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गुरुवार, 6 सितंबर 2018

नवगीत संकलन और समीक्षा

नवगीत संकलन और समीक्षा
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१९८३
= राजेन्द्र गौतम,, गीत पर्व आया है, दिगंत प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली,  प्रथम संस्करण- जनवरी १९८३, ३०/-, पृष्ठ-९६    भूमिका माहेश्वर तिवारी  

१९९४ 
शशिकांत गीते, मृगजल के गुंतारे, शशिकांत गीते, ज्ञान साहित्य घर, जबलपुर, प्रथम संस्करण, ३०/-, पृष्ठ- ५७, भूमिका श्रीकांत जोशी

१९९८
राधेश्याम बंधु, प्यास के हिरन, पराग प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, ४०/-, पृष्ठ ९४  परिचय- संजीव सलिल

२००६ 
= राजा अवस्थी, जिस जगह यह नाव है, अनुभव प्रकाशन, ई २८ लाजपत नगर, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद २०१००५, प्रथम संस्करण, १२०/-, पृष्ठ-१३६ समीक्षा- संजीव सलिल।
= श्रीकृष्ण शर्मा, फागुन के हस्ताक्षर, अनुभव प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद। प्रथम संस्करण, १००/-, पृष्ठ- ८६ समीक्षा- आचार्य भगवत दुबे।

२००८
= राधेश्याम बंधु, एक गुमसुम धूप, कोणार्क प्रकाशन बी ३/१६३ यमुना विहार दिल्ली ११००५३, प्रथम संस्करण, १५०/-, पृष्ठ ९६ समीक्षक- संजीव सलिल
रामकिशोर दाहिया, अल्पना अंगार पर, उद्भावना प्रकाशन, ए २१ झिलमिल इंडस्ट्रियल एरिया,  जी. टी.  रोड, शाहदरा दिल्ली ११००९५। प्रथम संस्करण, १००/-, पृष्ठ- १९२, ISBN ९७८-९३-८०९१६-१६-३। समीक्षा- संजीव वर्मा 'सलिल' 


२००९ 
= श्याम श्रीवास्तव लखनऊ, किन्तु मन हारा नहीं, उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ, प्रथम संस्करण, १५०/-, पृष्ठ- १०४। भूमिका कुमार रवीन्द्र। 

२०११
= राधेश्याम बन्धु, नदियाँ क्यों चुप हैं, कोणार्क प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, १५०/-, पृष्ठ-११२ समीक्षा डॉ. परमानंद श्रीवास्तव।


२०१२ 
राधेश्याम बंधु, नवगीत के नये प्रतिमान,  कोणार्क प्रकाशन, बी-३/१६३ यमुना विहार, दिल्ली ११००५३, प्रथम संसकरण , ५०० /-, पृष्ठ- ४६४ परिचय- संजीव सलिल।
वीरेन्द्र आस्तिक, दिन क्या बुरे थे, कल्पना प्रकाशन, बी-१७७०,  जहाँगीरपुरी, दिल्ली ३३, प्रथम संस्करण, मूल्य- रूपये , पृष्ठ- ,  ISBN- 9788188790678 । परिचय- डॉ. संतोष कुमार तिवारी  
= सत्यनारायण, सभाध्यक्ष हँस रहा है, अभिरुचि प्रकाशन, ३/१४ कर्ण गली, विश्वास नगर, शाहदरा, दिल्ली, प्रथम संस्करण, १२०/-, पृष्ठ- १००। समीक्षा- डॉ. राजेन्द्र गौतम। 

२०१३ 
राम सेंगर, रेत की व्यथा कथा, उद्भावना प्रकाशन एच-५५, सेक्टर २३, राजनगर, गाजियाबाद, प्रथम संस्करण, ३००/-, पृष्ठ- १३५। समीक्षा - रामशंकर वर्मा।

२०१४
राघवेन्द्र तिवारी, जहाँ दरककर गिरा समय भी, पहले पहल प्रकाशन, २५-ए, प्रेस काम्प्लेक्स, भोपाल,  प्रथम संस्करण, ३००/-, पृष्ठ- ११६, ISBN ७८.९३.९२२ १२.३६.९ राघवेन्द्र तिवारी,  समीक्षा - डॉ. जगदीश व्योम।
रामकिशोर दाहिया, अल्लाखोह मची, उद्भावना प्रकाशन, एच ५५ सेक्टर २३, राजनगर, गाज़ियाबाद, प्रथम संस्करण, ३००/-, पृष्ठ- १४३, समीक्षा- संजीव 'सलिल' 
= रोहित रूसिया, नदी की धार सी संवेदनाएँ, अंजुमन प्रकाशन,  इलाहाबाद,  प्रथम संस्करण, १२०/-, पृष्ठ- ११२ समीक्षा गुलाब सिंह।
विनय मिश्र,, समय की आँख नम है, बोधि प्रकाशन, एफ-७७, सेक्टर-९, रोड नं.११, कर्तारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया, बाईस गोदाम, जयपुर-३०२००६,  प्रथम संस्करण, ११०/-, पृष्ठ- १४४। समीक्षा - डॉ. जगदीश व्योम।
वेद प्रकाश शर्मा 'वेद', नाप रहा हूँ तापमान को, ज्योति पर्व प्रकाशन, ९९-ज्ञान खंड-३, इंदिरापुरम, गाजियाबाद, प्रथम संस्करण, २४९/-, पृष्ठ- १२८। समीक्षा- संजय शुक्ल।

२०१५
= राजेन्द्र वर्मा, कागज की नाव, उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२। प्रथम संस्करण,  १५०/-, पृष्ठ-८० समीक्षा- संजीव वर्मा सलिल।
रामशंकर वर्मा, चार दिन फागुन के, उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२, प्रथम संस्करण, ३००/-, पृष्ठ-१५९ , समीक्षा- जगदीश पंकज।
= शिवानंद सिंह 'सहयोगी', सूरज भी क्यों बंधक, कोणार्क प्रकाशन, नई दिल्ली। प्रथम संस्करण, २००/-, पृष्ठ-१२८, ISBN-979-81-920238-7-8 समीक्षा- डा. पशुपतिनाथ उपाध्याय। 
= शीला पांडे, रे मन गीत लिखूँ मैं कैसे, बोधि प्रकाशन, लखनऊ, प्रथम संस्करण, ८०/-, पृष्ठ-८८, ISBN 978-93-85942-02-0,  समीक्षा- मधुकर अष्ठाना।  
= सीमा अग्रवाल, खुशबू सीली गलियों की, प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन, ९४२ आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, मूल्य- रूपये १२०/-, पृष्ठ- ११२ समीक्षा- संजीव 'सलिल'।*
= सुरेशचंद्र सर्वहारा, ढलती हुई धूप, बोधि प्रकाशन ऍफ़ ७७, सेक्र ९, मार्ग ११, करतारपुर औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर। प्रथम संस्करण, १०० रुपये, पृष्ठ-१२० , ISBN 978-93-84989-80-5 समीक्षा- आचार्य संजीव 'सलिल'।*

२०१६

= पंकज मिश्र 'अटल', बोलना सख्त मना है, बोधि प्रकाशन, एफ ७७ ए सेक्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६। प्रथम संस्करण, १००/-, पृष्ठ- १३६, SBN 978-93-85942-09-9 समीक्षा- संजीव सलिल। 

= श्याम श्रीवास्तव, जबलपुर, यादों की नागफनी, शैली प्रकाशन, २० सहज सदन, शुभम विहार, कस्तूरबा मार्ग, रतलाम । प्रथम संस्करण, १२०/-, पृष्ठ- ६२ समीक्षा- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'।*
= श्याम श्रीवास्तव लखनऊ, जिंदगी की तलाश में, नमन प्रकाशन, २१० चिन्टल्स हाउस, १६ स्टेशन रोड, लखनऊ-२२६००१। प्रथम संस्करण, अजिल्द १५०/-, सजिल्द २००/-, पृष्ठ-९९ , ISBN 978-81-89763-42-8 समीक्षा- रामशंकर वर्मा। 
= सत्येन्द्र तिवारी, मनचाहा आकाश, शुभाञ्जली प्रकाशन, कानपुर-२०८०२३, प्रथम संस्करण, पेपरबैक १८०/-, सजिल्द २५०/-, पृष्ठ-१२०, समीक्षा- डॉ. मधु प्रधान
= सुरेश कुमार पंडा, अँजुरी भर धूप, वैभव प्रकाशन अमीनपारा चौक, पुरानी बस्ती, रायपुर, प्रथम संस्करण,  रु. १५०, पृष्ठ- १०४, ISBN ८१-८९२४४-१८-०४। समीक्षा- संजीव 'सलिल' *
= संजय शुक्ल, फटे पाँवों में महावर, अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद । प्रथम संस्करण,  पेपरबैक १८०/-, सजिल्द २५०/-, पृष्ठ-१०४ समीक्षा- जगदीश पंकज।

