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बुधवार, 18 अगस्त 2021

कुरुक्षेत्र गाथा

 अध्याय १

कुरुक्षेत्र और अर्जुन
कड़ी ४.
*
कुरुक्षेत्र की तपोभूमि में
योद्धाओं का विपुल समूह
तप्त खून के प्यासे वे सब
बना रहे थे रच-रच व्यूह
*
उनमें थे वीर धनुर्धर अर्जुन
ले मन में भीषण अवसाद
भरा ह्रदय ले खड़े हुए थे
आँखों में था अतुल विषाद
*
जहाँ-जहाँ वह दृष्टि डालता
परिचित ही उसको दिखते
कहीं स्वजन थे, कहीं मित्र थे
कहीं पूज्य उसको मिलते
*
कौरव दल था खड़ा सामने
पीछे पाण्डव पक्ष सघन
रक्त एक ही था दोनों में
एक वंश -कुल था चेतन
*
वीर विरक्त समान खड़ा था
दोनों दल के मध्य विचित्र
रह-रह जिनकी युद्ध-पिपासा
खींच रही विपदा के चित्र
*
माँस-पेशियाँ फड़क रही थीं
उफ़न रहा था क्रोध सशक्त
संग्रहीत साहस जीवन का
बना रहा था युद्धासक्त
*
लड़ने की प्रवृत्ति अंतस की
अनुभावों में सिमट रही
झूल विचारों के संग प्रतिपल
रौद्र रूप धर लिपट रही
*
रथ पर जो अनुरक्त युद्ध में
उतर धरातल पर आया
युद्ध-गीत के तेज स्वरों में
ज्यों अवरोह उतर आया
*
जो गाण्डीव हाथ की शोभा
टिका हुआ हुआ था अब रथ में
न्योता महानाश का देकर-
योद्धा था चुप विस्मय में
*
बाण चूमकर प्रत्यञ्चा को
शत्रु-दलन को थे उद्यत
पर तुरीण में ही व्याकुल हो
पीड़ा से थे अब अवनत
*
और आत्मा से अर्जुन की
निकल रही थी आर्त पुकार
सकल शिराएँ रण-लालायित
करती क्यों विरक्ति संचार?
*
यौवन का उन्माद, शांति की
अंगुलि थाम कर थका-चुका
कुरुक्षेत्र से हट जाने का
बोध किलकता छिपा-लुका
*
दुविधा की इस मन: भूमि पर
नहीं युद्ध की थी राई
उधर कूप था गहरा अतिशय
इधर भयानक थी खाई
*
अरे! विचार युद्ध के आश्रय
जग झुलसा देने वाले
स्वयं पंगु बन गये देखकर
महानाश के मतवाले
*
तुम्हीं क्रोध के प्रथम जनक हो
तुम में वह पलता-हँसता
वही क्रिया का लेकर संबल
जग को त्रस्त सदा करता
*
तुम्हीं व्यक्ति को शत्रु मानते
तुम्हीं किसी को मित्र महान
तुमने अर्थ दिया है जग को
जग का तुम्हीं लिखो अवसान
*
अरे! कहो क्यों मूल वृत्ति पर
आधारित विष खोल रहे
तुम्हीं जघन्य पाप के प्रेरक
क्यों विपत्तियाँ तौल रहे?
*
अरे! दृश्य दुश्मन का तुममें
विप्लव गहन मचा देता
सुदृढ़ सूत्र देकर विनाश का
सोया क्रोध जगा देता
*
तुम्हीं व्यक्ति को खल में परिणित
करते-युद्ध रचा देते
तुम्हीं धरा के सब मनुजों को
मिटा उसे निर्जन करते
*
तुम मानस में प्रथम उपल बन
लिखते महानाश का काव्य
नस-नस को देकर नव ऊर्जा
करते युद्ध सतत संभाव्य
*
अमर मरण हो जाता तुमसे
मृत्यु गरल बनती
तुम्हीं पतन के अंक सँजोकर
भाग्य विचित्र यहाँ लिखतीं
*
तुम्हीं पाप की ओर व्यक्ति को
ले जाकर ढकेल देते
तुम्हीं जुटा उत्थान व्यक्ति का
जग को विस्मित कर देते
*
तुम निर्णायक शक्ति विकट हो
तुम्हीं करो संहार यहाँ
तुम्हीं सृजन की प्रथम किरण बन
रच सकती हो स्वर्ग यहाँ
*
विजय-पराजय, जीत-हार का
बोध व्यक्ति को तुमसे है
आच्छादित अनवरत लालसा-
आसक्तियाँ तुम्हीं से हैं
*
तुम्हीं प्रेरणा हो तृष्णा की
सुख पर उपल-वृष्टि बनते
जीवन मृग-मरीचिका सम बन
व्यक्ति सृष्टि अपनी वरते
*
अरे! शून्य में भी चंचल तुम
गतिमय अंतर्मन करते
शांत न पल भर मन रह पाता
तुम सदैव नर्तन करते
*
दौड़-धूप करते पल-पल तुम
तुम्हीं सुप्त मन के श्रृंगार
तुम्हीं स्वप्न को जीवन देते
तुम्हीं धरा पर हो भंगार
*
भू पर तेरी ही हलचल है
शब्द-शब्द बस शब्द यहाँ
भाषण. संभाषण, गायन में
मुखर मात्र हैं शब्द जहाँ
*
अवसरवादी अरे! बदलते
क्षण न लगे तुमको मन में
जो विनाश का शंख फूँकता
वही शांति भरता मन में
*
खाल ओढ़कर तुम्हीं धरा पर
नित्य नवीन रूप धरते
नये कलेवर से तुम जग की
पल-पल समरसता हरते
*
तुम्हीं कुंडली मारे विषधर
दंश न अपना तुम मारो
वंश समूल नष्ट करने का
रक्त अब तुम संचारो
*
जिस कक्षा में घूम रहे तुम
वहीँ शांति के बीज छिपे
अंधकार के हट जाने पर
दिखते जलते दिये दिपे
*
दावानल तुम ध्वस्त कर रहे
जग-अरण्य की सुषमा को
तुम्हीं शांति का चीर-हरण कर
नग्न बनाते मानव को
*
रोदन जन की है निरीहता
अगर न कुछ सुन सके यहाँ
तुम विक्षिप्त , क्रूर, पागल से
जीवन भर फिर चले यहाँ
*
अरे! तिक्त, कड़वे, हठवादी
मृत्यु समीप बुलाते क्यों?
मानवहीन सृष्टि करने को
स्वयं मौत सहलाते क्यों?
*
गीत 'काम' के गाकर तुमने
मानव शिशु को बहलाया
और भूख की बातचीत की
बाढ़ बहाकर नहलाया
*
सदा युद्ध की विकट प्यास ने
छला, पतिततम हमें किया
संचय की उद्दाम वासना, से
हमने जग लूट लिया
*
क्रूर विकट घातकतम भय ने
विगत शोक में सिक्त किया
वर्तमान कर जड़ चिंता में
आगत कंपन लिप्त किया
*
लूट!लूट! तुम्हारा नाम 'राज्य' है
औ' अनीति का धन-संचय
निम्न कर्म ही करते आये
धन-बल-वैभव का संचय
*
रावण की सोने की लंका
वैभव हँसता था जिसमें
अट्हास आश्रित था बल पर
रोम-रोम तामस उसमें
*
सात्विक वृत्ति लिये निर्मल
साकेत धाम अति सरल यहाँ
ऋद्धि-सिद्धि संयुक्त सतत वह
अमृतमय था गरल कहाँ?
*
स्वेच्छाचारी अभय विचरते
मानव रहते हैं निर्द्वंद
दैव मनुज दानव का मन में
सदा छिड़ा रहता है द्वंद
*
सुनो, अपहरण में ही तुमने
अपना शौर्य सँवारा है
शोषण के वीभत्स जाल को
बुना, सतत विस्तारा है
*
बंद करो मिथ्या नारा
जग के उद्धारक मात्र तुम्हीं
उद्घोषित कर मीठी बातें
मूर्ख बनाते हमें तुम्हीं
*
व्यक्ति स्वयं है अपना नेता
अन्य कोई बन सकता
अपना भाग्य बनाना खुद को
अन्य कहाँ कुछ दे सकता?
*
अंतर्मन की शत शंकाएँ
अर्जुन सम करतीं विचलित
धर्मभूमि के कर्मयुद्ध का
प्रेरक होता है विगलित
*
फिर निराश होता थक जाता
हार सहज शुभ सुखद लगे
उच्च लक्ष्य परित्याग, सरलतम
जीवन खुद को सफल लगे
*
दुविधाओं के भँवरजाल में
डूब-डूब वह जाता है
क्या करना है सोच न पाता
खड़ा, ठगा पछताता है
*

