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मंगलवार, 27 अक्टूबर 2020

मुक्तक

मुक्तक
*
जीते जी मिलता प्यार नहीं, मरने पर बनते ताजमहल
यह स्वाभाविक है, स्मृतियाँ बिन बिछड़े होती नहीं प्रबल
क्यों दोष किसी को दें हम-तुम, जो साथ उसे कब याद किया?
बिन शीश कटाये बना रहे, नेता खुद अपने शीशमहल
*
जीवन में हुआ न मूल्यांकन, शिव को भी पीना पड़ा गरल
जीते जी मिलता प्यार नहीं, मरने पर बनते ताजमहल
यह दुनिया पत्थर को पूजे, सम्प्राणित को ठुकराती है
जो सचल पूजता हाथ जोड़ उसको जो निष्ठुर अटल-अचल
*
कविता होती तब सरस-सरल, जब भाव निहित हों सहज-तरल
मन से मन तक रच सेतु सबल, हों शब्द-शब्द मुखरित अविचल
जीते जी मिलता प्यार नहीं, मरने पर बनते ताजमहल
हँस रूपक बिम्ब प्रतीकों में, रस धार बहा करती अविकल
*
जन-भाषा हिंदी की जय-जय, चिरजीवी हो हिंदी पिंगल
सुरवाणी प्राकृत पाली बृज, कन्नौजी अपभ्रंशी डिंगल
इतिहास यही बतलाता है, जो सम्मुख वह अनदेखा हो
जीते जी मिलता प्यार नहीं, मरने पर बनते ताजमहल
*

नव कुण्डलिया

 नव कुण्डलिया

रात जा रही, उषा आ रही
उषा आ रही, प्रात ला रही
प्रात ला रही, गीत गा रही
गीत गा रही, मीत भा रही
मीत भा रही, जीत पा रही
जीत पा रही, रात आ रही
गुप-चुप डोलो, राज न खोलो
राज न खोलो, सच मत तोलो
सच मत तोलो,मन तुम सो लो
मन तुम सो लो, नव रस घोलो
नव रस घोलो, घर जा सो लो
घर जा सो लो, गुप-चुप डोलो

नवगीत

नवगीत:
चित्रगुप्त को
पूज रहे हैं
गुप्त चित्र
आकार नहीं
होता है
साकार वही
कथा कही
आधार नहीं
बुद्धिपूर्ण
आचार नहीं
बिन समझे
हल बूझ रहे हैं
कलम उठाये
उलटा हाथ
भू पर वे हैं
जिनका नाथ
खुद को प्रभु के
जोड़ा साथ
फल यह कोई
नवाए न माथ
खुद से खुद ही
जूझ रहे हैं
पड़ी समय की
बेहद मार
फिर भी
आया नहीं सुधार
अकल अजीर्ण
हुए बेज़ार
नव पीढ़ी का
बंटाधार
हल न कहीं भी
सूझ रहे हैं
**

नवगीत:

नवगीत:
संजीव 
*
ऐसा कैसा
पर्व मनाया ?
*
मनुज सभ्य है
करते दावा
बोल रहे
कुदरत पर धावा
कोई काम
न करते सादा
करते कभी
न पूरा वादा
अवसर पाकर
स्वार्थ भुनाया
*
धुआँ, धूल
कचरा फैलाते
हल्ला-गुल्ला
शोर मचाते
आज पूज
कल फेकें प्रतिमा
समझें नहीं
ईश की गरिमा
अपनों को ही
किया पराया
धनवानों ने
किया प्रदर्शन
लंघन करता
भूखा-निर्धन
फूट रहे हैं
सरहद पर बम
नहीं किसी को
थोड़ा भी गम
तजी सफाई
किया सफाया
***
२७-१०-२०१४ 

दोहा सलिला

दोहा सलिला 
संजीव 
*
कथ्य भाव रस छंद लय, पंच तत्व की खान
पड़े कान में ह्रदय छू, काव्य करे संप्राण
मिलने हम मिल में गये, मिल न सके दिल साथ
हमदम मिले मशीन बन, रहे हाथ में हाथ
हिल-मिलकर हम खुश रहें, दोनों बने अमीर
मिल-जुलकर हँस जोर से, महका सकें समीर
मन दर्पण में देख रे!, दिख जायेगा अक्स
वो जिससे तू दूर है, पर जिसका बरअक्स
जिस देहरी ने जन्म से, अब तक करी सम्हार
छोड़ चली मैं अब उसे, भला करे करतार
माटी माटी में मिले, माटी को स्वीकार
माटी माटी से मिले, माटी ले आकार
मैं ना हूँ तो तू रहे, दोनों मिट हों हम
मैना - कोयल मिल गले, कभी मिटायें गम
*
२७-१०-२०१४ 

सोमवार, 26 अक्टूबर 2020

संजीव सलिल : प्रतिनिधि रचनाएँ 
हंसवाहिनी!
*
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे।
जग सिरमौर बनाएँ भारत,
वह बल विक्रम दे।
*
साहस शील हृदय में भर दे,
जीवन त्याग-तपोमय कर दे,
संयम सत्य स्नेह का वर दे,
स्वाभिमान भर दे।
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे।
*
लव, कुश, ध्रुव, प्रहलाद बनें हम
मानवता का त्रास हरें हम,
सीता, सावित्री, दुर्गा माँ,
फिर घर-घर भर दे।
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे।
====================

सरस्वती वंदना
मतिमान माँ ममतामयी!
द्युतिमान माँ करुणामयी

विधि-विष्णु-हर पर की कृपा
हर जीव ने तुमको जपा
जिह्वा विराजो तारिणी!
अजपा पुनीता फलप्रदा
बन बुद्धि-बल, बल बन बसीं
सब में सदा समतामयी

महनीय माँ, कमनीय माँ
रमणीय माँ, नमनीय माँ
कलकल निनादित कलरवी
सत सुर बसीं श्रवणीय माँ
मननीय माँ कैसे कहूँ
यश अपरिमित रचनामयी

अक्षर तुम्हीं ध्वनि नाद हो
निस्तब्ध शब्द-प्रकाश हो
तुम पीर, तुम संवेदना
तुम प्रीत, हर्ष-हुलास हो
कर जीव हर संजीव दो
रस-तारिका क्षमतामयी
================
हिंदी आरती
*
भारती भाषा प्यारी की।
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
वर्ण हिंदी के अति सोहें,
शब्द मानव मन को मोहें।
काव्य रचना सुडौल सुन्दर
वाक्य लेते सबका मन हर।
छंद-सुमनों की क्यारी की
आरती हिंदी न्यारी की।।
*
रखे ग्यारह-तेरह दोहा,
सुमात्रा-लय ने मन मोहा।
न भूलें गति-यति बंधन को-
न छोड़ें मुक्तक लेखन को।
छंद संख्या अति भारी की
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
विश्व की भाषा है हिंदी,
हिंद की आशा है हिंदी।
करोड़ों जिव्हाओं-आसीन
न कोई सकता इसको छीन।
ब्रम्ह की, विष्णु-पुरारी की
आरती हिन्दी न्यारी की।।
===========================
गीत
बिटिया
*
बिटिया की नोक-झोंक
ताजा पुरवैया सी
*
अम्मा सम टोंक रही
चाहे जब रोक रही
ठुमक मचल करवा जिद
पूरी, झट बाँह गही
तितली सम उड़े, खेल
ता ता ता थैया सी
बिटिया की नोकझोंक
ताजी पुरवैया सी
*
धरती पर धरती पग
हाथों आकाश उठा
बाधा को पटक-पटक
तारे हँस रही दिखा
बेशऊर लोगों को
चुभे भटकटैया सी
बिटिया की नोंकझोंक
ताजी पुरवैया सी
*
बात मान-मनवाती
इठलाती-इतराती
बिन कहे मुसीबत में
आप कवच बन जाती
अब न मूक राधा यह
मुखर है कन्हैया सी
बिटिया की नोकझोंक
ताजा पुरवैया सी
==============
एक रचना
क्या होएगा?
*
इब्नबतूता
पूछे: 'कूता?
क्या होएगा?'
*
काय को रोना?
मूँ ढँक सोना
खुली आँख भी
सपने बोना
आयसोलेशन
परखे पैशन
दुनिया है 
कमरे का कोना
येन-केन जो
जोड़ धरा है
सब खोएगा
*
मेहनतकश जो
तन के पक्के
रहे इरादे
जिनके सच्चे
व्यर्थ न भटकें
घर के बाहर
जिनके मन निर्मल
ज्यों बच्चे
बाल नहीं
बाँका होएगा
*
भगता क्योंहै?
डरता क्यों है?
बिन मारे ही
मरता क्यों है?
पैनिक मत कर
हाथ साफ रख
हाथ साफ कर 
अब मत प्यारे!
वह पाएगा
जो बोएगा
==========
एक रचना
*
चार आना भर उपज है,
आठ आना भर कर्ज
बारा आना मुसीबत,
कौन मिटाए मर्ज?
*
छिनी दिहाड़ी,
पेट है खाली कम अनुदान
शीश उठा कैसे जिएँ?
भीख न दो बिन मान
मेहनत कर खाना जुटे
निभा सकें हम फर्ज
*
रेल न बस, परबस भए
रेंग जा रहे गाँव
पीने को पानी नहीं
नहीं मूँड़ पर छाँव
बच्चे-बूढ़े परेशां
नहीं किसी को गर्ज
*
डंडे फटकारे पुलिस
मानो हम हैं चोर
साथ न दे परदेस में
कोई नगद न और
किस पर मुश्किल के लिए
करें मुकदमा दर्ज
===================
नवगीत
*
फ्रीडमता है बोल रे!
हिंगलिश ले आनंद
अपनी बोली बोलते
जो वे हैं मतिमंद 
*
होरी गारी जस भुला
बंबुलिया दो त्याग
राइम गाओ बेसुरा
भूलो कजरी फाग
फ़िल्मी धुन में रेंककर
छोड़ो देशी छंद
*
हैडेक हो रओ पेट में
कहें उठाके शीश
अधनंगी हो लेडियाँ
परेशान लख ईश
वेलेंटाइन पूज तू
बिसरा आनंदकंद
====================
नवगीत
दूर कर दे भ्रांति
*
दूर कर दे भ्रांति
आ संक्राति!
हम आव्हान करते।
तले दीपक के
अँधेरा हो भले
हम किरण वरते।
*
रात में तम
हो नहीं तो
किस तरह आये सवेरा?
आस पंछी ने
उषा का
थाम कर कर नित्य टेरा।
प्रयासों की
हुलासों से
कर रहा कुड़माई मौसम-
नाचता दिनकर
दुपहरी संग
थककर छिपा कोहरा।
संक्रमण से जूझ
लायें शांति
जन अनुमान करते।
*
घाट-तट पर
नाव हो या नहीं
लेकिन धार तो हो।
शीश पर हो छाँव
कंधों पर
टिका कुछ भार तो हो।
इशारों से
पुकारों से
टेर सँकुचे ऋतु विकल हो-
उमंगों की
पतंगें उड़
कर सकें आनंद दोहरा।
लोहड़ी, पोंगल, बिहू
जन-क्रांति का
जय-गान करते।
*
ओट से ही वोट
मारें चोट
बाहर खोट कर दें।
देश का खाता
न रीते
तिजोरी में नोट भर दें।
पसीने के
नगीने से
हिंद-हिंदी जगजयी हो-
विधाता भी
जन्म ले
खुशियाँ लगाती रहें फेरा।
आम जन के
काम आकर
सेठ-नेता काश तरते।
================
बाल नवगीत:
*
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
*
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी
बहिन उषा को गिरा दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ी
धूप बुआ ने लपक चुपाया
पछुआ लाई
बस्ता-फूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
*
जय गणेश कह पाटी पूजन
पकड़ कलम लिख ओम
पैर पटक रो मत, मुस्काकर
देख रहे भू-व्योम
कन्नागोटी, पिट्टू, कैरम
मैडम पूर्णिमा के सँग-सँग
हँसकर
झूला झूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
*
चिड़िया साथ फुदकती जाती
कोयल से शिशु गीत सुनो
'इकनी एक' सिखाता तोता
'अ' अनार का याद रखो
संध्या पतंग उड़ा, तिल-लड़ुआ
खा पर सबक
न भूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
==========
नवगीत:

