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शनिवार, 15 सितंबर 2018

समीक्षा

कृति चर्चा: 
हम जंगल के अमलतास : नवाशा प्रवाही नवगीत संकलन
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४ 
[कृति विवरण: हम जंगल के अमलतास, नवगीत संग्रह, आचार्य भगवत दुबे, २००८, पृष्ठ १२०, १५० रु., आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेटयुक्त, प्रकाशक कादंबरी जबलपुर, संपर्क: २६७२ विमल स्मृति, समीप पिसनहारी मढ़िया, जबलपुर ४८२००३, चलभाष ९३००६१३९७५]

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विश्ववाणी हिंदी के समृद्ध वांग्मय को रसप्लावित करती नवगीतीय भावधारा के समर्थ-सशक्त हस्ताक्षर आचार्य भगवत दुबे के नवगीत उनके व्यक्तित्व की तरह सहज, सरल, खुरदरे, प्राणवंत ततः जिजीविषाजयी हैं. इन नवगीतों का कथ्य सामाजिक विसंगतियों के मरुस्थल  में मृग-मरीचिका की तरह आँखों में झूलते - टूटते स्वप्नों को पूरी बेबाकी से उद्घाटित तो करता है किन्तु हताश-निराश होकर आर्तनाद नहीं करता. ये नवगीत विधागत संकीर्ण मान्यताओं की अनदेखी कर, नवाशा का संचार करते हुए, अपने पद-चिन्हों से नव सृअन-पथ का अभिषेक करते हैं. संग्रह के प्रथम नवगीत 'ध्वजा नवगीत की' में आचार्य दुबे नवगीत के उन तत्वों का उल्लेख करते हैं जिन्हें वे नवगीत में आवश्यक मानते हैं:
                       नव प्रतीक, नव ताल, छंद नव लाये हैं 
                       जन-जीवन के सारे चित्र बनाये हैं 
                                              की सरगम तैयार नये संगीत की 
                       कसे उक्ति वैचित्र्य, चमत्कृत करते हैं 
                       छोटी सी गागर में सागर भरते हैं 
                                              जहाँ मछलियाँ विचरण करें प्रतीत की 
                       जो विरूपतायें समाज में दिखती हैं 
                       गीत पंक्तियाँ उसी व्यथा को लिखती हैं 
                                              लीक छोड़ दी पारंपरिक अतीत की 
                                              अब फहराने लगी ध्वजा नवगीत की 

सजग महाकाव्यकार, निपुण दोहाकार, प्रसिद्ध गजलकार, कुशल कहानीकार, विद्वान समीक्षक, सहृदय लोकगीतकार, मौलिक हाइकुकार आदि विविध रूपों में दुबे जी सतत सृजन कर चर्चित-सम्मानित हुए हैं. इन नवगीतों का वैशिष्ट्य आंचलिक जन-जीवन से अनुप्राणित होकर ग्राम्य जीवन के सहजानंद को शहरी जीवन के त्रासद वैभव पर वरीयता देते हुए मानव मूल्यों को शिखर पर स्थापित करना है. प्रो. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' इन नवगीतों के संबंध में ठीक ही लिखते हैं: '...भाषा, छंद, लय, बिम्ब और प्रतीकों के समन्वित-सज्जित प्रयोग की कसौटी पर भी दुबे जी खरे उतरते हैं. उनके गीत थके-हरे और अवसाद-जर्जर मानव-मन को आस्था और विश्वास की लोकांतर यात्रा करने में पूर्णत: सफल हुए हैं. अलंकार लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रचुर प्रयोग ने गीतों में जो ताजगी और खुशबू भर दी है, वह श्लाघनीय है.' 

निराला द्वारा 'नव गति, नव लय, ताल-छंद नव' के आव्हान से नवगीत का प्रादुर्भाव मानने और स्व. राजेंद्र प्रसाद सिंह तथा स्व. शम्भुनाथ सिंह द्वारा प्रतिष्ठापित नवगीत को उद्भव काल की मान्यताओं और सीमाओं में कैद रखने का आग्रह करनेवाले नवगीतकार यह विस्मृत कट देते हैं कि काव्य विधा पल-पल परिवर्तित होती सलिला सदृश्य किसी विशिष्ट भाव-भंगिमा में कैद की ही नहीं जा सकती. सतत बदलाव ही काव्य की प्राण शक्ति है. दुबे जी नवगीत में परिवर्तन के पक्षधर हैं: "पिंजरों में जंगल की / मैना मत पालिये / पाँव  में हवाओं के / बेड़ी मत डालिए... अब तक हैं यायावर' 

यथार्थवाद और प्रगतिवाद के खोखले नारों पर आधरित तथाकथित प्रगतिवादी कविता की नीरसता के व्यूह को अपने सरस नवगीतों से छिन्न-भिन्न करते हुए दुबे जी अपने नवगीतों को छद्म क्रांतिधर्मिता से बचाकर रचनात्मक अनुभूतियों और सृजनात्मकता की और उन्मुख कर पाते हैं: 'जुल्म का अनुवाद / ये टूटी पसलियाँ हैं / देखिये जिस ओर / आतंकी बिजलियाँ हैं / हो रहे तेजाब जैसे / वक्त के तेव ... युगीन विसंतियों के निराकरण के उपाय भी घातक हैं: 'उर्वरक डाले विषैले / मूक माटी में / उग रहे हथियार पीने / शांत घाटी में'...   किन्तु कहीं भी हताशा-निराशा या अवसाद नहीं है. अगले ही पल नवगीत आव्हान करता है: 'रूढ़ि-अंधविश्वासों की ये काराएँ तोड़ें'...'भ्रम के खरपतवार / ज्ञान की खुरपी से गोड़ें'. युगीन विडंबनाओं के साथ समन्वय और नवनिर्माण का स्वर समन्वित कर दुबेजी नवगीत को उद्देश्यपरक बना देते हैं.

राजनैतिक विद्रूपता का जीवंत चित्रण देखें: 'चीरहरण हो जाया करते / शकुनी के पाँसों से / छली गयी है प्रजा हमेशा / सत्ता के झाँसों से / राजनीti में सम्मानित / होती करतूतें काली'  प्रकृति का सानिंध्य चेतना और स्फूर्ति देता है. अतः, पर्यावरण की सुरक्षा हमारा दायित्व है:

कभी ग्रीष्म, पावस, शीतलता 
कभी वसंत सुहाना 
विपुल खनिज-फल-फूल अन्न 
जल-वायु प्रकृति से पाना
पर्यावरण सुरक्षा करके 
हों हम मुक्त ऋणों से 

नकारात्मता में भी सकरात्मकता देख पाने की दृष्टि स्वागतेय है:

ग्रीष्म ने जब भी जलाये पाँव मेरे
पीर की अनुभूति से परिचय हुआ है...

.....भ्रूण अँकुराये लता की कोख में जब 
     हार में भी जीत का निश्चय हुआ है. 

प्रो. विद्यानंदन राजीव के अनुसार ये 'नवगीत वर्तमान जीवन के यथार्थ से न केवल रू-ब-रू होते हैं वरन सामाजिक विसंगतियों से मुठभेड़ करने की प्रहारक मुद्रा में दिखाई देते हैं.'

सामाजिक मर्यादा को क्षत-विक्षत करती स्थिति का चित्रण देखें: 'आबरू बेशर्म होकर / दे रही न्योते प्रणय के / हैं घिनौने चित्र ये / अंग्रेजियत से संविलय के / कर रही है यौन शिक्षा / मार्गदर्शन मनचलों का'

मौसमी परिवर्तनों पर दुबे जी के नवगीतों की मुद्रा अपनी मिसाल आप है: 'सूरज मार  रहा किरणों के / कस-कस कर कोड़े / हवा हुई ज्वर ग्रस्त / देह पीली वृक्षों की / उलझी प्रश्नावली / नदी तट के यक्षों की / किन्तु युधिष्ठिर कृषक / धैर्य की वल्गा ना छोड़े.''

नवगीतकारों के सम्मुख नव छंद की समस्या प्राय: मुँह बाये रहती है. विवेच्य संग्रह के नवगीत पिन्गलीय विधानों का पालन करते हुए भी कथ्य की आवश्यकतानुसार गति-यति में परिवर्तन कर नवता की रक्षा कर पाते हैं.

'ध्वजा नवगीत की' शीर्षक नवगीत में २२-२२-२१ मात्रीय पंक्तियों के ६ अंतरे हैं. पहला समूह मुखड़े का कार्य कर रहा है, शेष समूह अंतरे के रूप में हैं. तृतीय पंक्ति में आनुप्रसिक तुकांतता का पालन किया गया है.

'हम जंगल के अमलतास' शीर्षक नवगीत पर कृति का नामकरण किया गया है. यह नवगीत महाभागवत जाति के गीतिका छंद में १४+१२ = २६ मात्रीय पंक्तियों में रचा गया है तथा पंक्त्यांत में  लघु-गुरु का भी पालन है. मुखड़े में २ तथा अंतरों में ३-३ पंक्तियाँ हैं.

'जहाँ लोकरस रहते शहदीले' शीर्षक रचना महाभागवत जातीय छंद में है.  मुखड़े तथा २ अंतरांत में गुरु-गुरु का पालन है, जबकि ३ रे अंतरे में एक गुरु है. यति में विविधता है: १६-१०, ११-१५, १४-१२.

'हार न मानी अच्छाई ने' शीर्षक गीत में प्रत्येक पंक्ति १६ मात्रीय है. मुखड़ा १६+१६=३२ मात्रिक है. अंतरे में ३२ मात्रिक २ (१६x४)  समतुकांती पंक्तियाँ है. सवैया के समान मात्राएँ होने पर भी पंक्त्यांत में भगण न होने से यह सवैया गीत नहीं है.

'ममता का छप्पर'  नवगीत महाभागवत जाति का है किन्तु यति में विविधता  १६+१०, ११+१५, १५+११ आदि के कारण यह मिश्रित संकर छंद में है.

'बेड़ियाँ न डालिये' के अंतरे में १२+११=२३ मात्रिक २ पंक्तियाँ, पहले-तीसरे अंतरे में १२+१२=२४ मात्रिक २-२ पंक्तियाँ तथा दूसरे अंतरे में १०+१३=२३ मात्रिक २ पंक्तियाँ है. तीनों अंतरों के अंत में मुखड़े के सामान १२+१२ मात्रिक पंक्ति है. गीत में मात्रिक तथा यति की विविधता के बावजूद प्रवाह भंग नहीं है.

'नंगपन ऊँचे महल का शील है' शीर्षक गीत महापौराणिक जातीय छंद में है. अधिकांश पंक्तियों में ग्रंथि छंद के पिन्गलीय विधान (पंक्त्यांत लघु-गुरु) का पालन है किन्तु कहीं-कहीं अंत के गुरु को २ लघु में बदल लिया गया है तथापि लय भंग न हो इसका ध्यान रखा गया है.

वृद्ध मेघ क्वांर के (मुखड़ा १२+११ x २, ३ अन्तरा १२+१२ x २ + १२+ ११), वक्त यह बहुरुपिया (मुखड़ा १४+१२ , १-३ अन्तरा १४+१२ x ३, २ अन्तरा १२+ १४ x २ अ= १४=१२), यातनाओं की सुई (मुखड़ा १९,२०,१९,१९, ३ अन्तरा १९ x ६), हम त्रिशंकु जैसे तारे हैं, नयन लाज के भी झुक जाते - पादाकुलक छंद(मुखड़ा १६x २, ३ अन्तरा १६x ६), स्वार्थी सब शिखरस्थ हुए- महाभागवत जाति (२६ मात्रीय), हवा हुई ज्वर ग्रस्त २५ या २६ मात्रा, मार्गदर्शन मनचलों का-यौगिक जाति (मुखड़ा १४ x ४, ३ अन्तरा २८ x २ ), आचरण आदर्श के बौने हुए- महापौराणिक जाति (मुखड़ा १९ x २, ३ अन्तरा १९ x ४), पसलियाँ बचीं (मुखड़ा १२+८,  १०=१०, ३ अन्तरा २०, २१ या २२ मात्रिक ४ पंक्तियाँ), खर्राटे भर रहे पहरुए (मुखड़ा १६ x २+१०, ३ अन्तरा १४ x ३ + १६+ १०),समय क्रूर डाकू ददुआ (मुखड़ा १६+१४ x २, ३ अन्तरा १६ x ४ + १४), दिल्ली तक जाएँगी लपटें (मुखड़ा २६x २, ३ अन्तरा २६x २ + २६), ओछे गणवेश (मुखड़ा २१ x २, ३ अन्तरा २० x २ + १२+१२ या ९), बूढ़ा हुआ बसंत (मुखड़ा २६ x २, ३ अन्तरा १६ x २ + २६), ब्याज रहे भरते (मुखड़ा २६ x २, ३ अन्तरा २६ x २ + २६) आदि से स्पष्ट है कि दुबे जी को छंदों पर अधिकार प्राप्त है. वे छंद के मानक रूप के अतिरिक्त कथ्य की माँग पर परिवर्तित रूप का प्रयोग भी करते हैं. वे लय को साधते हैं, यति-स्थान को नहीं. इससे उन्हें शब्द-चयन तथा शब्द-प्रयोग में सुविधा तथा स्वतंत्रता मिल जाती है जिससे भाव की समुचित अभिव्यक्ति संभव हो पाती है.

इन नवगीतों में खड़ी हिंदी, देशज बुन्देली, यदा-कदा उर्दू व् अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग, मुहावरों तथा लोकोक्तियों का प्रयोग हुआ है जो लालित्य में वृद्धि करता है. दुबे जी कथ्यानुसार प्रतीकों, बिम्बों, उपमाओं तथा रूपकों का प्रयोग करते हैं. उनका मत है: 'इस नयी विधा ने काव्य पर कुटिलतापूर्वक लादे गए अतिबौद्धिक अछ्न्दिल बोझ को हल्का अवश्य किया है.' हम जंगल के अमलतास' एक महत्वपूर्ण नवगीत संग्रह है जो छान्दस वैविध्य और लालित्यपूर्ण अभिव्यक्ति से परिपूर्ण है.
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संपर्क: २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१.