२०१७ 

रमेश गौतम, इस हवा को क्या हुआ, अयन प्रकाशन, १/२०, महरौली, नई दिल्ली-११००३० , प्रथम संस्करण, ४००/-, पृष्ठ- २०८, आइएसबीएन संख्या-९७८-८१-७४०८-९९०-८ समीक्षा- शिवानंद सिंह सहयोगी 
वीरेन्द्र आस्तिक, गीत अपने ही सुने, के के पब्लिकेशन्स, ४८०६/२४, भरतराम रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-२, प्रथम संस्करण, ३९५/-पृष्ठ : १२८ समीक्षा- अवनीश सिंह चौहान
वेद प्रकाश शर्मा वेद, अक्षर की आँखों से, अनुभव प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद, प्रथम संस्करण,. १५०पृष्ठ १२८ समीक्षा- जगदीश पंकज
= शशि पाधा, लौट आया मधुमास, अयन प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, २५०/-, पृष्ठ- १२८, समीक्षा- योगिता यादव 
= शिवानंद सहयोगी, शब्द अपाहिज मौनी बाबा, अयन प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, ३४०/-, पृष्ठ- १७१ समीक्षा- मधुकर अस्थाना। 
= शुभम श्रीवास्तव 'ओम', फिर उठेगा शोर एक दिन, अयन प्रकाशन, १/२०,महरौली,नई दिल्ली - ११००३०, प्रथम संस्करण, रु. २४०, पृष्ठ- ११२, आईएसबीएन ९७८८१७४०८७००३ समीक्षा- राजा अवस्थी  

समीक्षा

कृति चर्चा:

अल्लाखोह मची- रामकिशोर दाहिया

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
'अल्लाखोह मची' अर्थात 'हाहाकार मचा' ऐसी नवगीत कृति है जिसका शीर्षक ही उसके रचनाकार की दृष्टि और सृष्टि, परिवेश और परिस्थिति, आभ्यंतरिक अन्तर्वस्तु और बाह्य आचरणजनित प्रभावों का संकेत करता है। नवगीत की रचना वैयक्तिक दर्द और पीड़ाजनित न होकर सामूहिक और पारिस्थितिक वैषम्य एवं विडम्बनाकारित अनुभूतियों के सम्प्रेषण हेतु की जाती है। नवगीत का प्रादुर्भाव होता है या वह रचा जाता है, आदिकवि वाल्मीकि रचित प्रथम काव्य पंक्तियों की तरह नवगीत किसी घटना की स्वत: स्फूर्त प्राकृतिक क्रिया है अथवा किसी घटना या किन्हीं घटनाओं के कारण उत्पन्न प्रतिक्रियाओं के संचित होते जाने और निराकृत न होने पर रचनाकार के सुचिंतन का सारांश इस पर मत वैभिन्न्य हो सकता है किन्तु यह लगभग निर्विवाद है कि नवगीत आम जन की अनुभूतियों का शब्दांकन है, न कि व्यक्तिगत चिन्तन का प्रस्तुतीकरण। विवेच्य कृति की हर रचना गीतकार के साक्षीभाव का प्रमाण है।

श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार श्री अवधबिहारी श्रीवास्तव के अनुसार 'ईमानदार कवि ने जो करीब से देखा, महसूस किया, भीतर-भीतर जिन घटनाओं की संवेदना उसके भीतर उतर गयी है, उस सच का बयान है, ये गीत फैशन और बहाव में लिखे गीत नहीं हैं. ये गीत एयरकण्डीशनरों में बैठकर कल्पना से गाँव, गरीबी, परिश्रम और पसीने का अनुगायन नहीं है। इन्हें एक गरीब किसान के बेटे ने कड़ी धूप में खड़े होकर भूख और प्यास की पीड़ा सहते हुए धरती की छाती पर लिखा है, इसीलिये इनके गीतों में पसीने से भीगी माटी की गंध आ रही है।' खुद रामकिशोर जी मानते हैं कि उनका लेखन 'घुटन, टूटन, संत्रास, उपेक्षा के शिकार, संघर्षरत आम आदमी की समस्याओं को ज्यों का त्यों रेखांकित करने का प्रयास है।' प्रयास हमेशा सायास होता है, अनायास नहीं। 'ज्यों का त्यों सायास' प्रस्तुतिकरण इन नवगीतों का प्रथम वैशिष्ट्य है।

इन नवगीतों का दूसरा वैशिष्ट्य 'स्वर में आक्रामकता' है, वैषम्य और विडम्बनाओं के प्रहार निरंतर सहनेवाला मन कितना भी भीरु हो, उनमें सुधारने और सुधार न सके तो तोड़ने की प्रवृत्ति होना स्वाभाविक है। एक बच्चे के पास कोई खिलौना हो और दूसरे के पास न हो तो वह खिलौना पाने की ज़िद करता है और न मिलने पर तोड़ देता है, भले ही बाद में दंडित हो। यह आक्रामकता इन गीतों में है।
शीश नहीं / कंधे पर लेकिन / रुण्ड हवा में / लाठी भाँजे।
सोना-तपा / खरा हो निकला / चमका जितना / छीले-माँजे।
इस आक्रामकता को दिशाहीन होने से जो प्रवृत्ति बचाती है वह है 'गाम्भीर्य'। संयोगवश रामकिशोर जी शिक्षक हैं, वे रचनाकार का गंभीर होना उसका नैतिक दायित्व मानते हैं तो शिक्षक का संयमित होना कैसे भूल सकते हैं? आक्रामकता, गंभीरता और संयम की त्रिवेणी इन नवगीतों को उनके गाँव में प्रवहित झिरगिरी नदी के प्रवाह की तरह उफनने, गरजने, शांत होने, तृषा हरने की प्रवृत्ति से युक्त करते हैं।
ईंधन आग / जलाने के हम / फिर से / झोंके गए भाड़ में।
जान सौंपकर / किये काम को / ताकत-हिम्मत / रही हाड़ में।
इन नवगीतों का सर्वाधिक उल्लेखनीय तत्व इनकी लोकधर्मिता है। यह लोकधर्मिता रामकिशोर जी को उनके लोकगायक पिता से विरासत में मिली है।

बुंदेलखंड-बघेलखण्ड का सीमावर्ती अंचल बुढ़ार, उमरिया, मानपुर, बरही आदि कुछ समय के लिए मेरा और लम्बे समय तक रामकिशोर जी का कार्यक्षेत्र रहा है। वे नयी पीढ़ी को शिक्षित करने में जुटे थे और मैं नदियों पर सेतु परियोजनाओं के प्रस्ताव तैयार करने और निर्माण कराने में जुटा था। तब हमारी भेंट भले ही नहीं हो सकी किन्तु अंचल के आदमी के अभाव, दर्द, बेचैनी, उकताहट के साक्षी होने का अवसर अवश्य ही दोनों को मिला। वहाँ रहकर देखने, भोगने और सीखने के काल ने वह पैनी दृष्टि दी जो आवरणों को भेदकर सत्य की प्रतीति कर सके।
फूटी पाँव / बिवाई धरती / एक बूँद भी / लगे इमरती
भारी महा गिरानी / आसों बादल टाँगे पानी।
आधा डोल / कहे अब आके। / कुएँ लगे पेंदी से जाके।
गया और / जलस्तर नीचे। / सावन सूखा पड़ा उलीचे।

'सावन सूखा' की विडंबना लगातार झेलती पीड़ा का संवेदनशील चक्षुसाक्षी, नीरो की तरह वेणुवादन कर प्रेम और शांति के राग नहीं गा सकता। कादम्बरीकार बाणभट्ट और मेघदूत सर्जक कालिदास के काल से विंध्याटवी के इस अंचल में लगातार वन कटने, पहाड़ खुदने और नदियों का जलग्रहण क्षेत्र घटने के बाद भी अकल्पनीय प्राकृतिक सौंदर्य है। सौंदर्य कितना भी नैसर्गिक और दिव्य हो उससे क्षुधा और तृषा शांत नहीं होती। जाने-अनजाने कोलाहल को जीता-पीता हुआ वह मोहकवादियों में भी तपिश अनुभव करता है।
अंतहीन / जलने की पीड़ा / मैं बिन तेल दिया की बाती।
मन के भीतर / जलप्रपात है / धुआँधार की मोहकवादी।
सलिल कणों में / दिन उगते ही / माचिस की तीली टपका दी।
सूख रही / नर्मदा पेट से / ऊपर जलती धू-धू छाती।
निर्जन वन का / सूनापन भी / भरे कोलाहल भीतर जैसे।
मैं विस्मित हूँ / खोह विजन में / चिल-कूट करते तीतर कैसे?

बरसों से जड़वत-निष्ठुर राजनैतिक-सामाजिक व्यवस्था और अधिकाधिक संवेदहीन-प्रभावहीन होती सांस्कृतिक-साहित्यिक विरासत सिर्फ और सिर्फ असंतोष को जन्म देती है जो घनीभूत होकर क्षोभ और आक्रोश की अभिव्यक्ति कर नवगीत बन जाती है। विडंबना यह कि विदेशी शासकों के विरुद्ध विद्रोह करने पर देशप्रेम और जनसमर्थन तो प्राप्त होता पर तथाकथित स्वदेशी सम्प्रभुओं ने वह राह भी नहीं छोड़ी है। अब शासन-प्रशासन के विरुद्ध जाने की परिणति नक्सलवादऔर आतंकवाद में होती है। इस संग्रह के प्रथम खंड 'धधकी आग तबाही' के अंतर्गत समाहित नवगीत अनसुनी-अनदेखी शिकायतों के जीवंत दस्तावेज हैं-
डंपर-ट्रॉली / ढोते ट्रक हैं / नंबर दो की रेत।
महानदी के / तट कैसे / दाबे कुचले खेत।
लिखी शिकायत / केश उखाड़े / सबको गया टटोला।
पीली-लाल / बत्तियों पर / संयुक्त मोर्चा खोला।
छान-बीन / तफ्तीशें जारी / डंडे भूत-परेत।

