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बुधवार, 15 जनवरी 2025

रातरानी

लेख 
स्वास्थ्य-समृद्धि वर्धक रातरानी 
*
             रातरानी (वानस्पतिक नाम : सेस्ट्रम नोक्टरमम् Cestrum nocturnum) सोलनेसी (Solanaceae) कुल का एक पादप है। यह दक्षिण एशिया एवं वेस्टइंडीज का देशज पौधा है। इसमें रात्रि के समय बहुत सुगंधित फूल खिलते हैं। पूर्णिमा के दिन इस पर फूल पूरी तरह से खिलते हैं और अधिकतम महकते हैं जबकि अमावस्या के दिन फूल नहीं खिलते।  मूलत: यह दक्षिण एशिया एवं वेस्टइंडीज का देशज पौधा है जो हर तरह के मौसम और मिट्टी में लगाया जा सकता है। रातरानी चमेली कुल का पौधा है। इसके पौधे लगभ १०  फीट ऊँचे और ६ फीट तक फैले हो सकता है। रातरानी को आमतौर पर "इंडियन येलोवुड" के नाम से जाना जाता है। यह पेड़ की एक प्रजाति है जो भारतीय उपमहाद्वीप का मूल निवासी है और हिमालय की तलहटी और पश्चिमी घाट सहित भारत के कई हिस्सों में पाया जाता है। पेड़ अपने सुगंधित पीले फूलों के लिए जाना जाता है, जो गुच्छों में खिलते हैं और एक मीठी, नाजुक सुगंध रखते हैं। पारंपरिक भारतीय चिकित्सा में, रातरानी के फूल और छाल का उपयोग विभिन्न औषधीय प्रयोजनों के लिए किया जाता है। रातरानी को हिंदी में चाँदनी, तगर, संस्कृत में सुगंधा, ओड़िया में काटो , काटोचम्पा, मोल्लीफुलाना, कोंकड़ी में वडलीनामदीत, कन्नड़ में कोट्टू , नंदीबटलू, गुजराती में चाँदनी, सागर, तमिल में करेरदूप्पलै, नंदीयावत्तम, तेलुगु में गंधीतगराप्पू, नंदीवरदानमु, बांग्ला में चमेली, तगर, नेपाली में चाँदनी, मारती में अनंता, गोंदतगर, मलयालम में बेलुटा अमेलपोडी, नंदी ऐरवेटुम, कूट्टमपाले , तकरम तथा अंग्रेजी में  East Indian Rosebay, Moon beam, Adam’s apple, Crepe jasmine कहा जाता है।  
  
            एक बड़े गमले में उर्वर मिट्टी और खाद को मिलाकर भरें। रात रानी के पौधे से ६-७ इंच की कलम तोड़/काट कर गाड़ दें। मिट्टी को हल्का गीला रखें। गमला कम धूप वाली जगह पर रखें। एक-दो हफ्ते में कलम में नई कोंपलें निकलने लगेंगी। रात रानी का पौधा बगीचे, गमलों बाहर बालकनी में किसी भी मिट्टी में उगा सकते हैं। गमलों में उगाए गए पौधों को पूरी तरह से विकसित होने के लिए महीने में दो बार खाद दें। उद्यानिकी के शौकीन आसानी से रात रानी का रख-रखाव कर सकते हैं। वास्तु के अनुसार रातरानी, गुलाब, गेंदा, चमेली और मोगरा के पौधे घर की उत्तर या पूर्व दिशा में लगाएँ।ये घर में सकारात्मक ऊर्जा बढ़ाते हैं। रातरानी का पौधा घर में दक्षिण दिशा में खिड़की के पास लगाने से परिवार में मनमुटाव घटता है,  तनाव और चिंता क्म् होती है, अच्छी नींद आती है, मन एकाग्र रहता है। मुख्य द्वार पर रातरानी खुशबू और समृद्धि बढ़ाता है। अध्ययन कक्ष में रातरानी का पौधा लगाने से शैक्षणिक प्रगति अधिक होती है। 

            रातरानी में एंटीऑक्सीडेंट, एंटी इंफ्लामेट्री और एंटी बैक्टीरियल गुण होते हैं।रात की रानी के फूल के रस का इस्तेमाल मधुमेह (टाइप २ ममेलिटस डायबिटीज) ठीक करने के लिए किया जाता है। रात की रानी के फूल और पत्ते में इथेनॉल पाया जाता है, जो  ब्रोन्कोडायलेटर है, इम्यूनिटी बेहतर कर सूखी खाँसी और गले की जलन से राहत देता है है। इसके २०-२५ पत्ते और फूल एक गिलास पानी के साथ उबालें जब तक पानी आधा न हो जाए। इसे तीन हिस्सों में बाँटकर सुबह, दोपहर और शाम को बराबर मात्रा में सेवन करें। रात की रानी की पत्ती और छाल का एंटीबैक्टीरियल गुण डेंगू, चिकनगुनिया और मलेरिया जैसे बुखार में जल्द आराम देता है। बुखार घटाने के लिए कुछ बूँद तेल में एक मिली. जैतून का तेल मिलाकर पैरों के तलवे में अच्छे से मालिश करें। यह अस्थमा,  गठिया, साइनस और साइटिका (कमर से संबंधित नस) में भी लाभप्रद है। रातरानी के के पत्ते, फूल और तुलसी की पत्तियों की चाय पीने से कफ में राहत मिलती है। इसकी ३  ग्राम छाल और २  ग्राम पत्तों को दो या तीन तुलसी के पत्तों के साथ उबालकर दिन में दो बार पिएँ।आर्थराइटिस में हरसिंगार के पौधे के पत्तों, फूलों और छाल को २०० एमएल पानी में उबालें जब  एक चौथाई ५० एमएल रह जाए तो गर्म गर्म पिएँ। 

        रात की रानी का तेल या इत्र मुँहासे, चोट के निशान, दाग-धब्बे आदि मिटाता है। सौंदर्य प्रसाधन शैम्पू, लोशन आदि बनाने में इसका प्रयोग किया जाता है। 

        अरोमाथेरेपी के अनुसार रातरानी का इत्र स्ट्रेस और एंजायटी को दूर कर दिमाग में Serotonin लेवल को बढ़ाता, डर, दुःख और निराशा दूर कर आत्मविश्वास, आशा और उत्साह का भाव जगाता है। रातरानी की खुशबू शरीर की ऊर्जा को जाग्रत, संरक्षिट और संतुलित करती है। 

            रातरानी के फूल और पत्तियों को पीसकर आँगन में छिड़काव करने से शाम को मच्छर नहीं आते। रातरानी की पत्तियाँ पीसकर सूजन वाली जगह पर पुल्टिस बाँधने से सूजन कम होती है। सरदर्द, मसूढ़े की सूजन, नपुंसकता, नेत्र रोग, डिप्रेशन, तनाव, तंत्रिका-तन्त्र, प्रसूति सम्बन्धी समस्याओं आदि में रातरानी उपयोगी है। मुँह  में छाले होने पर २-३ बार रात की रानी की एक पत्ती का टुकड़ा मुँह में डाल कर चाबें, रस को छाले वाली जगह पर फिराकर  थूक दें।  
***

गंध-रेखा
रातरानी 
खींचती है गंध-रेखा
कर रहा है समय क्यों 
यह सच अदेखा?
जिंदगी निर्गंध
क्या अच्छी लगेगी?
फैलती दुर्गंध
क्या मन को रुचेगी?
गर नहीं तो
रातरानी बनें हम सब।
स्नेह का परिमल बिखेरें
भुला जब-तब।
महमहाए श्वास 
पूरी आस हो हर।
नर्मदा में नहा गाएँ
गीत मनहर।।
१६.१.२०२५
०००
पूर्णिका 
मन लुभाए रातरानी आह भर। 
छिप बुलाए रातरानी बाम पर।। 
खत पठाए इशारों में बात कर। 
रुख छिपाए चिलमनों से झाँककर।। 
कहीं जाए तो पलट देखे इधर 
यों जताए देखती है वो उधर।। 
खिलखिलाए लूट मन का चैन ले। 
तिलमिलाए दाँत से लब काटकर।। 
जो न पाए तो बुलावा भेज दे। 
सो न जाए रात रानी जागकर।। 
हाथ आए या न आए क्या पता? 
साथ आए बेखबर हो बाखबर॥ 
आ लुभाए लाल हो  गुलनार सी 
रू-ब-रू हों ख्वाब औ' सच बाँह भर।। 
पूर्णिमा में पूर्णिका 'संजीव' की  
गुनगुनाए झुका नजरें रात भर।।
१५.१.२०२५ 
०००
पूर्णिका 
गमकती है रातरानी।
कहानी कहती सुहानी।।
दमकता है लोक राजा
महकती है राजरानी।।
सूर्य-शशि साथी सनातन
दिवस राजा, रात रानी।।
आस्था विश्वास निष्ठा
सभ्यता शाश्वत कहानी।।
कोशिशों का खैरमकदम
आसमां की निगहबानी।।
धरा अधरा मृदुल मधुरा
प्रीतिमय पोथी पुरानी।।
ख्वाब सब साकार करती
हौसलों की राजधानी।।
१४.१.२०२५
०००




रातरानी - ख्याल अपना अपना 
*
फ़िराक़ गोरखपुरी
वो कभी रंग वो कभी ख़ुशबू
गाह गुल गाह रात-रानी है
दिन को सूरज-मुखी है वो नौ-गुल
रात को है वो रात-रानी भी
० 
अंजुम रहबर
उस वक़्त रात-रानी मिरे सूने सहन में
ख़ुशबू लुटा रही थी कि तुम याद आ गए
० 
राहत इंदौरी
चमकता रहता है सूरज-मुखी में कोई और
महक रहा है कोई और रात-रानी में
० 
संजीव 'सलिल' 
बेकली में हाथ ने खोली किताब 
रातरानी की कली महकी मिली 
गाड़ी चली, रुमाल जैसे ही हिला 
रातरानी की सजल आँखें हुईं 
० 
अभिषेक शुक्ला
नवाह-ए-जाँ में भटकती हैं ख़ुशबुएँ जिस की
वो एक फूल कि लगता है रात-रानी है
० सलीम रज़ा, रीवा
जब से उन की मेहरबानी हो गई
ज़िंदगी अब रात-रानी हो गई
० 
शिखा पचौली
रुत सुहानी है उस की आँखों में
रात रानी है उस की आँखों में
० 
शुतोष मिश्रा 'अज़ल'
रात-रानी बन वो आए ख़्वाब में फिर
महकी इन साँसों को हर शब फूल कहिए
० 
इशराक़ अज़ीज़ी
तिरे आँचल को धानी लिख रहा हूँ
तुझे मैं रात-रानी लिख रहा हूँ
० 
विनीत आश्ना
याद कीजे वो परी-चेहरा सदा
और हर सू रात-रानी देखिए
० 
ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर
ज़ुल्मतों में भी हँस के खुल जाना
उस ने सीखा है रात-रानी से
० 
राकेश तूफ़ान
चमन में बाग़बाँ की साज़िशों ने
महकती रात-रानी ख़त्म कर दी
० 
चाँदनी पांडे
चाँद की आग़ोश में होने से जिस का है वजूद
खिल सकेगी क्या भला वो रात-रानी धूप में
० 
वन्दना भारद्वाज तिवारी 'वाणी'
गुल-बूटे और बाग़ जब सो जाते हैं ख़्वाबों को ओढ़े
तब रात रानी ही ख़ुशबू दे रात की ख़ामुशी में
० 
गौतम राजऋषि
डसा रत-जगों ने है ख़्वाबों को फिर से
सुलगती हुई रात-रानी कहे है
० 
मोहम्मद असदुल्लाह
रात-रानी सा तू महकता है
मेरी यादों के सब्ज़ एल्बम में
० 
मेहदी प्रतापगढ़ी
ख़िज़ाँ में हिज्र की डूबा विसाल का मौसम
मगर है ज़ेहन में ख़ुशबू सी रात रानी की
० 
फ़ारूक़ नूर
रात-रानी महक उठी होगी
जब वो करवट बदल रहा होगा
० 
राहुल झा
रात-रानी से मोहब्बत थी हमें कुछ इस क़दर
रात को खिलने लगे और रात-राना हो गए
० 
ज्योती आज़ाद खतरी
अमावस न पूनम से मुझ को ग़रज़ है
महकती हुई रात-रानी नहीं हूँ
००० 



रातरानी की महक सिर्फ़ रातरानी से उतरती है
***
ग़ज़ल
वो कभी रंग वो कभी ख़ुशबू


गाह गुल गाह रात-रानी है
फ़िराक़ गोरखपुरी


ग़ज़ल
उस वक़्त रात-रानी मिरे सूने सहन में


ख़ुशबू लुटा रही थी कि तुम याद आ गए
अंजुम रहबर


ग़ज़ल
दिन को सूरज-मुखी है वो नौ-गुल


रात को है वो रात-रानी भी
फ़िराक़ गोरखपुरी


ग़ज़ल
चमकता रहता है सूरज-मुखी में कोई और


महक रहा है कोई और रात-रानी में
राहत इंदौरी


ग़ज़ल
नवाह-ए-जाँ में भटकती हैं ख़ुशबुएँ जिस की


वो एक फूल कि लगता है रात-रानी है
अभिषेक शुक्ला


ग़ज़ल
जब से उन की मेहरबानी हो गई


ज़िंदगी अब रात-रानी हो गई
सलीम रज़ा रीवा


ग़ज़ल
रुत सुहानी है उस की आँखों में


रात रानी है उस की आँखों में
शिखा पचौली


ग़ज़ल
रात-रानी बन वो आए ख़्वाब में फिर


महकी इन साँसों को हर शब फूल कहिए
आशुतोष मिश्रा अज़ल


ग़ज़ल
तिरे आँचल को धानी लिख रहा हूँ


तुझे मैं रात-रानी लिख रहा हूँ
इशराक़ अज़ीज़ी


ग़ज़ल
याद कीजे वो परी-चेहरा सदा


और हर सू रात-रानी देखिए
विनीत आश्ना


ग़ज़ल
ज़ुल्मतों में भी हंस के खुल जाना


उस ने सीखा है रात-रानी से
ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर


ग़ज़ल
चमन में बाग़बाँ की साज़िशों ने


महकती रात-रानी ख़त्म कर दी
राकेश तूफ़ान


ग़ज़ल
चाँद की आग़ोश में होने से जिस का है वजूद


खिल सकेगी क्या भला वो रात-रानी धूप में
चाँदनी पांडे


ग़ज़ल
गुल-बूटे और बाग़ जब सो जाते हैं ख़्वाबों को ओढ़े


तब रात रानी ही ख़ुशबू दे रात की ख़ामुशी में
वन्दना भारद्वाज तिवारी 'वाणी'


