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गुरुवार, 6 सितंबर 2018

पुस्तक चर्चा:

सूरज भी क्यों बंधक - शिवानंद सिंह सहयोगी

डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय 
गीत का प्राणतत्व गेयता है, जिसमें लयात्मकता हो, ध्वन्यात्मकता हो और संगीतात्मकता हो – वही सार्थक शब्द रचना गीत कहलाती है। सृष्टि स्वयं लयात्मक है जिसमें एक लय है, एक स्पंदन है और एक सक्रियता का वेग है। जहाँ यह लय नहीं है वहाँ प्रलय का तांडव होने लगता है। यही कारण है कि आदि काल से गीति काव्य धारा लोक जीवन से सम्पृक्त सतत प्रवाहित होती चली आ रही है। आदिम मनोभावों की अभिव्यंजना गीतों में सहज सम्भाव्य है जिसमें भाव की तीव्रता और सौन्दर्यबोध की विलक्षणता निहित होती है। गीत प्रसूता नवगीत अद्यतन परिवेश में अपना स्वरूप निखार रहा है जिसे पूर्व में प्रगीत, जनगीत आदि नामों से पुकारा गया। सम्प्रति नवगीत गीत का परिष्कृत और परिमार्जित संस्करण है जिसमें रचनाकारों ने सहजता, सरलता एवं सुगमता के आधार पर उन्मुक्तता को अंगीकार किया है।         
          
उपभोक्तावादी प्रवृत्ति, बाजारवादी संस्कृति एवं प्रतियोगितावादी वृत्ति से किसी न किसी रूप में रचनाकार प्रभावित हुआ है। वैश्विक स्तर पर द्रुतगति से परिवर्तन हो रहे हैं। साहित्य और साहित्यकार भी  सम्प्रति भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया में अपने को अछूता नहीं रख सका है जिसके परिणाम स्वरूप शार्टकट और द्रुतगति से लेखन हो रहा है। रचनाधर्मिता का निर्वहन प्रतियोगिता-जगत में उत्पादन पर दृष्टि केन्द्रित करते हुए किया जा रहा है। कोई भी रचनाकार किसी भी विधा या किसी भी काव्य रूप में पीछे रहना नहीं चाहता। यही कारण है कि गीतकारों ने भी नवगीत के प्रति अपनी काव्य-प्रतिभा का दिग्दर्शन किया है जिसकी परिणति में शिवानन्द सिंह “सहयोगी” का नवगीत संग्रह “सूरज भी क्यों बन्धक” प्रकाशित है।
          
समीक्ष्य कृति में एक सौ छ: रचनायें हैं, जिनमें बहुविषयक भावानुभूति की अभिव्यंजना काम्य सिद्ध है। गूँगी गरम हवायें आवाजाही करती हुई प्रतीत होती हैं क्योंकि नल की लापरवाही से पियास की छीना झपटी हुई है। गरीबी के कारण चाँदी की सिकड़ी भी कई साल से गिरवी रखी है। ग्राम्य संस्कृति से प्रभावित रचनाकार पाकड़, पीपल एवं नीम की छाँव में ही विश्राम लेता है तथा ढोल की थाप गाँव में सुनकर रसानुभूति करता है क्योंकि,

                    गीत गाँव के रहनेवाले 
                    शहर ठिकाना है
                    धूप-छाँह का आना-जाना
                    एक बहाना है              (पृष्ठ-२५)
          
भोजन के टेबल की थाली को रोटी माँगते हुये रचनाकार ने खुली आँखों से देखा है। सामाजिक विषमताओं, अस्त-व्यस्त व्यवस्थाओं एवं जीर्ण-शीर्ण अवधारणाओं को आनुभूतिक धरातल पर अभिव्यंजित किया गया है जिसमें राष्ट्रीय ज्वलंत समस्याओं को भी वर्ण्य-विषय बनाया गया है। संवेदनशील रचनाकार साम्प्रतिक वातावरण और परिवेश से क्षुब्ध है, दुखी है, देखें-

                    पाल रही है अपना बच्चा 
                    ठटरी महुआ बीन 
                    कुरसी-कुरसी बैठ गया है 
                    वंशवाद का जीन
                    खुला हुआ आतंकवाद का 
                    टोला-टोला जीम               (पृष्ठ-२८)
          
राजनीतिक परिवेश और राजनीतिक प्रदूषण पर भी चिंता व्यक्त की गई है। सड़क से संसद तक यह प्रदूषण सर्वत्र व्याप्त है। घोटाले पर घोटाले हो रहे हैं फिर भी राजनेता कुरसी पर आज भी काबिज हैं। प्रजातन्त्र माखौल बनकर रह गया है। शासन-प्रशासन मौन हैं। राजनेता स्वार्थपरता की रीति-नीति में रत हैं। व्यंग्योक्ति द्रष्टव्य है,

                    भूख-प्यास का कैसा अंतर 
                    कैसी दिल्ली जंतर-मंतर
                    कैसा गँवई कैसा शहरी 
                    अर्थनीति की खिंचड़ी-तहरी
                    साँस-साँस है आहत-आहत
                    अवगत नहीं प्रशासन आला 
                    गीत कहानी कविता मौन 
                    इनकी बिजली काटे कौन?      (पृष्ठ-३१)
           
रोजी-रोटी के लिए लोग गाँव से पलायन कर रहे हैं और शहर में भीड़ कर रहे हैं तथा मजबूरी में शहर में बने हुये हैं। चमक-दमक का गिरवी होना, सूरज तक का बन्धक होना, भौतिकता में सभी का लिप्त होना, सुन्दरता की अँगूठी में काँटों का नग होना, अव्यवस्था, असमानता एवं अस्त-व्यस्तता का प्रतीक है। मनचली हवायें, खेतों की हरियाली की गह गह, गाती घटायें, कमर हिलाती भदई आदि ने मनमोहक वातावरण उत्पन्न कर दिया है। व्यंजना से आपूरित शब्दावली प्रयोग करनेवाले, वर्णमाला को सुघर रूप में पिरोनेवाले तथा वेदना से काव्यविधा को विधा हुआ देखनेवाले रचनाकार की स्पष्टोक्ति है-

                   खिलखिलाहट भरी जिन्दगी 
                   छंद शबनम लिए चल पड़ी 
                   हलचलों की छिड़ी रागिनी 
                   वर्तनी की कली खिल पड़ी 
                   भावना का मुखर अवतरण 
                   शब्द का संकलन हो गया       (पृष्ठ-३९)
          
जातिवाद, क्षेत्रवाद, राजनीतिक प्रपंच, धर्म भेद, भीड़ भाड़, वादों का बाजार, आपाधापी, छीना झपटी आदि के कारण रचनाकार अफसोस जाहिर करता है। गंगासागर भी खारा-खारा लगता है तथा आजादी के बाद भी आजतक राशन कंगाल दिखता है क्योंकि-

                    सड़क किनारे जहाँ खड़ा है 
                    लफड़ा रोटी का
                    रोज-रोज का एक झमेला 
                    रगड़ा रोटी का              (पृष्ठ-४५)

उसे आत्मानुभूति को अभिव्यंजित करने के लिये बाध्य करते हैं। कागज के टुकड़े वाद के प्रतीक हैं जबकि नदी की देह विरहाग्नि का द्योतन करती है। ग्रामीण आँचल में जन्मा, पला-बढ़ा रचनाकार प्रौढ़ावस्था में भी उसी खाटी माटी की गंध में अपने को सुवासित करना चाहता है क्योंकि उसका संस्कार पुन: उसी पुरातन परिवेश में, स्वर्णिम अतीत में लौटने को विवश करते हैं। अभिव्यंजना साक्ष्य है-

                    माटी की वह धूल भुरभुरी
                    मेरा खेल-खिलौना होती 
                    लंगड़ी-बिछिया छीना-झपटी 
                    मेरी माया मेरा मोती 
                    धूल रगड़कर हाथ-पैर में 
                    बचपन ढोया और बढ़ा हूँ     (पृष्ठ-४८)
          
गीतों में तुकान्त शब्दावली का प्रयोगधर्मी रचनाकार नवगीतों में भी उसी लयात्मकता, ध्वन्यात्मकता एवं संगीतात्मकता का आग्रही दिखाई पड़ता है तथा स्वस्थ परम्परानुमोदन का पक्षधर भी है। वह नव्य प्रयोग उसी सीमा तक करना चाहता है जहाँ तक भारतीय संस्कृति, मानवीय मूल्य और स्वस्थ परम्पराओं पर प्रहार न होता हो। उसका लकीर का फकीर बनने में विश्वास नहीं है। यही कारण है कि उसके अधिकांश नवगीत गेयता, लयात्मकता, ध्वन्यात्मकता  एवं संगीतात्मकता से आपूरित हैं, समन्वित हैं एवं मंडित हैं। शब्दानुशासन को सतर्कतापूर्ण कायम बनाये रखने में रचनाकार दक्ष हैं, कुशल हैं एवं सक्षम हैं। लोकमानस की रागात्मकता और बौद्धिकता को संतुष्ट करनेवाली ये रचनायें निश्चय ही नव्य-चिंतन की परिणति हैं। साम्प्रतिक परिप्रेक्ष्य में रचनाकारों का पुनीत दायित्व है कि वे अपने जीवन की अभिव्यक्ति करते हुये राष्ट्रीय समकालीन ज्वलन्त समस्याओं पर विचार करें तथा जनमानस को जागरित करें। 
“सहयोगीजी” ने इस पर चलने का प्रयास किया है और उन्हें सफलता भी मिली है। सावन की नशीली घूप, खुशियों की पिअरी, नव वसंत का कोमल कोंपल, गजल गाती खंजनों की टोलियाँ, बहकती हुई शाम की हवा, उगता हुआ खिला-खिला सूरज आदि प्राकृतिक तथ्यों और तत्वों ने रचनाकार के मानस को काव्य-सर्जना के लिये प्रेरित और प्रोत्साहित किया है। जीवन को एक लहर की संज्ञा से अभिहित करनेवाले रचनाकार ने सुख-दुःख, आरोह-अवरोह, मधुर-तिक्त, राग-विराग आदि के परिप्रेक्ष्य में अपनी अभिव्यंजना की है। देखें-

                    मर्त्यलोक का एक निवासी 
                    सपनों का जंगल है 
                    मानवता का एक प्रवासी 
                    चंदा है मंगल है 
                    गीत गाँव का एक फरिश्ता 
                    उजड़ा हुआ शहर है             (पृष्ठ-५७)
          
विकास के नाम पर मात्र आदमकद विश्वास दिया गया है। नवयुग का स्वप्न साकार नहीं हो सका है। प्रगतिवाद विनाश लीला में व्यस्त है। मनुस्मृतियों की कथा-कहानी बया सुनाती है तथा सुषमा गायब है। संकल्पों की खाट खड़ी होना, आस का कटोरा लिये घूमना, ऊसर में आश्वासन मिलना, सामाजिकता का आँख मूँदकर सोना, प्रजातंत्र का रोना तथा दुराचार के कारटून का रोना आदि ऐसे कथ्य और तथ्य हैं जिनसे रचनाकार की कारयित्री प्रतिभा प्रभावित हुई है फिर भी वह जीवन यापन कर रहा है। कारण है-

                    हिंदी की नौका पर चढ़कर 
                    गीतों का संसार बसाता 
                    पीड़ा की घनघोर गली में 
                    भावाकुल बाजार लगाता 
                    हार निरंतर हाथ लगी है 
                    जीत नहीं पर जीता हूँ मैं       (पृष्ठ-७०)
          
बहरा शासन, दानवी मानवता, लांछन का सैलाब, संवादों का गहन विभाजन, अनुबंधों का अनमन रहना, विषयी अत्याचार, संबंधों के नये गठजोड़, दुरभिसंधि की डाँट-डपट का डंका बजना, नगर की सड़कों की दुर्दशा, नगरवधुओं की सोचनीय स्थिति, स्नेह के दरिया का सूखना आदि की दयनीय स्थिति और परिस्थिति को देखकर संवेदनशील रचनाकार का हृदय व्यथित हो उठा है। यही कारण है कि वह कह उठता है-