क्या होगा?:

क्या होगा?:
अगले २० वर्षों में मिटने-टूटनेवाले देश
*
अगले २० वर्षों में दुनिया के ११ देशों  के सामने मिटने या टूटने का गंभीर खतरा है। 
१. स्पेन: केटेलेनिआ तथा बास्क क्षेत्रों में स्वतंत्रता की सबल होती माँग से २ देशों में विभाजन। 
२. उत्तर कोरिआ: न्यून संसाधनों के कारण दमनकारी शासन के समक्ष आत्मनिर्भरता की नीति छोड़ने की मजबूरी, शेष देशों से जुड़ते ही परिवर्तन और दोनों कोरिया एक करने की माँग। 
३. बेल्जियम: वालोनिआ तथा फ्लेंडर्स में विभाजन की लगातार बढ़ती माँग
४. चीन: प्रदूषित होता पर्यावरण, जल की घटती मात्र, २०३० तक चीन उपलब्ध जल समाप्त कर लेगा। प्रांतों में विभाजन की माँग।
५. इराक़: सुन्नी, कुर्द तथा शीट्स बहुल ३ देशों में विभाजन की माँग। 
६. लीबिया: ट्रिपोलिटेनिआ, फैजान तथा सायरेनीका में विभाजन। 
७. इस्लामिक स्टेट: तुर्किस्तान, सीरिया, सऊदी अरब, ईरान, तथा इराक समाप्त कर उसके क्षेत्र को आपस में बाँटने के लिये प्रयासरत।
८. यूनाइटेड किंगडम: स्कॉट, वेल्स तथा उत्तर आयरलैंड में स्वतंत्र होने के पक्ष में जनमत।
९. यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ अमेरिका: ५० प्रांतों का संघ, अलास्का तथा टेक्सास में स्वतंत्र होने की बढ़ती माँग।
१०. मालदीव: समुद्र में डूब जाने का भीषण खतरा।
११. पाकिस्तान: पंजाब, सिंध तथा बलूचों में अलग होने की माँग। 
१२. श्री लंका: तमिलों तथा सिंहलियों में सतत संघर्ष।

अभिलाषा काव्य गोष्ठी

विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर : दिल्ली शाखा 
काव्य लेखन गोष्ठी : विषय - अभिलाषा 
*
सहभागी - १. संजीव वर्मा 'सलिल' (अध्यक्ष), २. अंजू खरबंदा दिल्ली (संयोजक), ३. सदानंद कवीश्वर दिल्ली (संचालक), ४. निशि शर्मा 'जिज्ञासु' दिल्ली, ५. गीता चौबे 'गूँज' राँची, ६. भारती नरेश पाराशर जबलपुर, ७. पूनम झा कोटा, ८. पदम गोधा कोटा/गुरुग्राम, ९. मनोरमा जैन 'पाखी', भिंड, १०. पूनम कतरियार पटना, ११. रमेश सेठी, १२. सरला वर्मा भोपाल, १३. सुधा मल्होत्रा, १४. विभा तिवारी जैनपुर, १५. पूनम झा, १६. सुषमा सिंह सिहोरा, १७. शेख शहजाद शिवपुरी, १८. सपना सक्सेना ।   
*
१.  निशि शर्मा जिज्ञासु

अभिलाषा है करूँ मैं मन की,
जग की कोई फ़िकर न हो !
अभिलाषा है मिलूँ आपसे ,
रोकनेवाली डगर न हो !
अभिलाषा है निकलें घर से,
कोविड का ये क़हर न हो !
अभिलाषा है फुटपाथों पर,
निर्धनता की नहर न हो !
अभिलाषा है नशे में डूबी 
मेरे युवा की नज़र न हो !
अभिलाषा है ललना देश की
रहे निडर, कोई डर न हो !
अभिलाषा है जिएँ ज़िंदगी,
अवसादों का ज़हर न हो !
अभिलाषा बतियाएँ जी भर,
कोई अगर-मगर न हो !
अभिलाषा है जमें महफ़िलें,
घुटन भरे अब घर न हों !
अभिलाषा है मिलूँ जो रब से
फिर से आना इधर न हो !
अभिलाषा है मिलूँ जो तब से
फिर से आना इधर न हो !
१०/१२/२०२०
*
२. पदम् गोधा : श्रृंगार गीत 
सुधियों के बदल घिर आए 
मत जाओ अभी रेन गुजरना बाकि है 
यौवन लौट रहा पनघट से 
मंदिर में घन गनत बजे 
सपनों के बाजार सजे 
सागर में सूरज डूब रहा 
आबो चाँद संवारना बाकि है 
लहरों में लो तूफ़ान उठा 
छू गई पवन अनजाने में 
मन की कश्तियाँ दोल उठी 
जब पग भाटजी मयखाने में 
इस कलकल होती धरा में
 गहरे में उतरना बाकि है। 
सहमी सहमी सी प्रीत खड़ी 
भीना सा कंपन अधरों पर 
अंगड़ाई लेकर फूल खेले 
मदहोशी छी अधरों पर 
नयनों के प्याले छलक उठे 
अभी होश में आना नबकी है 
*
क्रमांक - 3, गीता चौबे गूँज

अभिलाषा : नवल युगल की

जीवन-राहों पर चलें, हम-तुम दोनों संग। 
सफर प्यार से तय करें, मन में लिए उमंग।। 
.
किया नया अनुबंध है, थाम हाथ में हाथ ।
सुख-दुख में छूटे नहीं, अब अपना यह साथ।।
.
अब तक तो हम थे रहे, मात-पिता की शान। 
होगा रखना ध्यान अब, दोनों कुल का मान।
.
सब कुछ मंगलमय रहे, सबका हो आशीष।
नवजीवन वरदान का, कृपा करें जगदीश।।
.
अभिलाषा अपनी यही, इतनी-सी बस चाह।
पहिए गाड़ी के बनें, निष्कंटक हो राह।। 
*
४. सदानंद कवीश्वर, दिल्ली
मुक्तक 
इच्छा है तेरी बिंदिया पर कोई मुक्तक रच डालूँ,
इच्छा है तेरी निंदिया पर कोई सपना बुन डालूँ,
मीठे अधरों से जो भी गीत कहे हैं तुमने अब तक,
उनमे से ही किसी एक को अपना जीवन कह डालूँ।
*
इच्छा है इस कालपत्र से, अच्छे पल चुन पाऊँ मै 
प्रेम सुधा के रंग लगा फिर थोड़ा सा रंग पाऊँ मै 
अधिक नहीं सामर्थ्य मेरी पर इतना सोचा है मैंने
एक रंगीला ऐसा पल-छिन, सखि! तुझको दे पाऊँ मै l
*
इच्छा है तेरी देहरी पर दीप बना जल पाऊँ मैं,
तेरी साँसों की गर्मी से, बर्फ बना गल पाऊँ मैं,
अंतर्मन के अंतरपट पर स्नेह मसि से जो लिख दीं 
तेरे जीवन में आकर, यूँ, इच्छित हो फल पाऊँ मैं l 
*
क्रमांक -5, पूनम झा, कोटा
मैं अभिलाषा हूँ
*
हर मानव के मन में मैं होती हूँ,
जाने कितने ही रूपों में होती हूँ,
हाँ माध्यम कर्मों का ही लेती हूँ ,
पर कर्मों के फल में मैं बसती हूँ,
आंखों में जा कई रंगों में सजती हूँ,
और सबकी अभिलाषा बनती हूँ,

कोई ऊँची उड़ान भरना चाहता है,
कोई खूब पढ़ाई करना चाहता है,
कोई सत्ता हासिल करना चाहता है,
कोई धन इक्कठा करना चाहता है,
मैं सबको जीने का मकसद देती हूँ,
अभिलाषा बनकर दिल में बसती हूँ,