*.
काल है संक्रांति का
तुम मत थको सूरज!
*
दक्षिणायन की हवाएँ
कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी
काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती
फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश
से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रान्ति को
तुम मत रुको सूरज!
*
उत्तरायण की फिज़ाएँ
बनें शुभ की बाड़
दिन-ब-दिन बढ़ता रहे सुख
सत्य की हो आड़
जनविरोधी सियासत को
कब्र में दो गाड़
झाँक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
ढाल हो चिर शांति का
तुम मत झुको सूरज!
*
नवगीत:
आओ भी सूरज
*
आओ भी सूरज!
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ
गाओ भी सूरज!
*
करधन दिप-दिप दमक रही है
पायल छन-छन छनक रही है
नच रहे हैं झूमकर मादल
बुराई हर अलावों में जलाओ
आओ भी सूरज!
*
खिचड़ी तिल-गुड़वाले लडुआ
पिज्जा तजकर खाओ बबुआ
छोड़ बोतल उठा लो छागल
पड़ोसी को खुशी में साथ पाओ
आओ भी सूरज!
==========
नवगीत:
उगना नित
*
उगना नित
हँस सूरज
*
धरती पर रखना पग
जलना नित, बुझना मत
तजना मत, अपना मग
छिपना मत, छलना मत
चलना नित
उठ सूरज
*
लिखना मत खत सूरज
दिखना मत बुत सूरज
हरना सब तम सूरज
करना कम गम सूरज
मलना मत
कर सूरज
*
कलियों पर तुहिना सम
कुसुमों पर गहना बन
सजना तुम सजना सम
फिरना तुम भँवरा बन
खिलना फिर
ढल सूरज
*
(छंदविधान: मात्रिक करुणाकर छंद, वर्णिक सुप्रतिष्ठा जातीय नायक छंद)
नवगीत:
संक्रांति काल है
*
संक्रांति काल है
जगो, उठो
*
प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आँखें रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर
राजनीति तज दे तंदूर
संभ्रांति टाल दो
जगो, उठो
*
खरपतवार न शेष रहे 
कचरा कहीं न लेश रहे
तज सिद्धांत, बना सरकार
कुर्सी पा लो, ऐश रहे
झुका भाल हो
जगो, उठो
*
दोनों हाथ लिये लड्डू
रेवड़ी छिपा रहे नेता
मुँह में लैया-गज़क भरे
जन-गण को ठेंगा देता
डुबा ताल दो
जगो, उठो
*
सूरज को ढाँके बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग-सांप फिर साथ हुए
गुँजा रहे बंसी-मादल
छिपा माल दो
जगो, उठो
*
नवता भरकर गीतों में
जन-आक्रोश पलीतों में
हाथ सेंक ले कवि तू भी
जाए आज अतीतों में
खींच खाल दो
जगो, उठो
==============
नवगीत
*
बैठ नर्मदा तीर तंबूरा रहा बजा
बाबा गाये कूटो, लूटो मौज मजा
*
वनवासी के रहे न
जंगल सरकारी
सोने सम पेट्रोल
टैक्स दो हँस भारी
कोरोना प्रतिबंध
आम लोगों पर है
पार्टी दें-लें नेता
ऊँचे अधिकारी
टैक्स चुरा चंदा दो, थामे रहो ध्वजा
बैठ नर्मदा तीर तंबूरा रहा बजा
*
चौथा खंबा बिका
नींव पोली बचना
घुली कुएँ में भाँग
पियो बहको सजना
शिक्षक हेतु न वेतन
सांसद लें भत्ता
तंत्र हुआ है हावी
लोक न जी, मरना
जो होता, होने दो, मानो ईश रजा
बैठ नर्मदा तीर तंबूरा रहा बजा
=======================
नवगीत
*
पीट रहे सिर भगतसिंह
बिलख रहे आजाद
*
हिंदुस्तान गुलाम है
करे इंडिया राज
हिदी के सिर चढ़ रही
इंग्लिश पहने ताज
तंत्र छीनकर लोक के
सरेआम अधिकार
काट-रौंद जंगल करे
खेती को बर्बाद
*
मार राष्ट्र की आत्मा
सज नेशन की देह
जीती बस खुद के लिए
तज परिवार अदेह
जैसे भी हो चाहिए
पॉवर, पैसा, प्यार
आम आदमी मर रहा
पूँजीपति आबाद
*
हिंदी की बिंदी मिटा
अंग्रेजी सिर बैठ
साली जैसे कर रही
घर में घुस घुसपैठ
हिंदी बीबी घर मिले
करे बिलख फरियाद
====================
बुन्देली नवगीत :
जुमले रोज उछालें
*
संसद-पनघट
जा नेताजू
जुमले रोज उछालें।
*
खेलें छिपा-छिबौउअल,
ठोंके ताल,
लड़ाएं पंजा।
खिसिया बाल नोंच रए,
कर दओ
एक-दूजे खों गंजा।
खुदा डर रओ रे!
नंगन सें
मिल खें बेंच नें डालें।
संसद-पनघट
जा नेताजू
जुमले रोज उछालें।
*
लड़ें नई,मैनेज करत,
छल-बल सें
मुए चुनाव।
नूरा कुश्ती करें,
बढ़ा लें भत्ते,
खेले दाँव।
दाई भरोसे
मोंड़ा-मोंडी
कूकुर आप सम्हालें।
संसद-पनघट
जा नेताजू
जुमले रोज उछालें।
*
बेंच सिया-सत,
करें सिया-सत।
भैंस बरा पे चढ़ गई।
बिसर पहाड़े,
अद्धा-पौना
पीढ़ी टेबल पढ़ रई।
लाज तिजोरी
फेंक नंगई
खाली टेंट खंगालें।
संसद-पनघट
जा नेताजू
जुमले रोज उछालें।
*
भारत माँ क
जय कैबे मां
मरी जा रई नानी।
आँख कें आँधर
तकें पड़ोसन
तज घरबारी स्यानी।
अधरतिया मदहोस
निगाहें मैली
इत-उत-डालें।
संसद-पनघट
जा नेताजू
जुमले रोज उछालें।
*
पाँव परत ते
अंगरेजन खें,
बाढ़ रईं अब मूँछें।
पाँच अंगुरिया
घी में तर
सर हाथ
फेर रए छूँछे।
बचा राखियो
नेम-धरम खों
बेंच नें
स्वार्थ भुना लें।
==============
एक रचना
*
चार आना भर उपज है,
आठ आना भर कर्ज
बारा आना मुसीबत,
कौन मिटाए मर्ज?
*
छिनी दिहाड़ी,
पेट है खाली कम अनुदान
शीश उठा कैसे जिएँ?
भीख न दो बिन मान
मेहनत कर खाना जुटे
निभा सकें हम फर्ज
*
रेल न बस, परबस भए
रेंग जा रहे गाँव
पीने को पानी नहीं
नहीं मूँड़ पर छाँव
बच्चे-बूढ़े परेशां
नहीं किसी को गर्ज
*
डंडे फटकारे पुलिस
मानो हम हैं चोर
साथ न दे परदेस में
कोई नगद न और
किस पर मुश्किल के लिए
करें मुकदमा दर्ज
==================
कर्फ्यू वंदना
(रैप सौंग)
*
घर में घर कर
बाहर मत जा
बीबी जो दे
खुश होकर खा
ठेला-नुक्कड़
बिसरा भुख्खड़
बेमतलब की
बोल न बातें
हाँ में हाँ कर
पा सौगातें
ताँक-झाँक तज
भुला पड़ोसन
बीबी के संग
कर योगासन
चौबिस घंटे
तुझ पर भारी
काम न आए
प्यारे यारी
बन जा पप्पू
आग्याकारी
तभी बेअसर
हो बीमारी
बिसरा झप्पी
माँग न पप्पी
चूड़ी कंगन
करें न खनखन
कहे लिपिस्टिक
माँजो बर्तन
झाड़ू मारो
जरा ठीक से
पौछा करना
बिना पीक के
कपड़े धोना
पर मत रोना
बाई न आई
तुम हो भाई
तुरुप के इक्के
बनकर छक्के
फल चाहे बिन
करो काम गिन
बीबी चालीसा
हँस पढ़ना
अपनी किस्मत
खुद ही गढ़ना
जब तक कहें न
किस मत करना
मिस को मिस कर
मन मत मरना

जान बचाना

जान बुलाना

मिल लड़ जाएँ

नैन झुकाना

कर फ्यू लेकिन

कई वार हैं

कर्फ्यू में
झुक रहो, सार है
बीबी बाबा बेबी की जय
बोल रहो घुस घर में निर्भय।।
*
नव प्रयोग
सवैया मुक्तिका
*
अमरेंद्र विचरें मही पर, नर तन धरे मुकुलित मना।
अर्णव अरुण भुज भेंटते, आलोक तम हरता घना।।
श्री धर मुदित श्रीधर हुए, श्रीधर धरें श्री हैं जयी।
नीलाभ नभ इठला रहा, अखिलेश के सिर पर तना।।
मिथिलेश कर संतोष मति रख विनीता; जनहित करें
सँग मंजरी झूमें बसंत सुगीत रच; कर अर्चना
मन्मथ न मन मथ सका; तन्मय हो विजय निज चाहता
मृण्मय न रह निर्जीव हो संजीव कर नित साधना
जब काम ना तब कामना, श्री वास्तव में दे सखे!
कुछ भाव ना पर भावना से ही सफल हो प्रार्थना
कंकर बने शंकर; न प्रलयंकर कभी हो देवता!
कर आरती नित भारती; जग-वाक् हो है वंदना
कलकल बहे; कलरव करे जल-खग; न हो किलकिल सलिल
अभियान करना सफल, मैया नर्मदा अभ्यर्थना
*
राजस्थानी
देख न देखी पीर पराई.
मोटो वेतन चाट मलाई..
इंगरेजी मां गिटपिट करल्यै.
हिंदी कोनी करै पढ़ाई..
बेसी धन स्यूं मन भरमायो.
सूझी कोनी और कमाई..
कंसराज नै पटक पछाड्यो.
करयो सुदामा सँग मिताई..
भेंट नहीं जो भारी ल्यायो.
बाके नहीं गुपाल गुसाईं..
उजले कपड़े मैले मन ल्ये.
भवसागर रो पार न पाई..
लडै हरावल वोटां खातर.
लोकतंत्र नै कर नेताई..
जा आतंकी मार भगा तूं.
ज्यों राघव ने लंका ढाई..
======================
छत्तीसगढ़ी गीत:
भोर भई दूँ बुहार देहरी अँगना
बाँस बहरी टेर रही रुक जा सजना
*
बाँसगुला केश सजा हेरूँ ऐना
बाँसपिया देख-देख फैले नैना
बाँसपूर लुगरी ना पहिरब बाबा
लज्जा से मर जाउब, कर मत सैना
बाँस पुटु खूब रुचे, जीमे ललना
*
बाँस बजें तैं न जा मोरी सौगंध
बाँस बराबर लबार बरठा बरबंड
बाँस चढ़े मूँड़ झुके बाँसा कट जाए
बाँसी ले, बाँसलिया बजा देख चंद
बाँस-गीत गुनगुना, भोले भजना
*
बगदई मैया पूजूँ, बगियाना भूल
बतिया बड़का लइका, चल बखरी झूल
झिन बद्दी दे मोको, बटर-बटर हेर
कर ले बमरी-दतौन, डलने दे धूल
बेंस खोल, बासी खा, झल दे बिजना
*
शब्दार्थ : बाँस बहरी = बाँस की झाड़ू, बाँस पुटु = बाँस का मशरूम, जीमना = खाना, बाँसपान = धान के बाल का सिरा जिसके पकने से धान के पकाने का अनुमान किया जाता है, बाँसगुला = गहरे गुलाबी रंग का फूल, ऐना = आईना, बाँसपिया = सुनहरे कँसरइया पुष्प की काँटेदार झाड़ी, बाँसपूर = बारीक कपड़ा, लुगरी = छोटी धोती, सैना = संकेत, बाँस बजें = मारपीट होना, लट्ठ चलना, बाँस बराबर = बहुत लंबा, लबार = झूठा, बरठा = दुश्मन, बरबंड - उपद्रवी, बाँस चढ़े = बदनाम हुए, बाँसा = नाक की उभरी हुई अस्थि, बाँसी = बारीक-सुगन्धित चावल, बाँसलिया = बाँसुरी, बाँस-गीत = बाँस निर्मित वाद्य के साथ अहीरों द्वारा गाये जानेवाले लोकगीत, बगदई = एक लोक देवी, बगियाना = आग बबूला होना, बतिया = बात कर, बड़का लइका = बड़ा लड़का, बखरी = चौकोर परछी युक्त आवास, झिन = मत, बद्दी = दोष, मोको = मुझे, बटर-बटर हेर = एकटक देख, बमरी-दतौन = बबूल की डंडी जिससे दन्त साफ़ किये जाते हैं, धूल डालना = दबाना, भुलाना, बेंस = दरवाजे का पल्ला, कपाट, बासी = रात को पकाकर पानी डालकर रखा गया भात, बिजना = बाँस का पंखा.

