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रविवार, 26 जुलाई 2020

समीक्षा काल है संक्रांति का चंद्रकांता अग्निहोत्री

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काल है संक्रांति का
चंद्रकांता अग्निहोत्री
*
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, मुस्कुराते हुएशब्द, अर्थ, प्रतीक, बिंब, छंद, अलंकार जिनका अनुगमन करते हैं और जो सदा सत्य की सेवा में अनुरत हैं, ऐसे मनीषी के परिचय को शब्दों में बाँधना कठिन है। इनकी कविताओं को प्रयोगवादी कविता कहा जा सकता है। काल है संक्रांति का आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल’ जी की नवीन कृति है। २०१५ में प्रकाशित इस गीत, नवगीत संग्रह में कवि ने कई नए प्रयोग किये हैं। इसमें उन्हें सफलता भी मिली है। नवीन की चाह में इन्होंने शाश्वत मूल्यों को तिलांजलि नहीं दी क्योंकि इस संग्रह में आरंभ में ही 'वंदन' नामक कविता में सब प्रकार से अभिनंदन किया है:
‘शरणागत हम
चित्रगुप्त प्रभु!
हाथ पसारे आए।’
अब वे ’स्तवन’ के अंतर्गत शारदा माँ की स्तुति करते हैं:
‘सरस्वती शारद ब्रह्माणी!
जय-जय वीणापाणी!'
एक आध्यात्मिक यात्री की तरह वे अपने पूर्वजों का स्मरण भी करते हैं:
कलश नहीं आधार बन सकें
भू हो हिंदी धाम।
सुमिर लें पुरखों को हम
आओ करे प्रणाम।
समाज हमें प्रभावित करता है और समाज की विद्रूपताओं को देख कवि हृदय विचलित हो काव्य रचना करता है। चारों और फैले आतंक को महसूस करते कवि कहता है:
‘झोंक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
तुम मत झुको सूरज।’
कवि कहता है विकास के,प्रकाश के, नई उड़ान के सूरज तुम मत थकना। यहाँ सूरज प्रतीक है शुभ संकल्प का, उदित श्रेष्ठ संभावनाओं का और कहीं भी भ्रष्टाचार का अँधेरा न हो।
अपने भीतर के सूरज को संबोधित करते हर कवि कहता है:
'तुम रुको नहीं
थको नहीं।'
क्योंकि काल है संक्रांति का ।इस काल में चलते हुए कवि कहता है:.
खरपतवार न शेष रहे,
कचरा कहीं न लेश रहे।
सच में संक्रांति काल से गुजरना निश्चय ही पीड़ादायक है लेकिन कवि की निश्चयात्मक बुद्धि कहती है:
‘प्रणति है आशीष दो रवि
बाँह में कब घेरते हैं
प्रतीक्षा है उन पलों की।’
'काल है संक्राति का’ नामक काव्य संग्रह में यही स्वर उद्घोषित होता है: 'तुम रुको तुम थको नहीं। हम नये युग की ओर बढ़ रहे हैं। पुराना छूट रहा है,नये का आगमन है।
'सिर्फ सच में
धांधली अब तक चली
अब रोक दे।
सुधारों के लिए खुद को
झोंक दे।'
आक्रोश भी है उम्मीद भी। यह भाव लगभग सभी कविताओं में दृष्टिगोचर होता है:
'सुंदरिये मुंदरिये' की तर्ज़ पर अभिनव प्रयोग द्रष्टव्य है:
‘झूठी लड़े लड़ाई होय
भीतर करें मिताई होय।'
सदा शुभ की प्रेरणा देते हुए ‘करना सदा’ में कवि कहता है:
'हर शूल ले, हँस फूल दे
यदि भूल हो, मत तूल दे।
तुम बन्दूक चलाओ तो.
दीन-धर्म की तुम्हें न चाह
अमन-चैन को देते दाह
तुम जब आग लगाओगे
हम हँस, फिर फूल खिलाएँगे।'
स्थिति कोई भी हो, मनुष्य को उसका सामना करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। समाज में रहते हुए भी भीड़ के साथ होना पड़ता है। 'राम बचाए' में कवि प्रश्न करते हैं:
'दुश्मन पर कम, करे विपक्षी पर
ही क्यों ज्यादा प्रहार हम?
कजरी आल्हा फागें बिसरे
माल जा रहे माल लुटाने
क्यों न भीड़ से
हुए भिन्न हम
राम बचाए।'
'कब होंगे आजाद' में क्षोभ है, स्वतंत्र होने की अभीप्सा है:
रीति-नीति, आचार-विचारों, भाषा का हो ज्ञान।
समझ बढ़े तो सीखें, रुचिकर धर्म नीति विज्ञान।
सुर न असुर, हम आदम यदि बन पायेंगे इंसान-
स्वर्ग तभी तो हो पाएगा, धरती पर आबाद।
कब होंगे आजाद?
कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी की सभी रचनाएँ श्रेष्ठ हैं। ‘काल है संक्राति का’ का उद्घोष सभी
रचनाओं में परिलक्षित होता है। सभी रचनाओं की अपनी एक अलग पहचान है। जैसे: उठो पाखी, संक्रांति
काल है, उठो सूरज, छुएँ सूरज, सच की अर्थी, लेटा हूँ, मैं लडूंगा, उड़ चल हंसा, लोकतंत्र का पंछी आदि
विशेष उल्लेखनीय हैं।
अधिकांश बिंब व प्रतीक नए व मनोहारी हैं। कवि ने अपनी भावनाओं को बहुत सुंदरता से प्रस्तुत किया है।इनकी कविताओं की मुख्य विशेषता है घोर अन्धकार में भी आशावादी होना। प्रस्तुत संग्रह हमें साहित्य के क्षेत्र में आशावादी बनाता है। यह पुस्तक अमूल्य देन है साहित्य को। कथ्य व शिल्प की दृष्टि से सभी रचनाएं श्रेष्ठ हैं। पुस्तक पठनीय ही नहीं संग्रहणीय भी है।
आचार्य संजीव 'सलिल' जी को बहुत-बहुत बधाई।

पुरोवाक: 'चमचावली' रामकुमार चतुर्वेदी

पुरोवाक:
हास्य साहित्य परंपरा और 'चमचावली' हास्य-व्यंग्य की दीपावली
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्तिमार्क ट्वेन ने कहा है कि हँसना एक गुणकारी औषधि है मगर इस औषधि को देनेवाला डॉक्टर बहुत मुश्किल से मिलता है। आजकल हर मंच पर हास्य-व्यंग पढ़ने का फैशन होने के बाद भी हास्य-व्यंग्य की सरस काव्य रचनाओं का अभाव है। सामान्यत: चुटकुलेबाजी और फूहड़ टिप्पणियाँ ही हास्य-व्यंग्य के नाम पर सुनाई जाती हैं। यह विसंगति तब है जबकि हिंदी और हिंदी भाषी अंचल की लोक भाषाओँ-बोलिओं में शिष्ट हास्य कविता लेखन-पठन की उदात्त परंपरा रही है। हास्य-व्यंग्य का मूल स्रोत हमारी पुरातन संस्कृति, सभ्यता और जीवन दर्शन में देखा जा सकता है। भारतीय संस्कृति में मृत्यु, भय और दु:ख का विशेष महत्व नहीं है। ब्रह्म सत् चित् के साथ ही आनंद का स्वरूप है जिसके अंश सकल सृष्टि का कण-कण है। ब्रह्म आनंद के रूप में सभी प्राणियों में निवास करता है। उस आनंद की अनुभूति जीवन का परम लक्ष्य माना जाता है। इसी से ब्रह्मानंद शब्द की रचना हुयी है। वह रस, माधुर्य, लास्य का स्वरूप है। इसीलिये ब्रह्म जब माया के संपर्क से मूर्तरूप लेता है तो उसकी लीलाओं में आनंद को ही प्रमुखता दी गयी है। हमारे कृष्ण रास रचाते हैं, छल करते हैं, लीलायें दीखाते हैं। वे वृंदावन की कुंज गलियों में आनंद की रसधार बहा देते हैं। मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम भी होली में रंग, गुलाल उड़ाते हैं और सावन में झूला झूलते हैं। उनकी मर्यादा में भी भक्त आनंद का अनुभव करते हैं। यह आनंदानुभूति निराकार है, इसका चित्र नहीं बनाया जा सकता, इसका चित्र गुप्त है। 'गूँगे के गुण' की तरह आनंद भी प्रसन्नता को जन्म देता है, यह प्रसन्नता अधरों या नेत्रों से व्यक्त होती है। हास्य को आनंद की प्रतीति करानेवाला 'ब्रम्हानंद सहोदर' कहा जा सकता है।

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्तिसनातन भारतीय संस्कृति में मृत्यु और दु:ख को अधिक महत्त्व नहीं दिया गया। मृत्यु परिवर्तन की वाहक मात्र है। देह के साथ आत्मा नहीं मरती, वह एक चोला बदलकर दूसra पहन लेती है। कुछ पंथ शरीर का समय पूरा होने पर खुशी मनाते हैं। नाच-गाने, उमंग और उत्साह से पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार किया जाता है कि जीवात्मा अपने स्वामी ब्रह्म से मिलने जा रही है। मिलन की इस पावन बेला में दु:ख, दर्द और शोक क्यों? अंत समय का शोक मोह, अज्ञान और लोक-परंपरा का निर्वहन मात्र है। कुछ पन्थों में शव को दफनाते हैं ताकि वह कुछ जीवों का भोज्य बन जाए, कुछ अन्य पंथ शव को पक्षियों के भोग हेतु छोड़ देते हैं। सनातन धर्म रोगजनित मृत्यु के कारण शव में उपस्थित रोगाणु अन्यों के लिए घातक होने की सम्भावना के कारण शव-दाह करते हैं जबकि इसी से बनी भभूत से बोले बाबा का शृंगार किया जाता है जो 'सत-शिव-सुंदर' के पर्याय और परम आनंद के प्रतीक हैं। वे नृत्य, गायन, व्याकरण, भाषा आदि के केंद्र हैं जिनसे प्राणी के मन में आनंद का सागर हिलोरें लेने लगता है। हम अवतारों की जयंतियाँ उत्साह और श्रध्दा सहित मानते किन्तु निधन तिथियों को भूलकर भी याद नहीं करते। हम मूलत: आनंद को ईश्वर का पर्याय मानते हैं। इसलिए आनंददायी हास्य-व्यंग्य की परंपरा वेद-पूर्व से तत्कालीन भाषाओं के साहित्य में है। लौकिक और वैदिक संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश आदि के साहित्य में हास्य-व्यंग्य की छटा देखते ही बनती है। उदाहरण: - "मम पुत्रस्य अन्नवस्त्रादि-व्ययं समग्रं सर्वकारः एव निर्वहति।" इति उक्तवती रुक्मिणी-देवी। = "कथं सम्भवति तत्?" कीदृशः उद्योगः तस्य ??" इति पृष्टवती मालादेवी। -"एकपैसात्मक-व्ययः अपि नास्ति तस्य। यतः आजीवनकारागारवासेन दण्डितः अस्ति सः।" (लौकिक संस्कृत) पुत्र के अन्न-वस्त्रादि की व्यवस्था हतु उसे आजीवन कारावास के उपाय में छिपे व्यंग्य को सहज ही अनुभव किया जा सकता है।
अपभ्रंश साहित्य में संवत १२४१ विक्रम में सोमप्रभ सूरि रचित 'कुमार पाल प्रतिबोध' से एक दोहा देखिए: 'बेस बिसिट्ठइ बारियइ, जइबि मनोहर गत्त। / गंगाजल पक्वालियवि, सुणिहि कि होइ पवित्त।। अर्थात ''वेश-धारियों से बचें, चाहे मनहर गात। / गंग-स्नान से हो नहीं,पावन कुतिया जात।।'सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है' अथवा 'मुल्ला जी दुबले क्यों? - शहर के अंदेशे से' जैसी लोकोक्तियों का सार अपभ्रंश के दोहाकार सोमप्रभ सूरी के निम्न दोहे में हो सकता है जहाँ दोहाकार की चिंता यह है कि दशानन के दस मुँह थे तो उसकी माता उन सबको दूध कैसे पिलाती होगी? 'रावण जायउ जहि दिअहि, दहमुहु एकु सरीरु। / चिंताविय तइयहि जणणि, कवहुं पियावहुं खीरु।। अर्थात् एक बदन दस वदनमय, रावन जन्मा तात। / दूध पिलाऊँ किस तरह, सोचे चिंतित मात।।