ग़ज़ल
डसा रत-जगों ने है ख़्वाबों को फिर से


सुलगती हुई रात-रानी कहे है
गौतम राजऋषि


ग़ज़ल
रात-रानी सा तू महकता है


मेरी यादों के सब्ज़ एल्बम में
मोहम्मद असदुल्लाह


ग़ज़ल
ख़िज़ाँ में हिज्र की डूबा विसाल का मौसम


मगर है ज़ेहन में ख़ुशबू सी रात रानी की
मेहदी प्रतापगढ़ी


ग़ज़ल
रात-रानी महक उठी होगी


जब वो करवट बदल रहा होगा
फ़ारूक़ नूर


ग़ज़ल
रात-रानी से मोहब्बत थी हमें कुछ इस क़दर


रात को खिलने लगे और रात-राना हो गए
राहुल झा


ग़ज़ल
अमावस न पूनम से मुझ को ग़रज़ है


महकती हुई रात-रानी नहीं हूँ
ज्योती आज़ाद खतरी




वियोगिनी ठाकुर


रातरानी की महक सिर्फ़ रातरानी से उतरती है
गुलाबों-सी गंध सिर्फ़ गुलाबों से
तुम्हारी तरह कौन चूमता है माथा
कौन फेरता है होंठों पर उँगलियाँ
तुम्हारे सिवा दे भी कौन सकता है
तुम्हारी सी-पीड़ा
हर भी कौन सकता है
सिवा तुम्हारे
हाँ समय भी हरता है—
समय की पीर
पर वह तुम तो नहीं हो
न ही वह तुम है
तुम्हारे सिवा कर कौन सकेगा
मुझे तुम-सा प्रेम
आता भी किसको है भला ऐसा जादू-वादू
सिर्फ़ तु‌म्हारे आने से खिलता है तन
महक उठती है मन की मौलश्री।
***
दिन-दुपहरिया और रातरानी
दिन-दुपहरिया और रातरानी


प्रखर शर्मा
Roman


तुमने कभी दिन दोपहरिया देखा है?
चमचमाती धूप में


उसके प्रज्ज्वलित कलेवर
मणिधारक नाग की तरह


फुफकारते हैं
और शाम होते ही सिकुड़ जाते हैं।


उसके आभामंडल पर लगे
जलमिश्रित मृदा के छीटे


दब जाते हैं उसी सिकुड़न में
आज की भूख और


कल की ताज़गी के लिए।
इतने में उत्तर मिलता है


अरे भाई! मैंने नहीं देखा है दिन-दुपहरिया।
मैंने हँसकर कहा कि


जिसने सही से दिन नहीं देखा है
वह दिन-दुपहरिया क्या देखेगा।


मैंने पुनः पूछा :
अच्छा, तो क्या तुमने रातरानी को देखा है?


उसने जवाब दिया :
हाँ, श्वेत वर्ण, नर्म चिकनी बनावट


लगभग कृशकाय महिला की भाँति उसका कलेवर
उसके पराग से गिरा एक कण भी


सुगंधित करता है
पूरा वातावरण


और सुबह होते ही
गुम हो जाता है बीती रात में।


मैंने कहा :
दिन-दुपहरिया सोख लेता है


दिन की धूप और हवा की धूल
तब रातरानी


उसी परिवेश में बिखेर देती है
केवल और केवल


दिखावटी महक।
***
रात रानी रात में
दिन में खिले सूरजमुखी
किन्‍तु फिर भी आज कल
हम भी दुखी
तुम भी दुखी!

हम लिए बरसात
निकले इन्‍द्रधनु की खोज में
और तुम
मधुमास में भी हो गहन संकोच में।
और चारों ओर उड़ती
है समय की बेरूखी!
हम भी दुखी
तुम भी दुखी!

सिर्फ आँखों से छुआ
बूढ़ी नदी रोने लगी
शर्म से जलती सदी
अपना 'वरन' खोने लगी।
ऊब कर खुद मर गए
जो थे कमल सबसे सुखी।
हम भी दुखी
तुम भी दुखी।

~ ओम प्रभाकर
***

इतना सा बुखार


राकेश श्रीमाल

‘‘पता है
यह कविताओं का बुखार है
लिख लीजीए
उतर जाएगा’’


पर यह नहीं बताया तुमने
कितने तापमान की
कैसी और कितनी कविताएं


इत्र बनाने वाले एक दूर गांव में
गोलियॉं मिलती हैं बुखार की
लाल
पीली
हरी
यकीनन नीली भी


नब्‍ज टटोलकर बताता है वैद्य
कितनी खुराक लेना है
सुबह
दोपहर
और सोने से पहले
तब नींद में तो
अकेला हो जाता होगा बुखार भी


अपने सपने में बुखार
दूर से तुम्‍हें छूता होगा
दूर से ही सिहर जाती होगी तुम


रातरानी की खुशबू
बात करती होगी
नींद में खोए अकेले बुखार से


तुम्‍हारे लगाए सारे फूल
एकजुट हो जलते होंगे रातरानी से


अपने संगी साथियों से बेखबर
अपनी ही लय में रातरानी
घुलती रहती होगी बुखार में


कौन समझाए बूढ़े वैद्य को
अब कैसे जाएगा बुखार
देर रात तक बतकही करता रहता है
वह रातरानी से


अपनी सुध-बुध खो
रातरानी भी
सो जाती है बुखार की देह में
कभी ना उठने की इच्‍छा लिए


व्‍यर्थ हैं सारी दवाईयां
निरर्थक हैं कविताएं भी
अकेली देह के बुखार में
बस गया है जीवन का अनंत निराकार
एक दूसरे की फिक्र करते हुए
एक दूसरे का हाथ थामे हुए
कभी विलग ना होने की चाह लिए.
***
रंजना वर्मा
एक खुशबू रातरानी हो गयी।
देख लो पुरवा सुहानी हो गयी॥

घेर कर बादल बरसने फिर लगे
लो धरा की चुनर धानी हो गयी॥

हर लहर उठने लगे जब ज्वार सी
तब समझ लेना जवानी हो गयी॥

जीर्ण पन्ने पीत वर्णी हो गये
डायरी अब तो पुरानी हो गयी॥

लोग बीती बात हर देते भुला
जिंदगी जैसे कहानी हो गयी॥

छेड़ने बादल गगन में आ गये
खेत क्यारी पानी-पानी हो गयी॥
***
राह कोई भी समझ आती नहीं
हर गली जैसे अजानी हो गयी॥
रातरानी खिली आज फिर
आज फिर याद आते हो तुम
एक सपना कि जैसे नयन से मिले
देह जैसे अचानक छुअन से मिले
मिल रहे तुम हमें आज कुछ इस तरह
टूटकर चैन जैसे थकन से मिले
लो हथेली थमा दी तुम्हें
चाँद-सूरज उगाते हो तुम ?
आ रही हैं तुम्हें क्या अभी हिचकियाँ
क्या चुभा पैर में द्वार का सातिया
क्या तुम्हें भी चिढ़ाती मिली हैं कभी
एक-दूजे से उलझी हुई खिड़कियाँ
जो तुम्हें याद करती, उसे
किस तरह भूल जाते हो तुम?
प्यार करना, नहीं कुछ जताना कभी
रूठना, पर नहीं है मनाना कभी
है नदी की अगर प्यास से दोस्ती
तो हमें भी हुनर ये सिखाना कभी
मैं लगा ना सकूँ आलता
किस तरह जी लगाते हो तुम?
- मनीषा शुक्ला
***
राजकुमारी रश्मि
रातरानी कहो या कहो चाँदनी
शीश से पाँव तक गीत ही गीत हूँ ।
बाँसुरी की तरह तुम पुकारो मुझे
एक पागल ह्रदय की विकल प्रीत हूँ ।

तुम किसी तौर पर ही निभा लो मुझे
तो लगेगा तुम्हें जीत ही जीत हूँ ।

जो सुवासित करे रोम से प्राण तक
पर्वतों में पली चन्दनी गन्ध हूँ ।
जिसकी अनुगूँज है आज हर कण्ठ में
गीत-गोविन्द का मैं वही छन्द हूँ ।

नेह के भाव में राग-अनुराग में
सात सुर में बँधा एक संगीत हूँ ।

एक आकुल प्रतीक्षा किसी फूल की
हाथ पकड़े पवन को बुलाती रह ।
शोख सूरज किरन चम्पई रंग से
एड़ियों पर महावर लगाती रही ।

प्राण जिसको सहेजे हुए आजतक
लोक व्यवहार की अनकही रीत हूँ ।

वन्दना के स्वरों से सजा लो मुझे
मैं पिघलती हुई टूटती सांस हूँ ।
युग-युगों से बसी है किसी नेह सी
मैं तुम्हारे नयन की वही प्यास हूँ ।

खो दिया था जिसे तुमने मझधार में
तुमसे बिछुड़ी हुई मैं वही मीत हूँ ।
*

रातरानी, हिंदी गजल, मुक्तिका

हिंदी गजल  

मन लुभाए रातरानी आह भर। 
छिप बुलाए रात रानी बाम पर।। 
खत पठाए इशारों में बात कर। 
रुख छिपाए चिलमनों से झाँककर।। 
कहीं जाए तो पलट देखे इधर 
यों जताए देखती है वो उधर।। 
खिलखिलाए लूट मन का चैन ले। 
तिलमिलाए दाँत से लब काटकर।। 
जो न पाए तो बुलावा भेज दे। 
सो न जाए रातरानी जागकर।। 
हाथ आए या न आए क्या पता? 
साथ आए बेखबर हो बाखबर॥ 
आ लुभाए लाल हो  गुलनार सी 
रू-ब-रू हों ख्वाब औ' सच बाँह भर।। 
पूर्णिमा में पूर्णिका 'संजीव' की  
गुनगुनाए झुका नजरें रात भर।।
१५.१.२०२५ 
०००  

