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शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

मुक्तिका

मुक्तिका
*
नाव ले गया माँग, बोल 'पतवार तुम्हें दे जाऊँगा'
यह न बताया सलिल बिना नौका कैसे खे पाऊँगा?

कहा 'अनुज' हूँ, 'अग्रज' जैसे आँख दिखाकर चला गया
कोई बताये क्या उस पर आशीष लुटाने आऊँगा?

दर्पण दरकाया संबंधों का, अनुबंधों ने बरबस
प्रतिबंधों के तटबंधों को साथ नहीं ले पाऊँ

आ 'समीप' झट 'दूर' हुआ क्यों? बेदर्दी बतलाये तो
यादों के डैनों नीचे पीड़ा चूजे जन्माऊँगा

अंबर का विस्तार न मेरी लघुता को सकता है नाप
बिंदु सिंधु में समा, गीत पल-पल लहरों के गाऊँगा

बुद्धि विनीतामय विवेक ने गर्व त्याग हो मौन कहा
बिन अवधेश न मैं मिथलेश सिया को अवध पठाऊँगा

कहो मुक्तिका सजल तेवरी ग़ज़ल गीतिका या अनुगीत
शब्द-शब्द रस भाव बिम्ब लय सलिला में नहलाऊँगा
***
संजीव
१७-१-२०२०
७९९९५५९६१८



गुरुवार, 16 जनवरी 2020

नागों का रहस्य

नागों का रहस्य - २ : पुराण में नागों का उल्लेख
*
भारत के शासन-प्रशासन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाले, निर्गुण ब्रम्ह चित्रगुप्त के उपासक कायस्थ अपने आदि पुरुष कि अवधारणा-कथा में उनके दो विवाह नाग कन्या तथा देव कन्या से तथा उनके १२ पुत्रों के विवाह बारह नाग कन्याओं से होना मानते हैं. कौन थे ये नाग? सर्प या मनुष्य? आर्य, द्रविड़ या गोंड़?
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ पुरातत्वविद डॉ. आर. के. शर्मा लिखित पुस्तक से नागों संबंधी जानकारी दे रही हैं माँ जीवन शैफाली.
*
नागों की उत्पत्ति का रहस्य अंधकार में डूबा है, इसलिए प्राचीन भारत के इतिहास की जटिल समस्याओं में से एक ये भी समस्या है. कुछ विद्वानों के अनुसार नाग मूलरूप से नाग की पूजा करनेवाले थे, इस कारण उनका संप्रदाय बाद में नाग के नाम से ही जाना जाने लगा. इसके समर्थन में जेम्स फर्ग्यूसन ने अपनी पुस्तक (Tree and Serpent Worship) में अक्सर उद्धृत करते हुए विचार व्यक्त किए हैं, और निःसंदेह काफी प्रभावित भी किया है, लेकिन आज के विद्वानों में उनका समर्थक मिलना मुश्किल होगा.