संत कबीर हास्य-व्यंग्य परंपरा के श्रेष्ठ वाहक रहे। वे ब्रम्ह के साथ जो रिश्ता जोड़ते हैं उसकी कल्पना भी आसान नहीं है: 'हम बहनोई, राम मोर सारा। हमहिं बाप, हरिपुत्र हमारा।।' लोक भी हास्य-व्यंग्य का आनंद लेने में पीछे नहीं रहता- 'फागुन में बाबा देवर लागे' गाकर ससुअर को छेदती नव्वादु को देखकर कौन सोच सकेगा कि वह शेष समय लज्जा का निर्वहन सहजता और आनंद के साथ करती है। उत्सवधर्मी भारतीय मनीषा आराध्य के साथ भी हंसी-ठिठोली करने से बाज नहीं आती। भगवान जगन्नाथ के दर्शनकर एक भक्त कवि के मन में प्रश्न है कि भगवान काठ क्यों हो गये? 'कठुआ जाना' लोक बोली का एक मुहावरा है। भक्त अपनी कल्पना की उड़ान से संस्कृत में जो छंद रचता है उसका हिन्दी रूपान्तर कुछ इस तरह किया जा सकता है -'भगवान की एक पत्नी आदतन वाचाल हैं (सरस्वती) दूसरी पत्नी (लक्ष्मी) स्वभाव से चंचल हैं। वह एक जगह टिक कर रहना नहीं चाहतीं। उनका एक बेटा मन को मथनेवाला कामदेव है जो अपने पिता पर भी शासन करता है । उनका वाहन गरूड़ है। विश्राम करने के लिये उन्हें समुद्र में जगह मिली है। सोने के लिये शेषनाग की शैय्या है। भगवान विष्णु को अपने घर का यह हाल देख कर काठ मार गया है। एक अन्य भक्त कवि आशुतोष शंकर का दर्शन कर सोचता है कि इस भोले भण्डारी, जटाधारी, बाघम्बर वस्त्र पहनने वाले के पास खेती-बारी नहीं है। रोजी का कोई साधन नहीं है तो इनका गुजारा कैसे होते है। भक्त संस्कृत में छंद कहता है: 'उनके पास पाँच मुँह हैं। उनके एक बेटे (कार्तिकेय) के छह मुँह हैं। दूसरे बेटे गजानन का मुँह और पेट थी का है। यह दिगबंर कैसे गुजारा करता अगर अन्नपूर्णा पत्नी के रूप में उसके घर नहीं आतीं। तीसरा भक्त कवि कहता है कि भगवान शंकर बर्फीले कैलाश पर्वत पर रहते हैं। भगवान विष्णु का निवास समुद्र में है। इसकी वजह क्या है? निश्चित ही दोनों भगवान मच्छरों से डरते हैं इसलिये उन्होंने ने अपना ऐसा निवास स्थान चुना है। मृच्छकटिक नाटक के रचयिता राजा शूद्रक हैं ब्राह्मणों की खास पहचान 'यज्ञोपवीत 'की उपयोगिता के बारे में ऐसा व्यंग्य करते हैं जिसे सुनकर हँसी नहीं रुकती। वे कहते हैं: य'ज्ञोपवीत कसम खाने के काम आता है। अगर चोरी करना हो तो उसके सहारे दीवार लांघी जा सकती है।'
हास्य का जलवा यह कि संस्कृत वांग्मय में हास्य को सभी आचार्यों ने रस स्वीकार किया है। भरत मुनि कृत नाट्यशास्त्र के अनुसार- 'विपरीतालंकारैर्विकृताचाराभिधानवेसैश्च/विकृतैरर्थविशेषैहंसतीति रस:स्मृतो हास्य:।।'भावप्रकाश में लिखा है- 'प्रीतिर्विशेष: चित्तस्य विकासो हास उच्यते।'साहित्यदर्पणकार का कथन है- 'वर्णदि वैकृताच्चेतो विकारो हास्य इष्यते विकृताकार वाग्वेश चेष्टादे: कुहकाद् भवेत्।।दशरूपककार की उक्ति है- 'विकृताकृतिवाग्वेरात्मनस्यपरस्य वा / हास: स्यात् परिपोषोऽस्य हास्य स्त्रिप्रकृति: स्मृत:।। सार यह है कि हास एक प्रीतिपरक भाव है और चित्तविकास का एक रूप है। उसका उद्रेक विकृत आकार, विकृत वेष, विकृत आचार, विकृत अभिधान, विकृत अलंकार, विकृत अर्थविशेष, विकृत वाणी, विकृत चेष्टा आदि द्वारा होता है। इन विकृतियों से युक्त हास्यपात्रता कवि, अभिनेता, वक्ता द्वारा कथनी या करनी से किया जाना हास्य है। विकृति का तात्पर्य है प्रत्याशित से विपरीत अथवा विलक्षण कोई ऐसा वैचित्र्य, कोई ऐसा बेतुकापन, जो हमें प्रीतिकर जान पड़े, क्लेशकर न जान पड़े। इन लक्षणों में पाश्चात्य समीक्षकों के प्राय: सभी लक्षण समाविष्ट हो जाते हैं, जहाँ तक उनका संबंध हास्य विषयों से है। ऐसा हास जब विकसित होकर हमें कवि-कौशल द्वारा साधारणीकृत रूप में, अथवा आचार्य पं. रामचंद्र शुक्ल की शब्दावली के अनुसार, मुक्त दशा में प्राप्त होता है, वह हास्यरस कहलाता है। हास के भाव का उद्रेक देश-काल-पात्र-सापेक्ष रहता है। घर पर कोई खुली देह बैठा हो तो दर्शक को हँसी न आएगी परंतु उत्सव में भी वह इसी तरह पहुँच जाए तो उसका आचरण प्रत्याशित से विपरीत या विकृत माना जाने के कारण हँसी जगा देगा। इसी तरह युवा व्यक्ति श्रृंगार करे तो फबने की बात है किंतु जर्जर वृद्ध का श्रृंगारर हास का कारण होगा; कुर्सी से गिरनेवाले पहलवान पर हम हँसेंगे परंतु छत से गिरनेवाले बच्चे के प्रति हमारी सहानुभूति उमड़ेगी। हास का आधार प्रीति है न कि द्वेष। किसी की प्रकृति, प्रवृत्ति, स्वभाव, आचार आदि की विकृति पर कटाक्ष भी करना हो तो वह कटुक्ति के रूप में नहीं, प्रियोक्ति के रूप में हो। उसकी तह में जलन अथवा नीचा दिखाने की भावना न होकर विशुद्ध संशुद्धि की भावना होगी। संशुद्धि की भावनावाली यह प्रियोक्ति भी उपदेश की शब्दावली में नहीं किंतु रंजनता की शब्दावली में होगी।