जनवरी १५, नवग्रहों के पौधे, सॉनेट, थल सेना, शिव, सूर्य, लघुकथा, संक्रांति, हास्य

सलिल सृजन जनवरी १५
नवग्रहों के पौधे और प्रभाव 
*
नवग्रहों का मानव जीवन पर शुभ और अशुभ दोनों तरह का प्रभाव होता है। शुभ प्रभाव में वृद्धि और अशुभ प्रभाव में कमी के लिए ग्रहों से संबंधित दिन को उससे संबंधित पौधा लगाएँ , पौधे में जल दें, संबंधित मंत्र पढ़ें, पूजन करें। 
कुश (केतु) - इस पौधे को लगाने से केतु ग्रह की खराब स्थिति से मुक्ति मिलती है
सूर्य- मदार/आक/आंकड़ा, सूर्यमुखी, तेजफल, मिर्च, शलजम, सरसों, गेहूं, बेल- पूजन से स्मरण शक्ति वृद्धि ।
चंद्र-पलाश/किंशुक/ ढाक/छेवला- पूजा से मानसिक रोग से मुक्ति।
मंगल- खैर/खदिर, नीम, अदरक, बरगद- पूजा से रक्त विकार और चर्म रोग दूर होते हैं।
बुध- अपामार्ग/लटजीरा- 
बृहस्पति- अश्वत्थ/पीपल, बबूल, बरगद, केला (घर के पिछवाड़े ईशान दिशा में केले का पौधा लगाएँ)- पूजा से ज्ञान-वृद्धि।
शुक्र- ओडम्बर/गूलर, कपास- मंत्र ओम शं शुक्राय नम:, धन, ऐश्वर्य, वैभव प्राप्ति, वैवाहिक माधुरी, गुपर रोग-मुक्ति, भूमि विवाद हो तो शुक्ल पक्ष के किसी शुक्रवार को गूलर की जड़ पर गंगाजल छिड़क, चांदी के ताज़ीब में पहनें। 
शनि- शमी/छयोकर/खेजड़ी/चिकुर, कीकर, आम, खजूर- दिशा वायव्य, लाल कलावा बाँधकर दीपक जलाएँ। पूजा से शनि-प्रकोप शांत। शहद का सेवन करें। लोहे का भारी समान दक्षिण में रखें। 
राहु- दूर्वा/दूब, चंदन, नारियल, लहसुन, काला चना- पूजा से राहु प्रकोप शांत।
केतु- कुश, अश्वगंधा, इमली तिल,- पूजा से केतु प्रकोप शांत।
***
सॉनेट
शंखनाद सुन काँपता है अन्यायी पक्ष
नाश दिख रहा सन्निकट, कोई नहीं उपाय
काल करे आखेट, मर रहे आप निरुपाय
जान रहे हरि पार्थ हैं, कर्मयोग में दक्ष
नर-नारायण रच रहे, मिल नूतन अध्याय
अंधे दंभी चाहते, सत्ता अपने हाथ
साथ न जनगण, पीटते खुद अपने हाथों माथ
मानवता का हो भला, विजयी होगा न्याय
जब जब हो संक्रांति तब होता है बदलाव
साथ नहीं अपने रहें अपनों के, भटकाव
काया-छाया में हुआ हो जैसे अलगाव
केर-बेर के संग से दुनिया हो बदरंग
चाहे अनचाहे छिड़े सत्य असत में जंग
असत मिटे सत जी हो यही प्रकृति का ढंग
१५-१-२०२२
*
सॉनेट
थल सेना दिवस
*
वीर बहादुर पराक्रमी है, भारत की थल सेना। २८
जान हथेली पर ले लड़ती, शत्रु देख थर्राता।
देश भक्ति है इनकी रग में, कुछ न चाहते लेना।।
एक एक सैनिक सौ सौ से, टकराकर जय पाता।।
फील्ड मार्शल करियप्पा थे, पहले सेनानायक।
जिनका जन्म हुआ भारत में, पहला युद्ध लड़ा था।
दुश्मन के छक्के छुड़वाए थे, वे सब विधि लायक।।
उनन्चास में प्रमुख बने थे, नव इतिहास लिखा था।।
त्रेपन में हो गए रिटायर, नव इतिहास बनाकर।
जिस दिन प्रमुख बने वह दिन ही, सेना दिवस कहाता।।
याद उन्हें करते हैं हम सब, सेना दिवस मनाकर।।
देश समूचा बलिदानी से, नित्य प्रेरणा पाता।।
युवा जुड़ें हँस सेनाओं से, बनें देश का गौरव।
वीर कथाओं से ही बढ़ता, सदा देश का वैभव।।
१५-१-२०२२
***
सॉनेट
आशा
*
गाओ मंगल गीत, सूर्य उत्तरायण हुआ।
नवल सृजन की रीत, नव आशा ले धर्म कर।
तनिक न हो भयभीत, कभी न निष्फल कर्म कर।।
काम करो निष्काम, हर निर्मल मन दे दुआ।।
उड़ा उमंग पतंग, आशा के आकाश में।
सीकर में अवगाह, नेह नर्मदा स्नान कर।
तिल-गुड़ पौष्टिक-मिष्ठ, दे-ले सबका मान कर।।
करो साधना सफल, बँधो-बाँध भुजपाश में।।
अग्नि जलाकर नाच, ईर्ष्या-क्रोध सभी जले।
बीहू से सोल्लास, बैसाखी पोंगल मिले।
दे संक्रांति उजास, शतदल सम हर मन खिले।।
निकट रहो या दूर, नेह डोर टूटे नहीं।
मन में बस बन याद, संग कभी छूटे नहीं।
करो सदा संतोष, काल इसे लूटे नहीं।।
१५-१-२०२२
***
अभिनन्दन
डॉ. रविशंकर शर्मा, कुलपति मेडिकल यूनिवर्सिटी जबलपुर
सेवानिवृत्ति पर
*
नदी सनातन नर्मदा, सकल जगत विख्यात
जबलपुर नगरी अमित, सिद्धि भूमि प्रख्यात
विद्यालय मॉडल यहाँ, गुरुकुल भाँति पवित्र
ऋषियों सम गुरुजन सतत, शोभित ज्यों मुनि चित्र
लज्जा शंकर झा सदृश , गुरुवर श्रेष्ठ सुजान
शिवप्रसाद जी निगम सम, अन्य नहीं गुणवान
कानाडे जी समर्पित, शिक्षक लेखक आप्त
रहे गोंटिया जी कुशल, चिंतक कीर्ति सुव्याप्त
रविशंकर बालक हुआ, शिक्षा हेतु प्रविष्ट
गुरु-हाथों ने निखारा, रूप किशोर सुशिष्ट
रट्टू तोता बन नहीं, समझ विषय गह सार
सीख ह्रदय में बसाई, रवि को मिला दुलार
क्षेत्र चिकित्सा का चुना, ह्रदय रोग हो दूर
कैसे चिंता मन बसी, खोज करी भरपूर
एन एस सी बी मेडिकल, कॉलेज में पा काम
विषय चिकित्सा पढ़ाकर, पाई कीर्ति सुनाम
कलर डॉप्लर का किया, सर्व प्रथम उपयोग
एंजियोग्राफी दक्षता, से कुछ कम हो रोग
एंजियोप्लास्टी सीखकर, अपनाई तकनीक
मंत्रोच्चारण का असर, परख गढ़ी नव लीक
ओंs कार उच्चार से, हृद गति हो सामान्य
गायत्री जप शांति दे, पीर हरें आराध्य
सूर्य ग्रहण सँग मनुज तन, कैसे करे निभाव?
शंख नाद ध्वनि-तरंगों, का क्या पड़े प्रभाव?
कूल्हे - गर्दन संग क्या, ह्रदय रोग संबंध?
नवाचार कर शोध से, दी नव रीति प्रबंध
स्टेथो स्कोप नव खोजा, कर नव क्रांति
'ह्रदय मित्र' पत्रिका रही, मिटा निरंतर भ्रांति
'एक्वायर्ड ट्विंस' नाम से, उपन्यास लिख एक
रविशंकर ने दिखाया, कौशल बुद्धि विवेक
'ह्रदय चिकित्सा रीतियाँ', मौलिक ग्रंथ विशेष
लिखा आंग्ल में मिली है, तुमको कीर्ति अशेष
हिंदी में अनुवाद से, भाषा हो संपन्न
पढ़ें चिकित्सा शास्त्र हम, हिंदी में आसन्न
'रविशंकर' ने तलाशी, नयी राह रख चाह
रोग मिटे; रोगी हँसे, दुनिया करती वाह
मॉडेलियन मिल कर रहे, स्वागत आओ मीत
भुज भेंटो मिल गढ़ सकें, हम सब अभिनव रीत
'रविशंकर' ने तलाशे, नए-नए आयाम
हमें गर्व तुम पर बहुत, काम किया निष्काम
कुलपति पद शोभित हुआ, तुमको पाकर मित्र !
प्रमुदित यूनिवर्सिटी है, प्रसरित दस दिश इत्र
हाथ मिलकर हाथ से, रखें कदम हम साथ
श्रेष्ठ बनायें शहर को, रहें उठाकर माथ
***
शब्द सुमन : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
विश्ववाणी हिंदी संस्थान
४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर
९४२५१८३२४४, ७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com
मनोरमा दोहा कली, खिले बिखेरे गंध।
रस लय भावों से करे, शब्द शब्द अनुबंध।।
१५-१-२०२०
***
शिव पर दोहे
शिव को पा सकते नहीं, शिव से सकें न भाग।
शिव अंतर्मन में बसे, मिलें अगर अनुराग।।
*
शिव को भज निष्काम हो, शिव बिन चले न काम।
शिव-अनुकंपा नाम दे, शिव हैं आप अनाम।।
*‍
वृषभ-देव शिव दिगंबर, ढँकते सबकी लाज।
निर्बल के बल शिव बनें, पूर्ण करें हर काज।।
*
शिव से छल करना नहीं, बल भी रखना दूर।
भक्ति करो मन-प्राण से, बजा श्वास संतूर।।
*
शिव त्रिनेत्र से देखते, तीन लोक के भेद।
असत मिटा, सत बचाते, करते कभी न भेद।।
१५.१.२०१८
एफ १०८ सरिता विहार, दिल्ली
***
नवगीत:
.
आओ भी सूरज!
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ
गाओ भी सूरज!
.
करधन दिप-दिप दमक रही है
पायल छन-छन छनक रही है
नच रहे हैं झूमकर मादल
बुराई हर अलावों में जलाओ
आओ भी सूरज!
.
खिचड़ी तिल-गुड़वाले लडुआ
पिज्जा तजकर खाओ बबुआ
छोड़ बोतल उठा लो छागल
पड़ोसी को खुशी में साथ पाओ
आओ भी सूरज!
...
लघुकथा-
पतंग
*
- बब्बा! पतंग कट गयी....
= कट गयी तो कट जाने दे, रोता क्यों है? मैंने दूसरी लाकर रखी है, वह लेकर उड़ा ले।
- नहीं, नयी पतंग उड़ाऊँगा तो बबलू फिर काट देगा।
= काट देगा तो तू फिर नयी पतंग ले जाना और उड़ाना
- लेकिन ऐसा कब तक करूँगा?
= जब तक तू बबलू की पतंग न काट दे। जीतने के लिये हौसला, कोशिश और जुगत तीनों जरूरी हैं। चरखी और मंझा साथ रखना, पतंग का संतुलन साधना, जिस पतंग को काटना हो उस पर और अपनी पतंग दोनों पर लगातार निगाह रखना, मौका खोजना और झपट्टा मारकर तुरंत दूर हो जाना, जब तक सामनेवाला सम्हाले तेरा काम पूरा हो जाना चाहिए। कुछ समझा?
- हाँ, बब्बा! अभी आता हूँ काटकर बबलू की पतंग।
***
लघुकथा -
संक्रांति
*
- छुटका अपनी एक सहकर्मी को आपसे मिलवाना चाहता है, शायद दोनों....
= ठीक है, शाम को बुला लो, मिलूँगा-बात करूँगा, जम गया तो उसके माता-पिता से बात की जाएगी।बड़की को कहकर तमिल ब्राम्हण, छुटकी से बातकर सरदार जी और बड़के को बताकर असमिया को भी बुला ही लो।
- आपको कैसे?... किसी ने कुछ.....?
= नहीं भई, किसी ने कुछ नहीं कहा, उनके कहने के पहले ही मैं समझ न लूँ तो उन्हें कहना ही पड़ेगा। ऐसी नौबत क्यों आने दूँ? हम दोनों इस घर-बगिया में सूरज-धूप की तरह हैं। बगिया में किस पेड़ पर कौन सी बेल चढ़ेगी, इसमें सूरज और धूप दखल नहीं देते, सहायता मात्र करते हैं।
- किस पेड़ पर कौन सी बेल चढ़ाना है यह तो माली ही तय करता है फिर हम कैसे यह न सोचें?
= ठीक कह रही हो, किस पेड़ों पर किन लताओं को चढ़ाना है, यह सोचना माली का काम है। इसीलिये तो वह माली ऊपर बैठे-बैठे उन्हें मिलाता रहता है। हमें क्या अधिकार कि उसके काम में दखल दें?
- इस तरह तो सब अपनी मर्जी के मालिक हो जायेंगे, घर ही बिखर जायेगा।
= ऐसे कैसे बिखर जायेगा? हम संक्रांति के साथ-साथ पोंगल, लोहड़ी और बीहू भी मना लिया करेंगे, तब तो सब एक साथ रह सकेंगे। सब अँगुलियाँ मिलकर मुट्ठी बनेंगीं तभी तो मनेगी संक्रांति।
१५.१.२०१६
***
नवगीत:
.
आओ भी सूरज!
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ
गाओ भी सूरज!
.
करधन दिप-दिप दमक रही है
पायल छन-छन छनक रही है
नच रहे हैं झूमकर मादल
बुराई हर अलावों में जलाओ
आओ भी सूरज!
.
खिचड़ी तिल-गुड़वाले लडुआ
पिज्जा तजकर खाओ बबुआ
छोड़ बोतल उठा लो छागल
पड़ोसी को खुशी में साथ पाओ
आओ भी सूरज!
***
नवगीत:
.
काल है संक्रांति का
तुम मत थको सूरज!
.
दक्षिणायन की हवाएँ
कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी
काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती
फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश
से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रान्ति को
तुम मत रुको सूरज!
*
उत्तरायण की फिज़ाएँ
बनें शुभ की बाड़
दिन-ब-दिन बढ़ता रहे सुख
सत्य की हो आड़
जनविरोधी सियासत को
कब्र में दो गाड़
झाँक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
ढाल हो चिर शांति का
तुम मत झुको सूरज!
***
अभिनव प्रयोग:
नवगीत
.
जब लौं आग न बरिहै तब लौं,
ना मिटहै अंधेरा
सबऊ करो कोसिस मिर-जुर खें
बन सूरज पगफेरा
.
कौनौ बारो चूल्हा-सिगरी
कौनौ ल्याओ पानी
रांध-बेल रोटी हम सेंकें
खा रौ नेता ग्यानी
झारू लगा आज लौं काए
मिल खें नई खदेरा
.
दोरें दिखो परोसी दौरे
भुज भेंटें बम भोला
बाटी भरता चटनी गटखें
फिर बाजे रमतूला
गाओ राई, फाग सुनाओ
जागो, भओ सवेरा
१५-१-२०१५
(बुंदेलों लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फाग की तर्ज़ पर प्रति पर मात्रा १६-१२)
***
नवगीत:
सड़क पर....
*
सड़क पर
मछलियों ने नारा लगाया:
'अबला नहीं, हम हैं
सबला दुधारी'.
मगर काँप-भागा,
तो घड़ियाल रोया.
कहा केंकड़े ने-
मेरा भाग्य सोया.
बगुले ने आँखों से
झरना बहाया...
*
सड़क पर
तितलियों ने डेरा जमाया.
ज़माने समझना
न हमको बिचारी.
भ्रमर रास भूला
क्षमा माँगता है.
कलियों से काँटा
डरा-काँपता है.
तूफां ने डरकर
है मस्तक नवाया...
*
सड़क पर
बिजलियों ने गुस्सा दिखाया.
'उतारो, बढ़ी कीमतें
आज भारी.
ममता न माया,
समता न साया.
हुआ अपना सपना
अधूरा-पराया.
अरे! चाँदनी में है
सूरज नहाया...
*
सड़क पर
बदलियों ने घेरा बनाया.
न आँसू बहा चीर
अपना भीगा री!
न रहते हमेशा,
सुखों को न वरना.
बिना मोल मिलती
सलाहें न धरना.
'सलिल' मिट गया दुःख
जिसे सह भुलाया...
१५-१-२०१५
***
हास्य सलिला:
चैलेन्ज
*
लाली ने चैलेन्ज दिया: 'ए जी लल्लू के पप्पा!
पल भर को गुस्साऊं अगले पल गुस्से से कुप्पा
बोलो ऐसे बोल बोलकर क्या तुम दिखला सकते?
सफल हुए तो पैर दबाने से छुट्टी पा सकते'
अक्ल लगाकर लालू बोले: 'हे प्राणों से प्यारी!'
लाली मुस्का, गुर्राई सुन: 'मेरी मति गयी मारी
ब्याही तुमको जीभ न देखी जो है तेज दोधारी'
रूठीं तुम, मैं सुखी हुआ, ए लल्ली की महतारी!
पैर दबाने से छुट्टी पा मैं सचमुच आभारी'
लाली गरजी: 'कपड़ा, बर्तन करो न जाओ बाहर
बाई आयी नहीं, काम निबटाओ हे नर नाहर!
***
***
हास्य कविता:
लालू -लाली कॉमेडी शो
*
लालू से लाली हँस बोली: 'सुबह-सुबह सच सुन लो
भाग जगे जो मुझ सी बीबी पायी सपने बुन लो
अलादीन का ले चराग खोजो तो भी हारोगे