माता-पिता जिम्मेदारी में रखते हैं,
बच्चे भी अपनी तैयारी में रखते हैं,
भाई-बन्धु होशियारी में रखते हैं,
मित्रगण दोस्ती-यारी में रखते हैं,
सबके मन पर मेरा ही पहरा है,
अभिलाषा से नाता जो गहरा है,

पति-पत्नी के प्रेम में रहती हूँ मैं,
उनके नोक-झोंक में भी रहती हूँ मैं,
बच्चों की परवरिश में रहती हूँ मैं,
शिक्षा के परिणाम में भी रहती हूँ मैं,
जीवन को सुगम बनाए रखती हूँ मैं,
अभिलाषा हूँ बिन भाषा चलती हूँ मैं,

जब भी कोई निराशा से घिर जाता है,
राह नहीं जब कोई उसे नजर आता है,
उस निराशा में आशा बनकर आती हूँ,
हर अनुभव से मैं और निखर जाती हूँ,
खट्टे-मीठे दोनों की सहभागी बनती हूँ,
अभिलाषा हूँ दिन-रात जागी रहती हूँ,
हाँ मैं अभिलाषा हूँ मन की भाषा खूब समझती हूँ।
*
क्रमांक - 6, मनोरमा जैन पाखी
अभिलाषा 

किसी छोटे बच्चे सी है मेरी,
जब तब जिद पर अड़ जाती है
जो है ही नहीं इसका,
वही माँगने लगती है,
चंदा सूरज तारे सपने,
सब इसको भाते हैं,
मगर पास में जो है इसके
वो नहीं इसको भाते हैं,
पँछी सा उड़ना तो है
मगर सारा गगन चाहिए,
मछली सा तैरना तो है
मगर सारा सागर चाहिए,
बूंद सी खत्म हो सकती है,
मगर भीगनी पूरी धरती चाहिए,
प्यार भी चाहे ये किसी का
तो वो भरपूर और सारा इसे
मेरी ये पगली अभिलाषा,
बच्चे सी जिद क्यों करती है.. 
रहती है मन में मेरे,
खूब उछलती रहती है,
कभी कभी मुझको ही 
खूब ये रुलाती है,
पता है इसको न पूरी होगी,
फिर भी जुबाँ पर आना है,
कोई करे पूरा इसलिये,
कविता में तक दिख जाना है,
मेरी अभिलाषा बिल्कुल बांवरी है
अपनी ही धुन में रहती है.. 
बहुत बाँधा मैने इसको,
बेड़ियाँ पहनाई मजबूरी की,
दुनिया क्या कहेगी के
अनगिनत पहरे लगाए,
बार बार दफनाया इसको,
बुरा भला बहुत कहा इसको,
मगर हर बेड़ी तोड़ देती है
हर पहरा लांघ आती है,
कब्र से भूतों की तरह 
हर बार उठकर आ जाती है,
न जाने कौन सा अमृत
पीकर आई है ये मेरी अभिलाषा.. 
सोचती जब कभी मैं हूँ,
इसको नजरअंदाज कर दूँ,
भेष बदलकर, जोकर बनकर
दुश्मन बनकर, दोस्त बनकर
सामने मेरे आ जाती है
सपने सलोने पलकों पर सजाकर
हर बार बहला जाती है.. 
क्या करूँ ओ अभिलाषा तेरा,
कैसे तुझसे छुटकारा पाऊँ
दिल से कहती हूँ साथ छोड़ दे,
मगर खुद इसके प्यार में
जाने क्यों उलझ जाती हूँ,
अभिलाषा जैसे मेरी संगी साथी
मेरे दिल में रहती है,
और मेरे सुनहरे सपनों का
पालन अच्छे से करती है।
अभिलाषा 
करूँ न ये कैसे सम्भव हो
कैसे धड़कता दिल पत्थर हो,
अभिलाषा मेरी कुछ नहीं
मगर कुछ कर गुजरने की है
मरकर भी जिंदा रहूँ कहीं
कुछ ऐसा कर गुजरने की है।
*
७. शेख शहजाद हुसैन 
कौन अपना 
कह दो की तुम मेरी हो 
वरना गंगा-जमीनी मुल्क में हमें डरना 
अब वे भवन एकता के नहीं सबूत 
दिल में अपने यूं जगह दीजिए 
एक पक्षी समाधान नहीं लोकतंत्री सबूत 

क्रमांक -8, पूनम कतरियार
मैं 'भारत'
सुवर्ण- खचित,अभिराम-निष्कलुष;
मेरे मस्तक पर शोभित हिमकिरीट.
दसों दिशि प्रशंसित, स्नेहसिक्त,
गर्वोन्नत ग्रीवा, मैं 'भारत'!
युवा-उष्ण-ऊर्जा से गुंफित,
उत्कट अभिलाषा से संचित.
गौरवपूर्ण-उपलब्धियों का प्रकाश,
अशेष विजयों का स्वर्ण-इतिहास.
सृजा मेरा स्वरुप स्वयं शिव ने,
महावीर के तप,बुद्ध के ध्यान ने.
मुझी में है अशोक व गाँधी का त्याग,
मुझी में है पोरस-सुभाष की आग.
गुरु की बानी,माँ -टेरेसा का राग.
कजली-चैता,संत-योगियों का संयम.
मेरी गोद में हुलसती नदियाँ,
खेतों में हैं पुलकित स्वर्ण-बालियाँ.
हैरान संसार मेरे अध्यातम-ज्ञान से,
सुरभित विश्व मेरे केसर- गंध से.
मेरे चरणों में सागर नत है,
मेरे हुंकार से पड़ोसी पस्त है. 
मेरा चंद्रयान छू रहा ब्रह्मांड,
नहीं सका कोई कभी मुझे बांध,
सुवर्ण- खचित,अभिराम-निष्कलुष;
मेरे मस्तक पर शोभित हिमकिरीट.
दसों दिशि प्रशंसित-स्नेहसिक्त,
गर्वोन्नत ग्रीवा, मैं 'भारत'!
*
११. भारती नरेश पाराशर
मेरी अभिलाषा
*
बुजुर्गों की झुरियां की
पके बालों की सफेदी की 
कुछ लिखूंँ तजुर्बे की परिभाषा 
यही मेरी अभिलाषा
कटें पेड़ के ठूंठ की
चढ़े अर्थी पर फूल की
कुछ लिखूंँ मौन भाषा 
यही मेरी अभिलाषा
अनाथ के व्यथा की
सुने पन की दशा की
कुछ लिखूंँ उनके मन की पिपासा
यही मेरी अभिलाषा
गरीबों के गरीबी की
जीविका के बेबसी की
कुछ लिखूंँ पाने की जिज्ञासा
यही मेरी अभिलाषा
छली स्त्री के चरितार्थ की
पुरुष के पुरुषार्थ की 
कुछ लिखूंँ असामाजिक निराशा 
यही मेरी हैं अभिलाषा
नारी उत्थान की
आत्म-सम्मान की 
कुछ लिखूंँ पाने की आशा 
यही मेरी अभिलाषा 
जीवन के अधिकार की
हक के दावेदार की
कुछ लिखूँ देने की दिलासा
यही मेरी अभिलाषा 
वन प्राणी के विहार की
उनके सुनहरे संसार की
लिखूंँ जंगल का जलसा 
यही मेरी अभिलाषा 
नेता की चतुराई की 
जनता की ठगाई की 
कुछ लिखूंँ हथकंडे का तमाशा 
यही मेरी अभिलाषा
जीवन के सरगम की
ऋतुराज वसंत की 
कुछ लिखूंँ गीत संग ताशा
यही मेरी अभिलाषा
छलकते आंसुओं की 
अनगिनत हैं परिभाषा 
कुछ लिखूंँ भरे सुख का कासा 
यही मेरी अभिलाषा
*
१२. संध्या गोयल सुगम्या
"अभिलाषा"

अभिलाषा 
कुछ कर गुज़र जाने की
देश के लिये मर मिट जाने की
करा देती है काम महान
सदियों तक याद रह पाने की

अभिलाषा
जब हो स्वार्थ भरी
नीच,कपटी खोखली निरी
ढह जाती है एक दिन ऐसे
ज्यों गिरे कोई चट्टान भुरभुरी

अभिलाषा
रखता है कोना मेरे दिल का
आये समय जब जाने का
मलाल न हो तब मन में
जीवन व्यर्थ गंवाने का