उनके अनुसार नाग, साँप की पूजा करनेवाली उत्तर अमेरिका में बसे तुरेनियन वंश की एक आदिवासी जाति थी जो युद्ध में आर्यों के अधीन हो गई. फर्ग्यूसन सकारात्मक रुप से ये घोषणा करते हैं कि ना आर्य साँप की पूजा करनेवाले थे, ना द्रविड़, और अपने इस सिद्धांत पर बने रहने के लिए वे ये भी दावा करते हैं कि नाग की पूजा का यदि कोई अंश वेद या आर्यों के प्रारंभिक लेखन में पाया भी गया है तो या तो वह बाद की तारीख का अंतर्वेशन होना चाहिए या आश्रित जातियों के अंधविश्वासों को मिली छूट. सर्प पूजा के स्थान पर जब बौद्ध धर्म आया, तो उसने उसे “आदिवासी जाति के छोटे मोटे अंधविश्वासों के थोड़े से पुनरुत्थारित रुप” से अधिक योग्य नहीं माना. वॉगेल ठीक ही कह गया है कि ‘ये सब अजीब और निराधार सिद्धांत हैं’.
कुछ विद्वानों का यह भी दावा है कि सर्प पूजा करने वालों की एक संगठित संप्रदाय के रुप में उत्पत्ति मध्य एशिया के सायथीयन के बीच से हुई है, जिन्होने इसे दुनियाभर में फैलाया. वे सर्प को राष्ट्रीय प्रतीक के रुप में उपयोग करने के आदि थे. इस संबंध में यह भी सुझाव दिया गया है कि भारत में आए प्रोटो-द्रविड़ियन (आद्य-द्रविड़), सायथियन जैसी ही भाषा बोलते थे जिसका आधुनिक शब्दावली में अर्थ होता था फ़िनलैंड मे बसने वाले कबीलों के परिवार की भाषा. (फिनो-अग्रिअन भाषाओं का परिवार).
यह अवलोकन १९ वीं शताब्दी के द्रविड़ भाषओं के अधिकारी कॅल्डवेल के साथ शुरू हुआ और जिसे ऑक्सफ़ोर्ड के प्रोफेसर टी. बरौ का समर्थन मिला. वहीं दूसरी ओर एस. सी. रॉय एवं अन्य ने सुझाव दिया कि प्रोटो-द्रविड़ियन (आद्य-द्रविड़) भूमध्यसागर की जाति के आदिम प्रवासी थे जिनका भारत के सर्प संप्रदाय में योगदान रहा. इसलिए इस संप्रदाय की उत्पत्ति और प्रसार के सिद्धांतो में बहुत मतभेद मिलता है, जिनमें से कोई भी पूर्णरूपेण स्वीकार्य नहीं है, इसके अलावा नाग की पूजा मानव जगत में व्यापक रूप से प्रचलित थी.
सायथीयन का दावा दो कारणों से ठहर नहीं सकता, पहला नाग पूजा का जो सिद्धांत भारत लाया गया वह मात्र द्रविड़ और फिनो-अग्रिअन भाषाओं की सतही समानता पर आधारित है और मध्य एशिया के आक्रमण का कोई ऐतिहासिक उदाहरण नहीं मिलता. नवीनतम पुरातात्विक और आनुवंशिक निष्कर्ष ने यह सिद्ध कर दिया है कि दूसरी सहस्राब्दी ई.पू. का आर्य आक्रमण/प्रवास सिद्धांत एक मिथक है. दूसरा, मध्य एशिया में सामान्य सर्प संप्रदाय का इस बात के अलावा कोई अंश नहीं मिलता कि वे साँपों का गहने या प्रतीक के रूप में उपयोग करते थे.
नाग सामान्य महत्व से अधिक शक्तिशाली और व्यापक लोग थे, जो आदिम समय से भारत के विभिन्न भागों में आजीविका चलाते दिखाई देते थे. संस्कृत में नाग नाम से बुलाये जाने से पहले वे किस नाम से जाने जाते थे ये ज्ञात नहीं है. द्रविड़ भाषा में नाग का अर्थ ‘पंबु’ या ‘पावु’ होता है. कदाचित ‘पावा’ नाम उत्तरी भारत के शहरों में से किसी एक से लिया गया था जो मल्ल की राजधानी हुआ करती थी और बुद्ध के समय में यहाँ निवास करनेवालों ने कबीले के पुराने नाम ‘नाग’ को बनाए रखा था. यह भी संभव है कि जैसे ‘मीना’ का नाम ‘मत्स्य’ में परिवर्तित हुआ, ‘कुदगा’ का ‘वानर’ में उसी तरह बाद में आर्यों द्वारा,’पावा’ (जिसका अर्थ है नाग) का नाम ‘नाग’ में परिवर्तित किया गया और संस्कृतज्ञ द्वारा समय के साथ साँप पालने वाले को नाग कहा जाने लगा.
हड़प्पा में खुदाई से मिले कुछ अवशेष अधिक रुचिकर है क्योंकि यह समकालीन लोगों के धार्मिक जीवन में सर्प के महत्व को अधिक से अधिक उजागर करते हैं. उनमें से एक छोटी सुसज्जित मेज है (faience tablet) है जिस पर एक देव प्रतिमा के दोनों ओर घुटने टेककर आदमी द्वारा पूजा की जा रही है. प्रत्येक उपासक के पीछॆ एक कोबरा अपना सिर उठाए और फन फैले दिखाई देता है जो प्रत्यक्ष रुप से यह दर्शाता है कि वह भी प्रभु की आराधना में साथ दे रहा है. इसके अलावा चित्रित मिट्टी के बर्तन भी पाए गए जिनमें से कुछ पर सरीसृप चित्रित थे, नक्काशी किया हुआ साँप का चित्र, मिट्टी का ताबीज जिस पर एक सरीसृप के सामने एक छोटी मेज पर दूध जैसी कोई भेंट दिखाई देती है.
हड़प्पा में भी एक ताबीज पाया गया जिस पर एक गरुड़ के दोनों ओर दो नागों को रक्षा में खड़े हुए चित्रित किया गया है. ऊपर दी गई खोज सिंधु घाटी के लोगों की पूजा में साँप के होने के तथ्य को इंगित करती है, केनी के अनुसार आवश्यक रूप से ख़ुद पूजा की वस्तु के रूप में ना सही, और उस क्षेत्र में नाग टोटेम वाले लोग होना चाहिए.
महाभारत में दिए वर्णन के अनुसार नाग जो कि कश्यप और कद्रु की संतान है, रमणियका की भूमि जो समुद्र के पार थी, पर बहुत गर्मी, तूफान और बारिश का सामना करने के बाद पहुँचे थे, ऐसा माना जाता है कि नाग मिस्र द्वारा खोजे गए देश की ओर चले गए थे. ये कहा जाता है कि वे गरुड़ प्रमुख के नेतृत्व में आगे बढ़े थे. चाहे यह सिद्धांत स्वीकार्य हो या ना हो यह जानना रुचिकर है कि मिस्र के फरौह (pharaohs of egypt) -प्राचीन मिस्त्र के राजाओं की जाति या धर्म या वर्ग संबंधी नाम) कुछ हद तक बाज़ या गरुड़ और सर्प से संबंधित थे.
नाग आर्य थे या गैर-आर्य, इस प्रश्न के उत्तर में बहुत कुछ लिखा गया और अधिकतर विद्वानों का यही मानना है कि आर्यों के भारत में आने से पहले नाग द्रविड़ थे जो भारत के उत्तरी क्षेत्र में रहते थे. आर्यन आव्रजन सिद्धांत के विवाद में प्रवेश के बिना, जो नवीनतम शोधकर्ता द्वारा मिथक साबित हुई है यह इंगित किया जा सकता है कि नाग सिर्फ साँप जो कि उनका टोटेम था ना कि पूजा के लिए आवश्यक वस्तु, की पूजा की वजह से गैर-आर्य लोग नहीं थे. वे गैर-आर्य कबीले के थे चाहे वे साँप की पूजा करते थे या नहीं. कबीले के टोटेम के रूप में सर्प और पूजा की एक वस्तु के रूप में सर्प, ये दो अलग कारक है. पहले कारक को स्वीकार करने के लिए दूसरे को स्वीकार करना आवश्यक नहीं है. प्राचीन भारत के संपूर्ण इतिहास में यह पर्याप्त रूप से सिद्ध कर दिया गया है कि नाग के टोटेम को अपनाने वाले सत्तारूढ़ कबीले/राजवंश नाग की पूजा करनेवाले और गैर-आर्य हो ये आवश्यक नहीं है.
प्राचीन भारत के दौरान, उत्तरी भारत का सबसे अधिक भाग नागों द्वारा बसा हुआ था. ऋग्वेद में व्रित्र और तुग्र के लिए स्थान है. महाभारत कई नाग राजाओं के शोषण के विवरण से भरा है . महान महाकाव्य इन्द्रप्रस्थ या पुरानी दिल्ली के पास जमुना की घाटी में महान खांडव जंगल में रहने वाले राजा तक्षक के तहत नाग के ऐतिहासिक उत्पीड़न के साथ खुलता है.
वास्तव में नाग कबीले या जनजाति के कई बहुत शक्तिशाली राजा थे जिनमें सबसे अधिक ज्ञात थे शेषनाग या अनंत, वासुकि, तक्षक, कर्कोतक, कश्यप, ऐरावत, कोरावा और धृतराष्ट्र, जो सब कद्रु में पैदा हुए थे. धृतराष्ट्र जो सभी नागों के अग्रणी थे उनके अकेले के अपने अनुयायियों के रूप में अट्ठाईस नाग थे. उत्तर भारत में नाग के अस्तित्व को साबित करने के लिए जातक (jatakas) में भी उल्लेखों की कमी नहीं है.
इक्ष्वाकु (iksvauku) वंश के महान राजा पाटलिपुत्र के प्राचीन नाग थे. भारत राजाओं को भी सर्प जाति में सम्मिलित किया गया था. महान राजा ययति, समान रुप से महान राजा पुरु के पिता, नहुसा नाग के पुत्र और अस्तक के नाना थे. पाँच पाँडव भाई भी नाग आर्यक या अर्क के पोते के पोते थे. फिर इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि अर्जुन ने नाग राजकुमारी युलूपि से विवाह किया.
यादव भी नाग थे. ना केवल कुंती बल्कि पाँच वीर पाँडव की माता और कृष्ण की चाची, कृष्ण तो नाग प्रमुख आर्यक जो कि वासुदेव के महान दादा और यादव राजा के पितृ थे, के सीधे वंशज थे. बल्कि उनके बड़े भाई बलदेव के सिर को विशाल साँपों से ढँका हुआ प्रस्तुत किया गया है, जिसे वास्तव में छत्र कहा जाता था, जो महान राजाओं की पहचान में भेद के लिए होता था. बलदेव को शेषनाग का अंश कहा जाता है, जिसका अर्थ है या तो वह महान शेषनाग का कोई संबंधी है या उनके जितना शक्तिशाली. चूंकि यादव कुल के इन दो सूरमाओं के मामा कंस, मगध के जरसंधा राजा बर्हद्रथ के दामाद थे, हम देखते हैं कि मगध के प्राचीन राज्यवंश में भी नाग शासक के रूप में थे, जिन्हें बर्हद्रथ कहा गया.
पुराण के अनुसार मगध के बर्हद्रथ प्रद्योत द्वारा जीत लिए गए, जो बदले में शिशुनाग के अनुयायी हुए. कई लेखकों ने ठीक ही कहा है, कि शिशुनाग में मगध के पास एक नाग राजवंश उस पर शासन करने के लिए था. शिशुनाग शब्द अपने आप में ही बहुत महत्वपूर्ण है. बर्हद्रथ राजवंश जो कि एक नाग राजवंश था, के पतन के बाद एक अन्य राजवंश सत्तारूढ़ हुआ, जिसे प्रद्योत राजवंश कहा गया. परंतु यह राजवंश जो कि अपने पूर्ववर्ति नाग राजवंश से बिल्कुल भिन्न था, शिशुनाग राजवंश जैसे कि उसके नाम से ही पता चलता है कि एक नाग राजवंश है, द्वारा फिर से पराजित हुई. अर्थात प्रद्योत के एक छोटे से अंतराल के बाद नाग एक बार फिर सत्ता में आया. यह शिशुनाग बर्हद्रथ राजवंश के प्राचीन नागों के ही अनुयायी थे. प्राचीन सीनियर नाग बर्हद्रथ के अनुयायी होने के कारण सत्ता में आने के बाद एक बार फिर वे शिशुनाग या जूनियर नाग के रूप में पहचाने जाने लगे. नागओ द्वारा रक्षित बौद्ध परंपरा जो कि शिशुनाग की संस्थापक बल्कि पुंर्स्थापक थी, ने शिशुनाग की उत्पत्ति के बारे में यही सिद्ध किया है कि वह नाग थे.
यहाँ तक कि चंद्रगुप्त मौर्य भी नाग वंश के अंतर्गत माने जाते हैं. सिंधु घाटी को पार करने के बाद सिकंदर I (Alexander I) जिन लोगों के संपर्क में आया वे भी नाग थे.

शिव पर दोहे

शिव पर दोहे 
शिव को पा सकते नहीं, शिव से सकें न भाग।
शिव अंतर्मन में बसे, मिलें अगर अनुराग।।
*
शिव को भज निष्काम हो, शिव बिन चले न काम।
शिव-अनुकंपा नाम दे, शिव हैं आप अनाम।।
*‍
वृषभ-देव शिव दिगंबर, ढंकते सबकी लाज।
निर्बल के बल शिव बनें, पूर्ण करें हर काज।।
*
शिव से छल करना नहीं, बल भी रखना दूर।
भक्ति करो मन-प्राण से, बजा श्वास संतूर।।
*
शिव त्रिनेत्र से देखते, तीन लोक के भेद।
असत मिटा, सत बचाते, करते कभी न भेद।।
***
१५.१.२०१८
एफ १०८ सरिता विहार, दिल्ली

दोहा दुनिया
*
शिव शंकर ओंकार हैं, नाद ताल सुर थाप।
शिव सुमरनी सुमेरु भी, शव ही जापक-जाप।।
*
पूजा पूजक पूज्य शिव, श्लोक मंत्र श्रुति गीत।
अक्षर मुखड़ा अंतरा, लय रस छंद सुरीत।।
*
आत्म-अर्थ परमार्थ भी, शब्द-कोष शब्दार्थ।
शिव ही वेद-पुराण हैं, प्रगट-अर्थ निहितार्थ।।
*
तन शिव को ही पूजना, मन शिव का कर ध्यान।
भिन्न न शिव से जो रहे, हो जाता भगवान।।
*
इस असार संसार में, सार शिवा-शिव जान।
शिव में हो रसलीन तू, शिव रसनिधि रसखान।।
***
१६-१-२०१८ ,
विश्व वाणी हिंदी संस्थान, जबलपुर

गीत

अभिनव प्रयोग:
गीत
वात्सल्य का कंबल
संजीव
*
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
अब मिले सरदार सा सरदार भारत को
अ-सरदारों से नहीं अब देश गारत हो
असरदारों की जरूरत आज ज़्यादा है
करे फुलफिल किया वोटर से जो वादा है
एनिमी को पटकनी दे, फ्रेंड को फ्लॉवर
समर में भी यूँ लगे, चल रहा है शॉवर
हग करें क़ृष्णा से गंगा नर्मदा चंबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
मनी फॉरेन में जमा यू टर्न ले आये
लाहौर से ढाका ये कंट्री एक हो जाए
दहशतों को जीत ले इस्लाम, हो इस्लाह
हेट के मन में भरो लव, ​शाह के भी शाह
कमाई से खर्च कम हो, हो न सिर पर कर्ज
यूथ-प्रायरटी न हो मस्ती, मिटे यह मर्ज
एबिलिटी ही हो हमारा, ओनली संबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
कलरफुल लाइफ हो, वाइफ पीसफुल हे नाथ!
राजमार्गों से मिलाये हाथ हँस फुटपाथ
रिच-पुअर को क्लोद्स पूरे गॉड! पहनाना
चर्च-मस्जिद को गले, मंदिर के लगवाना
फ़िक्र नेचर की बने नेचर , न भूलें अर्थ
भूल मंगल अर्थ का जाएँ न मंगल व्यर्थ
करें लेबर पर भरोसा, छोड़ दें गैंबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
* (इस्लाम = शांति की चाह, इस्लाह = सुधार)