                    भीड़ भरी सडकों पर बाईक 
                    तेज चलाते हैं 
                    और नशा का सेवन करते 
                    पान चबाते हैं 
                    छेड़-छाड़ कलियों से करते 
                    ऐसे लमहों को समझाऊँ 
                    मन तो करता है              (पृष्ठ-९२)
          
मानवीय मूल्यों के ह्रास और परिहास तथा उपहास ने रचनाकार की व्यथा बढ़ा दी है। आशावादी जीवन दृष्टि से रूपायित रचनाओं में प्रेमगीत, मौसम बदल रहा, जिन्दगी का भागवत, समय का हाथ आदि हैं जिनमें जीवन मूल्यों के प्रति आशा और विश्वास जागरित करने का रचनाकार ने अथक प्रयास किया है। आंचलिकता की चाशनी में पगे ये गीत-नवगीत मिश्रित वृत्ति का द्योतन करते हैं जिनमें गीत की गेयता सम्पूर्ण कृति में ध्वनित हुई है। भोजपुरी भाषा की शब्दावली को चुन-चुनकर यथेष्ट प्रयोग करने में रचनाकार को सफलता मिली है। धूप-छनौटा, कजरौटा, पियास, भूभल, भगई, टुटही-टटिया, सतुई, चिचियाहट, बिसुखी गाय, गड़ही, लेंढ़ा, जाँत-लोढ़ा, बेना, मसहरी, रसरी, सानी-पानी, डीह, सतुआन, ढेला, खपड़े की ओरी, भाखी, मकई, चिरइया मोड़, भभक, तिलंगी, छरहरी, लँगड़ी-बिछिया, छितराया, निहोरा, पिअरी, चुहानी, जिनिगी, ताक, बतियाता, लमहर, चिरई, रेहन, गमछी, चिखुर, हरिअर, ददरी मेला  आदि शब्दों के प्रयोग ने एक ओर रचनाकार को भोजपुरी भाषा पर आधिपत्य को रेखांकित किया है वहीं दूसरी ओर आंचलिकता की प्रवृत्ति से भाषायी संप्रेषणीयता और समृद्धि का भी साक्ष्य प्रस्तुत हुआ है। पूर्वांचल का ददरी मेला जनपद बलिया की बलिदानीवृत्ति, भृगुनाथ मंदिर से जुड़ी संस्कृति एवं ऐतिहासिक क्षितिज की निर्मिति को आंचलिकता के धरातल पर अधिष्ठित और प्रतिष्ठित करता है जिसका वर्णन भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने निबन्ध “भारतवर्षोन्नति” में किया है जो सांस्कृतिक समन्वय का प्रतीक सिद्ध हुआ है।
         
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि शीर्षक सटीक, उपयुक्त एवं अपनी सार्थकता स्वयं प्रमाणित करता है। संग्रह की रचनायें षड् रस का प्रतिनिधित्व करती हैं जिनमें गीत, नवगीत, मुक्तक एवं गजल के शेअरों की अभिव्यंजना के स्वर ध्वनित होते हैं। आंचलिकता ग्राम्य परिवेश, प्रकृति-चित्रण, सांस्कृतिक-चैतन्यता, यथार्थवादी चित्रांकन, राजनीतिक परिवेश की अभिव्यक्ति आदि प्रवृत्तियों में कृति की वृत्ति अधिक रमी है। नवगीत के क्षेत्र में रचनाकार का यह ट्रायलबाल का नव प्रयोग काव्यानुरागियों को प्रीत करेगा ऐसा मेरा विश्वास है जिसके लिये शिवानन्द सिंह “सहयोगी” बधाई के पात्र हैं। कृति स्वागत योग्य है जिसमें काव्य-निकष रस का प्रतिमान ही काम्य सिद्ध है। 
१.७.२०१७ 
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गीत नवगीत संग्रह- सूरज भी क्यों बंधक, रचनाकार- शिवानंद सहयोगी, प्रकाशक-कोणार्क प्रकाशन, नई दिल्ली। प्रथम संस्करण- २०१५, मूल्य-२०० रुपये, पृष्ठ-१२८, समीक्षा- डा. पशुपतिनाथ उपाध्याय, ISBN-979-81-920238-7-8

समीक्षा

पुस्तक चर्चा 

रे मन गीत लिखूँ मैं कैसे- शीला पांडे

मधुकर अष्ठाना 
गीत-नवगीत की सार्थकता और जनप्रियता के साथ ही उसकी सम्वेदनीय-शक्ति से प्रभावित होकर अन्य विधाओं के रचनाकार भी इस विधा में उत्तम प्रयास कर रहे हैं और अनेक रचनाकारों के गीत-नवगीत-संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। ऐसे ही रचनाकारों में श्रीमती शीला पाँडे का अनुदान आकर्षित करता है। इसी क्रम में उनकी सद्य प्रकाशित कृति "रे मन गीत लिखूँ मैं कैसे" बहुत चर्चित हुई है। प्रश्न यह नहीं है कि वे किस स्तर की रचनाकार हैं बल्कि यह सराहनीय है कि नयी कविता का मोह त्याग कर गीत-धर्मिता के लिये जागरुक हुई हैं। 

उसी प्रकार उनके संग्रह को भी विद्वानों, ने गम्भीरता से लिया है और गीत-विधा में पदार्पण का स्वागत किया है। पहले ही संग्रह में उनकी रचनायें पढ़ कर यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि यह उनकी प्रथम कृति है। उनके गीतों का फलक बहुत व्यापक है जिसमें विविधता है और उनकी संघर्षशील प्रवृत्ति जिसमें जिजीविषा की लगन एवं आत्मविश्वास की झलक मिलती है जिससे उनके उज्जवल भविष्य का संज्ञान होता है। भारतीय संस्कृति की लयात्मकता जिसमें लोकभाषा संस्कार-गीतों एवं पर्वों-उत्सवों में गाये जाने वाले गीतों का प्रभाव उन पर भी पर्याप्त पड़ा है। इसके साथ ही भारतीय संस्कृति आस्था एवं विश्वास की भी परिचायक है और इसी संदर्भ में रीति का पालन करते हुए पाँडे जी ने सर्वप्रथम प्रस्तुत संग्रह में वाणी-वन्दना को स्थान दिया है जिसमें उनकी आकांक्षाओं का ज्ञान होता है:-
"शारदे! मन ज्ञान दे माँ।
इक नवल वरदान दे माँ!
दूर हो मन का अँधेरा
मन में हो नित वास तेरा
भक्ति, श्रृद्धा का अनोखा-
राग दे, स्वर तान दे माँ!"

वन्दना के उपरान्त भी अगले गीत में वे जड़ता से मुक्ति की कामना करती हैं। इस गीत में हमें छान्दसिक प्रयोग भी दिखाई पड़ता है। अनेक गीत इस संग्रह के कवयित्री के निजी जीवन के सुख-दुख, हर्ष-वेदना आदि के भी संग्रहीत हैं जिनमें व्यक्तिगत चिन्ताओं तथा पीड़ाओं की मार्मिक सम्वेदनात्मक अभिव्यक्ति लक्षित की जा सकती है। अनेक चिन्ताओं और मानसिक उद्वेलनों के बावजूद कवयित्री अपने कर्तव्य-पथ से विमुख नहीं होती है और अपने अंतर की कामना निन्नांकित शब्दों में व्यक्त कर देती है:-
"बीज का तरु धर्म होता।
माटी का कुछ कर्म होता।
सबको एकाकार करके।
मधुर फल बन टूट जाओ।"

व्यंजना में प्रस्तुत ये पंक्तियाँ प्रतीक रूप में नारी-जीवन के संघर्ष और कर्त्तव्य का बोध कराती हैं जिसमें नारी को धरती के समान बताया गया है। भावावेश और पारम्परिकता के बावजूद कहीं-कहीं अनूठे बिम्ब और सुन्दर शब्द संयोजन में मौलिकता दृष्टिगत होती है। उनके अवचेतन में सम्वेदना का महासागर है और प्रगतिशील चेतना भी, जो उन्हें दूर तक ले जाने को प्रतिबद्ध है।

संग्रह के गीतों की प्रमुख विशेषता है कि अभाव और मानसिक पीड़ा के बावजूद गीतों के अंत में आशा का समावेश अवश्य होता है जो आगे बढ़ने की प्रेरणा दे जाता है।
"बिना रुके चलती जाती है
कैसी लगन नवेली
जाने किस धुन में है व्याकुल
तजती हृदय, हवेली

अरे कोटरों में जाने कब
यह उजियारा कौन दे गया"

ऐसी ही पंक्तियाँ हैं जो आशा का संचार करती हैं। पाँडे जी ऋतुओं और प्रकृति के विभिन्न रूपों से भी बेहद प्रभावित होती हैं। वर्षा ऋतु है और पुष्पित पीला कनेर जिसकी शोभा उन्हें मुग्ध कर देती है और उनकी लेखनी चल पड़ती है:-
"मोहित कर जन-मन की चितवन बीचों-बीच गड़ा है।
वर्षा ऋतु वर्षा में खिलकर यौवन भरे घड़ा है।

कवयित्री एक कुशल चित्रकार की भाँति इस प्रकार शब्द-चित्र खींचती हैं कि प्रतीत होता है वह दृश्य हमारे सम्मुख है। पूरे विस्तार के साथ प्रत्येक कोने-अतरे में झाँक कर वह सूक्ष्म निरीक्षण करती हैं। इस प्रकार वर्णनात्मक रचनाओं में उन्हें अधिक सफलता मिली है। कुछ नवीन उद्भावनायें और कुछ नूतन उपमायें इस रचना को साकार करने में सहायक हैं यथा-पीत वर्ण के टिमटिम तारे, सोने की घंटी उलट पड़ी हो, ज्यों ताले में ताली आदि।

कवयित्री ने अपने व्यक्तित्व को भी अनेक गीतों में बाँधने का सुन्दर प्रयास किया है। धवल-चाँदनी, देव-नदी, स्वाति-बूँद, अश्रु-बूँद आदि अनेक उपमाओं से अपनी प्रकृति और अन्तरमन के सर्व हिताय विचारों को प्रस्तुत किया है जो निम्नांकित पंक्ति में अर्न्तनिहित है:-
मैं, चंचल-सी धवल चाँदनी
देवनदी का अमृत रूप।
होकर मलिन व्यथा कर संचय
‘जग दूषित', प्रत्यक्ष स्वरूप।
.......
मूल्यवान मैं हीरे जैसी-
वर्षा की हूँ‘स्वाति बूँद’हूँ।
मन-पीड़ा धोकर जो खारी-
नयनों की वो‘अश्रु बूँद’हूँ।"

कभी चाँदनी, कभी देवनदी आदि के माध्यम से कवयित्री ने अपने जीवन और विचारों को प्रस्तुत करते हुए अपनी त्रासदियों को भी "पियूँ अमिय-विषय का प्याला, अश्रु बूँद आदि उपमाओं के द्वारा व्यक्त कर दिया हैं। चाँदनी से प्रारम्भ कर स्वयं के जीवन पर घटित करते हुए कवयित्री ने सुन्दर रूपक प्रस्तुत किया है। वहीं यह रचना ‘जल के स्वरूपों और परणति को भी, लक्षित करती है। जो रचना में दो-दो अर्थों में विलक्षणता पैदा करती है। नारी पर आह्वान गीत पच्चीस बन्द की रचना यह सिद्ध करती है कि पांडे जी की लेखनी में प्रबन्ध काव्य लिखने की भी क्षमता है।" "घड़ी पहर कब लगते" गीत में नवता दिखाई पड़ती है जो गीत से नवगीत की और अग्रसर होने की प्रक्रिया में एक पड़ाव प्रतीत होता है। यथा:-
"घड़ी-पहर कब लगते हैं।
ताल-टूटने में?
बात गयी होठों पर
साँझ गई, कोठों पर
तीर, ज्यों कमान से
बूँद, आसमान से
बिखर, द्वार कब टिकते हैं
‘ठाँव’ छूटने में?"