अभिलाषा

मेरे मन की, कर लूँ गौर
पा जाऊँ ऐसा कोई ठौर
जीवन को कर दे जो सार्थक
मिलने से पहले अंतिम कौर
*
१३. विभा तवारी 
सरसी छंद
अन्तर्मन में अभिलाषाएं ,लेती चरण पसार।
सफल मनोरथ में हीं जीवन, हो जाता है पार।।
जलता रहता है जीवन भर,बन जाने को राख।
अहंकार मन मे भर भर के,हो जाता है खाक।।
विधाता छंद
दिखा मजबूत अभिलाषा जगा दी प्यार की आशा,
नहीं मैं जानती थी धमनियों की नित नई भाषा।
जहाँ अपनत्व बहता हो नसों में रक्त के जैसा,
वहीं पर ये हृदय जाता रहा बन के सदा प्यासा।।
ग़ज़ल
जो कभी मिल न सके उसकी तमन्ना न करो ।
नींद उड़ जाएगी इतना मुझे सोचा न करो ।।

हर खुशी बेच के जो प्यार कमाया मैंने।
तुम खुदा के लिए उस प्यार का सौदा न करो।।

मेरे होते हुए ऐ जान-ए-तमन्ना न यहांँ।
तुम किसी और खिलौने की तमन्ना न करो।।

ख्वाब वो देखो कि जिसकी कोई ताबीर मिले।
नक़्श बहते हुए पानी पे बनाया न करो।।

ए 'विभा' घेर न ले तुझ को भी रुसवाई कहीं।
वक़्त से पहले किसी बात की चर्चा न करो।।
*
१४. सरला वर्मा, भोपाल

तुम बदल करके देखो यह अभिलाषा मेरी 
यही चाह मेरी तुम बदल करके देखो यही चाह मेरी

मैंने आंगन में तुलसी का बिरवा है रोपा, 
तुम नमन करके देखो यही चाह मेरी

इतना सुंदर यह तन मन, और सुंदर है जीवन
शुक्र भगवान का करते चलो चाह मेरी

रिश्तो की गरिमा में सारी खुशियाँ छुपी हैं, 
तुम निहारो जतन से यही चाह मेरी

दुआओं के साए पली बेटियों का
महकने दो जीवन यही चाह मेरी

मानवता के आँगन में, फलते फरिश्तों को, 
हृदय आसन बिठा लो यही चाह मेरी

ना तुम्हारी चली है, ना आगे चलेगी, 
निजी स्वार्थों को अपने हवन करके देखो

मुकद्दर के मालिक के हर फैसले को, 
तुम लगन से निभा लो यही चाह मेरी

तुम बदल कर के देखो यही चाहत मेरी
*
रमेश सेठी 
मुक्तक 
अभिलाषा नहीं है चाँद तारों को छु पाऊँ 
अभिलाषा नाहने है समंदर बमन गोते लगाऊं 
अभोलाशा नहीं है बड़ा नाम कमाऊँ 
अभिलाष ायहि यही आप सबसे मिल जाऊं 
*
सपना सक्सेना दत्ता दिल्ली 
मेरी अभिलाषा है इतनी हर जनम में भारत देश मिले 
इसकी गलियां नदियाँ माटी सांस्कृतिक परिवेश मिले 
हिमगिरि सा हीरक मुकुट बना 
जगज्जेता उलटे पाँव गए यहाँ भाड़ भी फोड़े एक चना 

मंगलवार, 17 अगस्त 2021

लघुकथा- टूटती शाखें

लघुकथा-
टूटती शाखें
*
नुक्कड़ पर खड़े बरगद की तरह बब्बा भी साल-दर-साल होते बदलावों को देखकर मौन रह जाते थे। परिवार में खटकते चार बर्तन अब पहले की तरह एक नहीं रह पा रहे थे। कटोरियों को थाली से आज़ादी चाहिए थी तो लोटे को बाल्टी की बन्दिशें अस्वीकार्य थीं। फिर भी बरसों से होली-दिवाली मिल-जुलकर मनाई जा रही थी।
राजनीति के राजमार्ग के रास्ते गाँव में घुसपैठ कर चुका शहर ने टाट पट्टियों पर बैठकर पढ़ते बच्चे-बच्चियों को ऐसा लुभाया कि सुनहरे कल के सपनों को साकार करने के लिए अपनों को छोड़कर, शहर पहुँच कर छात्रावसों के पिंजरों में कैद हो गए।
कुछ साल बाद कुछ सफलता के मद में और शेष असफलता की शर्म से गाँव से मुँह छिपाकर जीने लगे। कभी कोई आता-जाता गाँववाला किसी से टकरा जाता तो राम राम दुआ सलाम करते हुए समाचार देता तो समाचार न मिलने को कुशल मानने के आदी हो चुके बब्बा घबरा जाते। ये समाचार नए फूल खिलने के कम हो होते थे जबकि चाहे जब खबरें बनती रहती थीं टूटती शाखें।
**

मुक्तक , दोहा

दोहा सलिला
श्री-प्रकाश पाकर बने, तमस चन्द्र सा दिव्य.
नहीं खासियत तिमिर की, श्री-प्रकाश ही भव्य ..
*
आशा-आकांक्षा लिये, सबकी जीवन-डोर.
'सलिल' न अब तक पा सका, कहाँ ओर या छोर.
*
मुक्तक :
अधरों पर सोहे मुस्कान
नित गाओ कोयल सम गान
हर बाधा पर विजयी हो -
शीश उठा रह सीना तान
*
मन की पीड़ा को शब्दों ने जब-जब भी गाया है
नूर खुदाई उनमें बरबस उतर-उतर आया है
करा कीर्तन सलिल रूप का, लीन हुआ सुध खोकर
संगत-रंगत में सपना साकार हुआ पाया है
*
 
कुसुम वीर हो, भ्रमर बहादुर, कली पराक्रमशाली
सोशल डिस्टेंसिंग पौधों में रखता है हर माली
गमछे-चुनरी से मुँह ढँककर, होंगी अजय बहारें-
हाथ थाम दिनकर का ऊषा, तम हर दे खुशहाली
*

षडपदिक सवैया

नवप्रयोग
षडपदिक सवैया
*
पौ फटी नीलांबरी नभ, मेघ मल्लों को बुलाता, दामिनी की छवि दिखा, दंगल कराता।
होश खोते जोश से भर, टूट पड़ते, दाँव चलते, पटक उठते मल्ल कोई जय न पाता।
स्वेद धारा प्रवह धरती को भिगोती, ऊगते अंकुर नए शत, नर सृजन दुंदुभि बजाता।
दामिनी जल पतित होती, मेघ रो आँसू बहाता, कुछ न पाता।
पवन सनन सनन बहता, सत्य कहता मत लड़ो, मिलकर रचे कुछ नित नया जो कीर्ति पाता।
गरजकर आतंक की जो राह चलता, कुछ न पाता, सब गँवाता, हार कहता बहुत निष्ठुर है विधाता।
*
संजीव
१७-८-२०१९, मथुरा
बी ३-५२ संपर्क क्रांति एक्सप्रेस

