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गुरुवार, 16 अगस्त 2018

ॐ दोहा शतक मनोज कुमार शुक्ल

ॐ 
मन विश्वास जगाइए  
दोहा संकलन
























मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’

जन्म: १६  अगस्त १९५१ जबलपुर, मध्य प्रदेश। 
आत्मज:  स्व. नर्मदा देवी-स्व. रामनाथ शुक्ल ‘श्री नाथ’ 
जीवन संगिनी: श्रीमती ममता शुक्ला। 
शिक्षा:  एम.काम.
लेखन विधा: कविता, कहानी, निबंध, व्यंग्य आदि
प्रकाशन: कहानी संग्रह- क्रांति समर्पण, एक पाव की जिंदगी, काव्य संग्रह- संवेदनाओं के स्वर, याद तुम्हें मैं आऊॅंगा
संप्रति:  सेवा निवृत सहायक प्रबंधक विजया बैंक 
उपलब्धि: अनेक संस्थाओं से सम्मान व अलंकरण।दूरदर्शन एवं आकाशवाणी से प्रकाशन।  
विशेष: टोरंटो कनाडा में सम्मानित तथा हिंदी प्रचार-प्रसार हेतु समर्पित।  
संपर्क: आशीष दीप, ५८ उत्तर मिलौनीगंज, जबलपुर ४८२००२ मध्य प्रदेश   
चलभाष: ९४२५८६२५५० 
ई मेल: mkshukla४८@gmail.com
*
हिंदी साहित्य सृजन की विरासत को मन-प्राण से सम्हालकर अपने यशस्वी पिता स्व. रामनाथ शुक्ल ‘श्री नाथ’ के रचनाकर्म को प्रकाश में लाने के पश्चात आप भी हिंदी साहित्य संवर्धन के प्रति समर्पित रहनेवाले मनोज शुक्ल 'मनोज' मूलत: कहानीकार हैं। कहानी तथा कविता के पश्चात दोहा से जुड़ाव का सुपरिणाम यह कि वे विविध प्रसंगों पर दोहा-कथा रच रहे हैं। यह प्रयोग बाल-शिक्षा हेतु उपयोगी हो सकता है। मनोज जी सृष्टि के रंगमंच पर श्वेत-श्याम का समायोजन देखते हैं- 
रंगमंच सा लग रहा, दुनिया का यह मंच।
कुछ करते हैं साधना, कुछ खल रचें प्रपंच।।
शीम्द्भाग्वाद्गीता का कर्म सन्देश 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' को आत्मसात कर मनोज जी कर्मठ को ही उन्नति का मूल मानते हैं- 
कर्मठता इंसान को, करे शिखर-आसीन।
जीवन की खुशियाँ सभी, मिलें न बनिए दीन।।
ग्राम्यांचलों में चल रही परिवर्तन की हवा को देखकर बूढ़ी होती होती पीढ़ी की हैरानी को बरगद के माध्यम से मनोज जी ने बखूबी व्यक्त किया है-
बूढ़ा बरगद देखता, चौपालों की शाम।
कैसी हवा बदल रही, जीना हुआ हराम।।
इस काल में धन के प्रति बढ़ते अंध मोह ने आम जन स एलेकर नेता, धनपतियों और अधिकारीयों तक को ग्रास लिया है। दोहाकार धन को निस्सार नहीं मानता किन्तु वह धन को सब कुछ भी नहीं स्वीकारता, उसके अनुसार धन और विद्या-विवेक साथ हों तभी मंगलदायी होते हैं-
होती लक्ष्मी चंचला, उसका कहीं न ठौर।
सरस्वती को साथ रख, सदा रहेगी भोर।।
शुभाशुभ के संयोग से बनी प्रकृति में भले-बुरे हमेशा हे रहे हैं। मनुष्य को स्वविवेक से सही-गलत की पहचान कर जीवन जीना होगा-
हर कोई ढोंगी नहीं, सब न करें प्रतिघात। 
मन विश्वास जगाइए, तभी कटेगी रात।।
मनोज जी दोहे मनरंजन नहीं, जीवन-मूल्यों के प्रति चिंतनकर विचार के मोती लेने-देने के उद्देश्य से लिखते हैं। उनके दोनों में व्यन्जनात्मकता या लक्षणात्मकता पर अमिधात्मकता को वरीयता सहज दृष्टव्य है। मनोज की सार्थक और सकारत्मक लेखन के आग्रही हैं। उनका उद्देश्य नई पीढ़ी का दिशा-दर्शन है। दोहा उनके लिए इस उद्देश्य पूर्ति का उपकरण है।  
*
आदिशक्ति दुर्गा बनी, जग की तारण हार।
जिनके तेज प्रताप से, संकट भगे हजार।। 