श्रीमती पाँडे समाज और प्रकृति के सूक्ष्म निरीक्षण के साथ ही मानव की वृत्तियाँ, उसकी क्रिया-अक्रिया-प्रतिक्रिया का भी दूर विक्षीय अवलोकन तथा विवेचनात्मक विश्लेषण अपने गीतों में प्रस्तुत करने का सफल प्रयास करती हैं। अर्थ एवं अन्यार्थ के सम्प्रेषणार्थ अपेक्षित शब्दों उपर्युक्त तुकान्तों के प्रयोग में प्रवीण हैं। कथ्य और शिल्प के परिप्रेक्ष्य में उनके समस्त गीत प्रस्तुत किये जा सकते हैं। फिर भी कुछ ऐसे विशिष्ट गीत हैं, उनका उदाहरण अनिवार्य प्रतीत होता है। ऐसे गीतों में कृति का शीर्षक गीत जिसमें २६/११ में, मुम्बई में आतंकवादी आक्रमण की त्रासदी सम्मिहित है, जब गेट वे आफ इण्डिया पर स्थित ताज होटल में सैकड़ों बेकसूर लोगों की हत्या हुई थी। कवयित्री को ऐसा भयंकर आतंकी आक्रमण झकझोर देता है और वे अपनी मनोव्यथा निम्नांकित पंक्तियों में व्यक्त करती हैं:-
"रे मन! गीत लिखूँ मैं कैसे?
कैसे-कैसे मंजर देखे। हर सीने में खंजर देखे।
चौराहे जो ना थे थमते थे सहमे से, बंजर देखे।
इसको भूलूँ, उसको भूलूँ?
दिल में पास रहूँ मैं कैसे?

कब थी भोर सुनहरी लाली। मौत-नृत्य करती मतवाली।
हौले-हौले मीठी धुन की गलियारों में नागन काली।
डँसती-साँसें, भरती-चीखें
अपने प्राण वरूँ मैं कैसे?"

श्रीमती पांडे ऐसी भयानक आतंकवादी घटनाओं से आहत हो जाती हैं। समाज में व्याप्त अराजक स्थिति में ऐसा प्रतीत होता है कि कोई भी सुरक्षित नहीं है। मानवीय मूल्यों का क्षरण, संस्कृति का पतन, समरसता-सद्भाव का अभाव और साम्प्रदायिक विद्वेष की ऐसी अनिष्टकारी परिणति में चारों ओर भय का वातावरण है। जो चौराहे जनता से भरे रहते थे वहाँ सन्नाटा पसरा है और लोग सहमे हुए हैं। सड़कें, सूनी हो गई हैं। मानवता के प्रति ईमानदार और निष्ठावान व्यक्ति कब तक अपनी खैर मना सकेंगे। पूर समाज अपराधीकरण से संत्रस्त है। ऐसी स्थिति में कवयित्री यह सोचती है कि गीत लिखना सरल नहीं रह गया है।

प्रस्तुत कृति में कवयित्री की बहुमुखी प्रतिभा के दर्शन होते हैं। उन्होंने प्रत्येक सामयिक चुनौतियों को स्वीकार कर उन पर लेखनी चलाई है और बेबाक टिप्पणी की है। जब घोर वर्षा से बाँध टूट गये, फसल बरबाद हो गयी। किसानों का असीम दुख, उनकी बरबादी का दर्द धरती को भी असह्य हो जाता है। किसानों के लिये धरती माँ के समान ही है। धरती अपने किसान पुत्रों को पत्र, कवयित्री की लेखनी से लिखती है जिसमें वात्सलय के स्रोत के रूप में अपना संदेश देती हैः-
"माटी! ने एक रोज़ लिखा खत लल्ला तू मन की फुलवारी।
भाँति-भाँति ऋतु, नये निवाले चुन-चुन मुख रखती महतारी।
पिता व्योम क्षण रूठ गया तो। त्याज्य बना, मुख मोड़ चलेगा।
क्या, ले लेगा जान हमारी?

तू मेरी माटी का हिस्सा। तू मेरे कण-कण का किस्सा।
तू नभ की आँखों का तारा। तू धरती पर सबसे प्यारा।
प्राण मेरे बसते हैं तुझमें दूध-भात कर, छूट गिरा जो
क्या तज देगा आन हमारी।

खून-पसीना रस बन जाता। बिन छूए बंजर हो जाता।
मुझ चातक को तेरी आशा लाल नहीं बन तू दुर्वासा।
तू तो है हारिल की लकड़ी अंत समय तक हाथ रहेगा।
क्या तज देगा, तान हमारी?"

तात्पर्य यह कि प्रस्तुत गीत-संग्रह "रे मन! गीत लिखूँ मैं कैसे?" में संग्रहीत रचनायें स्वयं के प्रति, समाज के प्रति, प्रकृति के प्रति, वात्सल्य-देश-पर्वों के प्रति हमें जागरुक बना कर नूतन संदेश देती हैं जिससे चेतना एवं चिन्तन का विस्तार होता है और कवयित्री की सृजनशीलता, कलात्मक शिल्प एवं बहुकोणीय वैचारिक प्रबुद्धता का भी ज्ञान होता है जो सहज, सरल, सरस और प्रवाहपूर्ण है। अंत में डॉ॰ शम्भूनाथ के कथन का उल्लेख करते हुए, उससे सहमति व्यक्त करता हूँ- "इस संग्रह के गीत एक भावनात्मक उत्तेजना के साथ रचे गये हैं जिनमें पारम्परिक तत्वों के साथ नवीनता की आकुलता भी है। शिल्प के स्तर पर प्रचलित प्रयोग नवीन संस्कारों को अर्जित करते हैं।" जागरुक चेतना के साथ श्रीमती शीला पांडे में अपार सम्भावनाएँ हैं। मैं उनके सृजनरत, सक्रिय जीवन के उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ।
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गीत- नवगीत संग्रह - रे मन गीत लिखूँ मैं कैसे, रचनाकार- शीला पांडे, प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, लखनऊ। प्रथम संस्करण- २०१५, मूल्य- रूपये ८०/-, पृष्ठ-८८ , समीक्षा- मधुकर अष्ठाना, ISBN 978-93-85942-02-0

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

जिंदगी की तलाश में- श्याम श्रीवास्तव

रामशंकर वर्मा 
कविता की लोकप्रियता के प्रष्न पर जब यह जुमला चस्पा किया जाता है कि आमजन तक पहुँचना ही उसका अन्तिम लक्ष्य है। तब इस कसौटी पर कसने के लिए एक ही परीक्षणयन्त्र काफी है कि कविता कितनी सम्प्रेषणीय है। इस सम्प्रेषणीयता में कितनी लोकसम्पृक्ति है और कितने लोग इससे गुजर कर कहते हैं कि भई वाह! ऐसा तो हमें भी महसूस होता है, अरे! यह तो हमारे गाँव, मुहल्ले की आँखिनदेखी है या फिर कि यह तो हमारे साथ भी गुजरी है। अब जिज्ञासा उठती है कि यह लोकसम्पृक्ति क्या बला है। लोकसम्पृक्ति किसी रचनाकार की समय पर सतर्क अन्वीक्षण दृष्टि है, उसका संवेदन है, पीड़ा का आर्तनाद और पुलकन का रोमाकुलन है। इस कसौटी पर यदि अधिकांश समकालीन कविताओं की परख की जाये तो यही निकष हाथ लगता है कि कविता की लोकसम्पृक्ति का क्षय हुआ है। और यह निकष कविता के अलोकप्रिय होने का एक बड़ा कारण है।

लोकसम्पृक्ति के क्षय की इस चुनौती को जिन कुछेक कवियों ने भगीरथ-भाव से स्वीकार किया है, उनमें से एक नाम लखनऊ के ख्यातिनाम गीतकार श्याम श्रीवास्तव का है। वर्ष २०१६ की पहली त्रैमासिकी में आया उनका गीत संग्रह ‘जिन्दगी की तलाश में’ लोकसम्पृक्ति के रसायनों से भरपूर है। वे स्वयं कहते हैं कि ‘सम-सामयिक सन्दर्भों में मानव-जीवन से जुड़े सामाजिक संत्रास को शब्दिता प्रदान करना और जीवन की जिजीविषा को अक्षुण्णता प्रदान करना ही मेरे गीतों का अभिप्रेत है।’ वे अपने रचनाकर्म में गीत-नवगीत के विभेद या सीमारेखा को सिरे से ही नकारते हैं। मुखड़े से अन्तरों तक गीत की काया में वे कैसे नवगीत का परकायाप्रवेश करा देते हैं, उन्हें स्वयं नहीं मालूम। नवगीत की इस परकायाप्रवेशी विद्या के वे शायद अकेले विक्रमादित्य हैं।

वर्ण्यविषय और प्रसंगानुसार गीतों में गेयता, लय और टेक के समुचित निर्वाह, माधुर्यता के साथ ही नवगीति रचनाओं में रोजमर्रा की यथार्थ विद्रूपताओं और विडम्बनाओं के विम्ब उकेरने में वे सिद्धहस्त हैं। उनके कुछ कालजयी नवगीत तो जैसे उनका पर्याय बन गये हैं।
यह मुआ अखबार फेंको
इधर हरसिंगार देखो
जागते ही बैठ जाते आँख पर ऐनक चढ़ा के
भूल जाते दीन-दुनिया दृष्टि खबरों पर गड़ा के.......।

उठ रहीं लहरें खड़े हो घाट पर टाई लगाये
क्या पता कल यह लहर फिर, इस तरह आये न आये...।
रूप देखो या न देखो
रूप के उस पार देखो।

नयी सुबह में हृदय चाक करती अखबारों की खबरों का यह विम्ब सचमुच अप्रतिम है और अन्तिम पद की समटेक में अनुपम है नैसर्गिक प्रीति की आकांक्षा। ‘अभी तो चल रहा हूँ मैं’ चौतरफा प्रभंजनों से घिरे आम आदमी की चार कदम आगे बढ़ने और दो कदम पीछे हटने की स्वीकारोक्ति का एक और जिजीविषामूलक गीत है।

कमी रही
कई अनय सबल रहे झुके नहीं
मगर जिन्हें कुचल सका
उन्हें कुचल रहा हूँ मैं
अभी तो चल रहा हूँ मैं
मुझे न मित्र देखिए
उड़ी-उड़ी निगाह से
किताब हूँ वही महज कवर बदल रहा हूँ मैं।

५२ नवगीत, जिन्हें वे नवगीत की संज्ञा देना या न देना पाठक पर छोड़ते हैं, उनकी बहुआयामी गीत साधना का ऐसा प्रतिसाद हैं, जिन्हें ग्रहण कर पाठक क्षणांश को आत्मविस्मृत हो जाता हैं। उनके नवगीतों में जहाँ अम्मा-बापू के दैनिक गृह जंजाल में पिसते स्मृतिबिम्ब हैं वहीं संस्कारवान बेटे के प्रति वर्तमान सर्वभक्षी संस्कृति से अनिष्ट की सहज आशंका भी है।
‘बेटा कुछ बदला दिखता है
माँ डरती है।
‘पुरा पड़ोसी
कुत्ता बिल्ली
सबकी प्यारी रामरती’ में दूसरे के घरों में चौका-बासन करती कामकाजी महिला की कसक के बहाने समाज के अन्तिम पायदान के चरित्र का सन्तोषी जीवन दर्शन और ‘शिला मत बन’ में पुलिस-मीडिया-न्यायतन्त्र का आदमखोर गठजोड़ कुछ भी उनकी कहन की परिधि से बाहर नहीं है। पूजितों के प्रति आस्था विखंडन के दौर में ‘मन नहीं लगता विनय विरुदावली में’ के अतिरिक्त और क्या कह सकता है।