मुझ सी बीबी मिल न सकेगी, मुझ पर जां वारोगे'
लालू बोले: ' गलती की है एक बार सच मनो
दोबारा दोहराऊंगा मैं कभी नहीं सच जानो'
लालू-लाली की खिचखिच सुन बच्चे फिर मुस्काये
इनका कॉमेडी शो असली से ज्यादा मन भाये
१५.१.२०१४
---
मकर-संक्रान्ति
भारत वस्तुतः गाँवों का देश है. यहाँ के गाँव प्रकृति और प्राकृतिक परिवर्त्तनों से अधिक प्रभावित होते हैं, बनिस्पत अन्य भौतिक कारणों से. चाहे भौगोलिक रूप से देश के किसी परिक्षेत्र में हों, गाँव प्रकृतिजन्य घटनाओं से विशेष रूप से प्रभावित होते हैं. गाँवों की व्यावसायिक गतिविधियाँ मुख्यतः कृषि पर निर्भर करती है. यही कारण है, कि अपने देश को कृषिप्रधान देश कहा जाता रहा है. कृषि-कार्य के क्रम में प्राकृतिक (और खगोलीय) गतिविधियों पर हमारी निर्भरता हमारे सम्पूर्ण
क्रियाकलाप में दीखती है. सभी छः ऋतुओं के चक्र, दैनिक प्रात-रात का प्रभाव, धरती की घुर्णन गति से होने वाले परिवर्त्तन, चन्द्र कलाओं का प्रभाव, सूर्य के परिवृत धरती का परिधि बनाना, सारा कुछ हमारी दैनिक क्रियाओं को प्रभावित करते हैं.
सूर्य का उत्तरायण या दक्षिणायण होना ऋतुओं के एक पूरे समुच्चय (सेट) को परे हटा कर एक नये ऋतु-समुच्चय के आगमन का कारण होता है. पृथ्वी पर सूर्य की स्थिति वस्तुतः पृथ्वी की मुख्यतः तीन मान्य काल्पनिक रेखाओं के सापेक्ष नियत मानी जाती है --विषुवत् रेखा के समानान्तर उत्तरी गोलार्द्ध में कर्क-रेखा तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में मकर रेखा. सूर्य की ये स्थितियाँ पृथ्वी के अपने अक्ष पर साढ़े तेइस डिग्री नत (झुके) होने के कारण आभासी होती हैं. सूर्य का मकर रेखा के ऊपर अवस्थित होना भारत की भौगोलिक स्थिति के लिहाज से शीत काल के ऋतु-चक्र का कारण बनता है जबकि कर्क रेखा के ऊपर होना ग्रीष्म की सभी ऋतु-समुच्चयों के होने का कारण होता है. दोनों घटनाओं के मध्य का परिवर्त्तन-समय संक्रान्ति-काल कहा जाता है.
सूर्य का दक्षिणायण होना मानव की तमसकारी प्रवृतियों के उत्कट होने का द्योतक है. समस्त प्रकृति और प्राकृतिक गतिविधियाँ एक तरह से ठहराव की स्थिति में आ जाती हैं. सकारात्मक वृत्तियाँ निष्प्रभावी सी हो जाती हैं या कायिक-मानसिक दृष्टि से सुषुप्तावस्था की स्थिति हावी रहती है. इस के उलट सूर्य का उत्तरायण होना कायिक, मानसिक तथा प्राकृतिक रूप से सकारात्मक वृत्तियों के प्रभावी होने का द्योतक है. मानव-मन के चित्त पर सद्-विचारों का प्रभाव काया पर तथा मानवीय काया का सुदृढ़ नियंत्रण समस्त क्रियाकलाप पर स्पष्ट दीखने लगता है. अतः, भारत के लिहाज से सूर्य का उत्तरायण होना उत्साह और ऊर्जा के संचारित होने का काल है. यही कारण है कि यह समय सूर्य की खगोलीय स्थिति पर निर्भर होने के कारण सौर-तिथि विशेष के सापेक्ष नियत होता है. संक्षेप में कहें तो ’मकर-संक्रान्ति’ सूर्य के दक्षिणी गोलार्द्ध से उत्तरी गोलार्द्ध में स्थानान्तरित हो कर स्थायी होने का परिचायक है.
पूरे भारत वर्ष में यह पर्व सोत्साह मनाया जाता है. भाषायी लिहाज से इसका नाम चाहे जो हो, किन्तु, पर्व की मूल अवधारणा मनस-उत्फुल्लता, चैतन्य-चित्त और कृषि-प्रयास को ही इंगित करती है. ग्रेग्रोरियन कैलेन्डर के अनुसार चौदह या पन्द्रह जनवरी का दिन ’मकर-संक्रान्ति’ का नियत दिन है.
यह दिन भारत के भिन्न प्रदेश में उत्साहपूर्वक मनाया जाता है. क्यों न हम देश के कुछ प्रदेशों में पर्व के मनाये जाने की विधियाँ देखें.
इनमें से कई प्रदेशों में इस पर्व-समारोह में मुझे सम्मिलित होने का सुअवसर मिला है जो मेरी ज़िन्दग़ी के सबसे कीमती अध्यायों में से है -
उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश में इस दिन को ’खिचड़ी’ के नाम से जानते हैं. पवित्र नदियों, जैसे कि गंगा, में प्रातः स्नान कर दान-पुण्य किया जाता है. तिल का दान मुख्य होता है. तिल आर्युवेद के अनुसार गर्म तासीर का होता है. अतः तिल के पकवान-मिष्टान्न का विशेष महत्त्व है. सूबे में प्रयाग क्षेत्र में संगम के घाट पर एक मास तक चलने वाला ’माघ-मेला’ विशेष आकर्षण हुआ करता है. वाराणसी, हरिद्वार और गढ़-मुक्तेश्वर में भी स्नान का बहुत ही महत्त्व है. हम सभी ’ऊँ विष्णवै नमः’ कह कर तिल, गुड़(Jaggery), अदरक, नया चावल, उड़द की छिलके वाली दाल, बैंगन, गोभी, आलू और क्षमतानुसार धन का दान करते हैं जो कि इस पर्व का प्रमुख कर्म है. और, चावल-दाल की स्वादिष्ट खिचड़ी का भोजन भला कौन भूल सकता है, यह कहते हुए --’खिचड़ी के चार यार, दही पापड़ घी अचार ’ !
बिहार
बिहार में सारी विधियाँ उत्तर प्रदेश की परंपरा के अनुसार ही मनाते हैं. पवित्र नदियों का स्नान और दान-पुण्य मुख्य कर्म है. गंगा में स्नान का विशेष महत्त्व है. साथ ही साथ मिथिलांचल और बज्जिका क्षेत्र (मुज़फ़्फ़रपुर मण्डल) में इस दिन ’दही-चूड़ा’ खाने का विशेष महत्त्व है. और खिचड़ी का सेवन तो है ही ! साथ में गन्ना खाने की भी परिपाटी है.
बंगाल
गंगा-सागर, जहाँ पतित-पाविनी गंगा का समुद्र से महा-मिलन होता है, में बहुत बड़ा मेला लगता है. गंगा-सागर में ऐसा प्रतीत होता है कि भगीरथ के घोर तपस के परिणाम से राजा सगर के श्रापग्रस्त साठ हजार पुत्रों की मुक्ति का कारण बनी गंगा कर्म-पूर्णता के पश्चात निर्भाव बनी उन्मीलित हुई जा रही है. यहाँ भी तिल का दान मुख्य कर्म है.
तमिलनाडु
मकर-संक्रान्ति पर्व को तमिलनाडु में ’पोंगल’ के नाम से जानते हैं, जोकि एक तरह का पकवान है. पोंगल चावल, मूँगदाल और दूध के साथ गुड़ डाल कर पकाया जाता है. यह एक तरह की खिचड़ी ही है. तमिलनाडु में पोंगल सूर्य, इन्द्र देव, नयी फसल तथा पशुओं को समर्पित पर्व है जोकि चार दिन का हुआ करता है और अलग-अलग नामों से जाना जाता है. इसकी कुल प्रकृति उत्तर भारत के ’नवान्न’ से मिलती है.
पर्व का पहला दिन भोगी पोंगल के रूप में मनाते हैं. भोगी इन्द्र को कहते हैं. इस तड़के प्रातः काल में कुम्हड़े में सिन्दूर डाल कर मुख्य सड़क पर पटक कर फोड़ा जाता है. आशय यह होता है कि इन्द्र बुरी दृष्टि से परिवार को बचाये रखे. घरों और गलियों में सफाई कर जमा हुए कर्कट को गलियों में ही जला डालते हैं. पर्व का दूसरा दिन सुरियन पोंगल के रूप में जाना जाता है. यह दिन सूर्य की पूजा को समर्पित होता है. इसी दिन नये चावल और मूंगदाल को गुड़ के साथ दूध में पकाया जाता है. तीसरा दिन माडु पोंगल कहलाता है. माडु का अर्थ ’गाय’ या ’गऊ’ होता है. गाय को तमिल भाषा में पशु भी कहते हैं. इस दिन कृषि कार्य में प्रयुक्त होने वाले पशुओं को ढंग-ढंग से सजाते हैं. और पशुओं से सम्बन्धित तरह-तरह के समारोह आयोजित होते हैं. यह दिन हर तरह से विविधता भरा दिन होता है. इस दिन को मट्टू पोंगल भी कहते हैं. आखिरी दिन अर्थात् चौथा दिन कनिया पोंगल के नाम से जाना जाता है. इस दिन कन्याओं की पूजा होती है. आम्र-पलल्व और नारियल के पत्तों से दरवाजे पर तोरण बनाया जाता है. महिलाएं इस दिन घर के मुख्य द्वारा पर कोलम यानी रंगोली बनाती हैं. आखिरी दिन होने से यह दिन बहुत ही धूमधाम के साथ मनाते हैं. लोग नये-नये वस्त्र पहनते है और उपहार आदि का आदान-प्रदान करते हैं.
आंध्र प्रदेश
आंध्र में पोंगल कमोबेश तमिल परिपाटियों के अनुसार ही मनाते हैं. अलबत्ता भाषायी भिन्नता के कारण दिनों के नाम अवश्य बदल जाते हैं. आंध्र में इस पर्व को पेड्डा पोंगल कहते हैं, यानि बहुत ही बड़ा उत्सव ! पहले दिन को भोगी पोंगलकहते हैं, दूसरा दिन संक्रान्ति कहलाता है. तीसरे दिन को कनुमा पोंगल कहते हैं जबकि चौथा दिन मुक्कनुमा पोंगल के नाम से जाना जाता है. उत्साह और विविधता में आंध्र का पर्व तमिलनाडु से कत्तई कम नहीं होता है.
महाराष्ट्र
महाराष्ट्र में मकर-संक्रान्ति को संक्रान्ति के नाम से ही जानते हैं. यहाँ तिल और गुड़ का अत्यंत विशेष महत्त्व है. गुड़ को महराष्ट्र में गुळ का उच्चारण देते हैं. लोग-बाग एक-दूसरे को ’तिल-गुळ घ्या, गोड़-गोड़ बोला’ यानि ’तिल-गुड़ लीजिये, मीठा-मीठा बोलिये’ कह कर शुभकामनाएँ देते हैं. नये-नये वस्त्र पहनना आज की विशेष परिपाटी है. प्रदेश में सधवा महिलाओं द्वारा हल्दी-कुंकुम की रस्म भी मनायी जाती है, जिसके अनुसार एक स्थान की सभी सुहागिनें जुट कर एक-दूसरे को सिन्दूर लगाती हैं और सदा-सुहागिन रहने का आशीष लेती-देती हैं. महाराष्ट्र में पतंग उड़ाने की परिपाटी है. आकाश पतंगों से भर जाता है.
कर्नाटक
इस प्रदेश में यह पर्व सम्बन्धियों और रिश्तेदारों या मित्रों से मिलने-जुलने के नाम समर्पित है. यहाँ इस दिन पकाये जाने वाले पकवान को एल्लु कहते हैं, जिसमें तिल, गुड़ और नारियल की प्रधानता होती है. उत्तर भारत में इसी तर्ज़ पर काली तिल का तिलवा बनाते और खाते हैं. पूरे कर्नाटक प्रदेश में एल्लु और गन्ने को उपहार में लेने और देने का रिवाज़ है. इस पर्व को इस प्रदेश में संक्रान्ति ही कहते हैं. यहाँ भी चावल और गुड़ का पोंगल बना कर खाते हैं और उसे पशुओं को खिलाया जाता है. यहाँ ’एल्लु बेल्ला थिन्डु, ओल्ले मातु आडु’ यानि ’तिल-गुड़ खाओ और मीठा बोलो’ कह कर सभी अपने परिचितों और प्रिय लोगों को एक दूसरे को शुभकामनाएँ देते हैं.
गुजरात
गुजरात में यह रस्म महाराष्ट्र की तरह ही मनाते हैं. बस उपहार लेने-देने की विशेष परिपाटी है जहाँ घर के मुखिया अपने परिवारिक सदस्यों को कुछ न कुछ उपहार देते हैं. तिल-गुड़ के तिलवे या लड्डू को मुख्य रूप से खाते हैं.
सर्वोपरि होती है, पतंगबाजी. स्नानादि कर बाल-वृद्ध, स्त्री-पुरुष सभी मैदान या छत पर पतंग और लटाई ले कर निकल पड़ते हैं.
पतंगबाजी गुजरात प्रदेश की पहचान बन चुकी है और प्रदश के कई जगहों पर इसकी प्रतियोगिताएँ होती हैं. अब तो पतंगबाजी की अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताएँ भी आयोजित होने लगी हैं. पूरे गुजरात प्रदेश में पतंग उड़ाना शुभ माना जाता है.
पंजाब
इस समय पंजाब प्रदेश में अतिशय ठंढ पड़ती है. यहाँ इस पर्व को ’लोहड़ी’ कहते हैं जो कि मकर संक्रान्ति की पूर्व संध्या को मनाते हैं. इस दिन अलाव जला कर उसमें नये अन्न और मुंगफलियाँ भूनते हैं और खाते-खिलाते हैं. ठीक दूसरे दिन की सुबह संक्रान्ति का पर्व मनाया जाता है. जिसे ’माघी’ कहते हैं.
असम (अहोम)
इस पर्व को भोगली बिहू के नाम से जना जाता है. बिहू असम प्रदेश का बहुत ही प्रसिद्ध और उत्सवभरा पर्व है. इस दिन कन्याएँ विशेष नृत्य करती हैं जिसे बिहू ही कहते हैं. भोगली शब्द भोग से आया है, जिसका अर्थ है खाना-पीना और आनन्द लेना. खलिहान धन-धान्य से भरा होने का समय आनन्द का ही होता है. रात भर खेतों और खुले मैदानों में अलाव जलता है जिसे मेजी कहते हैं. उसके गिर्द युवक-युवतियाँ ढोल की आनन्ददायक थाप पर बिहू के गीत गाते हैं और बिहू नृत्य होता है जो कि असम प्रदेश की पहचान भी है.
केरल
केरल में सबरीमलै पर अयप्पा देवता का बड़ा ही महातम है. उनकी पूजा-प्रक्रिया चालीस दिनों तक चलती है और चालीसवाँ दिन संक्रान्ति के दिन होता है जिसे बहुत ही धूमधाम से मनाते हैं. सारे भक्त काले वस्त्र पहन कर कठिन साधना करते हैं.
इस तरह से देखें तो मकर-संक्रान्ति का पर्व पूरे भारत में सोल्लास मनाया जाता है. दूसरे, यह भी देखा जाता है कि तिल, नये चावल, गुड़ और गन्ने का विशेष महत्त्व है. सर्वोपरि, भारत के पशुधन की महत्ता को स्थापित करता यह पर्व इस भूमि का पर्व है.
आइये, हम मकर-संक्रान्ति का पर्व सदाचार और उल्लास से मनाएँ और सभी के साथ मीठा-मीठा बोलें.
१५.१.२०१३
***
नवगीत:
सड़क पर....
*
सड़क पर
मछलियों ने नारा लगाया:
'अबला नहीं, हम हैं
सबला दुधारी'.
मगर काँप-भागा,
तो घड़ियाल रोया.
कहा केंकड़े ने-
मेरा भाग्य सोया.
बगुले ने आँखों से
झरना बहाया...
*
सड़क पर
तितलियों ने डेरा जमाया.
ज़माने समझना
न हमको बिचारी.
भ्रमर रास भूला
क्षमा मांगता है.
कलियों से कांटा
डरा-कांपता है.
तूफां ने डरकर
है मस्तक नवाया...
*
सड़क पर
बिजलियों ने गुस्सा दिखाया.
'उतारो, बढ़ी कीमतें
आज भारी.
ममता न माया,
समता न साया.
हुआ अपना सपना
अधूरा-पराया.
अरे! चाँदनी में है
सूरज नहाया...
*
सड़क पर
बदलियों ने घेरा बनाया.
न आँसू बहा चीर
अपना भीगा री!
न रहते हमेशा,
सुखों को न वरना.
बिना मोल मिलती
सलाहें न धरना.
'सलिल' मिट गया दुःख
जिसे सह भुलाया...
१५.१.२०११
***