नवगीत

नवगीत:
संजीव
.
वह खासों में खास है
रूपया जिसके पास है
.
सब दुनिया में कर अँधियारा
वह खरीद लेता उजियारा
मेरी-तेरी खत कड़ी हो
पर उसकी होती पौ बारा
असहनीय संत्रास है
वह मालिक जग दास है
.
था तो वह सच का हत्यारा
लेकिन गया नहीं दुतकारा
न्याय वही, जो राजा करता
सौ ले दस देकर उपकारा
सीता का वनवास है
लव-कुश का उपहास है
.
अँगना गली मकां चौबारा
हर सूं उसने पैर पसारा
कोई फर्क न पड़ता उसको
हाय-हाय या जय-जयकारा
उद्धव का सन्यास है
सूर्यग्रहण खग्रास है
.

मुक्तिका

मुक्तिका:
संजीव
.
अपने क़द से बड़ा हमारा साया है
छिपा बीज में वृक्ष समझ अब आया है
खड़ा जमीं पर नन्हे पैर जमाये मैं
मत रुक, चलता रह रवि ने समझाया है
साया-साथी साथ उजाले में रहते
आँख मुँदे पर किसने साथ निभाया है?
'मैं' को 'मैं' से जुदा कर सका कब कोई
सब में रब को देखा गले लगाया है?
है अजीब संजीव मनुज जड़ पत्थर सा
अश्रु बहाता लेकिन पोंछ न पाया है
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दोहा गाथा सनातन १ / १७-२० दिसंबर २००८


Wednesday, December 17, 2008


पाठ १ : दोहा गाथा सनातन


दोहा गाथा सनातन, शारद कृपा पुनीत.
साँची साक्षी समय की, जनगण-मन की मीत.


हिन्दी ही नहीं सकल विश्व के इतिहास में केवल दोहा सबसे पुराना छंद है जिसने एक नहीं अनेक बार युद्धों को रोका है, नारी के मान-मर्यादा की रक्षा की है, भटके हुओं को रास्ता दिखाया है, देश की रक्षा की है, हिम्मत हार चुके राजा को लड़ने और जीतने का हौसला दिया है, बीमारियों से बचने की राह सुझाई है और जिंदगी को सही तरीके से जीने का तरीका ही नहीं बताया भगवान के दर्शन कराने में भी सहायक हुआ है. आप इसे दोहे की अतिरेकी प्रशंसा मत मानिये. हम इस दोहा गोष्ठी में न केवल कालजयी दोहाकारों और उनके दोहों से मिलेंगे अपितु दोहे की युग परिवर्तनकारी भूमिका के साक्षी बनकर दोहा लिखना भी सीखेंगे.

अमरकंटकी नर्मदा, दोहा अविरल धार.
गत-आगत से आज का, सतत ज्ञान व्यापार.


आप यह जानकर चकित होंगे कि जाने-अनजाने आप दैनिक जीवन में कई बार दोहे कहते-सुनते हैं. आप में से हर एक को कई दोहे याद हैं. हम दोहे के रचना-विधान पर बात करने के पहले दोहा-लेखन की कच्ची सामग्री अर्थात हिन्दी के स्वर-व्यंजन, मात्रा के प्रकार तथा मात्रा गिनने का तरीका, गण आदि की जानकारी को ताजा करेंगे. बीच-बीच में प्रसंगानुसार कुछ नए-पुराने दोहे पढ़कर आप ख़ुद दोहों से तादात्म्य अनुभव करेंगे.

कल का कल से आज ही, कलरव सा संवाद.
कल की कल हिन्दी करे, कलकल दोहा नाद.


(कल = बीता समय, आगामी समय, शान्ति, यंत्र)

भाषा :
अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है. भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ. ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ.

चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप.
दोहा सलिला निरंतर करे अनाहद जाप.


भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार गृहण कर पाते हैं. यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक) या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है.

निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द.


व्याकरण ( ग्रामर ) -

व्याकरण ( वि + आ + करण ) का अर्थ भली-भांति समझना है. व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है. भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि , शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेष्ण को जानना आवश्यक है.

वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार.
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार.


वर्ण / अक्षर :

वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं.

अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण.
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण.


स्वर ( वोवेल्स ) :

स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है. स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती. यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:. स्वर के दो प्रकार १. हृस्व ( अ, इ, उ, ऋ ) तथा दीर्घ ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं.

अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान.



व्यंजन (कांसोनेंट्स) :

व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते. व्यंजनों के चार प्रकार १. स्पर्श (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म) २. अन्तस्थ (य वर्ग - य, र, ल, व्, श), ३. (उष्म - श, ष, स ह) तथा ४. (संयुक्त - क्ष, त्र, ज्ञ) हैं. अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं.

भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव.
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव.


शब्द :

अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ.
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ.


अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है. यह भाषा का मूल तत्व है. शब्द के १. अर्थ की दृष्टि से : सार्थक (जिनसे अर्थ ज्ञात हो यथा - कलम, कविता आदि) एवं निरर्थक (जिनसे किसी अर्थ की प्रतीति न हो यथा - अगड़म बगड़म आदि), २. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से : रूढ़ (स्वतंत्र शब्द - यथा भारत, युवा, आया आदि), यौगिक (दो या अधिक शब्दों से मिलकर बने शब्द जो पृथक किए जा सकें यथा - गणवेश, छात्रावास, घोडागाडी आदि) एवं योगरूढ़ (जो दो शब्दों के मेल से बनते हैं पर किसी अन्य अर्थ का बोध कराते हैं यथा - दश + आनन = दशानन = रावण, चार + पाई = चारपाई = खाट आदि), ३. स्रोत या व्युत्पत्ति के आधार पर तत्सम (मूलतः संस्कृत शब्द जो हिन्दी में यथावत प्रयोग होते हैं यथा - अम्बुज, उत्कर्ष आदि), तद्भव (संस्कृत से उद्भूत शब्द जिनका परिवर्तित रूप हिन्दी में प्रयोग किया जाता है यथा - निद्रा से नींद, छिद्र से छेद, अर्ध से आधा, अग्नि से आग आदि) अनुकरण वाचक (विविध ध्वनियों के आधार पर कल्पित शब्द यथा - घोडे की आवाज से हिनहिनाना, बिल्ली के बोलने से म्याऊँ आदि), देशज (आदिवासियों अथवा प्रांतीय भाषाओँ से लिए गए शब्द जिनकी उत्पत्ति का स्रोत अज्ञात है यथा - खिड़की, कुल्हड़ आदि), विदेशी शब्द ( संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओँ से लिए गए शब्द जो हिन्दी में जैसे के तैसे प्रयोग होते हैं यथा - अरबी से - कानून, फकीर, औरत आदि, अंग्रेजी से - स्टेशन, स्कूल, ऑफिस आदि), ४. प्रयोग के आधार पर विकारी (वे शब्द जिनमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण के रूप में प्रयोग किए जाने पर लिंग, वचन एवं कारक के आधार पर परिवर्तन होता है यथा - लड़का लड़के लड़कों लड़कपन, अच्छा अच्छे अच्छी अच्छाइयां आदि), अविकारी (वे शब्द जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता. इन्हें अव्यय कहते हैं. इनके प्रकार क्रिया विशेषण, सम्बन्ध सूचक, समुच्चय बोधक तथा विस्मयादि बोधक हैं. यथा - यहाँ, कहाँ, जब, तब, अवश्य, कम, बहुत, सामने, किंतु, आहा, अरे आदि) भेद किए गए हैं. इनके बारे में विस्तार से जानने के लिए व्याकरण की किताब देखें. हमारा उद्देश्य केवल उतनी जानकारी को ताजा करना है जो दोहा लेखन के लिए जरूरी है.

नदियों से जल ग्रहणकर, सागर करे किलोल.
विविध स्रोत से शब्द ले, भाषा हो अनमोल.


इस पाठ को समाप्त करने के पूर्व श्रीमद्भागवत की एक द्विपदी पढिये जिसे वर्तमान दोहा का पूर्वज कहा जा सकता है -

नाहं वसामि बैकुंठे, योगिनां हृदये न च .
मद्भक्ता यत्र गायन्ति, तत्र तिष्ठामि नारद.


अर्थात-
बसूँ न मैं बैकुंठ में, योगी उर न निवास.
नारद गायें भक्त जंह, वहीं करुँ मैं वास.


इस पाठ के समापन के पूर्व कुछ पारंपरिक दोहे पढिये जो लोकोक्ति की तरह जन मन में इस तरह बस गए की उनके रचनाकार ही विस्मृत हो गए. पाठकों को जानकारी हो तो बताएं. आप अपने अंचल में प्रचलित दोहे उनके रचनाकारों की जानकारी सहित भेजें.