पूँजीवाद और आयातित रहन-सहन की गिरफ्त में लोक कलाओं का पराभव, ग्राम्य जीवन की सहजता का विलोप आदि तो कविता की सभी विधाओं के वर्ण्य विषय हैं, गीतकार ने इन्हें भी अपनी कहन से जीवंत किया है। ‘इधर उधर की छोड़ो बबुआ/घर की कथा कहो’ तथा बहुत बोझा नहीं अच्छा/सफर में सादगी अच्छी’ कहकर उन्होंने प्रकारान्तर से ‘सादा जीवन-उच्च विचार’ वाली शाश्वत भारतीय परम्परा की निर्गुण और सूफी परम्परा की वकालत की है।

एक बात और उल्लेखनीय है कि ‘जिंदगी की तलाश में’ अतीतजिविता, परम्परामण्डन या स्मृतिविलाप के रूप में नहीं है, यह हमारी लोकमंगल कामना और श्रेय के संरक्षण के सन्दर्भ में है। यहाँ पारम्परिक प्रतीकों में दुर्धर्ष समय से मुठभेड़ करने का प्रतिकार और प्रतिरोध है। यह प्रतिरोध ‘दो बाँके’ का दिखावटी न होकर घन की चोट मारकर आततायी को लहूलुहान और पराजित करने का है। ऐसा जनवादी जनपक्षधर गीत जिसे सुनकर भुजायें फड़क उठें, नथुने फूल जायें, शिराओं का रक्त खौल उठे।

कुलबुला कर ही न रह जा यार
मार घन की चोट कस के मार

बेहया है सीख से हरगिज न सुधरेगा
कायदे कानून चुटकी से घुमा देगा
और कितनी हाय कितनी बार
मार घर की चोट
कस के मार।

हिंसकों से साबका तो मौन व्रत कैसा
जोर शब्दों में उगा शमशीर के जैसा
गीत में भर वक्त की ललकार
मार घर की चोट
कस के मार
यूँ न हॅंसकर टाल फुंसी बनेगी फोड़ा
जान लो चौपट फसल, है खर अगर छोड़ा
देर होगी तो कठिन उपचार
मार घन की चोट
कस के मार।

ऐसे कालजयी नवगीत, नवगीत साहित्य की धरोहर हैं। क्या प्रतीक, क्या विम्ब, क्या लय, क्या कहन, क्या शिल्प सब कुछ अनुपमेय।

हाथों में पैमाने थामे, पंचसितारा होटलों में जन सरोकारों के झंडाबरदार कवियों पर वे बड़ी साफगोई से आत्मस्वीकृति के बहाने तंज करते हैं कि
‘प्यासे को नीर पिला न सका
चोटिल तन-मन सहला न सका
मेरा अपराध क्षमा करना।

आम बोली-बानी में रचे गये गीत-नवगीत संग्रह ‘जिंदगी की तलाश में’ की सभी रचनायें गीत-नवगीत के शिल्प, छन्दानुशासन, कथ्य की दृष्टि से पुष्ट हैं। कथ्यानुकूल प्रतीक और विम्ब इसे हृदयग्राही संप्रेषण की क्षमता से लैस करते हैं। आशा है इस गीत-नवगीत संग्रह को पाठकवृन्द और कविजगत सिर माथे पर लेगा।
१५.५.२०१६ 
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गीत- नवगीत संग्रह - जिंदगी की तलाश में, रचनाकार- श्याम श्रीवास्तव, प्रकाशक- नमन प्रकाशन, २१० चिन्टल्स हाउस, १६ स्टेशन रोड, लखनऊ-२२६००१। प्रथम संस्करण- २०१६, मूल्य- अजिल्द रुपये १५०/- सजिल्द रुपये २००, पृष्ठ-९९ , समीक्षा- रामशंकर वर्मा। ISBN 978-81-89763-42-8

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

किन्तु मन हारा नहीं- श्याम श्रीवास्तव

कुमार रवीन्द्र 
अंकिचन हम कहाँ हैं
पास यादों के/खजाने हैं
हमारे पास जीने के/अभी लाखों बहाने हैं
अपना अमृतवर्ष पूरा कर रहे वरिष्ठ कवि भाई श्यामनारायण श्रीवास्तव 'श्याम' की यह आस्तिक भंगिमा उनकी जीवन के प्रति सात्विक आस्था की परिचायक है। जीने के उनके 'लाखों बहाने' वस्तुतः इस समग्र जिजीविषा को परिभाषित करते हैं, जो सृष्टि की आदिम लीला में सन्निहित हैं। अच्छा लगता है जानकर कि 'जिधर भी हम गये/हमने उधर खींची नई रेखा' का उनका जीवनाग्रह और 'अभी लव पर हमारे/सैकड़ों नगमें तराने हैं' का उनका काव्याग्रह अभी भी पूरी तरह युवा है।
उनके प्रस्तुत तीसरे कविता संग्रह 'किन्तु मन हारा नहीं' का शीर्षक भी तो इसी ओर इंगित करता है। और इस प्रखर जिजीविषा का आधार है वह सकारात्मक जीवानुभवों का प्रतिकार करती उनकी सहज उत्सवी मुद्रा इस संग्रह के तमाम गीतों में उपस्थित दिखाई देती है। संग्रह के पहले ही गीत 'रूप के उस पार' में वे 'मुखड़ा-पंक्तियों' 'यह मुआ/अखबार फेंको/इधर हरसिंगार देखो' से ही जीवन के तमाम नकारात्मक प्रसंगों के प्रतिकार की भावभूमि में उपस्थित दिखते हैं। इसी गीत में आगे वे एकदम ताजे बिम्बों में जीवन के सहज अस्तित्व से हमें जोड़ जाते हैं। देखें तो जरा-
क्या धरा गुजरे-गए में / डोलती मनुहार देखो
चाय बाजू में धरी है / गर्म है, प्याली भरी है
सोंठ, कालीमिर्च / तुलसी, लौंग मिसरी सब पड़ी है
जो नहीं मिलता खरीदे / घुला वह भी प्यार देखो
उपरोक्त पंक्तियों में आज के क्षीण होते एहसासों के बरअक्स सहज प्रीतिभाव को सहेजने का उनका आग्रह बानगी देती है उनकी रागात्मक मानुषी संचेतना की। हाँ, यही तो है वह भावभूमि जिसकी आज के तेजी से अमानुषिक एवं संवेदनशून्य होते परिवेश में नितान्त आवश्यकता है।
 कविता में आत्मपरक किस्सागोई उसे जीवन्त बनाती है। संग्रह की कई कविताएँ इसी आत्मानुभूति का कथानक करती है। ये अतीतगंधी रचनाएँ पलायन की नहीं अपितु जीवन के स्वस्थ स्वीकार की भावभूमि उपजाती हैं। देखें संग्रह के एक गीत का यह अंश-
 बेमौसम भी / पंचवटी में / गाना चलता है

 सावन खूब नहाना / नाव बना के तैराना,
 खुशबू के पीछे / पागल बन / रातों दिन मँडराना,
 साँसों संग / अतीत का / तानाबाना चलता है
यह तो देह की पाँच तत्वों की पंचवटी है, उसमें भीतर की जिजीषु स्वीकृति स्मृतियों के ताने बुनती रहती है और उन्हीं से बनती है कबिरा की 'जतन से ओढ़ी' चदरिया श्याम भाई एक कुशल बुनकर हैं। वे अपनी कविताई की चदरिया विविध रंगी धागों से बुनते हैं। यह धागे हैं आज के तमाम राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक सन्दर्भ, जिनकी इन गीतों में जगह-जगह सहज बुनावट हुई है। चारों ओर छत एवं प्रपंच का जो वातावरण व्याप्त रहा है, उसकी ख़बर देते हुए वे कहते हैं-
 कागज पर कुछ और / हकीकत केवल / छल ही छल
 दिखता नहीं दूर तक / नंगी आँखों कोई हल
 बहुचर्चित अपराध / दूसरे दिन रद्दी के डिब्बे
 पीड़ित आँखों के हिस्से / आये काले धब्बे
 जिरह पेशियों बीच / मौत जाती आदमी निगल मुश्किल यह है कि आम आदमी को
 सौ तीरों की जद में / यहाँ खुले में रहना है
 तख़्त और आतंक / बीच पाटों में पिसना है
 बेलगाम हर तंत्र / कसें तो कैसे कसें लगाम
यह जो हमारी सामाजिक संरचना का अपराधीकरण हुआ है, उसके लिए जिम्मेंदार है हमारी स्वयं की निष्क्रियता और उदासीनता, कवि की अन्तर्व्यथा इसी को लेकर है। वह कहता है-
'कैसी खुशियाँ/जहाँ जवानी भी/घुटनों के बल चलती है
रात नहीं चुप्पी खलती है'
कैसा मानुस/अन्यायी के सम्मुख/चारण बन जाता है।
हमें शिकायत उन शहरों से/हमें शिकायत उन गलियों से
जहाँ अनय की टीस/क्रोध में नहीं/आँसुओं में ढलती है।
और उनकी खीझ इसी बात को लेकर है क्या करिए/ऐसे पौरूष का/आंतकों के पाँव पखारे।

एक ओर अनय और आतंक से न जूझ पाने की यह टीस और दूसरी ओर मनुष्य की विपदाओं की बढ़ती फेहरिस्त/ संग्रह का 'कुढन' शीर्षक गीत इन्हीं आपदाओं की गाथा कहता है! 'ऊधो! कठिन हो गया जीना' का एहसास लिए इस गीत की बिंबाकृतियाँ एकदम सहज और सपाट हैं और आज की किसिम-किसिम की दुविधाओं का हवाला देती हैं। एक ओर 'कम्प्यूटर/मोबाइल आगे/चिट्ठी, नेह-निमंत्रण भागे' की व्यथा है, तो दूसरी ओर 'सूत-सूत में/ठनी लड़ाई/छिन्न-भिन्न चादर के धागे/दाँव-पेंच के पौ-बारह है’ के माध्यम से घर के बिखराव की पीर का बिम्बात्मक अंकन है। 'मँहगाई की तिरछी चालें, जिसमें दूध-दही/गुड़-शक्कर जैसी आम पोषण की जिनसे दुर्लभ हो गयी हैं के साथ तिल-तिल/आदर्शों से गिरना' की कुढ़न भी है। आज एक ओर है हाट-संस्कृति का दबाव तो दूसरी ओर है जीवन मूल्यों का अधःपतन/'कुढ़न' गीत में इनके ही हम रू-ब-रू होते हैं।
'घाट-घाट पर/बैठे पंडे/सच्चों के सिर बजते डंडे
सजीं दुकानें/क्षत्रप बाँटें/दुराग्रही ताबीजें-गंडे
रखवारों ने ही/डोली का/चैन पिटारा छीना'
एक अन्य गीत में श्याम भाई, 'दिन घोटाले/रात रंगीली' वाले समसामयिक परिवेश की भ्रष्ट घुनखाई हालत को बदलने का आह्वान करते हैं। इसके लिए 'आलस की जंजीरें' तोड़ कर संकल्पों की अलख जगाने की बात करते हैं।
पारिवारिक उलझनों का हवाला देते कई संग्रह में हैं। 'आँगन बन बैठे जलसाघर' के वर्तमान अपसांस्कृतिक माहौल में घर की संरचना और सामान्य रिश्ते-नाते में जो बदलाव आया है, उसका हवाला 'बापू', 'माँ, 'चिट्ठी आई', 'कैसे रहे शहर में', 'भग्न हृदय' जैसे गीतों में बखूबी हुआ है। बुढ़ापे की जो दुविधाएँ हैं और उसके प्रति युवा पीढ़ी के सोच में जो बदलाव आया है, उसके इंगित इन गीतों में जगह-जगह मिलते हैं। आज पीढ़ियों का अंतर भारतीय समाज की मूल इकाई परिवार के विघटन का कारक औ पर्याय बन गया है। और फिर जाने-पहचाने, पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आये सांस्कृतिक परिवेश का बिखराव। इस सबके प्रति एक उम्रदराज व्यक्ति की क्या सोच है, इसी का ज़िक्र हुआ है संकलन के शीर्षक गीत 'किंतु मन हारा नहीं' में। अतीतजीवी होना उसकी परवशता है और संभवतः आवश्यकता भी। व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों ही स्तरों पर वह समग्र बिघटन-टूटन का भोक्ता जो है। देखें, उस कविता का कुछ अंश-
'जी रहे हैं उम्र/रेगिस्तान में/लड़ते समय से
हाँ एक ओर...उड़ गई चिड़िया-चिरौटे/दिन बचे बेचारगी के'