गीत - यह न भूलो

गीत -
यह न भूलो
*
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
*
हमारे दिल में पली थी
सरफरोशी की तमन्ना।
हमारी गर्दन कटी थी
किंतु
किंचित भी झुकी ना।
काँपते थे शत्रु सुनकर
नाम जिनका
हम वही हैं।
कारगिल देता गवाही
मर अमर
होते हमीं हैं।
*
इंकलाबों की करी जयकार
हमने फेंककर बम।
झूल फाँसी पर गये
लेकिन
न झुकने दिया परचम।
नाम कह 'आज़ाद', कोड़े
खाये हँसकर
हर कहीं हैं।
नहीं धरती मात्र
देवोपरि हमें
मातामही हैं।
*
पैर में बंदूक बाँधे,
डाल घूँघट चल पड़ी जो।
भवानी साकार दुर्गा
भगत के
के संग थी खड़ी वो।
विश्व में ऐसी मिसालें
सत्य कहता हूँ
नहीं हैं।
ज़िन्दगी थीं या मशालें
अँधेरा पीती रही
रही हैं।
*
'नहीं दूँगी कभी झाँसी'
सुनो, मैंने ही कहा था।
लहू मेरा
शिवा, राणा, हेमू की
रग में बहा था।
पराजित कर हूण-शक को
मर, जनम लेते
यहीं हैं।
युद्ध करते, बुद्ध बनते
हमीं विक्रम, 'जिन'
हमीं हैं।
*
विश्व मित्र, वशिष्ठ, कुंभज
लोपामुद्रा, कैकयी, मय ।
ऋषभ, वानर, शेष, तक्षक
गार्गी-मैत्रेयी
निर्भय?
नाग पिंगल, पतंजलि,
नारद, चरक, सुश्रुत
हमीं हैं।
ओढ़ चादर रखी ज्यों की त्यों
अमल हमने
तही हैं।
*
देवव्रत, कौंतेय, राघव
परशु, शंकर अगम लाघव।
शक्ति पूजित, शक्ति पूजी
सिय-सती बन
जय किया भव।
शून्य से गुंजित हुए स्वर
जो सनातन
हम सभी हैं।
नाद अनहद हम पुरातन
लय-धुनें हम
नित नयी हैं।
*
हमीं भगवा, हम तिरंगा
जगत-जीवन रंग-बिरंगा।
द्वैत भी, अद्वैत भी हम
हमीं सागर,
शिखर, गंगा।
ध्यान-धारी, धर्म-धर्ता
कम-कर्ता
हम गुणी हैं।
वृत्ति सत-रज-तम न बाहर
कहीं खोजो,
त्रय हमीं हैं।
*
भूलकर मत हमें घेरो
काल को नाहक न टेरो।
अपावन आक्रांताओं
कदम पीछे
हटा फेरो।
बर्फ पर जब-जब
लहू की धार
सरहद पर बही हैं।
कहानी तब शौर्य की
अगणित, समय ने
खुद कहीं हैं।
*
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
*

सरसी छंद

छंद सलिला: पहले एक पसेरी पढ़ / फिर तोला लिख...
छंद सलिला सतत प्रवाहित, मीत अवगाहन करें
शारदा का भारती सँग, विहँस आराधन करें
*
जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह-प्रवेश त्यौहार
सलिल बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार
*
पाठ १०१
सरसी छंद
*
लक्षण:
१. ४ पंक्ति.
२. प्रति पंक्ति २७ मात्रा.
३. १६-११ मात्राओं पर यति.
४. पंक्ति के अंत में गुरु-लघु मात्रा.
५. दो-दो पंक्ति में सम तुकांत.
लक्षण छंद:
सरसी सोलह-ग्यारह रखिए मात्रा, गुरु-लघु अंत.
नित्य करें अभ्यास सधे तब, कहते कविजन-संत.
कथ्य भाव रस अलंकार छवि, बिंब-प्रतीक मनोहर.
काव्य-कामिनी जन-मन मोहे, रचना बने धरोहर.
*
उदाहरण:
पशु-पक्षी,कृमि-कीट करें सुन, निज भाषा में बात.
हैं गुलाम मानव-मन जो पर-भाषा बोलें तात.
माँ से ज्यादा चाची-मामी,'सलिल' न करतीं प्यार.
माँ-चरणों में स्वर्ग, करो सेवा तो हो उद्धार.
***
हिंदी आटा माढ़िये, उर्दू मोयन डाल
सलिल संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल
*

मुक्तक, राखी गीत

मुक्तक
अधरों पर सोहे मुस्कान
नित गाओ कोयल सम गान
हर बाधा पर विजयी हो -
शीश उठा रह सीना तान
***
राखी गीत
*
बंधनों से मुक्त हो जा
*
बंधनों से मुक्त हो जा
कह रही राखी मुखर हो
कभी अबला रही बहिना
बने सबला अब प्रखर हो
तोड़ देना वह कलाई
जो अचाहे राह रोके
काट लेना जुबां जो
फिकरे कसे या तुझे टोंके
सासरे जा, मायके से
टूट मत, संयुक्त हो जा
कह रही राखी मुखर हो
बंधनों से मुक्त हो जा
बलि न तेरे हौसलों को
रीति वामन कर सके अब
इरादों को बाँध राखी
तू सफलता वर सके अब
बाँध रक्षा सूत्र तू ही
ज़िंदगी को ज़िंदगी दे
हो समर्थ-सुयोग्य तब ही
समय तुझको बन्दगी दे
स्वप्न हर साकार करने
कोशिशों के बीज बो जा
नयी फसलें उगाना है
बंधनों से मुक्त हो जा
पूज्य बन जा राम राखी
तुझे बाँधेगा जमाना
सहायक हो बँधा लांबा
घरों में रिश्ते जिलाना
वस्त्र-श्रीफल कर समर्पित
उसे जो सब योग्य दिखता
अवनि की हर विपद हर ले
शक्ति-वंदन विश्व करता
कसर कोई हो न बाकी
दाग-धब्बे दिखे धो जा
शिथिल कर दे नेह-नाते
बंधनों से मुक्त हो जा
- संजीव सलिल
१५ अगस्त २०१६