सरसुती के भंडार की, बड़ी अपूरब बात.
ज्यों खर्चे त्यों-त्यों बढे, बिन खर्चे घट जात.

जो तो को काँटा बुवै, ताहि बॉय तू फूल.
बाको शूल तो फूल है, तेरो है तिरसूल.

होनी तो होकर रहे, अनहोनी ना होय.
जाको राखे साइयां, मर सके नहिं कोय.

समय बिताने के लिए, करना है कुछ काम.
शुरू करो अन्त्याक्षरी, लेकर हरी का नाम.

जैसी जब भवितव्यता, तैसी बने सहाय.
आप न जाए ताहि पे, ताहि तहां ले जाय.


sahil का कहना है कि -
maja aa gaya ji,gajal ke bad,dohe!laajwab...
ALOK SINGH "SAHIL"
संगीता पुरी का कहना है कि -
बहुत सुंदर सुंदर दोहे पढाए....आभार।
रविकांत पाण्डेय का कहना है कि -
अच्छी कोशिश है। पारंपरिक दोहे जो दिये गए हैं उन्हे हमने प्रकारांतर से ऐसे सुना है-

जो तो को काँटा बुवै, ताहि बॉय तू फूल.
बाको शूल तो फूल है, तेरो है तिरसूल.

"जो तोको काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल।
तोको फूल को फूल है, वाको है तिरसूल॥"

होनी तो होकर रहे, अनहोनी ना होय.
जाको राखे साइयां, मर सके नहिं कोय.

"तुलसी भरोसे रामके, निरभय होके सोय।
अनहोनी होनी नहीं, होनी हो सो होय॥"
"जाको राखे साइयां, मार सके ना कोय।
बाल न बाँका कर सके, जो जग बैरी होय॥"

जैसी जब भवितव्यता, तैसी बने सहाय.
आप न जाए ताहि पे, ताहि तहां ले जाय.

"तुलसी जस भवितव्यता, तैसी मिले सहाय।
आप न जाए ताहि पे, ताहि तहाँ ले जाय॥"
devendra का कहना है कि -
वाह! बहुत कुछ सीखने को मिलेगा---अभी तो यह जाना कि जिसे मैं--अंताक्षरी--कहता था--वह अन्त्याक्षरी- है।
--देवेन्द्र पाण्डेय।
तपन शर्मा का कहना है कि -
कुछ ऐसी बातें सीखने को मिली जिसे हमने बचपन में पढ़ा था और अब मैं भूल चुका था... याद दिलाने के लिये शुक्रिया।
"समय बिताने के लिए, करना है कुछ काम.
शुरू करो अन्त्याक्षरी, लेकर हरी का नाम. "

ये दोहा है.. जो हम आये दिन बोलते रहते हैं..!!! कमाल है...
मुझे नहीं पत था.. :-)
दिवाकर मिश्र का कहना है कि -
बहुत अच्छा प्रयास प्रारम्भ किया है । पारम्परिक छन्द में लिखना हो तो दोहे से ही प्रारम्भ करना सबसे सरल है क्योंकि दूसरे छन्द (चौपाई को छोड़कर) प्रायः कठिन हैं । दूसरे यह बात कि दोहे की लय इतनी परिचित है कि मात्रा गिने बिना भी प्रायः दोहा सही बन जाता है ।

कुछ दोहों के स्रोत तो मिल ही गए हैं । पहले दोहे का हिन्दी में स्रोत तो पता नहीं पर संस्कृत में तो यह इस प्रकार है- (सम्भवतः नीतिशतक)-

अपूर्वः कोऽपि कोशोऽयं विद्यते तव भारति ।
व्ययतो वृद्धिमायाति क्षयमायाति संचयात् ॥
विश्व दीपक ’तन्हा’ का कहना है कि -
दोहे तो हमारी दैनिक जिंदगी का हिस्सा हैं, भले हीं हम इससे अनभिज्ञ हों।
’सलिल जी’! इस आलेख की आने वाली कड़ियों का इंतज़ार रहेगा।
वैसे मुझे इस आलेख का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि मैं ह्र्स्व, दीर्घ, अन्तस्थ, ऊष्म से पुन: रूबरू हो पाया।
इस आलेख के लिए आपका तहे-दिल से शुक्रिया।

-तन्हा
vivek ranjan shrivastava का कहना है कि -
वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में ज्यादातर बच्चे अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा पा रहे है , वे किसी तरह कक्षा १० वीं तक हिन्दी को ढ़ोते हैं , ऐसे में हिन्दी व्याकरण को समझ कर दोहे जैसे छंद पर काम करना भावी पीढ़ी के लिये कठिन है , बधाई ! कि अंतरजाल पर यह सुप्रयास संजीव जी व हिन्द युग्म द्वारा किया जा रहा है .
pooja anil का कहना है कि -
प्रणाम आचार्य जी,

आज ही पूरा पाठ पढ़ पाई, बेहद ज्ञान वर्धक और रुचिकर अध्याय है, हिन्दी व्याकरण का ज्ञान भारत से बाहर रहकर भूल ही गयी थी, पुनः याद दिलाने के लिए बहुत बहुत आभार. कक्षा में नियमित रहने की कोशिश करुँगी .

^^पूजा अनिल
Chauhan का कहना है कि -
its a btr try but 1st to tell me that where from u collect that i really impressed.thanks to given a best thing of hindi.
anirudha

Saturday, December 20, 2008


दोहा गाथा सनातन (दोहा-गोष्ठी : १)



संस्कृत पाली प्राकृत, डिंगल औ' अपभ्रंश.
दोहा सबका लाडला, सबसे पाया अंश.

दोहा दे आलोक तो, उगे सुनहरी भोर.
मौन करे रसपान जो, उसे न रुचता शोर.

सुनिए दोहा-पुरी में, संगीता की तान.
रस-निधि पा रस-लीन हों, जीवन हो रसखान.

समय क्षेत्र भाषा करें, परिवर्तन रविकान्त.
सत्य न लेकिन बदलता, कहता दोहा शांत.

सीख-सिखाना जिन्दगी, इसे बंदगी मान.
भू प्रगटे देवेन्द्र जी, करने दोहा-गान.

शीतल करता हर तपन, दोहा धरकर धीर.
भूला-बिसरा याद कर, मिटे ह्रदय की पीर.

दिव्य दिवाकर सा अमर, दोहा अनुपम छंद.
गति-यति-लय का संतुलन, देता है आनंद.

पढ़े-लिखे को भूलकर, होते तनहा अज्ञ.
दे उजियारा विश्व को, नित दीपक बन विज्ञ.

अंग्रेजी के मोह में, हैं हिन्दी से दूर.
जो वे आँखें मूंदकर, बने हुए हैं सूर.

जगभाषा हिन्दी पढ़ें, सारे पश्चिम देश.
हिंदी तजकर हिंद में, हैं बेशर्म अशेष.

सरल बहुत है कठिन भी, दोहा कहना मीत.
मन जीतें मन हारकर, जैसे संत पुनीत.

स्रोत दिवाकर का नहीं, जैसे कोई ज्ञात.
दोहे का उद्गम 'सलिल', वैसे ही अज्ञात.


दोहा-प्रेमियों की रूचि और प्रतिक्रिया हेतु आभार। दोहा रचना सम्बन्धी प्रश्नों के अभाव में हम दोहा के एतिहासिक योगदान की चर्चा करेंगे। इन्द्रप्रस्थ नरेश पृथ्वीराज चौहान अभूतपूर्व पराक्रम, श्रेष्ठ सैन्यबल, उत्तम आयुध तथा कुशल रणनीति के बाद भी मो॰ गोरी के हाथों पराजित हुए। उनकी आँखें फोड़कर उन्हें कारागार में डाल दिया गया। उनके बालसखा निपुण दोहाकार चंदबरदाई (संवत् १२०५-१२४८) ने अपने मित्र को जिल्लत की जिंदगी से आजाद कराने के लिए दोहा का सहारा लिया। उसने गोरी से सम्राट की शब्द-भेदी बाणकला की प्रशंसा कर परीक्षा किए जाने को उकसाया। परीक्षण के समय बंदी सम्राट के कानों में समीप खड़े कवि मित्र द्वारा कहा गया दोहा पढ़ा, दोहे ने गजनी के सुल्तान के आसन की ऊंचाई तथा दूरी पल भर में बतादी. असहाय दिल्लीपति ने दोहा हृदयंगम किया और लक्ष्य साध कर तीर छोड़ दिया जो सुल्तान का कंठ चीर गया। सत्तासीन सम्राट हार गया पर दोहा ने अंधे बंदी को अपनी हार को जीत में बदलने का अवसर दिया, वह कालजयी दोहा है-

चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण.
ता ऊपर सुल्तान है, मत चुक्कै चव्हाण.


इतिहास गढ़ने, मोड़ने, बदलने तथा रचने में सिद्ध दोहा की जन्म कुंडली महाकवि कालिदास (ई. पू. ३००) के विकेमोर्वशीयम के चतुर्थांक में है.

मइँ जाणिआँ मिअलोअणी, निसअणु कोइ हरेइ.
जावणु णवतलिसामल, धारारुह वरिसेई..



शृंगार रसावतार महाकवि जयदेव की निम्न द्विपदी की तरह की रचनाओं ने भी संभवतः वर्तमान दोहा के जन्म की पृष्ठभूमि तैयार करने में योगदान किया हो.