'अब कहाँ/वे कहकहे/रंग इन्द्रधनुषी जिन्दगी के,' की अकेले पड़ जाने की व्यक्तिगत व्यथा
तो दूसरी ओर 'ऊबता जी/हर घड़ी सुन/अटपटे संवाद घर में
और सुनते उधर डेरे रहजनों के/हैं शहर में' का सामूहिक सामाजिक एकसास
और इनके बीच में कवि का संवेदनशील सांस्कृतिक मन 'कहाँ जायें/कट सनातन/संस्कृति की गूँज लय से' की अपने परिवेश से निर्वासन की नियति को झेलता हुआ। किंतु उसकी जिजीविषा एवं रागात्मक इयता हार नहीं स्वीकारती-
'वक्त नाजुक है/पता है/ किंतु मन हारा नहीं है
ढाल देखे/उस तरफ/वह जाये, जलधारा नहीं है
तन शिथिल/पर मन समर्पित/टेक पर अक्षत हृदय में'
संग्रह की एक और रचना का जिक्र करना यहाँ जरूरी है। वह रचना है 'रामरती'। इस कविता में एक पूरा रेखाचित्र है एक कर्मठ जिजीविषा का। रामरती मात्र एक चरित्र नहीं, वह तो प्रतीक है भारतीय अस्मिता का, जो तमाम संघर्षों के बीच भी उत्फुल्ल जीवन्त बनी रहती है। समूची सृष्टि से जुड़ने का जो सगा भाव है। आज इस महाभाव की मानवता को कितनी जरूरत है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। वेसे तो पूरी कविता ही पठनीय है, किंतु यहाँ उसका कुछ अंश देखें-
'कुत्ता-बिल्ली/पुरा पड़ोसी/सबको प्यारी रामरती
थकी देह भी/खिलखिलकरती/सबसे मिलती रामरती
गीली माटी सा/कोमल मन/पल में फागुन, पल में सावन
हमदर्दी के/बोल बतासे/अक्सर कर देते वृन्दावन
छिछले पानी में भी/अक्सर, तिरने लगती रामरती
बेमौसम भी/हरसिंगार-सी/झरने लगती रामरती'
एक समूची भारतीय नारी की यह प्रतीक-कथा, सच में अनूठी बन पड़ी है। मेरी राय में, यह रचना इस संग्रह की ही नहीं, पूरे हिन्दी गीत-साहित्य की एक उपलब्धि है। साधुवाद है भाई श्यामनारायण 'श्याम' का इस एक रचना हेतु ही।
श्याम भाई मेरे अग्रज हैं, प्रणम्य हैं उनसे मेरा परिचय कुछेक सालों का ही है। वे एक विनम्र सीधे सरल व्यक्ति हैं और यही उनकी पूँजी है। पारम्परिक गीत के वे पुराने गायक हैं। उन गीतों से जब मैं कुछ वर्ष पूर्व परिचित हुआ, तो मुझे यह देख कर सुखद आश्चर्य हुआ था कि उनमें भी कई बार ऐसे ताजे-टटके अनुभूति-बिम्ब उभरे थे कि नवगीत के रचयिताओं को भी उनसे ईर्ष्या हो। प्रस्तुत संग्रह के सभी पैंतालिस गीत नवगीत की कहन-भंगिमा के इतने अधिक निकट हैं कि उन्हें नवगीत कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है। उम्र के पचहत्तर के पड़ाव पार के इस युवा मन गीतकार को मेरा विनम्र प्रणाम। अभी तो उनकी गीतयात्रा के कितने ही पड़ाव शेष हैं। प्रभु से प्रार्थना है कि हमें वर्षों-वर्षों तक उनके सहयात्री बनने का सौभाग्य प्राप्त होता रहे।
८.३.२०१५ 
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गीत- नवगीत संग्रह - किन्तु मन हारा नहीं, रचनाकार-श्याम श्रीवास्तव, प्रकाशक- उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ, प्रथम संस्करण- २००९, मूल्य- रूपये १५०/-, पृष्ठ- १०४, भूमिका से- कुमार रवीन्द्र

समीक्षा

कृति चर्चा 

यादों की नागफनी - श्याम श्रीवास्तव (जबलपुर)

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
‘यादों की नागफनी’ सनातन सलिला नर्मदा के तट पर बसी संस्कारधानी जबलपुर के लाड़ले रचनाकार स्व. श्याम श्रीवास्तव की प्रतिनिधि रचनाओं का संकलन है जिसे उनके स्वजनों ने अथक प्रयास कर उनके ७५ वें जन्म दिवस पर प्रकाशित कर उनके सरस-सरल व्यक्तित्व को पुनः अपने बीच महसूसने का श्लाघ्य प्रयास किया। 

स्व. श्याम ने कभी खुद को कवि, गायक, गीतकार नहीं कहा या माना, वे तो अपनी अलमस्ती में लिखते-गाते रहे। आकाशवाणी ए ग्रेड कलाकार कहे या श्रोता उनके गीतों-नवगीतों पर वाह-वाह करें, उनके लिये रचनाकर्म हमेशा आत्मानंद प्राप्ति का माध्यम मा़त्र रहा। आत्म में परमात्म को तलाशता-महसूसता रचनाकार विधाओं और मानकों में बॅंधकर नहीं लिखता, उसके लिखे में कहाँ-क्या बिना किसी प्रयास के आ गया यह उसके जाने के बाद देखा-परखा जाता है।

यादों की नागफनी में गीत-नवगीत, कविता तीनों हैं। श्याम का अंदाज़े-बयाँ अन्य समकालिकों से जुदा है-

"आकर अॅंधेरे घर में चौंका दिया न तुमने
मुझको अकेले घर में मौका दिया न तुमने
तुम दूर हो या पास क्यों फर्क नहीं पड़ता?
मैं तुमको गा रहा हूँ  हूका दिया न तुमने"

‘जीवन इक कुरुक्षेत्र’ में श्याम खुद से ही संबोधित हैं- 
"जीवन इक कुरुक्षेत्र है 
मैं अकेला युद्ध लड़ रहा 
अपने ही विरुद्ध लड़ रहा  
शांति, अहिंसा क्षमा को त्याग 
मुझमें मेरा बुद्ध लड़ रहा।"

यह बुद्ध आजीवन श्याम की ताकत भी रहा और कमजोरी भी। इसने उन्हें बड़े से बड़े आघात को चुपचाप सहने और बिल्कुल अपनों से मिले गरल को पीने में सक्षम बनाया तो अपने ‘स्व’ की अनदेखी करने की ओर प्रवृत्त किया। फलतः, जमाना ठगकर खुश होता रहा और श्याम ठगे जाकर।
श्याम के नवगीत किसी मानक विधान के मोहताज नहीं रहे। आनुभूतिक संप्रेषण को वरीयता देते हुए श्याम ‘कविता कोख में’ शीर्षक नवगीत में संभवतः अपनी और अपने बहाने हर कवि की रचना प्रक्रिया का उल्लेख करते हैं।
तुमने जब समर्पण किया 
धरती आसमान मुझे 
हर जगह क्षितिज लगे।
छुअन-छुअन मनसिज लगे। 
कविता आ गई कोख में।

वैचारिक लयता उगी मिटटी पगी
राग के बयानों की भाषा जगी
छंद-छंद अलंकार-पोषित हुए
नव रसों को ले कूदी चिंतन मृगी

सृष्टि का  अर्पण किया
जनपद की खान मुझे 
समकालिक क्षण खनिज लगे।
कथ्य उकेरे स्याहीसोख में।
कविता आ गई कोख में।

श्याम के श्रृंगारपरक गीत सात्विकता के साथ-साथ सामीप्य की विरल अनुभूति कराते हैं। ‘नमाजी’ शीर्षक नवगीत श्याम की अन्वेषी सोच का परिचायक है-
पूर्णिमा का चंद्रमा दिखा
विंध्याचल-सतपुड़ा से प्रण
पत्थरों से गोरे आचरण
नर्मदा का क्वाँरापन नहा
खजुराहो हो गये हैं क्षण
सामने हो तुम कुरान सी
मैं नमाजी बिन पढ़ा-लिखा

‘बना-ठना गाँव’ में श्याम की आंचलिक सौंदर्य से अभिभूत हैं। उरदीला गोदना, माथे की लट बाली, अकरी की वेणी, मक्का सी मुस्कान, टिकुली सा फूलचना, सरसों की चुनरिया, अमारी का गोटा, धानी किनार, जुन्नारी पैजना, तिली कम फूल जैसे कर्णफूल, अरहर की झालर आदि सर्वथा मौलिक प्रतीक अपनी मिसाल आप हैं। समूचा परिदृश्य श्रोता/पाठक की आँखों के सामने झूलने लगता है।
गोरी सा बना-ठना गाँव
उरदीला गोदना गाँव।

माथे लट गेहूँ की बाली
अकरी ने वेणी सी ढाली
मक्का मुस्कान भोली-भाली 
टिकुली सा फूलचना गाँव।

सरसों की चूनरिया भारी
पल्लू में गोटा अमारी
धानी-धानी रंग की किनारी 
जुन्नारी पैंजना गाँव।

तिली फूल करनफूल सोहे
अरहर की झालर मन मोहे
मोती अजवाइन के पोहे
लौंगों सा खिला धना गाँव।

श्रेष्ठ-ज्येष्ठ गीतकार स्व, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ ने श्याम की रचनाओं को ‘विदग्ध, विलोलित, विभिन्न आयामों से गुजरती हुई अनुभूति के विरल क्षणों को समेटने में समर्थ, पौराणिक संदर्भों के साथ-साथ नई उदभावनाओं को सॅंजोने में समर्थ तथा "भावना की आँच में ढली भाषा से संपन्न" ठीक ही कहा है। किसी रचनाकार के महाप्रस्थान के आठ वर्ष पश्चात भी उसके सृजन को केंद्र में रखकर सारस्वत अनुष्ठान होना ही इस बात का परिचायक है कि उसका रचनाकर्म जन-मन में पैठने की सामर्थ्य रखता है। स्व. रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ के अनुसार "कवि का निश्छल सहज प्रसन्न मन अपनम कथ्य के प्रति आश्वस्त है और उसे अपनी निष्ठा पर विश्वास है। पुराने पौराणिक प्रतीकों की भक्ति तन्मयता को उसने अपनी रूपवर्णना और प्रमोक्तियों में नये रूप् में ढालकर उन्हें नयी अर्थवत्ता प्रदान की है।"

श्याम के समकालीन चर्चित रचनाकारों सर्व श्री मोहन शशि, डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’, संजीव वर्मा ‘सलिल’ की शब्दांजलियों से समृद्ध और श्रीमती पुष्पलता श्रीवास्तव, माधुरी श्रीवास्तव, मनोज श्रीवास्तव, रचना खरे तथा सुमनलता श्रीवास्तव की भावांजलियों से रससिक्त हुआ यह संग्रह नयी पीढ़ी के नवगीतकारों ही नहीं तथाकथित समीक्षकों और पुरोधाओं को नर्मदांचल के प्रतिनिधि गीतकार श्याम श्रीवास्तव के अवदान सें परिचित कराने का सत्प्रयास है जिसके लिये शैली निगम तथा मोहित श्रीवास्तव वास्तव में साधुवाद के पात्र हैं।

श्याम सामाजिक विसंगतियों पर आघात करने में भी पीछे नहीं हैं। 
"ये रामराजी किस्से 
जनता की सुख-कथाएँ 
भूखे सुलाते बच्चों को 
कब तलक सुनायें"