   
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Sanjiv verma 'Salil', 94251 83244

facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

कृति-चर्चा:
चीखती टिटहरी हाँफता अलाव : नवगीत का अनूठा रचाव
संजीव 
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[कृति-विवरण: चीखती टिटहरी हाँफता अलाव, नवगीत संग्रह, डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ १३१, १८०/-, वर्ष २०११, अयन प्रकाशन महरौली नई दिल्ली, नवगीतकार संपर्क: ८६ तिलक नगर, बाई पास मार्ग फीरोजाबाद २८३२०३, चलभाष  ९४१२३ १६७७९,  ई मेल: dr.yayavar@yahoo.co.in]
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डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर' ने मन पलाशवन, गलियारे गंध के तथा अँधा हुआ समय का दर्पण के पश्चात चीखती टिटहरी हाँफता अलाव शीर्षक से चौथा नवगीत संग्रह लेकर माँ शारदा के चरणों में समर्पित  किया है. नवगीत दरबार पूरी दबंगता के साथ अपनी बात शिष्ट-शालीन-संस्कारिक शब्दावली में कहने में यायावर जी का सानी नहीं है. ठेठ भदेसी शब्दावली की अबूझता, शब्दकोशी क्लिष्ट शब्दों की बोझिलता तथा अंग्रेजी शब्दों की अनावश्यक घुसपैठ की जो प्रवृत्ति समकालीन नवगीतों में वैशिष्ट्य कहकर आरोपित की गयी है, डॉ. यायावर के नवगीत उससे दूर रहते हुए हिंदी भाषा की जीवंतता, सहजता, सटीकता, सरसता तथा छान्दसिकता बनाये रखते हुए पाठक-श्रोता का मर्म छू पाते हैं. 

पिंगल की मर्यादानुसार प्रथम नवगीत 'मातरम् मातरम्' वंदना में भी युगीन विांगतियों को समाहित करते हुए शांति की कामना करता है: 'झूठ ही झूठ है / पूर्ण वातावरण / खो गया है कहीं / आज सत्याचरण / बाँटते विष सभी / आप, वे और मैं / बंधु बांधव सखा / भ्रातरम् भ्रातरम्' तथा 'हो चतुर्दिक / तेरे हंस की धवलिमा / जाय मिट / हर दिशा की / गहन कालिमा / बांसुरी में / नये स्वर / बजें प्रीति के / / शांति, संतोष, सुख / मंगलम् मंगलम्' . -२७-२८ 
'कालिमा' की तर्ज पर 'धवलिमा शब्द को गढ़ना और उसका सार्थक प्रयोग करना यायावर जी की प्रयोगशील वृत्ति का परिचायक है.  

श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार डॉ. महेंद्र भटनागर ने ठीक ही परिलक्षित किया है: 'डॉ. यायावर के नवगीतों की सबसे बड़ी विशेषता है कि उनमें जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टी अपनायी गयी है. ये वातावरण की रिक्तता, मूल्यहीनता के घटाटोप अन्धकार के दुर्दमनीय फैलाव और निराशा के अछोर विस्तार से भले ही गीत का प्रारंभ करते हों परन्तु अंत सदैव आशावाद और आशावादी संदेश के साथ करते हैं.' 

डॉ. यायावर हिंदी के असाधारण विद्वान, छंद शास्त्री, प्राध्यापक, शोध निदेशक होने के साथ-साथ नवदृष्टि परकता के लिए ख्यात हैं. वे नवगीत के संदर्भ में प्रचलित से हटकर कहते हैं: 'नवगीत खौलाती स्ब्वेदनाओं की वर्ण-व्यंजना है, दर्द की बाँसुरी पर धधकते परिवेश में भुन्टी ज़िंदगी का स्वर संधान है, वह पछुआ के अंधड़ में तिनके से उड़ते स्वस्तिक की विवशता है. अपशकुनी टिटहरियों की भुतहा चीखों को ललकारने का हौसला है, गिरगिटों की दुनिया में प्रथम प्रगीत के स्वर गुंजाने का भगीरथ प्रयास है, शरशैया पर भीष्म के स्थान पर पार्थ को धार देनेवाली व्यवस्था का का सर्जनात्मक प्रतिवाद है, अंगुलिमालों की दुनिया में बुद्ध के अवतरण की ज्योतिगाथा है, लाफ्टर चैनल के पंजे में कराहती चौपाई को स्वतंत्र करने का प्रयास है, 'मूल्यहन्ता' और 'हृदयहन्ता' समय की छटी पर कील गाड़ने की चेष्टा है, बुधिया के आँचल में डर-डर कर आते हुए सपनों को झूठी आज़ादी से आज़ाद करने का गुरुमंत्र है, ट्रेक्टर के नीचे रौंदे हुए सपनों के चकरोड की चीख है, झूठ के कहकहों को सुनकर लचर खड़े सघ को दिया गया आश्वासन है और रचनाकार द्वारा किसी भी नहुष की पालकी न ढोने का सर्जनात्मक संकल्प है. वस्तुत: नवगीत समय का सच है.'

विवेच्य संग्रह के नवगीत सच की  अभ्यर्थना ही नहीं करते, सच को जीवन में उतारने का आव्हान भी करते हैं:
'भ्रम ही भ्रम 
लिखती रही उमर
आओ!
अब प्रथम प्रगीत लिखें 
मन का अनहद संगीत लिखें'  

जनहित की पक्षधरता नवगीत का वैशिष्ट्य नहीं, उद्देश्य है. आम जन की आवाज़ बनकर नवगीत आसमान नहीं छूटा, जमीन से अंकुर उगता और जमीन में जड़ें जमाता है. आपातकाल में दुष्यंत कुमार ने लिखा था: 'कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं / गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं'. यायावर का स्वर दुष्यंत से भिन्न नहीं है. वे विसंगति, किंकर्तव्यविमूढ़ता तथा आक्रोश तीनों मन:स्थितियों को नवगीतों में ढालते हैं:
विसंगति: 
बुधिया के आँचल में / सपने आते डरे-डरे. 
भकुआ बना हुआ / अपनापन / हँसती है चालाकी  / पंच नहीं परमेश्वर / हारी / पंचायत में काकी / तुलसीचौरे पर दियना अब / जले न साँझ ढरे.' १२७-१२८ 
 किंकर्तव्यविमूढ़ता:  
चाँदनी में / जल रहे हैं पाँव / कोई क्या करे? 
कट गया वट / कटा पीपल / कटी तुलसी 
थी यहाँ / छतनार इमली / बात कल सी 
अब हुई गायब / यहाँ की छाँव / कोई क्या करे? १२९-१३०  
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पीली पड़ी रौशनी से हम / कैसे रात उजासें?
आल्हा बाँच रही / आँगन में / बैठी हुई उदासी 
सिर्फ  सयानापन / फ्लैटों में / लेता पड़ा उबासी 
रिश्तों के कैंसर को / बोलो / कैसे आज विनाशें? १२५-१२६ 
नागफनी पैरों में / बाँधे / कितनी  दूर चलें? 
स्वयं को / कितना और छलें?
भाषा के दफ्तर में / शब्दों के क्लर्क /  हैं भ्रष्टाचारी  

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कृति चर्चा:
'अब और नहीं बस' : बेबसी के शब्द चित्र 
चर्चाकार: आचार्य संजीव 
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[कृति विवरण: अब और नहीं बस , नवगीत संग्रह, गीता पंडित, २०१३, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ १२८, १९५/-, शलभ प्रकाशन, ११९ गंगा लेन, सेक्टर ५, वैशाली २०१०१० संपर्क: ०१२० ४१०१६०२]
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सामान्यत: और विशेषकर गीत/नवगीत अनुभूतिपरक विधा है। गीत में वैयक्तिक और नवगीत में समष्टिगत अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का विधान है। नवगीत वर्ग चेतना की चर्चा करते हुए भी उसे वर्ग विशेष तक सीमित नहीं रखता। नवगीत को उसके आरंभिक वर्षों के प्रतिमानों में कैद रखने के पक्षधर यह संघ पढ़कर नाक-भौं सिकोड़ें तो भी समय-सलिला का प्रवाह मूलकी ओर नहीं जा सकता। 

वरिष्ठ नवगीतकार और समीक्षक राधेश्याम बंधु के अनुसार 'नवगीत की मूलभूत शैल्पिक अवधारणा और प्रतिमानों को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है।' -नवगीत के नये प्रतिमान  

डॉ. शिवकुमार मिश्र के मत में 'आज नवगीत भावुक मन की मध्यकालीन बोध की चीज नहीं है बल्कि वह समय  की सारी विसंगतियों और विद्रूपताओं से उसी तरह मुठभेड़ कर रहा है जिस तरह आधुनिक कही और माने जानेवाली गद्य कविता कर रही है। नवगीतों के रचना शिल्प में भाषा, अलंकार, छंद आदि समूचे रचना विधान में महत्वपूर्ण बदलाव आया है। वह समय की अभिव्यक्ति के रूप में आज हमसे मुखतिब हैकृति चर्चा:
'अब और नहीं बस' : बेबसी के शब्द चित्र 
चर्चाकार: आचार्य संजीव 
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[कृति विवरण: अब और नहीं बस , नवगीत संग्रह, गीता पंडित, २०१३, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ १२८, १९५/-, शलभ प्रकाशन, ११९ गंगा लेन, सेक्टर ५, वैशाली २०१०१० संपर्क: ०१२० ४१०१६०२]
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सामान्यत: और विशेषकर गीत/नवगीत अनुभूतिपरक विधा है। गीत में वैयक्तिक और नवगीत में समष्टिगत अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का विधान है। नवगीत वर्ग चेतना की चर्चा करते हुए भी उसे वर्ग विशेष तक सीमित नहीं रखता। नवगीत को उसके आरंभिक वर्षों के प्रतिमानों में कैद रखने के पक्षधर यह संघ पढ़कर नाक-भौं सिकोड़ें तो भी समय-सलिला का प्रवाह मूल की ओर नहीं जा सकता। 

वरिष्ठ नवगीतकार और समीक्षक राधेश्याम बंधु के अनुसार 'नवगीत की मूलभूत शैल्पिक अवधारणा और प्रतिमानों को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है।' 

डॉ. शिवकुमार मिश्र के मत में 'आज नवगीत भावुक मन की मध्यकालीन बोध की चीज नहीं है बल्कि वह समय  की सारी विसंगतियों और विद्रूपताओं से उसी तरह मुठभेड़ कर रहा है जिस तरह आधुनिक कही और माने जानेवाली गद्य कविता कर रही है। नवगीतों के रचना शिल्प में भाषा, अलंकार, छंद आदि समूचे रचना विधान में महत्वपूर्ण बदलाव आया है। वह समय की अभिव्यक्ति के रूप में आज हमसे मुखातिब है

डॉ. नामवर सिंह में अनुसार ' समय की चुनौती के अनुसार यदि गीत की अंतर्वस्तु बदलती है तो उसका 'सुर' और 'कहन' की  बदलती है।'

उक्त तीनों अभिमतों के प्रकाश में गीता पंडित के तीसरे (पहला मौन पलों का स्पंदन १९११, दूसरा लकीरों के आर-पार १९१३) नवगीत संग्रह 'अब और नहीं बस' को पढ़ना और उस पर चर्चा करना बेहतर होगा। विवेच्य संग्रह का केंद्र नारी उत्पीड़न और नारी विमर्श है 'पीर के हर एक समंदर / को बना नदिया / बहो तुम', 'ओ री चिड़िया! / तनिक ज़रा तुम / मुख तो खोलो', ' गांठें इतनी / लगी पलों में / मन की रस्सी टूट गयी', 'मैं जो हूँ / बस वो ही हूँ / करो ना हस्ताक्षर मुझ पर', 'अपने घर हो / गये पराये / वहशी आदम जात लगे', 'एकाकी गलियों में जाकर / मन तो / रोया करता है', 'कसकता रहा / रात भर मनवा / पीर हुई पल में गहरी', 'लेकिन जो / अंतर को छू ले / ऐसा साथी मिला कहाँ?', 'पहनाई ये / कैसी पायल / जिनमें बोल नहीं सजते', 'सब कुछ बदल / रहा है लेकिन / पीर कहाँ बदली मीते!', 'भूल गयी मैं देस पीया का / असुंवन भीगे / गाल', 'मौन हो गये / मन के पाखी / मौन हुई डाली-डाली', 'मात्र समर्पण / की हूँ दासी / बिन इसके कुछ भान नहीं', ' नीर / सिसकते गहरे / शेष अभी / क्या है तन में?' आदि-आदि अभियक्तियाँ नारी की व्यथ-कथा पर ही केंद्रित हैं 

प्रश्न यह उठता है कि नवगीत वर्ग विशेष की अनुभूतियों का वाहक हो या समग्र समाज की भावनाओं का पोषक हो? यह भी कि क्या वास्तव में  नारी इतनी पीड़ित है कि उसका जीवन दूभर है? यदि ऐसा है तो घर-घर में जो शक्ति माँ, बहिन, भाभी, पत्नी, बेटी के रूप में मान, ममता, आदर, प्यार और लाड़ पा रही, अपने सपने साकार कर रही और पुरुष का सहारा ही नहीं सम्बल भी बन रही है, वह कौन है? स्त्री-पुरुष संबंध में टूटन हो तो क्या पीड़ा केवल स्त्री को होती है? पुरुष की टूटन भी क्या चिंतन का विषय नहीं होना चाहिए? क्यास्त्री प्रताड़ना का दोषी पुरुष मात्र है? क्या स्त्री का शोषण स्त्री खुद भी नहीं करती? क्या सास-बहू, नन्द भाभी, विमाता, सौतन आदि की भूमिकाओं में खलनायिकाएँ स्त्री ही नहीं होतीं? इस प्रश्नों पर विचरण का यहाँ न स्थान है न औचित्य किन्तु संकेतन इसलिए कि संग्रह की रचनाओं में यह एकांगी स्वर मुखर हो रहा है  इससे रचनाकार की तटस्थता और निष्पक्षता के साथ-साथ सृजन के उद्देश्य  पर भी सवाल उठता है 

यदि वाकई यह पीड़ा इतनी घनीभूत तथा असह्य है तो फिर नारी-मन में पीड़ा के कारण पुरुष के प्रति विद्रोह के स्थान पर आकर्षण क्यों?, पुरुष के साथ की कामना क्यों? 'हरकारा संदेसा लेकर / जैसे ही आया / ढोल नगाड़े / बज उठे / लो उत्सव मन छाया', 'एक तुम्हारे बिन कैसे / आज सुन्दर है तन-मन', 'एक तुम्हारे संग में ही तो / मन के पंछी गाये थे', 'तुम बिन मीते! हँसी स्वप्न सब / सपने होकर / रह गये', 'भाव की हर भंगिमा ने / मीत! तुमको ही पुकारा', 'गेट बन जाऊँगी मीठे! / गुनगुना जो / दो मुझे तुम', 'छोड़ तुम्हें / किसको / ध्यायें', 'पाये ना कल मन ना बैठे हार कर / ओ परदेसी! / मीत मेरे जल्दी आना', 'जिन गीतों में / तुमको गाते / गीत वो ही बस मन भाये', 'जो जीवन में / रस घोले / ऐसा रसमय सार चाहिए / एक तुम्हारा प्यार चाहिए', 'अस्त होते / सूर्य सा ढलना सहा है / मीत तुम बिन', 'तुम सुधा का सार प्यासी / बूँद हूँ मैं / तुमसे ही अस्तित्व मेरा', 'इस अँधेरी रात के / लो पायताने बैठकर / फिर तुम्हें दोहरा रही हूँ / 'मीत! तुमको गा  रही हूँ', 'द्वारे बैठे बात जोहती / जल्दी से आ जाओ' आदि भावभिव्यक्तियाँ  नारी उत्पीड़न के स्वर को कमजोर ही नहीं करतीं, झुठ्लाती भी हैं