किं करिष्यति किं वदष्यति, सा चिरं विरहेऽण.
किं जनेन धनेन किं मम, जीवितेन गृहेऽण.


हिन्दी साहित्य के आदिकाल (७००ई. - १४००ई..) में नाथ सम्प्रदाय के ८४ सिद्ध संतों ने विपुल साहित्य का सृजन किया. सिद्धाचार्य सरोजवज्र (स्वयंभू / सरहपा / सरह वि. सं. ६९०) रचित दोहाकोश एवं अन्य ३९ ग्रंथों ने दोहा को प्रतिष्ठित किया।

जहि मन पवन न संचरई, रवि-ससि नांहि पवेस.
तहि वट चित्त विसाम करू, सरहे कहिअ उवेस.


दोहा की यात्रा भाषा के बदलते रूप की यात्रा है. देवसेन के इस दोहे में सतासत की विवेचना है-

जो जिण सासण भा भाषीयउ, सो मई कहियउ सारु.
जो पालइ सइ भाउ करि, सो सरि पावइ पारू.


चलते-चलते ८ वीं सदी के उत्तरार्ध का वह दोहा देखें जिसमें राजस्थानी वीरांगना युद्ध पर गए अपने प्रीतम को दोहा-दूत से संदेश भेजती है कि वह वायदे के अनुसार श्रावण की पहली तीज पर न आया तो प्रिया को जीवित नहीं पायेगा.

पिउ चित्तोड़ न आविउ, सावण पैली तीज.
जोबै बाट बिरहणी, खिण-खिण अणवे खीज.

संदेसो पिण साहिबा, पाछो फिरिय न देह.
पंछी थाल्या पींजरे, छूटण रो संदेह.


चलिए, आज की दोहा वार्ता को यहीं विश्राम दिया जाय इस निवेदन के साथ कि आपके अंचल एवं आंचलिक भाषा में जो रोचक प्रसंग दोहे में हों उन्हें खोज कर रखिये, कभी उन की भी चर्चा होगी। अभ्यास के लिए दोहों को गुनगुनाइए। राम चरित मानस अधिकतर घरों में होगा, शालेय छात्रों की पाठ्य पुस्तकों में भी दोहे हैं। दोहों की पैरोडी बनाकर भी अभ्यास कर सकते हैं। कुछ चलचित्रों (फिल्मों) में भी दोहे गाये गए हैं। बार-बार गुनगुनाने से दोहा की लय, गति एवं यति को साध सकेंगे जिनके बारे में आगे पढेंगे।

-- आचार्य संजीव 'सलिल'

manu का कहना है कि -
आचार्य ...आश्चर्या.....????????????????
मैं नहीं बस.....!!!!!!!

"" जग सारा अपना लिया , आचार्य ने आज,
क्यूं मोहे बिसरा दिया, हूँ तोसे नाराज ""

बच्चा कक्षा से डरता है तो आप उसे भुला देंगे आचार्य....??
तपन शर्मा का कहना है कि -
पिछली बार की हर टिप्पणी पर एक एके दोहा.. कमाल है गुरु जी...
हम भी कोशिश करेंगे अगली बार दोहों में ही टिप्पणी करने की... वैसे जो दोहे आपने बताये उनसे जानकारी बहुत बढी..
तपन शर्मा का कहना है कि -
हा हा...
संजीव जी के दोहों में मनु रह गये बस
आचार्य जवाब देने पर हो जायेंगे विवश...
संजीव सलिल का कहना है कि -
आचार्य संजीव 'सलिल', सम्पादक दिव्या नर्मदा
संजीवसलिल.ब्लागस्पाट.कॉम / सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम

मनु को कौन भुला सका, रहा हमेशा याद.
लेकिन पत्ता तुरुप का, लेते सबके बाद.

रूठे तो अच्छा किया, दिखा दिया यह आज.
जो अपना होता वही, अपनों से नाराज.
संजीव सलिल का कहना है कि -
आचार्य संजीव 'सलिल'
संजिव्सलिल.ब्लागस्पाट.कॉम / सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम

रोना होता है भला. आँखें होतीं साफ़.
ठीक तरह से कर सकें, दोहे से इन्साफ.

मैं क्या जानूं सिखाना, स्वयं सीखता रोज.
मनु जैसे गुरु की करुँ, हिन्दयुग्म पर खोज.

बच्चा होता बाप का, बाप यही है सत्य.
क्षणभंगुर है 'सलिल' पर, 'मनु' अविनाशी नित्य.
manu का कहना है कि -
पहले रुलाते हैं फ़िर सबसे बड़ा चाकलेट थमा देते हैं....
प्रणाम.
devendra का कहना है कि -
अंग्रेजी के मोह में‌, हैं हिन्दी से दूर
जो वे आँखें मूंदकर, बने हुए हैं सूर

बने हुए हैं सूर, चाँद का सपन दिखाते
निज हाथों से आप, देश का दीप बुझाते

--अच्छे दोहों का हुआ आज और भी ग्यान
और एक में है लिखा मेरा भी तो नाम।
--देवेन्द्र पाण्डेय।
शोभा का कहना है कि -
दोहे की महिमा पढ़ी, हुआ हृदय को हर्ष।
हमें भूल जो सब गए, होगा ना उत्कर्ष।।
संजीव सलिल का कहना है कि -
शोभा से आरम्भ है, शोभा पर ही अंत.
गीतिकाव्य का रसकलश, दोहा रसिक- न संत.

गति यति रस लय भावमय, बेधकता रस-खान.
शोभा बिम्ब-प्रतीक की, 'सलिल' फूंकती जान
शोभा का कहना है कि -
दिल गद् गद् है खुशी से, आंखें भी मुसकाएँ।
दोहा चर्चा युग्म पर, सलिल सदृश्य गति पाए।
"SURE" का कहना है कि -
लिख कर दोहे आपने किया है हिंद का मान
हर एक दोहे में छिपा है गहरा गहरा ज्ञान
सीमा सचदेव का कहना है कि -
हुआ कया जो पिछड गई ,समय की सीमा आज
पिछडे हुए ही भूल गए ,बताया गुरु ने राज

बहा जा रहा सलिल यूं ,जयों दोहा की धार
भुला के हमको तोड दी हर सीमा की दीवार

बिन सीमा हो जाएगी ,धारा बेपरवाह
सीमाओं मे बहोगे तो , मिल जाएगी थाह
निखिल आनन्द गिरि का कहना है कि -
देर हुई दरबार में, माफ करें महाराज....
दोहा-महफिल में हमें,शामिल कीजै आज...
kavita का कहना है कि -
मन मेरा हर्षित हुआ...पढ़ कर दोहा आज...
वंदन मेरा स्वीकार करे..धन्य आप महाराज!!!!!

बुधवार, 15 जनवरी 2020

डाॅ. रविशंकर शर्मा

प्रो. डाॅ. आर.एस.शर्मा (डाॅ. रविशंकर शर्मा)

- एम.डी. मेडीसिन
डी.एम. हृदय रोग (एम्स नई दिल्ली), एफ.आई.सी.पी.
हृदयरोग विशेषज्ञ इंचार्ज कार्डियोलाॅजी यूनिट, मेडीकल
काॅलेज, जबलपुर
जन्मतिथि- 11 नवंबर 1953
 वर्तमान पद- कुलपति मध्यप्रदेश आयुर्विज्ञान विश्वविद्यालय जबलपुर- 07/01/2016
 मध्यप्रदेश में उच्चतम डिग्री तथा सर्वाधिक अनुभववाले वरिष्ठतम विशेषज्ञ चिकित्सक।
 हृदयरोग विज्ञान की सर्वोच्च डिग्री हासिल करनेवाले महाकौशल क्षेत्र के प्रथम तथा संपूर्णं मध्यप्रदेश में द्वितीय
विशेषज्ञ अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान नईदिल्ली से डी.एम. हृदयरोग करने वाले मध्यप्रदेश में प्रथम विशेषज्ञ।
 सन् 1982 से मेडीकल काॅलेज में अध्यापक, ‘हृदय रोग’ विषय में डी.एम. के बाद 1984 से 31 वर्ष का अनुभव। हृदयरोग में प्रोफेसर इन कार्डियोलाॅजी (आनरेरी) का 11 वर्ष से ज्यादा का अनुभव।
 अध्यापन, शोधकार्य तथा वैज्ञानिक लेखन में अच्छी योग्यता।
 जबलपुर व महाकौशल क्षेत्र में ईकोकार्डियोग्राफी कलर डाप्लर करनेवाले प्रथम हृदयरोग विशेषज्ञ 1985 से।
 इस क्षेत्र में कोरोनरी एॅजियोग्राफी तथा एंजियोप्लास्टी करनेवाले तथा पेसमेकर लगाने वाले प्रथम हृदयरोग विशेषज्ञ।
 अंतर्राष्ट्रीय जर्नल ‘लॅसेट’ (लंदन) में मौलिक शोध प्रकाशित।
 गायत्री मंत्र, ‘ओम’, प्राणायाम तथा अन्य यौगिक क्रियाओं का मानव शरीर पर शोध करने वाले प्रथम विशेषज्ञ, इस संबंध में शोध पत्र वैज्ञानिक संगोष्ठियों में प्रस्तुत तथा वैज्ञानिक पत्रिकाओं में प्रकाशित।
 सामाजिक संगठनों के माध्यम से अनेक निःशुल्क शिविरों में सक्रिय योगदान।
 ध्यान की नई विधि विकसित ‘‘स्वयं की हृदय ध्वनि से’’ प्रकाशित।
 सूर्य ग्रहण के मानव शरीर पर प्रभाव का अध्ययन प्रकाशित।
 शंखनाद का मानव शरीर पर प्रभाव- वैज्ञानिक शोध प्रकाशित।
 कूल्हा व गर्दन का घेरा एवं हृदयरोगः मौलिक शोध प्रकाशित।
 एक नये तरह का स्टेथोस्कोप विकसित।
 हृदयमित्र सामाजिक चिकित्सकीय संस्था के प्रणेता तथा हृदयमित्र पत्रिका के संपादक।
 हृदयरोग संबंधित पुस्तक- क्लिनिकल मेथड्स इन कार्डियोलाजी के लेखक (जेपी पब्लिकेशन से प्रकाशित 2015)।
 चिकित्सा विज्ञान संबंधी रोमांचक वैज्ञानिक उपन्यास- एक्वार्यड टविन्स के लेखक- 2015 महाकौशल साहित्य एवं संस्कृति परिषद द्वारा पुरस्कृत।
 आत्महत्या को विफल करने वाला सीलिंग फेन का आविष्कार पेटेंट जर्नल में प्रकाशित 2013, श्र।च्प् 2015 .