"हम मुफलिस अपना पेट काट 
पत्तल पर झरकर परस रहे"

"गूँथी हुई पसीने से मजदूर की रोटी
पेट खाली लिये गीत गाता रहा" ... आदि अनेक रचनाएँ इसकी साक्षी हैं।

तत्सम-तदभव शब्द प्रयोग की कला में कुशल श्याम श्रीवास्तव हिंदी, बुंदेली, उर्दू, अंग्रेजी के शब्दों को भाव-भंगिमाओं की टकसाल में ढालकर गीत, नवगीत, ग़ज़ल, कविता के खरे सिक्के लुटाते चले गये। समय आज ही नहीं, भविष्य में भी उनकी रचनाओं को दुहराकर आश्वस्ति की अनुभूति करता रहेगा।
२५.७.२०१६ 
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गीत- नवगीत संग्रह - यादों की नागफनी, रचनाकार-  श्याम श्रीवास्तव (जबलपुर),   शैली प्रकाशन, २० सहज सदन, शुभम विहार, कस्तूरबा मार्ग, रतलाम । प्रथम संस्करण- २०१६, मूल्य- १२० रुपये, पृष्ठ- ६२ , समीक्षा- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'।

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

फागुन के हस्ताक्षर- श्रीकृष्ण शर्मा

आचार्य भगवत दुबे 
गीत संग्रह ‘फागुन के हस्ताक्षर’ के रचयिता एवं वरिष्ठ गीतकार श्रीयुत् श्रीकृष्ण शर्माजी हिन्दी के उन मूर्धन्य रचनाकारों में से हैं, जो छान्दस कविता एवं गीत की प्रतिष्ठा के लिए जीवन भर संघर्षरत रहे और आज जबकि उनकी नेत्र-ज्योति क्षीणतर हो चुकी है तब भी पूरी निष्ठा के साथ सृजन यज्ञ में अपनी सारस्वत समिधाएँ समर्पित करते चले जा रहे हैं। आपने जीवन के कटु यथार्थ को प्रत्यक्षतः देखा ही नहीं अपितु उसे स्वयं भोगा भी है। उन्हीं संवेदनात्मक अनुभूतियों को आपने अपने गीतों में सशक्त अभिव्यक्ति दी है।

मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के ग्राम सिलपुरी में आपकी प्रथम नियुक्ति शिक्षक के पद पर हुई। चट्टानी पहाड़ी पर अवस्थित इस गाँव के निकट बहने वाली सदानीरा ‘बेतवा’ एवं चारो ओर फैले ऊँचे-ऊँचे वृक्षों युक्त सघन वन का प्राकृतिक सौन्दर्य कवि के भाव जगत एवं रचना संसार का सदैव साथी बना रहा। प्रकृति का यह आंचलिक स्वर आपके गीतों में प्राणवंत हो उठा है। प्रकृति की मनोहारी छवि-छटायें अभावों एवं दुर्दिनों में भी आपके गीतों में रच-पच कर जीवन का जयघोष करती रहीं हैं। समीक्ष्य गीत संग्रह आपकी इसी संघर्ष यात्रा का प्रामाणिक दस्तावेज है, जिसमें फागुन के हस्ताक्षर हैं और कोयल उसकी गवाही देती है।
उदाहरण दृष्टव्य है-
‘‘इन कच्चे पत्तों की पीठ थपथपाने / हवा सब विकल्पों को लात मार आयी।
सठियाया पतझर कर चुका आत्महत्या / फागुन के हस्ताक्षर, पिकी की गवाही।’’

शर्माजी के गीत प्रकृति की आत्मा से सीधा साक्षात्कार करते हैं तथा आम आदमी की व्यथा कथा और उसके मनोभावों को समय की शिला पर कस कर उसके अंतर्द्वद्वं एवं अहसास की परख करते हैं। इसी संग्रह की एक गीतिका के कुछ अंश देखिये-

‘‘अँधियारा इस तरह बढ़ रहा / जैसे मँहगाई की काया।
दूर-दूर तक नजर न आती / उम्मीदों की उजली छाया।
कितना कठिन समय आया है / अपनापन तक बना पराया।’’

स्वतंत्रता के पश्चात् सामाजिक वातावरण, विशेषकर राजनैतिक चरित्र में आयी शर्मनाक गिरावट के कारण राष्ट्र की खुशहाली के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर देने वाले सुयोग्य व्यक्तियों का तिरस्कार विमूढ़ों की सभा में किस तरह हो रहा है, इसका एक यथार्थ चित्र ‘उत्तर रामचरित के पन्ने’ नामक गीत की इन पंक्तियों में देखा जा सकता है-

‘‘धुँआ-धुँआ अम्बर का चेहरा / मंच हुआ तारों से खाली,
जो कि तिमिर में जले उम्र भर / वही सभा से गये उठाये।

सर्वथा नवीन प्रतीक योजना, स्मृति, ध्वनि एवं चाक्षुष बिम्बों से रचे गये प्रायः सभी गीत इतने सशक्त एवं हृदय-स्पर्शी हैं कि मुँह से सहसा वाह-वाह निकल जाता है। गीत ‘झील रात की’ का यह गीतांश देखिये -
‘‘साँझ-सुबह के मध्य अवस्थित झील रात की,
भरी हुई है अँधियारे से।
इसी झील के तट पर पेड़ गगन है वट का,
काला बादल चमगादड़-सा उल्टा लटका;
शंख-सीप नक्षत्र रेत में हैं पारे से।’’

गीत संग्रह ‘फागुन के हस्ताक्षर’ में जीवन-जगत की विविधवर्णी भाव-भंगिमाओं को प्राकृतिक छवि-छटाओं के साथ कवि ने सशक्त संवेदनात्मक अभिव्यक्ति दी है। अगहन की ठिठुरन को कवि ने एक दृश्य-बिम्ब के माध्यम से आम आदमी की विवशता को रेखांकित किया है। काव्यांश देखें -

‘‘कोहरे के मोटे परदे के / पार नहीं जाती हैं आँखें,
किन्तु टँगी रह गयीं दृष्टि की / चौखट पर पेड़ों की शाखें ;
समय साँप के काटे जैसा / कैसे कटे रात की दूरी ?’’

इसी तरह एक ध्वनि बिम्ब भी देखिए -
‘‘गीत तुम्हें गा-गा कर हार गये। अनजाने भ्रम की इन लहरों ने / आ-आकर मुझको भरमाया है, पेड़ों की बाँसुरियों ने बजकर / बरबस ही मन को भटकाया है।’’

संग्रह के इन गीतों में आम आदमी की जिन्दगी कहीं मैले बिछौने के समान है या चूल्हे पर चढ़े फूटे भगौने के समान है अथवा भीड़ के बीच चाट कर फैंके गये दोने की तरह है। कहीं शंकाकुल जंगल में जीने की लाचारी है कि हर आँसू बह-बह कर सूख गया है। घी और सिन्दूर से भित्तियों पर जो सपनीले, शुभंकर साँतियें और हल्दी के छापे बनाये गये थे, वे आश्वासन के चमकीले चेहरे भ्रष्टाचारी-आतंकी अँधियारे ने ढाँप लिये हैं। सर्वत्र शातिर सन्नाटे की रौबदार ठकुराइन पसरी दिखायी देती है।

आज जब घिसे-पिटे शब्दों की मारक क्षमता मंथर होती जा रही है तब कविवर श्रीकृष्ण शर्माजी ने नये छन्द, नवीन प्रतीक एवं नूतन बिम्ब योजना के माध्यम से गीत को धारदार बनाया है।
इस संग्रह में कुल छियालीस गीत हैं जिनमें ग्रीष्म, वर्षा एवं शीत के ऋतु चित्र सर्वथा नवीन परिदृश्य प्रस्तुत करते हैं। एक गीतिका एवं एक प्रलम्ब गीत ‘अम्माँ की याद में’ लिखा गया है। इस अभिधात्मक गीत में अनाथ बच्चों का पालन-पोषण करने वाली सर्वहारा माँ की संघर्ष-यात्रा का बड़ा कारुणिक एवं मार्मिक वृत्तान्त है। शेष सभी गीत नवगीतात्मकता से ओत-प्रोत हैं, जिन्हें ‘गीत नवान्तर’ कहना अधिक उचित प्रतीत होता है।

इन गीतों में जो नयापन है उसमें कल्पना लोक के अविश्वसनीय वायवी चित्र नहीं हैं अपितु वर्तमान के यथार्थ का सहज स्वीकार्य एवं विश्वसनीय रेखाकंन है, जो भुक्त भोगियों के अहसास एवं आंचलिक पृष्ठभूमि के अत्यधिक सन्निकट हैं। प्राकृतिक सौन्दर्यानुराग को कवि ने प्राणवंत आंचलिक बोध प्रदान कर सर्वथा नये सन्दर्भों में प्रतिष्ठापित किया है, जो प्रशंसनीय है।
२३.११.२०१५
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गीत- नवगीत संग्रह - फागुन के हस्ताक्षर, रचनाकार- श्रीकृष्ण शर्मा, प्रकाशक- अनुभव प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद। प्रथम संस्करण- २००६, मूल्य- रूपये १००/-, पृष्ठ- ८६, समीक्षा - आचार्य भगवत दुबे।

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

फटे पाँवों में महावर - संजय शुक्ल

जगदीश पंकज 
नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर संजय शुक्ल यों तो पिछले कई वर्षों से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा अनेक समवेत संकलनों में प्रकाशित अपने समीक्षा तथा मौलिक लेखन विशेषतः नवगीतों के द्वारा साहित्यिक परिवेश में स्थान बना चुके हैं। 'फटे पाँवों में महावर' उनका प्रथम नवगीत संग्रह, चाहे देर से ही सही, अनुभव प्रकाशन से प्रकाशित होकर आ चुका है। संजय शुक्ल के नवगीतों से मेरा पहला परिचय श्रद्धेय देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' जी द्वारा सम्पादित समवेत संकलन, 'हरियर धान-रुपहले चावल' के माध्यम से हुआ।

प्रकाशित गीतों में कथ्य और शिल्प की नव्यता ने स्वतः आकर्षित कर लिया तथा मैं परिचय में दिए मोबाइल नम्बर पर सम्पर्क करने से स्वयं को नहीं रोक पाया। प्रत्युत्तर में आयी आवाज ने मुझसे तुरन्त राजेन्द्र नगर, ग़ाज़ियाबाद स्थित 'वरिष्ठायन' में मिलने की इच्छा व्यक्त की। तब तक एक ही कॉलोनी में रहते हुए हमारा परिचय भी नहीं था। मिलने पर एक सहज-सरल व्यक्तित्व से सामना हुआ जो अपने लेखन की तरह ही आडम्बरहीन, विनीत एवं गंभीरता से पूर्ण था। इस परिचय के बाद मिलना होता रहा तथा नवगीत लेखन में उनके अनुभव, अध्ययन और वैचारिकी की जानकारी होती रही और संजय शुक्ल की साहित्यिक प्रतिभा की परतें खुलती रहीं। अनेक मित्रों द्वारा प्रोत्साहन के फलस्वरूप संकोची स्वभाव के संजय अपना यह संग्रह प्रकाशित करने का मन बना पाए जिसकी भूमिका नवगीत के शिखर पुरुष आद. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' जी ने तथा नवगीत दशक-३ के ख्यातिलब्ध नवगीतकार श्री योगेन्द्र दत्त शर्मा द्वारा लिखी गयी है। प्रस्तुत संग्रह में संजय शुक्ल ने अपने अड़सठ गीतों को स्थान दिया है।