मन चंचल होता बहुत, पाखी सा उड़ दूर।
वश में जिसने कर लिया, हँसता वही हुजूर।।

रंगमंच सा लग रहा, दुनिया का यह मंच।
कुछ करते हैं साधना, कुछ खल रचें प्रपंच।। 

नाते- रिश्ते झगड़ते, पहुँचाते संताप।
आस कभी मत पालिये, सपने में भी आप।।

पाला-पोसा चल दिये, जिगर तोड़कर लाल।
आशाओं को लूटकर, बना गये कंगाल।।

लोभ-जाल में जब फँसे, मछली होती मौत।
मोह-जाल में फँस मनुज, पालें अपनी सौत।।

बचपन गुजरा खेल में, गई जवानी झूम।
खड़ा बुढ़ापा मोड़ पर, मौत ले रही चूम।।

उम्र फिसलती जा रही, ज्यों मुट्ठी से रेत।
झट तन यह चुक जाएगा, हो जायेगा खेत।।   

जब सुख की बरसात का, दिखे हो रहा अंत।
दुख को अंगीकार कर, बन जाओ तब संत।। 

कुछ खाएँ पूँजी सकल, फिर कहते हे राम।
कुछ माथे पर लिख रहे, कर्म करो अविराम।।

विमुख रहे जो कर्म से, सदा भोगते कष्ट।
कर्म किया जिसने सदा, वही रहे संतुष्ट।।

साहस कर आगे बढ़ो, चखते सुफल अनेक।
राह किनारे बैठकर, कौन बना है नेक।।

पास रहा जो खो गया, चिंता है बेकार।
शेष बचा जो सामने, उसकी करो सँभार।।  

कर्मठता श्रम- लगन में, छिपा हुआ है राज। 
इस पथ पर जो भी चला, बनते बिगड़े काज।।

बढ़ना है संसार में, चलो उठाकर माथ।
सारी दुनियाँ आपको, लेगी हाथों-हाथ।।

कर्मठता इंसान को, करे शिखर-आसीन।
जीवन की खुशियाँ सभी, मिलें न बनिए दीन।।

विपदाओं के सामने, कभी न मानें हार।
श्रम जीवन की संपदा, पहनाए मणिहार।।  

बिना कर्म के व्यर्थ है, इस जग में इंसान।
गीता की वाणी कहे, कर्म बने पहचान।। 

प्रभु की दया असीम है, जो चाहें लें आप।
काम करें निष्काम यदि, मिट जाए सब पाप।।

अपने अंदर झाँकिये, बसे मिलेंगे राम। 
मन-मंदिर में बालिए, दीपक उम्र तमाम।।

महल संपदा जोड़कर, व्यर्थ अकड़ते आज। 
जब भी  किस्मत रूठती, छिन जाते हैं ताज।।

जीवन में जब क्रोध के, उठने लगें गुबार।
समझो तब फिर हो रहे, कष्टों के दीदार।।  

कितने कंटक राह में, बिछे पड़े हैं आज।
कौन बुहारेगा उसे, गूँज रही आवाज।।

मन संवेदनशील हो, तो होता कल्यान। 
शांति बसे उर में सदा, दूर रहे अभिमान।।

दुर्गम पथ जब भी लगे, जीवन हो दुश्वार। 
प्रभु से लगन लगाइए, सभी  हटेंगे भार।।

जीवन की इस डोर को, थामे रखना नाथ।
चटक कहीं यदि टूटती, होते तभी अनाथ।। 

जीवन के हर मोड़ पर, चलना सरल न काम।
मंजिल पाने के लिये, चलते चल अविराम।।

जीवन में जब दुखों का, लग जाए अंबार।
निर्धन कुटिया-झाँकना, कम होंगे भंडार।।

मन के रोगी बहुत हैं, तन के कम हैं रोग।
मन को ही यदि साध लें, दुखी न होंगे लोग।।

शर्मिंदा होना पड़े, ऐसा करें न काम ।
मन को निर्मल ही रखें, सदा बढ़े अविराम।।  
*
नारी को अबला समझ, करें नहीं नर भूल।
वह सबला चुन शूल अब, बिछा रहि है फूल।।
नारी नर की खान है, नर नारी का मान।
जब मिलते तब जन्म लें, हर युग में भगवान।।  
विश्व शांति का पक्षधर, मानवता की शान।
आदि काल से है यही, भारत की पहिचान।।
वेद और उपनिषद में, विश्व शांति संदेश।
ज्ञान योग विज्ञान में, पारंगत यह देश।।
अवतारों की भूमि है, ऋषियों का यशगान।
भारतवासी साथ मिल, गाते मंगल गान।।
सिया-राम, राधा-किशन, हनुमत; गौतम बुद्ध। 
महावीर, नानक कहें, रखो आचरण शुद्ध
पवन मेघ गिरि वृक्ष जल, ईश्वर के उपहार।
धरा-प्रकृति-आराधना, भारत के त्यौहार।।  
सदियों से भारत रहा, बहु पंथों का देश।
गंग-जमुन सम मिल रहे, किया न किंचित क्लेश।।
हर संस्कृति पलती यहाँ, पाती है सम्मान।
आपस में मिलकर रहे, यही सही पहचान।।
मंत्र हमारा एक है, शांति शांति औ शांति।
कभी नहीं छा रहे, जग में कहीं अशांति।।
शुभ कार्यों में हम सदा, पढ़ते जग-हित मंत्र।
आव्हान सुख-शांति का, पूजन करते यंत्र।।
आजादी के बाद से, हुआ समुन्नत देश।

राष्ट्र संघ में छा रहा, भारत का गणवेश।। 
रानी दुर्गावती यश-कथा  
रानी दुर्गावती का, अमर नाम-इतिहास।
वीर पराक्रम शौर्य की, अमर दुंदुभी खास।।
पंद्रह सौ चौबीस में, कीर्ति पिता की शान।
दुर्गाष्टमी के पर्व पर, कन्या हुई महान।।
माँ दुर्गा का रूप थी, दुर्गावती सुनाम।
मात-पिता हर्षित हुए, माँ को किया प्रणाम।।
राजमहल में खेलकर, तरकश तीर कमान।
बच्ची बढ़ युवती हुई, सभी गुणों की खान।।
सुतवधु नृप संग्राम की, दलपत की थी जान।
चंदेलों की लाड़ली, गौंड़वंश की शान।।
दलपतशाह-निधन हुआ, थमी शासन-डोर।
सिंहासन पर बैठकर, पाई कीर्ति-अँजोर।।
किया सुशासन अभय हो, फैली कीर्ति जहान।
नन्हें वीर नारायण, में बस्ती थी जान।।   
शासन सोलह वर्ष का, रहा प्रजा में हर्ष।
जनगण का सहयोग ले, किया राज्य-उत्कर्ष।।
ताल तलैया बावली, खूब किये निर्माण।
सुखी प्रजा सारी रही, पा विपदा से त्राण।।
सोने की मुद्राओं से, भरा रहा भंडार।
योद्धाओं की चौकसी, अरि पर सतत प्रहार।।
हुए आक्रमण शत्रु के, विफल किये हर बार।
रणकौशल में सिद्धहस्त, थी सेना-सरदार।।
थे दीवान धार सिंह, हाथी सरमन साथ।
दुश्मन पर जब टूटते, शत्रु पीटते माथ।।
बाजबहादुर को हरा, किया नेस्तनाबूत।
बुरी नजर जिनकी रही, गाड़ दिया ताबूत।।  
अकबर को यश खल गया, करी फौज तैयार।
आसफखाँ सेना बढ़ा, आ धमका इस बार।।
समरांगण में आ गईं, हाथी पर आरूढ़।
रौद्ररूप को देखकर, भाग रहे अरि मूढ़।।
अबला को निर्बल समझ, आए थे शैतान।
वीर सिंहनी भिड़ गयी, धूल मिलाई शान।।
वीरों का था आचरण, डटी रही दिन रात।
भारी सेना थी उधर, फिर भी दे दी मात।।  
चौबिस जून घड़ी बुरी, आया असमय पूर। 
अरि-सेना नाला नरइ, घिर रानी मजबूर।।
तीर आँख में आ घुसा, तुरत निकाला खींच।
मुगल-सैन्य के खून से, दिया धरा को सींच।।
बैरन तोपें गरजतीं, दुश्मन-सैन्य अपार।
मुट्ठी भर सेना न पर, शत्रु पा सका पार।।
अडिग रही वीरांगना, अंत सामने जान।
शत्रु-सैन्य से घिर गई,किया आत्म-बलिदान।।  
गरज सिंहनी ने तभी, मारी आप कटार।
मातृभूमि पर जान दे, सुरपुर गई सिधार।। 
*
नन्हीं चिड़िया  
मैं कुर्सी पर बैठकर, देख रहा परिदृश्य।
मन संवेदित हो गया, मुझे भा गया दृश्य।।