श्रृंगार के मिलन-विरह दो पक्षों की तरह इन्हें एक-दूसरे का पूरक मान लेने पर भी ये अभिव्यक्तियाँ पारम्परिकता का ही निर्वहन करती प्रतीत होती हैं, इनमें जनसंवादधर्मिता अथवा भावों का सामान्यीकरण नहीं दिखता   

गीता पंडित सुशिक्षित (एम. ए. अंग्रेजी साहित्य, एम. बी. ए. विपणन), सचेतन तथा  जागरूक हैं किन्तु उनके इन गीतों में नगरीय परिवेश में शोषित होते, संघर्ष करते, टूटते-गिरते, उठते-बढ़ते मानवों की जय-पराजय का संकेतन नहीं है ये गीत दैनंदिन जीवन संघर्षों, अवसादों-उल्लासों से दूर निजी दुनिया की सैर कराते हैं 

गीता पंडित के गीतों की भाषा सहज बोधगम्य, मुहावरेदार, प्रसाद गुण संपन्न है। अंग्रेजी, उर्दू, अथवा तत्सम-तद्भव शब्द कहीं-कहीं प्रयोग हुए हैं इन गीतों का सबलपक्ष इनकी सहजता, सरलता तथा सरसता है। मीत, मीता, मीते सम्बोधन की बारम्बार आवृत्ति खटकती है। गीता जी शिल्प पर कस्थ्य को वरीयता देती हैं। वे शब्दों, तथा क्रियाओं के प्रचलित रूपों का सहजता से प्रयोग करती हैं। ल्हाश, बस्स, क्यूँ, यूं, कन्नी, समंदर, अलस्सवेरे, झमाझम, मनवा, अगन, बत्यकार, मद्धम,  जैसे देशज शब्द भाषा में मिठास घोलते हैं 

 'देख आज ये कैसा मेरे / मन पर लगे / मलाल, प्रेम गली बुहरा आये, मनवा आता अँखियाँ मूँद, तनिक ज़रा तुम, नेह का मौली' जैसी अभिव्यक्तियों पर पुनर्विचार कर परिवर्तन अपेक्षित है 

सारत: अब और नहीं बस के गीत पाठक को रुचेंगे किन्तु समीक्षकों की दृष्टि से गीत-नवगीत की परिधि पर हैं गीता जी छंद को अपनाती हैं पर उसके विधाओं के प्रति आग्रही नहीं है वे 'सहज पके सो मीठा होय' की लोकोक्ति की पक्षधर हैं  आलोच्य संग्रह के गीत रचनाकार के मंतव्य को पाठकों-श्रोताओं तक पहुँचाने में सफल हैं  उनके पूर्व २ संकलन देखें के बाद विकास यात्रा की चर्चा हो सकेगी  आगामी संकलन में उनसे नवगीत के विधानात्मक पक्ष के प्रति अधिक सजगता की अपेक्षा की जासकती है. 

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कृति चर्चा: 
गिरिमोहन गुरु के नवगीत : बनाते निज लीक-नवरीत 
चर्चाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण: गिरिमोहन गुरु के नवगीत, नवगीत संग्रह, गिरिमोहन गुरु, संवत २०६६, पृष्ठ ८८, १००/-, आकर डिमाई, आवरण पेपरबैक दोरंगी, मध्य प्रदेश तुलसी अकादमी ५० महाबली नगर, कोलार मार्ग, भोपाल, गीतकार संपर्क:शिव संकल्प साहित्य परिषद्, गृह निर्माण कोलोनी होशंगाबाद ]
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विवेच्य कृति नर्मदांचल के वरिष्ठ साहित्यकार श्री गिरिमोहन गुरु के ६७ नवगीतों का सुवासित गीतगुच्छ है जिसमें से कुछ गीत पूर्व में 'मुझे नर्मदा कहो' शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुके हैं।  इन गीतों का चयन श्री रामकृष्ण दीक्षित तथा श्री गिरिवर गिरि 'निर्मोही' ने किया है। नवगीत प्रवर्तकों में से एक डॉ. शंभुनाथ सिंह, नवगीत पुरोधा डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' आदि  ९ हस्ताक्षरों की संस्तुति सज्जित यह संकलन गुरु जी के अवदान को प्रतिनिधित्व करता है। डॉ. दया कृष्ण विजयवर्गीय के अनुसार इन नवगीतों में  'शब्द की प्रच्छन्न ऊर्जा को कल्पना के विस्तृत नीलाकाश में उड़ाने की जो छान्दसिक अबाध गति है, वह गुरूजी को नवगीत का सशक्त हस्ताक्षर बना देती है।

डॉ. शंभुनाथ सिंह ने नवगीत के वर्ण्य विषयों में धर्म-आध्यात्म-दर्शन, प्रेम-श्रृंगार तथा प्रकृति चित्रण की वर्जना की थी। उन्होंने युगबोधजनित भावभूमि तथा सर्वत्र एक सी टीस जगानेवाले पारंपरिक छंद-विधान को नवगीत हेतु सर्वाधिक उपयुक्त पाया। महाप्राण निराला द्वारा 'नव गति, नव ले, ताल-छंद नव' के आव्हान के अगले कदम के रूप में यह तर्क सम्मत भी था किन्तु किसी विधा को आरम्भ से ही प्रतिबंधों में जकड़ने से उसका विकास और प्रगति प्रभावित होना भी स्वाभाविक है। एक विचार विशेष के प्रति प्रतिबद्धता ने प्रगतिशील कविता को जन सामान्य से काट कर  विचार धारा समर्थक बुद्धिजीवियों तक सीमित कर दिया। नवगीत को इस परिणति से बचाकर, कल से कल तक सृजन सेतु बनाते  हुए नव पीढ़ी तक पहुँचाने में जिन रचनाधर्मियों ने साहसपूर्वक निर्धारित की थाती को अनिर्धारित की भूमि पर स्थापित करते हुए अपनी मौलिक राह चुनी उनमें गुरु जी भी एक हैं। 

नवगीत के शिल्प-विधान को आत्मसात करते हुए कथ्य के स्तर पर निज चिंतन प्रणीत विषयों और  स्वस्फूर्त भंगिमाओं को माधुर्य और सौन्दर्य सहित अभिव्यंजित कर गुरु जी ने विधा को गौड़ और विधा में लिख रहे हस्ताक्षर को प्रमुख होने की प्रवृत्ति को चुनौती दी। जीवन में विरोधाभासजनित संत्रास की अभिव्यक्ति देखिए-

अश्रु जल में तैरते हैं / स्वप्न के शैवाल 
नाववाले नाविकों के / हाथ है जाल  
हम रहे शीतल भले ही / आग के आगे रहे 
वह मिला प्रतिपल कि जिससे / उम्र भर भागे रहे 

वैषम्य और विडंबना बयां करने का गुरु जी अपना ही अंदाज़ है-

घूरे पर पत्तलें / पत्तलों में औंधे दौने 
एक तरफ हैं श्वान / दूसरी तरफ मनुज छौने 

अनुभूति की ताजगी, अभिव्यक्ति की सादगी तथा सुंस्कृत भाषा की बानगी गुरु के नवगीतों की जान है। उनके नवगीत निराशा में आशा, बिखराव में सम्मिलन, अलगाव में संगठन और अनेकता में एकता की प्रतीति कर - करा पाते हैं- 

लौटकर फिर आ रही निज थान पर / स्वयं बँधने कामना की गाय 
हृदय बछड़े सा खड़ा है द्वार पर / एकटक सा देखता निरुपाय 
हौसला भी एक निर्मम ग्वाल बन / दूध दुहने बाँधता है, छोड़ता है 

छंद-विधान, बिम्ब, प्रतीक, फैंटेसी, मिथकीय चेतना, प्रकृति चित्रण, मूल्य-क्षरण, वैषम्य विरोध और कुंठा - निषेध आदि को शब्दित करते समय गुरु जी परंपरा की सनातनता का नव मूल्यों से समन्वय करते हैं। 

कृषक के कंधे हुए कमजोर  / हल से हल नहीं हो पा रही / हर बात 
शहर की कृत्रिम सडक बेधड़क / गाँवों तक पहुँच / करने लगी उत्पात 

गुरु जी के मौलिक बिम्बों-प्रतीकों की छटा देखे- 

इमली के कोचर का गिरगिट दिखता है रंगदार 
शाखा पर बैठी गौरैया दिखती है लाचार 
एक अंधड़ ने किया / दंगा हुए सब वृक्ष नंगे 
हो गए सब फूल ज्वर से ग्रस्त / केवल शूल चंगे 
भैया बदले, भाभी बदले / देवर बदल गए 
वक्त के तेवर बदल गए 
काँपते सपेरों के हाथ साँपों के आगे 
झुक रहे पुण्य, स्वयं माथ, पापों के आगे 

सामाजिक वैषम्य की अभिव्यक्ति का अभिनव अंदाज़ देखिये- 

चाँदी के ही चेहरों का स्वागत होता झुक-झुक 
खड़ा भोज ही, बड़ा भोज, कहलाने को उत्सुक  
फिर से हम पश्चिमी स्वप्न में स्यात लगे खोने 
सपने में सोन मछरिया पकड़ी थी मैंने 
किन्तु आँख खुलते ही 
हाथ से फिसल गयी 
इधर पीलिया उधर खिल गए 
अमलतास के फूल 

गुरु के नवगीतों का वैशिष्ट्य नूतन छ्न्दीय भंगिमाएँ भी है। वे शब्द चित्र चित्रित करने में प्रवीण हैं। 

बूढ़ा चाँद जर्जरित पीपल    
अधनंगा चौपाल
इमली के कोचर का गिरगिट 
दिखता है रंगदार 
नदी किनारेवाला मछुआ 
रह-रह बुनता जाल 
भूखे-प्यासे ढोर देखते 
चरवाहों की और 
भेड़ चरानेवाली, वन में 
फायर ढूंढती भोर 
मरना यदि मुश्किल है तो
जीना भी है जंजाल  

गुरु जी नवगीतों में नवाशा के दीप जलाने में भी संकोच नहीं करते- 

एक चिड़िया की चहक सुनकर 
गीत पत्तों पर लगे छपने 
स्वप्न ने अँगड़ाइयाँ लीं, सुग्बुआऎ आस 
जिंदगी की बन गयी पहचान नूतन प्यास 

छंदों का सधा होना उनके कोमल-कान्त पदावली सज्जित नवगीतों की माधुरी को गुलाबजली सुवास भी देता है। प्रेम, प्रकृति और संस्कृति की त्रिवेणी इन गीतों में सर्वत्र प्रवाहित है। 

जग को अगर नचाना हो तो / पहले खुद नाचो, मौसम के अधरों पर / विश्वासी भाषा, प्यासों को देख, तृप्ति / लौटती सखेद, ले आया पावस के पत्र / मेघ डाकिया, अख़बारों से मिली सुचना / फिर बसंत आया जैसी अभिव्यक्तियाँ पाठक को गुनगुनाने के लिए प्रेरित करती हैं। नवगीतों को उसके उद्भव काल में निर्धारित प्रतिबंधों के खूँटे से बांधकर रखने के पक्षधरों को नवगीत की यह भावमुद्रा स्वीकारने में असहजता  प्रतीत हो सकती है, कोई कट्टर हस्ताक्षर नाक-भौं सिकोड़ सकता है पर नवगीत संसद के दरवाजे पर दस्तक देते अनेक नवगीतकार इन नवगीतों का अनुसरण कर खुद को गौरवान्वित अनुभव करेंगे।

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कृति चर्चा: 
समीक्षा के अभिनव सोपान : नवगीत का महिमा गान 
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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[कृति विवरण: समीक्षा के अभिनव सोपान, संपादक डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय, वर्ष २०१४, पृष्ठ १२४, २००/-, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, दोरंगी,  प्रकाशक शिव संकल्प साहित्य परिषद्, गृह निर्माण मंडल कोलोनी, होशंगाबाद, चलभाष ९४२५० ४०९२१, संपादक संपर्क- ८/२९ ए शिवपुरी, अलीगढ २०२००१ ]
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किसी विधा पर केंद्रित कृति का प्रकाशन और उस पर चर्चा होना सामान्य बात है किन्तु किसी कृति पर केन्द्रित समीक्षापरक आलेखों का संकलन कम ही देखने में आता है. विवेच्य कृति सनातन सलिला नर्मदा माँ के भक्त, हिंदी मैया के प्रति समर्पित ज्येष्ठ और श्रेष्ठ रचनाकार श्री गुरुमोहन गुरु की प्रथम नवगीत कृति 'मुझे नर्मदा कहो' पर लिखित समालोचनात्मक लेखों का संकलन है. इसके संपादक डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय स्वयं हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं. युगबोधवाही कृतिकार, सजग समीक्षक और विद्वान संपादक का ऐसा मणिकांचन संयोग कृति को शोध छात्रों के लिये उपयोगी बना सका है. 