मंगलवार, 14 जनवरी 2025

जनवरी १४, लोहड़ी, दुल्ला भट्टी, गीत, सॉनेट, संक्रांति, दोहागीत, लघुकथा,

 सलिल सृजन जनवरी १४

संस्कृति
लोहड़ी का गीत : सुंदर मुंदरीए होए
*
लोहड़ी उत्तर भारत विशेषकर हरियाणा और पंजाब का एक प्रसिद्ध त्योहार है। लोहड़ी पर्व पर लोगों के घर जा कर लोहड़ी जलाने के लिए लकड़ियाँ माँगी जाती हैं और दुल्ला भट्टी के गीत गाए जाते हैं। लोहड़ी के की शाम को लोग सामूहिक रूप से आग जलाकर उसकी पूजा करते हैं। महिलाएँ आग के चारों और चक्कर काट-काटकर लोकगीत गाती हैं। कहते हैं कि अकबर के शासन काल में दुल्ला भट्टी एक लुटेरा था लेकिन वह हिंदू लड़कियों को गुलाम के तौर पर बेचे जाने का विरोधी था। उन्हें बचा कर वह उनकी हिंदू लड़कों से शादी करा देता था। उसे लोग पसंद करते थे। लोहड़ी गीतों में उसके प्रति आभार व्यक्त किया जाता है।’ कहा जाता है कि एक मुस्लिम फ़क़ीर ने एक हिन्दू अनाथ लड़की को पाला था। फिर जब लड़की जवान हुई तो उस फ़कीर ने उस लड़की की शादी के लिए घूम-घूम कर पैसे इकट्ठे किए और फिर धूमधाम से उसका विवाह किया। इस त्यौहार से जुड़ी और भी कई किवदंतियां हैं। कहा जाता है कि सम्राट अकबर के ज़माने में लाहौर से उत्तर की ओर पंजाब के इलाक़ों में दुल्ला भट्टी नामक एक दस्यु या डाकू हुआ था, जो धनी ज़मींदारों को लूटकर ग़रीबों की मदद करता था। इस गीत का नातालोक नायक दुल्ला भट्टी से ज़रूर है। यह गीत आज भी लोहड़ी के मौक़े पर ख़ूब गया जाता है।
*
लोहड़ी का गीत
सुंदर मुंदरीए होए
तेरा कौन बचारा होए
दुल्ला भट्टी वाला होए
तेरा कौन बचारा होए
दुल्ला भट्टी वाला होए
दुल्ले धी ब्याही होए
सेर शक्कर पाई होए
कुड़ी दे लेखे लाई होए
घर घर पवे बधाई होए
कुड़ी दा लाल पटाका होए
कुड़ी दा शालू पाटा होए
शालू कौन समेटे होए
अल्ला भट्टी भेजे होए
चाचे चूरी कुट्टी होए
ज़िमींदारां लुट्टी होए
दुल्ले घोड़ दुड़ाए होए
ज़िमींदारां सदाए होए
विच्च पंचायत बिठाए होए
जिन जिन पोले लाई होए
सी इक पोला रह गया
सिपाही फड़ के ले गया
आखो मुंडेयो टाणा टाणा
मकई दा दाणा दाणा
फकीर दी झोली पाणा पाणा
असां थाणे नहीं जाणा जाणा
सिपाही बड्डी खाणा खाणा
अग्गे आप्पे रब्ब स्याणा स्याणा
यारो अग्ग सेक के जाणा जाणा
लोहड़ी दियां सबनां नूं बधाइयां
***
दोहा सलिला
सूर्य रश्मि लोरी सुना, कहे जगो हे राम!
राजकुमार उठो करो, धन्य धरा भू धाम।।
कोहरा घूँघट ओट से, कर चितवन का वार।
रश्मि निमंत्रण दे करो, सबसे सब दिन प्यार।।
वाक् ब्रह्म है नाद हरि, ताल- थाप शिव जान।
स्वर सरगम शारद-रमा, उमा तान मतिमान।।
योग प्रयोग करें सतत, मिट जाए हर रोग।
हों वियोग अति भोग से, संयम सदा सुयोग।।
मिला मुकद्दर मुफ्त में, मान महज मेहमान।
अवसर-कशिश की कशिश, घरवाली वत जान।।
श्याम पूर्ण हो शुभ्र से, शुभ्र श्याम से पूर्ण।
शुभ न अशुभ बिन शुभ रहे, अशुभ बिना शुभ चूर्ण।।
कर अक्षर आराधना, होगा नहीं अभाव।
भाव शब्द में रस भरे, सब से कर निभाव।।
१४.१.२०२४
शोक गीत
जोशीमठ बर्बाद कर दिया है विकास के नाम पर।
थू थू थू धृतराष्ट्री शासन थू थू तेरे काम पर।।
प्रकृति प्रेमी चेताते थे, हुआ प्रशासन था बहरा।
शासन ने भी बात न मानी, स्वार्थ-राज अंधा ठहरा।।
जंगल काट लिए धरती माँ का है चीर हरा तुमने।
कच्चे नए पहाड़ों की छाती छलनी की दानव ने।।
दुःशासन-शासन को तरस न आता किस्मत वाम पर।
जोशीमठ बर्बाद कर दिया है विकास के नाम पर।
थू थू थू धृतराष्ट्री शासन थू थू तेरे काम पर।।
आँसू बहा रही हैं नदियाँ, चीख रहे पर्वत-टीले।
आर्तनाद करती है जनता, नयन सभी के हैं गीले।।
नेता-अफसर-सेठ काटते माल तिजोरी भरते हैं।
सरकारी धन चारा समझें, बेरहमी से चरते हैं।।
सपने टूट गए, सिर पीटें राहत के पैगाम पर।
जोशीमठ बर्बाद कर दिया है विकास के नाम पर।
थू थू थू धृतराष्ट्री शासन थू थू तेरे काम पर।।
चेताया केदारनाथ ने, लेकिन तनिक नहीं चेते।
बना-बना सीमेंट कंठ गिरि-पर्वत के तुमने रेते।।
पॉवर प्लांट बना न्योता है खुद विनाश को तुमने ही।
बर्फ ग्लेशियर पिघल रहे, यह बतलाया इसरो ने भी।।
धँसती धरा' मशीन दानवी है अभिशाप अवाम पर।
जोशीमठ बर्बाद कर दिया है विकास के नाम पर।
थू थू थू धृतराष्ट्री शासन थू थू तेरे काम पर।।
विस्फोटों से कँपी दिशाएँ, आसमान भी दहल गया।
भाषण-आश्वासन सुन भोला जनगण- जनमत बहल गया।।
बाँध-सुरंगों को रोको, भू संरक्षण तत्काल करो।
दूब-पौध से आच्छादित कर धरती को नवजीवन दो।।
पूर्ण नाश के पहले सम्हले, शासन जीवन-शाम पर।
जोशीमठ बर्बाद कर दिया है विकास के नाम पर।
थू थू थू धृतराष्ट्री शासन थू थू तेरे काम पर।।
सकल हिमालय की घाटी पर खतरा कम मत आँको तुम।
दोष न औरों को दो, अपने अंतर्मन में झाँको तुम।।
जनगण मन ने किया भरोसा, सिसक रहा है ठगा गया।
गया पुराना भी हाथों से, आया हाथ विनाश नया।।
हाय राम! तुम चीख न सुनते, मुग्ध हुए श्री राम पर।
जोशीमठ बर्बाद कर दिया है विकास के नाम पर।
थू थू थू धृतराष्ट्री शासन थू थू तेरे काम पर।।
१४-१-२०२३
•••
सॉनेट
संक्रांति
*
भुवन भास्कर शत अभिनंदन।
दक्षिणायणी था अब तक पथ।
उत्तरायणी होगा अब रथ।।
अर्पित अक्षत रोली चंदन।।
करूँ पुष्प बंधूक समर्पित।
दो संक्रांति काल को मति-गति।
शारद-रमा-उमा की हो युति।।
विधि-हरि-हर मन-मंदिर अर्चित।।
चित्र गुप्त उज्जवल हो अपना।
शुभ सबका, अब रहे न सपना।
सत-शिव-सुंदर हो प्रभु! नपना।।
पोंगल बैसाखी हँस गाए।
बीहू सबको गले लगाए।
मिल खिचड़ी गुड़ लड्डू खाए।।
१४-१-२०२२
***
सॉनेट
रस
*
रस जीवन का सार है।
रस बिन नीरस जिंदगी।
रसमय प्रभु की बंदगी।।
सरस ईश साकार है।।
नीरसता भाती नहीं।
बरस बरस रस बरसता।
रस पाने मन तरसता।।
पारसता आती नहीं।।
परस मिले प्रिय का सदा।
चरस दूर हो सर्वदा।
दरस ईश का हो बदा।
हो रसलीन करूँ सृजन।।
रसानंद पा कर जतन।।
हो रसनिधि रसखान मन।।
१४-१-२०२२
***
गीत
सरकार
*
बेगानी है सरकार
*
करते न जो कहते तुम
कैसे भरोसा हो?
कहते न जो करते तुम।
जनता को दिया बिसार
अब दीख रहा तुमको
मनमानी में ही सार।
बेगानी है सरकार
*
किस्मत के भरोसे ही
आवाज दे रहे हैं
सुनते ही नहीं बहरे।
सुलझे कैसे तकरार
दूर न करते पीर
अनसुनी रही इसरार।
बेगानी है सरकार
***
दोहागीत
संकट में हैं प्राण
*
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
अफसरशाही मत्त गज
चाहे सके उखाड़
तना लोकमत तोड़ता
जब-तब मौका ताड़
दलबंदी विषकूप है
विषधर नेता लोग
डँसकर आँसू बहाते
घड़ियाली है सोग
ईश्वर देख; न देखता
कैसे होगा त्राण?
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
धनपति चूहे कुतरते
स्वार्थ साधने डाल
शोषण करते श्रमिक का
रहा पेट जो पाल
न्यायतंत्र मधु-मक्षिका
तौला करता न्याय
सुविधा मधु का भोगकर
सूर करे अन्याय
मुर्दों का सा आचरण
चाहें हों संप्राण
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
आवश्यकता-डाल पर
आम आदमी झूल
चीख रहा है 'बचाओ
श्वास-श्वास है शूल
पत्रकार पत्ते झरें
करें शहद की आस
आम आदमी मर रहा
ले अधरों पर प्यास
वादों को जुमला कहे
सत्ता डँस; ले प्राण
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
१४-१-२०२१
नवगीत
दूर कर दे भ्रांति
*
दूर कर दे भ्रांति
आ संक्राति!
हम आव्हान करते।
तले दीपक के
अँधेरा हो भले
हम किरण वरते।
*
रात में तम
हो नहीं तो
किस तरह आये सवेरा?
आस पंछी ने
उषा का
थाम कर कर नित्य टेरा।
प्रयासों की
हुलासों से
कर रहां कुड़माई मौसम-
नाचता दिनकर
दुपहरी संग
थककर छिपा कोहरा।
संक्रमण से जूझ
लायें शांति
जन अनुमान करते।
*
घाट-तट पर
नाव हो या नहीं
लेकिन धार तो हो।
शीश पर हो छाँव
कंधों पर
टिका कुछ भार तो हो।
इशारों से
पुकारों से
टेर सँकुचे ऋतु विकल हो-
उमंगों की
पतंगें उड़
कर सकें आनंद दोहरा।
लोहड़ी, पोंगल, बिहू
जन-क्रांति का
जय-गान करते।
*
ओट से ही वोट
मारें चोट
बाहर खोट कर दें।
देश का खाता
न रीते
तिजोरी में नोट भर दें।
पसीने के
नगीने से
हिंद-हिंदी जगजयी हो-
विधाता भी
जन्म ले
खुशियाँ लगाती रहें फेरा।
आम जन के
काम आकर
सेठ-नेता काश तरते।
१२-१-२०१७
***
बाल नवगीत:
*
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी
बहिन उषा को गिरा दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ी
धूप बुआ ने लपक चुपाया
पछुआ लाई
बस्ता-फूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
जय गणेश कह पाटी पूजन
पकड़ कलम लिख ओम
पैर पटक रो मत, मुस्काकर
देख रहे भू-व्योम
कन्नागोटी, पिट्टू, कैरम
मैडम पूर्णिमा के सँग-सँग
हँसकर
झूला झूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
चिड़िया साथ फुदकती जाती
कोयल से शिशु गीत सुनो
'इकनी एक' सिखाता तोता
'अ' अनार का याद रखो
संध्या पतंग उड़ा, तिल-लड़ुआ
खा पर सबक
न भूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
...
लघुकथा-
पतंग
*
- बब्बा! पतंग कट गयी....
= कट गयी तो कट जाने दे, रोता क्यों है? मैंने दूसरी लाकर रखी है, वह लेकर उड़ा ले।
- नहीं, नयी पतंग उड़ाऊँगा तो बबलू फिर काट देगा।
= काट देगा तो तू फिर नयी पतंग ले जाना और उड़ाना