असंतुष्ट पर से भूत-प्रेत उतारते व्यवस्था के डंडे कल से कल तक का अकाट्य सत्य है। आम आदमी को इस सत्य से जूझते देख उसकी जिजीविषा पर विस्मिय होता है। रामकिशोर जी का अंदाज़े-बयां 'कम लिखे से जादा समझना' की परिपाटी का पालन करता है-
दवा सरीखे / भोजन मिलता / रस में टँगा मरीज रहा हूँ।
दैनिक / वेतनभोगी की मैं / फटती हुई कमीज रहा हूँ।
गर्दन से / कब सिर उतार दे / पैनी खड्ग / व्यवस्था इतनी।....
.... झोपड़पट्टी के / आँगन में / राखी-कजली / तीज रहा हूँ।

आम आदमी की यह ताकत जो उसे राखी, कजली, तीज अर्थात पारिवारिक-सामाजिक संबंधों के अनुबंधों से मिलती है, वही सर्वस्व ध्वंस के अवांछित रास्तों पर जाने से रोकती है किन्तु अंतत: इससे मुक्ताकाश में पर तौलने के इच्छुक पर कतरे जाकर बकौल रहीम 'रहिमन निज मन की व्यथा मन ही राखो गोय' कहते हैं तो आम आदमी की जुबान से सिर्फ यह कह पाते हैं-
मेरी पीड़ा मेरा धन है। / नहीं बाँटता मेरा मन है।
सूम बने रहना / ही बेहतर / खुशहाली में घर-आँगन है।

संग्रह का दूसरा खंड 'पागल हुआ रमोली' के हुआ सवेरा जैसे गीत कवि के अंतर्मन में बैठे आशावादी शिक्षक की वाणी हैं- 'उठ जा बेटे! हुआ सवेरा । / हुई भोर है गया अँधेरा। / जागा सूरज खोले आँखें / फ़ैल रही किरणों की पाँखें'। नवाशा का यह स्वर भोर की ताजगी की ही तरह शीघ्र ही गायब हो जाता है और शेष रह जाती है 'मूँड़ फूट जाएगा लगता / हींसों के बँटवारे में' की आशंका, 'लाल-पीली / बत्तियों का / हो गया / कानून बंधुआ' का कड़वा सच, 'ले गयी है / बाढ़ हमसे / छीनकर घर-द्वार पूरा' का दर्द, 'वजनदार हो फ़ाइल सरके / बाबू बैठा हुआ अकड़ के / पटवारी का काला-पीला' से उपजा शोषण, 'झमर-झिमिर भी / बरसे पानी / हालत सार-सरीखी घर की' की बेचारगी, 'चांवल, दाल / गेहूं सोना है। / रोजी-रोटी का रोना है' की विवशता, 'खौल रहा / अंदर से लेकिन / बना हुआ गंभीर लेड़ैया / नहीं बोलता / हुआ हुआ का' की हताशा और 'झोपड़पट्टी टूट रही है / सिर की छाया छूट रही है .... चलता / छाती पर / बुलडोजर / बेजा कब्जा खाली होता' की आश्रय हीनता।

'मेरी अपनी जीवन शैली / अलग सोच की अलग / कहन है' कहनेवाले रामकिशोर जी का शब्द भण्डार स्पृहणीय है। वे कुनैते, दुनका, चरेरू, बम्हनौही, कनफोर, क़मरी, सरौधा, अइसन, हींसा, हरैया, आसन, पिटपासों, दुनपट, फरके, छींदी, तरोगा, चिंगुटे, हँकरा, गुंगुआना, डहडक, टूका, पुरौती, ठोंढ़ा, तुम्मी, अकिल, पतुरिया, कुदारी, चुरिया, मिड़वइया आदि देशज बुंदेली-बघेली शब्द, इंटरनेट, लान, ड्रीम, डम्पर, ट्रॉली, ट्रक, नंबर, लीज, लिस्ट, सील, साइन, एटम बम, कोर्ट, मार्किट, रेडीमेड, ऑप्शन, मशीन, पेपरवेट, रेट, कंप्यूटर, ड्यूटी जैसे अंग्रेजी शब्द तथा फरेब, रोज, किस्मत, रकम, हकीम, ऐब, रौशनी, रिश्ते, ज़हर, अहसान, हर्फ़, हौसला, बोटी, आफत, कानून, बख्शें, गुरेज, खानगी, फरमाइश, बेताबी, खुराफात, सोहबत, ख़ामोशी, फ़क़त, दहशत, औकात आदि उर्दू शब्द खड़ी हिंदी के साथ समान सहजता और सार्थकता के साथ उपयोग कर पाते हैं। पूर्व नवगीत संग्रह की तरह ठेठ देशज शब्दों के अर्थ पाद टिप्पणी में दिए जान शहरी तथा अन्य अंचलों के पाठकों के लिए आवश्यक है क्योंकि ऐसे शब्दों के अर्थ सामान्य शब्दकोशों में भी नहीं मिलते हैं।

'अपने दम पर / मैं अभाव के / छक्के छुड़ा दिआ', 'मैं फरेबी धुंध की / वह छोर खोजा हूँ' जैसी एक-दो त्रुटिपूर्ण अभिव्यक्ति के अपवाद को छोड़कर पूर्ण संग्रह भाषिक दृष्टि से निर्दोष है। पारम्परिक गीत की छंदरूढ़ता और प्रगतिवादी काव्य की छंदहीनता के बीच सहज साध्य छंदयोजना के अपनाते हुए रामकिशोर जी इन नवगीतों की लयबद्धता को सरस और रूचि पूर्ण रख सके हैं। 'ज़िंदा सरोधा' शीर्षक नवगीत के मुखड़े में २३ मात्रिक छंद रौद्राक जातीय उपमान छंद का, मुखड़े में २६ मात्रिक महाभागवत जातीय छंद का, 'भरे कोलाहल भीतर', 'रस में टँगा मरीज' शीर्षक नवगीतों के मुखड़े-अंतरों में ३२ मात्रिक लाक्षणिक छंद, 'रुण्ड हवा में' शीर्षक नवगीत के मुखड़े में ४२ मात्रिक कोदंड जातीय तथा अँतरे में ३२ मात्रिक लाक्षणिक जातीय छंद का, 'घूँघट वाला अँचरा' में ३० मात्रिक महातैथिक जातीय छंद का मुखड़ा, २८ मात्रिक यौगिक जातीय छंद का अन्तरा, 'हींसों के बँटवारे' में ३० मात्रिक महातैथिक जातीय छंद का मुखड़ा तथा १६ मात्रिक संस्कारी जातीय ७ पंक्तियों का अंतरा प्रयोग किया गया है। अपवादस्वरूप कुछ नवगीतों में अंतरों में भी अलग-अलग छंद प्रयुक्त हुए है जो नवगीतकार की प्रयोगधर्मिता को इंगित करता है।
समीक्ष्य संग्रह के नवगीत रामकिशोर के व्यक्तित्व और चिंतन के प्रतीति कराते हैं। लेखनमें किसी अन्य से प्रभावित हुए बिना अपनी लीक आप बनाते हुए, पारम्परिकता, नवता और स्वीकार्यता की त्रिवेणी प्रवाहित करते हुए रामकिशोर जी के अगले संकलन की प्रतीक्षा हेतु उत्सुकता जगाता है यह संग्रह।
२१.१२.२०१५ 
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गीत- नवगीत संग्रह - अल्लाखोह मची, रचनाकार- रामकिशोर दाहिया, प्रकाशक- उद्भावना प्रकाशन, एच ५५ सेक्टर २३, राजनगर, गाज़ियाबाद। प्रथम संस्करण- २०१४, मूल्य- रूपये ३००/-, पृष्ठ- १४३, समीक्षा- संजीव सलिल

समीक्षा

कृति चर्चा:

अल्पना अंगार पर - रामकिशोर दाहिया

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
नदी के कलकल प्रवाह, पवन की सरसराहट और कोयल की कूक की लय जिस मध्र्य को घोलती है वह गीतिरचना का पाथेय है। इस लय को गति-यति, बिंब-प्रतीक-रूपक से अलंकृत कर गीत हर सहृदय के मन को छूने में समर्थ बन जाता है। गति और लय को देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप नवता देकर गीत के आकाशी कथ्य को जमीनी स्पर्श देकर सर्वग्राह्य बना देता है नवगीत। अपने-अपने समय में जिसने भी पारम्परिक रूप से स्थापित काव्य के शिल्प और कथ्य को यथावत न स्वीकार कर परिवर्तन का शंखनाद किया और सृजन-शरों से स्थापित को स्थानच्युत कर परिवर्तित का अभिषेक किया वह अपने समय में नवता का वाहक बना। इस समय के नवताकारक सृजनधर्मियों में अपनी विशिष्ट भावमुद्रा और शब्द-समृद्धता के लिये चर्चित नवगीतकार रामकिशोर दाहिया की यह प्रथम कृति अपने शीर्षक 'अल्पना अंगार पर' में अन्तर्निहित व्यंजना से ही अंतर्वस्तु का आभास देती है। अंगार जैसे हालात का सामना करते हुए समय के सफे पर हौसलों की अल्पना  के नवगीत लिखना सब के बस का काम नहीं है।  

नवगीत को उसके उद्भव काल के मानकों और भाषिक रूप तक सीमित रखने के लिए असहमत रामकिशोर जी ने अपने प्रथम संग्रह में ही अपनी जमीन तैयार कर ली है। बुंदेली-बघेली अंचल के निवासी होने के नाते उनकी भाषा में स्थानीय लोकभाषाओं का पूत तो अपेक्षित है किन्तु उनके नवगीत इससे बहुत आगे जाकर इन लोकभाषाओं के जमीनी शब्दों को पूरी स्वाभाविकता और अधिकार के साथ अंगीकार करते हैं। वे यह भी जानते हैं कि शब्दों के अर्थों से कॉंवेंटी पीढ़ी ही नहीं रचनाकार, शब्द कोष भी अपरिचित हैं इसलिए पाद टिप्पणियों में शब्दों के अर्थ समाविष्ट कर अपनी सजगता का परिचय देते हैं।