कृत्यारम्भ में संपादकीय के अंतर्गत डॉ. उपाध्याय ने नवगीत के उद्भव, विकास तथा श्री गुरु के अवदान की चर्चा कर,  नवगीत की नव्य परंपरा का संकेत करते हुए छंद, लय, यति, गति, आरोह-अवरोह, ध्वनि आदि के प्रयोगों, चैतन्यता, स्फूर्ति, जागृति आदि भावों तथा जनाकांक्षा व जनभावनाओं के समावेशन को महत्वपूर्ण माना है. नवगीत प्रवर्तकों में से एक डॉ. शंभुनाथ सिंह ने उद्योगप्रधान नागरिक जीवन की गद्यात्मकता के भीतर जीवित कोमलतम मानवीय अनुभूतियों के छिपे कारणों को गीत के माध्यम से उद्घाटित कर नवगीत आन्दोलन को गति दी. डॉ. किशोर काबरा नवगीत में बढ़ते नगरबोध का संकेतन करते हुए वर्तमान में नवगीतकारों की चार पीढ़ियों को सक्रिय मानते हैं. उनके अनुसार पुरानी पीढ़ी छ्न्दाश्रित, बीच की पीढ़ी लयाश्रित, नई पीढ़ी लोकगीताश्रित तथा नवागत पीढ़ी लयविहीन नवगीत लिख रही है. इस प्रसंग में उल्लेखनीय है की मैंने लोकगीतों तथा विविध छंदों की लय तथा नवागत पीढ़ी द्वारा सामान्यत: प्रयोग की जा रही भाषा में नवगीत रचे तो डॉ. शंभुनाथ सिंह द्वारा इंगित तत्वों को अंतिम कहते हुए कतिपय रचनाकारों ने न केवल उन्हें नवगीत मानने से असहमति जताई अपितु यहाँ तक कह दिया कि नवगीत किसी की खाला का घर नहीं है जिसमें कोई भी घुस आये. इस संकीर्णतावादियों द्वारा हतोत्साहित करने के बावजूद यदि नवागत पीढ़ी नवगीत रच रही है तो उसका कारण श्री गिरिमोहन गुरु, श्री भगवत दुबे, श्री मधुकर अष्ठाना, श्री किशोर काबरा, श्री राधेश्याम बंधु, कुमार रवीन्द्र,  डॉ. रामसनेही लाल यायावर, श्री ब्रजेश श्रीवास्तव जैसे परिवर्तनप्रेमी नवगीतकारों का प्रोत्साहन है. 

'मुझे नर्मदा कहो' (५१ नवगीतों का संकलन) पर समीक्षात्मक आलेख लेखकों में सर्व श्री / श्रीमती डॉ. राधेश्याम 'बन्धु', डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय, डॉ. विनोद निगम, डॉ. किशोर काबरा, डॉ. दयाकृष्ण विजयवर्गीय, डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी, डॉ. सूर्यप्रकाश शुक्ल, डॉ. प्रेमशंकर रघुवंशी, विजयलक्ष्मी 'विभा', मोहन भारतीय, छबील कुमार मैहर, महेंद्र नेह, डॉ. हर्षनारायण 'नीरव', गोपीनाथ कालभोर, अशोक गीते, डॉ. मधुबाला, डॉ. जगदीश व्योम, डॉ. कुमार रविन्द्र, डॉ. गिरिजाशंकर शर्मा, डॉ. शरद नारायण खरे, कृष्णस्वरूप शर्मा, डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र, डॉ. विजयमहादेव गाडे, भगवती प्रसाद द्विवेदी, जगदीश श्रीवास्तव, सरिता सुराणा जैन, श्रीकृष्ण शर्मा, राजेंद्र सिंह गहलोत, डॉ. दिवाकर दिनेश गौड़, नर्मदा प्रसाद मालवीय, डॉ. नीलम मेहतो, डॉ. उमेश चमोला, डॉ. रानी कमलेश अग्रवाल, प्रो. भगवानदास जैन, डॉ. हरेराम पाठक 'शब्दर्षि', रामस्वरूप मूंदड़ा, यतीन्द्रनाथ 'राही', डॉ. अमरनाथ 'अमर', डॉ. ब्रजभूषण सिंह गौतम 'अनुराग', डॉ. तिलक सिंह, डॉ. जयनाथ मणि त्रिपाठी, मधुकर गौड़, डॉ. मुचकुंद शर्मा, समीर श्रीवास्तव जैसे सुपरिचित हस्ताक्षर हैं.     

डॉ. नामवर सिंह के अनुसार 'नवगीत ने जनभावना और जनसंवादधर्मिता को  अपनी अंतर्वस्तु के रूप में स्वीकार किया है, इसलिए वह जनसंवाद धर्मिता की कसौटी पर खरा उतर सका है.' यह खारापन गुरु जी के नवगीतों में राधेश्याम 'बन्धु'  जी ने देखा है. डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय ने गुरु जी के मंगीतों में जीवन की विडंबनाओं को देखा है:

सभा थाल ने लिया हमेशा / मुझे जली रोटी सा 
शतरंजी जीवन का अभिनय / पिटी हुई गोटी सा 
सदा रहा लहरों के दृग में / हो न सका तट का 

डॉ. विनोद निगम ने गुरु जी को समसामयिकत के फलक पर युगीन ज्वलंत सामाजिक-राजनैतिक विषमताओं, विसंगतियों एवं विडम्बनाओं का यथार्थवादी अंकन करने में समर्थ माना है- 

सूरज की आँखों में अन्धकार छाया है 
बुरा वक्त आया है 
सिर्फ भरे जेब रहे प्रजातंत्र भोग 
बाकी 
Sanjiv verma 'Salil', 94251 8324


facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 
  

कृति चर्चा:
शिवांश से शिव तक : ग्रहणीय पर्यटन वृत्तांत 
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
[कृति विवरण: शिवांश से शिव तक (कैलास-मानसरोवर यात्रा में शिवतत्व की खोज), ओमप्रकाश श्रीवास्तव - भारती, यात्रा वृत्तांत, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक लैमिनेटेड, पृष्ठ २०४ + १६ पृष्ठ बहुरंगी चित्र, प्रकाशक: मंजुल पब्लिशिंग हाउस, द्वितीय तल, उषा प्रीत कॉम्प्लेक्स, ४२ मालवीय नगर भोपाल ४६२००३, लेखक संपर्क: opshrivastava@ymail.com]
*   
भाषा और साहित्य का एक सिक्के के दो पहलू हैं जिन्हें पृथक नहीं किया जा सकता। जैसे कोई संतान मन से जन्मती और माँ को परिपूर्ण करती है वैसे ही साहित्य भाषा से जन्मता और भाषा को सम्पूर्ण करता है। भाषा का जन्म समाज से होता। आम जन अपने दैनन्दिन क्रिया-कलाप में अपनी अनुभूतियों और अनुभवों को अभिव्यक्त और साझा करने के लिये जिस शब्द-समुच्चय और वाक्यावलियों का प्रयोग करते हैं, वह आरम्भ में भले ही अनगढ़ प्रतीत होती है किन्तु भाषा की जन्मदात्री होती है। शब्द भण्डार, शब्द चयन, कहन (बात कहने का सलीका), उद्देश्य तथा सैम सामयिकता के पंचतत्व भाषा के रूप निर्धारण में सहायक होते है और भशा से ही वर्ण्य-विषय (कथ्य) पाठक-श्रोता तक पहुँचता है।  स्पष्ट है कि भाषा रचनाकार और पाठक के मध्य संवेदन सेतु का निर्माण करती है।  जो लेखक ये संवेदना-सेतु बना पते हैं उनकी कृति हाथ दर हाथ गुजरती हुई पढ़ी, समझी, सराही और चर्चा का विषय बनाई जाती है. विवेच्य कृति इसी श्रेणी में गणनीय है।

हिंदी में सर्वाधिक लिखी जानेवाली किन्तु न्यूनतम पढ़ी जानेवाली विधा पद्य है। प्रकाशकों के अनुसार गद्य अधिक बिकाऊ और टिकाऊ है किन्तु गद्य की लोकप्रिय विधाएँ कहानी, उपन्यास, व्यंग और लघुकथा हैं। एक समर्थ रचनाकार इन्हें छोड़कर एक ऐसी विधा में अपनी पहली पुस्तक प्रस्तुत करने का साहस करें जो अपेक्षाकृत काम लिखी-पढ़ी और बिकती हो तो उसकी ईमानदारी का अनुमान किया जा सकता है की वह विषय के अनुकूल अपनी भावाभिव्यक्ति और कथ्य के अनुरूप सर्वाधिक उपयुक्त विधा का चयन कर रहा है और उसे दुनियादारी से अधिक अपने आप की संतुष्टि और विषय से न्याय करने की चिंता है। 'स्व' और 'सर्व' का समन्वय और संतुलन 'सत्य-शिव-सुन्दर' की प्रतीति करने के पथ पर ले जाता है। यह कृति आत्त्म-साक्षात के माध्यम से 'शिवत्व' के संधान का सार्थक प्रयास है।

श्री ओमप्रकाश श्रीवास्तव पेशेवर या आदतन लिखने के आदि नहीं हैं इसलिए उनकी अनुभूतियाँ अभिव्यक्ति बनाते समय कृत्रिम भंगिमा धारण नहीं करतीं, दिल की गहराइयों में अनुभूत सत्य कागज़ पर तथ्य बनकर अंकित होता है। वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी होने को विस्मृत कर वे आम जन की तरह व्यवहार करते और पाते हुए यात्रा की तैयारियों, परीक्षणों, चरणों तथा समापन तक सजग-सचेष्ट रहे हैं। भारती जी ने भोजन में पानी की तरह कहीं भी प्रत्यक्ष न होते हुए भी सर्वत्र उपस्थित हैं तथा पूरे प्रसंग को सम्पूर्णता दे स्की हैं। धर्म, लोक परम्परा, विज्ञान, कल्पना तथा यथार्थ के पञ्च तत्वों का सम्मिश्रण उचित अनुपात में कर सकने में लेखन सफल हुआ है। किसी भी एक तत्व का अधिक होना रस-भंग कर सकता था किन्तु ऐसा हुआ नहीं । 

यह पुस्तक पाठक को सांगोपांग जानकारी देती है। यथावश्यक सन्दर्भ प्रामाणिकता की पुष्टि करते हैं। दुनियादारी और 
वीतरागिता के मध्य संतुलन साधना दुष्कर होता है किन्तु एक का निष्पक्ष होने प्रशासनिक अनुभव और दूसरे का गार्हस्थ जीवन में होकर भी न होने की साधना सकल वृत्तांत को पठनीय बना सकी है।  शिव का आमंत्रण, शिव से मिलने की तैयारी, हे शिव! यह शरीर आपका मंदिर है, शिव- अनेकता में एकता के केंद्र, निःस्वार्थ सेवा की सनातन परंपरा, व्यष्टि का समष्टि में विलय, प्रकृति से पुरुष तक, प्रकृति की रचना ही श्रेष्ठ है, जहाँ प्रकृति स्वयं ॐ लिखती है, रात का रहस्यमयी सौंदर्य, स्वर्गीय सौंदर्य से बंजर पठारों की ओर, चीनी ड्रैगन की हेकड़ी और हमारा आत्म सम्मान, शक्ति और शांति के प्रतीक: राक्षस ताल और मानसरोवर, शिव का निवास कैलास, जहाँ आत्मा नृत्य कर उठे, महाकाल के द्वार से, परम रानी गिरिबरु कैलासू, जहाँ पुनर्जन्म होता है, भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी, कैलास और शिवतत्व, कैलास पर्वते राम मनसा निर्मितं परम, मानसरोवर के चमत्कार, तब इतिहास ही कुछ और होता, जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी तथा फिर पुराने जगत में शीर्षक २५ अध्यायों में लिखित यह कृति पाठक के मनस-चक्षुओं में कैलाश से साक्षात की अनुभूति करा पाती है। आठ परिशिष्टों में भविष्य में कैलास यात्रा के इच्छुकों के लिये मार्गों, खतरों, औषधियों, सामग्रियों, ऊँचाईयों, सहायक संस्थाओं तथा करणीय-अकरणीय आदि संलग्न करना यह बताता है कि लेखक को पूर्वानुमान है की उनकी यह कृति पाठकों को कैलास यात्रा के लिए प्रेरित करेगी जहाँ वे आत्साक्षात् के पल पाकर धन्य हो सकेंगे। 

हिंदी वांग्मय का पर्यटन खंड इस कृति से निश्चय ही समृद्ध हुआ है। लेखक की वर्णन शैली रोचक, प्रसाद गुण संपन्न है। नयनाभिराम चित्रों ने कृति की सुंदरता ही नहीं उपयोगिता में भी वृद्धि की है। यत्र-तत्र रामचरित मानस, श्रीमद्भगवत्गीता, महाभारत, पद्मपुराण, बाल्मीकि रामायण आदि आर्ष ग्रंथों ने उद्धरणों ने प्रामाणिकता के साथ-साथ ज्ञानवृद्धि का मणि-काञ्चन संयोग प्रदान किया है।  कैलास-मानसरोवर क्षेत्र में चीनी आधिपत्य से उपजी अस्वच्छता, सैन्य हस्तक्षेप, असहिष्णुता तथा अशालीनता का उल्लेख क्षोभ उत्पन्न करता है किन्तु यह जानकारी होने से पाठक कैलास यात्रा पर जाते समय इसके लिये खुद को तैयार कर सकेगा।  
विश्व हिंदी सम्मलेन भोपाल में मध्य प्रदेश के मुख्या मंत्री श्री शिवराज सिंग के कर कमलों से कृति का विमोचन होना इसके महत्त्व को प्रतिपादित करता है। कृति का मुद्रण स्तरीय, कम वज़न के कागज़ पर हुआ है, बँधाई मजबूत है। सकल कृति का पाठ्य पठान सजगतापूर्वक किया गया है। अत:, अशुद्धियाँ नहीं हैं।  मूलत: साहित्यकार न होते हुए भी लेखक की भाषा प्रांजल, शुद्ध, तत्सम-तद्भव शब्दावली युक्त तथा सहज ग्राह्य है।  सारत: समसामयिक उल्लेखनीय यात्रा वृत्तांतों में 'शिवांश से शिव तक' की गणना की जाएगी। इस सारस्वत अनुष्ठान  संपादन हेतु श्री ओमप्रकाश श्रीवास्तव तथा श्रीमती भारती श्रीवास्तव साधुवाद के पात्र हैं। 
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- समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४