- लेकिन ऐसा कब तक करूँगा?
= जब तक तू बबलू की पतंग न काट दे। जीतने के लिये हौसला, कोशिश और जुगत तीनों जरूरी हैं। चरखी और मंझा साथ रखना, पतंग का संतुलन साधना, जिस पतंग को काटना हो उस पर और अपनी पतंग दोनों पर लगातार निगाह रखना, मौका खोजना और झपट्टा मारकर तुरंत दूर हो जाना, जब तक सामनेवाला सम्हाले तेरा काम पूरा हो जाना चाहिए। कुछ समझा?
- हाँ, बब्बा! अभी आता हूँ काटकर बबलू की पतंग।
***
लघुकथा -
रफ्तार
*
प्रतियोगिता परीक्षा में प्रथम आते ही उसके सपनों को रफ्तार मिल गयी। समाचार पत्रों में सचित्र समाचार छपा, गाँव भी पहुँचा। ठाकुर ने देखा तो कलेजे पर साँप लोट गया। कर्जदार की बेटी हाकिम होकर गाँव में आ गयी तो नाक न कट जायेगी? जैसे भी हो रोकना होगा।
जश्न मनाने के बहाने हरिया को जमकर पिलाई और बिटिया के फेरे अपने निकम्मे शराबी बेटे से करने का वचन ले लिया। उसने नकारा तो पंचायत बुला ली गयी जिसमें ठाकुर के चमचे ही पञ्च थे जिन्होंने धार्मिक पाखंड की बेडी उसके पैर में बाँधने वरना जात बाहर करने का हुक्म दे दिया।
उसके अपनों और सपनों पर बिजली गिर पड़ी। उसने हार न मानी और रातों-रात दद्दा को भेज महापंचायत करा दी जिसने पंचायत का फैसला उलट दिया। ठाकुर के खिलाफ दबे मामले उठने लगे तो वह मन मसोस कर बैठ रहा।
उसने धार्मिक पाखंड, सामाजिक दबंगई और आर्थिक शोषण के त्रिकोण से जूझते हुए भी फिर दे दी अपने सपनों को रफ्तार।
***
लघुकथा:
अनजानी राह
*
कोशिश रंग ला पाती इसके पहले ही तूफ़ान ने कदमों को रोक दिया, धूल ने आँखों के लिये खुली रहना नामुमकिन कर दिया, पत्थरों ने पैरों से टकराकर उन्हें लहुलुहान कर दिया, वाह करनेवाला जमाना आह भरकर मौन हो रहा।
इसके पहले कि कोशिश हार मानती, कहीं से आवाज़ आयी 'चली आओ'। कौन हो सकता है इस बवंडर के बीच आवाज़ देनेवाला? कान अधिकाधिक सुनने के लिये सक्रिय हुए, पैर सम्हाले, हाथों ने सहारा तलाशा, सर उठा और चुनौती को स्वीकार कर सम्हल-सम्हल कर बढ़ चला उस ओर जहाँ बाँह पसारे पथ हेर रही थी अनजानी राह।
***
लघुकथा-
चेतना शून्य
*
उच्च पदस्थ बेटी की उपलब्धि पर आयोजित अभिनन्दन भोज में आमंत्रित माँ पहुँची। बेटी ने शैशव में दिवंगत हो चुके पिता के निधनोपरांत माँ द्वारा लालन-पालन किये जाने पर आभार व्यक्त करते हुए अपनी श्रेष्ठ शिक्षा, आत्म विश्वास और उच्च पद पाने का श्रेय माँ को दिया तो पत्रकारों के प्रश्न और छायाकारों के कैमरे माँ पर केंद्रित हो गये।
सामान्य घरेलू जीवन की अभ्यस्त माँ असहज अनुभव कर शीघ्र ही हट गयी। घर आते ही माँ ने बेटी से उसकी सफलता के इतने बड़े आयोजन में उसके जीवन साथी और संतान की अनुपस्थिति के बारे पूछा। बेटी ने झिझकते हुए अपने लिव इन रिलेशन, वैचारिक टकराव और जीवनसाथी तथा संतान से अलगाव की जानकारी दी। माँ को लगा वह हुई जा रही है चेतना शून्य ।
***
लघुकथा :
सहारे की आदत
*
'तो तुम नहीं चलोगे? मैं अकेली ही जाऊँ?' पूछती हुई वह रुँआसी हो आयी किंतु उसे न उठता देख विवश होकर अकेली ही घर से बाहर आयी और चल पड़ी अनजानी राह पर।
रिक्शा, रेलगाड़ी, विमान और टैक्सी, होटल, कार्यालय, साक्षात्कार, चयन, दायित्व को समझना-निभाना, मकान की तलाश, सामान खरीदना-जमाना एक के बाद एक कदम-दर-कदम बढ़ती वह आज विश्राम के कुछ पल पा सकी थी। उसकी याद सम्बल की तरह साथ होते हुए भी उसके संग न होने का अभाव खल रहा था।
साथ न आया तो खोज-खबर ही ले लेता, मन हुआ बात करे पर स्वाभिमान आड़े आ गया, उसे जरूरत नहीं तो मैं क्यों पहल करूँ? दिन निकलते गये और बेचैनी बढ़ती गयी। अंतत: मन ने मजबूर किया तो चलभाष पर संपर्क साधा, दूसरी और से उसकी नहीं माँ की आवाज़ सुन अपनी सफलता की जानकारी देते हुए उसके असहयोग का उलाहना दिया तो रो पड़ी माँ और बोली बिटिया वह तो मौत से जूझ रहा है, कैंसर का ऑपरेशन हुआ है, तुझे नहीं बताया कि फिर तू जा नहीं पाती। तुझे इतनी रुखाई से भेजा ताकि तू छोड़ सके उसके सहारे की आदत।
स्तब्ध रह गयी वह, माँ से क्या कहती?
तुरंत बाद माँ के बताये चिकित्सालय से संपर्क कर देयक का भुगतान किया, अपने नियोक्ता से अवकाश लिया, आने-जाने का आरक्षण कराया और माँ को लेकर पहुँची चिकित्सालय, वह इसे देख चौंका तो बोली मत परेशान हो, मैं तम्हें साथ ले जा रही हूँ। अब मुझे नहीं तुम्हें डालनी है सहारे की आदत।
***
लघुकथा-
यह स्वप्न कैसा?
*
आप एक कार से उतर कर दूसरी में क्यों बैठ रहे है? जहाँ जाना है इसी से चले जाइये न.
नहीं भाई! अभी तक सरकारी दौरा कर रहा था इसलिए सरकारी वाहन का उपयोग किया, अब निजी काम से जाना है इसलिए सरकारी वाहन और चालक छोड़कर अपने निजी वाहन में बैठा हूँ और इसे खुद चलाकर जा रहा हूँ अगर मैं जन प्रतिनिधि होते हुए सरकारी सुविधा का दुरूपयोग करूँगा तो दूसरों को कैसे रोकूँगा?
सोच रहा हूँ जो कभी साकार न हो सके वह स्वप्न कैसा?
***
लघुकथा
जीत का इशारा
*
पिता को अचानक लकवा क्या लगा घर की गाड़ी के चके ही थम गये। कुछ दिन की चिकित्सा पर्याप्त न हुई. आय का साधन बंद और खर्च लगातार बढ़ता हुआ रोजमर्रा के खर्च, दवाई-इलाज और पढ़ाई।
उसने माँ के चहरे की खोटी हुई चमक और पिता की बेबसी का अनुमान कर अगले सवेरे औटो उठाया और चल पड़ी स्टेशन की ओर। कुछ देर बाद माँ जागी, उसे घर पर न देख अनुमान किया मंदिर गयी होगी। पिता के उठते ही उनकी परिचर्या के बाद तक वह न लौटी तो माँ को चिंता हुई, बाहर निकली तो देखा औटो भी नहीं है।
बीमार पति से क्या कहती?, नन्हें बेटे को जगाकर पडोसी को बुलाने का विचार किया। तभी एकदम निकट हॉर्न की आवाज़ सुनकर चौंकी। पलट कर देख तो उन्हीं का ऑटो था। ऑटो लेकर भागने वाले को पकड़ने के लिए लपकीं तो ठिठक कर रह गयीं, चालक के स्थान पर बैठी बेटी कर रही थी जीत का इशारा।
***
लघुकथा -
संक्रांति
*
- छुटका अपनी एक सहकर्मी को आपसे मिलवाना चाहता है, शायद दोनों....
= ठीक है, शाम को बुला लो, मिलूँगा-बात करूँगा, जम गया तो उसके माता-पिता से बात की जाएगी।बड़की को कहकर तमिल ब्राम्हण, छुटकी से बातकर सरदार जी और बड़के को बताकर असमिया को भी बुला ही लो।
- आपको कैसे?... किसी ने कुछ.....?
= नहीं भई, किसी ने कुछ नहीं कहा, उनके कहने के पहले ही मैं समझ न लूँ तो उन्हें कहना ही पड़ेगा। ऐसी नौबत क्यों आने दूँ? हम दोनों इस घर-बगिया में सूरज-धूप की तरह हैं। बगिया में किस पेड़ पर कौन सी बेल चढ़ेगी, इसमें सूरज और धूप दखल नहीं देते, सहायता मात्र करते हैं।
- किस पेड़ पर कौन सी बेल चढ़ाना है यह तो माली ही तय करता है फिर हम कैसे यह न सोचें?
= ठीक कह रही हो, किस पेड़ों पर किन लताओं को चढ़ाना है, यह सोचना माली का काम है। इसीलिये तो वह माली ऊपर बैठे-बैठे उन्हें मिलाता रहता है। हमें क्या अधिकार कि उसके काम में दखल दें?
- इस तरह तो सब अपनी मर्जी के मालिक हो जायेंगे, घर ही बिखर जायेगा।
= ऐसे कैसे बिखर जायेगा? हम संक्रांति के साथ-साथ पोंगल, लोहड़ी और बीहू भी मना लिया करेंगे, तब तो सब एक साथ रह सकेंगे। सब अँगुलियाँ मिलकर मुट्ठी बनेंगीं तभी तो मनेगी संक्रांति।
१४.१.२०१६
***
नवगीत:
.
काल है संक्रांति का
तुम मत थको सूरज!
.
दक्षिणायन की हवाएँ
कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी
काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती
फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश
से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रान्ति को
तुम मत रुको सूरज!
*
उत्तरायण की फिज़ाएँ
बनें शुभ की बाड़
दिन-ब-दिन बढ़ता रहे सुख
सत्य की हो आड़
जनविरोधी सियासत को
कब्र में दो गाड़
झाँक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
ढाल हो चिर शांति का
तुम मत झुको सूरज!
६-१-२०१५
***
नवगीत:
आओ भी सूरज
*
आओ भी सूरज!
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ
गाओ भी सूरज!
*
करधन दिप-दिप दमक रही है
पायल छन-छन छनक रही है
नच रहे हैं झूमकर मादल
बुराई हर अलावों में जलाओ
आओ भी सूरज!
*
खिचड़ी तिल-गुड़वाले लडुआ
पिज्जा तजकर खाओ बबुआ
छोड़ बोतल उठा लो छागल
पड़ोसी को खुशी में साथ पाओ
आओ भी सूरज!
*
रविवार, ४ जनवरी २०१५
***
नवगीत:
संक्रांति काल है
.
संक्रांति काल है
जगो, उठो
.
प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आँखें रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर
राजनीति तज दे तंदूर
संभ्रांति टाल दो
जगो, उठो
.
खरपतवार न शेष रहे
कचरा कहीं न लेश रहे
तज सिद्धांत, बना सरकार
कुर्सी पा लो, ऐश रहे
झुका भाल हो
जगो, उठो
.
दोनों हाथ लिये लड्डू
रेवड़ी छिपा रहे नेता
मुँह में लैया-गज़क भरे
जन-गण को ठेंगा देता
डूबा ताल दो
जगो, उठो
.
सूरज को ढाँके बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग-सांप फिर साथ हुए
गुँजा रहे बंसी-मादल
छिपा माल दो
जगो, उठो
.
नवता भरकर गीतों में
जन-आक्रोश पलीतों में
हाथ सेंक ले कवि तू भी
जाए आज अतीतों में
खींच खाल दो
जगो, उठो
२-१-२०१५
***