दिवाली मुकतक

 दीपावली पर मुक्तकांजलि:

संजीव 'सलिल'
*
सत्य-शिव-सुंदर का अनुसन्धान है दीपावली.
सत-चित-आनंद का अनुगान है दीपावली..
प्रकृति-पर्यावरण के अनुकूल जीवन हो 'सलिल'-
मनुजता को समर्पित विज्ञान है दीपावली..
*
धर्म, राष्ट्र, विश्व पर अभिमान है दीपावली.
प्रार्थना, प्रेयर सबद, अजान है दीपावली..
धर्म का है मर्म निरासक्त कर्म ही 'सलिल'-
निष्काम निष्ठा लगन का सम्मान है दीपावली..
*
पुरुषार्थ को परमार्थ की पहचान है दीपावली.
आँख में पलता हसीं अरमान है दीपावली..
आन-बान-शान से जीवन जियें हिलमिल 'सलिल'-
अस्त पर शुभ सत्य का जयगान है दीपावली..
*
निस्वार्थ सेवा का सतत अभियान है दीपावली.
तृषित अधरों की मधुर मुस्कान है दीपावली..
तराश कर कंकर को शंकर जो बनाते हैं 'सलिल'-
वही सृजन शक्तिमय इंसान हैं दीपावली..
*
सर्व सुख के लिये निज बलिदान है दीपावली.
आस्था, विश्वास है, ईमान है दीपावली..
तूफ़ान में जो अँधेरे से जीतता लड़कर 'सलिल'-
उसी नन्हे दीप का यशगान है दीपावली..
**************

नरक चौदस / रूप चतुर्दशी

 नरक चौदस / रूप चतुर्दशी पर विशेष रचना:

गीत
संजीव 'सलिल'
*
असुर स्वर्ग को नरक बनाते
उनका मरण बने त्यौहार.
देव सदृश वे नर पुजते जो
दीनों का करते उपकार..
अहम्, मोह, आलस्य, क्रोध, भय,
लोभ, स्वार्थ, हिंसा, छल, दुःख,
परपीड़ा, अधर्म, निर्दयता,
अनाचार दे जिसको सुख..
था बलिष्ठ-अत्याचारी
अधिपतियों से लड़ जाता था.
हरा-मार रानी-कुमारियों को
निज दास बनाता था..
बंदीगृह था नरक सरीखा
नरकासुर पाया था नाम.
कृष्ण लड़े, उसका वधकर
पाया जग-वंदन कीर्ति, सुनाम..
राजमहिषियाँ कृष्णाश्रय में
पटरानी बन हँसी-खिलीं.
कहा 'नरक चौदस' इस तिथि को
जनगण को थी मुक्ति मिली..
नगर-ग्राम, घर-द्वार स्वच्छकर
निर्मल तन-मन कर हरषे.
ऐसा लगा कि स्वर्ग सम्पदा
धराधाम पर खुद बरसे..
'रूप चतुर्दशी' पर्व मनाया
सबने एक साथ मिलकर.
आओ हम भी पर्व मनाएँ
दें प्रकाश दीपक बनकर..
'सलिल' सार्थक जीवन तब ही
जब औरों के कष्ट हरें.
एक-दूजे के सुख-दुःख बाँटें
इस धरती को स्वर्ग करें..
**********************

दोहा हिंदी

दोहा सलिला 
*
हर पल हिंदी को जिएँ, दिवस न केवल एक।
मानस मैया मानकर, पूजें सहित विवेक।।
*

नवगीत: चित्रगुप्त

नवगीत:
चित्रगुप्त
*
चित्रगुप्त को
पूज रहे हैं
गुप्त चित्र
आकार नहीं
होता है
साकार वही
कथा कही
आधार नहीं
बुद्धिपूर्ण
आचार नहीं
बिन समझे
हल बूझ रहे हैं
कलम उठाये
उलटा हाथ
भू पर वे हैं
जिनका नाथ
खुद को प्रभु के
जोड़ा साथ
फल यह कोई
नवाए न माथ
खुद से खुद ही
जूझ रहे हैं
पड़ी समय की
बेहद मार
फिर भी
आया नहीं सुधार
अकल अजीर्ण
हुए बेज़ार
नव पीढ़ी का
बंटाधार
हल न कहीं भी
सूझ रहे हैं
***

मुकतक सलिला

मुकतक सलिला 
*
संवेदना का जन्मदिवस नित्य ही मने
दिल से दिल के तार जुड़ें, स्वर्ग भू बने
वेदना तभी मिटे, सौहार्द्र-स्नेह हो-
शांति का वितान दस दिशा रहा तने
*
श्याम घटा बीच चाँद लिये चाँदनी
लालिमा से, नीलिमा से सजी चाँदनी
सुमन गुच्छ से भी अधिक लिए ताजगी-
बिजलियाँ गिरा रही है विहँस चाँदनी
*
उषा की नमी दे रही दुनिया को ज़िंदगी
डिहाइड्रेशन से गयी क्यों अस्पताल में?
सूरज अधिक तपा या चाँदनी हुई कुपित
धरती से आसमान तक चर्चे है आज ये.
*
जग का सारा तिमिर ले, उसे बना आधार
रख दे आशा दीप में, कोशिश-बाती प्यार
तेल हौसले, योजना-तीली बाले ज्योति-
रमा-राज में हो सके ज्योतित सब संसार
*
रूपया हुआ अज़ीज़ अब, रुपया ही है प्यार
रुपये से इरशाद कह, रूपया पा हो शाद
रुपये की दीवानगी हद से अधिक न होय
रुपये ही आबाद कर, कर देता बर्बाद
*
कुछ मुट्ठी भर चेहरे, बासी सोच- विचार
नव पीढ़ी हित व्यर्थ हैं, जिनके सब आचार
चित्र-खबर में छप सकें, बस इतना उद्देश्य-
परिवर्तन की कोशिशें कर देते बेकार.
*
कतरा-कतरा तिमिर पी, ऊषा ले अरुणाई
'जाग' सूर्य से कह रही, 'चल कर लें कुड़माई'
'धत' कह लहना सिंह हुआ, भास्कर तपकर लाल
नेह नर्मदा तीर पर, कलकल पडी सुनाई
*
पंकज को आ गया है सुन सोना पर प्यार
देख लक्ष्मी को चढ़ा पल में तेज बुखार
कहा विष्णु से लीजिये गहने सभी समेट-
वित्तमंत्री चेता रहे भाव करें हद पार
*
२६-१०-२०१४ 