गीता गायन अध्याय १

गीता गायन
अध्याय १
पूर्वाभास
कड़ी ३.
*
अभ्यास सद्गुणों का नित कर
जीवन मणि-मुक्ता सम शुचि हो
विश्वासमयी साधना सतत
कर तप: क्षेत्र जगती-तल हो
*
हर मन सौंदर्य-उपासक है
हैं सत्य-प्रेम के सब भिक्षुक
सबमें शिवत्व जगता रहता
सब स्वर्ग-सुखों के हैं इच्छुक
*
वे माता वहाँ धन्य होतीं
होती पृथ्वी वह पुण्यमयी
होता पवित्र परिवार व्ही
होती कृतार्थ है वही मही
*
गोदी में किलक-किलक
चेतना विहँसती है रहती
खो स्वयं परम परमात्मा में
आनंद जलधि में जो बहती
*
हो भले भिन्न व्याख्या इसकी
हर युग के नयन उसी पर थे
जो शक्ति सृष्टि के पूर्व व्याप्त
उससे मिलने सब आतुर थे
*
हम नेत्र-रोग से पीड़ित हो
कब तप:क्षेत्र यह देख सके?
जब तक जीवित वे दोष सभी
तब तक कैसा कब लेख सके?
*
संसार नया तब लगता है
संपूर्ण प्रकृति बनती नवीन
हम आप बदलते जाते हैं
हो जाते उसमें आप लीन
*
परमात्मा की इच्छानुसार
जीवन-नौका जब चलती है
तब नये कलेवर के मानव
में, केवल शुचिता पलती है
*
फिर शोक-मुक्त जग होता है
मिलता है उसको नया रूप
बनकर पृथ्वी तब तप:क्षेत्र
परिवर्तित करती निज स्वरूप
*
जीवन प्रफुल्ल बन जाता है
भौतिक समृद्धि जुड़ जाती है
आत्मिक उत्थान लक्ष्य लेकर
जब धर्म-शक्ति मुड़ जाती है
*
है युद्ध मात्र प्रतिशोध बुद्धि
जिसमें हर क्षण बढ़ता
दो तत्वों के संघर्षण में
अविचल विकास क्रम वह गढ़ता
*
कुत्सित कर्मों का जनक यहाँ
अविवेक भयानकतम दुर्मुख
जिससे करना संघर्ष, व्यक्ति का
बन जाता है कर्म प्रमुख
*
कर्मों का गुप्त चित्र अंकित
हो पल-पल मिटता कभी नहीं
कर्मों का फल दें चित्रगुप्त
सब ज्ञात कभी कुछ छिपे नहीं
*
यह तप:क्षेत्र है कुरुक्षेत्र
जिसमें अनुशासन व्याप्त सकल
जिसका निर्णायक परमात्मा
जिसमें है दण्ड-विधान प्रबल
*
बन विष्णु सृष्टि का करता है
निर्माण अनवरत वह पल-पल
शंकर स्वरूप में वह सत्ता
संहार-वृष्टि करता छल-छल
*
'मैं हूँ, मेरा है, हमीं रहें,
ये अहंकार के पुत्र व्यक्त
कल्मष जिसका आधार बना
है लोभ-स्वार्थ भी पूर्व अव्यक्त
*
कुत्सित तत्वों से रिक्त-मुक्त
जस को करना ही अनुशासन
संपूर्ण विश्व निर्मल करने
जुट जाएँ प्रगति के सब साधन
*
कौरव-पांडव दो मूर्तिमंत
हैं रूप विरोधी गतियों के
ले प्रथम रसातल जाती है
दूसरी स्वर्ग को सदियों से
*
आत्मिक विकास में साधक जो
पांडव सत्ता वह ऊर्ध्वमुखी
माया में लिपट विकट उलझी
कौरव सत्ता है अधोमुखी
*
जो दनुज भरोसा वे करते
रथ, अश्वों, शासन, बल, धन का
पर मानव को विश्वास अटल
परमेश्वर के अनुशासन का
*
संघर्ष करें अभिलाषा यह
मानव को करती है प्रेरित
दुर्बुद्धि प्रबल लालसा बने
हो स्वार्थवृत्ति हावी उन्मत
*
हम नहीं जानते 'हम क्या हैं?
क्या हैं अपने ये स्वजन-मित्र?
क्या रूप वास्तविक है जग का
क्या मर्म लिये ये प्रकृति-चित्र?
*
अपनी आँखों में मोह लिये
हम आजीवन चलते रहते
भौतिक सुख की मृगतृष्णा में
पल-पल खुद को छलते रहते
*
जग उठते हममें लोभ-मोह
हबर जाता मन में स्वार्थ हीन
संघर्ष भाव अपने मन का
दुविधा-विषाद बन करे दीन
*
भौतिक सुख की दुर्दशा देख
होता विस्मृत उदात्त जीवन
हो ध्वस्त न जाए वह क्षण में
हम त्वरित त्यागते संघर्षण
*
अर्जुन का विषाद
सुन शंख, तुमुल ध्वनि, चीत्कार
मनमें विषाद भर जाता है
हो जाते खड़े रोंगटे तब
मन विभ्रम में चकराता है
*
हो जाता शिथिल समूचा तन
फिर रोम-रोम जलने लगता
बल-अस्त्र पराये गैर बनकर डँसते
मन युद्ध-भूमि तजने लगता
*
जिनका कल्याण साधना ही
अब तक है रहा ध्येय मेरा
संहार उन्हीं का कैसे-कब
दे सके श्रेय मुझको मेरा?
*
यह परंपरागत नैतिकता
यह समाजगत रीति-नीति
ये स्वजन, मित्र, परिजन सारे
मिट जाएँगे प्रतीक
*
हैं शत्रु हमारे मानव ही
जो पिता-पितामह के स्वरूप
उनका अपना है ध्येय अलग
उनकी आशा के विविध रूप
*
उनके पापों के प्रतिफल में
हम पाप स्वयं यदि करते हैं
तो स्वयं लोभ से हो अंधे
हम मात्र स्वार्थ ही वरते हैं
*
हम नहीं चाहते मिट जाएँ
जग के संकल्प और अनुभव
संतुलन बिगड़ जाने से ही
मिटते कुलधर्म और वैभव
*
फिर करुणा, दया, पुण्य जग में
हो जाएँगे जब अर्थहीन
जिनका अनुगमन विजय करती
होकर प्रशस्ति में धर्मलीन
*
मैं नहीं चाहता युद्ध करूँ
हो भले राज्य सब लोकों का
अपशकुन अनेक हुए देखो
है खान युद्ध दुःख-शोकों का
*
चिंतना हमारी ऐसी ही
ले डूब शोक में जाती है
किस हेतु मिला है जन्म हमें
किस ओर हमें ले जाती है?
*
जीवन पाया है लघु हमने
लघुतम सुख-दुःख का समय रहा
है माँग धरा की अति विस्तृत
सुरसा आकांक्षा रही महा
*
कितना भी श्रम हम करें यहाँ
अभिलाषाएँ अनेक लेकर
शत रूप हमें धरना होंगे
नैया विवेचना की खेकर
*
सीधा-सदा है सरल मार्ग
सामान्य बुद्धि यह कहती है
कर लें व्यवहार नियंत्रित हम
सर्वत्र शांति ही फलती है
*
ज्यों-ज्यों धोया कल्मष हमने
त्यों-त्यों विकीर्ण वह हुआ यहाँ
हम एक पाप धोने आते
कर पाप अनेकों चले यहाँ
*
प्राकृतिक कार्य-कारण का जग
इससे अनभिज्ञ यहाँ जो भी
मानव-मन उसको भँवर जाल
कब समझ सका उसको वह भी
*
है जनक समस्याओं का वह
उससे ही जटिलतायें प्रसूत
जानना उसे है अति दुष्कर
जो जान सका वह है सपूत
*
अधिकांश हमारा विश्लेषण
होता है अतिशय तर्कहीन
अधिकांश हमारी आशाएँ
हैं स्वार्थपूर्ण पर धर्महीन
*
जो मुक्ति नहीं दे सकती हैं
जीवन की किन्हीं दशाओं में
जब तक जकड़े हम रहे फँसे
है सुख मरीचिका जीवन में
*
लगता जैसे है नहीं कोई
मेरा अपना इस दुनिया में
न पिता-पुत्र मेरे अपने
न भाई-बहिन हैं दुनिया में
*
उत्पीड़न की कैसी झाँकी
घन अंधकार उसका नायक
चिंता-संदेह व्याप्त सबमें
एकाकीपन जिसका गायक
*
जब भी होता संघर्ष यहाँ
हम पहुँच किनारे रुक जाते
साहस का संबल छोड़, थकित
भ्रम-संशय में हम फँस जाते
*

दोहा, मुक्तक, कुण्डलिया

दोहा सलिला
*
श्री-प्रकाश पाकर बने, तमस चन्द्र सा दिव्य.
नहीं खासियत तिमिर की, श्री-प्रकाश ही भव्य ..
*
आशा-आकांक्षा लिये, सबकी जीवन-डोर.
'सलिल' न अब तक पा सका, कहाँ ओर या छोर.
*
मुक्तक :
मन की पीड़ा को शब्दों ने जब-जब भी गाया है
नूर खुदाई उनमें बरबस उतर-उतर आया है
करा कीर्तन सलिल रूप का, लीन हुआ सुध खोकर
संगत-रंगत में सपना साकार हुआ पाया है

कुंडलिया  छंद :
रावण लीला देख
*
लीला कहीं न राम की, रावण लीला देख.
मनमोहन है कुकर्मी, यह सच करना लेख..
यह सच करना लेख काटेगा इसका पत्ता.
सरक रही है इसके हाथों से अब सत्ता..
कहे 'सलिल' कविराय कफन में ठोंको कीला.
कभी न कोई फिर कर पाये रावण लीला..
*
खरी-खरी बातें करें, करें खरे व्यवहार.
जो कपटी कोंगरेस है,उसको दीजे हार..
उसको दीजै हार सबक बाकी दल लें लें.
सत्ता पाकर जन अधिकारों से मत खेलें..
कुचले जो जनता को वह सरकार है मरी.
'सलिल' नहीं लाचार बात करता है खरी.
*
फिर जन्मा मारीच कुटिल सिब्बल पर थू है.
शूर्पणखा की करनी से फिर आहत भू है..
हाय कंस ने मनमोहन का रूप धरा है.
जनमत का अभिमन्यु व्यूह में फँसा-घिरा है..
कहे 'सलिल' आचार्य ध्वंस कर दे मत रह घिर.
नव स्वतंत्रता की नव कथा आज लिख दे फिर..
***

गीत

सामयिक गीत:
आज़ादी की साल-गिरह
संजीव 'सलिल'
*
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
चमक-दमक, उल्लास-खुशी,
कुछ चेहरों पर तनिक दिखी.
सत्ता-पद-धनवालों की-
किस्मत किसने कहो लिखी?
आम आदमी पूछ रहा
क्या उसकी है जगह कहीं?
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
पाती बांधे आँखों पर,
अंधा तौल रहा है न्याय.
संसद धृतराष्ट्री दरबार
कौरव मिल करते अन्याय.
दु:शासन शासनकर्ता
क्यों?, क्या इसकी कहो वज़ह?
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
उच्छ्रंखलता बना स्वभाव.
अनुशासन का हुआ अभाव.
सही-गलत का भूले फर्क-
केर-बेर का विषम निभाव.
दगा देश के साथ करें-
कहते सच को मिली फतह.
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
निज भाषा को त्याग रहे,
पर-भाषा अनुराग रहे.
परंपरा के ईंधन सँग
अधुनातनता आग दहे.
नागफनी की फसलों सँग-
कहें कमल से: 'जा खुश रह.'
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
संस्कार को भूल रहें.
मर्यादा को तोड़ बहें.
अपनों को, अपनेपन को,
सिक्कों खातिर छोड़ रहें.
श्रम-निष्ठा के शाहों को
सुख-पैदल मिल देते शह.
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
१७-८ २०१० 
*