PROF. DR. R.S. SHARMA (DR. RAVI SHANKAR SHARMA)

Father's Name : Shri D.D. Sharma
Date of Birth : 11.11.1953.
Educational Qualification : M.D. (Medicine) D.M. (Cardiology) (From All India Institute of Medical Science, New Delhi), FICP.
Present Designation: Vice-chancellor M.P. Medical Science University (07-01-2016)
Experience
Research: 31 years experience as Independent researcher also a guide to Postgraduate MD Candidates in Govt. Medical College, Jabalpur. PG Teaching and Research. Guided more than 120 students as main guide and co-guide.
: 2 years Research experience at A.I.I.M.S., New Delhi.
: Original Research work & Scientific Project Planning, Execution.
: Experiments and observations during. Total Solar eclipse-Effect on human body & mind.
International Original work : Original research work objective Grading of
heart sounds, murmurs (Lancet 1981). P612, Sep. 19 London. : Planned and executed original project work: Therapeutic benefits of & 'Gayatri Mantra'; 'OM';, 'Shankh blowing';, New Method for meditation using own heart sounds.
: DEVISED-INSTRUMENTS-INVENTIONS
1. Impulse measurement of heart force contractions. Indian heart journal 1983.
2. New type of Stethoscope-JAPI 1999, 2015
3. New Method for measurement of Intensity of heart sounds and murmurs. (Lancet 1981).
4. "Suicide free" ceiling fan invented presented in Apicon 2015. Published in Indian Patent Journal Sept. 2013.
B. Teaching Experience-
1. As Faculty: 31 years NSCB medical college, Jabalpur.
2. As RMO Medicine 2 years, Senior resident- AIIMS, New Delhi.
3. Administrative Experience- 31 years as consultant Incharge Cardiology Section of Govt. Medical College, Jabalpur. Examiner
in undergraduate, Postgraduates. 11 years experience as professor in cardiology (Hon.) Since 8.1.2004. Vice-chancellor M.P. Medical Science University (07-01-2016)
Publications : (List Attached) (International and National Journals)
1. Author of Book-'Therapeutic benefits of Gayatri Mantra 1995.
2. Editor 'Hridya Mitra'
3. Author- Book Clinical methods in cardiology 2015 Jaypee Publication.
4. Author- Medical Science fiction novel 'Acquired Twins'.
5. List of Research Publications attached. Actively attending scientific conferences CMEs, Symposia, chaired scientific sessions (List attached)
Special Expertise : Cardiac Echo, Color Doppler heart and vascular Doppler Coronary Angiography Angioplasty, Pacemaker implantation.
DETAILED LIST OF PUBLICATIONS AND RESEARCH WORK ATTACHED ON FOLLOWING PAGES
LIST OF CONFRENCES, CME, SYMPOSIA ACTIVELY ATTENDED PRESENTED PAPERS, GUEST SPEAKER, CHAIRED SESSIONS
 1. APICON 2004 at Hyderabad (AP) Presented papers 2 in number.
2. CSI Annual Conference Kolkata 2003 attended.
3. MP API Conference, Jabalpur September 2000. Presented one papers chaired one session.
4. Cardio logical Society of India Bangalore- 1996. Presented 2 papers.
5. Association of Physicians of India. Annual Conference- Caluctta 1999. Presented 2 papers.
6. MP State API Meet, Jabalpur 1998 September. Presented 2 papers, chaired one session.
7. Association of Physician of India- Guwahati 1993 December. Presented 2 papers.
8. Association of Physician of India- Jabalpur January 1990. Presented 2 papers.
9. JAPI MP Chapter - Sept. 1998 Non Pharmacological methods for management hypertension Page 17.
10. Vigyan Bharti- 1994 I Page 150 Positive Management of Cardiac arrhythomias by Gayatri Mantra- A Clinical approach.
11. JAPI- Dec. 1993 page 831- A new Clinical method using cyclic intermittent valsalva maneuver.
12. JAPI- Dec. 1993 Page 831 Negative Association of CVS morbidity and mortality in subjects practicing Gayatri Mantra.
13. JAPI- Dec. 1993 Page 852 A non pharmacological method for management of Hypertension.
14. JAPI 1990 Jan. Page 80- A new clinical method Devoid of conventional diaghragm in chest piece.
15. JAPI 1990 Page 16 study of risk factors in IHD by non invasive testing.
16. Coronary heart disease in Diabetes Smouldering Valcono RSSDI Conference Spe. 1998.
17. Indian heart Journal Sept. 1983 objective measurement of heart sound and murmur Act 125, Page 294.
18. Indian heart Journal Sept. 1983 Page 302 objective grading system of heart sounds and murmurs- Page 302.
19. Indian heart Journal IHD in young Indian Patients, clinical and cineangiography Page 302. 1983.
20. MD, Thesis- A clinical study of Atrial fibrillation. 1980.
21. New method for Pranayam using 100% oxygen. JAPI Jan 2004.
22. Diet & life style modification of CAD short term. JAPI Jan 2004.
23. Long term CAD modification. JAPI 2004.
24. Bel leaves extract in Hypertension. JAPI 2004.
25. New method for meditation using own heart sounds- Goa Apicon 2007.
26. Biofeedback using patients own heart sounds kuchi Apicon-2008
27. Religion and Spirituality- Attending religious places lowers B.P. JAPI APICON 2009, Page 70
28. Specific yogic body postures (mudras) and their correlation with body & mind parameters. JAPI APICON 2000, Page 74.
29. Observations on cardiovascular status of 'panda' with specific eating patterns. JAPI APICON 2010, Page 84.
30. Observations on incidence of undetected CVS abnormalities in qualified doctors JAPI APICON 2010, Page 90
31. Correlation of abnormal sleep patterns with HT, anxiety, GTT. JAPI APICON 2011, page 15
32. Neck circumference correlated with myocardial infarct. JAPI APICON 2011, page 19.
33. Neck circumference correlated with waist circumference. JAPI APICON 2011, page 19.
34. Hip neck ratio a new clinical sign to detect & screen CAD patients JAPI APICON 2011, page 20
35. Awake/Asleep BP ratio as a prognostic indicator in assessing cardiovascular risk, JAPI APICON 2012, January issue 2012
36. Zero Calcium score on CT coronary angio rules out significant CAD, JAPI, CVS 2012, January issue. 2012.
37. Use of stethoscope without diaphragm in chest piece- JAPI 2013 January 2013
38. Medical follow up of IHD. patients having significant CAD on angiography, JAPI 2013, January 2013.
39. An unusual case of LA Myxoma in 4 day old infant JAPI Feb. 2014 Page 80.
40. Association of ABO blood groups with ischemic heart disease JAPI Feb. 2014
41. Ceiling fan with suicide prevention device JAPI Feb 2015 Page 88
42. A new objective grading system for intensity of Respiratory sounds JAPI Feb. 2015 page 85
Recent books Authored
 Clinical methods in cardiology- Jaypee Publications Delhi.
 Hridaya Mitra Jan 2015
 Acquired Twins- Man made twins- Medical Science fiction novel-2015
 Therapeutic benefits of Gayatri Mantra- xk;=h ea= ds fpfdRldh; izHkko&2011
Chaired Session.
 APICON 2009
 National Radiology Conference 2010 Oct.
 IMA MPCON 2010 Nov.
 Indian menopausal society Feb. 2011.
 Medicine update API Sept. 2013.
 Medicine update API Feb. 2015.
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जबलपुर। मध्य प्रदेश आयुर्विज्ञान विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ आरएस शर्मा ने कहा कि मेडिकल साइंस केवल साइंस नहीं बल्कि आर्ट भी है। इसमें अपने हुनर को हमेशा निखारना होता है। डॉ. शर्मा नेताजी सुभाषचंद्र बोस मेडिकल कॉलेज (एनएसबी) के सभागार में आयोजित फाउंडेशन कोर्स के शुभारंभ अवसर पर मुख्य अतिथि की आसंदी से 2019 बैच के छात्रों को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने आगे कहा प्रदेश की मेडिकल साइंस यूनिवर्सिटी मेडिकल के छात्रों के लिए स्टूडेंट फ्रेंडली यूनिवर्सिटी है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस मेडिकल कॉलेज प्रदेश का नहीं देश का सबसे अच्छा मेडिकल कॉलेज है। आप भाग्यशाली हैं, जिन्हें इस कॉलेज में चिकित्सा शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला है।
नया सीखने को मिलेगा
कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए कॉलेज के डीन डॉ. नवनीत सक्सेना हर मरीज के ट्रीटमेंट के दौरान कुछ न कुछ नया सीखने को मिलेगा। मरीज क्या चाहता है यह आपके लिए जरूरी। आपको प्रतिदिन कुछ नया करने का अवसर मिलेगा। आप अपने को स्मार्ट फोन की तरह रोज अपडेट करें। इसके बाद अस्पताल के प्रभारी अधीक्षक डॉ. परवेज सिद्दकी ने अपने विचार रखे। कार्यक्रम में डॉ. लक्ष्मी सिंगोतिया, निश्चेतना विभाग के प्रमुख डॉ. आशीष सेठी, डॉ. प्रदीप कसार, डॉ. नेहा गुप्ता सहित बड़ी संख्या में कॉलेज के प्रोफेसर व डॉक्टर्स उपस्थित रहे। समापन अवसर पर फाउंडेशन कोर्स के कोआर्डिनेटर डॉ. अशोक साहू ने आभार व्यक्त करते हुए कहा कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है और परिवर्तन से ही विकास होता है। कोर्स के शुभारंभ के साथ आज का दिन ऐतिहासिक हो गया है। कार्यक्रम को सफल बनाने में कॅरिकुलम कमेटी की डॉ. रीति जैन, डॉ. शशिबाला शर्मा का विशेष सहयोग रहा।