'चित्रगुप्त ' और 'कायस्थ'- विजय राज बली माथुर

'चित्रगुप्त ' और 'कायस्थ' क्या हैं ?
विजय राज बली माथुर
विजय माथुर पुत्र स्वर्गीय ताज राजबली माथुर,मूल रूप से दरियाबाद
(बाराबंकी) के रहनेवाले हैं.१९६१ तक लखनऊ में थे . पिता जी के ट्रांसफर
के कारण बरेली,शाहजहांपुर,सिलीगुड़ी,शाहजहांपुर,मेरठ,आगरा ( १९७८ 
में अपना मकान बना कर बस गए) अब अक्टूबर २००९ से पुनः लखनऊ में बस गए
हैं. १९७३ से मेरठ में स्थानीय साप्ताहिक पत्र में मेरे लेख छपने प्रारंभ हुए.आगरा में
भी साप्ताहिक पत्रों,त्रैमासिक मैगजीन और फिर यहाँ लखनऊ के भी एक साप्ताहिक
पत्र में आपके लेख छप चुके है.अब 'क्रन्तिस्वर' एवं 'विद्रोही स्व-स्वर में' दो ब्लाग 
लिख रहे हैं तथा 'कलम और कुदाल' ब्लाग में पुराने छपे लेखों की स्कैन कापियां दे 
रहे हैं .ज्योतिष आपका व्यवसाय है और लेखन तथा राजनीति शौक है. 
*
प्रतिवर्ष विभिन्न कायस्थ समाजों की ओर से देश भर मे भाई-दोज के अवसर पर
कायस्थों के उत्पत्तिकारक के रूप मे 'चित्रगुप्त जयंती'मनाई जाती है । 'कायस्थ 
बंधु' बड़े गर्व से पुरोहितवादी/ब्राह्मणवादी कहानी को कह व सुना तथा लिख -दोहरा 
कर प्रसन्न होते हैं परंतु सच्चाई को न कोई समझना चाह रहा है न कोई बताना चाह 
रहा है। आर्यसमाज,कमला नगर-बलकेशवर,आगरा मे दीपावली पर्व के प्रवचनों में 
स्वामी स्वरूपानन्द जी ने बहुत स्पष्ट रूप से समझाया था, उनसे पूर्व प्राचार्य उमेश 
चंद्र कुलश्रेष्ठ ने सहमति व्यक्त की थी। आज उनके शब्द आपको भेंट करता हूँ। 
प्रत्येक प्राणी के शरीर में 'आत्मा' के साथ 'कारण शरीर' व 'सूक्ष्म शरीर' भी रहते हैं। 
यह भौतिक शरीर तो मृत्यु होने पर नष्ट हो जाता है किन्तु 'कारण शरीर' और 'सूक्ष्म 
शरीर' आत्मा के साथ-साथ तब तक चलते हैं जब तक कि,'आत्मा' को मोक्ष न मिल 
जाये। इस सूक्ष्म शरीर में 'चित्त'(मन) पर 'गुप्त'रूप से समस्त कर्मों-सदकर्म,दुष्कर्म 
एवं अकर्म अंकित होते रहते हैं। इसी प्रणाली को 'चित्रगुप्त' कहा जाता है। इन कर्मों के 
अनुसार मृत्यु के बाद पुनः दूसरा शरीर और लिंग इस 'चित्रगुप्त' में अंकन के आधार 
पर ही मिलता है। अतः, यह पर्व 'मन'अर्थात 'चित्त' को शुद्ध व सतर्क रखने के उद्देश्य 
से मनाया जाता था। इस हेतु विशेष आहुतियाँ हवन में दी जाती थीं। 
आज कोई ऐसा नहीं करता है। बाजारवाद के जमाने में भव्यता-प्रदर्शन दूसरों को हेय 
समझना ही ध्येय रह गया है। यह विकृति और अप-संस्कृति है। काश लोग अपने अतीत 
को जान सकें और समस्त मानवता के कल्याण -मार्ग को पुनः अपना सकें। हमने तो 
लोक-दुनिया के प्रचलन से हट कर मात्र हवन की पद्धति को ही अपना लिया है। इस पर्व 
को एक जाति-वर्ग विशेष तक सीमित कर दिया गया है।
पौराणिक पोंगापंथी ब्राह्मणवादी व्यवस्था में जो छेड़-छाड़ विभिन्न वैज्ञानिक आख्याओं 
के साथ की गई है उससे 'कायस्थ' शब्द भी अछूता नहीं रहा है।
'कायस्थ'=क+अ+इ+स्थ
क=काया या ब्रह्मा ;
अ=अहर्निश;इ=रहने वाला;
स्थ=स्थित। 
'कायस्थ' का अर्थ है ब्रह्म में अहर्निश स्थित रहने वाला सर्व-शक्तिमान व्यक्ति। 
आज से दस लाख वर्ष पूर्व मानव अपने वर्तमान स्वरूप में आया तो ज्ञान-विज्ञान 
का विकास भी किया। वेदों मे वर्णित मानव-कल्याण की भावना के अनुरूप 
शिक्षण- प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। जो लोग इस कार्य को सम्पन्न करते थे 
उन्हे 'कायस्थ' कहा गया। ये मानव की सम्पूर्ण 'काया' से संबन्धित शिक्षा देते थे 
अतः इन्हे 'कायस्थ' कहा गया। किसी भी अस्पताल में आज भी जनरल मेडिसिन
विभाग का हिन्दी रूपातंरण आपको 'काय चिकित्सा विभाग' ही मिलेगा। उस समय 
आबादी अधिक न थी और एक ही व्यक्ति सम्पूर्ण काया से संबन्धित सम्पूर्ण ज्ञान-
जानकारी देने मे सक्षम था। किन्तु जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई शिक्षा देने हेतु 
अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती गई। 'श्रम-विभाजन' के आधार पर शिक्षा भी दी 
जाने लगी। शिक्षा को चार वर्णों मे बांटा गया-
1. जो लोग ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'ब्राह्मण' कहा गया और उनके
द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत जो उपाधि धारण करता था
वह 'ब्राह्मण' कहलाती थी और उसी के अनुरूप वह ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देने
के योग्य माना जाता था। 
2- जो लोग शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा आदि से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको
'क्षत्रिय'कहा गया और वे ऐसी ही शिक्षा देते थे तथा इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी
को 'क्षत्रिय' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा
से संबन्धित कार्य करने व शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 
3-जो लोग विभिन व्यापार-व्यवसाय आदि से संबन्धित शिक्षा प्रदान करते थे उनको 
'वैश्य' कहा जाता था। इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी 'वैश्य' की उपाधि से विभूषित
किये जाते थे जो व्यापार-व्यवसाय करने और इसकी शिक्षा देने के योग्य मान्य थे । 
4-जो लोग विभिन्न सूक्ष्म -सेवाओं से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षुद्र' कहा जाता
था और इन विषयों मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षुद्र' की उपाधि से विभूषित किया जाता
था जो विभिन्न सेवाओं मे कार्य करने व इनकी शिक्षा प्रदान करने के योग्य मान्य थे। 
ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि,'ब्राह्मण','क्षत्रिय','वैश्य' और 'क्षुद्र' सभी
योग्यता आधारित उपाधियाँ थी। ये सभी कार्य श्रम-विभाजन पर आधारित थे । अपनी
योग्यता और उपाधि के आधार पर एक पिता के अलग-अलग पुत्र-पुत्रियाँ ब्राह्मण,
क्षत्रिय वैश्य और क्षुद्र हो सकते थे उनमे किसी प्रकार का भेद-भाव न था।'कायस्थ' चारों
वर्णों से ऊपर होता था और सभी प्रकार की शिक्षा -व्यवस्था के लिए उत्तरदाई था।
ब्रह्मांड की बारह राशियों के आधार पर कायस्थ को भी बारह वर्गों मे विभाजित किया
गया था। जिस प्रकार ब्रह्मांड चक्राकार रूप मे परिभ्रमण करने के कारण सभी राशियाँ
समान महत्व की होती हैं उसी प्रकार बारहों प्रकार के कायस्थ भी समान ही थे। 
कालांतर मे व्यापार-व्यवसाय से संबन्धित वर्ग ने दुरभि-संधि करके शासन-सत्ता
और पुरोहित वर्ग से मिल कर 'ब्राह्मण' को श्रेष्ठ तथा योग्यता आधारित उपाधि
-वर्ण व्यवस्था को जन्मगत जाती-व्यवस्था मे परिणत कर दिया जिससे कि बहुसंख्यक
'क्षुद्र' सेवा-दाताओं को सदा-सर्वदा के लिए शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ा उनको
शिक्षा से वंचित करके उनका विकास-मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया।'कायस्थ' पर ब्राह्मण
ने अतिक्रमण करके उसे भी दास बना लिया और 'कल्पित' कहानी गढ़ कर चित्रगुप्त को
ब्रह्मा की काया से उत्पन्न बता कर कायस्थों मे भी उच्च-निम्न का वर्गीकरण कर दिया।
खेद एवं दुर्भाग्य की बात है कि आज कायस्थ-वर्ग खुद ब्राह्मणों के बुने कुचक्र को ही
मान्यता दे रहा है और अपने मूल चरित्र को भूल चुका है। कहीं कायस्थ खुद को 'वैश्य'
वर्ण का अंग बता रहा है तो कहीं 'क्षुद्र' वर्ण का बता कर अपने लिए आरक्षण की मांग कर
रहा है। यह जन्मगत जाति-व्यवस्था शोषण मूलक है और मूल भारतीय अवधारणा के
प्रतिकूल है। आज आवश्यकता है योग्यता मूलक वर्ण-व्यवस्था बहाली की एवं उत्पीड़क
जाति-व्यवस्था के निर्मूलन की।'कायस्थ' वर्ग को अपनी मूल भूमिका का निर्वहन करते
हुए भ्रष्ट ब्राह्मणवादी -जातिवादी -जन्मगत व्यवस्था को ध्वस्त करके 'योग्यता
आधारित' मूल वर्ण व्यवस्था को बहाल करने की पहल करनी चाहिए।

सलिल की राजस्थानी रचनाएँ

सलिल की राजस्थानी रचनाएँ
*
१. मरियो साथै जाय 

*
घाघरियो घुमकाय
मरवण घणी सुहाय
*
गोरा-गोरा गाल
मरते दम मुसकाय
*
नैणा फोटू खैंच
हिरदै लई मँढाय
*
तारां छाई रात
जाग-जगा भरमाय
*
जनम-जनम रै संग
ऐसो लाड़ लड़ाय
*
देवी-देव मनाय
मरियो साथै जाय
***
२ ... तैर भायला

लार नर्मदा तैर भायला.
बह जावैगो बैर भायला..

गेलो आपून आप मलैगो.
मंजिल की सुण टेर भायला..

मुसकल है हरदां सूँ खडनो.
तू आवैगो फेर भायला..

घणू कठिन है कविता करनो.
आकासां की सैर भायला..

सूल गैल पै यार 'सलिल' तूं.
चाल मेलतो पैर भायला..
*
३. ...पीर पराई

देख न देखी पीर पराई.
मोटो वेतन चाट मलाई..

इंगरेजी मां गिटपिट करल्यै.
हिंदी कोनी करै पढ़ाई..

बेसी धन स्यूं मन भरमायो.
सूझी कोनी और कमाई..

कंसराज नै पटक पछाड्यो.
करयो सुदामा सँग मिताई..

भेंट नहीं जो भारी ल्यायो.
बाके नहीं गुपाल गुसाईं..

उजले कपड़े मैले मन ल्ये.
भवसागर रो पार न पाई..

लडै हरावल वोटां खातर.
लोकतंत्र नै कर नेताई..

जा आतंकी मार भगा तूं.
ज्यों राघव ने लंका ढाई..
***
घनाक्षरी
जीवण का काचा गेला, जहाँ-तहाँ मेला-ठेला, भीड़-भाड़ ठेलं-ठेला, मोड़ तरां-तरां का|
ठूँठ सरी बैठो काईं?, चहरे पे आई झाईं, खोयी-खोयी परछाईं, जोड़ तरां-तरां का|
चाल्यो बीज बजारा रे?, आवारा बनजारा रे?, फिरता मारा-मारा रे?, होड़ तरां-तरां का.||
नाव कनारे लागैगी, सोई किस्मत जागैगी, मंजिल पीछे भागेगी, तोड़ तरां-तरां का||
*

लक्ष्मी शर्मा

लक्ष्मी शर्मा का रचना संसार 
हिंदी 
उपन्यास 
१. काश्मीर का संताप २०१४ २००/- नमन प्रकाशन दिल्ली
२. आदिशक्ति श्रीसीता २०१४ ३५०/- अयन प्रकाशन दिल्ली 
३. अंतर्द्वंद २०१६ २५०/- अयन प्रकाशन दिल्ली
४. छू लो आसमान २०१७ १८०/- अयन प्रकाशन दिल्ली 

कहानी 
५. तीसरा कोना २००४  १२०/- नमन प्रकाशन दिल्ली 
६. गलियारे की धूप २००५ १५०/- नमन प्रकाशन दिल्ली
७. मन के चक्रवात २०१३ १५०/- नमन प्रकाशन दिल्ली 
८. सुलगते प्रश्न २०१६ २५०/- नमन प्रकाशन दिल्ली
९. होनहार बच्चे २०१५ १००/- एम. के. प्रकाशन, जबलपुर (बाल)
लघुकथा 
१०. मुखौटे  २०११ १३०/- अयन प्रकाशन दिल्ली 
कविता 
११. अंतस की सीपियों के मोती २००० पाथेय जबलपुर 
१२. मौन तोड़ो आज तुम २००७ १२५/- नमन प्रकाशन दिल्ली
१३. क्षितिज के पार २०११ १५०/- नमन प्रकाशन दिल्ली
१४. कन्या जन्म लेगी २०१२  १००/- एम. के. प्रकाशन, जबलपुर
१५. एक सूरज मेरे अंदर २०१४ नमन प्रकाशन दिल्ली
१६. बच्चे मन के सच्चे २०१४ १००/- एम. के. प्रकाशन, जबलपुर 
१७. औ बच्चों देश को जानें १००/- एम. के. प्रकाशन, जबलपुर
बाल नाटक 
१८. हम बच्चे हिन्दुस्तान के २०१५ १००/- एम. के. प्रकाशन, जबलपुर 
बुंदेली 
उपन्यास 
१९. भोर को उजयारो २०१८ २५०/- पाथेय 
कहानी 
२० मायाको बिसरत नइयाँ २०१६    २००/- एम. के. प्रकाशन, जबलपुर 
लघुकथा : 
२१. करेजे की पीर २०१८  १५०/- एम. के. प्रकाशन, जबलपुर 
२२. हिया हिलोरें लेत २०१९ २००/- एम. के. प्रकाशन, जबलपुर
गीत
२३. मेला घुमन निकरी गुइयाँ  २०१० १००/- लक्ष्मी प्रकाशन जबलपुर