सोमवार, 16 अगस्त 2021

शांति-राज स्वपुस्तकालय


- : विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर : समन्वय प्रकाशन जबलपुर : - 
- : शांति-राज पारिवारिक पुस्तकालय योजना : - 
*
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान में नई पीढ़ी के मन में हिंदी के प्रति प्रेम तथा भारतीय संस्कारों के प्रति लगाव उत्पन्न करने के लिए न्यूनतम लागत में साहित्य प्रकाशन, वितरण, भूमिका लेखन, समीक्षा लेखन-प्रकाशन आदि में सहयोग अव्यावसायिक आधार पर किया जाता है। इस उद्देश्य से आरंभ पारिवारिक पुस्तकालय योजना के अंतर्गत निम्न में से १०००/- से अधिक की पुस्तकें मँगाने पर मूल्य में २५% छूट, पैकिंग व डाक व्यय निशुल्क की सुविधा उपलब्ध है। पुस्तक खरीदने के लिए salil.sanjiv@gmail.com या ७९९९५५९६१८/९४२५१८३२४४ पर सम्पर्क करें।
पुस्तक सूची
काव्य
०१. मीत मेरे कविताएँ -आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' १५०/-
०२. काल है संक्रांति का गीत-नवगीत संग्रह -आचार्य संजीव 'सलिल' १५०/-
०३. कुरुक्षेत्र गाथा खंड काव्य -स्व. डी.पी.खरे -आचार्य संजीव 'सलिल' ३००/-
०४. सड़क पर - नवगीत संग्रह - आचार्य संजीव 'सलिल' २५०/-
०५. ओ मेरी तुम - शृंगार गीत संग्रह - आचार्य संजीव 'सलिल' ३००/- 
०६. आदमी अभी जिंदा है - लघु कथा संग्रह - आचार्य संजीव 'सलिल' ३७०/-
०७. मध्य प्रदेश की २१ लोक कथाएं आचार्य संजीव 'सलिल' २५०/-
०८. मध्य प्रदेश की आदिवासी लोक कथाएं आचार्य संजीव 'सलिल' २५०/-
०९. पहला कदम काव्य संग्रह -डॉ. अनूप निगम १००/-
१०. कदाचित काव्य संग्रह -स्व. सुभाष पांडे १२०/-
११. Off And On -English Gazals Dr. Anil Jain ८०/-
१२. यदा-कदा -उक्त का हिंदी काव्यानुवाद- डॉ. बाबू जोसफ-स्टीव विंसेंट
१३. The Second Thought - English Poetry - Dr. Anil Jain​ १५०/- 
१४. दोहा-दोहा नर्मदा दोहा संकलन सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा २५०/-
१५. दोहा सलिला निर्मला दोहा संकलन सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा २५०/-
१६. दोहा दिव्य दिनेश दोहा संकलन सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा ३००/-
१७. काव्य कालिंदी - पद्य-गद्य संग्रह - डॉ. संतोष शुक्ला २५०/- 
१८. खुशियों की सौगात - दोहा सतसई - डॉ. संतोष शुक्ला २५०/-
१९. छंद सोरठा खास - डॉ। संतोष शुक्ल ३००/- 
२० हस्तिनापुर की बिथा कथा - डॉ. एम. एल. खरे २५०\-
२१. जीतने की जिद - काव्य संग्रह - सरला वर्मा १२५/- 
२२. Contemporary Hindi Poetry - B.P. Mishra 'Niyaz' ३००/-
२३. महामात्य महाकाव्य दयाराम गुप्त 'पथिक' ३५०/-
२४. कालजयी महाकाव्य दयाराम गुप्त 'पथिक' २२५/-
२५. सूतपुत्र महाकाव्य दयाराम गुप्त 'पथिक' १२५/-
२६. अंतर संवाद कहानियाँ रजनी सक्सेना २००/-
***

गीत

गीत
*
किसके-किसके नाम करूँ मैं, अपने गीत बताओ रे!
किसके-किसके हाथ पिऊँ मैं, जीवन-जाम बताओ रे!!
*
चंद्रमुखी थी जो उसने हो, सूर्यमुखी धमकाया है
करी पंखुड़ी बंद भ्रमर को, निज पौरुष दिखलाया है
''माँगा है दहेज'' कह-कहकर, मिथ्या सत्य बनाया है
किसके-किसके कर जोड़ूँ, आ मेरी जान बचाओ रे!
किसके-किसके नाम करूँ मैं, अपनी पीर बताओ रे!!
*
''तुम पुरुषों ने की रंगरेली, अब नारी की बारी है
एक बाँह में, एक चाह में, एक राह में यारी है
नर निश-दिन पछतायेगा क्यों की उसने गद्दारी है?''
सत्यवान हूँ हरिश्चंद्र, कोई आकर समझाओ रे!
किसके-किसके नाम करूँ कवि की जागीर बताओ रे!!
*
महिलायें क्यों करें प्रशंसा?, पूछ-पूछ कर रूठ रही
खुद सवाल कर, खुद जवाब दे, विषम पहेली बूझ रही
द्रुपदसुता-सीता का बदला, लेने की क्यों सूझ रही?
झाड़ू, चिमटा, बेलन, सोंटा कोई दूर हटाओ रे!
किसके-किसके नाम करूँ अपनी तकदीर बताओ रे!!
*
देवदास पारो को समझ न पाया, तो क्यों प्यार किया?
'एक घाट-घर रहे न जो, दे दगा', कहे कर वार नया
'सलिल बहे पर रहता निर्मल', समझाकर मैं हार गया
पंचम सुर में 'आल्हा' गाए, 'कजरी' याद दिलाओ रे!
किसके-किसके नाम करूँ जिव्हा-शमशीर बताओ रे!!
*
कुसुम, सुमन, नीलू, अमिता, पूर्णिमा, नीरजा आएँगी
'पत्नी को परमेश्वर मानो', सबको पाठ पढ़ाएँगी
पत्नीव्रती न जो कवि होगा, उससे कलम छुड़ाएँगी
कोई भी मौसम हो तुम गुण पत्नी के ही गाओ रे!
किसके-किसके नाम करूँ कवि आहत वीर बताओ रे!!
***

मुक्तक

मुक्तक सलिला :
संजीव
*
नयन में शत सपने सुकुमार
अधर का गीत करे श्रृंगार
दंत शोभित ज्यों मुक्तामाल
केश नागिन नर्तित बलिहार
*
भौंह ज्यों प्रत्यंचा ली तान
दृष्टि पत्थर में फूंके जान
नासिका ऊँची रहे सदैव
भाल का किंचित घटे न मान
*
सुराही कंठ बोल अनमोल
कर्ण में मिसरी सी दे घोल
कपोलों पर गुलाब खिल लाल
रहे नपनों-सपनों को तोल
१६-८-२०२० 
*

षड्मात्रिक मुक्तिका

षड्मात्रिक मुक्तिका
*
रवि आ भा
छिप जाता
अनकहनी
कहवाता
माटी भी
है माता
जो खोता
वह पाता
मत तोड़ो
मन नाता
जो आता
वह जाता
पथ-भूला
समझाता
**