नन्हीं चिड़िया डोलती, शयन कक्ष में रोज।
चीं-चीं करती घूमती, कुछ करती थी खोज।।

चीं-चीं कर चूजे उन्हें,  नित देते संदेश।
मम्मी-पापा कुछ करो, क्यों सहते हो क्लेश।।

नीड़ बना था डाल पर, जहाँ न पत्ते फूल।
झुलसाती गर्मी रही, जैसे तीक्ष्ण त्रिशूल।।

वातायन से झाँककर, देखा कमरा कूल।
ठंडक उसको भा गयी, हल खोजा अनुकूल।।

कूलर से खस ले उड़ी, वह नन्हीं सी जान।
तेज तपन से थी विकल, वह अतिशय हैरान।।

पहुँच डाल उसने बुना, खस-तृण युक्त मकान।
ग्रीष्म ऋतु में मिल गया, लू से उसे निदान।।

सब में यह संवेदना, प्रभु ने भरी अथाह।
बोली भाषा अलग पर, सुख की सबको चाह।।

कौन कष्ट कब चाहता, जग में जीव जहान।

सुविधायें सब चाहते, पशु- पक्षी इन्सान।।  
*
बूढ़ा बरगद देखता, चौपालों की शाम।
कैसी हवा बदल रही, जीना हुआ हराम।।

घर-घर में छा रहा है, क्षुद्र स्वार्थ का रोग।
विपदा में हैं वृद्ध जन, माँगे मिले न भोग।।