रविवार, 25 अक्टूबर 2020

अवधी मिठास - दोहा प्रतियोगिता

दोहा प्रतियोगिता १. ५४, २. ४१, ३. ५७, ४. ६१ ५. ५२, ६. ६४, ७. ६१ , ८. ६०।    
प्रश्न :
०१. अनुराग तुकांत का प्रयोग करते हुए सुंदर दोहा लिखिए
०२. दोहे कितने प्रकार के होते हैं? एक त्रिकल दोहे का उदाहरण दीजिए।
०३. दोहा रचते समय दोहाकार को क्या नियम अपनाने चाहिए।
०४. दोहा छंद अन्य छंदों से भिन्न और विशेष कैसे होता है?
०५. दोहे की सहायता से अन्य कौन से छंद रचे जा सकते हैं?
०६. दोहा पूरा करें ---- देशकाल पर कीजिए ....
०७. दोआब की समस्या पर एक दोहा लिखें!
०८. दोहे और रोले मे भिन्नता बतलाइए।
०९. किन्हीं चार दोहा कारों के एक - एक दोहे लिखिए!
१०. किस दोहाकार के दोहे आपको प्रभावित करते हैं? उदाहरण सहित लिखिए
प्रतियोगिता का निर्धारित समय एक घंटा है। उक्त प्रतियोगिता कुल ९० नंबर की है। पाँच प्रश्न १०-१० नंबर के और प्रश्न संख्या ०९ और.१० दोनों २०-२०  नंबर के हैं।
*
प्रतिभागी १  प्राप्तांक ५४ 
प्र.१.का उत्तर- 
जीवन सरल बनाइए, कटुता सब दो त्याग।
सबको गले लगाइए, भर-भर के अनुराग।।
= संबोधन दोष   
प्राप्तांक ५   
प्र.२. का उत्तर-शिल्प के आधार पर दोहे २३ प्रकार के होते हैं।
= त्रिकाल दोहा ?
प्राप्तांक  
प्र.३. का उत्तर- दोहा रचते समय रचनाकार को शिल्प, गेयता, लाक्षणिकता, संक्षिप्तताऔर मार्मिकता पर ध्यान देना चाहिए।विषम चरणों का कल-४+४+३+२ या ३+३+२+३+२, सम चरणों का कल-४+४+३ या ३+३+२+३ बेहतर होता है।
विषम चरण का प्रारंभ जगण से न हो, देशज शब्दों का प्रयोग कम हो। विषम चरणों का अंत सगण, रगण अथवा नगण से अच्छा माना जाता है । दोहे का प्रारंभ दग्ध अक्षर से न हो।
प्राप्तांक  
प्र.5. सरसी छंद
प्राप्तांक  
प्र ६ का उत्तर-
देशकाल पर कीजिए, अपने सारे कर्म।
समय बहुत बलवान है, समझ सखे यह मर्म।।
प्राप्तांक  
प्र ८ का उत्तर-दोहा रोले का विलोम होता है।रोला में11-13यति पर होता है तथा प्रथम चरणांत गुरु लघु से होता है जबकि दोहा का लघु गुरु या लघु लघु लघु से।रोला द्वितीय चरण का प्रारंभ त्रिकल से अनिवार्य है जबकि दोहा मे यह अनिवार्यता नहीं है।
प्राप्तांक ३ 
प्र.९.कबीर दास
कबीर संगति साधु की, जो करि जाने कोय।
सकल बिरछ चंदन भये, बाँस न चंदन होय।।
बिहारी-समै समै सुन्दर सबै, रूप कुरूप न कोय।
मन की रुचि जेती जितै, तिन तेती रुचि होय।।
रहीम-रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरे, मोती मानस चून।।
तुलसीदास-आवत ही हरसै नहीं, नैनन नहीं सनेह।
तुलसी वहाँ न जाइए, चाहे कंचन बरसै मेह।।
प्राप्तांक २० 
प्र.10 कबीर दास के दोहे सबसे अधिक प्रभावित करते हैं।कबीर के दोहो में स्पष्टता, लाक्षणिकता और मार्मिकता अधिक होती है।सटीक अभिव्यक्ति भी।
जैसे-देह धरे का गुन यही, देह देह कछु देह।
बहुरि न देही पाइए, अबकी देह सुदेह।।
प्राप्तांक १० 
********
प्रतिभागी २ प्राप्तांक    ४१  
1- जीवन यह अनमोल है, सब से हो अनुराग। 
साँसें गिनती की मिलीं, द्वेष भावना त्याग।। 
प्राप्तांक ७ 
2- दोहा अन्य छंदों से अपने चार चरणों क्रमशः 13,11,13,11मात्राओं , सम तुकांतता चरणों में गुरुलघु अनिवार्य होने से व द्वि पदी में गागर में सागर भरना होता है ,यही भिनन्ता है। 
प्राप्तांक ३ 
5- दोहा छंद से हम कुण्डलिया छन्द, दोहा मुक्तक, दोहा गज़ल, दोहा गीतिका, दोहा गीत आदि छंदाधारित रचना कर सकते हैं ।
प्राप्तांक ३ 
6-देश काल पर कीजिए, विवेक दे कर ध्यान। 
उसी तरह व्यवहार से, बढ़ उन्नति सोपान।। 
प्राप्तांक ६
7-दोहा से रोला में चारों चरणों में मात्रा भार उल्टा हो जाता है, यथा -
11,13,11हो जाता है तथा तुकान्त उसी प्रकार बदल जाते हैं। 
प्राप्तांक ७
9-चार दोहे-
1.रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ें चटकाय। 
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाय।। --रहीम जी 
2-मित्र समय पहचान कर, करो परिश्रम आज। 
शीघ्र उठो नियमित रहो, यही सफलता राज।।-रघुनन्दन हटीला 
प्राप्तांक १०  
10- रहीम जी के दोहे --गागर में सागर भरने से सारगर्भित, श्रेष्ठ 
प्राप्तांक  
==========
प्रतिभागी ---  तीन ///दोहा प्रतियोगिता   ५७ 
०१. अनुराग तुकांत का प्रयोग करते हुए सुंदर दोहा लिखिए
जहांँ स्वार्थ की बेल है, वहांँ नहीं अनुराग।
जल जाते इस आग में, प्रेम पगे सब बाग।।
७ 
०२. दोहा रचते समय दोहाकार को क्या नियम अपनाने चाहिए।
उ.दोहे में शिल्प ,लय, तुकांत का विशेष ध्यान रखना चाहिए। कारक का कम से कम प्रयोग करना चाहिए। श्रेष्ठ दोहे में  सरसता,स्पष्टता, पूर्णता और लाक्षणिकता होनी चाहिए।
५ 
०३. दोहा छंद अन्य छंदों से भिन्न और विशेष कैसे होता है?
उ. दोहा अति लघु छंद है । लेकिन कवि इस लघु गागर में सागर भर सकता है।
२ 
०४. दोहे की सहायता से अन्य कौन से छंद रचे जा सकते हैं?
उ. दोहे छंद की सहायता से हम दोहा-मुक्तक और कुंडलियां छंद लिख सकते हैं।
४ 
०५. दोहे और रोले मे भिन्नता बतलाइए।
उ. दोहा छंद में प्रथम चरण में 13 मात्राएं और विषम चरण में 11 मात्राएं होती हैं। इसके विपरीत रोला छंद में प्रथम चरण में 11 मात्राएं और विषम चरण में 13 मात्राएं होती हैं।
४ 
०९. किन्हीं चार दोहा कारों के एक - एक दोहे लिखिए!
रहीम जी
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय।
 टूटे पे फिर ना जुरे ,जुरे गांँठ परी जाय।।
रसखान जी
 जा छवि पर रसखान अब वारों कोटि मनोज।
 जाकी उपमा कविन नहिं पाई रहे कहुं खोज।।
बिहारी जी
सतसइया के दोहरे जो नाविक के तीर ।
देखन में छोटै लगे घाव करे गंभीर।।
तुलसी दास जी
मुखिया मुख सो चाहिए, खान पान कहूं एक। 
पालन-पोषण सकल अंग तुलसी सहित विवेक।।
२० 
१०. किस दोहाकार के दोहे आपको प्रभावित करते हैं? उदाहरण सहित लिखिए
उ.दोहाकार  संत कबीर दास जी ने हमें सबसे अधिक प्रभावित किया । उदाहरण हेतु उनके दोहे प्रस्तुत हैं,जो उनकी अद्भुत कल्पना शक्ति और तीव्र मेघा का जीवंत  प्रमाण है
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।१.
यह तन कांचा कुंभ है ,लिए फिरे था साथ।
ढबका लागी फूटिगा ,कछु न आया हाथ।।२
 १५ 
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चार /// प्र. 9 का उत्तर...  ६१ 
कबीर
गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय। 
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।
रहीम
दीरघ दोहा अरथ को,आखर थोड़े आंहि।
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमटि-कूदि चलि जाँहि।
तुलसी
रामराज अभिषेक सुन,हिय हरषे नर-नारि।
लगे सुमंगल सजन सब,विधि अनुकूल विचारि।
गोपालदास 'नीरज'
आत्मा के सौंदर्य का ,शब्द रूप हैं काव्य।
मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य।
बिहारी
नहिं पराग, नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल।
अली कली सो बन्ध्यौ, आगे कौन हवाल।
२० 
प्र. 10 का उत्तर
कविवर विहारी के
नहिं पराग, नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल।
अली कली सो बन्ध्यौ, आगे कौन हवाल।
उनके उक्त दोहे ने राजा जयसिंह को सद्बुध्दि प्रदान की है..।
उन्होंने राजा को एक बार और एक दोहे के द्वारा ही जागृत किया था....।..
जिसकी  पंक्तियां याद आ रही हैं
स्वारथ,सुकृत न श्रम वृथा, देखि विहंग विचारि।
बाज पराए पानि ते, तू पाछिनु न मार।
बिहारी के बारे में प्रसिद्ध है...
सतसैया के दोहरे, ज्यों नाविक के तीर।
देखन में छोटे लगें, घाव करें गम्भीर।
१० 
प्र. 8 ...
दोहे में चार चरण हैं
रोले में आठ चरण हैं।
दोहे के विषम चरण में 13 और सम चरण में 11 मात्राएं होती हैं।
रोले में विषम चरणों में 11 और सम चरणों में 13 मात्राएं   होती हैं।
६ 
प्र. 6 का उत्तर.....
देशकाल पर कीजिए,  जम कर सोच विचार।
जल्दी ही कुछ कीजिए, जीवन के दिन चार।
६ 
 5. का उत्तर
1-कुंडलिया या कुंडली , 2-कुंडलिनी (आ. ओमनीरव प्रणीत) 
3-सरसी 
4-सार 
६  
प्र. 3 का उत्तर.......... 
दोहा छंद मेरे अनुसार छंदों का राजा है...कवियों को धनुष-वाण है....
इसकी मारक क्षमता ही इसकी विशेषता है।इसके द्वारा कवि गागर में सागर भर सकता है।
कवि चंदवरदाई का एक दोहा ने मौ. गौरी का काल बन गया।
यहाँ मैं फिर से कवि बिहारी और राजा जय सिंह का भी उल्लेख करना चाहुंगा, कि किस प्रकर बिहारी ने एक नहीं दो दो बार अपने दोहों से राजा जय सिंह का मार्ग दर्शन किया और एक प्रकार सेउन्हें सोते हुए से जाग्रत किया।
८ 
प्र. 1 का उत्तर
ग्रामों में अब नहिं रहा, पहले सा अनुराग।
ढूंढे से भी नहिं दिखे, कित सावन,कित फाग।।
५ 
=======
 प्रतिभागी पाँच /// 1.  ५२ 
तालमेल  हो  मित्र  से, बढ़े  सदा  अनुराग। 
छोड़ हृदय के स्वार्थ को, करें हमेशा त्याग।।
६ 
2.
दोहे के 23 प्रकार होते हैं।
 त्रिकल दोहे का उदाहरण —
अति उत्तम अनुपम अमित, अविचल अपरंपार।
शुचिकर  सरस  सुहावना,  दीपावलि  त्योहार।।
६ 
5.
दोहे की सहायता से कुंडलिया और सोरठा छंद की रचना की जा सकती है।
४ 
6.
देशकाल  पर  कीजिए, उत्तम  कुछ  संवाद। 
लेकिन रखिए ध्यान यह, बढ़े न वाद - विवाद।। 
५ 
9. 
कबीर -

निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।। 
तुलसीदास -
दया धर्म का मूल  है पाप मूल अभिमान |
तुलसी दया न छांड़िए ,जब लग घट में प्राण।। 
रहीम-
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय |
औरन को शीतल करै, आपहु शीतल होय ||
सूरदास - 
गोरे नंद जसोदा गोरी तू कत स्यामल गात। 
चुटकी दै दै ग्वाल नचावत हंसत सबै मुसुकात॥
२० 
10. 
मुझे कबीर के दोहे सबसे अधिक पसंद हैं, क्योंकि वे जन जीवन के नजदीक हैं और सभी दोहे कुछ न कुछ संदेश देते हैं, यथा—

तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब । 
पल में प्रलय होएगी,बहुरि करेगा कब ॥ 

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
७ 
3.
दोहा रचते समय निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए - 
गेयता पूर्ण हो। विषम चरण में 13 और सम चरण में 11 मात्रा भार हो। 
तभी इसकी सरसता बनी रहती है
४ 
==============
प्रतियोगी -- छः //  ६४ 
उत्तर 1
कहाँ गई अब प्रीत वो , कहाँ गया अनुराग |
कलयुग में सद्भाव के , बचे न कोई बाग ||
७ 
उत्तर 2
दोहा कुल 23 प्रकार के होते हैं ।
त्रिकल दोहे का एक उदाहरण
चलो बनाएँ बाग इक , जहां खिलें सब फूल |
भ्रमर कली सब प्रेम से , खेलें झूला झूल ||  गलत ९ गुरु, ३० लघु के स्थान पर १४ गुरु २० लघु हंस दोहा 
२ 
उत्तर 3
 दोहा की रचना करते समय यह विशेष ध्यान रखना चाहिये कि दोहे की शुरुआत  121 यानि लघु गुरु लघु मात्रा से नहीं करनी चाहिये ,
आजकल के दोहे में देशज शब्द बिल्कुल भी प्रयोग में नहीं लाना चाहिये 
केवल मानक शब्द मान्य हैं 
तुकांत का ध्यान रखना बेहद आवश्यक होता है ।
दोनों कही गयी पंक्तियों के भाव स्पस्ट होने चाहये ।
३ 
उत्तर 4
दोहा अर्ध सम मात्रिक छन्द है जिसमें दो पंक्ति में ही बड़ी बात सीधे तीर के समान घाव या प्रभाव करती है ।
अतः यह अन्य छन्दों से भिन्न और कम शब्दों में प्रभावशाली होता है ।
४ 
उत्तर 5
दोहे की सहायता से कई छन्दों की रचना की जाती है जो निम्न प्रकार हैं ।
कुण्डलिनी
कुण्डलिया
दोहा गीतिका
दोहा गीत 
दोहा मुक्तक
दोहा ग़जल
६ 
उत्तर  6
देशकाल पर कीजिए , निशदिन त्वरित विचार |
गल्ती पर सब बोलिए , जुबां सत्य बिन भार ||
६ 
उत्तर 7
दो आब शब्द मतलब दो नदियों के बीच का भाग 
 
दो नदियों के बीच में , फँसा हमारा गेह |
बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में , दुर्लभ मिलता नेह ||
८ 
उत्तर 9
चार प्रसिद्ध दोहाकार 
कबीर 
माटी कहे कुम्हार से , तूँ क्या रौंदे मोय |
इक दिन ऐसा आएगा , मैं रौंदूंगी तोय ||
गोस्वामी तुलसी दास
श्री गुरु चरण सरोज रज , निज मन मुकुर सुधार |
वरनउ रघुवर विमल यश , जो दायक फल चार ||
बिहारी 
तात्री नाद कवित्त रस , सरस राग रति रंग |
अन बूड़े बूड़े तरे , जे बूड़े सब रंग ||
वृंद के दोहे 
विद्या धन उद्मय बिना , कहै जु पावे कौन |
बिना डुलाए न डुलै ज्यों पंखा की पौन ||
२० 
उत्तर 10
मुझे संत कबीर दास जी के दोहे बहुत प्रभावित करते है  
उदाहरण
चलती चाकी देख कर , दिया कबीरा रोय |
दो पाटन के बीच में , साबुत बचा न कोय ||
८ 
============
प्रतियोगी सात //// 9.    ६१ 
1गोस्वामी तुलसीदास
सम प्रकाश तम पाख दुहु,
नाम भेद विधि कीन्ह।
शशि पोषक शोषक समुझि,जग जस अपजस दीन्ह ।।
2 रहीम
रहिमन जिव्हा बावरी, कहि गई सरग पताल।
आपु तो कही भीतर गई, जूती खात कपाल।।
3.बिहारी
स्वारथ सुकृतु न श्रमु वृथा, देखि विहंग विचारि।
बाज पराए पानि परि, तू पंछिनु न मारि।।
4.कबीर---
निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय।बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय ।।
२० 
प्र.10
कबीर--
उन्होंने दोहों के माध्यम से समाज में फैले कठमुल्लापन,बुराइयों पर वार किया।
    वो सामाजिक समरसता ,समन्वय के हिमायती थे।
1.
मूड़ मुड़ाए हरि मिले, तो मैं भी लेउँ मुड़ाय।
बार बार के मूड़ ते भेड़ न बैकुंठ जाय।।
2.
कांकर पाथर जोड़ि कै, मस्जिद लई  चुनाय।
ता ऊपर मुल्ला बाँग दे बहरा हुआ खुदाय।।
3.
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का , पढ़े सो पंडित होय।।
८ 
प्र.3
--विषम चरण में तेरा मात्रा,अंत रगण,
सगण या नगण से
4432/33232
---सम चरण 11 मात्रा अंत जगण या तगण से
तुकांत,अन्त्यानुप्रास
443/3323/43जगण
---चारों चरण का प्रारंभ
जगण या पचकल से नहीं
---चारों चरण में 11 विन मात्रा लघु
---समचरणों में 10 विन मात्रा दीर्घ।
८ 
प्र.4
--कम शब्द में अधिक कहने का माद्दा
---मार्मिकता व संदेशप्रद अभिव्यक्ति
---लयबद्ध गाया जा सकता है ।
---भाषण ववक्तव्यों में उपयोग करना आसान 
५ 
प्र.5
दोहे की सहायता से रचे जा सकते हैं ---
   1.कुण्डलिया
    2. दोहा मुक्तक
३  
प्र.6
देशकाल पर कीजिए,
कुछ तो बन्धु विचार ।
वरन प्रगति की डोर के, 
कट जाएंगे तार।।
८   
प्र.8
दोहा                    
-मात्रिक छंद 
-दो पंक्ति चार चरण
--हर पंक्ति में 24 मात्रा
--13,11 पर यति
--विषम चरण का अंत
 सगण, रगण,नगण से
--दोहे का सम चरण 11 मात्रा अंत जगण तगण से
 रोला --
-मात्रिक छंद
-चार पंक्ति -8चरण
--हर पंक्ति में 24 मात्रा
--11,13 पर यति
 -विषम चरण दोहे के सम चरण के समान
--सम चरण का अंत 22 से अच्छा माना जाता है ।
९ 
*****
प्रतियोगी -- आठ///      ६० 
०१. अनुराग तुकांत का प्रयोग करते हुए सुंदर दोहा लिखिए।
अपने हित को देखिये , उगल रहे क्यो आग ।
कैसे हम ये मान ले , भारत से अनुराग ।।
८ 
०३. दोहा रचते समय दोहाकार को क्या नियम अपनाने चाहिए।
उत्तर:- दोहे को रचते समय सबसे पहले मात्राओं का ध्यान रखना चाहिए क्योंकि ये छंद जितना सरल दिखता है उतना है नही , रचनाकार को दोहे को लय बद्ध जो गाया जा सके वैसा रचना चाहिए बोझिल व किलिष्ट शब्दो के प्रयोग से बचना चाहिए इसका प्रारम्भ 121 से नही होना चाहिए व
 4423,443
3343,3323
इस क्रम में अच्छी रचना होती है ।
दोहे में कम शब्दों में गहरी बात के लिए तैयार करना चाहिए।
६  
०४. दोहा छंद अन्य छंदों से भिन्न और विशेष कैसे होता है?
उत्तर:- दोहा छंद आम बोली की अभिव्यक्ति रूप है जो प्राचीन के साथ सुलभ भी है कम शब्दों में गहरे भाव व प्रभाव को जन के दिल में बसाता है तभी कबीर जी से लेकर वर्तमान तक उसी शिद्दत से रचा व पढ़ा जाता है । इसके अलावा जो दूसरे छंद है वो लिखे बोले तो जाते है पर जन जन के मनो पर नही बसते ।इसी लिए आज तक दोहा नया ही है।
 ८ 
०५. दोहे की सहायता से अन्य कौन से छंद रचे जा सकते हैं?
उत्तर :- दोहे की मदद से सोरठा, रोला, कुंडलियाँ छंद रचा जा सकता है।
५ 
०८. दोहे और रोले मे भिन्नता बतलाइए।
उत्तर:- दोहे में प्रथम चरण 13  चरण  , द्वतीय चरण 11 ,तृतीय चरण13, चतुर्थ चरण11 मात्राएं होती है व सम चरण का अंत गुरु लघु से होता है।
रोला में प्रथम , तृतीय चरण11-11,  द्वतीय , चतुर्थ चरण 13- 13 मात्राएं होती है।
५ 
०९. किन्हीं चार दोहा कारों के एक - एक दोहे लिखिए!
1- सने हुए है देह में , विज्ञापन नाचीज ।
दस पैसे में बेचते , दो पैसे की चीज ।। {Shailesh Veer जी}
2-  जबसे माँगे लाल की , बिटिया हुई जवान ।
बूढा बनिया दे रहा , नित उधार सामान ।। {डॉ बिपिन पाण्डेय जी}
3-  रहे पढ़ाते और को , नैतिकता का पाठ ।
सत्ता आई हाथ तो , लेते है खुद ठाठ ।। {रघुवेन्द्र यादव जी} 
4- कतर कतर कर पंख को , कहते भरो उड़ान ।
कैसे अद्भुद लोग है , कैसा पुष्प जहान ।। {पुष्प लता जी }
२० 
१०. किस दोहाकार के दोहे आपको प्रभावित करते हैं? उदाहरण सहित लिखिए।
उत्तर:- मुझको Raghuvinder Yadav  जी के दोहे अधिक प्रभावित करते है क्योंकि वो सीधे आम जन की बात लिखते है जो दिल को छूती है 
लूट रोज गरीब को , बाँटा इक दिन दान ।
उनकी भी है आरजू , लिख दूँ उन्हें महान ।
८  