'फटे पाँवों में महावर' के गीतों को पढ़ते हुए संजय शुक्ल की विषयगत विविधता का पता चलता है। रचनाएँ दैनिक जीवन से विषय लेकर बड़ी सहजता से नवगीत में ढल गयी लगती हैं जो कवि के सूक्ष्म-प्रेक्षण और घटनाओं के गहन विश्लेषण को दर्शाती हैं। किसी वाद अथवा खेमे से दूर कवि का अनुभवजन्य यथार्थ और सामान्य-जन के प्रति स्वाभाविक प्रतिबद्धता का सत्य, रचनाओं में स्वतः और अनायास अभिव्यक्त हुआ है। समसामयिक परिदृश्य और उस पर अपनी प्रतिक्रिया स्वरूप सर्जना ही संग्रह की केन्द्रीय वैचारिकी है। पारिवारिक रिश्ते, बदलते सामाजिक मूल्य, वैश्वीकरण की संस्कृति, बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद, निम्न और मध्यमवर्गीय व्यक्ति की इस दौर की विवशताएँ, राजनीति और अर्थनीति के जाल में जकड़े सामान्य-जन का कष्टमय जीवन जैसे विषय संग्रह के गीतों में संजय की सरल और सहज संप्रेषणीय शैली में व्यक्त हुए हैं। संग्रह का शीर्षक-गीत भी निर्माण कार्य से जुड़ी मजदूरिन की व्यथा की अभिव्यक्ति है जो श्रमशील रहते हुए और अपने दुःखों को भूलते हुए रुँधे कंठ से मंगल गाकर फटे हुए पाँवों में महावर रच रही है।

संग्रह के गीतों के माध्यम से संजय शुक्ल के रचना-कर्म पर प्रतिक्रिया करते हुए उनके कथ्य-वैविध्य का ध्यान रखना आवश्यक है। यों तो मैंने एक ही नज़र में संग्रह के गीतों को पढ़ लिया था किन्तु प्रतिक्रिया लेखन के लिए अपनी सुविधा के लिए श्रेणीबद्ध करके पुनः पढ़ने का प्रयास किया है। पारिवारिक रिश्तों की उष्णता और भावुक बिंदुओं को व्यक्त करते हुए संजय ने पिता, माता, पत्नी और पुत्री आदि को गीतों का विषय बना कर मानवीय तंतुओं को बुनकर शब्दाङ्कित किया है। संग्रह का प्रथम गीत 'जगती आँखों का सपना' में संयुक्त परिवार की सौहार्दपूर्ण संरचना को बड़ी सुन्दरता से व्यक्त किया है।

'निधि भविष्य की बचा पिता ने
वर्तमान निधिहीन बिताया
किया खंडहर खुद को पहले
तब यह छोटा घर बनवाया
बाँट दिया पूरा का पूरा
माँ ने खुद को पूरे घर में
उठें न आँगन में दीवारें
जीती है निशिदिन इस डर में
महल रहे या रहे मड़ैया
दूर न जाए छुटका भैया
जगती आँखों एक प्रवासी
यह सपना देखा करता है'

'एक नदी इस आँगन में' गीत के केंद्र में जहाँ पत्नी है वहीँ 'साँचे में ढली' में बेटी की बालसुलभ क्रियाओं को वात्सल्य पूर्ण ढंग से चित्रित किया है। 'पिता आपका हाथ' तथा 'अक्षय मिली धरोहर तुम से' गीतों में दिवंगत पिताश्री को याद करते हुए मार्मिक अनुभूतियों के चित्र उकेर दिए हैं। व्यक्तिगत होते हुए भी गीतों की पंक्तियाँ पाठक की संवेदनाओं को छू रही हैं। कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं।

'मेरे संग-संग
एक नदी इस आँगन में
होकर बेआवाज़
निरंतर बहती है!

मेरे सुख-दुःख
सब उसने अपनाये हैं
बिना कहे वह
सब कुछ मुझसे कहती है!

डूबा उतराया मैं
उसकी धारा में
मेरी अंतर्ज्वाला
में वह दहती है!

हर अभाव में भी
चुप-चुप वह जी लेती
सब को सुख देकर
वह खुद दुःख सहती है!'

(एक नदी इस आँगन में)

'फूलों-से हाथों से नन्हीं कली
चोकर से, चून से खेलने चली' (साँचे में ढली)

'अक्षय मिली धरोहर तुम से' गीत में पिता के चले जाने पर पारिवारिक संबंधों को भावुकता को बड़ी ही मार्मिकता से उकेरा है कि एक घटना सगे-सम्बन्धियों के मन-मस्तिष्क को किस प्रकार प्रभावित करती है और सबसे अधिक माँ की मनस्थिति किस तरह हो जाती है।

'पिता! नहीं हो अब तुम घर में
घर भी कहाँ रहा अब घर में
शेष न कुछ अब रहा पूर्व-सा
अंतरंग सब लगे अन्य से

'माँ जो थी कल तक पटरानी
लगती जीती बाजी हारी
देख रहे दो नयन अभागे
'सूखी एक नदी बिनु बारी
झर-झर पंजर होती जाती
असमय दुर्बल काया
टूट रहा कुछ ज्यों अंतर में!'

हर सजग साहित्यकार अपने समय की धड़कन को अपने लेखन में प्रतिक्रिया के तौर पर व्यक्त करता है। संजय शुक्ल ने भी अपने परिवेश के यथार्थ का बहुत ही सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए अपने नवगीतों में चित्रित किया है। आधुनिकता और पश्चिम की अंधी नक़ल, वैश्विकता, बाजारीकरण, उदारीकरण और उपभोक्ता संस्कृति की चकाचौंध ने निम्न तथा मध्यम वर्ग को भागमभाग में डाल दिया है जहाँ वह अनावश्यक प्रतियोगिताओं में घिर गया है। परिस्थितियों के द्वन्द्व में मानवीय चेतना किस प्रकार निर्मित हो रही है, इस तथ्य को संजय ने अपने अनेक गीतों में अभिव्यक्ति दी है। 'कहाँ गया?' गीत में-

'अपनों से सब घिरे हुए हैं
पर अपनापन कहाँ गया?'

वहीँ 'हाथ ही हिलने लगे' गीत में-

'क्या हुआ यह किस तरह अब
आप, हम मिलने लगे
देख कर केवल हवा में
हाथ ही हिलने लगे'

इसी के साथ 'हो रहे कुंठित भगीरथ' में इस समय की पंकिल होती मुख्य धारा को बताते हुए 'टीले हँसते हैं' रचना में आदमी के सस्ते होने की ओर संकेत करते हुए कहते हैं-

'इस बस्ती में सब कुछ महँगा
बन्दे सस्ते हैं!
कंचनजंघा पर रेतीले
टीले हँसते हैं!
होकर हकले, बहरे, अंधे
बन्दे बसते हैं!'

हर व्यक्ति विशेषकर वेतनभोगी कर्मचारी का सपना होता है कि उसका अपना घर हो और इस लालसा में वह प्रॉपर्टी के दलालों के चंगुल में फँस जाता है। संजय ने ऐसे दलालों के हथकंडों का अपने गीत 'वेतन धारी तू चला किधर' में बड़ी कुशलता से वर्णन किया है-

'बैठे फैलाए मोह जाल
ये हैं प्रॉपर्टी के दलाल!
घर क्या, घर के सपने पर ही
चलवा देते हैं ये कुदाल'
.
दूर देश से जीविका के लिए शहरों में आये लोगों के अपने परिवार और उससे जुड़े भावुक अनुभव और सोच मन-मस्तिष्क में जब घुमड़ते हैं तब उस मनःस्थिति में आने वाले विचारों को बड़ी मार्मिकता से कई गीतों में व्यक्त करके संजय परकाया प्रवेश को सजीव कर देते हैं। 'उड़ते मेघों की निष्ठुरता' तथा 'ठीक बरस भर बाद सुखनवा' गीत इसी कथ्य पर आधारित हैं। इसी क्रम में 'भोग चले दो दिन की कारा' गीत में माता-पिता अपने बेटे के घर आकर भी स्वयं को अजनबीपन से घिरा पाते हैं जहाँ बेटे के पास माँ-बाप के लिए समय ही नहीं है।

'मात-पिता को बेटे के घर
आकर पड़ा बहुत पछताना
बैठे गुमसुम रहे 'ट्रेन' में
भोग चले दो दिन की कारा
लौट आये क्यों इतनी जल्दी
गाँव यही पूछेगा सारा
मुट्ठी बंद न पड़े खोलनी
ढूँढ रहे थे उचित बहाना'

जीवन को उसकी स्वाभाविकता में जीने के पक्षधर संजय अपने गीतों में इस तथ्य को पूरी सफलता से उकेरते हैं। 'पीर पयम्बर क्यों बनता है', 'बाहर से संसारी बनिए', ऐसी ही रचनाएँ हैं। महानगरीय जीवन की भागमभाग में जीविका के लिए निकलने वाले व्यक्ति का अनुभव शाम तक कितना थकानमय हो जाता है तथा उस जीवन की रसमयता किस प्रकार प्रभावित हो रही है, इस अनुभूति के कई गीत संग्रह की जान हैं। परिवेश की सच्चाई को सरलता से व्यक्त कर देना संजय की अपनी विशिष्ट शैली है। संग्रह के गीत, 'भीड़ से बचते-बचाते हम', 'चुभती रही सुई','काल करता है ठगी', आलापें विवश -राग','मुनाफे की खटपट' ऐसी ही रचनाएँ हैं।

'भीड़ से बचते बचाते हम
साँझ ढलते लौट आते घर!

रोज घर से निकलते जितना
लौट पाते हैं कहाँ उतना
छूट जाता है स्वतः ही कुछ
छोड़ आते हैं स्वयं कितना

रीढ़ से सधते -सधाते हम
पीठ पर ही शहर लाते धर.

समकालीन राजनीति और राजनेताओं का आम जनता के साथ व्यवहार, लुभावने नारे देना और फिर उनसे मुकर जाना, आम जन का स्वयं को ठगा सा महसूस करना इस दौर का अघोषित सत्य बन गया है। संजय ने अपने गीतों में इस खुरदरे यथार्थ का अनेक स्थानों पर वर्णन किया है। केवल राजनेता ही नहीं बल्कि सत्ता शीर्ष पर बैठे व्यक्तियों का आचरण भी मोहभंग कर रहा है। फिर भी आशावादिता को गीतों में शब्दाङ्कित करते हुए संजय कह रहे हैं-

'आप बिगाड़ रहे मुँह जितना
पानी उतना हुआ न खारा ' (कीच उछाली अपने घर पर)

और फिर कहते हैं-

'पल-पल रंग बदलते युग में
साथी तुम्हें बदलना होगा
नेपथ्यों की ओर मंच से
साथी, तुम्हें खिसकना होगा ' (साथी तुम्हें बदलना होगा)

क्योंकि अभी अग्नि की सब लपटों का रंग लाल नहीं हुआ है। 'ऐसा भी होगा' गीत की पंक्तियाँ कह रहीं हैं-

चकाचौंध सत्ता की आँखें
देख नहीं पातीं अँधियारा
इस अँधियारे से निकलेगा
कभी दहकता सा अंगारा
मलबा बन जाएगा पल में
रत्नजड़ित, स्वर्णिम मुकुटों का'

अपने मन्तव्य को स्पष्ट करते हुए 'घोष क्रांतियों का बन जाता' गीत में कहा-

'धर्म तुला पर आज बंधुवर
हमको तुमको तुलना होगा।
मंतव्यों से वक्तव्यों के
मध्य अनकहा जो रह जाता
होकर एक दिवस वह मुखरित
घोष क्रांतियों का बन जाता
कहना होगा उसे समय पर
उसे समय पर सुनना होगा'

और फिर स्वीकारोक्ति का गीत 'मैं स्वर में गाया जाता हूँ'-

साथ रहा मैं सदा सत्य के
फिर भी झुठलाया जाता हूँ

चुप रहता हूँ पर मुझको
मत समझो गूँगा
दिल की सब बातों का उत्तर
दिल से दूँगा

बाँचो मत तुम मुझे गद्य-सा
मैं स्वर में गाया जाता हूँ'

और आगे जाकर 'सूफियों की गाह' में अपनी चुनी राह पर किसी संशय का निषेध करते हुए संजय शुक्ल कह देते हैं-

'संशय नहीं उस राह पर
जो राह है हमने चुनी
हम भीड़ से कुछ हैं अलग
जिद्दी कहो या फिर धुनी'