आजीविका से शिक्षक, मन से साहित्यकार और प्रतिबद्धता से आम आदमी की पीड़ा के सहभागी हैं राम किशोर, इसलिए इन नवगीतों में सामाजिक वैषम्य, राजनैतिक विद्रूपताएँ, आर्थिक विषमता, धार्मिक पाखंड और व्यक्तिगत दोमुँहेपन पर प्रबल-तीक्ष्ण शब्द-प्रहार होना स्वाभाविक है। उनकी संवेदनशील दृष्टि राजमार्गोन्मुखी न होकर पगडंडी के कंकरों, काँटों, गड्ढों और उन पर बेधड़क चलने वाले पाँवों के छालों, चोटों, दर्द और आह को केंद्र में रखकर रचनाओं का ताना-बाना बुनती है। वे माटी की सौंधी गंध तक सीमित नहीं रहते, माटी में मिले सपनों की तलाश भी कर पाते हैं। विवेच्य संग्रह वस्तुत: २ नवगीत संग्रहों को समाहित किये है जिन्हें २ खण्डों के रूप में 'महानदी उतरी' (ग्राम्यांचल के सजीव शब्द चित्र तदनुरूप बघेली भाषा)  और  'पाले पेट कुल्हाड़ी' (सामाजिक-सांस्कृतिक सन्दर्भों से जुड़े नवगीत) शीर्षकों के अंतर्गत रखा गया है। २५-३० रचनाओं की स्वतंत्र पुस्तकें निकालकर संख्या बढ़ाने के काल में ४५ + ५३ कुल ९८ नवगीतों के  समृद्ध संग्रह को पढ़ना स्मरणीय अनुभव है। 

कवि ज़माने की बंदिशों को ठेंगे पर मारते हुए अपने मन की बात सुनना अधिक महत्वपूर्ण मानता है-
कुछ अपने दिल की भी सुन 
संशय के गीत नहीं बुन 

अंतड़ियों को खँगाल कर 
भीतर के ज़हर को निकाल 
लौंग चूस, जोड़े से चाब 
सटका दे, पेट के बबाल 
तंत्री पर साध नई धुन

लौंग को जोड़े से चाबना और तंत्री पर धुन साधना जैसे अनगिन प्रयोग इस कृति में पृष्ठ-पृष्ठ पर हैं। शिक्षक रामकिशोर को पर्यावरण की फ़िक्र न हो यह कैसे संभव है? 

धुआँ उगलते वाहन सारे 
साँसों का संगीत लुटा है

धूल-धुएँ से, हवा नहाकर 
बैठी खुले मुँडेरे 
नहीं उठाती माँ भी सोता 
बच्चा अलस्सवेरे 

छद्म प्रगति के व्यामोह में फँसे जनगण को प्रतीत हो रहे से सर्वथा विपरीत स्थिति से रू-ब-रू कराते हुए कवि अपना बेलाग आकलन प्रस्तुत करता है: 
आँख बचाकर 
छप्पर सिर की 
नव निर्माण उतारे 
उठती भूखी 
सुबह सामने 
आकर हाथ पसारे 

दिये गये 
संदर्भ प्रगति के 
उजड़े रैन बसेरे 

समाज में व्याप्त दोमुँहापन कवि की चिंता का विषय है: 
लोग बहुत हैं, धुले दूध के 
खुद हैं चाँद-सितारे 
कालिख रखते, अंतर्मन में 
नैतिक मूल्य बिसारे 

नैतिक मूल्यों की चिंता सर्वाधिक शिक्षक को ही होती है। शिक्षकीय दृष्टि सुधार को लक्षित करती है किन्तु कवि उपदेश नहीं देना चाहता, अत:,  इन रचनाओं में शब्द प्रचलित अर्थ के साथ विशिष्ट अर्थ व्यंजित करते हैं- 
स्वेद गिरकर देह से 
रोटी उगाता
ज़िंदगी के जेठ पर 
आजकल दरबान सी 
देने लगी है 
भूख पहरा पेट पर  

स्वतंत्रता के बाद क्या-कितना बदला? सूदखोर साहूकार आज भी किसानों के म्हणत की कमाई खा रहा है। मूल से ज्यादा सूद चुकाने के बाद भी क़र्ज़ न चुकाने की त्रासदी भोगते गाँव की व्यथा-कथा गाँव में पदस्थ और निवास करते संवेदनशील शिक्षक से कैसे छिप सकती है? व्यवस्था को न सुधार पाने और शोषण को मूक होकर  देखते रहने से उपजा असंतोष इन रचनाओं के शब्द-शब्द में व्याप्त है- 
खाते-बही, गवाह-जमानत 
लेते छाप अँगूठे 
उधार बाढ़ियाँ रहे चुकाते 
कन्हियाँ धाँधर टूटे 

भूखे-लाँघर रहकर जितना 
देते सही-सही 
जमा नहीं पूँजी में पाई 
बढ़ती ब्याज रही 

बने बखार चुकाने पर भी 
खूँटे से ना छूटे 

लड़के को हरवाही लिख दी 
गोबरहारिन बिटिया 
उपरवार महरारु करती 
फिर भी डूबी लुटिया 

मिले विरासत में हम बंधुआ 
अपनी साँसें कूते 

सामान्य लीक से हटकर रचे गए  नवगीतों में अम्मा शीर्षक गीत उल्लेखनीय है- 
मुर्गा बाँग न देने पाता 
उठ जाती अँधियारे अम्मा 
छेड़ रही चकिया पर भैरव 
राग बड़े भिन्सारे अम्मा 

से आरम्भ अम्मा की दिनचर्या में दोपहर कब आ जाती है पता ही नहीं चलता-
चौका बर्तन करके रीती 
परछी पर आ धूप खड़ी है 
घर से नदिया चली नहाने  
चूल्हे ऊपर दाल चढ़ी है 

आँगन के तुलसी चौरे पर 
आँचल रोज पसारे अम्मा  

पानी सिर पर हाथ कलेवा 
लिए पहुँचती खेत हरौरे 
उचके हल को लत्ती देने 
ढेले आँख देखते दौरे 

यह क्रम देर रात तक चलता है:
घिरने पाता नहीं अँधेरा 
बत्ती दिया जलाकर रखती
भूसा-चारा पानी - रोटी 
देर-अबेर रात तक करती 

मावस-पूनो ढिंगियाने को 
द्वार-भीत-घर झारे अम्मा 

ऐसा जीवन शब्द चित्र मानो पाठक अम्मा को सामने देख रहा हो। संवेदना की दृष्टि से श्री आलोक श्रीवास्तव की सुप्रसिद्ध 'अम्मा' शीर्षक ग़ज़ल के समकक्ष और जमीनी जुड़ाव में उससे बढ़कर यह नवगीत इस संग्रह की प्रतिनिधि रचना है। 

रामकिशोरजी सिर्फ शिक्षक नहीं अपितु सजग और जागरूक शिक्षक हैं। शिक्षक के प्राण शब्दों में बसते हैं। चूँकि शब्द ही उसे संसार और शिष्यों से जोड़ते हैं। विवेच्य कृति कृतिकार के समृद्ध शब्द भण्डार का परिचय पंक्ति-पंक्ति में देती है। एक ओर बघेली के शब्दों दहरा, लमतने, थूँ, निगडौरे, भिनसारे, हरौरे, ढिंगियाने, भीत, पगडौरे, लौंद, गादर, अलमाने, च्यांड़ा, चौहड़े, लुसुक, नेडना, उरेरे, चरागन, काकुन, डिंगुरे, तुरतुरी, खुम्हरी आदि को हिंदी के संस्कृतनिष्ठ शब्दों लौह्गामिनी, कीटविनाशी, दावानल, बड़वानल, वसुधा, व्योम, अनुगूँज, ऊर्जा, स्रोत, शिल्प, चन्द्रकला, अविराम, वृन्त, कुंतल, ऊर्ध्ववती, कपोल, समुच्चय, पारलौकिक, श्रृंगारित आदि को गले मिलते देखना आनंदित करता है तो  दूसरी ओर उर्दू के लफ़्ज़ों वज़ूद, सिरफिरी, सोहबत, दौलत, तब्दील, कंदील, नूर, शोहरत, सरहदों, बाजार, हुकुम, कब्ज़े, फरजी, पेशी, जरीब, दहशत, सरीखा, बुलंदी, हुनर, जुर्म, ज़हर, बेज़ार, अपाहिज, कफ़न, हैसियत, तिजारत, आदि को अंग्रेजी वर्ड्स पेपर, टी. व्ही., फ़ोकस, मिशन, सीन, क्रिकेटर, मोटर, स्कूल, ड्रेस, डिम, पावर, केस, केक, स्वेटर, डिजाइन, स्क्रीन, प्लेट, सर्किट, ग्राफ, शोकेस आदि के साथ हाथ मिलाते देखना सामान्य से इतर सुखद अनुभव कराता है।   