जीवन भर रिश्ते गढ़े, कुछ न आ रहे काम।
अपने ही मुँह फेरकर, हुए अचानक वाम।।

धीरे से दिल ने कहा, चल खोजें अब ठौर।
अपना घर अब है नहीं, यही हवा का दौर।। 

माला गूँथी  प्रेम की, सभी रहेंगे साथ।
सूखी रोटी देखकर, सबने खींचे हाथ।।

आज समझ में आ गया, नहीं किया अहसान।
अपनों की खातिर जिये, तब हम थे नादान।।

समाचार के पृष्ठ पर, आँखें करती खोज। 
कौन हमारा चल दिया, पढ़ें यही अब रोज।। 

हर कोई ढोंगी नहीं, सब न करें प्रतिघात। 
मन विश्वास जगाइए, तभी कटेगी रात।।

लोग न चाहें आपको, मिलने से हों दूर।
मन-झाँकें; देखें कमी, हो मुखड़े पर नूर।।

मन चंचल होता बहुत, पाखी सा उड़ दूर।
वश में जिसने कर लिया, हँसता वही हुजूर।। 

सदा बड़ों को चाहिए, छोटों को दें प्यार।
छोटों को भी चाहिए, सदा करें मनुहार।।

अज्ञानी सिर पीटता, हो जाता लाचार।
ज्ञानी अपने ज्ञान से, लाता नये विचार।।  

शहनाई की गूँज संग, डोली आती  द्वार।
साजन संग अठखेलियाँ, आँगन मिले दुलार।।

बाबुल का घर छोड़कर, जब आती ससुराल।
वधु अपनापन ढूॅँढ़ती, घर-आँगन खुशहाल।।  

पाखंडी धरने लगेे, साधु संत का रूप।
धर्म ज्ञान वैराग्य को, करने लगे कुरूप।।

भोले-भाले भक्त जन, करते हैं विश्वास।
उनकी श्रृद्धा भक्ति का, करें कुटिल उपहास।। 

आडंबर फैला रखा, धन पर रखते ध्यान। 
अधिक दान यदि दे सके, तब लेते संज्ञान।।

बाह्य रंग को देखकर, फँस जाते यजमान।
पाप-पुण्य के फेर में, बस इनका कल्यान।।

धर्म मर्म से विमुख हैं, तिलक लगाते माथ।
तृप्ति बोध से दूर हो, नित खुजलाते हाथ।।

चमचों की जयकार से, खुश होते श्रीमान।
दया धर्म आता नहीं, मन में है अभिमान।।

मिथ्या ज्ञान बघारते, करें न कुछ उपकार।
नारी को ही ज्ञान दें, पुरूषों को फटकार।।

दूजों कोेे उपदेश दें, धर्म-कर्म के नाम।
खुद के जीवन में सदा, करते उल्टे काम।।

शिक्षित होंगे यदि सभी, नहीं फँसेंगे लोग।
बुद्धिमान ही जगत में, पायें मोहन भोग।।

वेद उपनिषद् में भरा, बृहद् ज्ञान भंडार। 
जिसने इसको है पढ़ा,जीवन उसका पार।। 

समझदार के पास ही, धन का है उपयोग।
अज्ञानी के हाथों से, मिट जाते सब योग।।

होती लक्ष्मी चंचला, उसका कहीं न ठौर।
सरस्वती को साथ रख, सदा रहेगी भोर।।  

जहाँ प्रकृति सौंदर्य हैं, वहीं बसें  भगवान।
अनुपम छवि को देखकर, नत मस्तक इंसान।। 




कविता संग की दोस्ती, थामा उसका हाथ।
मुझसे जब-जब रूठती, तब-तब हुआ अनाथ।।

प्रश्न करे जग बावरा, लिखता जो दिन रात ।
कौन पढ़ेगा यह सभी, तेरे दिल की बात ।।

कुछ अपनेे ही कोसते, देख मेरा यह काज।
प्रतिपल समय गवाँ रहा, आती है ना लाज।।

तन की ताकत के लिये, पौष्टिक हैं आहार ।
मन की शक्ती के लिये, जीवन में सुविचार ।।

कविता कभी न चाहती, मानवता पर घात ।
जिसमें जग का हित रहे, उसे सुहाती बात ।।

मिटे विषमता देश की, अरू मानव मन भेद ।
प्रगति राह में सब बढ़ें, व्यर्थ बहे न श्वेद ।।

जगे हृदय संवेदना, या बदले परिवेश ।
यही सोच कर लिख रहा, शायद बदले देश ।।8


छल प्रपंच की आड़ ले..............
करुणा जागृत कीजिये, निज मन में श्री मान ।
अहंकार की विरक्ति से, जग होता कल्यान ।।

दूर छिटकने जब लगें, सारे अपने लोग ।
तब समझो है लग गया, अहंकार का रोग ।।

मन ग्लानि से भर उठे, अपने छोड़ें साथ ।
काम न ऐसा कीजिये, झुक जायेे यह माथ।।

मन अशांत हो जाय जब, मत घबरायें आप ।
विचलित कभी न होइयेे, करंे शांति का जाप ।।

गिर कर उठते जो सदा, करते ना परवाह ।
पथ दुरूह फिर भी चलें, मिलती उनको राह ।।

कष्टों में जीवन जिया, मानी कभी न हार ।
सफल वही होते सदा, जीत मिले उपहार ।।

भूत सदा इतिहास है, वर्तमान ही सत्य ।
कौन भविष्यत जानता, काल चक्र का नृत्य ।।

छल प्रपंच की आड़ ले, बना लिया जो गेह ।
पंछी यह उड़ जाएगा, पड़ी रहेगी देह ।।8

समय चक्र के सामने.....................
बच्चे हर माँ बाप को, लगें गले का हार।।
समय चक्र के सामने, फिर होते लाचार।।

समय अगर प्रतिकूल हो, मात-पिता हों साथ।
बिगड़े कार्य सभी बनें, कभी न छोड़ें हाथ।।

जीवन का यह सत्य है, ना जाता कुछ साथ।
आना जाना है लगा, इक दिन सभी अनाथ।।

मन में होता दुख बहुत, दिल रोता दिन रात ।
आँखों का जल सूखकर, दे जाता  आघात ।।

जीवन का दर्शन यही, हँसी खुशी संग साथ ।
जब तक हैं संसार में, जियो उठाकर माथ ।।

तन पत्ता सा कँापता, जर्जर हुआ शरीर ।
धन दौलत किस काम की, वय की मिटें लकीर ।।

जीवन भर जोड़ा बहुत, जिनके खातिर आज ।
वही खड़े मुँह फेर कर, हैं फिर भी नाराज ।।

छोटे हो छोटे रहो, रखो बड़ों का मान ।
बड़े तभी तो आपको, उचित करें सम्मान ।।

दिल को रखें सहेज कर, धड़कन तन की जान ।
अगर कहीं यह थम गयी, तब जीवन बेजान।।

परदुख में कातर बनो, सुख बाँटो कुछ अंश।
प्रेम डगर में तुम चलो, हे मानव के वंश ।।

सास-ससुर,माता-पिता................
बहू अगर बेटी बने, सब रहते खुशहाल ।
दीवारें खिचतीं नहींे, हिलमिल गुजरें साल ।।

सास अगर माता बने, बढ़ जाता है मान ।
जीवन भर सुख शांति से, घर की बढ़ती शान ।।

सास बहू के प्रेम में, छिपा अनोखा का राज ।
रिद्धि सिद्धि समृद्धि का, रहता सिर पर  ताज ।।

खुले दिलों से सब मिलें, ना कोई खट्टास ।
वातायन जब खुला हो, सुख शान्ति का वास।।

रिश्तों का यह मेल ही, खुशियों की बरसात ।
दूर हटें संकट सभी, सुख की बिछे बिसात।।

सास-ससुर, माता-पिता, दोनों एक समान ।
कोई भी अन्तर नहीं, कहते वेद पुरान ।।8

रिश्तों में  खट्टास का.....
रिश्तों में खट्टास का, बढ़ता जाता रोग ।
समय अगर बदला नहीं, तो रोएँगे लोग ।।

लोभ मोह में लिप्त हैं, आज सभी इंसान ।
ऊपर बैठा देखता, समदर्शी भगवान ।।

अगला पिछला सब यहीं, करना है भुगतान ।
पुनर्जन्म तक शेष ना, कभी रहेगा जान ।।

जीवन का यह सत्य है, ग्रंथों का है सार ।
जो बोया तुमने सदा, वही काटना यार ।।

संस्कृति कहती है सदा, यह मोती की माल ।
गुथी हुयी उस डोर से,  टूटे ना हर हाल ।।

रिश्तों में बंधकर रहें, हँसी खुशी के साथ ।
बरगद सी छाया मिले, सिर पर होवे हाथ ।।

रिश्ते नाते हैं सदा, खुशियों के भंडार ।
सदियों से हैं रच रहे, उत्सव के संसार  ।।7


पाखंडी धरने लगेे ...........
शिक्षा सबको है मिले, ज्ञान बढ़े दिन रात।
शिक्षित मानव ही सदा, तम को देंवंे मात।।11