अभियंता दिवस


अभियांत्रिकी
*
(हरिगीतिका छंद विधान: १ १ २ १ २ x ४, पदांत लघु गुरु, चौकल पर जगण निषिद्ध, तुक दो-दो चरणों पर, यति १६-१२ या १४-१४ या ७-७-७-७ पर)
*
कण जोड़ती, तृण तोड़ती, पथ मोड़ती, अभियांत्रिकी
बढ़ती चले, चढ़ती चले, गढ़ती चले, अभियांत्रिकी
उगती रहे, पलती रहे, खिलती रहे, अभियांत्रिकी
रचती रहे, बसती रहे, सजती रहे, अभियांत्रिकी
*
नव रीत भी, नव गीत भी, संगीत भी, तकनीक है
कुछ हार है, कुछ प्यार है, कुछ जीत भी, तकनीक है
गणना नयी, रचना नयी, अव्यतीत भी, तकनीक है
श्रम मंत्र है, नव यंत्र है, सुपुनीत भी तकनीक है
*
यह देश भारत वर्ष है, इस पर हमें अभिमान है
कर दें सभी मिल देश का, निर्माण यह अभियान है
गुणयुक्त हों अभियांत्रिकी, श्रम-कोशिशों का गान है
परियोजना त्रुटिमुक्त हो, दुनिया कहे प्रतिमान है
*
तक रहा तकनीक को यदि आम जन कुछ सोचिए।
तज रहा निज लीक को यदि ख़ास जन कुछ सोचिए।।
हो रहे संपन्न कुछ तो यह नहीं उन्नति हुई-
आखिरी जन को मिला क्या?, निकष है यह सोचिए।।
*
चेन ने डोमेन की, अब मैन को बंदी किया।
पिया को ऐसा नशा ज्यों जाम साकी से पिया।।
कल बना, कल गँवा, कलकल में घिरा खुद आदमी-
किया जाए किस तरह?, यह ही न जाने है जिया।।
*
किस तरह स्मार्ट हो सिटी?, आर्ट है विज्ञान भी।
यांत्रिकी तकनीक है यह, गणित है, अनुमान भी।।
कल्पना की अल्पना सज्जित प्रगति का द्वार हो-
वास्तविकता बने ऐपन तभी जन-उद्धार हो।।
*** 
अभियंता दिवस पर मुक्तक:
*
कर्म है पूजा न भूल, 
धर्म है कर साफ़ धूल। 
मन अमन पायेगा तब-
जब लुटा तू आप फूल। 
*
हाथ मिला, कदम उठा काम करें
लक्ष्य वरें, चलो 'सलिल' नाम करें
रख विवेक शांत रहे काम कर
श्रेष्ठ बना देश,चलो नाम करें.
*
मना अभियंता दिवस मत चुप रहो,
उपेक्षित अभियांत्रिकी है कुछ कहो।
है बहुत बदहाल शिक्षा, नौकरी- 
बदल दो हालात, दुर्दशा न सहो।
*
सोरठा सलिला:
हो न यंत्र का दास
संजीव
*
हो न यंत्र का दास, मानव बने समर्थ अब
रख खुद पर विश्वास, 'सलिल' यांत्रिकी हो सफल
*
गुणवत्ता से आप, करिए समझौता नहीं
रहे सजगता व्याप, श्रेष्ठ तभी निर्माण हो
*
भूलें नहीं उसूल, कालजयी निर्माण हों
कर त्रुटियाँ उन्मूल, यंत्री नव तकनीक चुन
*
निज भाषा में पाठ, पढ़ो- कठिन भी हो सरल
होगा तब ही ठाठ, हिंदी जगवाणी बने
*
ईश्वर को दें दोष, ज्यों बिन सोचे आप हम
पाते हैं संतोष, त्यों यंत्री को कोसकर
*
जब समाज हो भ्रष्ट, कैसे अभियंता करे
कार्य न हों जो नष्ट, बचा रहे ईमान भी
*
करें कल्पना आप, करिए उनको मूर्त भी
समय न सकता नाप, यंत्री के अवदान को
*
उल्लाला सलिला:
संजीव
*
(छंद विधान १३-१३, १३-१३, चरणान्त में यति, सम चरण सम तुकांत, पदांत एक गुरु या दो लघु)
 *
अभियंता निज सृष्टि रच, धारण करें तटस्थता।
भोग करें सब अनवरत, कैसी है भवितव्यता।।
*
मुँह न मोड़ते फ़र्ज़ से, करें कर्म की साधना।
जगत देखता है नहीं, अभियंता की भावना।।
*
सूर सदृश शासन मुआ, करता अनदेखी सतत।
अभियंता योगी सदृश, कर्म करें निज अनवरत।।
*
भोगवाद हो गया है, सब जनगण को साध्य जब।
यंत्री कैसे हरिश्चंद्र, हो जी सकता कहें अब??
*
​भृत्यों पर छापा पड़े, मिलें करोड़ों रुपये तो।
कुछ हजार वेतन मिले, अभियंता को क्यों कहें?
*
नेता अफसर प्रेस भी, सदा भयादोहन करें।
गुंडे ठेकेदार तो, अभियंता क्यों ना डरें??​
*
समझौता जो ना करे, उसे तंग कर मारते।
यह कड़वी सच्चाई है, सरे आम दुत्कारते।।
*
​हर अभियंता विवश हो, समझौते कर रहा है।
बुरे काम का दाम दे, बिन मारे मर रहा है।।
*
मिले निलम्बन-ट्रान्सफर, सख्ती से ले काम तो।
कोई न यंत्री का सगा, दोषारोपण सब करें।। 
*
हम हैं अभियंता
संजीव
*
(छंद विधान: १० ८ ८ ६ = ३२  x ४)
*
हम हैं अभियंता नीति नियंता, अपना देश सँवारेंगे
हर संकट हर हर मंज़िल वरकर, सबका भाग्य निखारेंगे
पथ की बाधाएँ दूर हटाएँ, खुद को सब पर वारेंगे
भारत माँ पावन जन-मन भावन, सीकर चरण पखारेंगे
*
अभियंता मिलकर आगे चलकर, पथ दिखलायें जग देखे
कंकर को शंकर कर दें हँसकर मंज़िल पाएं कर लेखे
शशि-मंगल छूलें, धरा न भूलें, दर्द दीन का हरना है
आँसू न बहायें , जन यश  गाये, पंथ वही नव वरना है
*
श्रम-स्वेद बहाकर, लगन लगाकर, स्वप्न सभी साकार करें
गणना कर परखें, पुनि-पुनि निरखें, त्रुटि न तनिक भी कहीं वरें
उपकरण जुटायें, यंत्र बनायें, नव तकनीक चुनें न रुकें
आधुनिक प्रविधियाँ, मनहर छवियाँ,  उन्नत देश करें न चुकें
*
नव कथा लिखेंगे, पग न थकेंगे, हाथ करेंगे काम सदा
किस्मत बदलेंगे, नभ छू लेंगे, पर न कहेंगे 'यही बदा'
प्रभु भू पर आयें, हाथ बटायें, अभियंता संग-साथ रहें
श्रम की जयगाथा, उन्नत माथा, सत नारायण कथा कहें
***

शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

कुण्डलिया

कार्यशाला
षट्पदी (कुण्डलिया )
आओ! सब मिलकर रचें, ऐसा सुंदर चित्र।
हिंदी पर अभिमान हो, स्वाभिमान हो मित्र।। -विशम्भर शुक्ल
स्वाभिमान हो मित्र, न टकरायें आपस में।
फूट पड़े तो शत्रु, जयी हो रहे न बस में।।
विश्वंभर हों सदय, काल को जूझ हराओ।
मोदक खाकर सलिल, गजानन के गुण गाओ।। -संजीव 'सलिल'
*
हर पल हिंदी को जिएँ, दिवस न केवल एक।
मानस मैया मानकर, पूजें सहित विवेक।। 
*