इस संग्रह में शब्द-युग्मों का प्रयोग यथावसर हुआ है। साही-साम्भर, कोड़ों-कुटकी, 'मावस-पूनो, तमाखू-चूना, काँदो-कीच, चारा-पानी, काँटे-कील, देहरी-द्वार, गुड-पानी, देर-अबेर, चौक-बर्तन, दाने-बीज, पौधे-पेड़, ढोर-डंगार, पेड़-पत्ते, कुलुर-बुलुर, गली-चौक, आडी-तिरछी, काम-काज, हट्टे-कट्टे, सज्जा-सिंगार, कुंकुम-रोली, लचर-पचर, खोज-खबर, बत्ती-दिया आदि गीतों की भाषा को सरस बनाते हैं। 

राम किशोर जी ने किताबी भाषा के व्यामोह को तजते हुए पारंपरिक मुहावरों दांत निपोरेन, सर्ग नसेनी, टेंट निहारना आदि के साथ धारा हुई लंगोटी, डबरे लगती रोटी, झरबेरी की बोटी, मन-आँगन, कानों में अनुप्रास, मदिराया मधुमास, विषधर वसन, बूँद के मोती, गुनगुनी चितवन, शब्दों के संबोधन, आस्था के दिये, गंध-सुंदरी, मन, मर्यादा पोथी, इच्छाओं के तारे, नदिया के दो ओंठ, नयनों के पतझर जैसी निजी अनुभूतिपूर्ण शब्दावली से भाषा को जीवंत किया है।       

बुंदेलखंड-बघेलखण्ड के घर-गाँव अपने परिवेश के साथ इस गहराई और व्यापकता के साथ उपस्थित हैं कि कोई चित्रकार शब्दचित्रों से रेखाचित्र की ओर बढ़ सके। कुछ शब्दों का संकेत ही पर्याप्त है यह इंगित करने के लिए कि ग्राम्य जीवन का हर पक्ष इन गीतों में है। निवास स्थल- द्वार, भीत, घर, टटिया, कछरा आदि, श्रृंगार- सेंदुर, कुंड़वा, कंघी, चुरिया महावर आदि, वाद्य- टिमकी, माँडल, ढोलक, मंजीर, नृत्य-गान- राई, करमा, फाग, कबीर, कजरी, राग आदि, वृक्ष-पौधे महुआ, आम, अर्जुन, सेमल, साल, पलाश, अलगोजे, हरसिंगार, बेल, तुलसी आदि, नक्षत्र- आर्द्रा, पूर्व, मघा आदि, माह- असाढ़, कातिक, भादों, कुंवार, जेठ, सावन, पूस, अगहन आदि, साग-सब्जी- सेमल, परवल, बरबटी, टमाटर, गाजर, गोभी, मूली, फल- आँवले, अमरुद, आम, बेल आदि, अनाज- उर्द, अरहर, चना, मसूर, मूँग, उड़द, कोदो, कुटकी, तिल, धान, बाजरा, ज्वार आदि, पक्षी- कबूतर, चिरैयाम सुआ, हरियर, बया, तितली, भौंरे आदि, अन्य प्राणी- छिपकली, अजगर, शेर, मच्छर सूअर, वनभैंसा, बैल, चीतल, आदि, वाहन- जीप, ट्रक, ठेले, रिक्शे, मोटर आदि , औजार- गेंती, कुदाल आदि उस अंचल के प्रतिनिधि है जहाँ की पृष्ठभूमि में इन नवगीतों की रचना हुई है. अत: इन गीतों में उस अंचल की संस्कृति और जीवन-शब्द में अभिव्यक्त होना स्वाभाविक है।       

उर्दू का एक प्रसिद्ध शेर है 'गिरते हैं शाह सवार ही मैदाने जंग में / वह तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले' कवि राम किशोर जी घुड़सवारी करने, गिरने और बढ़ने का माद्दा रखते हैं यह काबिले-तारीफ है। नवगीतों की बँधी-बँधाई लीक से हटकर उन्होंने पहली ही कृति में अपनी पगडंडी आप बनाने का हौसला दिखाया है। दाग की तरह कुछ त्रुटियाँ होना स्वाभविक है-

'टी. व्ही. के / स्क्रीन सरीखे 
सारे दृश्य दिखाया'... में वचन दोष, 

'सर्किट प्लेट / हृदय ने घटना 
चेहरे पर फिल्माया' तथा 

'बढ़ती ब्याज रही' में लिंग दोष है। लब्बो-लुबाब यह कि 'अल्पना अंगार पर' समसामयिक सन्दर्भों में नवगीत की ऐसी कृति है जिसके बिना इस दशक के नवगीतों का सही आकलन नहीं किया जा सकेगा। रामकिशोर जी का शिक्षक मन इस संग्रह में पूरी ईमानदारी से उपस्थित है-

'दिल की बात लिखी चहरे पर
चेहरा पढ़ना सीख'।  
७.१२.२०१५ 
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गीत- नवगीत संग्रह - अल्पना अंगार पर, रचनाकार- रामकिशोर दाहिया, प्रकाशक- उद्भावना प्रकाशन, ए २१ झिलमिल इंडस्ट्रियल एरिया,  जी. टी.  रोड, शाहदरा दिल्ली ११००९५। प्रथम संस्करण- २००८, मूल्य- रूपये १००/-, पृष्ठ- १९२, समीक्षा- संजीव वर्मा सलिल, ISBN ९७८-९३-८०९१६-१६-३।

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

चार दिन फागुन के- रामशंकर वर्मा

जगदीश पंकज 
धूप-छाँव की तरह सुख-दुःख, मिलन-विरह जीवन-सिक्के के दो पहलू हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं। इस सनातन सत्य से युवा गीतकार रामशंकर वर्मा सुपरिचित हैं। विवेच्य गीत-नवगीत संग्रह चार दिन फागुन के उत्सवधर्मी भारतीय जनमानस से पंक्ति-पंक्ति में साक्षात करता चलता है। ग्राम्य अनुभूतियाँ, प्राकृतिक दृष्यावलियाँ,  ऋतु परिवर्तन और जीवन के ऊँच-नीच को सम्भावेन स्वीकारते  आदमी इन गीतों में रचा-बसा है। गीत को  कल्पना प्रधान और नवगीत को यथार्थ प्रधान माननेवाले वरिष्ठ नवगीत-ग़ज़लकार मधुकर अष्ठाना के अनुसार ''जब वे (वर्मा जी) गीत लिखते हैं तो भाषा दूसरी तो नवगीत में भाषा उससे पृथक दृष्टिगोचर होती है।'' 

यहाँ सवाल यह उठता है कि गीत नवगीत का भेद कथ्यगत है, शिल्पगत है या भाषागत है? रामशंकर जी नवगीत की उद्भवकालीन मान्यताओं के बंधन को स्वीकार नहीं करते। वे गीत-नवगीत में द्वैत को नकारकर अद्वैत के पथ पर बढ़ते हैं। उनके किस गीत को गीत कहें, किसे नवगीत या एक गीत के किस भाग को गीत कहें किसे नवगीत यह विमर्श निरर्थक है।

गीति रचनाओं में कल्पना और यथार्थ की नीर-क्षीरवत संगुफित अभेद्य उपस्थिति अधिक होती है, केवल कल्पना या केवल यथार्थ की कम। कोई रचनाकार कथ्य को कहने के लिये किसी एक को अवांछनीय मानकर  रचना करता भी नहीं है। रामशंकर जी की ये गीति रचनाएँ निर्गुण-सगुण, शाश्वतता-नश्वरता को लोकरंग में रंगकर साथ-साथ जीते चलते हैं। कुमार रविन्द्र जी ने ठीक हे आकलन किया है कि इन गीतों में व्यक्तिगत रोमांस और सामाजिक सरोकारों तथा चिंताओं से समान जुड़ाव उपस्थित हैं।

रामशंकर जी कल और आज को एक साथ लेकर अपनी बात कहते हैं-
तरु कदम्ब थे जहाँ / उगे हैं कंकरीट के जंगल
रॉकबैंड की धुन पर / गाते भक्त आरती मंगल
जींस-टॉप ने/ चटक घाघरा चोली / कर दी पैदल 
दूध-दही को छोड़ गूजरी / बेचे कोला मिनरल
शाश्वत प्रेम पड़ा बंदीगृह / नए  उच्छृंखल

सामयिक विसंगतियाँ उन्हें  प्रेरित करती हैं-
दड़बे में क्यों गुमसुम बैठे / बाहर आओ
बाहर पुरवाई का लहरा / जिया जुड़ाओ
ठेस लगी तो माफ़ कीजिए / रंग महल को दड़बा कहना
यदि तौहीनी / इसके ढाँचे बुनियादों में
दफन आपके स्वर्णिम सपने / इस पर भी यह तुर्रा देखो
मैं अदना सा / करूँ शान में नुक्ताचीनी

रामशंकर जी का वैशिष्ट्य दृश्यों को तीक्ष्ण भंगिमा सहित शब्दित कर सकना है -
रेनकोटों / छतरियों बरसतियों की
देह में निकले हैं पंख / पार्कों चिड़ियाघरों से
हाईवे तक / बज उठे / रोमांस के शत शंख
आधुनिकाएँ व्यस्त / प्रेमालाप में

इसी शहरी बरसात का एक अन्य चित्रण देखें-
खिड़कियों से फ़्लैट की / दिखते बलाहक
हों कि जैसे सुरमई रुमाल
उड़ रहा उस पर / धवल जोड़ा बलॉक
यथा रवि वर्मा / उकेरें छवि कमाल
चंद बूँदें / अफसरों के दस्तखत सी
और इतने में खड़ंजे / झुग्गियाँ जाती हैं दूब