प्रिये आपकी बात को, सुनता हूँ  ...
प्रिये आपकी बात को, सुनता हूँ दिन रात ।
नहीं सुनी तुमने कभी, मेरे दिल की बात ।।
भावुक मेरा यह हृदय,क्या लिखता दिन रात।
कभी नहीं तुमने कहा, मुझे सुनाओ तात।। 
ऐसे ही जीवन गया, कैसा है संगात।
मेरे भावों से रहीं, तुम बिल्कुल अज्ञात।।
कविता के आकाश में, जब भी भरूँ उड़ान ।
सारी हवा निकाल कर, बन जातीं नादान ।।
कविता मेरे दिल बसी, मिला नेक संसार।
पाकर उसको खुश हुये, यह जीवन आधार ।।
हर पल रहती साथ में, दिन हो चाहे रात ।
प्रियतम जैसी है वही, समझे हर जज्बात।।
हर कवि की पीड़ा यही,स्वजनों में न खास।
दूजांे के दिल में बसें, पत्नी रहे उदास।।
कवि की यह अंतरव्यथा, चाहे तुलसी दास ।
रखा नाम रत्नावली, जग जाहिर इतिहास ।। 
पत्नी की झिड़की सुनी, छोड़ गये घर द्वार।
कविता के संग में रहे, दिया विश्व उपहार।।
राम चरित मानस लिखा, अदभुत् सौंपा ग्रंथ ।
जन मानस में छा गये, दिखा गये नव पंथ ।।
पति पत्नी का धर्म है, यदि कविता हो साथ।
सहर्ष उसे स्वीकारिये, ऊँचा होगा माथ।। 
कविता के बल पर कवि, जग में हुये महान ।
युग अभिनंदन कर रहा, लोग करे गुणगान।।12


कलियुग में धन ही सदा.............
कलियुग में धन ही सदा, आता सब के काम।
सदियों से हर आदमी, इसका रहा गुलाम।।

धन ही सबकी चाह है, सदा रहा सिरमौर।
घर में कितना हो भरा, सभी चाहते और।।

धन लूटन को हैं खड़े, सारे चोर डकैत। 
सुख की नींद न सो सकें, पालें सभी लठैत।।

धन सहेजना है सरल, अधिक कठिन है ज्ञान।
धन अनुगामी ज्ञान का, यही सत्य है जान।।

शुभ धन कहलाता वही, नेक रहें जब श्रोत।
गलत राह से जब मिले, सुख की नींद न सोत।।

धन से होता है बड़ा, जीवन में सद्ज्ञान ।

जिसके बल पर आदमी, बन जाता इन्सान ।।8

पानी की बूँदें कहें ......................



बादल बरखें नेह के, धरती भाव विभोर।
हरित चूनरी ओढ़कर, हर्षित होती भोर।।

पानी की बूँदें  कहें, मुझको रखो सहेज।
व्यर्थ न बहने दो मुझे, प्रभु ने दिया दहेज।।

जल जीवन मुस्कान है, समझें इसका अर्थ।
पानी बिन सब सून है, नहीं बहायें  व्यर्थ।।

ताल तलैया बावली, बनवाने का काम।
पुण्य कार्य करते रहे, पुरखे अपने नाम।।

निर्मल जल पीते रहे, दुनिया के सब लोग।
नहीं किसी को तब हुआ, इससे कोई रोग।।

अविवेकी मानव हुआ, दूषित कर आबाद।
नदी सरोवर बावली, किए सभी बरबाद।।

जल को संचित कीजिये, बाँध नदी औ कूप। 
साफ स्वच्छ इनको रखें, नहीं चुभेगी धूप।।

सरवर गंदे हो गये, जीवन अब दुश्वार। 
जल.थल.नभचर,जड़.अचर,संकट बढ़ें हजार।।

नदी ताल औ बाँध हैं, जगती के अवतार। 
इनका नित वंदन करें, हैं जीवन आधार।।

आकाशवाणी 11 मई 2018



खिड़की से अब झाँकते.................
खिड़की से अब झाँकते, हर बूढ़े माँ बाप ।
गुम सुम से हैं देखते, सूरज का संताप ।।

जीवन भर दौड़े बहुत, नहीं किया विश्राम ।
आया जब संकट समय,उन पर लगा विराम।। 

श्वासें अब हैं टूटतीं, रोते नेत्र निचोर ।
नील गगन में डूबती, आशाओं की भोर ।।

विश्वासों की पोटली, संजाये थे साथ।
काल परिंदा ले उड़ा, क्षण में किया अनाथ।।

जीवन की संध्या घड़ी, अंधकार गहराय ।
आशाओं के दीप को,उर में कौन जलाय।।

जिन गलियों में खेलकर, बड़े हुये युवराज ।
उन राहों को लाँघ कर, चले गये सरताज ।।

नये क्षितिज पर उड़ गये, बेटा भानु प्रताप।
काट डोर सम्बन्ध कीे, बिछुड़ गये माँ बाप ।।

अपेक्षायें न राखिये, अपनों से कुछ आप ।
मन दर्पण सा टूट कर, बन जाये अभिशाप।।8

नीड़ बनाने को उड़ा, इक दिन पँछी भोर .........
नीड़ बनाने को उड़ा, इक दिन पँछी भोर ।
लेकर तिनका चोंच में, चला विहग उस ओर ।।  
पंख पसारे पहुँच गया, सुन जंगल का शोर ।
जहाँ प्रकृति की गोद में, नाच रहा था मोर ।।
वृक्षों ने आश्रय दिया, फैला दी निज बाँह ।
यहाँ बसेरा तुम करो, हम सब देंगे छाँह ।।
निर्भय होकर तुम रहो, ऊँची उड़ो उड़ान ।
मीठे फल खाते रहो, श्रम से नहीं थकान ।।
हरियाली मन मोहती, पशु पक्षी वनराज ।
झरने नदी पहाड़ संग, छेड़ो अपना साज ।।
कोयल  की जब गूँजतीे, मनमोहक आवाज ।
सारा जंगल झूमता,  पवन  बजाता साज ।।
हर्षित हो कर नाचता,  पंख फैलाए मोर ।
सबके मन को मोहता, कुहू कुहू का शोर  ।।
हम रक्षक इस विपिन के, पाते जग से मान ।
मिलकर आपस में रह़ें, यही हमारी शान ।।
सृष्टि का हम मिल सभी, करते नित श्रंगार । 
त्रिविध पवन गिरि फूल से, भरते कोषागार ।। 
सुबह शाम बस छेड़ना, अपनी मधुरिम तान । 
करतल घ्वनि से हम सभी, करते हैं  सम्मान ।।

वृक्षों की यह बात सुन, पँछी हुआ विभोर ।
नीड़ बनाया डाल में, यहीं हमारा ठौर ।।12

अहंकार रवि को हुआ ................