सोमवार, 13 जनवरी 2025

जनवरी १३, सॉनेट,सूरज, सॉनेट, कृष्ण, महेश योगी, लालबहादुर, हाइकु, देवरहा बाबा, पलाश

सलिल सृजन जनवरी १३
शारद! लिए पलाश आए हम, माँ सिंगार करो।
किंशुक कुसुम लगा वेणी में, भव-भय पीर हरो।।
करधन टेसू, कंगन छेवला, पायल सजे समिद्धर।
कौसुंबी कंचुकी, हरित आँचल स्वीकार करो।।
धारण कर गलहार त्रिपर्णी, बाले पहन सुपर्णी।
माते! बीजस्नेह दे संतति का उद्धार करो।।
करक ब्रह्मपादप पोरासू पलसु पिलासु पुतद्रु,
पालोशी पांगोंग लिए हम हँस उपहार वरो।।
अनुपम छवि रस रूप मनोहर स्वर व्यंजन मतिमय लख।
जीव सभी संजीव हो सकें, मातु! सलिल सह विचरो।।
१३.१.२०२५
०००
सॉनेट
सूरज छिपकर तरु पीछे से झाँक रहा है,
उषा भीत है सोचे साथ रहे या छोड़े?
लव जिहाद का नारा सुन पग पीछे मोड़े,
निकलूँ या छिप जाऊँ, गुपचुप आँक रहा है।
अरुणोदय का दृश्य मनोरम टाँक रहा है,
बाजों ने गौरैया के सब सपने तोड़े,
जवां कबूतर घायल खा श्रद्धा के कोड़े,
हृदय ऐक्य का हाय! टूट दो फाँक रहा है।
बाल राम को जिसने दूल्हा राजा देखा,
सिया सहित दरबार सजाकर हर पल पूजा,
हैं अवाक् वह अवध, देख धनुधारी आया।
कौन करे हमलों-दंगों का लेखा-जोखा?
१३.१.२०२४
•••
सोरठा सलिला
कृष्ण
*
अनुपम कौशल कृष्ण, काम करें निष्काम रह।
हुए नहीं वे तृष्ण, थे समान सुख-दुःख उन्हें।।
खींचो रेखा एक, अकरणीय-करणीय में।
जाग्रत रखो विवेक, कृष्ण न कह करते रहे।।
कृष्ण कर्म पर्याय, निष्फल कुछ करते नहीं।
सक्रियता पर्याय, निष्क्रियता वरते नहीं।।
गहो कर्म सन्यास, यही कृष्ण-संदेश है।
हो न मलिन विन्यास, जग-जीवन का तनिक भी।.
कृष्ण -राधिका एक, कृष्ण न मिलते कृष्ण भज।
भजों राधिका नेंक, आ जाएँगे कृष्ण खुद।।
तहाँ कृष्ण जहँ प्रेम, हो न तनिक भी वासना।
तभी रहेगी क्षेम, जब न वास हो मोह का।।
१३-१-२०२३
***
सॉनेट
महर्षि महेश योगी
*
गुरु-पद-रज, आशीष था।
मार्ग आप अपना गढ़ा।
ध्यान मार्ग पर पग बढ़ा।।
योग हुआ पाथेय था।।
महिमा थी ओंकार की।
ब्रह्मानंद सुयश भजा।
फहराई जग में ध्वजा।।
बना विश्व सरकार दी।।
सपने थे अनगिन बुने।
वेद-ज्ञान हर जन गुने।
जतन निरंतर अनसुने।
पश्चिम नत हो सिर धुने।।
योगमार्ग अपना चुने।।
त्याग भोग के झुनझुने।।
१३-१-२०२२
***
सॉनेट
लालबहादुर
*
छोटा कद, ऊँचा किरदार।
लालबहादुर नेता सच्चे।
सादे सरल जिस तरह बच्चे।।
भारत माँ पे हुए निसार।।
नन्हें ने दृढ़ कदम बढ़ाया।
विश्वशक्ति को धता बताया।
भूखा रहना मन को भाया।।
सीमा पर दुश्मन थर्राया।।
बापू के सच्चे अनुयायी।
दिशा देश को सही दिखायी।
जनगण से श्रद्धा नित पायी।
विजय पताका थी फहरार्ई।।
दुश्मन ने भी करी बड़ाई।।
सब दुनिया ने जय-जय गाई।।
१३-१-२०२२
***
नवगीत
दूर कर दे भ्रांति
*
दूर कर दे भ्रांति
आ संक्राति!
हम आव्हान करते।
तले दीपक के
अँधेरा हो भले
हम किरण वरते।
*
रात में तम
हो नहीं तो
किस तरह आये सवेरा?
आस पंछी ने
उषा का
थाम कर कर नित्य टेरा।
प्रयासों की
हुलासों से
कर रहां कुड़माई मौसम-
नाचता दिनकर
दुपहरी संग
थककर छिपा कोहरा।
संक्रमण से जूझ
लायें शांति
जन अनुमान करते।
*
घाट-तट पर
नाव हो या नहीं
लेकिन धार तो हो।
शीश पर हो छाँव
कंधों पर
टिका कुछ भार तो हो।
इशारों से
पुकारों से
टेर सँकुचे ऋतु विकल हो-
उमंगों की
पतंगें उड़
कर सकें आनंद दोहरा।
लोहड़ी, पोंगल, बिहू
जन-क्रांति का
जय-गान करते।
*
ओट से ही वोट
मारें चोट
बाहर खोट कर दें।
देश का खाता
न रीते
तिजोरी में नोट भर दें।
पसीने के
नगीने से
हिंद-हिंदी जगजयी हो-
विधाता भी
जन्म ले
खुशियाँ लगाती रहें फेरा।
आम जन के
काम आकर
सेठ-नेता काश तरते।
१२-१-२०१७
***
हाइकु
*
झूठ को सच
करती सियासत
सच को झूठ
*
सुबहो-शाम
आराम है हराम
राम का नाम
*
प्राची लगाती
माथे पर बिंदिया
साँझ सुहाती
*
शंख निनाद
मग्न स्वर तरंग
मिटा विषाद
*
गया बरस
तनिक न दे सका
सुख हरष
*
अस न बस
मनाना ही होगा
नया बरस
*
बिच्छू का डंक
सहे संत स्वभाव
रहे नि:शंक
१३.१.२०१६
***
नवगीत:
.
खों-खों करते
बादल बब्बा
तापें सूरज सिगड़ी
.
आसमान का आँगन चौड़ा
चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा
ऊधम करते नटखट तारे
बदरी दादी 'रुको' पुकारें
पछुआ अम्मा
बड़बड़ करती
डाँट लगातीं तगड़ी
.
धरती बहिना राह हेरती
दिशा सहेली चाह घेरती
ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम
रात और दिन बेटे अनुपम
पाला-शीत न
आए घर में
खोल न खिड़की अगड़ी
.
सूर बनाता सबको कोहरा
ओस बढ़ाती संकट दोहरा
कोस न मौसम को नाहक ही
फसल लाएगी राहत को ही
हँसकर खेलें
चुन्ना-मुन्ना
मिल चीटी-धप, लँगड़ी
....
बाल नवगीत:
*
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
*
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी
बहिन उषा को गिरा दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ी
धूप बुआ ने लपक चुपाया
पछुआ लाई
बस्ता-फूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
*
जय गणेश कह पाटी पूजन
पकड़ कलम लिख ओम
पैर पटक रो मत, मुस्काकर
देख रहे भू-व्योम
कन्नागोटी, पिट्टू, कैरम
मैडम पूर्णिमा के सँग-सँग
हँसकर
झूला झूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
*
चिड़िया साथ फुदकती जाती
कोयल से शिशु गीत सुनो
'इकनी एक' सिखाता तोता
'अ' अनार का याद रखो
संध्या पतंग उड़ा, तिल-लड़ुआ
खा पर सबक
न भूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
मंगलवार, 6 जनवरी 2015
***
कृति चर्चा:
हौसलों के पंख : नवगीत की उड़ान
चर्चाकार: आचार्य संजीव
.
[कृति विवरण: हौसलों के पंख, नवगीत संग्रह, कल्पना रामानी, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ ११२, नवगीत ६५, १२०/-, अंजुमन प्रकाशन इलाहाबाद]
.
ओम निश्चल: 'गीत-नवगीत के क्षेत्र में इधर अवरोध सा आया है. कुछ वरिष्‍ठ कवि फिर भी अपनी टेक पर लिख रहे हैं... एक वक्‍त उनके गीत... एक नया रोमानी उन्माद पैदा करते थे पर धीरेधीरे ऐसे जीवंत गीत लिखने वाली पीढी खत्‍म हो गयी. कुछ कवि अन्य विधाओं में चले गए .... नये संग्रह भी विशेष चर्चा न पा सके. तो क्‍या गीतों की आभा मंद पड़ गयी है या अब वैसे सिद्ध गीतकार नहीं रहे?'
'गीत में कथ्य वर्णन के लिए प्रचुर मात्रा में बिम्बों, प्रतीकों और उपमाओं के होता है जबकि नवगीत में गागर में सागर, बिंदु में सिंधु की तरह इंगितों में बात कही जाती है। 'कम बोले से अधिक समझना' की उक्ति नवगीत पर पूरी तरह लागू होती है। नवगीत की विषय वस्तु सामायिक और प्रासंगिक होती है। तात्कालिकता नवगीत का प्रमुख लक्षण है जबकि सनातनता, निरंतरता गीत का। गीत रचना का उद्देश्य सत्य-शिव-सुंदर की प्रतीति तथा सत-चित-आनंद की प्राप्ति कही जा सकती है जबकि नवगीत रचना का उद्देश्य इसमें बाधक कारकों और स्थितियों का इंगित कर उन्हें परिवर्तित करना कहा जा सकता है। गीत महाकाल का विस्तार है तो नवगीत काल की सापेक्षता। गीत का कथ्य व्यक्ति को समष्टि से जोड़कर उदात्तता के पथ पर बढ़ाता है तो नवगीत कथ्य समष्टि की विरूपता पर व्यक्ति को केंद्रित कर परिष्कार की राह सुझाता है। भाषा के स्तर पर गीत में संकेतन का महत्वपूर्ण स्थान होता है जबकि नवगीत में स्पष्टता आवश्यक है। गीत पारम्परिकता का पोषक होता है तो नवगीत नव्यता को महत्व देता है। गीत में छंद योजना को वरीयता है तो नवगीत में गेयता को महत्व मिलता है।'
उक्त दो बयानों के परिप्रेक्ष्य में नवगीतकार कल्पना रामानी के प्रथम नवगीत संग्रह 'हौसलों के पंख' को पढ़ना और और उस पर लिखना दिलचस्प है।
कल्पना जी उस सामान्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं जिसके लिए साहित्य रचा जाता है और जो साहित्य से जुड़कर उसे सफल बनाता है। जहाँ तक ओम जी का प्रश्न है वे जिस 'रोमानी उन्माद' का उल्लेख करते हैं वह उम्र के एक पड़ाव पर एक मानसिकता विशेष की पहचान होता है। आज के सामाजिक परिवेश और विशेषकर जीवनोद्देश्य लेकर चलनेवाले युवाओं नई ने इसे हाशिये पर रखना आरंभ कर दिया है। अब किसी का आँचल छू जाने से सिहरन नहीं होती, आँख मिल जाने से प्यार नहीं होता। तन और मन को अलग-अलग समझने के इस दौर में नवगीत निराला काल के छायावादी स्पर्शयुक्त और छंदमुक्त रोमांस तक सीमित नहीं रह सकता।
कल्पना जी के जमीन से जुड़े ये नवगीत किसी वायवी संसार में विचरण नहीं कराते अपितु जीवन जैसा ही देखते हुए बेहतर बनाने की बात करते हैं। कल्पना की कल्पना भी सम्भावना के समीप है कपोल कल्पना नहीं। जीवन के उत्तरार्ध में रोग, जीवन साथी का विछोह अर्थात नियतिजनित एकाकीपन से जूझ और मृत्यु के संस्पर्श से विजयी होकर आने के पश्चात उनकी जिजीविषाजयी कलम जीवन के प्रति अनुराग-विराग को एक साथ साधती है। ऐसा गीतकार पूर्व निर्धारित मानकों की कैद को अंतिम सत्य कैसे मान सकता है? कल्पना जी नवगीत और गीत से सुपरिचित होने पर भी वैसा ही रचती हैं जैसा उन्हें उपयुक्त लगता है लेकिन वे इसके पहले मानकों से न केवल परिचय प्राप्त करती हैं, उनको सीखती भी हैं।
प्रतिष्ठित नवगीतकार यश मालवीय ठीक ही कहते हैं कि 'रचनाधर्मिता के बीज कभी भी किसी भी उम्र में रचनाकार-मन में सुगबुगा सकते हैं और सघन छायादार दरख्त बन सकते हैं।'
डॉ. अमिताभ त्रिपाठी इन गीतों में संवेदना का उदात्त स्तर, साफ़-सुथरा छंद-विधान, सुगठित शब्द-योजना, सहजता, लय तथा प्रवाह की उपस्थिति को रेखांकित करते हैं। कल्पना जी ने भाषिक सहजता-सरलता को शुद्धता के साथ साधने में सफलता पाई है। उनके इन गीतों में संस्कृतनिष्ठ शब्द (संकल्प, विलय, व्योम, सुदर्श, विभोर, चन्द्रिका, अरुणिमा, कुसुमित, प्राण-विधु, जल निकास, नीलांबर, तरुवर, तृण पल्लव्, हिमखंड, मोक्षदायिनी, धरणी, सद्ज्ञान, परिवर्धित, वितान, निर्झरिणी आदि), उर्दू लफ़्ज़ों ( मुश्किलों, हौसलों, लहू. तल्ख, शबनम, लबों, फ़िदा, नादां, कुदरत, फ़िज़ा, रफ़्तार, गुमशुदा, कुदरत, हक़, जुबां, इंक़लाब, फ़र्ज़, क़र्ज़, जिहादियों, मज़ार, मन्नत, दस्तखत, क़ैद, सुर्ख़ियों आदि) के साथ गलबहियाँ डाले हुए देशज शब्दों ( बिजूखा, छटां, जुगाड़, फूल बगिया, तलक आदि) से गले मिलते हैं।