धनतेरस

लघुकथा:
धनतेरस
*
वह कचरे के ढेर में रोज की तरह कुछ बीन रहा था, बुलाया तो चला आया। त्यौहार के दिन भी इस गंदगी में? घर कहाँ है? वहाँ साफ़-सफाई क्यों नहीं करते?त्यौहार नहीं मनाओगे? मैंने पूछा।
'क्यों नहीं मनाऊँगा?, प्लास्टिक बटोरकर सेठ को दूँगा जो पैसे मिलेंगे उससे लाई और दिया लूँगा।' उसने कहा।
'मैं लाई और दिया दूँ तो मेरा काम करोगे?' कुछ पल सोचकर उसने हामी भर दी और मेरे कहे अनुसार सड़क पर नलके से नहाकर घर आ गया। मैंने बच्चे के एक जोड़ी कपड़े उसे पहनने को दिए, दो रोटी खाने को दी और सामान लेने बाजार चल दी। रास्ते में उसने बताया नाले किनारे झोपड़ी में रहता है, माँ बुखार के कारण काम नहीं कर पा रही, पिता नहीं है।
ख़रीदे सामान की थैली उठाये हुए वह मेरे साथ घर लौटा, कुछ रूपए, दिए, लाई, मिठाई और साबुन की एक बट्टी दी तो वह प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखते हुए पूछा: 'ये मेरे लिए?' मैंने हाँ कहा तो उसके चहरे पर ख़ुशी की हल्की सी रेखा दिखी। 'मैं जाऊँ?' शीघ्रता से पूछ उसने कि कहीं मैं सामान वापिस न ले लूँ। 'जाकर अपनी झोपड़ी, कपड़े और माँ के कपड़े साफ़ करना, माँ से पूछकर दिए जलाना और कल से यहाँ काम करने आना, बाक़ी बात मैं तुम्हारी माँ से कर लूँगी।
'क्या कर रही हो, ये गंदे बच्चे चोर होते हैं, भगा दो' पड़ोसन ने मुझे चेताया। गंदे तो ये हमारे फेंके कचरे को बीनने से होते हैं। ये कचरा न उठायें तो हमारे चारों तरफ कचरा ही कचरा हो जाए। हमारे बच्चों की तरह उसका भी मन करता होगा त्यौहार मनाने का।
'हाँ, तुम ठीक कह रही हो। हम तो मनायेंगे ही, इस बरस उसकी भी मन सकेगी धनतेरस'
कहते हुए ये घर में आ रहे थे और बच्चे के चहरे पर चमक रहा था थोड़ा सा चन्द्रमा।
**********
धनतेरस पर विशेष गीत...
प्रभु धन दे...
*
प्रभु धन दे निर्धन मत करना.
माटी को कंचन मत करना.....
*
निर्बल के बल रहो राम जी,
निर्धन के धन रहो राम जी.
मात्र न तन, मन रहो राम जी-
धूल न, चंदन रहो राम जी..
भूमि-सुता तज राजसूय में-
प्रतिमा रख वंदन मत करना.....
*
मृदुल कीर्ति प्रतिभा सुनाम जी.
देना सम सुख-दुःख अनाम जी.
हो अकाम-निष्काम काम जी-
आरक्षण बिन भू सुधाम जी..
वन, गिरि, ताल, नदी, पशु-पक्षी-
सिसक रहे क्रंदन मत करना.....
*
बिन रमेश क्यों रमा राम जी,
चोरों के आ रहीं काम जी?
श्री गणेश को लिये वाम जी.
पाती हैं जग के प्रणाम जी..
माटी मस्तक तिलक बने पर-
आँखों का अंजन मत करना.....
*
साध्य न केवल रहे चाम जी,
अधिक न मोहे टीम-टाम जी.
जब देना हो दो विराम जी-
लेकिन लेना तनिक थाम जी..
कुछ रच पाए कलम सार्थक-
निरुद्देश्य मंचन मत करना..
*
अब न सुनामी हो सुनाम जी,
शांति-राज दे, लो प्रणाम जी.
'सलिल' सभी के सदा काम जी-
आये, चल दे कर सलाम जी..
निठुर-काल के व्याल-जाल का
मोह-पाश व्यंजन मत करना.....

क्या लिखूँ?

एक रचना
*
क्या लिखूँ?
कैसे लिखूँ?
कब कुछ लिखूँ, बतलाइये?
मत करें संकोच
सच कहिये, नहीं शर्माइये।
*
मिली आज़ादी चलायें जीभ जब भी मन करे
कौन होते आप जो कहते तनिक संयम वरें?
सांसदों का जीभ पर अपनी, नियंत्रण है नहीं
वायदों को बोल जुमला मुस्कुराते छल यहीं
क्या कहूँ?
कैसे कहूँ?
क्या ना कहूँ समझाइये?
क्या लिखूँ?
कैसे लिखूँ?
कब कुछ लिखूँ, बतलाइये?
*
आ दिवाली कह रही है, दीप दर पर बालिये
चीन का सामान लेना आप निश्चित टालिए
कुम्हारों से लें दिए, तम को हराएँ आप-हम
अधर पर मृदु मुस्कराहट हो तनिक भी अब न कम
जब मिलें
तब लग गले
सुख-दुःख बता-सुन जाइये
क्या लिखूँ?
कैसे लिखूँ?
कब कुछ लिखूँ, बतलाइये?
*
बाप-बेटे में न बनती, भतीजे-चाचा लड़ें
भेज दो सीमा पे ले बंदूक जी भरकर अड़ें
गोलियाँ जो खाये सीने पर, वही मंत्री बने
जो सियासत मात्र करते, वे महज संत्री बनें
जोड़ कर कर
नागरिक से
कहें नेता आइये 
क्या लिखूँ?
कैसे लिखूँ?
कब कुछ लिखूँ, बतलाइये?
*
२५-१०-२०१४ 

कवि नागार्जुन

बाबा नागार्जुन की एक सारगर्भित रचना 
उनको प्रणाम
*
उनको प्रणाम!
जो नहीं हो सके पूर्ण-काम
मैं उनको करता हूँ प्रणाम।
कुछ कंठित औ' कुछ लक्ष्य-भ्रष्ट
जिनके अभिमंत्रित तीर हुए;
रण की समाप्ति के पहले ही
जो वीर रिक्त तूणीर हुए!
उनको प्रणाम!
जो छोटी-सी नैया लेकर
उतरे करने को उदधि-पार,
मन की मन में ही रही, स्वयं
हो गए उसी में निराकार!
उनको प्रणाम!
जो उच्च शिखर की ओर बढ़े
रह-रह नव-नव उत्साह भरे,
पर कुछ ने ले ली हिम-समाधि
कुछ असफल ही नीचे उतरे!
उनको प्रणाम
एकाकी और अकिंचन हो
जो भू-परिक्रमा को निकले,
हो गए पंगु, प्रति-पद जिनके
इतने अदृष्ट के दाव चले!
उनको प्रणाम
कृत-कृत नहीं जो हो पाए,
प्रत्युत फाँसी पर गए झूल
कुछ ही दिन बीते हैं, फिर भी
यह दुनिया जिनको गई भूल!
उनको प्रणाम!
थी उम्र साधना, पर जिनका
जीवन नाटक दु:खांत हुआ,
या जन्म-काल में सिंह लग्न
पर कुसमय ही देहाँत हुआ!
उनको प्रणाम
दृढ़ व्रत औ' दुर्दम साहस के
जो उदाहरण थे मूर्ति-मंत?
पर निरवधि बंदी जीवन ने
जिनकी धुन का कर दिया अंत!
उनको प्रणाम
जिनकी सेवाएँ अतुलनीय
पर विज्ञापन से रहे दूर
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके
कर दिए मनोरथ चूर-चूर!
उनको प्रणाम

चित्रगुप्त रहस्य:

लेख :
चित्रगुप्त रहस्य: 
आचार्य संजीव 'सलिल' 
चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं: 
परात्पर परमब्रम्ह श्री चित्रगुप्त जी सकल सृष्टि के कर्मदेवता हैं, केवल कायस्थों के नहीं। उनके अतिरिक्त किसी अन्य कर्म देवता का उल्लेख किसी भी धर्म में नहीं है, न ही कोई धर्म उनके कर्म देव होने पर आपत्ति करता है। अतः, निस्संदेह उनकी सत्ता सकल सृष्टि के समस्त जड़-चेतनों तक है। पुराणकार कहता है: '
चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानाम सर्व देहिनाम.'' 
अर्थात श्री चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं जो आत्मा के रूप में सर्व देहधारियों में स्थित हैं. 
आत्मा क्या है? 
सभी जानते और मानते हैं कि 'आत्मा सो परमात्मा' अर्थात परमात्मा का अंश ही आत्मा है। स्पष्ट है कि श्री चित्रगुप्त जी ही आत्मा के रूप में समस्त सृष्टि के कण-कण में विराजमान हैं। इसलिए वे सबके पूज्य हैं सिर्फ कायस्थों के नहीं। 
चित्रगुप्त निर्गुण परमात्मा हैं: 
सभी जानते हैं कि परमात्मा और उनका अंश आत्मा निराकार है। आकार के बिना चित्र नहीं बनाया जा सकता। चित्र न होने को चित्र गुप्त होना कहा जाना पूरी तरह सही है। आत्मा ही नहीं आत्मा का मूल परमात्मा भी मूलतः निराकार है इसलिए उन्हें 'चित्रगुप्त' कहा जाना स्वाभाविक है। निराकार परमात्मा अनादि (आरंभहीन) तथा (अंतहीन) तथा निर्गुण (राग, द्वेष आदि से परे) हैं। 
चित्रगुप्त पूर्ण हैं: 
अनादि-अनंत वही हो सकता है जो पूर्ण हो। अपूर्णता का लक्षण आरम्भ तथा अंत से युक्त होना है। पूर्ण वह है जिसका क्षय (ह्रास या घटाव) नहीं होता। पूर्ण में से पूर्ण को निकल देने पर भी पूर्ण ही शेष बचता है, पूर्ण में पूर्ण मिला देने पर भी पूर्ण ही रहता है। इसे 'ॐ' से व्यक्त किया जाता है। दूज पूजन के समय कोरे कागज़ पर चन्दन, केसर, हल्दी, रोली तथा जल से ॐ लिखकर अक्षत (जिसका क्षय न हुआ हो आम भाषा में साबित चांवल)से चित्रगुप्त जी पूजन कायस्थ जन करते हैं। 
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते 
पूर्ण है यह, पूर्ण है वह, पूर्ण कण-कण सृष्टि सब 
पूर्ण में पूर्ण को यदि दें निकाल, पूर्ण तब भी शेष रहता है सदा। 
चित्रगुप्त निर्गुण तथा सगुण दोनों हैं:
चित्रगुप्त निराकार-निर्गुण ही नहीं साकार-सगुण भी है। वे अजर, अमर, अक्षय, अनादि तथा अनंत हैं। परमेश्वर के इस स्वरूप की अनुभूति सिद्ध ही कर सकते हैं इसलिए सामान्य मनुष्यों के लिये वे साकार-सगुण रूप में प्रगट हुए वर्णित किये गए हैं। सकल सृष्टि का मूल होने के कारण उनके माता-पिता नहीं हो सकते। इसलिए उन्हें ब्रम्हा की काया से ध्यान पश्चात उत्पन्न बताया गया है. आरम्भ में वैदिक काल में ईश्वर को निराकार और निर्गुण मानकर उनकी उपस्थिति हवा, अग्नि (सूर्य), धरती, आकाश तथा पानी में अनुभूत की गयी क्योंकि इनके बिना जीवन संभव नहीं है। इन पञ्च तत्वों को जीवन का उद्गम और अंत कहा गया। काया की उत्पत्ति पञ्चतत्वों से होना और मृत्यु पश्चात् आत्मा का परमात्मा में तथा काया का पञ्च तत्वों में विलीन होने का सत्य सभी मानते हैं। 
अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय देह. 
परमात्मा का अंश है, आत्मा निस्संदेह।। 
परमब्रम्ह के अंश- कर, कर्म भोग परिणाम 
जा मिलते परमात्म से, अगर कर्म निष्काम।। 
कर्म ही वर्ण का आधार श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं: 'चातुर्वर्ण्यमयासृष्टं गुणकर्म विभागशः' 
अर्थात गुण-कर्मों के अनुसार चारों वर्ण मेरे द्वारा ही बनाये गये हैं। 
स्पष्ट है कि वर्ण जन्म पर आधारित नहीं था। वह कर्म पर आधारित था। कर्म जन्म के बाद ही किया जा सकता है, पहले नहीं। अतः, किसी जातक या व्यक्ति में बुद्धि, शक्ति, व्यवसाय या सेवा वृत्ति की प्रधानता तथा योग्यता के आधार पर ही उसे क्रमशः ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र वर्ग में रखा जा सकता था। एक पिता की चार संतानें चार वर्णों में हो सकती थीं। मूलतः कोई वर्ण किसी अन्य वर्ण से हीन या अछूत नहीं था। सभी वर्ण समान सम्मान, अवसरों तथा रोटी-बेटी सम्बन्ध के लिये मान्य थे। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक अथवा शैक्षणिक स्तर पर कोई भेदभाव मान्य नहीं था। कालांतर में यह स्थिति पूरी तरह बदल कर वर्ण को जन्म पर आधारित मान लिया गया। 
चित्रगुप्त पूजन क्यों और कैसे? 
श्री चित्रगुप्त का पूजन कायस्थों में प्रतिदिन प्रातः-संध्या में तथा विशेषकर यम द्वितीया को किया जाता है। कायस्थ उदार प्रवृत्ति के सनातन (जो सदा था, है और रहेगा) धर्मी हैं। उनकी विशेषता सत्य की खोज करना है इसलिए सत्य की तलाश में वे हर धर्म और पंथ में मिल जाते हैं। कायस्थ यह जानता और मानता है कि परमात्मा निराकार-निर्गुण है इसलिए उसका कोई चित्र या मूर्ति नहीं है, उसका चित्र गुप्त है। वह हर चित्त में गुप्त है अर्थात हर देहधारी में उसका अंश होने पर भी वह अदृश्य है। जिस तरह खाने की थाली में पानी न होने पर भी हर खाद्यान्न में पानी होता है उसी तरह समस्त देहधारियों में चित्रगुप्त अपने अंश आत्मा रूप में विराजमान होते हैं। 
चित्रगुप्त ही सकल सृष्टि के मूल तथा निर्माणकर्ता हैं:
सृष्टि में ब्रम्हांड के निर्माण, पालन तथा विनाश हेतु उनके अंश ब्रम्हा-महासरस्वती, विष्णु-महालक्ष्मी तथा शिव-महाशक्ति के रूप में सक्रिय होते हैं। सर्वाधिक चेतन जीव मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही अंश है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य परम सत्य परमात्मा की प्राप्ति कर उसमें विलीन हो जाना है। अपनी इस चितन धारा के अनुरूप ही कायस्थजन यम द्वितीय पर चित्रगुप्त पूजन करते हैं। सृष्टि निर्माण और विकास का रहस्य: आध्यात्म के अनुसार सृष्टिकर्ता की उपस्थिति अनहद नाद से जानी जाती है। यह अनहद नाद सिद्ध योगियों के कानों में प्रति पल भँवरे की गुनगुन की तरह गूँजता हुआ कहा जाता है। इसे 'ॐ' से अभिव्यक्त किया जाता है। विज्ञान सम्मत बिग बैंग थ्योरी के अनुसार ब्रम्हांड का निर्माण एक विशाल विस्फोट से हुआ जिसका मूल यही अनहद नाद है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगें संघनित होकर कण (बोसान पार्टिकल) तथा क्रमश: शेष ब्रम्हांड बना। 
यम द्वितीया पर कायस्थ एक कोरा सफ़ेद कागज़ लेकर उस पर चन्दन, हल्दी, रोली, केसर के तरल 'ॐ' अंकित करते हैं। यह अंतरिक्ष में परमात्मा चित्रगुप्त की उपस्थिति दर्शाता है। 'ॐ' परमात्मा का निराकार रूप है। निराकार के साकार होने की क्रिया को इंगित करने के लिये 'ॐ' को सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ काया मानव का रूप देने के लिये उसमें हाथ, पैर, नेत्र आदि बनाये जाते हैं। तत्पश्चात ज्ञान की प्रतीक शिखा मस्तक से जोड़ी जाती है। शिखा का मुक्त छोर ऊर्ध्वमुखी (ऊपर की ओर उठा) रखा जाता है जिसका आशय यह है कि हमें ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा में विलीन (मुक्त) होना है। 
बहुदेववाद की परंपरा:
इसके नीचे श्री के साथ देवी-देवताओं के नाम लिखे जाते हैं, फिर दो पंक्तियों में 9 अंक इस प्रकार लिखे जाते हैं कि उनका योग 9 बार 9 आये। परिवार के सभी सदस्य अपने हस्ताक्षर करते हैं और इस कागज़ के साथ कलम रखकर उसका पूजन कर दण्डवत प्रणाम करते हैं। पूजन के पश्चात् उस दिन कलम नहीं उठायी जाती। इस पूजन विधि का अर्थ समझें। प्रथम चरण में निराकार निर्गुण परमब्रम्ह चित्रगुप्त के साकार होकर सृष्टि निर्माण करने के सत्य को अभिव्यक्त करने के पश्चात् दूसरे चरण में निराकार प्रभु द्वारा सृष्टि के कल्याण के लिये विविध देवी-देवताओं का रूप धारण कर जीव मात्र का ज्ञान के माध्यम से कल्याण करने के प्रति आभार, विविध देवी-देवताओं के नाम लिखकर व्यक्त किया जाता है। ये देवी शक्तियां ज्ञान के विविध शाखाओं के प्रमुख हैं. ज्ञान का शुद्धतम रूप गणित है। 
सृष्टि में जन्म-मरण के आवागमन का परिणाम मुक्ति के रूप में मिले तो और क्या चाहिए? यह भाव पहले देवी-देवताओं के नाम लिखकर फिर दो पंक्तियों में आठ-आठ अंक इस प्रकार लिखकर अभिव्यक्त किया जाता है कि योगफल नौ बार नौ आये व्यक्त किया जाता है। पूर्णता प्राप्ति का उद्देश्य निर्गुण निराकार प्रभु चित्रगुप्त द्वारा अनहद नाद से साकार सृष्टि के निर्माण, पालन तथा नाश हेतु देव-देवी त्रयी तथा ज्ञान प्रदाय हेतु अन्य देवियों-देवताओं की उत्पत्ति, ज्ञान प्राप्त कर पूर्णता पाने की कामना तथा मुक्त होकर पुनः परमात्मा में विलीन होने का समुच गूढ़ जीवन दर्शन यम द्वितीया को परम्परगत रूप से किये जाते चित्रगुप्त पूजन में अन्तर्निहित है। इससे बड़ा सत्य कलम व्यक्त नहीं कर सकती तथा इस सत्य की अभिव्यक्ति कर कलम भी पूज्य हो जाती है इसलिए कलम को देव के समीप रखकर उसकी पूजा की जाती है। इस गूढ़ धार्मिक तथा वैज्ञानिक रहस्य को जानने तथा मानने के प्रमाण स्वरूप परिवार के सभी स्त्री-पुरुष, बच्चे-बच्चियाँ अपने हस्ताक्षर करते हैं, जो बच्चे लिख नहीं पाते उनके अंगूठे का निशान लगाया जाता है। उस दिन कोई सांसारिक कार्य (व्यवसायिक, मैथुन आदि) न कर आध्यात्मिक चिंतन में लीन रहने की परम्परा है। 
'ॐ' की ही अभिव्यक्ति अल्लाह और ईसा में भी होती है। सिख पंथ इसी 'ॐ' की रक्षा हेतु स्थापित किया गया। 'ॐ' की अग्नि आर्य समाज और पारसियों द्वारा पूजित है। सूर्य पूजन का विधान 'ॐ' की ऊर्जा से ही प्रचलित हुआ है। उदारता तथा समरसता की विरासत यम द्वितीया पर चित्रगुप्त पूजन की आध्यात्मिक-वैज्ञानिक पूजन विधि ने कायस्थों को एक अभिनव संस्कृति से संपन्न किया है। सभी देवताओं की उत्पत्ति चित्रगुप्त जी से होने का सत्य ज्ञात होने के कारण कायस्थ किसी धर्म, पंथ या सम्प्रदाय से द्वेष नहीं करते। वे सभी देवताओं, महापुरुषों के प्रति आदर भाव रखते हैं। वे धार्मिक कर्म कांड पर ज्ञान प्राप्ति को वरीयता देते हैं। इसलिए उन्हें औरों से अधिक बुद्धिमान कहा गया है. चित्रगुप्त जी के कर्म विधान के प्रति विश्वास के कारण कायस्थ अपने देश, समाज और कर्त्तव्य के प्रति समर्पित होते हैं। मानव सभ्यता में कायस्थों का योगदान अप्रतिम है। कायस्थ ब्रम्ह के निर्गुण-सगुण दोनों रूपों की उपासना करते हैं। कायस्थ परिवारों में शैव, वैष्णव, गाणपत्य, शाक्त, राम, कृष्ण, सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा आदि देवी-देवताओं के साथ समाज सुधारकों दयानंद सरस्वती, आचार्य श्री राम शर्मा, सत्य साइ बाबा, आचार्य महेश योगी आदि का पूजन-अनुकरण किया जाता है। कायस्थ मानवता, विश्व तथा देश कल्याण के हर कार्य में योगदान करते मिलते हैं. 
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बाल गीत : चिड़िया

बाल गीत :
चिड़िया 
संजीव 
*
चहक रही
चंपा पर चिड़िया
शुभ प्रभात कहती है
आनंदित हो
झूम रही है
हवा मंद बहती है
कहती: 'बच्चों!
पानी सींचो,
पौधे लगा-बचाओ
बन जाएँ जब वृक्ष
छाँह में
उनकी खेल रचाओ
तुम्हें सुनाऊँगी
मैं गाकर
लोरी, आल्हा, कजरी
कहना राधा से
बन कान्हा
'सखी रूठ मत सज री'
टीप रेस,
कन्ना गोटी,
पिट्टू या बूझ पहेली
हिल-मिल खेलें
तब किस्मत भी
आकर बने सहेली
नमन करो
भू को, माता को
जो यादें तहती है
चहक रही
चंपा पर चिड़िया
शुभ प्रभात कहती है
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२५-१०-२०१४