डॉ. रविशंकर शर्मा


अभिनन्दन
डॉ. रविशंकर शर्मा
*
नदी सनातन नर्मदा, सकल जगत विख्यात
जबलपुर नगरी अमित, सिद्धि भूमि प्रख्यात

विद्यालय मॉडल यहाँ, गुरुकुल भाँति पवित्र
ऋषियों सम गुरुजन सतत, शोभित ज्यों मुनि चित्र

लज्जा शंकर झा सदृश , गुरुवर श्रेष्ठ सुजान
शिवप्रसाद जी निगम सम, अन्य नहीं गुणवान

कानाडे जी समर्पित, शिक्षक लेखक आप्त
रहे गोंटिया जी कुशल, चिंतक कीर्ति सुव्याप्त

रविशंकर बालक हुआ, शिक्षा हेतु प्रविष्ट
गुरु-हाथों ने निखारा, रूप किशोर सुशिष्ट

रट्टू तोता बन नहीं, समझ विषय गह सार
सीख ह्रदय में बसाई, रवि को मिला दुलार

क्षेत्र चिकित्सा का चुना, ह्रदय रोग हो दूर
कैसे चिंता मन बसी, खोज करी भरपूर

एन एस सी बी मेडिकल, कॉलेज में पा काम
विषय चिकित्सा पढ़ाकर, पाई कीर्ति सुनाम

कलर डॉप्लर का किया, सर्व प्रथम उपयोग
एंजियोग्राफी दक्षता, से कुछ कम हो रोग

एंजियोप्लास्टी सीखकर, अपनाई तकनीक
मंत्रोच्चारण का असर, परख गढ़ी नव लीक

ओंs कार उच्चार से, हृद गति हो सामान्य
गायत्री जप शांति दे, पीर हरें आराध्य

सूर्य ग्रहण  सँग मनुज तन, कैसे करे निभाव?
शंख नाद ध्वनि-तरंगों,  का क्या पड़े प्रभाव?

कूल्हे - गर्दन संग क्या, ह्रदय रोग संबंध?
नवाचार कर शोध से, दी नव रीति प्रबंध

स्टेथो स्कोप नव खोजा, कर नव क्रांति
'ह्रदय मित्र' पत्रिका रही, मिटा निरंतर भ्रांति

'एक्वायर्ड ट्विंस' नाम से, उपन्यास लिख एक
रविशंकर ने दिखाया, कौशल बुद्धि विवेक

'ह्रदय चिकित्सा रीतियाँ', मौलिक ग्रंथ विशेष
लिखा आंग्ल में मिली है, तुमको कीर्ति अशेष

हिंदी में अनुवाद से, भाषा हो संपन्न
पढ़ें चिकित्सा शास्त्र हम, हिंदी में आसन्न

'रविशंकर' ने तलाशी, नयी राह रख चाह
रोग मिटे; रोगी हँसे, दुनिया करती वाह

मॉडेलियन मिल कर रहे, स्वागत आओ मीत
भुज भेंटो मिल गढ़ सकें, हम सब अभिनव रीत 

'रविशंकर' ने तलाशे, नए-नए आयाम
हमें गर्व तुम पर बहुत, काम किया निष्काम

कुलपति पद शोभित हुआ, तुमको पाकर मित्र !
प्रमुदित यूनिवर्सिटी है, प्रसरित दस दिश इत्र

हाथ मिलकर हाथ से, रखें कदम हम साथ
श्रेष्ठ बनायें शहर को, रहें उठाकर माथ   

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शब्द सुमन : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
विश्ववाणी हिंदी संस्थान
४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर
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salil.sanjiv@gmail.com




 

सोमवार, 13 जनवरी 2020

फारसी सरस्वती अनाहिता

फारसी सरस्वती अनाहिता 

अनाहिता / ɑː n ː h i ɑː t the / एक ईरानी देवी के नाम का पुराना फ़ारसी रूप है। यह अरदेवी सुरा अनहिता (Arɑːdvī Sūrāāāāāāāā) के रूप में पूर्ण और पूर्व रूप में प्राप्य है। यह एक इंडो-ईरानी कॉस्मोलॉजिकल चरित्र का अवतरण नाम है। यह "वाटर्स" (अबन) की दिव्यता के रूप में प्रजनन क्षमता, चिकित्सा और ज्ञान के साथ जुड़ा है। अरदेवी सुरा अनाहिता मध्य और आधुनिक फारसी में अर्दवीसुर अनाहिद या नाहिद और अर्मेनियाई में अनाहित है। अरदेवी सुरा अनाहिता का एक प्रतिष्ठित तीर्थस्थल ४ वीं शताब्दी ईसा पूर्व से सैसनैड्स के तहत आइकनोक्लास्टिक आंदोलन द्वारा दबाने तक चला।"

शास्त्रीय पुरातनता के ग्रीक और रोमन इतिहासकारों ने उसे अनाटिस या एक पेंटीहिन माना। एक सिलिकिक एस-टाइप क्षुद्र ग्रह का नाम अनाहिता के नाम पर रखा गया है। अपने पंथ के विकास के आधार पर, उन्हें एक समकालिक देवी के रूप में वर्णित किया गया जो दो स्वतंत्र तत्वों से बनी थीं। पहला स्वर्गीय नदी का भारतीय-ईरानी चिंतन जो पृथ्वी पर प्रवाहित नदियों को पानी प्रदान करती है, दूसरा अनूठी विशेषताओं से संयुक्त अनिश्चित मूल की एक देवीजो प्राचीन मेसोपोटामिया की देवी इन्ना-ईशर के पंथ के साथ संबद्ध है। अन्य सिद्धांत के अनुसार, यह आंशिक रूप से उत्तर पश्चिम से फारस के बाकी हिस्सों में फैलने के बाद अनाहिता को पारसी धर्म का हिस्सा बनाती है। एच. लोमेल के अनुसार, भारत-ईरानी समय में देवत्व की पर्याय सरस्वती का अर्थ "वह जो पानी रखने वाला है" है। संस्कृत में, नाम रावी शुरा अनाहिता का अर्थ है "जल, पराक्रमी और निष्कलंक"। अर्द्वी (अज्ञात, मूल अर्थ "नम") देवत्व के लिए विशिष्ट है।अवेतन भाषा के विशेषण सोर "पराक्रमी" और अहाता "शुद्ध" अन्य ईश्वरीय अवधारणाओं होमाऔर फ़्रावाशीज़ के रूप में वैदिक संस्कृत में भी प्रमाणित हैं। जल देवता के रूप में, भारत-ईरानी मूल का है। लोमेल के अनुसार संस्कृत सरस्वती का प्रोटो-ईरानी समतुल्य हरवाहति , इंडो-ईरानी सरस्वती के समान है । नदियों में समृद्ध क्षेत्र हरवाहति की आधुनिक राजधानी दिल्ली है (अवेस्तान हरैक्स वी एटि , ओल्ड पर्शियन हारा (एच) उवति- , ग्रीक अरचोसिया )।देवी सरस्वती की तरह, [अरदेवी सुरा अनाहिता] फसलों और झुंडों का पोषण और पौराणिक नदी के रूप में सत्कार करती है। वह 'पृथ्वी पर बहनेवाले सभी जल स्रोतों में महान है।" अनहिता आर्य जड़ों और स्वर्गीय नदी की जिस साझा अवधारणा का प्रतिनिधित्व करती थी, वही वेदों में देवी सरस्वती (बाद में देवी गंगा) के रूप में प्रगटी। उसका अन्य कोई समकक्ष नहीं था। ससनीद और बाद के फारसी ग्रंथों में, अर्द्वि श्रा अनाहता अर्दविसुर अनादि के रूप में प्रकट होता है। प्रमाण में अनाहत के एक पश्चिमी ईरानी मूल का पता चलता है। अनाहिता ने स्लाव पौराणिक कथाओं में मैट जेमल्या (धरती माँ) के साथ विशेषताओं को साझा किया है।