अभिनव बिंब, मौलिक प्रतीक और अनूठी कहन की त्रिवेणी बहाते रामशंकर आधुनिक हिंदी तथा देशज हिंदी में उर्दू-अंग्रेजी शब्दों की छौंक-बघार लगाकर पाठक को आनंदित कर देते हैं। अनुप्राणित, मूर्तिमंत, वसुमति, तृषावंत, विपणकशाला, दुर्दंश, केलि, कुसुमाकर, मन्वन्तर, स्पंदन, संसृति, मृदभांड, अहर्निश जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्द, सगरी, महुअन, रुत, पछुआ, निगोड़ी, गैल, नदिया, मिरदंग, दादुर, घुघुरी देशज-ग्राम्य शब्द, रिश्ते, काश, खुशबू, रफ़्तार, आमद, कसीदे, बेख़ौफ़, बेफ़िक्र, मासूम, सरीखा, नूर, मंज़िल, हुक्म, मशकें आदि उर्दू शब्द तथा फ्रॉक, पिरामिड, सेक्शन, ड्यूटी, फ़ाइल, नोटिंग, फ़्लैट, ट्रेन, रेनी डे, डायरी, ट्यूशन, पिकनिक, एक्सरे, जींस-टॉप आदि अंग्रेजी शब्दों का बेहिचक प्रयोग करते हैं वर्मा जी।   

इस संकलन में शब्द युग्मों क पर्याप्त प्रयोग हुआ है। जैसे- तीर-कमान, क्षत-विक्षत, लस्त-पस्त, राहु-केतु, धीर-वीर, सुख-दुःख, खुसुर-फुसुर, घाघरा-चोली, भूल-चूक, लेनी-देनी, रस-रंग, फाग-राग, टोंका-टाकी, यत्र-तत्र-सर्वत्र आदि। कुछ मुद्रण त्रुटियाँ समय का नदिया, हंसी-ठिठोली, आंच नहीं मद्विम हो, निर्वान है  हिंदी, दसानन, निसाचर, अमाँ-निशा आदि खटकती हैं। फूटते लड्डू, मिट्टी के माधो, बैठा मार कुल्हाड़ी पैरों, अब पछताये क्या होता है? आदि के प्रयोग से सरसता में वृद्धि हुई है। रात खिले जब रजनीगंधा, खुशबू में चाँदनी नहाई, सदा अनंदु रहैं यहै ट्वाला, कुसमय के शिला प्रहार, तन्वंगी दूर्वा, संदली साँसों, काल मदारी मरकत नर्तन जैसी अभिव्यक्तियाँ रामशंकर जी की भाषिक सामर्थ्य और संवेदनशील अभिव्यक्ति क्षमता की परिचायक हैं। इस प्रथम कृति में ही  कृतिकार परिपक्व रचना सामर्थ्य प्रस्तुत कर सका है  और पाठकों की  उत्सुकता जगाता है।
१५.२.२०१६
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गीत- नवगीत संग्रह - चार दिन फागुन के, रचनाकार- रामशंकर वर्मा, प्रकाशक- उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२। प्रथम संस्करण- २०१५, मूल्य- रूपये ३००/-, पृष्ठ-१५९ , समीक्षा- जगदीश पंकज।

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

नदी की धार सी संवेदनाएँ- रोहित रूसिया

गुलाब सिंह 
'नदी की धार सी संवेदनाएँ’ की रचनाओं के अनेक फलक हैं। आज समय और समाज निरपेक्ष होकर किये गए लेखन का महत्व संदिग्ध हो गया है। रोहित रुसिया अपने समाज, देश और उसके परिवेश से जुड़े हैं और उन्हें समय की रंगीनियों और विरूपताओं की पहचान भी है। छान्दसिक कविता को माध्यम के रूप में स्वीकार कर उन्होंने उसके अद्यतन शिल्प को पकड़ने का सफल प्रयत्न किया है। 

आज आगे बढ़ने के केवल वैचारिक पारे के ऊपर चढ़ने से मानवीय सम्बन्धों और उनकी वास्तविकताओं के तापमान का ज्ञान नहीं किया जा सकता, शायद इसलिये कि विचारकों के सिद्धान्तों का स्वयं उनके अपने व्यवहारों से ही मेल नहीं दिखाई पड़ता। जिस तरह प्रयोगवादी शब्द सज्जा फैशन लगने लगी थी, उसी तरह प्रगतिवादी रचनात्मक दृष्टि खेमों में बँट कर बौद्धिक कसरत और तर्कों की ओर आजमाइश का गद्देदार अखाड़ा बन गई। फिर कोई मानवीय प्रेम, मांसल सौंदर्य, रूमान, लालित्य और ‘मधुचर्या’(आचार्य राम चन्द्र शुल्क द्वारा प्रयुक्त) आदि की बातें करके वैचारिक पिछड़ेपन की तोहमत क्यों झेलता। रूमानियत किसी इन्फेक्शस रोग की तरह समझी जाने लगी, जिससे बचने के लिये परहेज आवश्यक हो गया। रूमानियत, जिस्मानियत से बचकर रूहानियत की अन्तर्दशा में पहुँचने का यह ऐसा छद्म अध्यात्म था कि इसमें मन से रससिक्त रह कर, चेहरे से रूखा ठोस बौद्धिक दिखाई पड़ना था। खड़ाऊ पहनकर नगरवधू वाली गली से गुजरने का यह हठयोग धीरे-धीरे प्रभाहीन हो गया।

रोहित रुसिया अपने ‘मैं’ से अपने ‘तुम’ को जिस संकोच के साथ सम्बोधित कर रहे थे, उस पर इस छद्म अध्यात्म का प्रभाव तो नहीं, छाया रही हो-
‘रंग फीके हों भले पर
प्यार के 
संबल रहेंगे’

संबल के स्थायित्व से मुतमइन होने पर ही गीत गाने के निश्चय पर पहुँचे
‘छोड़ो मत
अब 
जुड़ जाने दो
प्रीत भरे अनुबन्ध

या
बह जाने दो
नेह नदी को
तोड़ सभी प्रतिबन्ध’

सहज मनःस्थिति में गुनगुनाने और गाने पर रचनात्मक प्रकाश की किरणें दिखाई पड़ती हैं-
‘द्वार पर मेरे 
रखा हुआ है
दीप तुम्हारे नाम का’

और इसी दीप के प्रकाश में यह दर्शन भी उभरता है-
‘रिश्तों का 
एक गीत है जीवन 
प्रकृति उसी की एक कड़ी है’

गीत कभी-कभी एक ही कड़ी का होता है, लेकिन जीवन और उसके रिश्तों की कड़ियाँ निर्बन्ध होती है, उनके अनेक आयाम दिखाई पड़ते हैं। रोहित रुसिया ने इस विस्तार को भली प्रकार देखा है। इसलिये प्रेम और जीवन सम्बन्धों को एकाकार रूप में देख सके हैं।
‘एहसासों के 
साये गुम हैं
बंद महल में
हाँ हम तुम हैं’

इन गुम एहसासों के साये के भीतर से कुछ रंग झिलमिलाते हैं- 
‘तस्वीरों में रंग तुम्हारे 
अनजाने ही आए’ 

और 
‘नयन झील के दीप हुए 
जाने कब नाम तुम्हारे’  

‘अनजाने’ और ‘जाने कब’ की आकस्मिकताओं के कारण ही ‘कितने उलझ गए हैं हम तुम’
‘मुझको सदा।
छला करती है।
याद तुम्हारी।
साँसों के संग
आती जाती।
याद तुम्हारी।

इसलिए
‘तुम जितने हो दूर भले।
मेरा मन तेरे साथ चले।’
और साथ चलने की आत्मीय यात्रा घर बनाने के जिस मुकाम पर पहुँचती है वहाँ वास्तु शिल्प के सारे सरंजाम (बिल्डिंग मेटेरियल) उपलब्ध हैं, किन्तु रोहित रुसिया एक दुर्लभ वस्तु की तलाश में लगते हैं-

‘चलो घर बनाने को 
मुस्कान ढूँढें’
मुस्कान ढूँढने की यह ख्वाहिश निजी अनुरक्ति में भी सामाजिक अपनत्व की ओर संकेत करती है। आज घरों की भौतिक सम्पन्नता के बीच से मुस्कान ही तो गायब हो गई है। काश! कि घरों में मुस्कान लौट आए। सुखों की काँटों भरी शय्या पर अनिद्रा और अशांति से तड़पते समाज को एक बार फिर आनन्दानुभूति से तृप्त कर जाए। गीत में ‘यादों को रूमानियत की तलाश जरूर होगी।

वर्तमान समय धीमे चलने का नहीं, उड़ाने भरने का है। सिर्फ उड़ानों की कामना से भरी दुनिया से धरती छूटती जाती है। परिन्दे को लक्षित कर एक सहल अभिव्यक्ति-
‘लेकर मिट्टी का सोंधापन
सावन का भीगी बदली बन
कब आओगी मेरे आँगन
फिर से तुम
गौरैया’

अथवा
‘घट रही हैं
अब नदी की धार-सी
संवेदनायें’

पेड़ कब से 
तक रहा
पंछी घरों को लौट आयें
और फिर 
अपनी उड़ानों की खबर
हमकों सुनायें

अनकहे से शब्द में
फिर कर रही आगाह
क्या सारी दिशायें
रक्त रंजित हो चली हैं
नेह की 
सारी ऋचायें