अहंकार रवि को हुआ, मैं इस जग की शान ।
कौन जगत में है यहाँ, मुझसे बड़ा महान ।।
कहकर रवि जाने लगा, संग गया प्रकाश ।
अंधकार छाने लगा, तब जग हुआ हताश ।।
बात उठी तब चतुर्दिश, प्रश्न बना सरताज ।
देगा कौन प्रकाश अब, अंधकार का राज ।।
दीपक कोने से उठा, फैला गया उजास ।
मानो सब से कह रहा, क्यों हैं आप उदास ।।
मैं छोटा सा दीप हूँ, जग में करूँ प्रकाश ।
सदियों से मैं लड़ रहा, कभी न हुआ निराश ।।
सुप्त मनोबल जग उठा, जागा दृढ़ विश्वास ।
जाग उठी नव चेतना, परिवर्तन की आस ।।
तब मानव ने है कहा, सुन सूरज यह बात ।
हम सब तुम से कम नहीं, तुझको दूॅँगा मात ।।
कमर कसी उसने तभी, रवि को देने मात ।
ऊर्जा श्रोत तलाश कर, तम से दिया निजात ।।
न्यूक्लियर में खोजता, ऊर्जा के अब श्रोत ।
अंधकार से भिड़ गया, इक छोटा खद्योत ।।
अविष्कार वह कर रहा, उस दिन से वह रोज ।
परख नली में कर रहा, नव जीवन की खोज ।।
जूझ चुनौती से रहा, मानव आज जहान ।
बौद्धिक क्षमता से हुआ, वह सच में बलवान ।।
आकाशवाणी 11 मई 2018 

नारी ने पैदा किये, जग में देव महान।
उसकी छाया में पले, राम कृष्ण भगवान।।
नारी कोमल फूल सी, पुरुष वृक्ष की छाँह।
जिसकी छाया में सजे, घर-आँगन की बाँह।।
संस्कारों की गंध को, फैलाती चहुँ ओर।
उसके इसी प्रयास से, घर घर होती भोर।।
मध्यकाल अबला रही, ढाये जुल्म अनेक। 
दासी हो कर रह गयी,नियत नहीं थी नेक।।
सुरा सुंदरी चाह ने, कोठे किये अबाद।
नारी महिमा भूलकर, किया उसे बरबाद।।
बदल गया है अब समय, शिक्षित है इंसान।
नर नारी का भेद हर, दिया उचित स्थान।। 
अबला अब सबला हुई, दौड़ रही सब ओर।
पीछे सबको छोड़कर, पकड़ रही हर छोर।।
मोह सदा गुड़-चाशनी, मक्खी सा चिपकाय ।
इसमें जो भरमा गया, जीवन भर पछताय।।
कविता मेरी है सखा, मेरा दिल बहलाय ।
मेरे मन को वह सदा, नित संबल पहुँचाय ।।