वर्तमान काल में हरिमोहन झा ने अपनी हास्य व्यंग्य कृति 'खट्टर काका' में देवी-देवताओं और अवतारों के साथ खूब जमकर ठिठोली की है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, अकबर इलाहाबादी , बाबू बालमुकुंद गुप्त आदि ने अन्योक्तिपूर्ण व्यंग्य लेखन का नया मानक बनाया। उर्दू शायरों ने तो ब्रिटिश शासनकाल में अंग्रेजियत पर ऐसे तीखे प्रहार किये कि अंग्रेज उसे समझ भी नहीं पाते थे और हिन्दुस्तानी उसका जायका लेते थे। अकबर साहब फरमाते हैं - 'बाल में देखा मिसों के साथ उनको कूदते। /डार्विन साहब की थ्योरी का खुलासा हो गया।' जनाब अकबर इलाहाबादी ब्रिटिश अदालत में मुंसिफ थे लेकिन वे अपने व्यंग के तीरों से ऐसा गहरा घाव करते थे कि पढ़नेवाला एक बार उसे पढ़कर हजारों बार उस पर सोचने को मजबूर हो जाता था। लार्ड मैकाले की शिक्षा पध्दति का पोस्टमार्टम जिस बेबाकी से अकबर साहब ने किया उसकी गहराई तक आज के व्यंगकार सोच भी नहीं सकते हैं -'तोप खिसकी प्रोफेसर पहुंचे। बसूला हटा तो रंदा है।' प्लासी की लड़ाई में सिराज्जुदौला को शिकस्त देकर तमाम देसी रियासतों को जंग में मात देकर अंग्रेजों ने तोप पीछे हटा ली और अंग्रेजी पढ़ानेवाले प्रोफेसरों को आगे कर दिया। तोप के बसूले ने समाज को छील दिया और प्रोफेसर के रंदे ने उसे अंग्रेजों के मनमाफिक कर दिया। तोप और प्रोफसर का यह तालमेल ब्रिटिश शिक्षापध्दति पर बेजोड़ और बेरहम हमला है।
पं0 मदनमोहन मालवीय और सर सैयद अहमद खाँ जिन दिनों हिन्दू यूनिवर्सिटी और मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना के लिये प्रयास कर रहे थे उन्हीं दिनों मालवीय जी के मित्र अकबर इलाहाबादी ने अंग्रेजपरस्त सैयद अहमद खाँ को लक्ष्य कर एक शेर कहा- 'शैख ने गो लाख दाढ़ी बढ़ाई सन की सी। मगर वह बात कहाँ मालवी मदन की सी। ' यहाँ 'सन' की शब्द पर गौर कीजिये। दोनों शब्दों को मिला देने पर जो अर्थ निकलता है वह शायर के हुनर की मिसाल है। हास्य के प्रमुख कारक: (अ) अप्रत्याशित शब्दाडंबर: शब्द की अप्रत्याशित व्युत्पत्ति के सहारे 'को घट ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर' -बिहारी, 'न साहेब ते सूधे बतलाएँ, गिरी थारी अइसी झन्नायें, कबौं छउकन जइसी खउख्यायें, पटाका अइसी दगि-दगि जाएँ'-रमई काका, 'मन गाड़ी गाड़ी रहै. प्रीति क्लियर बिनु लैन, जब लगि तिरछे होत नहिं, सिंगल दोऊ नैन' -सुकवि, (आ) विलक्षण तर्कोक्ति: 'पाँव में चक्की बाँध के हिरना कुदा होय', (इ) वाग्वैदग्ध्य (विट्): अर्थ के फेर-बदल के सहारे "भिक्षुक गो कितको गिरिजे? सुत माँगन को बलि द्वारे गयो री / सागर शैल सुतान के बीच यों आपस में परिहास भयो री, (ई) प्रत्युतर में नहले की जगह दहला लगाने की कला: 'गावत बाँदर बैठ्यो निकुंज में ताल समेत, तैं आँखिन पेखे / गाँव में जाए कै मैं हू बछानि को बैलहिं बेद पढ़ावत देखे- काव्य कानन; (उ) व्यंग्य (सैटायर): रामचरितमानस के शिव-बरात प्रसंग में विष्णु की उक्ति 'कि बर अनुहारि बरात न भाई, हँसी करइइहु पर पुर जाई', कृष्णायन में उद्धव की उक्ति 'की भवन जरैहैं मधुपुरी, श्याम बजैहैं बेनु?' भवानीप्रसाद मिश्र जी का गीतफरोश आदि, (ऊ)कटाक्ष (आइरानी):'करि फुलेल को आचमन, मीठो कहत सराहिं / रे गंधी मति-अंध तू, अतर दिखावत काहि' - बिहारी; 'मुफ्त का चंदन घस मेरे नंदन' - लोकोक्ति; 'मुनसी कसाई की कलम तलवार है' - भड़ोवा संग्रह, (ए) रचना विरूपीकरण (पैरोडी): 'नेता ऐसा चाहिए जैसा रूप सुभाय / चंदा सारा गहि रहै देय रसीद उड़ाय' - चोंच, 'बीती विभावरी जाग री / छप्पर पर बैठे काँव-काँव करते हैं कितने काग री'-बेढब), (ऐ) वक्त्तृत्व विरूपीकरण: अभिनेताओं, नेताओं या कवियों की कहन-शैली की नकल आदि हैं। प्रभाव की दृष्टि से हास्य को (क) परिहास: संतुष्टि प्रधान, व्यंग्य रहित, गुदगुदाता हुआ, तथा (ख) उपहास: संशुद्धि प्रधान, व्यंग्य सहित तिलमिलाता हुआ में वर्गीकृत किया जा सकता है।

भारत के ह्रद्प्रदेश नर्मदांचल के सिवनी जिले निवासी युवा शिक्षक और उत्साही रचनाकार रामकुमार चतुर्वेदी हास्य कविता-लेखन और पठन को गंभीरता से लेकर निरंतर आगे बढ़ रहे हैं। राम कुमार चतुर्वेदी जीवट और संघर्ष की मशाल और मिसाल दोनों हैं। ३४ वर्ष की युवावस्था में सड़क दुर्घटना में रीढ़ की हड्डी, कमर की हड्डी, पसली, कोलर बोन, हाथ-पैर आदि को गंभीर क्षति, दो वर्ष तक पीड़ादायक शल्य क्रिया और सतत के बाद भी वे न केवल उठ खड़े हुए अपितु पूर्वापेक्षा अधिक आत्मविश्वास से शैक्षणिक-साहित्यिक उपलब्धियाँ प्राप्त कीं। महाकवि शैली के अनुसार ‘अवर स्वीटैस्ट सोंग्स आर दोज विच टैल ऑफ़ सैडेस्ट थोट’, कवि शैलेंद्र के शब्दों में ‘हैं सबसे मधुर वे गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं’ को राम कुमार ने चरितार्थ कर दिखाया है और दुनिया को हँसाने के लिए कलम थाम ली है। चमचावली के दोहे लक्षणा और व्यंजन के माध्यम से देश और समाज में व्याप्त विसंगतियों पर चोट करते हैं-
पढ़कर ये चमचावली, जाने चम्मच ज्ञान।
सफल काज चम्मच करे, कहते संत सुजान।

साधु-संतों की कथनी-करनी और भोग-विलास चमचों की दम पर फलते-फूलते हैं किंतु एक लोकोक्ति के अनुसार ‘बुरे काम का बुरा नतीजा’ मिल ही जाता है-
बाबा बेबी छेड़कर, पहुँच गये हैं जेल।
कैसे तीरंदाज को, मिल जाती है बेल।।

चम्मच अपने मालिक को सौ गुनाहों के बाद भी मुक्त कराकर ही दम लेता है। चमचे की स्वामिभक्ति के सामने श्वान भी हार मान लेता है। एक अभिनेता द्वारा कृष्ण-मृग का शिकार करने के बाद भी उसे दंडित न किये जाने की प्रतिक्रियास्वरूप कवि एक दोहा कहता है-
अपने मालिक के लिए, चम्मच करे उपाय।
हिरन मारकर भी उन्हें, मिल जाता है न्याय।।

संन्यास लिए संत ईश-भक्ति के अलावा शेष संसार को माया और निस्सार समझते हैं। तुलसीदास जी को अकबर द्वारा मनसबदारी दिए जाने पर उन्होंने 'पटा लिखो रघुबीर को, जे साहन के साह / तुलसी अब का होइंगे, नर के मनसबदार' कहते हुए प्रस्ताव अमान्य कर दिया था। किन्तु आगामी चुनाव को देखते हुए शासन द्वारा राज्य मंत्री का पद-प्रस्ताव होते ही तथाकथित संतों ने लपक लिया। इस प्रसंग पर रामकुमार कहते हैं: राजनीति चमचों की चारागाह है-
मंत्री का दर्जा मिला, चहके साधु-संत।
डूबे भोग विलास में, चम्मच बने महंत।।

चमचे सब का हिसाब-किताब माँगते हैं किंतु अपनी बारी आते ही गोलमाल करने से नहीं चूकते-
अपनी पूँजी का कभी, देते नहीं हिसाब।
दूजे के हर टके का, माँगें चीख जवाब।।

राम कुमार की भाषा सरल, सहज, प्रसंगानुकूल चुटीली और विनोदपूर्ण है। हास्य-व्यंग्य की चासनी में घोलकर कुनैन खिला देना उनके लिए सहज-साध्य है। वे सामयिक प्रसंगों को लेकर सरस व्यंग्य प्रहार करते हैं साथ ही हास्य की फुहार से भिगाते चलते हैं। प्रसाद गुण संपन्न भाषा, यथावसर सम्यक शब्द-प्रयोग, मुहावरेदार भाषा तथा सहजग्राह्यता उनका वैशिष्ट्य है। 'चमचावली' सामाजिक परिप्रेक्ष्य में दिनानुदिन घटित हो रही घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में कवि के स्वस्थ्य छंटन तथा देश-समाज हित की लोकोपकारी भावना से उत्पन्न हास्य-व्यब्ग्य काव्य है। इस सार्थक, सर्वोपयोगी, पथ-प्रदर्शक कृति का न केवल साहित्यिक जगत अपितु जन सामान्य में भी स्वागत होगा यम मुझे विश्वास है। रामकुमार ने एक मनुष्य, भारत के एक नगरीं और हिंदी के हास्य कवि के रूप में इस कृति की रचना कर अपनी शवासन को सार्थक किया है। उनका उर्वर चिंतन भविष्य में भी ऐसी कृतियों का परायण कराए यही कामना है।
***
२६-७-२०१८ 
सम्पर्क- विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ७९९९५५९६१८, salil.sanjiv@gmail.com

नवगीत: संजीव

नवगीत:
संजीव
*
गैर कहोगे जिनको
वे ही
मित्र-सगे होंगे
*
ना माँगेंगे पानी-राशन
ना चाहेंगे प्यार
नहीं लगायेंगे वे तुमको
अनचाहे फटकार
शिकवे-गिले-शिकायत
तुमसे?, होगी कभी नहीं
न ही जतायेंगे वे तुम पर
कभी तनिक अधिकार
काम पड़े पर नहीं
आचरण
प्रेम-पगे होंगे
गैर कहोगे जिनको
वे ही
मित्र-सगे होंगे
*
अगर न चाहो तो वे किंचित
निकट नहीं आते
काम पड़े तो अ
अपनापन दे
तनिक न भरमाते
लेन-देन साँसों के
आने-जाने सा व्यापार
कहो कभी क्या किंचित भी वे
तुमको तरसाते?
नाम न उनके, मन-
खूँटी पर
कभी टँगे होंगे
गैर कहोगे जिनको
वे ही
मित्र-सगे होंगे
*
सगा कह रहे जिनको वे ही
रहे निभाते बैर
सम्राटों की शहजादों से
कहो रही कब खैर?
जन्मा, गोद खिलाया-पाला
जिसको देता फूँक
बाप गधे को कहता, कहिए
जीते जी क्या गैर?
वे न जगेंगे,
जिनकी खातिर
आप जगे होंगे
गैर कहोगे जिनको
वे ही
मित्र-सगे होंगे
*

२४-७-२०१५ 

संस्मरण ममतामयी महादेवी

संस्मरण :
ममतामयी महादेवी
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
नेह नर्मदा धार:
महीयसी महादेवी वर्मा केवल हिन्दी साहित्य नहीं अपितु विश्व वांग्मय की ऐसी धरोहर हैं जिन्हें पढ़ने और समझने के लिये पाठक को उनके धरातल तक उठना होगा। उनका विराट व्यक्तित्व और उदात्त कृतित्व उन्हें एक दिव्य आभा से मंडित करता तो उनकी निरभिमानता, सहजता और ममतामय दृष्टि नैकट्य की अनुभूति कराती। सफलता, यश और मान्यता के शिखर
पर भी उनमें जैसी सरलता, सहजता, विनम्रता और सत्य के प्रति दृढ़ता थी वह अब दुर्लभ है।