जीवन और रचना संसार के विकास की सीढ़ियों पर अपर्वगमन की यह सहल स्वाभाविक गति बताती है कि ऊर्जा और आकांक्षा का योग ही रचनाकार को वह दृष्टि देता है जिससे वह जड़ में जीवन और जीवन में जड़ता का विपर्यय देख पाता है। बाहर बहती नदी और मनुष्य के भीतर संवेदनाओं के घटने अर्थात् उतार से जीवन प्रवाह टूटने लगता है। प्रवाह के लिए नदी को जल और जीवन को संवेदनाओं की दरकार होती है। चारे की तलाश में घोंसले से बाहर उड़ गये परिन्दे और घर से बाहर चले गये मनुष्य की वापसी की प्रतीक्षा एक ही तरह की नहीं है। घोंसले वाले पेड़ में पक्षी के लौटने की आतुर प्रतीक्षा है, दिन भर की उड़ानों और उपलब्धियों को जानने की उत्कंठा है। दूसरी ओर समाज की स्थितियों का निःशब्द संकेत दिखाई पड़ रहा है, जो आगाह कर रहा है कि प्रस्थान की सारी दिशायें और नेह की सारी ऋचायें रक्त रंजित हो चली हैं। नदी की उतरती धार और अपनी गोद में घोंसलों के संरक्षक पेड़ की संवेदनाओं में जो तरलता और हरापन (जीवन्तता) है उसकी तुलना रक्त रंजित दिशाओं और ऋचाओं से करने के पीछे मनुष्य को संवेदित करने की मंशा है जिसे ऐसे काव्यार्थों और अभिव्यक्तियों में अनायास ही समझा जा सकता है।

सिकुड़ती, मरती संवेदनाओं का एक ऐसा ही साक्ष्य उनके इस गीत में भी देखा जा सकता है-
‘आदमी बढ़ता गया
चढ़ता गया
चढ़ता गया
और समय की होड़ में
खुद, आवरण मढ़ता गया
भूल बैठा, झर रही हैं
नींव की भी गिट्टियाँ
अब नहीं आतीं
किसी की चिट्ठियाँ’

दो चार पृष्ठों पर फैले स्नेह, प्रेम, श्रद्धा, संवेदना, सुख-दुख, आत्मीयता, उपालम्य, उलाहने वाले पत्रों के स्थान पर दो चार शब्दों के चल संवाद उतने अर्थवान अचल कैसे हो सकते हैं। पत्राचार की समाप्ति भी समकालीन रीति रिवाजों की एक पहचान बन गई है। चिट्ठियों की विरलता की शुरुआत के समय करीब ढाई दशक पहले मैंने एक गीत लिखा था जो ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हुआ था-
‘चिट्ठियों के सिलसिले टूटे
आइने से दूर होकर रह गये चेहरे
लहर-सी आईं गईं तिथियाँ 
दिन किनारों से मगर ठहरे’
रोहित रुसिया ने चिट्ठियों के संदर्भ में नीव की गिट्टियों तक के सड़ने का दर्द कह कर ऐसे मनोभावों को ताजा कर दिया है।

रोहित रुसिया एक सजग सावधान कवि हैं। वह चीजों को किसी गली से नहीं भीड़ भरे महत्वपूर्ण चौराहे से देखते हैं। बहुआयामी लेखन के लिये दर्शक दीर्घा से लेकर राजमार्ग गली कूचे और पगडंडियों तक से होकर गुजरना पड़ता है। भारत को देश ही नहीं उपमहाद्वीप कहा जाता है। गाँव, कस्बे, शहर, महानगर तक जीवन के कितने ही रंगों रूपों को समेटे यहाँ की धरती कर्मभूमि, वीरभूमि, देवभूमि, तपोभूमि के रूप में पूज्य है। इस माता भूमि को ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ कहा गया है। रोहित रुसिया इस भूमि को पैनी दृष्टि से देखने और पहचानने की कोशिश करते हैं, इसलिए अपनी यात्रा में गाँव, नगर, प्रकृति और आध्यात्म तक के दर्शन और वर्णन से जुड़ते हैं। नगरों के आकर्षण ने बहुतेरों को गाँव से शहर का वासी बना दिया है, लेकिन गाँव की जड़ें, वहाँ की मिट्टी की सुगन्ध मिटने वाली नहीं होती, इसीलिए रोहत रुसिया में भी गाँव को छोड़ने का दर्द है, उसी सुगन्ध से सना हुआ-
‘सुविधा के मोह में
बहक गये पाँव
मेरा छूट गया गाँव’

गाँव छूटने के समय जो सुगन्ध साथ लाये वह कितने मोहक शब्दों में व्यक्त हुई -
‘शब्द मेरे गूँजते हैं
गीत बन कर
फूलों में
पत्तों में
कलियों में 
सावन में
भीनी रंगरलियों में
शब्द मेरे झूमते हैं प्रीत बनकर’

मन की इसी खिड़की से गाँव के आगे बढ़कर वह अपने देश को देखते हैं। आज की स्थितियों में देश के प्रति अनुराग और राष्ट्रप्रेम की भावात्मकता के साथ ही परम्पराओं और तर्कों की एक विस्तृत वैचारिक पृष्ठभूमि भी है, जहाँ वसुधैव कुटुम्बकम् और भूमण्डलीकरण के पुराने-नये चिन्तन की साम्यता का मानवीय बोध दिखाई पड़ता है। अपनी संस्कृति के संरक्षण और स्वायत्तता की बात करते समय विचारों को भी महत्व देते हैं, कवि से व्यापक चिन्तन की अभिव्यक्ति के लिये एक सार्वभौम भाषा की अपेक्षा की जाती है। रोहित रुसिया के देश दर्शन के पीछे इस भाषा के साथ उनके भावुक हृदय की कोमलता दिखाई पड़ती है। कोमलता की प्रतिछाया उन्हें यहाँ की धरती और उसकी प्राकृतिक सुषमा की ओर ले जाती है-

‘मेरे देश तुझको
मेरा नमन
कितनी सुहानी धरती तेरी
पावन तेरा गगन’

अथवा
‘वसुन्धरा-वसुन्धरा
अपनी प्यारी वसुन्धरा
इसके बिना न जीवन अपना
आओ सोचें जरा’

यहाँ राष्ट्रवाद, विश्ववाद और सब के साथ लगे विमर्शवाद को खोजने की गुंजाइश कम ही है, क्योंकि रोहित रुसिया अपनी आँखों की नमी, मासूमियत और भोलेपन को बचाये रखकर ही दुनिया को देखना चाहते हैं। उनकी दृष्टि में इन्हीं जन्मजात मानवीय गुणों से रिक्त होने के कारण ही विचारों का अप्रभावी वैभव और चमकती भौतिकता का अंधकार हम पर हावी हो रहा है। एक उदाहरण -
‘मेरी आँखों में
नमी है
चमकने दो इसे
चलो छोड़ो
न छीनो भोलापन
जरा मासूमियत 
जरा बचपन 
पंछी जो 
आज उड़े हैं
चहकने दो उन्हें’

मासूमियत की यह धड़कन कब संसार की निस्सारता से टकरा गई, यह तो रोहित रुसिया ही जाने -
‘राम की चिरैया
देखो
उड़ गई रे
जाने कब
अपना ये मन तो
जग है एक छलावा’

संभव है कि उन्हें लगा हो कि भारतीय धर्म-अध्यात्म का एक पक्ष अछूता ही रह जा रहा है। वास्तव में जग के इस छलावे के भीतर ही हम सब अपने हिस्से का अभिनय कर रहे हैं। अभिनय मूल्यवान, सार्थक और सफल हो, यह कोशिश ही अपनी कर्मभूमि में अपना साक्ष्य प्रस्तुत करती है।


घोर निराशा, अशांति, हठधर्म, कुतर्क, ईर्ष्या, अहंकार के अँधेरे में आकंठ डूबते जाते समाज को बच निकलने का विश्वास दिलाते हुए रोहित रुसिया इस मान्यता को बल देते हैं कि आदमी गिरने के लिए नहीं, उठने के लिए बना है। कवि के ये शब्द कितने आश्वस्तिदायक हैं -

‘जीतेंगे हम
पहुँचेंगे फिर उसी ठौर
आएगा जीवन में
फिर से अच्छा दौर
पेड़ों ने
पतझर पर
कब आँसू बहाये
पंछी कब
टूटे नीड़ों से
हार पाये
शाखों पर आयेगी
कोंपल, पत्ते, बौर
जीतेंगे हम
पहुँचेंगे फिर उसी ठौर’

और इस यात्रा, इस पहुँच में -
‘तुम्हारा साथ देंगे
दूर तक
प्रेम में भीगे हुए 
कुछ फूल
अपने सूखने के बाद भी’

दृढ़निश्चय के साथ निकलकर दूर तक जाती युवा कवि रोहित रुसिया की इस सर्जनात्मकता पर भरोसा करते, उन्हें धन्यवाद देते हुए आइये उनके इस नये संग्रह के नये गीतों के नये तेवर और नये स्वर का स्वागत करे।
१९.१०.२०१५ --------------------------
गीत- नवगीत संग्रह - नदी की धार सी संवेदनाएँ, रचनाकार- रोहित रूसिया, प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन,  इलाहाबाद।  प्रथम संस्करण- २०१४, मूल्य- रूपये १२०/-, पृष्ठ- ११२, समीक्षा - गुलाब सिंह।