इन नवगीतों में शब्द युग्मों (नज़र-नज़ारे, पुष्प-पल्लव, विहग वृन्दों, मुग्ध-मौसम, जीव-जगत, अर्पण-तर्पण, विजन वन, फल-फूल, नीड़चूजे, जड़-चेतन, तन-मन, सतरंगी संसार, पापड़-बड़ी-अचार आदि) ने माधुर्य घोला है। नवगीतों में अन्त्यानुप्रास का होना स्वाभाविक है किन्तु कल्पना जी ने छेकानुप्रास तथा वृत्यनुप्रास का भी प्रयोग प्रचुरता से किया है। इन स्थलों पर नवगीतों में रसधार पुष्ट हुई है। देखें: तृषायुक्त तरुवर तृण, सारू सरिता सागर, साँझ सुरमई, सतरंगी संसार, वरद वन्दिता, कचनार काँप कर, चंचल चपल चारुवदना, सचेतना सुभावना सुकमना, मृदु महक माधुरी, सात सुरों का साजवृन्द, मृगनयनी मृदु बयनभाषिणी, कोमल कंचन काया, कवच कठोर कदाचित, कोयलिया की कूक आदि।
कल्पना जी ने नवल भाषिक प्रयोग करने में कमी नहीं की है: जोश की समिधा, वसुधा का वैभव, निकृष्ट नादां, स्वत्व स्वामिनी, खुशरंग हिना आदि ऐसे ही प्रयोग हैं। महलों का माला से स्वागत, वैतरिणी जगताप हरिणी, पीड़ाहरिणी तुम भागीरथी, विजन वनों की गोद में, साधना से सफल पल-पल, चाह चित से कीजिए, श्री गणेश हो शुभ कर्मों का जैसी अभिव्यक्तियाँ सूक्ति की तरह जिव्हाग्र पर प्रतिष्ठित होने का सामर्थ्य रखती हैं
कल्पना जी के इन नवगीतों में राष्ट्रीय गौरव (यही चित्र स्वाधीन देश का, हस्ताक्षर हिंदी के, हिंदी की मशाल, सुनो स्वदेशप्रेमियों, मिली हमें स्वतंत्रता, जयभारत माँ, पूछ रहा है आज देश), पारिवारिक जुड़ाव (बेटी तुम, अनजनमी बेटी, पापा तुम्हारे लिए, कहलाऊं तेरा सपूत, आज की नारी, जीवन संध्या, माँ के बाद के बाद आदि), सामाजिक सरोकार (मद्य निषेध सजा पन्नो पर, हमारा गाँव, है अकेला आदमी, महानगर में, गाँवों में बसा जीवन, गरम धूप में बचपन ढूँढे, आँगन की तुलसी आदि) के गीतों के साथ भारतीय संस्कृति के उत्सवधर्मिता और प्रकृति परकता के गीत भी मुखर हुए हैं। ऐसे नवगीतों में दिवाली, दशहरा, राम जन्म, सूर्य, शरद पूर्णिमा, संक्रांति, वसंत, फागुन, सावन, शरद आदि आ सके हैं।
पर्यावरण और प्रकृति के प्रति कल्पना जी सजग हैं। जंगल चीखा, कागा रे! मुंडेर छोड़ दे, आ रहा पीछे शिकारी, गोल चाँद की रात, क्यों न हम उत्सव् मनाएं?, जान-जान कर तन-मन हर्षा, फिर से खिले पलाश आदि गीतों में उनकी चिंता अन्तर्निहित है। सामान्यतः नवगीतों में न रहनेवाले साग, मुरब्बे, पापड़, बड़ी, अचार, पायल, चूड़ी आदि ने इन नवगीतों में नवता के साथ-साथ मिठास भी घोली है। बगिया, फुलबगिया, पलाश, लता, हरीतिमा, बेल, तरुवर, तृण, पल्लव, कोयल, पपीहे, मोर, भँवरे, तितलियाँ, चूजे, चिड़िया आदि के साथ रहकर पाठक रुक्षता, नीरसता, विसंगतियोंजनित पीड़ा, विषमता और टूटन को बिसर जाता है।
सारतः विवेच्य कृति का जयघोष करती जिजीविषाओं का तूर्यनाद है। इन नवगीतों में भारतीय आम जन की उत्सवधर्मिता और हर्षप्रियता मुखरित हुई है। कल्पना जी जीवन के संघर्षों पर विजय के हस्ताक्षर अंकित करते हुए इन्हें रचती हैं। इन्हें भिन्न परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकित करना इनके साथ न्याय न होगा। इन्हें गीत-नवगीत के निकष पर न कसकर इनमें निहित रस सलिला में अवगाहन कर आल्हादित अभीष्ट है। कल्पना जी को बधाई जीवट, लगन और सृजन के लिये। सुरुचिपूर्ण और शुद्ध मुद्रण के लिए अंजुमन प्रकाशन का अभिनन्दन।
१३-१-२०१५
नवगीत:
*.
काल है संक्रांति का
तुम मत थको सूरज!
.
दक्षिणायन की हवाएँ
कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी
काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती
फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश
से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रान्ति को
तुम मत रुको सूरज!
*
उत्तरायण की फिज़ाएँ
बनें शुभ की बाड़
दिन-ब-दिन बढ़ता रहे सुख
सत्य की हो आड़
जनविरोधी सियासत को
कब्र में दो गाड़
झाँक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
ढाल हो चिर शांति का
तुम मत झुको सूरज!
***
नवगीत:
आओ भी सूरज
*
आओ भी सूरज!
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ
गाओ भी सूरज!
*
करधन दिप-दिप दमक रही है
पायल छन-छन छनक रही है
नच रहे हैं झूमकर मादल
बुराई हर अलावों में जलाओ
आओ भी सूरज!
*
खिचड़ी तिल-गुड़वाले लडुआ
पिज्जा तजकर खाओ बबुआ
छोड़ बोतल उठा लो छागल
पड़ोसी को खुशी में साथ पाओ
आओ भी सूरज!
रविवार, 4 जनवरी 2015
***
नवगीत:
संक्रांति काल है
.
संक्रांति काल है
जगो, उठो
.
प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आँखें रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर
राजनीति तज दे तंदूर
संभ्रांति टाल दो
जगो, उठो
.
खरपतवार न शेष रहे
कचरा कहीं न लेश रहे
तज सिद्धांत, बना सरकार
कुर्सी पा लो, ऐश रहे
झुका भाल हो
जगो, उठो
.
दोनों हाथ लिये लड्डू
रेवड़ी छिपा रहे नेता
मुँह में लैया-गज़क भरे
जन-गण को ठेंगा देता
डूबा ताल दो
जगो, उठो
.
सूरज को ढाँके बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग-सांप फिर साथ हुए
गुँजा रहे बंसी-मादल
छिपा माल दो
जगो, उठो
.
नवता भरकर गीतों में
जन-आक्रोश पलीतों में
हाथ सेंक ले कवि तू भी
जाए आज अतीतों में
खींच खाल दो
जगो, उठो
१३.१.२०१४
***
समयजयी सिद्धसंत देवरहा बाबा
*
देव भूमि भारत आदिकाल से संतों-महात्माओं की साधना स्थली है. हर पल समाधिस्थ रहनेवाले समयजयी सिद्ध दंत देवरहा बाबा संसार-सरोवर में कमल की तरह रहते हुए पूर्णतः निर्लिप्त थे.
आचार्य शंकर ने जीवन की इस मुक्तावस्था के सम्बन्ध में कहा है:
समाधिनानेन समस्तवासना ग्रंथेर्विनाशोsकर्मनाशः.
अंतर्वहि सर्वत्र एवं सर्वदा स्वरूपवि स्फूर्तिरयत्नतः स्यात..
अर्थात समाधि से समस्त वासना-ग्रंथियाँ नष्ट हो जाती हैं. वासनाओं के नाश से कर्मों का विनाश हो जाता है, जिससे स्वरूप-स्थिति हो जाती है. अग्नि के ताप से जिस तरह स्वर्ण शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार समाधि से सत्व-राज-तम रूप मल का निवारण हो जाता है. हरि ॐ तत्सत...
बाबा मेरे जन्म-जन्मान्तर के गुरु हैं, वे विदेह हैं. अनादि काल से अनवरत चली आ रही भारतीय सिद्ध साधन बाबा में मूर्त है. धूप, सीत, वर्षा आदि संसारीं चक्रों से सर्वथा अप्रभावित, अष्टसिद्ध योगी बाबा सबपर सदा समान भाव से दया-दृष्टि बरसाते रहते थे. वे सच्चे अर्थ में दिगम्बर थे अर्थात दिशाएँ ही उनका अम्बर (वस्त्र) थीं. वे वास्तव में धरती का बिछौना बिछाते थे, आकाश की चादर ओढ़ते थे. शुद्ध जीवात्मायें उनकी दृष्टि मात्र से अध्यात्म-साधन के पथ पर अग्रसर हो जाती थीं. वे सदैव परमानंद में निमग्न रहकर सर्वात्मभाव से सभी जीवों को कल्याण की राह दिखाते हैं.
जय अनादि,जय अनंत,
जय-जय-जय सिद्ध संत.
देवरहा बाबाजी,
यश प्रसरित दिग-दिगंत.........
*
धरा को बिछौनाकर, नील गगन-चादर ले.
वस्त्रकर दिशाओं को, अमृत मन्त्र बोलते..
सत-चित-आनंदलीन, समयजयी चिर नवीन.
साधक-आराधक हे!, देव-लीन, थिर-अदीन..
नश्वर-निस्सार जगत,
एकमात्र ईश कंत..
देवरहा बाबाजी,
यश प्रसरित दिग-दिगंत.........
*
''दे मत, कर दर्शन नित, प्रभु में हो लीन चित.''
देते उपदेश विमल, मौन अधिक, वाणी मित..
योगिराज त्यागी हे!, प्रभु-पद-अनुरागी हे!
सतयुग से कलियुग तक, जीवित धनभागी हे..
'सलिल' अनिल अनल धरा,
नभ तुममें मूर्तिमंत.
देवरहा बाबाजी,
यश प्रसरित दिग-दिगंत.........
*
पूज्यपाद बाबाजी द्वारा लिखाया गया और 'योगिराज देवरहा बाबा के चमत्कार' शीर्षक पुस्तक में प्रकाशित लेख का कुछ अंश बाबाश्री के आशीर्वाद-स्वरूप प्रस्तुत है:
''धारणा, ध्यान और समाधि- इन तीनों का सामूहिक नाम संयम है. संयम से अनेक प्रकार की विभूतियाँ प्राप्त होती हैं परन्तु योगी का लक्ष्य विभूति-प्राप्ति नहीं है, परवैराग्य प्राप्ति है. 'योग दर्शन' में विभूतियों का वर्णन केवल इसलिए किया गया है कि योगी इनके यथार्थ रूप को समझकर उनसे आकृष्ट न हो. योगदर्शन का विभूतिपाद साधनपाद की ही कड़ी है..... विभूतिपाद में इसी प्रकार की विभूतियों का विस्तार से वर्णन हुआ है-जैसे सब प्राणियों की वाणी का ज्ञान, परचित्त ज्ञान, मृत्यु का ज्ञान, लोक-लोकान्तरों का ज्ञान, आपने शरीर का ज्ञान, चित्त के स्वरूप का ज्ञान इत्यादि. संयम के ही द्वारा योगी अंतर्ध्यान हो सकता है, अधिक से अधिक शक्ति प्राप्त कर सकता है, परकाया में प्रवेश कर सकता है, लोक-लोकान्तरों में भ्रमण कर सकता है और अष्टसिद्धियों और नवनिधियों को प्राप्तकर सकता है.
बच्चा! योग एक बड़ी दुर्लभ और विचित्र अवस्था है. योगी की शक्ति और ज्ञान अपरिमित होते हैं. उसके लिये विश्व की कोई भी वस्तु असंभव नहीं है. ईश्वर की शक्ति माया है और योगी की शक्ति योगमाया है. 'सर्वम' के सिद्धांत को योगी कभी भी प्रत्यक्ष कर सकता है. आज विज्ञान ने जिस शक्ति का संपादन किया है, वह योगशक्ति का शतांश या सहस्त्रांश भी नहीं है. योगी के लिये बाह्य उपादानों की अपेक्षा नहीं है.
मैं तो यह कहता हूँ कि यदि योगी चाहे तो अपने सत्य-संकल्प से सृष्टि का भी निर्माण कर सकता है. वह ईश्वर के समान सर्वव्यापक है. अष्टसिद्धियाँ भी उसके लिये नगण्य हैं. वह अपनी संकल्प-शक्ति से एक ही समय में अनेक स्थानों पर अनेक रूपों में प्रकट हो सकता है. उसे शरीर से कहीं आना-जाना नहीं पड़ता.
बच्चा! योगी को न विश्वास की परवाह है, न प्रदर्शन की आवश्यकता है, जो सिद्धियों का प्रदर्शन करता है, उसे योगी कहना ही नहीं चाहिए.
एक कथा है: आपने किसी योगिराज गुरुसे योग की शिक्षा प्राप्तकर एक महात्मा योग-साधना करने लगे. कुछ समय पश्चात् महात्मा को सिद्धियाँ प्राप्त होने लगीं. महात्मा एक दिन आपने गुरुदेव के दर्शन करने के लिये चल दिए. योगिराज का आश्रम एक नदी के दूसरे किनारे पर था. नदी में बड़ी बाढ़ थी और चारों ओर तूफ़ान था. महात्मा को नदी पारकर आश्रम में पहुँचना था. अपनी सिद्धि के बलपर महात्मा योंही जलपर चल दिए और नदी को पारकर आश्रम में पहुँचे. गुरुदेव ने नदी पार करने के साधन के सम्बन्ध में पूछा तो महात्मा ने अपनी सिद्धि का फल बता दिया. योगिराज ने कहा कि तुमने दो पैसे के बदले अपनी वर्षों की तपस्या समाप्त कर ली. तुम योग-साधन के योग्य नहीं हो.
१३.१.२०१४


***