पूज्य बुआश्री ने जिन अपने साहित्य में जिन मूल्यों का सृजन किया उन्हें अपने जीवन में मूर्तिमंत भी किया। 'नारी तुम केवल श्रृद्धा हो' को मूर्तिमंत करनेवाली कलम की स्वामिनी का लंबा सामाजिक-साहित्यिक कार्यकाल अविवादित और निष्कलुष रहा। उन्होंने सबको स्नेह-सम्मान दिया और शतगुण श्रृद्धा पायी। उनके निकट हर अंतर्विरोध इस तरह विलीन हो जाता था जैसे पावस में पावक।
हर बड़ा-छोटा, साहित्यकार-कलाकार, समाजसेवी-राजनेता, विशिष्ट-सामान्य, भाषा -भूषा, पंथ-संप्रदाय, क्षेत्र-प्रान्त, मत-विमत का अंतर भूलकर उनके निकट आते ही उनके पारिवारिक सदस्य की तरह नेह-नर्मदा में अवगाहन कर धन्यता की प्रतीति कर पाता था। महीयसी ने महाकवि प्रसाद, दद्दा (मैथिलीशरण गुप्त), दादा (माखन लाल चतुर्वेदी), महापंडित राहुल जी, महाप्राण निराला, युगकवि पन्त, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, दिनकर, इलाचंद्र जोशी, अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, यशपाल, फणीश्वर नाथ 'रेणू', नवीन, सुमन, भारती, उग्र आदि तीन पीढ़ियों के सरस्वती सुतों को अपने ममत्व और वात्सल्य से सराबोर किया। समस्त साहित्यिक-सामाजिक-राजनैतिक अंतर्विरोध उनकी उपस्थिति में स्वतः विलीन या क्षीण हो जाते थे। उन्हें बापू और जवाहर से आशीष मिला तो अटल जी और इंदिरा जी से आत्मीयता और सम्मान।
ममता की शुचि मूर्ति वे, नेह नर्मदा धार।
माँ वसुधा का रत्न थीं, श्वासों का श्रृंगार॥
अपनेपन की चाह :

महादेवी जी में चिरंतन आदर्शों को जीवंत करने की ललक के साथ नव परम्पराओं से सृजित करने की पुलक भी थी। वे समग्रता की उपासक थीं। गौरवमयी विरासत के साथ सामयिक समस्याओं के सम्यक समाधान में उनकी तत्परता स्तुत्य थी। वे अपने सृजन संसार में लीन रहते हुए भी राष्ट्रीय, सामाजिक, पारिवारिक नातों तथा अपने उत्स के प्रति सतत सचेष्ट रहती थीं। उनका परिवार रक्त संबंधों नहीं, स्नेह संबंधों से बना था। अजनबी से अपना बना लेने में उनका सानी नहीं था। वे प्रशंसा का अमृत, आलोचना का गरल, सुख की धूप, दुःख की छाँव समभाव से ग्रहण कर निर्लिप्त रहती थीं।
सनातन सलिला नर्मदा तट पर स्थित संस्कारधानी जबलपुर उन्हें अतिप्रिय रहा। जब भी अवसर मिलता वे जबलपुर आतीं और यहाँ के रचनाकारों पर आशीष बरसातीं। इस निकटता का प्रत्यक्ष तात्कालिक कारण स्व. रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी', नर्मदा प्रसाद खरे तथा उनकी प्राणप्रिय सखी सुभद्रा कुमारी चौहान थीं जो अपने पति ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान के साथ स्वतंत्रता सत्याग्रहों की अलख जलाये थीं। दादा भी कर्मवीर के सिलसिले में बहुधा जबलपुर रहते।
मूल की तलाश:
जबलपुर से लगाव का परोक्ष कारण महादेवी जी की ननिहाल थी जो किसी चित्रपटीय कथा से अधिक रोमांचक घटनाओं के प्रवाह में उनसे छूट चुकी थी। दो पीढ़ियों के मध्य का अंतराल नयी पीढ़ियों का अपरिचय बन गया। वे किसी से कुछ न कहतीं पर मन से चाहतीं की बिछुड़े परिजनों से कभी मिल सकें। अंततः, उनके अंतिम जबलपुर प्रवास में उनके धैर्य का बाँध टूट गया। उन्होंने नगर निगम भवन के समक्ष सुभद्रा जी की मूर्ति के समीप हुए कवि सम्मेलन को अध्यक्षीय आसंदी से संबोधित करते हुए जबलपुर में अपने ननिहाल होने की जानकारी दी तथा अपेक्षा की कि उस परिवार में से कोई सदस्य हों तो उनसे मिले।
साप्ताहिक हिंदुस्तान के होली विशेषांक में उनका एक साक्षात्कार छपा। प्रसिद्ध पत्रकार पी. डी. टंडन से चर्चा करते हुए उन्होंने पुनः परिवार की बिखरी शाखा से मिलने-जुड़ने की कामना व्यक्त की। कहते हैं 'जहाँ चाह, वहाँ राह' उनकी यह चाह किसी निज हित के कारण नहीं स्नेह संबंध की उस टूटी कड़ी से जोड़ने की थी जिसे उनकी माताश्री प्रयास करने पर भी नहीं जोड़ सकीं थीं। शायद वे अपनी माँ की अधूरी इच्छा को पूरा करना चाह रही थीं। नियति को उनकी चाह के आगे झुकना पड़ा।
रहीम ने कहा है-
'रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय।'

महादेवी जी की जिजीविषा ने टूटे धागे को जोड़ ही दिया। अपने सामान्य कार्यक्रम के निर्धारित भ्रमण से लौटने पर मैंने उनके ये दोनों वक्तव्य मैंने पढ़े, तब तक वे वापिस जा चिकी थीं । मैं आजीविका से अभियंता तथा शासकीय सेवा में होने पर भी उन दिनों रात्रिकालीन कक्षाओं में पत्रकारिता में डिप्लोमा कर रहा था। महादेवी जी द्वारा बताया विवरण परिवार से मेल खाता था। उत्सुकतावश मैंने परिवार के बुजुर्गों से चर्चा की। उन दिनों का अनुशासन... कहीं डांट पड़ी, कहीं से अधूरी जानकारी... अधिकांश अनभिज्ञ थे।
कुछ निराशा के बाद मैंने अपने परिवार का वंश-वृक्ष (शजरा) बनाया, इसमें महादेवी जी या उनके माता-पिता का नाम कहीं नहीं था। ऐसा लगा कि यह परिवार वह नहीं है जिसे महीयसी खोज रही हैं। अन्दर का पत्रकार कुलबुलाता रहा... खोजबीन जारी रही... एक दिन जितनी जानकारी मिली थी वह महीयसी से भेजते हुए निवेदन किया कि कुछ बड़े आपसे रिश्ता होने से स्वीकारते हैं पर नहीं जानते कि क्या नाता है? मुझे नहीं मालूम किस संबोधन से आपको पुकारूँ? आपके आव्हान पर जो जुटा सका भेज रहा हूँ।
आप ही कुछ बता सकें तो बताइये। मैं आपकी रचनायें पढ़कर बड़ा हुआ हूँ। इस बहाने ही सही आपका आशीर्वाद पाने के सौभाग्य से धन्य हो सकूँगा।उन जैसी प्रख्यात और अति व्यस्त व्यक्तित्व किसी अजनबी के पत्र पर कोई प्रतिक्रिया दे इसकी मैंने आशा ही नहीं की थी किंतु लगभग एक सप्ताह बाद एक लिफाफे में प्रातः स्मरणीया महादेवी जी का ४ पृष्ठों का पत्र मिला। पत्र में मुझ पर आशीष बरसाते हुए उन्होंने लिखा था कि किसी समय कुछ विघ्न संतोषी संबंधियों द्वारा पनपाये गए संपत्ति विवाद में एक खानदान की दो शाखाओं में ऐसी टूटन हुई कि वर्तमान पीढ़ियाँ अपरिचित हो गयीं। पत्र के अंत में उन्होंने आशीष दिया कि धन का मोह मुझे कभी न व्यापे. मैं धन्य हुआ.
उनके पत्र से विदित हुआ कि उनके नाना स्व. खैरातीलाल जी मेरे परबाबा स्व. सुंदर लाल तहसीलदार के सगे छोटे भाई थे। पिताजी जिन चिन्जा बुआ की चर्चा करते थे उनका वास्तविक नाम हेमरानी देवी था और वे महादेवी जी की माता श्री थीं। हमारे कुल में काव्य साधन के प्रति लगाव हर पीढ़ी में रहा पर प्रतिभाएँ अवसर के अभाव में घर-आँगन तक सिमट कर रह गयीं। सुंदरलाल व खैरातीलाल दोनों भाई शिव भक्त थे। शिव भक्ति के स्तोत्र रचते-गाते। उनसे यह विरासत हेमरानी को मिली। बचपन में हेमरानी को भजन रचते-गाते देख-सुनकर महादेवी जी ने पहली कविता लिखी-
माँ के ठाकुर जी भोले हैं।
ठंडे पानी से नहलातीं।
गीला चंदन उन्हें लगतीं।
उनका भोग हमें दे जातीं।
फिर भी कभी नहीं बोले हैं।
माँ के ठाकुर जी भोले हैं...