गुरुवार, 13 सितंबर 2018

पुरोवाक

कृति चर्चा-
'चुप्पियों के गाँव में' सरस नवगीतों की छाँव 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति विवरण: ओझल रहे उजाले, नवगीत, विजय बागरी, प्रथम संस्करण २०१८, पृष्ठ १५१, आकार १४ से. x २१ से., आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, मूल्य २५०/-, उद्भावना प्रकाशन एच ५५, सेक्टर २३, राजनगर, गाजियाचलभाष ९८११५८२९०२, रचनाकार संपर्क: कछारगाँव बड़ा, कटनी, ४८३३३४, चलभाष ०९६६९२५१३१९, समीक्षक संपर्क: ४०१, विजय अपार्टमेंट, सुभद्रा वार्ड, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष: ९४२५१८३२४४ / ७९९५५५९६१८]
*
नवगीत हिंदी गीतिकाव्य ही नहीं सकल हिंदी साहित्य की वह विधा है जो जन-मन से और जिससे जन-मन अभिन्न है। नवगीती कचनार की गझिन शाखाओं में दिन-ब-दिन गहरे सुर्ख फूलों को खिलते देखना सगोत्री विस्तार से मिलनेवाले सुख या 'गूँगे के गुड़' की तरह है। नर्मदांचल के बुंदेलखंड क्षेत्र में नवगीत की क्यारी में सृजन के पौधे रोपने निरंतर रोपने में सर्व श्री विनोद निगम, राम सेंगर, भोलानाथ, आचार्य भगवत दुबे, गिरिमोहन गुरु, जंगबहादुर श्रीवास्तव, जयप्रकाश श्रीवास्तव, राजा अवस्थी, आनंद तिवारी, रामकिशोर दाहिया आदि उल्लेखनीय हैं। यत्किंचित योगदान मुझ अकिंचन का भी रहा है। इस क्रम में अनुजवत विजय बागरी का जुड़ाव स्वागतेय है। शीघ्र ही सर्वश्री बसंत शर्मा, अरुण अर्णव खरे, सुरेश तन्मय, राजकुमार महोबिया तथा अविनाश ब्योहार की उपस्थिति दर्ज होनी है। नवगीत उद्यान में निरंतर नए पुष्प खिलते रहें और अपनी सुवास बिखेरते रहें इस हेतु विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर सतत प्रयासरत है।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि स्व. जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण', स्व. श्याम श्रीवास्तव, श्री यतीन्द्र नाथ 'राही', श्री कृष्णकुमार 'पथिक', श्री शिव कुमार 'अर्चन' तथा कुछ अन्य गीतकारों के रचना संसार में कई रचनाएँ नवगीत और गीत की परिधि पर हैं किंतु नवगीतों में विशिष्ट विचारधारा और शब्दावली के प्रति आग्रह से असहमति ने इन्हें नवगीत से दूर ही रखा। इस कारण इन श्रेष्ठ रचनाकारों को नवगीत के आँगन में अपनी वाणी सुनाने का अवसर न मिला तो नवगीत भी इनकी उपस्थिति से गौरवान्वित होने के क्षण न पा सका। गीत और नवगीत को पिता-पुत्र की तरह परिभाषित किये जाने और पिता का प्रवेश पुत्र के आँगन में वर्जित बतानेवालों ने अपनी अहं तुष्टि भले ही कर ली हो, नवगीत की हानि होने को नहीं रोक सके। गीत के मरने का मिथ्यानुमान कर गर्व के हिमालय पर जा खड़ी हुई प्रगतिवादी कविता को फिसलने में देर न लगी। 'नानक नन्हें यों रही जैसी नन्हीं दूब' और 'प्रभुता से लघुता भली, प्रभुता से प्रभु दूर' को जी रहा गीत नव वस्त्र धारण कर 'नव' विशेषण से अभिषिक्त होकर पुन: लहलहा रहा है। अब नवगीत के वैचारिक पक्ष को प्रगतिवादी कविता से व्युत्पन्न, छांदसिकता को उर्दू ग़ज़ल से आयातित, गेयता को पारंपरिक गीत की देन और लोकगीतों को प्रतिरोधी बताने की दुरभिसंधि नवगीत को उसकी अपनी जमीन से दूर कर उसके प्रासाद में सेंध लगाने का तथाकथित प्रगतिवादी विचारधारा प्रणीत कुत्सित प्रयास है। वरिष्ठ नवगीतकार हर खेमे में अपनी पूछ-परख का ध्यान रखते हुए भले ही मौन रहें किंतु विजय बागरी जैसे कलमकार जो नवगीत को गीत का वारिस मानते हुए दोनों को अभिन्न देखते, मानते और साँस-साँस में जीते हैं, अपनी रचनाओं से प्रमाणित करते हैं कि नवगीत वैचारिकता अपने समय को जीते हुए गीत से, गेयता पग-पग, डग-डग हर दिन गुनगुन करते लोकगीत से ग्रहण करता है। नवगीत छंद को कथ्य, लय और शैली के समायोजन से आवश्यकतानुसार बनाता-अपनाता है। इसीलिये नवगीत पारंपरिक छंदों के समान्तर विविध छंदों का सम्मिश्रण भी मुखड़े और अंतरे में स्वाभाविकता, सहजता और अधिकारपूर्वक कर पाता है। 
विजय बागरी का वैशिष्ट्य अपने परिवेश, प्रकृति और पर्यावरण के प्रति सजग और संवेदनशील होना है। उनकी गीति रचनाएँ कपोल कल्पना से दूर स्वभोगे अथवा अन्यों द्वारा भोगे हुए को साक्षी भाव से ग्रहण किये गए अनुभवों से नि:सृत हैं। विजय ग्राम्य और नागर दोनों अंचलों से जुड़े हैं इसलिए उनकी दृष्टि के सामने सृष्टि का व्यापक रूप अपनी छटा बिखेरता है। वे पूंजी द्वारा श्रम का शोषण होते देखकर चुप न रहकर अपनी कलम से शब्द-वार करते हैं-
आँखों में घड़ियाली आँसू
बगुले करते जाप।
रंग बदलते-
गिरगिट देखे ,
आसमान में साँप।
चमक-दमक,
कीकर की लगती,
जैसे हो सागौन।
.
मौसम गुंडा-
गर्दी करता
आदमखोर हवाएँ।
संवेदन की लाशें ढोतीं
कपटी शोकसभाएँ।
श्रम सीकर के
हरे घाव पर
लेपन करते लौन।
विजय का युवा मन समस्याओं को सुलझाने की प्रयास करता है और समाधान के रास्तों पर अवरोधों को देखकर कुंठित नहीं होता, वह व्यवस्था परिवर्तन का उद्देश्य लेकर कमियों को निडरता से इंगित करता है-
समाधान के दरवाज़े पर
लटक रहे हैं ताले।
.
जिरह पेशियाँ, कूट दलीलें
ढोती रोज कचहरी।
कैद फाइलों की कारा में,
अर्जी गूँगी-बहरी।
छद्म गवाही देनेवाले
गुंडे डेरा डाले।
.
सजी वकीलों की दूकानें
प्रतिष्ठान पंडों के।
बड़े-बड़े दफ्तर फरेब के
लहराते झंडों के।
मुंशी चपरासी लगते हैं
जैसे जीजा-साले।
जीवन के दरवाजे पर ताले लटकने के साथ-साथ दफ्तर की खिड़की भी बंद हो तो स्थिति बद से बदतर और गंभीर हो जाती है-
जीवन के
दफ़्तर की खिड़की
कब से नहीं खुली।
हठधर्मी के
ताले लटके,
सदियाँ बीत गईं।
मनुहारें करतीं
आँखों की
झीलें रीत गईं।
खुसुर-फुसुर
कर रहीं कुर्सियाँ,
मेजें मिलीं-जुलीं।
.
दीवारों पर
शीश पटकती,
मन की उथल-पुथल।
संदूकों में
बंद अपीलें,
कुंठित अगल-बगल।
टूट रही
बूढ़ी साँसों की,
हिम्मत नपी-तुली।
तमाम विसंगतियों और विडंबनाओं के बावजूद ज़िंदगी दर्द का दस्तावेज मात्र नहीं है, उसमें अन्तर्निहित आनंद की अनुभूतियाँ उसे जीने योग्य बनाये रखती हैं। विजय इस जीवनानंद को नवगीत का अलंकार बनाते हैं-
एक बदरिया
अँगना उतरी
छानी मार रही किलकारी।
.
कोयल मंगल-
गान सुनाती,
अमराई में रास रचाती।
चौमासे की-
शगुन पत्रिका
बाँच रही पुरवा लहराती।
बट-पीपर
आलिंगन करते,
पाँव-पखार रही फुलवारी।
.
भींज रही
पनघट पे गोरी,
उर अनुरागी चाँद-चकोरी।
ताँक-झाँक
कर रही बिजुरिया,
नैन मटक्का चोरा-चोरी।
बहुत दिनों के-
बाद दिखी हैं,
धरती की आँखें कजरारी।
रस को नवगीत का प्राणतत्व माननेवाले विजय नीरसता को किनारे कर सरसता की गगरी नवगीतों की पंक्ति-पंक्ति में उड़ेलने की सामर्थ्य रखते हैं-
मेरे गीत,
तुम्हारे मन की-
गलियों से जब गुजर रहे थे।
कर सोलह-
श्रृंगार सुहाने,
सपन सलोने सँवर रहे थे।
अधर-अधर-
दोहा चौपाई,
नज़र-नज़र कुण्डलिया रागी।
धड़कन-धड़कन
राग बसंती,
कल्याणी कविता अनुरागी।
.
कंठ-कंठ से
कलकंठी के,
सरगम के स्वर उतर रहे थे।
विजय के नवगीतों में मौलिक बिंबों की छटा देखते ही बनती है-
सूरज की
बूढ़ी आँखों में,
गहन मोतियाबिंद हुआ.
खेल रही है
धवल चाँदनी,
अँधियारे के साथ जुआ।
भिनसारे का
कुटिल कुहासा,
धुआँधार तेजाबी है।
मलय पवन
के, नैंन नशीले,
अटपट चाल शराबी है।
मौसम की
मादक नीयत से,
टपक रहा जैसे महुआ।
आधुनिक समाज में छद्म मुखौटा लगाने का प्रचलन इतना बढ़ गया है कि खाने से अधिक फेंकनेवाले भुखमरी पर पोथियाँ भरे जा रहे हैं जबकि भुखमरी की कगार पर खड़ा कर दिया गया आम जन तमाम अभावों से घिरा हुआ होकर भी पर्व-त्यौहार का आनंद ले-दे पाता है। विजय 'आजकल / कितनी विकल है / सभ्यता की नव सदी' 'लिख रहा / इतिहास गोया / रुग्णता की नव सदी' और 'हो रही / पत्थर ह्रदय / स्वच्छंदता की नव सदी' लिखकर विसंगतियाँ मात्र उद्घाटित नहीं करते अपितु 'कब पुजेगी / उल्लसित / उत्कृष्टता की नव सदी' लिखकर मुखौटों को उतारकर अकृत्रिमता की प्रतिष्ठा किये जाने का आव्हान भी करते हैं 
नवगीत में मैंने अपने नाम या उपनाम का प्रयोग उनके शब्दकोशीय अर्थ में किया है। 'चुप्पियों के गाँव में' शीर्षक नवगीत में विसंगतियों को उद्घाटित करने के साथ विजय ने भी अपने नाम / उपनाम का प्रयोग अंतिम पंक्ति में किया है। कवि के नाम या उपनाम को रचना में प्रयोग करने की यह परंपरा लोकगीतों तथा भक्ति काव्य से होते हुए उर्दू ग़ज़ल में 'तखल्लुस' के रूप में अपनी गयी।
थरथराते
मौसमी मनुहार के,
गीत घायल
चुप्पियों के गाँव में।
चूम रहे काँटे,
अंधेरों के कुटिल,
दिन दहाड़े, रौशनी के पाँव में।
ऋतुमती पछुआ
हवा-आसक्त उर,
सिद्धपीठों के पुजारी हो गए....
.... सभ्यता के
आचरण बगुलामुखी,
संस्कारों के शिकारी हो गए।
राजमहलों के
उजाले भी 'विजय'
आजकल षड्यंत्रकारी हो गए।
विजय के इन नवगीतों की भाषा बुंदेलखंड के कस्बों में प्रयुक्त हो रही आम बोलचाल की भाषा है। आधुनिक हिंदी का शुद्ध स्वरूप इनमें दृष्टव्य है। यह भाषा खड़ी हिंदी, बुंदेली, संस्कृत, देशज, उर्दू तथा अंगरेजी शब्दों के यथावश्यक शब्दों के मेल-जोल से बनाती है जिसमें व्याकरणिक नियम हिंदी के प्रयोग किये जाते हैं। विजय ने अंगरेजी शब्दों का प्रयोग (अपवाद नैट-चैट, टी. वी., मोबाइल) नहीं किया है। यह उनका वैशिष्ट्य है। संस्कृत निष्ठ शब्दों में स्वच्छंद, उद्घोष, निर्वासन, उल्लसित, कुम्भज, उदधि, गन्तव्य, मर्माहत, अहर्निश, विहंगम, अगोचर, अविरल, अभ्युत्थान, प्रहर्षित, हेमवर्णी, अंतर्व्यथा, निदाघ, नयनोदक, स्वस्तिवाचन, अंतर्तिमिर, शब्दातीत, तमासावृत्त, संसृति, प्रभंजन, संकल्पनाएं, प्रक्षालित, प्रनिपतों, पुलकावली, वल्लरियाँ आदि से देशज बुन्देली शब्द अवां, होरा, चौमासा, खुसुर-फुसुर, भिनसारा, बतकहाव, बदरिया, भींज, बिजुरिया, बखर, माटी, नेंगचार, बूंदाबारी, चिरैया, बिलोना, कुठारी, भिनसारे, पहरुए, बिछुआ, दुपहरिया, टकोरे, छतनारी, परपंच, लगैया, को है, समुहानी, सपन, बौराने, ठकुरसुहाती, कमरिया, ओसारे, गठरिया, धुंधुवाती, नदिया, राम रसोई, चौंतरा, रामजुहारें आदि गले मिलते हुए कथ्य को सरस और ह्रदयग्राही बनाते हैं। उर्दू शब्द इम्तिहान, दफ्तर, नजरें, ज़हर, दुआ-सलाम, वक्त, सैलाब, परवाज़, रौशनी, ज़िंदगी, गर्द-गुबार, तेजाबी, नुक्ताचीनी, सरेआम, मशहूर, पनाह, नागवार, दस्तूर, सबक, मगरूर, गुस्ताखी, बगावत, अदावत, मासूम, निशाना, दिल, अरमानों, नासूर, जिगर, गाफिल, सिरफिरे, मातमपुरसी, नफरत, फ़कीर, तस्वीर, दागी, महबूब, बड़ा, मुनादी, अहसासों, हुकूमत, पर्दाफाश, फरेबी, हलाकान, मगरूर, तहकीकातों, तबाही, सवालों, बाज़ार, आबरू, तनहाइयों, शोखियाँ वगैरह हमारी गंगो-जमुनी विरासत को आगे बढ़ाते हैं।
इस कृति के गीतों-नवगीतों में हिंदी के व्याकरण नियमों का पालन उचित ही किया गया है। उर्दू शब्दों के बहुवचन हिंदी व्याकरण के अनुसार हैं। जैसे- नजरें, अरमानों, अहसासों, तहकीकातों, सवालों, शोखियाँ आदि। कथ्य की सरसता में जन की जुबान पर चढ़े मुहावरों यथा- छाती पर होरा भूंजना, नैन मटक्का, घर का भेदी लंका ढाए, ठिकाने लगाना, जंगल में मंगल आदि वृद्धि की है।
इस दशक के नवगीतकारों की भाषा शैली में में पूर्ववर्तियों की तुलना में दो नए रुझान बहुलता से शब्द-युग्मों का प्रयोग तथा शब्दावृत्तियों का प्रयोग देखने में आ रहे हैं। अपने नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' में मैंने शब्द-युग्मों तथा शब्दवृत्ति के प्रयोग किए हैं। इससे कथ्य के भाषिक-प्रवाह, लयात्मकता, सरसता तथा लोकरंजकता में वृद्धि होती है। विजय के नवगीत भी इन रुझानों से युक्त हैं। इस कृति में प्रयोग किये गए शब्द युग्मों में कुछ पारंपरिक किंतु अनेक सर्वथा नवीन हैं। मन-मतंग, हरा-भरा, धूल-धूसरित, सावन-भादों, दीन-हीन, खेतों-खलिहानों, राग-द्वेष, मान-मनौती, बाहर-भीतर, उथल-पुथल, सज-धज, पल-छिन, साँझ-सकारे, मेल-मुलाकातें, व्यथा-कथा, खेत-खलिहान, घाट-प्रतिघात, नेट-चैट, राम-रसोई, सुचिता-सच्चाई, रात-दिन, देह-पिंजरे, प्राण-पंछी, सुर-टाल, उमड़-घुमड़, दादुर-चातक, लपक-झपक, शब्द-अर्थ, लोक-लाज, हेल-मेल, रंग-बिरंगी, माया-मृग, मन-गन, तर्क-वितर्क, खंडन-मंडन, खेल-खिलौने, धरती-अम्बर, चाँद-सितारों, नदिया, पनघट, भूख-प्यास, चाँद-चकोरी, ताक-झाँक, चोरा-चोरी, मेघ-मल्हार, काल-कवलित, संगी-साथी, कुटुम-कबीले, पल-छिन, हरी-भारी, कोर-किनारे, हँसी-ठहाके, ठौर-ठिकाने, मन-मधुबन, सोलह-श्रृंगार, सपन-सलोने, दोहा-चौपाई, दुखी-निराश, सरित-सरोवर, उमड़-घुमड़, दर्द-पीर, वयः-कथा, गुना-भाग, रिश्ते-नातों, हर्ष-उल्लास, गर्द-गुबार, पुष्कर-पुण्डरीक, तुलसी-चौरे, विषय-वासना, नून-तेल, माखन-मिसरी, धक्का-मुक्की, भीड़-भाद, हाथा-पाई, ताना-बना, लुटे-पिटे, सृष्टि-दृष्टि, संत-कंत, गीत-प्रीत, नेह-गह, हेल-मेल, भूखी-प्यासी, हेरा-फेरी, जोड़-घटना, ज्ञान-ध्यान, पूजा निष्ठा, मन-मंदिर, रंग-भंग, छल-छंद, कुआँ-बावली, लू-लपट, भूखी-प्यासी, तट-तरुवर, मथुरा-काशी, माघ-पूस, जोगन-बैरागन, नाप-तौल, हँसी-खुशी, चाल-चलन, सुख-शांति, चाँद-तारे, घात-प्रतिघात, महकी-चहकी, कपट-कौशल, माघ-पूस, खात-बिछौना, छल-बल, संझा-बाती, गाँव-शहर, दावानल-पतझर, हानि-लाभ, सुख-दुःख, चहल-पहल, भूल-भूलैंया, नोंक-झोंक, रुदन-मुस्कान, छल-छंद-चतुरी, वर्ष-मास-दिन, सत्यं-शिवं-सुन्दरं आदि-आदि शब्द युग्म कथ्य की अर्थवत्ता तथा वाचिक सौन्दर्य की वृद्धि कर रहे हैं।
यह कृति शब्दावृत्तियों के प्रयोग की दृष्टि से भी समृद्ध है। शब्दावृत्ति से आशय किसी शब्द के दो बार प्रयोग करने से है। ऐसा कथ्य पर अतिरिक्त जोर देने के लिए किया जाता है। इससे उत्पन्न पुनरावृत्ति अलंकार भाषिक तथा वाचिक सौन्दर्य वर्धक होता है। विजय ने अधर-अधर, नज़र-नज़र, धड़कन-धड़कन, कंठ-कंठ, लहर-लहर, अंग-अंग, छंद-छंद, रोम-रोम, किरण-किरण, अंग-अंग, गात-गात, कण-कण, पात-पात, पोर-पोर, पनघट-पनघट, धड़कन-धड़कन, पोर-पोर, फूंक-फूंक, लहर-लहर, घाट-घाट, कली-कली, दर-दर, धार-धार, लौट-लौट, पल-पल, चुपके-चुपके, रात-रात, करवट-करवट, शब्द-शब्द, उलट-उलट, अभी-अभी, जनम-जनम, सहते-सहते, कदम-कदम, कहीं-कहीं, किराचा-किराचा, सर-सर, पोर-पोर, जन-जन, चेहरे-चेहरे, तौबा-तौबा, प्रश्न-प्रशन, अक्षर-अक्षर, क्रंदन-क्रंदन, सींच-सींच, कुहू-कुहू, चुपके-चुपके, बूँद-बूँद, घाट-घाट, तिनका-तिनका, गली-गली, घर-घर, ऊँचे-ऊँचे, रिमझिम-रिमझिम, पोर-पोर, मंद-मंद, पट्टा-पट्टा, क्या-क्या, कभी-कभी, चूर-चूर, कण-कण, सांय-सांय, माखन-मिसरी, चाल-चरित्र आदि शब्दावृत्तियों का सार्थक-सटीक प्रयोग कर गीति रचनाओं को अर्थवत्ता प्रदान की है। 
युवा नवगीतकार अपने परिवेश और पर्यावरण के प्रति सचेत है। नवगीतों में वट, पीपल, अमराई, कचनार, केतकी, सरसों, हरसिंगार, पलाश, मोगरा, मंजरियाँ, फुलवारी आदि अपनी सुषमा यथास्थान बिखेर रहे हैं। कोयल, चिरैया, मैना, दादुर, चातक, बैल आदि पात्र ग्राम्यांचली परिवेश को जीवंत कर रहे हैं। यह नवगीतकार अपनी अभिव्यक्ति सामर्थ्य के बाल पर कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहने की पारंपरिक विरासत को सम्हाल सका है। पंख थकावट ओढ़े / बैठे, परवाजें संकट में पारिस्थिक विवशता, धूप पसीना पोंछ रही में विरोधाभास, चटनी-रोटी / खाते-खाते गयी ज़िंदगी ऊब में निराशा, बीजों से / जब अंकुर फूटे /खेतों ने श्रृंगार किया तथा उम्मीदों की / खोल खिड़कियाँ / मुखरित हुईं मचाने में आशावाद, उठ भिनसारे / विहग-स्वरों ने / गीतों का गुंजार किया तथा छलक उठे प्यासे अधरों से / प्रीति पेय, नवगीत तुम्हारे में श्रृंगार, रौशनी के तामसी / बरताव पर, मैं चुप रहूँ में दुविधा, नेताओं के / बतकहाव से / झरने लगे बताशे में राजनैतिक हलचल, हेरा-फेरी / के चक्कर में / चोरों के सरदार में सामाजिक वातावरण, खोटे सिक्के / चाल-चलन से / हुए बहुत मगरूर में सटीक बिम्बात्मकता, बेशर्मी की / मोटी खालें / सत्ता का दस्तूर में शासन के प्रति घटती जनास्था, वक्त छोड़कर / चला गया कुछ / तहकीकातें नयी-नयी में राजनैतिक भ्रष्टाचार, रात काटती / जलती बीडी / टूटा छप्पर, टाट-बिछौना में ग्रामीण विपन्नता, रोज दिहाड़ी / मारी जाती / सरे-आम छल-बल से में श्रमिक शोषण, चले शहर की / ओर गाँव की / पगडंडी के पाँव में ग्रामीण पलायन, कहीं-कहीं / छल-छंद-चातुरी / भला करे भगवान् में पारंपरिक भाग्यवादिता, दहक रही है / अंगारों में / मधुमासी तरुणाई में युवाओं के समक्ष उपस्थित विषम परिस्थितियाँ, बदल रही / चिन्तन की भाषा / मूल्यों का अनुवाद में सतत बदलते मूल्य, कितनी बरसातों / ने आकर / पूछा कभी हिसाब में प्रकृति की उदारता, नैट-चैट / टी. वी., मोबाइल / का जूनून, लादे सर पर / राम-रसोई / अंतर्पुर तक / विज्ञापन की गिद्ध नज़र में हावी होता बाजारवाद, उमड़-घुमड़ / कर बदरा छाए / नाचन लागे मोर में ऋतु-परिवर्तन, बंदनवार / सजें गीतों के / आभूषित अनुप्रास से में लोक की उत्सवधर्मिता, ज़िंदगी ही/ जिंदगी का / आखिरी पैगाम में जिजीविषा शब्दित होकर पाठक को रचनाओं से एकात्मकता स्थापित करने में सहायक है।
'चुप्पियों के गाँव में' समय-साक्षी गीति-रचनाओं (गीत-नवगीत) का गुलदस्ता है जिसमें नाना प्रकार के पुष्प अपने रूप, रंग, सुरभि की नैसर्गिक छटा से पाठक को मंत्र-मुग्ध कर जीवन की विषमताओं के चक्रव्यूह से उपजी पीड़ा और दर्द के संत्रास को सहने, उससे बाहर निकलने के आस्था-दीप को जलाये रखने तथा अभिमन्यु की तरह जूझने की प्रेरणा देता है। नर्मदांचली लोक जीवन की सहज-सरस बानगी समेटे गीत-पंक्तियों से स्वस्थ्य जन-मन-रंजन करने की दिशा में कलम चलाता युवा रचनाकार अपनी भाषिक सामर्थ्य, शैल्पिक कौशल, छान्दस नैपुण्य तथा अभिव्यक्ति क्षमता से अपने उज्जवल भविष्य के प्रति आश्वस्त करता है। मुझे भरोसा है कि यह कृति वरिष्ठों से शुभाशीष, हमउम्रों से समर्थन और कनिष्ठों से सम्मान पाकर विजय की कलम से नयी नवगीत संकलनों के प्रागट्य की आधार शिला बनेगी।
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समीक्षा