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

समय की आँख नम है- विनय मिश्र

डॉ. जगदीश व्योम
आँख नम होना, आँख भर आना, आँखें गीली होना आदि ऐसे मुहावरे हैं जिनके प्रयोग से मन में समाहित दुख अभिव्यंजित हो जाता है। वैयक्तिक प्रयोग में तो यह दुख किसी व्यक्ति विशेष के दुख तक सीमित रहकर किसी एक इकाई के दुख का बोध कराता है परन्तु जब समूचे समय की आँख नम होने की बात कही जाये तो इस दुख का फलक बहुत व्यापक हो जाता है। ऐसा महसूस होने लगता है कि हमारे इर्द-गिर्द एक ऐसी अदर्शनीय चादर फैली हुई है जिसके रेशे-रेशे में दुख पिरोया हुआ है। प्रश्न उठता है कि यह दुख किस तरह का दुख है? कहाँ से प्रक्षेपित हो रहा है यह दुख? कितने रूप हैं इस दुख के? ऐसे अनेकानेक प्रश्न बुद्धिजीवियों के मन में अक्सर उठते रहते हैं।

विनय मिश्र का समकालीन गीत संग्रह ‘समय की आँख नम है’ ऐसी ही चिन्ताओं से उपजी रचनाओं का संकलन है जिसमें उनके एक सौ पाँच नवगीत प्रकाशित किए गए हैं। हिन्दी गज़लों के माध्यम से अपनी विशिष्ट पहचान बना चुके विनय मिश्र के पास रचनात्मक अनुभव की बड़ी पृष्ठभूमि है। उनके नवगीतों में जन जन के जीवन में परिव्याप्त तमाम तरह की चिन्ताएँ हैं। 

वर्तमान समय की सबसे बड़ी त्रासदी है आपस में संवादहीनता का होना, सब अपने-अपने में व्यस्त हैं, किसी की रुचि किसी से बात करने में नहीं है और न ही किसी के पास आपस में संवाद का समय ही है। मोबाइल पर और फेसबुक पर  दुनियाभर की खोज खबर रखने वालों के पास इतना समय भी नहीं है कि वे जान सकें कि उनके पड़ोस में कौन रहता है। इस संवादहीनता से आपसी रिश्ते टूट रहे हैं, सामाजिक ताने-बाने शिथिल होते जा रहे हैं-
कीड़े लगते संवादों की
खड़ी फसल में
काँटे उगते दुविधाओं के
मन मरुथल में
धीरे-धीरे जड़ से
उखड़ रहा है बरगद .. पृष्ठ-२२ 

कोर्ट, कचहरी यों तो सत्य की रक्षा के लिए हैं परन्तु वहाँ झूठ का ऐसा कारोबार होता है कि इसमें आम आदमी पिसा जा रहा है-
दौड़ धूप में 
कोट कचहरी लगी हुई है
अपना काम बनाने झूठी
अड़ी हुई है
जब तक सँभले देश
सियासत खेल कर गई ..... पृष्ठ-२४ 

जब हर जगह झूठ और भ्रष्टाचार व्याप्त हो जाता है तब लेखक और कवियों से आशा की जाती है परन्तु विडम्बना है कि पुस्तकों की भीड़ तो है परन्तु पुस्तकों को पढ़ने वाला पाठक नहीं है। ऐसे में एक प्रश्न उठता है कि क्या रचनाकार  पाठक की सही नब्ज़ नहीं पकड़ पा रहे हैं या कुछ और बात है? विनय मिश्र ने यह एक बड़ा प्रश्न उठाया है-
पुस्तकों की भीड़ है
पाठक तिरोहित है
एक निर्णायक समय में
हम विवादित हैं
बढ़ा सुरसा के बदन-सा
रोज यह मसला .... पृष्ठ-२७ 

सन्त कवि ‘माया महा ठगिनि हम जानी’ कह कर न जाने कब से सचेत करने का प्रयास करते रहे हैं किन्तु इसे व्यवहारिक जीवन में मानने को कोई तैयार नहीं है। सोने के मृग के पीछे दौड़ने की प्रवृत्ति बहुत पहले से चली आ रही है। हर व्यक्ति रातों-रात अमीर बन जाना चाहता है। एक दूसरे को धोखा देकर आगे बढ़ने की प्रवृत्ति समाज के सामूहिक चरित्र में प्रविष्ट हो चुकी है। लोग सबके सामने समाज सेवा का दिखावा करते हैं परन्तु मौका मिलते ही अपना उल्लू सीधा कर निकल लेते हैं, आम आदमी कठपुतली मात्र बनकर रह गया है-
कंचन मृग के पीछे भागे
लौटे अब तक राम नहीं

गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा के
हम कठपुतली बने फिजूल
हैं विशिष्ट सुविधाओं वाले
कहने को पब्लिक स्कूल
तपते पथ पर दूर-दूर तक
शीतलता का नाम नहीं

कानाफूसी बढ़ी समय की
खींचतान समझौतों में
साँसें यहाँ सुपारी होकर
कटने लगीं सरौतों में
आज धुएँ में डूबी
आँखों में गोधूली शाम नहीं .... पृष्ठ-३२

ठगने ठगाने का कारोबार केवल धान तक ही सीमित नहीं रह गया है लोग दूसरों की भावनाओं के साथ भी खिलवाड़ करने से नहीं चूकते हैं। पूजा-पाठ करना लोगों की धार्मिक आस्था के साथ जुड़ा हुआ है। परन्तु इसी पूजा-पाठ के बहाने ठगने-ठगाने का धंधा भी न जाने कब से हो रहा है। इसे भी धान कमाने का माध्यम बना लिया गया है, और अब तो इसके पीछे बड़े बड़े कारपोरेट घराने हैं जिन्होंने इसे एक बड़े कारोबार का रूप दे दिया है-  
सारी कलई इस मौसम की 
कोई सूरज खोल रहा
पूजापाठ कराने वाला
गोरखधंधा खूब चला
उसके दो को हमने अपना 
चार बनाकर खूब छला
काली काली यमुना का मन
जै राधा जी बोल रहा ... पृष्ठ- ३२ 

भारत में सरकार बनाने का कार्य जनता करती है, लेकिन जनता हर बार अपने को ठगा हुआ महसूस करती है। सरकारें बदलती हैं परन्तु जनता की दशा ज्यों की त्यों ही बनी रहती है। आम आदमी गुस्से में मुट्ठियाँ तानता है पर होता कुछ नहीं। सरकार बनने से पहले नेता जो वादा करते हैं उसके बाद हालात वही बने रहते हैं-
आती जाती सरकारों के
उलझे हुए बयान
मुट्ठी ताने आग बबूला
देखो हिन्दुस्तान

लाख टके की बोली पर
दो कौड़ के हालात .... पृष्ठ-५६ 

इसे यों भी कह सकते हैं कि समूची राजनीति का चरित्र ही बदल गया है, वहाँ झूठ बोलने के बाद जब झूठ पकड़ा जाता है तो राजनेता शर्मिन्दा होने की जगह कुतर्क गढ़ते हैं। जैसे ही पद और प्रतिष्ठा मिलती है उनकी धारणा ही बदल जाती है। आम आदमी उनके लिए सिर्फ एक वोट है और यह वोट यदि समझदार हो जायेगा, खुशहाल हो जायेगा तो फिर उस पर मनमानी भला कैसे की जा सकेगी, उनका स्वार्थी मकसद पूरा कैसे होगा, इस सब को देखकर रचनाकार भी निराश हो गया है, यह अच्छा संकेत नहीं है- 
हरसिंगार झरते आँसू के
चाहत हुई बबूल
दूर-दूर तक आँखों में
उड़ती सपनों की धूल
सुख, गूलर का फूल हो गया
अब तक दिखा नहीं
तकदीरों के पन्ने बिखरे
जीवन फटी किताब
रिश्तों की फुलवारी उजड़ी
झुलसे गीत गुलाब
लौटेगा मौसम खुशियों का
हमको लगा नहीं ..... पृष्ठ-१२८

वर्तमान में सबसे बड़ा बदलाव यह दिखाई दे रहा है कि हमारे घर तक बाजार आ गया है, बाजारवाद ने सबको अपने मायाजाल में फँसा लिया है। खराब से खराब वस्तु को विज्ञापन के द्वारा अच्छा सिद्ध किया जा रहा है, लोगों को ठगा ही नहीं जा रहा है बल्कि उनके जीवन से खिलवाड़ किया जा रहा है। हमारे राजनेता सब कुछ समझ कर अनजान बने हुए हैं और जनता को लुटेरों से लुटने दे रहे हैं क्योंकि इस लूट के माल में से जूठन उन्हें भी तो मिल रही है-
मुँह में लगी हुई उनके
झूठन देखो
सत्ता के मारों का
सनकीपन देखो
लाभ जिधर सारा दर्शन
उस ओर बहा  
दरवाजे पर विज्ञापन की
वंदनवार
हर कमरे में एक नया है कारोबार
क्या बोलूँ जब घर में ही
बाजार घुसा  ..... पृष्ठ-१४० 

 कुल मिलाकर ‘समय की आँख नम है’ के नवगीत अपने समय की तमाम तल्ख सच्चाइयों को उजागर करते हैं। भाषा का सहज रूप इन नवगीतों की विशेषता है। पेपर बैक में छपी १४४ पृष्ठ की पुस्तक का मूल्य ११० रुपए है जो ठीक ही है। 
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गीत- नवगीत संग्रह -समय की आँख नम है, रचनाकार- विनय मिश्र, प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, एफ-७७, सेक्टर-९, रोड नं.११, कर्तारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया, बाईस गोदाम, जयपुर-३०२००६।  प्रथम संस्करण- २०१४, मूल्य- रूपये ११०/-, पृष्ठ- १४४, समीक्षा - डॉ. जगदीश व्योम।