माँ से शिव-पार्वती, नर्मदा, सीता-राम, राधा- कृष्ण के भजन-आरती, तथा पर्वों पर बुन्देली गीत सुनकर बचपन से ही महादेवी जी को काव्य तथा हिन्दी के प्रति लगाव के संस्कार मिले। माँ की अपने मायके से बिछड़ने की पीड़ा अवचेतन में पोसे हुए महादेवी जी अंततः टूटी कड़ी से जुड़ सकीं। पूर्व जन्मों के पुण्य कर्मों का सुफल मुझे इस रूप में मिला कि मैं उनके असीम स्नेह का भाजन बना।
जो महान उसमें पले, अपनेपन की चाह।
क्षुद्र मनस जलता रहे, मन में रखकर डाह।

बिंदु सिंधु से जा मिला:
कबीर ने लिखा है:
जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ।
जो बौरा बूड़न डरा, रहा किनारे बैठ।

पूज्या बुआश्री से मिलने की उत्कंठा मुझे इलाहाबाद ले गयी। आवास पर पहुँचा तो ज्ञात हुआ कि वे किसी कार्यक्रम की अध्यक्षता हेतु बाबा विश्वनाथ की नगरी वाराणसी गयी हैं ।इलाहबाद में अन्य किसी से घनिष्ठता थी नहीं सो निराश लौटने को हुआ कि एक कार को द्वार पर रुकते देख ठिठक गया। पलटकर देखा एक तरुणी वृद्धा को सहारा देकर कार से उतारने का जतन कर रही है।
मैं तत्क्षण कार के निकट पहुँचा तब तक वृद्धा जमीन पर पैर रखते हुए हाथ सहारे के लिए बढ़ा रहीं थीं। पहले कभी न देखने पर भी मन ने कहा हो न हो यही बुआ श्री हैं। मैंने चरण स्पर्शकर उन्हें सहारा दिया। एक अजनबी युवा को निकट देख तरुणी संकुचाई, 'खुश रहो' कहते हुए बुआजी ने हाथ थामकर दृष्टि उठाई और पहचानने का यत्न करने लगीं कि कौन है?
तब तक घर के भीतर से एक महिला और पुरुष आ गये थे। लम्बी यात्रासे लौटी श्रांत-क्लांत महीयसी को थामे अजनबी को देख कर उनके मन की उलझन स्वाभाविक थी। मैं परिचय दूँ इसके पहले ही वे बोलीं 'चलो, अंदर चलो', मैंने कहा-'बुआजी! मैं संजीव'। नाम सुनते ही उनके चेहरे पर जिस चमक, हर्ष और उल्लास की झलक देखी वह अविस्मरणीय है। उन्होंने भुजाओं में भरते हुए मस्तक चूमा। पूछा- 'कब आया?'
सब विस्मित कि यह कौन अजनबी इतने निकट आने की धृष्टता कर बैठा और उसे हटाया भी नहीं जा रहा। बुआ जी मुस्कुराते हुए जैसे सबकी उलझन का आनंद ले रहीं हो, कुछ पल मौन रहकर बोलीं- 'ये संजीव है, मेरा भतीजा... जबलपुर से आया है।मैंने सबका अभिवादन किया।
उन्होंने सबका परिचय कराते हुए कहा 'ये मेरे बेटे की तरह रामजी, ये बहु, ये भतीजी आरती...चल घर ले चल' मैं उन्हें थामे हुए घर में अंदर ले आया। कमरे में एक तख्त पर उजली सफ़ेद चादर बिछी थी, सिरहाने की ओर भगवान श्री कृष्ण की सुन्दर श्वेत बाल रूप की मूर्ति थी। बुआ जी बैठ गयीं। मुझे अपनी बगल में बैठा लिया, ऐसा लगा किसी तपस्विनी की शीतल वात्सल्यमयी छाया में हूँ।
तभी स्नेह सिक्त वाणी सुनी- 'बेटा! थक गया होगा, कुछ खा-पीकर आराम कर ले फिर तुझसे बहुत सी बातें करना है। सामान कहाँ है?' तब तक आरती पानी ले आयी थी। मैंने पानी पिया, बताया चाय नहीं पीता, सुनकर कुछ विस्मित और प्रसन्न हुईं, मेरे मना करने पर भी दूध पिलवाकर ही मानीं। मुझे चेत हुआ कि वे स्वयं सुदूर यात्रा कर थकी लौटी हैं। उन्होंने आरती को स्नान आदि की व्यवस्था करने को कहा तो मैंने बताया कि मैं निवृत्त हो चुका हूँ। मैं धीरे से तखत के समीप बैठकर उनके पैर दबाने लगा... उन्होंने मना किया पर मैंने मना लिया कि वे थकी हैं कुछ आराम मिलेगा।
बुआ जी अपनी उत्कंठा को अधिक देर तक दबा नहीं सकीं। पूछा: कौन-कौन हैं घर-परिवार में? मैंने धीरे-धीरे सब जानकारी दी। मेरे मँझले ताऊ जी स्व. ज्वालाप्रसाद वर्मा ने स्व. द्वारकाप्रसाद मिश्र, सेठ गोविन्द दास और व्यौहार राजेंद्र सिंह के साथ स्वतंत्रता सत्याग्रह में सक्रिय भूमिका निभायी, नानाजी रायबहादुर माताप्रसाद सिन्हा 'रईस', मैनपुरी ने ऑनरेरी मजिस्ट्रेट का पद व खिताब ठुकराकर बापू के आव्हान पर विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर नेहरु जी के साथ त्रिपुरी कांग्रेस में भाग लिया और तभी इन दोनों की भेंट से मेरे पिताजी और माताजी का विवाह हुआ- यह सुनकर वे हँसी और बोलीं 'यह तो कहानी की तरह रोचक है।' उनका वह निर्मल हास्य अभी तक कानों में गूंजता है।
मेरे एक फूफा जी १९३९ में हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय महामंत्री थे तथा कैप्टेन मुंजे व डॉ. हेडगेवार के साथ राम सेना व शिव सेना नामक सशस्त्र संगठनों के माध्यम से दंगों में अपहृत हिन्दू युवतियों को मुक्त कराकर उनकी शुद्धि तथा पुनर्विवाह द्वारा सामाजिक स्वीकृति कराते थे । यह जानकर वे बोलीं- 'रास्ता कोई भी हो, भारत माता की सेवा ही असली बात है।' बुआ श्री ने १८५७ के स्वातंत्र्य समर में अपने पूर्वजों के योगदान और संघर्ष की चर्चा की। आरती ने उनसे स्नानकर भोजन करने का अनुरोध किया तो बोलीं- 'संजीव की थाली लगाकर यहीं ले आ, इसे अपने सामने ही खिलाऊँगी। बाद में नहा लूँगी।'
मैंने निवेदन किया कि वे स्नान कर लें तब साथ ही खा लेंगे तो बोलीं 'जब तक तुझे खिला न लूँ, पूजा में मन न लगेगा, चिंता रहेगी कि तूने कुछ नहीं खाया।' ऐसी दिव्य भावना । उनके स्नेहपूर्ण आदेश का सम्मान करते हुए मैं भोजन हेतु प्रस्तुत हो गया । उन्होंने अपने मुझे सामने ही बैठाया। एक रोटी तोड़-तोड़कर अपने हाथों से खिलायी। भोजन के मध्य आरती से कह-कहकर सामग्री मंगाती रहीं।
मेरा मन उनके स्नेह-सागर में अवगाहन कर तृप्त हो गया। उनके हाथों से घी लगी एक-एक रोटी अमृत जैसा स्वाद दे रही थी। फुल्के, दाल, सब्जी, अचार, पापड़ जैसी सामान्यतः नित्य मिलनेवाली भोजन सामग्री में उस दिन जैसी मिठास फिर कभी नहीं मिली। पेट भर जाने पर भी आग्रह कर-कर के २ रोटी और खिलाईं, फिर मिठाई... बीच में लगातार बातें...फिर बोलीं- 'अब तुम आराम करो, हम नहाकर पूजा करेंगी।'
लगभग आधे घंटे में स्नान-ध्यान से निवृत्त होकर आयीं तो उनके तखत पर विराजते ही मैं फिर समीप बैठ गया। उनके पैर दबाते-दबाते कितनी ही बातें हुईं...काश तब आज जैसे यंत्र होते तो वह सब अंकित कर लिया जा सकता। परिवार के बाद अब वे मेरे बारे में पूछ रहीं थीं...क्या-क्या पढ़ लिया?, क्या कर रहा हूँ?, किन विधाओं में लिखता हूँ?, कौन-कौन से कवि-लेखक तथा पुस्तकें पसंद हैं?, घर में किसकी क्या रूचि है?, उनकी कौन-कौन सी कृतियाँ मैंने पढ़ीं हैं? कौन सी सबसे ज्यादा पसंद है? यामा देखी या नहीं?, कौनसा चित्र अधिक अच्छा लगा? प्रश्न ही प्रश्न... जैसे सब कुछ जान लेना चाहती हों, वह सब जो समय-चक्र ने इतने सालों तक नहीं जानने दिया।
मैं अनुभव कर सका कि उनके मन में कितना ममत्व है, अदेखे-अनजाने नातों के लिए। शायद मानव और महामानव के बीच की यही सीमा रेखा होती है कि महामानव सब पर स्नेह अमृत बरसाते हैं जबकि मानव अपनों को खोजकर स्नेहवर्षण करता है । मेरे बहुत आग्रह पर वे आराम करने को तैयार हुईं... 'तू क्या करेगा?,ऊब तो नहीं जायेगा?' आश्वस्त किया कि मैं भैया (डॉ.पाण्डेय) - भाभी से गप्प कर रहा हूँ, आप विश्राम कर लें।
कुछ देर बाद उठीं तो फिर बातचीत का सिलसिला चला। मुझसे पूछा- 'तू अपना उपनाम 'सलिल' क्यों लिखता है?' मैंने कभी गहराई से सोचा ही न था, क्या बताता? मौन देखकर बोलीं- 'सलिल माने पानी... पानी ज़िंदगी के लिए जरूरी है...पर गंगा में हो या नाले में दोनों ही सलिल होते हैं। बहता पानी निर्मला... सो तो ठीक है पर... सलिल ही क्यों?, सलिलेश क्यों नहीं?' उनका आशय था कि नाम सबसे अच्छा हो तो काम भी अच्छा करने की प्रवृत्ति होगी। वे स्वयं नाम से ही नहीं वास्तव में भी महादेवी ही थीं। कुछ वर्ष पूर्व ही मैंने दिनकर जी का एक निबंध 'नेता नहीं नागरिक चाहिए' पाठ्य पुस्तक विचार और अनुभूति में पढ़ा था । इससे प्रभावित किशोर मन में वैशिष्ट्य के स्थान पर सामान्यता की चाह उपजी थी ।
बातचीत के बीच-बीच में वे आरती की प्रशंसा करतीं तो वह संकुचा जाती। मैं भी सुबह से देख रहा था कि वह कितनी ममता से बुआश्री की सेवा में जुटी थी। बुआजी डॉ. पाण्डेय व भाभी जी की भी बार-बार प्रशंसा करती रहीं। कुछ देर बाद कहा- 'तू क्या पूछना चाहता है पूछ न ? सुबह से मैं ही बोल रही हूँ। अब तू पूछ...जो मन चाहे...मैं तेरी माँ जैसी हूँ... माँ से कोई संकोच करता है? पूछ...' उन्होंने न जाने कैसे अनुमान लगाया कि मेरे मन में कुछ जिज्ञासाएँ हैं।
पत्रकारिता में पढ़ते समय वरिष्ठ पत्रकार स्व. कालिकाप्रसाद दीक्षित 'कुसुमाकर' विभागाध्यक्ष थे। उनकी धारणा थी कि महादेवी जी ने निराला जी का अर्थ शोषण किया, मैं असहमति व्यक्त करता तो कहते 'तुम क्या जानो?' आज अवसर था लेकिन पूछूँ तो कैसे? उनके मन को चोट न लगे और शंका का समाधान भी हो, अंततः बुआ जी के प्रोत्साहित करने पर मैंने कहा- 'निराला जी के बारे में कुछ बताइए।?'
'वे महाप्राण थे विषपायी...बुआजी के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव आये, ऐसा लगा कि उनकी रूचि का प्रसंग है...कुछ क्षण आँखें मूँद कर जैसे उन पलों को जी रहीं हों जब निराला साथ थे। फिर बोलीं क्या कहूँ?...कितना कहूँ? ऐसा आदमी न पहले कभी हुआ... न आगे होगा... वो मानव नहीं महामानव थे...विषपायी थे। उनके बाद मेरी राखी सूनी हो गयी... आँखों में आसूं छलक आये... उस एक ही पल में मैं समझ गया था कि कुसुमाकर जी की धारणा निराधार थी।