कृति चर्चा :
"मुखर अब मौन है": सुन-समझता कौन है?
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण: मुखर अब कौन है, गीत संग्रह, डॉ. मधु प्रधान, प्रथम संस्करण २०१६, आकार पृष्ठ १०९ मूल्य २५०/-, , आवरण पेपरबैक बहुरंगी २१.५ से. x १४ से., व्ही. पी. पब्लिशर्स, डब्ल्यू २, ८६२ बसंत विहार, नौबस्ता, कानपुर, चलभाष ९४५०३३१३४०, ईमेल vppublishers@gmail.com, रचनाकार संपर्क: ३ ए /५८-ए आजाद नगर, कानपुर, चलभाष ०९२३६०१७६६६, ०८५६२९८४८९५]
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"मुखर अब मौन है" विश्ववाणी हिंदी के गीति काव्य की छायावादी विरासत को सहेजने-सम्हालने ही नहीं जीनेवाली वरिष्ठ गीतकार डॉ. मधु प्रधान की बहु प्रतीक्षित कृति है। छायावादी भावधारा को साहित्यकारों की जिस पीढ़ी ने प्राण-प्राण से पुष्पित करने में अपने आपको अर्पित कर दिया उनका साहचर्य और उनसे प्रेरणा पाने का सौभाग्य मधु जी को मिला है। पूज्य मातुश्री स्व. शांति देवी व बुआ श्री महीयसी महादेवी के श्री चरणों में बैठकर कुछ सुनने-सीखने का सौभाग्य मुझे भी मिला है।  कृष्णायनकार स्व. द्वारकाप्रसाद मिश्र, मांसलतावाद के जनक स्व. रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', नर्मदांचल के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ कवि स्व. जवाहरलाल चौरसिया 'तरुण', श्री चंद्रसेन 'विराट', डॉ. रोहिताश्व अस्थाना तथा गुरुवर श्री सुरेश उपाध्याय आदि ने गीत और छंद की आधारभूत समझ विकसित करने में पथ-प्रदर्शन किया। 'मुखर अब मौन है' से संवाद करते हुए स्मृतियाँ ताजी हो रही हैं। मधु जी के इन गीतों में यत्र-तत्र मधु की मिठास व्याप्त है। जीवन में प्राप्त दर्द और पीड़ा को पचाकर मिठास के गीत गाने के लिए जिस जीवट और पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है वह मधु जी में है। पद्मभूषण नीरज जी ने ठीक ही कहा है- "उनके भीतर काव्य-सृजन की सहज क्षमता है इसीलिए अनायास-अप्रयास उनके गीतों में बड़े ही मार्मिक बिंब स्वयं ही उतरकर सज जाते हैं।"

छायावादी गीत परंपरा में पली-बढ़ी मधु जी ने सौंदर्यानुभूति को जीवन-चेतना के रूप में अपने गीतों में ढाला है। उनका मानस जगत कामना और कल्पना को इतनी एकाग्रता से एकरूप करता है कि अनुभूति और अभिव्यक्ति में अंतर नहीं रह जाता। स्मृतियों के वातायन से झाँकते हुए वर्तमान के साथ चलने में असंगति और स्मृति-भ्रम का खतरा होता है किंतु मधु जी ने पूरी निस्संगता के साथ कथ्य के साथ न्याय किया है-


"मेरे मादक
मधु गीतों में
तुमने कैसी तृषा जगा दी।
मैं अपने में ही खोई थी
अनजानी थी जगत रीति से
कोई चाह नहीं थी मन में
ज्ञात नहीं थे गीत प्रीत के
रोम-रोम अब
महक रहा है
तुमने सुधि की सुधा पिला दी।"
सुधियों की सुधा पीकर बेसुध होना सहज-स्वाभाविक है।

मधु जी के ये गीत साँस के सितार पर राग और विराग के सुर एक साथ जितनी सहजता से छेड़ पाते हैं वह अनुभूतियों को आत्मसात किये बिना संभव नहीं होता।

"प्राणी मात्र
खिलौना उसका
जिसमें सारी सृष्टि समाई ...
... आगत उषा-निशा का स्वागत
ओस धुले पथ पर आमंत्रण
पर मन की उन्मादी लहरें
खोज रहीं कुछ मधु-भीगे क्षण
 किंतु पता
किसको है किस पल
 ले ले समय
विषम अंगड़ाई।"

उनके गीतों में छायावाद (वे सृजन के / प्रणेता, मैं / प्रकृति की / अभिव्यंजना हूँ , कौन बुलाता / चुपके से / यह मौन निमंत्रण / किसका है, तुम रहे / पाषाण ही / मैं आरती गाती रही, शून्य पथ है मैं अकेली / हो रहा आभास लेकिन / साथ मेरे चल रहे तुम आदि) के साथ कर्म योग (मोह का परिपथ नहीं मेरे लिए / क्यूं (क्यों) करूँ मुक्ति का अभिनन्दन / मैं गीत जन्म के गाऊँगी, धूप ढल गयी, बीत गया दिन / लौट चलो घर रात हो गई आदि) का दुर्लभ सम्मिश्रण दृष्टव्य है।

काव्य प्राणी की अन्तश्चेतना में व्याप्त कोमलतम अनुभूति की ध्वन्यात्मक अभिव्यक्ति है।  इसमें जीवन के हर उतार-चढ़ाव, धूप-छाँव, फूल-शूल,  सुख-दुःख की अभिव्यक्ति इस तरह होती है कि व्यक्ति का नाम न हो और प्रवृत्ति का उल्लेख हो जाए। कलकल और कलरव , नाद और ताल, रुदन और हास काव्य में बिंबित होकर 'स्व' की प्रतीति 'सर्व' के लिए ग्रहणीय बनाते हैं। मधु जी ने जीवन में जो पाया और जो खोया उसे न तो अपने तक सीमित रखा, न सबके साथ साझा किया। उन्होंने आत्मानुभव को शब्दों में ढालकर समय का दस्तावेज बना दिया। उनके गीत उनकी अनुभूतियों को इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि वे स्वयं अनुपस्थित होती हैं लेकिन उनकी प्रतीति पाठक / श्रोता को अपनी प्रतीत होती है। इसीलिये वे अपनी बात में कहती हैं- "रचनाओं से भी ज्यादा महत्वपूर्ण कारक होते हैं जो सृजन को जमीन देते हैं और उनका पोषण करते हैं। वे बीज रूप में अंतस में बैठ जाते हैं और समय पाकर अंकुरित हो उठते हैं।"

रचनाकार की भावाकुलता कभी-कभी अतिरेकी हो जाती है तो कभी-कभी अस्पष्ट, ऐसा उसकी ईमानदारी के कारण होता है। अनुभूत को अभिव्यक्त करने की अकृत्रिमता या स्वाभाविकता ही इसका करक होती है। सजग और सतर्क रचनाकार इससे बचने की कोशिश में कथ्य को बनावटी और असहज कर बैठता है। 'काग उड़ाये / सगुन विचारे' के सन्दर्भ में विचारणीय है कि काग मुंडेर पर बैठे तो अतिथि आगमन का संकेत माना जाता है (मेरी अटरिया पे कागा बैठे, मोरा जियरा डोले, कोई आ रहा है)।

"कहीं नीम के चंचल झोंके
बिखरा जाते फूल नशीले"
के संदर्भ में तथ्य यह कि महुआ, धतूरा आदि के फूल नशीले होते हैं किंतु नीम का फूल नशीला नहीं होता।
इसी प्रकार तथ्य यह है कि झोंका हवा का होता है पेड़-पौधों का नहीं, पुरवैया का झोंका या पछुआ का झोंका कहा जाता है, आम या इमली का झोंका कहना तथ्य दोष है।

'मेरे बिखरे बालों में तुम / हरसिंगार ज्यों लगा रहे हो' के सन्दर्भ में पारंपरिक मान्यता है कि हरसिंगार, जासौन, कमल आदि पुष्प केवल भगवान को चढ़ाये जाते है। इन पुष्पों का हार मनुष्य को नहीं पहनाया जाता। बालों को मोगरे की वेणी, गुलाब के फूल आदि से सजाया जाता है।

मधु जी का छंद तथा लय पर अधिकार है, इसलिए गीत मधुर तथा गेय बन पड़े हैं तथापि 'टु एरर इज ह्युमन' अर्थात 'त्रुटि मनुष्य का स्वभाव है' लोकोक्ति के अनुसार 'फूलों से स्पर्धा करते (१४) / नए-नए ये पात लजीले (१६) / कहीं नीम के चंचल झोंके (१६) / बिखरा जाते फूल नशीले (१६) के प्रथम चरण में २ मात्राएँ कम हो गयी हैं। यह संस्कारी जातीय पज्झटिका छंद है जिसमें ८+ गुरु ४ + गुरु का विधान होता है।

केन्द्रीय हिंदी निदेशालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा निर्धारित वर्तनी मानकीकरण के प्रावधानों का पालन न किए जाने से अनुस्वार (बिंदी) के प्रयोग में कहीं-कहीं विसंगति है। देखें 'सम्बन्ध', 'अम्ब'र  तथा 'अकंपित'। इसी तरह अनुनासिक (चंद्र बिंदी) के प्रयोग में चूक 'करूँगी' तथा 'करूंगी' शब्द रूपों के प्रयोग में हो गयी है। इसी तरह उनके तथा किस की में परसर्ग शब्द के प्रयोग में भिन्नता है। उद्धिग्न (उद्विग्न), बंधकर (बँधकर), अंगड़ाई (अँगड़ाई), साँध्य गगन (सांध्य गगन), हुये (हुए), किसी और नाम कर चुके (किसी और के नाम कर चुके), भंवरे (भँवरे), संवारे (सँवारे), क्यूं (क्यों) आदि में हुई पाठ्य शुद्धि में चूक खटकती है।

डॉ, सूर्यप्रसाद शुक्ल जी ने ठीक ही लिखा है "जीवन सौंदर्य की भाव मई व्यंजन ही कल्पना से समृद्ध होकर गीत-प्रतिभा का अवदान बनती है.... मानस की अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए शब्द-सामर्थ्य की एक सीमा तो होती है, जहाँ वाणी का विस्तार भाव-समाधि में समाहित हो जाता है... इस स्थति को ही 'गूँगे का गुड़' कह सकते हैं। 'मुखर अब मौन है' में जिस सीमा तक शब्द पहुँचा है, वह प्रिय स्मृति में लीन भाव समाधी के सूक्ष्म जगत का आनंदमय सृजन-समाहार ही है जिसमें चेतना का शब्दमय आलोक है और है कवयित्री के सौंदर्य-भाव से प्रस्फुटित सौंदर्य बोध के लालित्य का छायावादी गीत प्रसंस्करण।"

संकलन के सभी गीत मधु जी के उदात्त चिंतन की बानगी देते हैं। इन गीतों को पढ़ते हुए महीयसी महादेवी जी  तथा पंत जी का स्मरण बार-बार हो आता है।
"कोई मुझको बुला रहा है
बहुत दूर से
आमंत्रण देती सी लहरें
उद्वेलित करतीं
तन-मन को
शायद सागर
का न्योता है
मेरे चिर प्यासे
जीवन को
सोये सपने जगा रहा है
बहुत दूर से"