बुधवार, 15 अगस्त 2018

ॐ doha shatak raj kumar mahobia


दोहा शतक
नयी  प्रगति  के  मंच  से
राजकुमार महोबिया


























जन्म: २. १. १९७२, उमरिया, मध्य प्रदेश। 
आत्मज: स्व.रतिबाई-स्व.छोटेलाल महोबिया।  
जीवन संगिनी: श्रीमती रेनू महोबिया।  
काव्य गुरु:श्री विजय बागरी। 
शिक्षा: स्नातकोत्तर (हिंदी, अंग्रेजी साहित्य) बी.एड.
विशिष्ट कार्य: जल संवर्धन के लिए स्वतंत्र कार्य पर ई.टी.वी.म.प्र. द्वारा विशेष रिपोर्ट का प्रसारण,२० नाटकों का मंचन, बाल नाटक लेखन  
प्रकाशन: विविध साझा संकलनों एवं पत्र-पत्रिकाओं में गीत-नवगीत।  
उपलब्धि: भारत के महामहिम राष्ट्रपति जी द्वारा रजत पदक, शहीद हेमू कलाणी सम्मान, डॉ. भीमराव अंबेडकर सम्मान, बुंदेलखंड कनेक्ट समिट अवार्ड झाँसी, उ.प्र.,नवदर्पण सृजन  भूषण, वातायन विभूति व अन्य।   
संप्रति: उच्च श्रेणी शिक्षक (अंग्रेजी) शास. उ. मा. वि. करकेली, ज़िला उमरिया, म.प्र.।
संपर्क: आर.टी.ओ.कार्यालय के पीछे, शहपुरा मार्ग, वार्ड क्र. १२, विकटगंज, उमरिया, म. प्र.।
चलभाष: ७९७४८५१८४४, ९८९३८७०१९०।
*
राजकुमार महोबिया नर्मदांचल के उभरते हुए प्रतिभावान दोहाकार हैं। वन प्रांतर, ग्राम्यांचल और नगरीय परिवेश तीनों से समान संवेदना होने के कारण उनके दोहे सबके लिए सहज ग्राह्य होने के साथ एक पक्षीय नहीं हैं। वन में पलाश (वृक्ष संपदा) के अंधाधुंध काटे जाने का दुष्परिणाम बसंत  का आनंद घटने ही नहीं मिटने भी लगा है, मानो बसंत ने वैराग्य ले लिया हो। सरस-सहर और सरक अभिव्यक्ति की बानगी देते ये दोहे पाठक को रसानंद की प्रतीति करता है- 
वन में खिले पलाश का, जब से हुआ कटाव।
जोगी-जोगी हो गये, बासंती ठहराव।।
युवा दोहाकार का श्रृंगार की और आकर्षण स्वाभाविक है। श्रृंगार भाव की प्रबलता के साथ शालीनता का निर्वाह दुष्कर होता है किंतु राजकुमार इस दुष्कर कार्य को सहजता से संपन्न कर अपनी सामर्थ्य के प्रति आशान्वित करते हैं-  
मुस्कानों  में  श्लेष  हैं, नयन  यमक-आभास ।
मुख-द्युति में उपमान तो,देह लचक अनुप्रास ।।
राज कुमार मिथकों का प्रयोग करते हुए अपनी बात सामने रखते हैं। मीरा के विष पान के संदर्भ में 'प्रीत-पाहुनी' उनकी मौलिक सोच को दर्शाता है- 
विष  के  प्याले  पर  लिखी, मीरा  की  तकदीर ।
प्रीत  पाहुनी  के  लिए,  पत्थर   खिंची  लकीर ।।
आम लोगों की आपदा पर बहुत आराम के साथ दर्द व्यक्त करनेवाली संसद के देश में ऊपर से नीचे तक यही ढोंग पलते देख दोहाकार मौन नहीं रह पता और पर्यावरण-संरक्षण के नाम पर हो रहे प्रपंचों को संकेतित कर कहता है- 
जल, जंगल रक्षार्थ नित, मिशन, सभा  परपंच ।
तश्तरियाँ  काजू  सजी, बिसलरियों  के  मंच ।।
पर्यावरण से जुडी भूजल-ह्रास की समस्या का मूल इंगित करते हुए राम कुमार उसके समाधान का भी संकेत करते हैं-  
बढ़ता घर, आँगन, गली, नित कंक्रीट बिछान ।
कैसे भू की कोख में, हो जल  का  अभिधान ।।
अगला विश्व युद्ध पानी के लिए होने की चर्चा कर प्रेस और नेता अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं किन्तु कल की कौन कहे, प्यास की त्रासदी आज ही मार-काट तक आ पहुँची है- 
मारकाट   तक  आ  गई,  पानी   की   दरकार ।
कामर  में  लाठी  छुपी,   मटकों   में  तलवार ।।
तथाकथित प्रगति का उद्घोष सुनकर प्रकृति के प्रतिनिधि सूरज के रोष का रूपक प्रयोग कर दोहाकार नीतिकारों को प्रकृति सेपंगा न लेने के प्रति सचेत करते हैं-   
नयी  प्रगति  के  मंच  से,  मानव   का  उद्घोष ।
सुन  सूरज  करने  लगा, अग्नि  रूप  ले  रोष ।।
राजकुमार के दोहों में संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, मार्मिकता, तथ्यपरकता, भाषिक प्रवाह, शाब्दिक अनुशासन तथा लय का होना उनके उज्जवल भविष्य का संकेत करता है।   
*
*1--* 
श्वेतवरण,  कमलासिनी,  कर   वीणा   झंकार ।
वर   दे, विद्या  के  भुवन,  जीवन  ले  आकार ।।
*2--* 
विद्या,  बुद्धि,  विवेक  का, रहे  शीश  पर हाथ ।
वीणा, पुस्तक   धारिणी,  सदा   नवाऊँ  माथ ।।
*3--* 
उर के तम का शमन कर, कर माँ नया उजास ।
चमक  उठे  श्वेताभ  से,  सपनों  का  आकाश ।।
*4--* 
विघ्न विहीना, मातु  कर, जीवन की  हर  खोर ।
उर के आँगन अवतरित, कर माँ ! नया अँजोर ।।
*5--* 
पीर    परायी   गा   सकूँ,   दे   माँ   ऐसी   राग ।
उर  की  वीणा  में   बजे,   तार-तार   अनुराग ।।
=============================
*6--* 
कैसे   अपने   दिन   कटे,   कैसी   बीती   रात ।
दोहे-दोहे    में   लिखी,   हमने     सारी   बात ।।
*7--* 
तीन काल, चौदह भुवन, मनुज, देव,  दिनमान ।
किया  लोक,  परलोक  सब,  दोहों  ने  संधान ।।
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      *......राजकुमार महोबिया, उमरिया, म.प्र.*
                          संपर्क -- 7974851844.

*प्रभाती जागरण के दोहे*
===============
*8--* 
सूरज अपनी  चाल पर, कभी  न  दिखे  अधीर ।
है चिन्ता  किस  बात  की, जो  सहाय  रघुवीर ।।
*9--* 
तम  के   काले  उदधि  से,  धरती  ले  अवतार ।
काग  मुँडेरे   कर   रहा,  सूरज   के   जयकार ।।
*10--* 
सूरज   आँगन  भोर  से,  खेल   रहा   फुटबाल ।
घर  की  खिड़की  खोल के, आओ दें करताल ।।
*11--* 
रजनी  जूड़ा  बाँध  कर, चली  गयी  निज गाँव ।
भोर    हमारी    देहरी,   धरे    लजाती    पाँव ।।
*12--* 
चिड़िया चूँ-चूँ कर  रही, तू  भी  तो  कुछ  बोल ।
सूरज पाहुन  द्वार पर,  घर की खिड़की  खोल ।।
*13--* 
नयी   प्रात   के  रूप   में,  सौंप   गई   उपहार ।
आओ  मिल  ज्ञापित  करें, रजनी का  आभार ।।
*14--* 
गाय-दुहन, हल, बैल औ', प्रात भजन सँग योग ।
अपनी  मर्जी  सब   करें,  सूरज  का  .उपयोग ।।
*15--* 
बैठ   चौंतरा   द्वार   के,   छेड़   प्रभाती    राग ।
हरबोला  सूरज  कहे, अरे  मनुज ! अब  जाग ।।
*16--* 
सूरज   आया   हाट   में,  लादे   सर   पर  धूप ।
बदले  में  वो  ले  गया, यश-अक्षत,  भर  सूप ।।
*17--* 
पकड़ निशा की  तर्जनी , सूरज गया  विदेश ।
उसे  गाँव  तक   छोड़कर,  लौटा  अपने  देश ।।
*18--* 
खत्म हुआ फिर आज भी,रजनी का अवसाद ।
भानु  पुरोहित  बाँटता,  किरणों  का  परसाद ।।
*19--* 
चार पहर  का तम रहा, निश दिन का आलेख ।
नित्य प्रात  सूरज   करे, वसुधा का अभिषेक ।।
*20--* 
काजल  सारा धुल गया, निखरा  नया  प्रभात ।
सूरज   आया   पार  कर,  भरे  समंदर  सात ।।
*21--* 
जैसे-जैसे   हो   रहा,  किरणों    का   विस्तार ।
वैसे-वैसे   सूर्य   का,  धरती   पर   अधिकार ।।
*22--* 
चार  पहर   से  कर  रही, उजियारे  का  जाप ।
चिड़िया चहकी, जब सुनी, सूरज की पदचाप ।।
*23--* 
सूरज  यश  के   बैंक  में,  किरणें  करें  निवेश ।
हम भी अपनी आय  का, जमा  करें  अवशेष ।।
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     *......राजकुमार महोबिया, उमरिया, म.प्र.*
                          संपर्क -- 7974851844.