'निराला जी आम लोगों की तरह दुनियादारी से कोई मतलब नहीं रखते थे। प्रकाशक उनकी किताबें छापकर अमीर हो गये पर वे फकीर ही रह गये। एक बार हम लोगों ने बहुत कठिनाई से दुलारेलाल भार्गव से उन्हें रोयल्टी की राशि दिलवाई, वे मेरे पास छोड़कर जाने लगे मुश्किल से अपने साथ ले जाने को तैयार हुए, मैं खुश थी कि अब वे हमेशा रहनेवाले आर्थिक संकट से कुछ दिनों तक मुक्त रहेंगे।'
कुछ दिनों बाद आये तो बोले कुछ रुपये चाहिए। मुझे अचरज हुआ कि इतने रुपये कहाँ गए? पूछा तो बोले: 'उस दिन तुम्हारे पास से गया तो भूख से परेशान एक बुढ़िया को भीख माँगते देखा। जेब से एक नोट निकलकर उसके हाथ पर रखकर पूछा कि अब तो भीख नहीं मांगेगी। बुढिया बोली जब तक इनसे काम चलेगा नहीं मांगूगी। निराला जी ने एक गड्डी निकल कर उसके हाथों में रखकर पूछ अब कब तक भीख नहीं मांगेगी? बुढिया बोली 'बहुत दिनों तक।' निराला जी ने सब गड्डियाँ भिखारिन की झोली में डालकर पूछा- 'अब?' 'कभी नहीं' बुढिया बोली। निराला जी खाली हाथ घर चले गए।
जब खाने को कुछ न बचा तथा बनिए ने उधार देने से मना कर दिया तो मेरे पास आ गए थे। ऐसे थे भैया। कुछ देर रुकीं...शायद कुछ याद कर रहीं थी...फिर बोलीं एक बार कश्मीर में मेरा सम्मान कर पश्मीना की शाल उढ़ायी गयी। मेरे लौटने की खबर पाकर भैया मिलने आये। ठण्ड के दिनों में भी उघारे बदन, मैंने सब हाल बताया तथा शाल उन्हें उढ़ा दी कि अब ठण्ड से बचे रहेंगे। कुछ दिन बाद ठण्ड से काँपते हुए आये। मैंने पूछा शाल कहाँ है? पहले तो सर झुकाये चुप बैठे रहे। दोबारा पूछने पर बताया कि रास्ते में ठण्ड से पीड़ित किसी भिखारी को कांपते देख उसे उढा दी। बोल, देखा है कोई दूसरा ऐसा अवढरदानी ?' मेरी वाणी अवाक् मौन थी और कान ऐसे दुलभ अन्य प्रसंग सुनने के लिये व्याकुल।
चर्चा...और चर्चा, प्रसंग पर प्रसंग... निराला और नेहरु, निराला और पन्त, निराला और इलाचंद्र जोशी,, निराला और राजेंद्र प्रसाद, निराला और हिंदी, निराला और रामकृष्ण, निराला और आकाशवाणी, आदि...कभी कंठ रुद्ध हो जाता... कभी आँखें भर आतीं...कभी सर गर्व से उठ जाता... निराला और राखी की चर्चा करते हुए बताया कि निराला और इलाचंद्र जोशी में होड़ होती कि कौन पहले राखी बंधवाये ? निराला राखी बाँधने के पहले रूपये मांगते फिर राखी बंधने पर वही दे देते क्योंकि उनके पास कुछ होता ही नहीं था और खाली हाथ राखी बंधवाना उन्हें गवारा नहीं होता था।
स्मृतियों के महासागर में डूबती-तिरती बुआश्री का अगला पड़ाव था दद्दा और जिया... चिरगांव की राखी। दद्दा का संसद में कवितामय बजट भाषण... हिंदी संबंधी आंदोलन... फिर प्रसाद और कामायनी की चर्चा। फिर दिनकर... फिर नंददुलारे वाजपेई... हजारीप्रसाद द्विवेदी... नवीन... सुमन... जवाहरलाल नेहरु... इंदिरा जी, द्वारकाप्रसाद मिश्र... पत्रकार पी. डी. टंडन अनेक नाम... अनेक प्रसंग... अनंत कोष स्मृतियों का।
मैंने प्रसंग परिवर्तन के लिए कहा- 'कुछ अपने बारे में बताइए। 'क्या बताऊँ? अपने बारे में क्या कहूं? मैं तो अधूरी रह गयी हूँ उसके बिना...'

मैं अवाक् था। किसकी कथा सुनने को मिलेगी? ...कौन है वह महाभाग?
'वह तो थी ही विद्रोहिणी... बचपन से ही... निर्भीक, निस्संकोच, वात्सल्यमयी, सेवाभावी, रूढ़िभंजक... फिर प्रारंभ हुआ सुभद्रा पुराण... स्कूल में भेंट... दोनों का कविता लिखना, चूड़ी बदलना... लक्ष्मणप्रसाद जी से भेंट... दोनों का विवाह... पर्दा प्रथा को तोड़ना... दुधमुंहे बच्चों को छोड़कर सत्याग्रह में भाग लेना-जेल यात्रा... फिर सुभद्रा जी के विधायक बनने में सेठ गोविंददास द्वारा बाधा... सरदार पटेल द्वारा समर्थन... गाँधी जी के अस्थि विसर्जन में सुभद्रा जी द्वारा झुग्गीवासियों को लेकर जाना...अंत में मोटर दुर्घटना में निधन... की चर्चा कर रो पड़ीं...खुद को सम्हाला...आंसू पोंछे...पानी पिया...प्रकृतिस्थ हुईं...
'थक गया न ? जा आराम कर।'

'नहीं बुआजी! बहुत अच्छा लग रहा है...ऐसा अवसर फिर न जाने कब मिले?...तो क्या सुनना है अब?...इतनी कथा तो पंडित दक्षिणा लेकर भी नहीं कहता'...
'बुआ जी आपके कृष्ण जी!'...;

' मेरे नहीं... कृष्ण तो सबके हैं जो उन्हें जिस भाव से भज ले...उन्हें वही स्वीकार। तू न जानता होगा...एक बार पं. द्वारकाप्रसाद और मोरारजी देसाई में प्रतिद्वंदिता हो गयी कि बड़ा कृष्ण-भक्त कौन है? पूरा प्रसंग सुनाया फिर बोलीं- भगवन! ऐसा भ्रम कभी न दे।'
अब भी मुझे आगे सुनने के लिए उत्सुक पाया तो बोलीं तू अभी तक नहीं थका?...पी. डी. टन्डन का नाम सुना है? एक बार साक्षात्कार लेने आया तो बोला आज बहुत खतरनाक सवाल पूछने आया हूँ। मैनें कहा- 'पूछो' तो बोला अपनी शादी के बारे में बताइये। मैनें कहा- 'बाप रे, यह तो आज तक किसी ने नहीं पूछा। क्या करेगा जानकर?'
'बुआ जी बताइए न, मैं भी जानना चाहता हूँ।' -मेरे मुँह से निकला।

'तू भी कम शैतान नहीं है...चल सुन...फिर अपने बचपन...बाल विवाह...गाँधी जी व् बौद्ध धर्म के प्रभाव, दीक्षा के अनुभव, मोह भंग, प्रभावतीजी से मित्रता, जे. पी. के संस्मरण... अपने बाल विवाह के पति से भेंट... गृहस्थ जीवन के लिए आमंत्रण, बापू को दिया वचन गार्हस्थ से विराग आदि प्रसंग उन्होंने पूरी निस्संगता से सुनाये।
उनके निकट लगभग ६ घंटे किसी चलचित्र की भांति कब कटे पता ही न चला...मुझे घड़ी देखते पाया तो बोलीं- 'तू जायेगा ही? रुक नहीं सकता? तेरे साथ एक पूरा युग फिर से जी लिया मैंने।'
सबेरे वे अपनी नाराजगी जता चुकी थीं कि इतने कम समय में क्यों जा रहा हूँ?, रुकता क्यों नहीं? पर इस समय शांत थीं...उनका वह वात्सल्य...वह स्पर्श...वह स्नेह...अब तक रोमांचित कर देता है...बाद में ३-४ बार और बुआ जी का शुभाशीष पाया।

कभी ईश्वर मिले और वर माँगने को कहे तो मैं बुआ जी के साथ के वही पल फिर से जीना चाहूँगा।
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मुक्तक, दोहा सलिलाः

मुक्तक
खिलखिलाती रहो, चहचहाती रहो
जिंदगी में सदा गुनगुनाती रहो
मेघ तम के चलें जब गगन ढाँकने
सूर्य को आईना हँस दिखाती रहो
*
दोहा सलिलाः
*
प्राची पर आभा दिखी, हुआ तिमिर का अन्त
अन्तर्मन जागृत करें, सन्त बन सकें सन्त
*
आशा पर आकाश टंगा है, कहते हैं सब लोग
आशा जीवन श्वास है, ईश्वर हो न वियोग
*
जो न उषा को चाह्ता, उसके फूटे भाग
कौन सुबह आकर कहे, उससे जल्दी जाग
*
लाल-गुलाबी जब दिखें, मनुआ प्राची-गाल
सेज छोड़कर नमन कर, फेर कर्म की माल
*
गाल टमाटर की तरह, अब न बोलना आप
प्रेयसि के नखरे बढ़ें, प्रेमी पाये शाप.
*
प्याज कुमारी से करे, युवा टमाटर प्यार
किसके ज्यादा भाव हैं?, हुई मुई तकरार
*

