती है
चाँदनी गुमसुम अकेले डोलती है।
चाहना फ़ैली दिशा बन
आस का सिमटा गगन
क्या करें सूनी डगर मुख मोडती है
चाँदनी गुमसुम अकेले डोलती है
उम्र मात्र सी गिनी
सामने पतझड़ खड़ा
क्या करें बहकी लहर तट तोड़ती है
चाँदनी गुमसुम अकेले डोलती है
मन
उतरती साँझ में बेकल मन
सूनी पगडंडी पर दो चरण
देहरी पर ठिठकी पदचाप
सांकल की परिचित खटखटाहट
दरारों से आती धीमी उच्छ्वास ही
क्यों सुनना चाहता है मन?
सगे वाला
सुबह आकाश पर छाई रक्तिम आभा
विदेशियों के बीच परदेस में
अपने गाँव-घर की बोली बोलता अपरिचित
दोनों ही उस पल सगे वाले से ज्यादा
सगे वाले लगते हैं।
शायद वे हमारे अपनों से
हमें जोड़ते हैं या हम उस पल
उनकी ऊँगली पकड़ अपने आपसे जुड़ जाते हैं
*******************
३०-०७-१९४४ एम्. ए. , एम्,. एड.
प्रकाशित कृतियाँ - सुख पाहुना सा (काव्य संग्रह), पोशम्पा (बाल गीत संग्रह), छोटा सा कोना (कविता संग्रह} .
सम्मान - विदुषी रत्न तथा अन्य.
संपर्क - १०५५ प्रेम नगर, नागपुर मार्ग, जबलपुर ४८२००३.
बकौल लीलाधर मंडलोई --
'' वे जीवन के रहस्य, मूल्य, संस्कार, संबंध आदि पर अधिक केंद्रित रही हैं. मृत्यु के प्रश्न भी कविताओं में इसी बीच मूर्त होते दीखते हैं. कविताओं में अवकाश और मौन की जगहें कहीं ज्यादा ठोस हैं. ...मुख्य धातुओं को अबेरें तो हमारा साक्षात्कार होता है भय, उदासी, दुःख, कसक, धुआं, अँधेरा, सन्नाटा, प्रार्थना, कोना, एकांत, परायापन, दया, नैराश्य, बुढापा, सहानुभूति, सजा, पूजा आदि से. इन बार-बार घेरती अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए पैबंद, कथरी, झूलता पंखा, हाशिया, बेहद वन, धुन्धुआती गीली लकडी, चटकती धरती, धुक्धुकाती छाती, बोलती हड्डियाँ, रूखी-खुरदुरी मिट्टी, पीले पत्ते, मुरझाये पौधे, जैसे बिम्बों की श्रंखला है. देखा जाए तो यह कविता मन में अधिक न बोलकर बिम्बों के माध्यम से अपनी बात कहने की अधिक प्रभावी प्रविधि है. वीणा तिवारी सामुदायिक शिल्प के घर-परिवार में भरोसा करनेवाली मनुष्य हैं इसलिए पति, बेटी, बेटे, बहु और अन्य नातेदारियों को लेकर वे काफी गंभीर हैं. उनकी काव्य प्रकृति भावः-केंद्रित है किंतु वे तर्क का सहारा नहीं छोड़तीं इसलिए वहाँ स्त्री की मुक्ति व आज़ादी को लेकर पारदर्शी विमर्श है. वीणा तिवारी की कवितायें आत्मीय पथ की मांग करती हैं. इन कविताओं के रहस्य कहीं अधिक उजागर होते हैं जब आप धैर्य के साथ इनके सफर में शामिल होते हैं. इस सफर में एक बड़ी दुनिया से आपका साक्षात्कार होता है. ऐसी दुनिया जो अत्यन्त परिचित होने के बाद हम सबके लिए अपरिचय की गन्ध में डूबी हैं. समकालीन काव्य परिदृश्य में वीणा तिवारी की कवितायें गंभीरता से स्वीकार किए जाने की और अग्रसर हैं
घरौंदा
रेत के घरौंदे बनाना
जितना मुदित करता है
उसे ख़ुद तोड़ना
उतना उदास नहीं करता.
बूँद
बूँद पडी
टप
जब पडी
झट
चल-चल
घर के भीतर
तुझको नदी दिखाऊँगा
मैं
बहती है जो
कल-कल.
चेहरा
जब आदमकद आइना
तुम्हारी आँख बन जाता है
तो उम्र के बोझिल पड़ाव पर
थक कर बैठे यात्री के दो पंख उग आते हैं।
तुम्हारी दृष्टि उदासी को परत दर परत
उतरती जाती है
तब प्रेम में भीगा ये चेहरा
क्या मेरा ही रहता है?
चाँदनी
चाँदनी गुमसुम अकेले डोलती है
क्या करें सुनती है न कुछ बोलती है
शाख पर सहमे पखेरू
लरजती डरती हवाएं
क्या करें जब चातकी भ्रम तोड़ती है
चाँदनी गुमसुम अकेले डोलती है।
चाहना फ़ैली दिशा बन
आस का सिमटा गगन
क्या करें सूनी डगर मुख मोडती है
चाँदनी गुमसुम अकेले डोलती है
उम्र मात्र सी गिनी
सामने पतझड़ खड़ा
क्या करें बहकी लहर तट तोड़ती है
चाँदनी गुमसुम अकेले डोलती है
मन
उतरती साँझ में बेकल मन
सूनी पगडंडी पर दो चरण
देहरी पर ठिठकी पदचाप
सांकल की परिचित खटखटाहट
दरारों से आती धीमी उच्छ्वास ही
क्यों सुनना चाहता है मन?
सगे वाला
सुबह आकाश पर छाई रक्तिम आभा
विदेशियों के बीच परदेस में
अपने गाँव-घर की बोली बोलता अपरिचित
दोनों ही उस पल सगे वाले से ज्यादा
सगे वाले लगते हैं।
शायद वे हमारे अपनों से
हमें जोड़ते हैं या हम उस पल
उनकी ऊँगली पकड़ अपने आपसे जुड़ जाते हैं
*******************
शनिवार, 3 जनवरी 2009
नर्मदाअष्टकम - आचार्य संजीव वर्मा " सलिल "

स्थान: jabalpur, india.
Madhya Pradesh 482001, India

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