विरासत देवराज दिनेश

विरासत
देवराज दिनेश
*
आह्वान
ध्यान से सुनें राष्ट्र-संतान, राष्ट्र का मंगलमय आह्वान.
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.
राष्ट्र पर घिरी आपदा डेक,सजग हों युग के भामाशाह
दान में दे अपना सर्वस्व और पूरी कर मन की चाह
राष्ट्र के रक्षा के हित आज,खोल दो अपना कोष कुबेर
नहीं तो पछताओगे मीत,हो गई अगर तनिक भी देर
समझकर हमें निहत्था,प्रबल शत्रु ने हम पर किया प्रहार
किन्तु अपना तो यह आदर्श,किसी का रखते नहीं उधार
हमें भी ब्याज सहित प्रतिउत्तर उनको देना है तत्काल
शीघ्र अपनानी होगी शिव को रिपु के नरमुंडों की माल
राष्ट्र को आज चाहिए वीर, वीर भी हठी हमीर समान .
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.
राष्ट्र के कण-कण में आज उठ रही गर्वीली आवाज़
वक्ष पर झेल प्रबल तूफान शत्रु पर हमें गिरानी गाज
देश की सीमाओं पर पागल कौवे मचा रहे हैं शोर
अभी देगा उनको झकझोर,बली गोविन्द सिंह का बाज
किया था हमने जिससे नेह,दिया था जिसको अपना प्यार
बना वह आस्तीन का सांप,हमीं पर आज कर रहा वार
समझ हमको उन्मत्त मयूर,मगन-मन देख नृत्य में लीन
किया आघात,न उसको ज्ञात,सांप है मोरों का आहार
राष्ट्र चाहेगा जैसा,वैसा हीं अब हम देंगे बलिदान .
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.
राष्ट्र को चाहिए देवी कैकेयी का अदम्य उत्साह
धूरी टूटे रण की,दे बाँह, पराजय को दे जय की राह
राष्ट्र को आज चाहिए गीता के नायक का वह उद्घोष
मोह ताज हर अर्जुन के मानस-पट पर लहराए आक्रोश
आधुनिक इन्द्र कर रहा आज राष्ट्र हित इंद्रधनुष निर्माण
यही है धर्म बनें हम इंद्रधनुष की प्रत्यंचा के बाण
इन्द्र-धनु रूपी प्रबल एकता की सतरंगी छवि को देख
शत्रु के माथे पर भी आज खिंच रही है चिंता की रेख
राष्ट्र को आज चाहिए एकलव्य से साधक निष्ठावान.
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.
राष्ट्र को आज चाहिए चंद्रगुप्त की प्रबल संगठन-शक्ति
राष्ट्र को आज चाहिए अपने प्रति राणाप्रताप की शक्ति
राष्ट्र को आज चाहिए रक्त, शत्रु का हो या अपना रक्त
राष्ट्र को आज चाहिएभक्त, भक्त भी भगतसिंह के भक्त
राष्ट्र को आज चाहिए फिर बादल जैसे बालक रणधीर
राष्ट्र की सुख-समृद्धि ले आयें,तोड़ रिपु कारा की प्राचीर
और बूढ़े सेनानी गोरा की वह गर्व भरी हुंकार
शत्रु के छूट जाये प्राण, अगर दे मस्ती से ललकार
राष्ट्र को आज चाहिए फिर अपना अल्हड़ टीपू सुल्तान
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.
आज अनजाने में ही प्रबल शत्रु ने करके वज्र प्रहार
हमारे जनमानस की चेतना के खोल दिये हैं द्वार
राष्ट्र-हित इससे पहले कभी न जागी थी ऐसी अनुरक्ति
संगठित होकर रिपु से आज बात कर रही हमारी शक्ति
प्रतापी शक्तिसिंह भी देश-द्रोह का जामा आज उतार
राष्ट्र की तूफानी लहरों में करता है गति का संचार
आज फिर नूतन हिंदुस्तान लिख रहा है अपना इतिहास.
राष्ट्र के पन्ने-पन्ने पर अंकित अपना अदम्य विश्वास .
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मत कहना
मैं तेरे पिंजरे का तोता
तू मेरे पिंजरे की मैना
यह बात किसी से मत कहना।
*
मैं तेरी आंखों में बंदी
तू मेरी आंखों में प्रतिक्षण
मैं चलता तेरी सांस–सांस
तू मेरे मानस की धड़कन
मैं तेरे तन का रत्नहार
तू मेरे जीवन का गहना!
यह बात किसी से मत कहना!!
*
हम युगल पखेरू हंस लेंगे
कुछ रो लेंगे कुछ गा लेंगे
हम बिना बात रूठेंगे भी
फिर हंस कर तभी मना लेंगे
अंतर में उगते भावों के
जलजात किसी से मत कहना!
यह बात किसी से मत कहना!!
*
क्या कहा! कि मैं तो कह दूंगी!
कह देगी तो पछताएगी
पगली इस सारी दुनियां में
बिन बात सताई जाएगी
पीकर प्रिये अपने नयनों की बरसात
विहंसती ही रहना!
यह बात किसी से मत कहना!!
*
हम युगों युगों के दो साथी
अब अलग अलग होने आए
कहना होगा तुम हो पत्थर
पर मेरे लोचन भर आए
पगली इस जग के अतल–सिंधु मे
अलग अलग हमको बहना!
यह बात किसी से मत कहना!!
***

नवगीत

नवगीत 
संजीव
*
पीटो ढोल
बजाओ मँजीरा
*
भाग गया परदेशी शासन
गूँज रहे निज देशी भाषण
वीर शहीद स्वर्ग से हेरें
मँहगा होता जाता राशन
रँगे सियार शीर्ष पर बैठे
मालिक बेबस नौकर ऐंठे
कद बौने, लंबी परछाई
सूरज लज्जित, जुगनू ऐंठे
सेठों की बन आयी, भाई
मतदाता की शामत आई
प्रतिनिधि हैं कुबेर, मतदाता
हुआ सुदामा, प्रीत न भायी
मन ने चाही मन की बातें
मन आहत पा पल-पल घातें
तब-अब चुप्पी-बहस निरर्थक
तब भी, अब भी काली रातें
ढोंग कर रहे
संत फकीरा
पीटो ढोल
बजाओ मँजीरा
*
जनसेवा का व्रत लेते जो
धन-सुविधा पा क्षय होते वो
जनमत की करते अवहेला
जनहित बेच-खरीद गये सो
जनहित खातिर नित्य ग्रहण बन
जन संसद को चुभे दहन सम
बन दलाल दल करते दलदल
फैलाते केवल तम-मातम
सरहद पर उग आये कंटक
हर दल को पर दल है संकट
नाग, साँप, बिच्छू दल आये
किसको चुनें-तजें, है झंझट
क्यों कोई उम्मीदवार हो?
जन पर क्यों बंदिश-प्रहार हो?
हर जन जिसको चाहे चुन ले
इतना ही अब तो सुधार हो
मत मतदाता
बने जमूरा?
पीटो ढोल
बजाओ मँजीरा
*
चयनित प्रतिनिधि चुन लें मंत्री
शासक नहीं, देश के संत्री
नहीं विपक्षी, नहीं विरोधी
हटें दूर पाखंडी तंत्री
अधिकारी सेवक मनमानी
करें न, हों विषयों के ज्ञानी
पुलिस न नेता, जन-हित रक्षक
हो, तब ऊगे भोर सुहानी
पारदर्शितामय पंचायत
निर्माणों की रचकर आयत
कंकर से शंकर गढ़ पाये
सब समान की बिछा बिछायत
उच्छृंखलता तनिक नहीं हो
चित्र गुप्त अपना उज्जवल हो
गौरवमय कल कभी रहा जो
उससे ज्यादा उज्जवल कल हो
पूरा हो
हर स्वप्न अधूरा
पीटो ढोल
बजाओ मँजीरा
*

गीत

गीत :
संजीव
*
अरमानों की फसलें हर दिन ही कुदरत बोती है
कुछ करने के लिए कभी भी देर नहीं होती है
उठ आशीष दीजिए छोटों को महके फुलवारी
नमन ईश को करें दूर हों चिंता पल में सारी
गीत ग़ज़ल कवितायेँ पोयम मंत्र श्लोक कुछ गा लें
मन की दुनिया जब जैसी चाहें रच खूब मजा लें
धरती हर दुःख सह देती है खूब न पर रोती है
कुछ करने के लिए कभी भी देर नहीं होती है
देश-विदेश कहाँ कैसा क्या भला-बुरा बतलायें
हम न जहाँ जा पाये पढ़कर ही आनंद मनायें
मौसम लोग, रीतियाँ कैसी? कैसा ताना-बाना
भारत की छवि कैसी? क्या वे चाहें भारत आना?
हरे अँधेरा मौन चाँदनी, नील गगन धोती है
कुछ करने के लिए कभी भी देर नहीं होती है
१६-८-२०१५
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