२७-७-२०१४ 

शनिवार, 25 जुलाई 2020

समीक्षा कालचक्र को चलने दो सुनीता सिंह

पुस्तक चर्चा :
''कालचक्र को चलने दो'' भाव प्रधान कवितायें
''
[पुस्तक विवरण: काल चक्र को चलने दो, कविता संग्रह, सुनीता सिंह, प्रथम संस्करण २०१८, पृष्ठ १२५, आकार २० से.मी. x १४.५ से. मी., आवरण बहुरंगी पेपर बाइक लेमिनेटेड, २००/- प्रतिष्ठा पब्लिशिंग हाउस, लखनऊ]
*
साहित्य समय सापेक्षी होता है। कविता 'स्व' की अनुभूतियों को 'सर्व' तक पहुँचाती है। समय सनातन है। भारतीय मनीषा को 'काल' को 'महाकाल' का उपकरण मानती है इसलिए भयाक्रांत नहीं होती, 'काल' का स्वागत करती है। 'काल को चलने दो' जीवन में व्याप्त श्वेत-श्याम की कशमकश को शब्दांकन है।कवयित्री सुनीता सिंह के शब्दों में "अकस्मात मन को झकझोर देनेवाली परिस्थितियों से मन को अत्यंत नकारात्मक रूप से प्रभावित होने से बचने के लिए उन परिस्थितियों को स्वीकार करना आवश्यक होता है जो अपने बस में नहीं होतीं। जीवन कभी आसान रास्ता नहीं देता। हतोत्साहित करनेवाले कारकों और नकारात्मकता के जाल से जीवन को अँधेरे से उजाले की ओर शांत मन से ले जाने की यात्रा का दर्शन काव्य रूप से प्रस्तुत करती है यह पुस्तक।'

५४ कविताओं का यह संकलन अजाने ही पूर्णता को लक्षित करता है। ५४ = ५+४=९, नौ पूर्णता का अंक है। नौ शक्ति (नौ दुर्गा) का प्रतीक है। नौ को कितनी ही बार जोड़े या गुणा करें ९ ही मिलता है।संकलन में राष्ट्रीयता के रंग में रंगी ५ रचनाएँ हैं। ५ पंचतत्व का प्रतीक है। 'अनिल, अनल, भू, नभ सलिल' यही देश भी है। भारत भूमि, भारत वर्ष, स्वदेश नमन, प्रहरी, भारत अखंड शीर्षक इन रचनाओं में भारत का महिमा गान होना स्वाभाविक है।
इसकी गौरव गाथा को हिमगिरि झूम कर गाता है
जिस पर गर्वित होकर के सागर भी लहराता है
तिलक देश के माथे का हिम चंदन है
शत बार तुझे ऐ देश मेरे अभिनन्दन है
कवयित्री देश भक्त है किन्तु अंधभक्त नहीं है। देश महिमा गुँजाते हुए भी देश में व्याप्त अंतर्विरोध उसे दुखी करते हैं -
एक देश में दो भारत / क्यों अब तक है बसा हुआ?
एक माथ पर उन्नत भाल / दूजा क्यों है धँसा हुआ?
'माथ' और 'भाल' पर्यायवाची हैं। एक पर दूसरा कैसे? 'माथ' के स्थान पर 'कांध' होता तो अर्थवत्ता में वृद्धि होती।
इस भावभूमि से जुडी रचनाएँ रणभेरी, बढ़ते चलो, वीरों की पहचान आदि भी हैं जिनमें परिस्थितियों से जूझकर उन्हें बदलने का आव्हान है।
कवि को प्राय: काव्य-प्रेरणा प्रकृति से मिलती है। इस संग्रह में प्रकृति से जुडी रचनाओं में प्रकृति दोहन, आंधी, हरीतिमा, जल ही जीवन, मकरंद, फाग, बसंत, चूनर आदि प्रमुख हैं।
प्रकृति का अनुपम उपहार / यह अभिलाषा का संसार
इच्छाओं की अनंत श्रृंखला / दिव्य लोक तक जाती है
स्वच्छंद कल्पना के उपवन में / सतरंगी पुष्प खिलाती है
स्वप्नों में स्वर्णिम पथ पर / आरूढ़ होकर आती है
कितना मोहक, कितना सुंदर / है यह विशाल अंबर निस्सार
एक बाल कथा सुनी थी जिसमें गुरु जी शिष्यों को सिखाने के बाद अंतिम परीक्षा यह लेते हैं कि वह खोज के लाओ जो किसी काम का नहीं। प्रथम वह विद्यार्थी आया जो कुछ नहीं ला सका। गुरु जी ने कहा हर वास्तु का उपयोग कर सकनेवाला ही श्रेष्ठ है। ईश्वर ने निरुपयोगी कुछ नहीं बनाया। कवयित्री ने वाकई अंबर को निस्सार पाया या तुक मिलाने के लिए शब्द का प्रयोग किया? अंबर पाँच तत्वों में से एक है, वह निस्सार कैसे हो सकता है?
दर्शन को लेकर कवयित्री ने कई रचनाएँ की हैं। गुरु गोरखनाथ की साधनास्थली में पली-बढ़ी कलम दर्शन से दूर कैसे रह सकती है?
मन की आँखों से है दिखता / खोल हृदय के द्वार
निहित कर्म पर गढ्ता / सद्गति या दुर्गति आकार
''कर्म प्रधान बिस्व करि राखा'' का निष्कर्ष तुलसी ने भी निकाला था, वही सुनीता जी का भी प्राप्य है।
संग्रह की रचनाओं में 'एकला चलो रे' हे प्रिये, हे मन सखा आदि पठनीय हैं। कवयित्री में प्रतिभा है, उसे निरंतर तराशा जाए तो उनमें छंद, शुद्ध छंद रचने की सामर्थ्य है किन्तु समयाभाव उन्हें रचना को बार-बार छंद-विधान के निकष पर कसने का अवकाश नहीं देता। पुरोवाक में नीलम चंद्रा के अनुसार 'इनके हर अलफ़ाज़ चुनिंदा होते हैं' के संदर्भ में निवेदन है कि 'हर' एक वचन है, अल्फ़ाज़ बहुवचन, 'हर लफ्ज़' सही होता।
''कालचक्र चलने दो'' कवयित्री के संवेदनशील मन की भाव यात्रा है। रचनाओं में पाठक को अपने साथ रख पाने की सामर्थ्य है। कथ्य मौलिक है। शब्द चयन सटीक है। सारत: यह कृति मानव जीवन की तरह गन-दोष युक्त है और यही इसे ग्रहणीय बनाता है। सुनीता का भविष्य एक कवयित्री के नाते उज्जवल है। वे 'अधिक' और 'श्रेष्ठ' का अंतर समझ कर 'श्रेष्ठ' की दिशा में निरंतर अग्रसर हैं।
*****
[संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', सभापति विश्ववाणी हिन्दी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, salil.sanjiv@gmail.com ]

लघुकथा धर्म संकट

लघुकथा
धर्म संकट
*
वे महाविद्यालय में प्रवेश कराकर बेटे को अपनी सखी विभागाध्यक्ष से मिलवाने ले गयीं। जब भी सहायता चाहिए हो, निस्संकोच आ जाना सखी ने कहा तो उन्होंने खुद को आश्वस्त पाया।
वह कठिनाई हल करने, पुस्तकालय से अतिरिक्त पुस्तक लेने, परीक्षा के पूर्व महत्वपूर्ण प्रश्न पूछने विभागाध्यक्ष के पास जाता रहा। पहले तो उन्होंने कोई विशेष रुचि नहीं ली किन्तु क्रमश:उसकी प्रशंसा करते हुए सहायता करने लगीं। उसे कहा कि महाविद्यालय में 'आंटी' नहीं 'मैडम' कहना उपयुक्त है।
प्रयोगशाला में वे अधिक समय तक रूककर प्रयोग करातीं, अपने शोधपत्रों के साथ उसका नाम जोड़कर छपवाया। वह आभारी होता रहा।
उसे पता ही नहीं चला कब गलियारों में उनके सम्बन्धों को अंतरंग कहती कानाफूसियाँ फ़ैलने लगीं।
एक शाम जब वह प्रयोग कर रहा था, वे आकर हाथ बँटाने लगीं। हाथ स्पर्श होने पर उसने संकोच और भय से खुद में सिमट, खेद व्यक्त किया पर उन्होंने पूर्ववतकार्य जारी रखा मानो कुछ हुआ ही न हो। अचानक वे लड़खड़ाती लगीं तो उसने लपक कर सम्हाला, अपने कंधे पर से उनका सर और उनकी कमर में से अपने हाथ हटाने के पूर्व ही उसकी श्वासों में घुलने लगी परफ्यूम और देह की गंध। पलक झपकते दूरियाँ दूर हो गयीं।
कुछ दिन वे एक दूसरे से बचते रहे किन्तु धीरे-धीरे वातावरण सहज होने लगा। आज कक्षा के सब विद्यार्थी विभागाध्यक्ष को शुभकामनायें देकर चरण-स्पर्श कर रहे हैं। वह क्या करे? धर्मसंकट में पड़ा है चरण छुए तो कैसे?, न छुए तो साथी क्या कहेंगे? यही धर्म संकट उनके मन में भी है। दोनों की आँखें मिलीं, कठिन परिस्थिति से उबार लिया चलभाष ने, 'गुरु जी! प्रणाम। आप कार्यालय में विराजें, मैं तुरंत आती हूँ' कहते हुए, शेष विद्यार्थियों को रोककर वे चल पड़ीं कार्यालय की ओर। इस क्षण तो गुरु ने उबार लिया, टल गया था धर्म संकट।
***
१९-६-२०१६
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मुक्तिका: क्यों है?