"भूल गए हो तुम मुझको पर
मैं यादों को पाल रही हूँ"
कहीं अँधेरा देख द्वार पर
मेरा प्रियतम  लौट न जाए
देहरी पर ही खड़ी रही मैं
रात-रात भर दिया जलाये
झंझाओं से घिरे दीप को
मैं यत्नों से संभाल रही हूँ"
में प्रेम की उदात्तता देखते ही बनती है।मधु जी का यह गीत संग्रह नयी पीढ़ी के गीतकारों को अवश्य पढ़ना चाहिए. भाषिक प्रांजलता, सटीक शब्द चयन, इंगितों में बात कहना, 'स्वानुभूति' को 'सर्वानुभूति' में ढालना, 'परानुभूति' को 'स्वानुभूति' बना सकना सीखने के लिए यह कृति उपयोगी है। श्रेष्ठ-ज्येष्ठ गीतकार मधु जी की रचनाएँ नई पीढ़ी के लिए मानक की तरह देखी जायेंगी, इसलिए उनका शुद्ध होना अपरिहार्य है।
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बुधवार, 12 सितंबर 2018

समीक्षा

कृति चर्चा:

दंतक्षेत्र : गतागत को जोड़ती समकालिक कृति 

- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

[कृति विवरण- दंतक्षेत्र (दंतेवाड़ा: थोड़ा जाना-थोड़ा अनजाना), लेखक- राजीव रंजन प्रसाद, आई.एस.बी.एन ९७८-९३-८४६३३ -८३-७, आकार - डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ४५६, मूल्य ५००/- प्रकाशक - यश पब्लिशर्स, एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स १/१०७५३ सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा, दिल्ली ११००३२]

विश्ववाणी हिंदी में प्रभूत लेखन होते हुई भी, समसामयिक परिदृश्य पर गतागत को ध्यान में रखते हुए सार्थक तथा दूरगामी सोच को आमंत्रित करता लेखन कम ही होता है। विवेच्य कृति दंतक्षेत्र (दंतेवाडा : थोड़ा जाना, थोड़ा अनजाना) एक ऐसी ही कृति है जिसे पढ़कर पाठक को गौरवमय विरासत, अतीत में हुई चूकों, वर्तमान में की जा रही गलतियों और भविष्य में उनसे होनेवाले दुष्प्रभावों का आकलन करने की प्रेरणा ही नहीं आधारभूत सामग्री भी प्राप्त होती है। विवेच्य पुस्तक वर्त्तमान में नक्सलवाद के नाम से संचालित दिशाहीन आन्दोलन से सर्वाधिक क्षत-विक्षत हुए बस्तर के दंतेवाड़ा क्षेत्र पर केन्द्रित है। भारतीय राजनीति में चिरकाल से उपेक्षित यह अंचल अब आतंक और दहशत का पर्याय बन गया है। विधि की विडम्बना यह कि देश के औद्योगिक और आर्थिक उन्नयन में सर्वाधिक अवदान देते रहने के बाद भी इस अन्चल को उसका प्रदेय कभी नहीं मिला। 'जबरा मारे रोन न दे' की लोकोक्ति का अनुसरण करते हुए केंद्र सरकारें, चाहे वे विदेशी रही हों या भारतीय, जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे इस क्षेत्र के प्रति सौतेली माँ की वक्र-दृष्टि रखती रही हैं। लेखन राजीव रंजन प्रसाद इसी माटी के बेटे हैं, इसलिए उन्हें यह विसंगति अंतर्मन में सालती रही है। प्रस्तुत किताब दीर्घकालिक मन-मंथन से नि:सृत नवनीत है।

विश्व की सर्वाधिक पुरानी गोंडवाना भूमि में प्राण संचार करते बस्तर के दण्डकारण्य क्षेत्र के ऐतिहासिक गौरव, प्राकृतिक वैभव, आर्थिक समृद्धि, मानवीय निश्छलता, राजनैतिक दुराग्रह्जनित दुश्चक्रों, आम जन की पीड़ा तथा रक्तरंजित सशस्त्र आन्दोलन की निष्पक्ष, पूर्वाग्रहरहित विवेचना करते राजीव रंजन ने अभिव्यक्ति की स्पष्टता, भाषा की सरलता तथा प्रस्तुति की सरसता का ध्यान रखा है। इस कारण यह कृति उपन्यास न होते हुए भी औपन्यासिक औत्सुक्य, कहानी न होने हुए भी कहानीवत कथानक, कविता न होते हुए भी काव्यवत रसात्मकता तथा निबंध न होते हुए भी नैबंधिक वैचारिकता से सम्पन्न है। इस कृति की अंतर्वस्तु विषय-बाहुल्य तथा विभाजनहीनता से कभी-कभी किसी वैचारिक उद्यान में टहलने जैसे प्रतीति कराती है। दंतेवाडा के नामकरण, भूगर्भीय संरचना, पुरातात्विक महत्त्व और अवहेलना, ऐतिहासिक संघर्ष, स्वाधीनता प्रयासों तथा स्वातंत्र्योत्तर राजनीति सब कुछ को समेटने का यह प्रयास पठनीय ही नहीं विचारणीय भी है। बस्तर की भूमि से लगाव और जुड़ाव ने लेखक को गहराए में जाने के स्थान पर विस्तार में जाने को प्रेरित किया है। इसका अन्य अकारण विवाद टालने की चाह भी हो सकती है। पर्यावरणीय वैशिष्ट्य, वानस्पतिक वर्गीकरण, जैव विविधता, अंधाधुंध खनिजीय दोहन, प्राकृतिक विनाश, आम जन की निरंतर होती उपेक्षा हर आयाम को छुआ है लेखक ने।

प्रकृति-पुत्र वनवासियों का तथाकथित सभ्यजनों द्वारा शोषण, मालिक मक्बूजा काण्ड के कारण अपनी जमीन और वन से वंचित होते वनवासी जन सामान्य की पीड़ा और उनसे की गयी ठगी को राजीव रंजन ने बखूबी उजागर किया है। राजतन्त्र, विदेशी शासन और लोकतंत्र तीनों कालों में प्रशासनिक अधिकारियों की अदूरदर्शिता और मनमानी ने जन सामान्य का जीना दूभर करने में कोई कसर नहीं छोडी। जनजातीय जीवन पद्धति और जीवन मूल्यों को समझे बिना खुद को श्रेष्ठ समझा कर लिए गए आपराधिक प्रशासनिक निर्णयों की परिणति महारानी प्रफुल्ल कुमारी की हत्या से लेकर महाराज प्रवीर चंद भंजदेव की हत्या तक अबाध चलती रही है। बस्तर और छतीसगढ़ से गत ६ दशकों के निरंतर जुड़ाव के कारन मैं व्यक्तिगत रूप से उन्हीं निष्कर्षों को पा सका हूँ जो राजीव जी ने व्यक्त किये हैं। राजेव जी गैर राजनैतिक हैं इसलिए उन पर कोई वैचारिक प्रतिबद्धताजनित दबाव नहीं है। उन्होंने मुक्त मन से पौराणिक गाथाओं का भी उल्लेख यथास्थान किया है और आदिवासीय जीवन शैली के सकारात्मक-नकारात्मक प्रभावों का भी उल्लेख किया है।

इस कृति में सभी आदिवासी विद्रोहों की संक्षिप्त पृष्ठभूमि, कारण, टकराव, संघर्ष, दमन और पश्चातवर्ती परिवर्तनों का संकेतन है। इस क्रम में वर्त्तमान नक्सलवादी आन्दोलन के मूल में व्याप्त राजनैतिक स्वार्थ, स्थानीय जन-हित की उपेक्षा, प्रशासनिक अदूरदर्शिता, विनाश और अलगावजनित जन-असंतोष की अनदेखी को भली-भाँति देखा और दिखाया है लेखक ने। आदिवासियों को बर्बर, असभ्य, क्रूर और नासमझ मानकर उन पर तथाकथित जीवन शैली थोपना ही सकल विप्लवों का कारण रहा है। विडम्बना यह कि निरपराध और निर्दोष जन ही षड्यंत्रकारियों द्वारा मारे जाते रहे। वर्त्तमान शासन-प्रशासन भी पारंपरिक सोच से भिन्न नहीं है। सोच वही है, थोपने के तरीके बदल गए हैं। छतीसगढ़ बनने के पूर्व पीढ़ियों से वहाँ रहनेवाने लघु किसान और श्रमजीवी अब वहाँ नहीं हैं। उनकी छोटी-चोटी जमीनें शासन या व्यापारियों द्वारा येन-केन-प्रकारेण हडपी जा चुकी हैं। कुछ धन मिला भी तो टिका नहीं।

आदिवासी जीवन शैली में अन्तर्निहित मानवीय मूल्य, ईमानदारी, निष्कपटता, निर्लोभता, नैतिकता आदि का ज़िक्र बार-बार हुआ है। नाग संस्कृति इन्हीं जीवन मूल्यों पर आधृत रही है। लिंगादेव औए आदिवासी वंश परंपरा का भी उल्लेख है। भगवान् राम का ननिहाल है यह क्षेत्र। राजीव ने इन सभी का संकेत तो किया है किंतु किसी पर व्यवस्थित-विस्तृत अध्ययन नहीं दिया। इस पुस्तक की सामग्री को छोटे-छोटे अध्यायों में विभक्त कर विषय वार दिया जाता तो कुछ पृष्ठ संख्या बढ़ती किंतु उपयोगिता अधिक हो जाती। मेरा सुझाव है कि आगामी संस्करण में विषयवार और घटनावार अध्याय, अंत में अकारादिक्रम में शब्दानुक्रमणिका तथा सन्दर्भ ग्रन्थ सूची जोड़ दी जाए ताकि इसकी उपादेयता शोध छात्रों के लिए और अधिक हो सके। पुस्तक की विषय-वस्तु अत्यधिक व्यापक है। सामग्री की व्यवस्था बैठक खाने की तरह न होकर भंडार गृह की तरह हो गयी है। इससे विश्वसनीयता में कमी भले ही न हो, उपादेयता पर विपरीत प्रभाव पड़ा है।

साहित्य की दृष्टि से इसे गद्य विधा में समाजशास्त्रीय विवेचनात्मक ग्रंथों में ही परिगणित किया जाएगा। लेखक ने पाठकीय दृष्टि से भाषा को सहज बोधगम्य, प्रसाद गुण संपन्न रखा है। यत्र-तत्र उद्धरण देकर अपनी बात की पुष्टि की है। मुद्रण की शीघ्रता में कुछ पाठ्य त्रुटियाँ छूट गयी हैं जो स्वादिष्ट खीर में कंकर की तरह हैं। राजीव जी ने पुरातत्वीय सन्दर्भों में लिखा है- 'कोई भी विद्वान् एक स्पष्ट दिशा नहीं देते... अपने -अपने मायने निकाल रहे हैं।' इस कृति में भी लेखक वर्तमान से जुड़े अपना स्पष्ट मत देने बचा है। इस नीति का सुपरिणाम ह है कि पाठक खुद अपना मत निर्धारण बिना अन्य से प्रभावित हुए कर सकता है। बहुचर्चित और विश्व पुस्तक मेले में लोकप्रिय रही यह कृति पाठकों को बस्तर, दंतेवाडा और छतीसगढ़ गतागत के सम्बन्ध में चिंतन करने को प्रेरित करने में समर्थ है। शोध छात्रों के साथ हे राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों को भी इसे पढ़कर यह समझना चाहिए कि स्थानीयता की उपेक्षा कर थोपी गयी जीवन पद्धति के परिणाम सकारात्मक नहीं होते। श्री ब्रम्हदेव शर्मा अथवा श्री नरोन्हा जैसे अधिकारसंपन्न अधिकारी जो एकतरफा निर्णय लेते हैं वे लोक जीवन और जीवन पद्धति को स्वीकार्य नहीं होते। 'लोकतत्र में तंत्र को लोक का सहायक होना चाहिए, स्वामी नहीं' राजीव रंजन इसे स्पष्ट शब्दों में न कहकर भी घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में विवेचन करते हुए व्यक्त कर देते हैं। हमारी सरकारों को दलीय और व्यक्तिगत हित से ऊपर उठकर आम जन के हित में सोचना होगा तभी जन कल्याणकारी राज्य की उद्भावना साकार हो सकेगी।

सारत: 'दंतक्षेत्र' शीर्षक यह कृति एक क्षेत्र विशेष तक सीमित न रहकर, समूचे मानवैतिहास में व्याप्त प्रकृति-अनुकूल और प्रकृति-प्रतिकूल जीवन शैलियों के संघर्ष में अन्तर्निहित तत्वों की विवेचन व्यक्तियों और घटनाओं के माध्यम से करती है। लेखक इस महत प्रयास हेतु साधुवाद का पात्र है।
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hartalika ke dohe

हरतालिका तीज
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गौरा बौरा के लिए, करें तीज व्रत मौन
कठिनाई क्यों सरल हो, बूझ सकेगा कौन?
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भिन्न न रह जब भी हुए, दो मन मिलकर एक
हर कंकर शंकर हुआ, लिए इरादे नेक.
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नाद करें चढ़ नादिया, भोले झूमे मस्त
ताल दे रहीं है उमा, थाम हस्त में हस्त
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चाँद-चाँदनी की तरह, सदा रहें जो साथ
उस दम्पति का कभी भी, झुका न जग में माथ
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चाँद और आकाश में, युग-युग का संबंध
धरा-चाँदनी ने किया, चिर कालिक अनुबंध
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न्यायालय ने कह दिया, बदलो अब कानून
आबादी बढ़ना रुके, तुरत सून से सून
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कुछ दिन की हरतालिका, पिछड़ापन उपवास
कोर्ट कर रही हाय क्यों, संस्कृति का उपहास?
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जज की जजनी बाई जी, चाहें पिज्जा रोज
इसीलिए यह फैसला, हुआ कर सकें भोज
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सात जन्म का वचन दे, मोदी बैठे छोड़
मोदिन व्रत कैसे करें, नाता सकीं न जोड़
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बौरा-गौरा भीत हैं. भारत का लाख हाल
छोड़ गए कैलाश भी, राहुल करें न ढाल
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ख़ास-ख़ास को दीजिए, उमा-महेश्वर दंड
आम आदमी की विपद, हरें मिटा पाखंड
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जोड़ सके हरितालिका, मन के टूटे तार
जन्म-जन तक निभ सके, सबका सच्चा प्यार
११.९.२०१८
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