ईशर एडिट के साथ संघर्ष
चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में याज़ात को सेमिटिक इस्त्तर, [के साथ विरासत में उर्वर यौवन और अरदेवी सुरा अनहिता को युद्ध और शुक्र ग्रह (अरबी में "ज़ोह्रे") की दिव्यता प्रदान की गयीं। शुक्र ग्रह के साथ संबद्धता ने हेरोडोटस से लिखवाया कि [ पर्सिस ] ने" असीमियों और अरबियों से "स्वर्गीय देवी" को बलि देना सीखा। इसी आधार पर प्राचीन फारसी लोग जो शुक्र ग्रह को "अनाहिती", "शुद्ध एक" के रूप में पूजते थे, पूर्वी ईरान में बस गए। अनाहति ने ईशर के पंथ के तत्वों को अवशोषित करना शुरू किया। बोयस के अनुसार, एक बार एक पर्सो एनामाइट (ग्रीक देव अनाइटिस का पुनर्जन्म) ईशर का एक एनालॉग (प्रतिरूप) था, के साथ अरदेवी सुरा अनाहिता को जब्त कर लिया गया था।

अनाहिता और ईशर के बीच की कड़ी इस व्यापक सिद्धांत का हिस्सा है कि ईरानी राजाओं में मेसोपोटामियन की जड़ें थीं और फारसी देवता बेबीलोनियन देवताओं के प्राकृतिक विस्तार थे, जहाँ अहुरमज़दा को मर्दुक का एक पहलू माना जाता है। ईशर ने अराधवी सुरा अनाहिता को एपिटेट बानू , 'द लेडी' कहा जो पहले ईरान में देवत्व के लिए एक एपिटेट के रूप में नहीं देखा गया। यह अवेस्ता के ग्रंथों में पूरी तरह से अज्ञात है। सस्सानिद-युग के मध्य फ़ारसी शिलालेखों, यासन के मध्य फ़ारसी ज़ेंड अनुवाद के बाद के विजय काल (६५१ CE) के बाद के जोरास्ट्रियन ग्रंथों में, देवत्व को 'अनाहिद द लेडी', 'अर्दविसुर द लेडी' और 'आर्दविसुर द लेडी ऑफ द वॉटर' कहा गया है। पुरानी पश्चिमी ईरानी मान्यतानुसार देवत्व अनासक्त है। बोयस के अनुसार पश्चिमी ईरान में पारसी धर्म की शुरुआत (५ वीं शताब्दी ईसा पूर्व) में "इस देवी के लिए आचमनियों की भक्ति पारसी धर्म में उनके रूपांतरण से बच गई, और उन्होंने शाही प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए उसे जोरोस्ट्रियन पैन्थियन में अपना लिया।" कॉन्स्टेंटाइन के काल में अनहिता शायद आर्टैक्सएरेक्सस, जोरोस्ट्रियन धर्म और उसके संशोधित कैनन में शामिल" प्रारंभिक और शुद्ध पारसी धर्म का एक देवता था। "

कॉस्मोलॉजिकल इकाई
विश्व नदी के ब्रह्माण्ड संबंधी गुणों को यश ५ व बुंडाहिश में ११ वीं ईस्वी में रचित पारसी खाता दोनों ग्रंथों में, अरदेवी सुरा अनाहिता न केवल देवत्व, बल्कि विश्व नदी का स्रोत और नाम भी है। ब्रह्माण्ड संबंधी कथा के अनुसार अहुरा मज़्दा द्वारा बनाई गई दुनिया के सभी जल स्रोत अरदेवी सुरा अनाहिता से उत्पन्न होते हैं, जीवन-वृद्धि, झुंड-बढ़ती, गुना-वृद्धि, जो सभी देशों को समृद्धि बनाती है। यह स्रोत विश्व पर्वत हारा बेरेज़ेटी , "उच्च हारा" के शीर्ष पर है, जिसके चारों ओर आकाश घूमता है और यह माज़दा द्वारा बनाई गई भूमियों में से सबसे पहले एयरइनेम वैजाह के केंद्र में है। पानी, गर्म और स्पष्ट, माउंट हगर, "बुलंद" की ओर एक सौ हज़ार सुनहरे चैनलों से बहता है, जो हारा बेरीज़िती की बेटी-चोटियों में से एक है। उस पर्वत के शिखर पर "उथल-पुथल" झील उरविस है, जिसमें पानी का प्रवाह, काफी शुद्ध और एक और सुनहरे चैनल के माध्यम से बाहर निकल रहा है। उस चैनल के माध्यम से, जो एक हज़ार आदमियों की ऊँचाई पर है, महान वसंत का एक हिस्सा अरादेवी सुरा अनाहिता पूरी पृथ्वी पर नमी में डूब जाता है, जहाँ यह हवा का सूखापन मिटाता है। माज़दा के सभी जीव इससे स्वास्थ्य प्राप्त करते हैं। एक अन्य भाग, महान समुद्र वूरुकाशा तक जाता है, जिस पर पृथ्वी टिकी हुई है, और जहाँ से यह दुनिया के समुद्रों और महासागरों में बहती है और उन्हें शुद्ध करती है। बुंडाहिश्न में, "अर्दविसुर अनाहिद" नाम के दो हिस्से पानी के प्रतिनिधि के रूप में अर्दविसुर के साथ, और अनाहिद शुक्र ग्रह के साथ पहचाने जाते हैं। सभी झीलों और समुद्रों का पानी है अर्दविसुर। तारों और ग्रहों के निर्माण संबंधी खंड में, बुंडाहिशन 'अनाहिद मैं अबाक्षारी', यानी शुक्र ग्रह की बात करता है। "अर्दविसुर अनाहीद, वाटर्स के पिता और माता" हैं । माउंट हारा से उतरने वाली नदी की यह किंवदंती कई पीढ़ियों तक जीवित रही। एशिया माइनर में रोमन काल के एक ग्रीक शिलालेख में लिखा गया है "उच्च हारा की महान देवी अनातिस"। शाही युग के ग्रीक सिक्कों पर, उसे "पवित्र जल का अनातीस" कहा जाता है।

शास्त्र में

४ थी - ६ वी शताब्दी की चांदी और गिल्ट ससानियन पोत पर अनाहिता अंकित है। (कला का क्लीवलैंड संग्रहालय) अरदेवी सुरा अनाहिता को मुख्य रूप से यश ५ ( यसन ६५) में संबोधित किया गया है, जिसे अबान यश के रूप में भी जाना जाता है, जो अवस्तान में पानी के लिए एक भजन है। यसन ६५, एबीएन जोहर में तीसरा भजन "जल को अर्पित करना" है जो कि यज्ञ सेवा के समापन संस्कारों के साथ होता है। यश ५ के छंद भी अबान न्येश के अधिक से अधिक भाग का निर्माण करते हैं, जो जल में खोदेह अवेस्ता का एक भाग है। न्यबर्ग के अनुसार [३०] और लोमेल [३१] और विडेनग्रेन द्वारा समर्थित, [३२] अबान यश के पुराने हिस्से मूल रूप से बहुत शुरुआती तारीख में तैयार किए गए थे । यज्ञ ३ ,, जो "पृथ्वी और पवित्र जल के लिए" समर्पित है और सात-अध्याय यज्ञ हप्तान्गति का हिस्सा है, भाषाई रूप से गाथों की तरह पुराना है।

अबान यश में , यज़्ता नदी को "महान वसंत अर्दवी सुरा अनाहिता जीवन-वृद्धि, झुंड-बढ़ती, गुना-वृद्धि जो सभी देशों के लिए समृद्धि बनाती है" (५.१) के रूप में वर्णित किया गया है। वह "व्यापक प्रवाह और चिकित्सा की देवी" है। वह अहुरा की विद्या के लिए समर्पित" है। वह प्रजनन क्षमता से जुड़ी हुई है, पुरुषों के बीज, महिलाओं के वोमब को शुद्ध करती है , नवजात शिशुओं के लिए दूध के प्रवाह को प्रोत्साहित करती है। नदी के देवत्व के रूप में, वह मिट्टी की उर्वरता और फसलों की वृद्धि के लिए जिम्मेदार है, जो मनुष्य और जानवर दोनों का पोषण करती है। वह एक सुंदर, मजबूत युवती है, जिसने बीवर की खाल पहनी है। पानी और ज्ञान के बीच का संबंध जो कई प्राचीन संस्कृतियों के लिए आम है, अबन यश में भी स्पष्ट है, यहाँ अरिदेवी सुरा वह दिव्यता है जिसके लिए पुजारियों और विद्यार्थियों को अंतर्दृष्टि और ज्ञान के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। श्लोक ५.१२० में उसे "हवा", "बारिश", "बादल" और "स्लीट" नामक चार घोड़ों द्वारा खींचे गए रथ की सवारी करते देखा गया है। नए गद्यांशों में उसे "स्टैच्यूज़ स्टिलनेस", "कभी देखा गया" के रूप में वर्णित किया गया है, जिसे एक सुनहरा मुकुट, हार और झुमके, सुनहरे स्तन-आभूषण, और सोने से सजे हुए टखने-बूटों के साथ पहना जाता है।अराधवी सुरा अनाहिता उन पर मेहरबान होती है जो उसे खुश करते हैं, जो नहीं करते हैं उनके प्रति कठोर रहती हैं।