मुक्तिका:
क्यों है?
संजीव 'सलिल'
*
जो जवां है तो पिलपिला क्यों है?
बोल तो लब तेरा सिला क्यों है?
दिल से दिल जब कभी न मिल पाया.
हाथ से हाथ फिर मिला क्यों है?
नींव ही जिसकी रिश्वतों ने रखी.
ऐसा जम्हूरियत किला क्यों है?
चोर करता है सीनाजोरी तो
हमको खुद खुद से ही गिला क्यों है?
शूल से तो कभी घायल न हुआ.
फूल से दिल कहो छिला क्यों है?
और हर चीज है जगह पर, पर
ये मगज जगह से हिला क्यों है?
ठीक कब कौन क्या करे कैसे?
सिर्फ गलती का सिलसिला क्यों है?
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२५-७-२०११
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दोहा सलिला रवि-वसुधा के ब्याह में

दोहा सलिला
रवि-वसुधा के ब्याह में...
संजीव 'सलिल'
*
रवि-वसुधा के ब्याह में, लाया नभ सौगात.
'सदा सुहागन' तुम रहो, ]मगरमस्त' अहिवात..
सूर्य-धरा को समय से, मिला चन्द्र सा पूत.
सुतवधु शुभ्रा 'चाँदनी', पुष्पित पुष्प अकूत..
इठला देवर बेल से बोली:, 'रोटी बेल'.
देवर बोला खीझकर:, 'दे वर, और न खेल'..
'दूधमोगरा' पड़ोसी, हँसे देख तकरार.
'सीताफल' लाकर कहे:, 'मिल खा बाँटो प्यार'..
भोले भोले हैं नहीं, लीला करे अनूप.
बौरा गौरा को रहे, बौरा 'आम' अरूप..
मधु न मेह मधुमेह से, बच कह 'नीबू-नीम'.
जा मुनमुन को दे रहे, 'जामुन' बने हकीम..
हँसे पपीता देखकर, जग-जीवन के रंग.
सफल साधना दे सुफल, सुख दे सदा अनंग..
हुलसी 'तुलसी' मंजरित, मुकुलित गाये गीत.
'चंपा' से गुपचुप करे, मौन 'चमेली' प्रीत..
'पीपल' पी पल-पल रहा, उन्मन आँखों जाम.
'जाम' 'जुही' का कर पकड़, कहे: 'आइये वाम'..
बरगद बब्बा देखते, सूना पनघट मौन.
अमराई-चौपाल ले, आये राई-नौन..
कहा लगाकर कहकहा, गाओ मेघ मल्हार.
जल गगरी पलटा रहा, नभ में मेघ कहार..
*
salil.sanjiv@gmail.com
#दिव्यनर्मदा
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मुक्तक

मुक्तक:
संजीव 'सलिल'
*
खोजता हूँ ठाँव पग थकने लगे हैं.
ढूँढता हूँ छाँव मग चुभने लगे हैं..
डूबती है नाव तट को टेरता हूँ-
दूर है क्या गाँव दृग मुंदने लगे हैं..
*
आओ! आकर हाथ मेरा थाम लो तुम.
वक़्त कहता है न कर में जाम लो तुम..
रात के तम से सवेरा जन्म लेगा-
सितारों से मशालों का काम लो तुम..
*
आँख से आँखें मिलाना तभी मीता.
पढ़ो जब कर्तव्य की गीता पुनीता..
साँस जब तक चल रही है थम न जाना-
हास का सजदा करे आसें सुनीता..
*
मिलाकर कंधे से कंधा हम चलेंगे.
हिम शिखर बाधाओं के पल में ढलेंगे.
ज़मीं है ज़रखेज़ थोड़ा पसीना बो-
पत्थरों से ऊग अंकुर बढ़ फलेंगे..
*
ऊगता जो सूर्य ढलता है हमेशा.
मेघ जल बनकर बरसता है हमेशा..
शाख जो फलती खुशी से झूमती है-
तिमिर में जुगनू चमकता है हमेशा..
*
२५-७-२०१२
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#दिव्यनर्मदा
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Poem

Poem:
Sanjiv
*
Success and un success
Are two faces of a coin.
Every un success leads to
Success in life
If you do'nt lose heart.
Success gives more pleasure
After un success.
Spoon feeded success
Without any struggle or
Testing your ability
Doesn't serve any purpose.
Baloon gets the height
Without any foundation
Hence, falls down.
Let us all try to get success
Only after proper efforts.
Success without doing our best
Can't give satisfaction.
Never feel shy
If the attempt fails.
Always ensure the use of
Proper and fair means
To get success.
***
२५-७-२०१५
salil.sanjiv@gmail.com
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#हिंदी_ब्लॉगर

गीत - समय के संतूर पर

दोहाः
छूट गया क्यों हाथ से, श्वासों का संतूर
प्यासी आसें रह गयीं, मन्जिल भी है दूर..
२५-७-२०१४
गीत - समय के संतूर पर
संजीव
*
समय के संतूर पर
सरगम सुहानी
बज रही.
आँख उठ-मिल-झुक अजाने
आँख से मिल
लज रही.
*
सुधि समंदर में समाई लहर सी
शांत हो, उत्ताल-घूर्मित गव्हर सी
गिरि शिखर चढ़ सर्पिणी फुंकारती-
शांत स्नेहिल सुधा पहले प्रहर सी
मगन मन मंदाकिनी
कैलाश प्रवहित
सज रही.
मुदित नभ निरखे न कह
पाये कि कैसी
धज रही?
*
विधि-प्रकृति के अनाहद चिर रास सी
हरि-रमा के पुरातन परिहास सी
दिग्दिन्तित रवि-उषा की लालिमा
शिव-शिवा के सनातन विश्वास सी
लरजती रतनार प्रकृति
चुप कहो क्या
भज रही.
साध कोई अजानी
जिसको न श्वासा
तज रही.
*
पवन छेड़े, सिहर कलियाँ संकुचित
मेघ सीचें नेह, बेलें पल्ल्वित
उमड़ नदियाँ लड़ रहीं निज कूल से-
दमक दामिनी गरजकर होती ज्वलित
द्रोह टेरे पर न निष्ठा-
राधिका तज
ब्रज रही.
मोह-मर्यादा दुकूलों
बीच फहरित
ध्वज रही.
***
२५-७-२०१५
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मुक्तक

मुक्तक:
संजीव
*
मापनी: २११ २११ २११ २२
*
आँख मिलाकर आँख झुकाते
आँख झुकाकर आँख उठाते
आँख मारकर घायल करते
आँख दिखाकर मौन कराते
*
मापनी: १ २ २ १ २ २ १ २ २ १२२
*
न जाओ, न जाओ जरा पास आओ
न बातें बनाओ, न आँखें चुराओ
बहुत हो गया है, न तरसा, न तरसो
कहानी सुनो या कहानी सुनाओ
*
२५-६-२०१५
salil.sanjiv@gmail.com
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हम आज़ाद देश के वासी

गीत 
*
हम आज़ाद देश के वासी,
मुँह में नहीं लगाम।
*
जब भी अपना मुँह खोलेंगे,
बेमतलब बातें बोलेंगे।
नहीं बोलने के पहले हम
बात कभी अपनी तोलेंगे।
ना सुधरें हैं, ना सुधरेंगे
गलती करें तमाम।
*
जितना भी ऊँचा पद पाया,
उतना नीचा गिर गर्राया।
लज्जा-हया-शर्म तज, मुस्का
निष्-दिन अपना नाम थुकाया।
दल सुधार की हर कोशिश
कर ही देंगे नाकाम।
*
अपना थूका, खुद चाटेंगे,
नफरत, द्वेष, घृणा बाँटेंगे।
तीन-पाँच दो दूनी बोलें,
पर न गलत खुद को मानेंगे।
कद्र न इंसां की करते,
हम पद को करें सलाम।
***
salil.sanjiv@gmail.com
#दिव्यनर्मदा
#हिंदी_ब्लॉगर

प्राण शर्मा

वरिष्ठ ग़ज़लकार प्राण शर्मा, लंदन के प्रति
भावांजलि
संजीव
*
फूँक देते हैं ग़ज़ल में प्राण अक्सर प्राण जी
क्या कहें किस तरह रचते हैं ग़ज़ल सम्प्राण जी
ज़िन्दगी के तजुर्बों को ढाल देते शब्द में
सिर्फ लफ़्फ़ाज़ी कभी करते नहीं हैं प्राण जी
सादगी से बात कहने में न सानी आपका
गलत को कहते गलत ही बिना हिचके प्राण जी
इस मशीनी ज़िंदगी में साँस ले उम्मीद भी
आदमी इंसां बने यह सीख देते प्राण जी
'सलिल'-धारा की तरह बहते रहे, ठहरे नहीं
मरुथलों में भी बगीचा उगा देते प्राण जी
***
२५-७-२०१५
salil.sanjiv@gmail.com

मुक्तिका: बिटिया

मुक्तक
भाव- अभावों का है तालमेल दुनिया
ममता मन में धार अकेले चल दे तू
गैरों में भी तुझको मिल जाएँ अपने
अपनापन सिंगार साजकर चल दे तू
***
दोहाः
छूट गया क्यों हाथ से, श्वासों का संतूर
प्यासी आसें रह गयीं, मन्जिल भी है दूर..
षट्पदिक छंद : नाक 
*
नाक के बाल ने, नाक रगड़कर, नाक कटाने का काम किया है
नाकों चने चबवाए, घुसेड़ के नाक, न नाक का मान रखा है
नाक न ऊँची रखें अपनी, दम नाक में हो तो भी नाक दिखा लें
नाक पे मक्खी न बैठन दें, है सवाल ये नाक का, नाक बचा लें
नाक के नीचे अघट न घटे, जो घटे तो जुड़े कुछ नाक बजा लें
नाक नकेल भी डाल सखे हो, न कटे जंजाल तो नाक चढ़ा लें
छंद का नाम और लक्षण बताइए.
***
 

मुक्तिका:
बिटिया
संजीव 'सलिल'
*
*
चाह रहा था जग बेटा पर अनचाहे ही पाई बिटिया.
अपनों को अपनापन देकर, बनती रही पराई बिटिया..
कदम-कदम पर प्रतिबंधों के अनुबंधों से संबंधों में
भैया जैसा लाड़-प्यार, पाने मन में अकुलाई बिटिया..
झिड़की ब्यारी, डांट कलेवा, घुड़की भोजन था नसीब में.
चौराहों पर आँख घूरती, तानों से घबराई बिटिया..
नत नैना, मीठे बैना का, अमिय पिला घर स्वर्ग बनाया.
हाय! बऊ, दद्दा, बीरन को, बोझा पड़ी दिखाई बिटिया..
खान गुणों की रही अदेखी, रंग-रकम की माँग बड़ी थी.
बीसों बार गयी देखी, हर बार गयी ठुकराई बिटिया..
करी नौकरी घर को पाला, फिर भी शंका-बाण बेधते.
तनिक बोल ली पल भर हँसकर, तो हरजाई कहाई बिटिया..
राखी बाँधी लेकिन रक्षा करने भाई न कोई पाया.
मीत मिले जो वे भी निकले, सपनों के सौदाई बिटिया..
जैसे-तैसे ब्याह हुआ तो अपने तज अपनों को पाया.
पहरेदार ननदिया कर्कश, कैद भई भौजाई बिटिया..
पी से जी भर मिलन न पाई, सास साँस की बैरन हो गयी.
चूल्हा, स्टोव, दियासलाई, आग गयी झुलसाई बिटिया..
फेरे डाले सात जनम को, चंद बरस में धरम बदलकर
लाया सौत सनम, पाये अब राह कहाँ?, बौराई बिटिया..
दंभ जिन्हें हो गए आधुनिक, वे भी तो सौदागर निकले.
अधनंगी पोशाक, सुरा, गैरों के साथ नचाई बिटिया..
मन का मैल 'सलिल' धो पाये, सतत साधना स्नेह लुटाये.
अपनी माँ, बहिना, बिटिया सम, देखे सदा परायी बिटिया..
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२५-७-२०१४