संग्रह के गीतों को पढ़ते हुए अपनेपन का अनुभव होना संजय की सर्जना की विशेषता है। प्रस्तुत गीत संग्रह अपनी भाषा, कथ्य और शिल्प की नव्यता तथा सम्प्रेषणीयता के द्वारा संजय शुक्ल के परिपक्व लेखन का सार्थक साक्ष्य है जो पाठक के मन मस्तिष्क को सहलाता हुआ हृदय तक उतर कर मर्म को छू रहा है तथा मानवीय ज्ञानात्मक संवेदना की सफल कलात्मक अभिव्यक्ति का गीतात्मक आलेख बन गया है। आशा है संग्रह विस्तृत साहित्य प्रेमी पाठकों में विमर्श और सराहना प्राप्त करेगा। अपने इस प्रथम संचयन के माध्यम से जिस तरह संजय शुक्ल ने उपस्थिति दर्ज की है वह उनसे भावी उत्कृष्ट लेखन के लिए आश्वस्त करता है। संग्रह हर तरह से पठनीय, उद्धरणीय और संग्रहणीय है।
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गीत- नवगीत संग्रह - फटे पाँवों में महावर, रचनाकार- संजय शुक्ल, प्रकाशक- अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद । प्रथम संस्करण- २०१६, मूल्य- पेपर बैक १८० एवं सजिल्द- २५०  रुपये, पृष्ठ-१०४, समीक्षा- जगदीश पंकज।

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

सभाध्यक्ष हँस रहा है- सत्यनारायण

डॉ. राजेन्द्र गौतम
’सभाध्यक्ष हँस रहा है‘ की कविताएँ तीन खंडों में विभाजित हैं। ये खंड हैं- ’जलतरंग आठ पहर का !‘, ’जंगल मुंतजिर है‘ तथा ’लोकतंत्र में‘, जिसमें क्रमशः चवालिस गीत, उन्नीस छंद-मुक्त कविताएँ तथा छः नुक्कड़ कविताएँ संग्रहीत हैं।
नवगीत अपने समय के मनुष्य के साथ छाया की तरह लगा रह कर भी अँधेरे में भी उसका साथ नहीं छोड़ रहा है। खेत में खटता किसान, कल-कारखानों का मजदूर, भेद-संहिता की शिकार नारी, स्नेहवंचित शैशव और ऐसे ही और-और संदर्भ अंततः एक समूह के पर्याय हो जाते हैं। जिनका एकमात्र सार्थक नाम है-’जन‘। इस ’जन‘ के सारे सपने, सारी आकांक्षाएँ और सारे सुख जिसके पास गिरवी हैं, उसके भले से नाम हैं ’व्यवस्था‘ और ’सत्ता‘ की निरंकुशता की कहानी ही अधिक कहते हैं।
क्योंकि आज पूरी शोषण-प्रक्रिया भी जटिल और परोक्ष हो गई है, इसलिए कवि का, विसंगतियों पर प्रहार उपहासपरक अधिक है, सपाट नारेबाजी उसका अंदाज-बयाँ नहीं है बल्कि इनका स्वर कुछ ऐसा है;

सुनो कबीर कहत है साधो !
हम माटी के खेल खिलौने
बिकते आए औने-पौने
हम ठहरे भोले भंडारी
खूँटे से बाँधो या नाधो !...
यह बहुत साफ है कि आज हम एक अंधी दौड़ में हैं। सपनों का एक तिलिस्म समय ने हम सबके हाथ में पकड़ा दिया है। जीवन के सारे सत्यों का निर्धारण विज्ञापन के अपुष्ट तथ्यों से हो रहा है। यह रंगीन समय लगता है, हमारे सारे सुकून के पलों को छीन ले जाएगा। भविष्य यदि संकटग्रस्त होता है तो मनुष्यता के लिए यह सबसे अधिक चिंता की बात होती है। हमारा भविष्य ’बचपन‘ में प्रतीकित होता है। सत्यनारायण आने वाले समय की भयावहता को रेखांकित करते हुए अपनी नन्हीं पोती ’एका‘ को सम्बोधित करते हुए सम्पूर्ण शैशव की मनुष्यत्व के भविष्य की संकटग्रस्तता को इस प्रकार रेखांकित करते हैं:
एका, आनेवाला है कल समय कठिन !
दांत समय के होंगे ज्यादा ही पैने
बिखरे होंगे तोते मैनों के डैने
नहीं रहेंगे कथा-कहानी वाले दिन !
सत्यनारायण ने अपने समय की विसंगतियों को ’बोधगया‘ ’पाटलिपुत्र‘ ’वैशाली‘ तथा ’अयोध्या‘ जैसी रचनाओं में नये मिथक गढ़ कर व्यक्त किया हैं। एक समय निराला ने साधारण जन से नामों को उठाकर उन्हें कविता में मिथक के रूप में असाधारणीकृत किया था, जिस शैली को आगे चलकर रघुवीर सहाय ने भी अपनाया था ! श्रीकान्त वर्मा के ’मगध‘ के साथ इतिहास के मिथकीरण की शैली एक नये रूप में हमारे सामने आती है परन्तु सत्यनारायण ने इतिहास और संस्कृति के इन केन्द्रों को जिस रूप में अर्थवत्ता दी है, वह अद्भुत है। उनकी निजता उनकी व्यंग्यात्मकता में है। वर्तमान में मूल्यों का विपर्याय सत्ता केन्द्रों के साथ जुड़ी अवधारणाओं की सम्पूर्ण मूल्यवत्ता को खंडित कर देता है। उसी विसंगत और विद्रूप का रेखांकन कब से वैशाली‘ की मार्मिक व्यंजना हो या नहीं पाटलिपुत्र नहीं हम केवल ’कुम्हरार‘ की जन-संवेदना हो, अथवा ’बोधगया में अब उलटी आ रही हवाएँ की विडम्बना हो कवि के पास भाषा की वह ऊर्जा है जो कथ्य हो रागदीप्त करती है। सफल मिथक वर्तमान से जुड़ कर सार्थक होता है। निम्न पंक्तियाँ ऐसी सफलता का मानक कही जा सकती हैं:
गणाध्यक्ष गणतंत्र, सभासद
सबके मेले हैं वैशाली में
साथ तथागत अब तो लगता है
नगरवधू होकर जीने को विवश आम्रपाली !

किसी कवि की मूल चिंताएँ उसकी कविताओं में आवर्त्ती बिम्बों में व्यक्त हुआ करती हैं। सत्यनारायण ने इस संग्रह में आधा-दर्जन कविताएँ बच्चों को लेकर, उनके भविष्य को लेकर संकलित की हैं। बच्चों की संत्रणा को चित्रित करने वाली ये कविताएँ संवेदना के धरातल पर उन सूचीबद्ध कविताओं से अलग हैं, जो नौंवे दशक में चिड़िया पर आठ कविताएँ, लड़की पर दस कविताएँ और पेड़ पर बारह कविताएँ जैसे शीर्षकों से फैशन के रूप में लिखी गई थीं। दरअसल, फैशन से नहीं, पैशन से प्रभावपूर्ण बनती हैं। बच्चों से सम्बन्धित पैशेनेट् कविता-अंश देखा जा सकता है। 
बच्चे-अक्सर चुप रहते हैं !
कौन चुरा कर ले जाता है
इनके होंठों की फुलझड़ियाँ
बिखरी-बिखरी-सी लगती क्यों
मानिक-मोती की ये लड़ियों
इनकी डरी-डरी आँखों में
किन दहशतों के नाम पते हैं ?

सत्यनारायण के पास गीत रचने की जितनी तरल संवेदनात्मक हार्दिकता है, मुक्त छंद में बौद्धिक प्रखरता से सम्पन्न उतनी दीप्त और वैचारिक भी है। एक विवश छटपटाहट उनकी कविताओं में विशेषतः उपलब्ध होती है, जिसका मूल कारण आम आदमी की यंत्रणा के सिलसिले का टूट न पाना है। ’जंगल मुंतजिर है‘ की उन्नीस कविताएँ कवि के एक दूसरे सशक्त पक्ष का उद्घाटन करती हैं। शब्द की सही शक्ति का अन्वेषण ये कविताएँ एक व्यापक फलक का उद्घाटन करती है।

कवि यह भी मानता है कि ’अकेला‘ शब्द निहत्था होता है। उसके हाथ में और शब्दों के हाथ दे दो... वह हर मौसम में खड़ा रहेगा तनकर।‘ ’माँ की याद‘ और ’बाबूजी‘ यदि नये समय की परिवारों पर पड़ती चोट को व्यक्त करती कविताएँ हैं तो ’यक्ष-प्रश्न‘ फिर पौराणिकता में लौट कर नये सवालों को हल करने का प्रयास है। कवि को सबसे अधिक कष्ट यथा स्थितिवाद से है। इसीलिए वह सवाल करता है:

आखिर कब तक यों ही चलेगा
और तुम लगातार बर्दाश्त
करते रहोगे ?
मत भूलो,
खेत में खड़ी बेजुबान फसल की तरह
वह तुम हो
जिसे बार-बार मौसम का पाला मार जाता है।


पाठक और श्रोता तक पहुँचने के लिए कविता आज अँधेरे में कुछ टटोलते व्यक्ति का बिम्ब नजर आती है। न धूमिल का अक्षरों के बीच गिरा आदमी आज कविता के साथ जुड़ा है और न कोई मोचीराम उस तक पहुँच पा रहा है। कविता से समाज की इतनी अजनबीयत है शायद ही किसी दौर में रही हो। आश्चर्य तो यह देखकर होता है कि कविता के युग-नायक अपनी गजदंती मीनारों की ऊँचाइयों में बैठ यह देख नहीं रहे हैं कि उन्हें पढ़ा भी जा रहा या नहीं। सत्यनारायण ने तीन दशक पहले ही इस खम्बे से टकराकर जो रास्ता निकाला था, वह आम आदमी के कविता से जुड़ने का सही मार्ग है। उनकी नुक्कड़ कविताएँ जे.पी. आंदोलन में यदि लाखों की भीड़ में सुनीं, समझी और सराही जा सकती थीं, तो इससे बड़ कर कविता की सम्प्रेषणीयता क्या हो सकती है ! ’सभाध्यक्ष हँस रहा है‘ के लोकतंत्र खंड की रचनाओं की यही सबसे बड़ी शक्ति और सार्थकता है। विदूषक परिवेश में भाषा का यह रूप ही सत्य को अनावृत्त कर पाता है।

राजा रहे सलामत, परजा
झुक-झुक दुआ करे !
पाँच बरस पर राजा जाए
परजा के घर-द्वार
गद्गद् परजा किया करे
राजा की जय-जयकार

यह संग्रह समय की भयावहता और अँधेरों को चिन्हित तो करता है पर यह निराशा की कविता नहीं है। जब कविता इतने-इतने रंगों में जीवित है; पसीने से लथपथ होकर भी आम आदमी के पास खड़ी है, संस्कृति का नया अध्याय रच रही है, तब हम यह नहीं कह सकते कि सब कुछ नष्ट हो गया है, हमारे हाथों में कुछ बचाया नहीं हैं। जिस युग में कवि के भीतर हँसते सभाध्यक्ष पर व्यंग्य के कोड़े बरसाने का साहस जिंदा है, उस युग से निराश नहीं हुआ जा सकता !
सत्यनारायण की पाठक से गुपचुप संवाद करती ये कविताएँ हमारे पास यही संकेत छोड़ती हैं।
४.११.२०१३ 
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गीत- नवगीत संग्रह - सभाध्यक्ष हँस रहा है, रचनाकार- सत्यनारायण, प्रकाशक- अभिरुचि प्रकाशन, ३/१४ कर्ण गली, विश्वास नगर, शाहदरा, दिल्ली, प्रथम संस्करण- २०१२, मूल्य- रूपये १२०/-, पृष्ठ- १००, समीक्षा लेखक- डॉ. राजेन्द्र गौतम