*जीवन-दर्शन के दोहे*
    =============
*24--* 
एक  दिवस  को हारकर, दूजे की फिर आस ।
केवल  इतना  ही  रहा,  जीवन  का  उद्भाष ।।
*25--* 
नियति  नियत चलती रहे, अंजानी-सी लीक ।
हुई कभी लेकिन  नहीं, जीवन  की  तस्दीक़ ।।
*26--* 
पर  के  हित जीवन रहा, मुझे  सिर्फ प्रारब्ध ।
अनसुलझा हरदम रहा, जीवन का उपलब्ध ।।
*27--* 
टुकड़े-टुकड़े  टूटकर,  बिखर   गये  अरमान ।
टुकड़ों  में  करता  रहा, जीवन  की पहचान ।।
*28--* 
ताम्र-पात्र   नैना,   भरे,   अश्रु-नीर   सम्मान ।
किन्तु  रहे  पत्थर  सदा, पत्थर  के भगवान ।।
*29--* 
झोंका एक समीर का, विलग  डाल  से  फूल ।
यूँ समझो कब,किस घड़ी, हो जाए तन  धूल ।।
*30--* 
सपना बनकर ही  रही,  सपनों की  बख्शीश ।
चली आखिरी साँस तक,जीवन की तफ्तीश ।।
*31--* 
अंतर  को अनसुना  कर, चले  धार  विपरीत ।
घाट-घाट  उसकी  सदा,  मिट्टी   हुई  पलीत ।।
*32--* 
उजला-उजला तन रहा,अंतस् जिसका स्याह ।
मिली अंतत: कब  उसे, शीतल  छाँह-पनाह ।।
*33--* 
चिन्तन की  खिड़की रही, सदा-सदा  से  बंद ।
ओछे-ओछे    भाव    पर,   औने-पौने   छंद ।।
*34--* 
वेद  शास्त्र  .बैठे   रहे , लेकर   उच्च   विचार ।
मानव-समता पर रही, खिंची किन्तु  तलवार ।।
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     *......राजकुमार महोबिया, उमरिया, म.प्र.*
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*जेठ मास के दोहे*
============
*35--* 
लाश-लाश  नदिया  पड़ी, घाट-घाट   शमशान ।
चिता  धरा  की   रच  रहे, मौसम के भगवान ।।
*36--* 
चाकू-छुरियाँ  प्रात तो,  धूप   आग   के  बाण ।
जेठ  आज  यमराज  बन,  लेने  आया  प्राण ।।
*37--* 
उठता   धुआँ  दहार  से,  चिनगी-चिनगी  रेत ।
फटे  कलेजे   ताल   के,  पत्थर-पत्थर  खेत ।।
*38--* 
नयी  प्रगति  के  मंच  से,  मानव   का  उद्घोष ।
सुन  सूरज  करने  लगा, अग्नि  रूप  ले  रोष ।।
*39--* 
सूरज  क्यों   भिनसार  से,  आँखें   रहा  तरेर ।
मनुज जरा तो समझ तू, आज प्रकृति के फेर ।।
*40--* 
द्वार,  देहरी    बैठकर,  चिड़िया    करे  पुकार ।
अँजुरी  भर के  नीर  का,  कर  माता उपकार ।।
*41--*
प्यासे-प्यासे  कण्ठ   हैं, अटकी-अटकी  श्वास ।
मेघों   की  माला  जपे,  धरती   का   विश्वास ।।
*42--*
काँटा-काँटा    क्यारियाँ,    मिट्टी    सारी   रेत ।
चौमासे  उफने  नहीं,  कब  से  जी  भर  खेत ।।
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      *......राजकुमार महोबिया, उमरिया, म.प्र.*
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*गाँव उगे सागौनों के दोहे*
   ===============
*43--*
सारा   भू-जल  पी   गये, जंगल  के  सागौन ।
व्यापारी   सरकार   से,  पूछे  आखिर  कौन ।।
*44--*
जंगल  अपने  गाँव  का, शहरी  उगा विलास ।
मारा -मारा  फिर  रहा,  अर्जी  लिये  पलास ।।
*45--*
महुआ, हल्दू, बट,धवा, ढाक,  देवतरु, साज ।
साजिश पर सागौन की, विस्थापित हैं आज ।।
*46--*
गाँव  हमारे   बो   दिए, साजिश   के सागौन ।
बरसज, कहुआ, साल  सब, रहे देखते मौन ।।
*47--*
जंगल-जंगल  में  गिरी,  विस्थापन  की गाज ।
सागौनों   के   शोर  में,  कौन   सुने आवाज ।।
*48--*
दरकिनार  हल  पहट औ', दादाजी की खाट ।
लगा  हमारे    गाँव  में,  सागौनों   का   हाट ।।
*49--*
जंगल  मेरे  गाँव  का,  मुझको   मना   प्रवेश ।
सागौनों   की   पेंच   पर,  सरकारी   आदेश ।।
*50--*
सोफे, टेबल  डायनिंग,  हल, पहटों  के शीश ।
नयी प्रगति के नाम पर, गाँवों  को  बख़्शीश ।।
*51--*
वन के लदे पलाश  का, जब से हुआ  कटाव ।
जोगी-जोगी    हो   गये,    बासंती   ठहराव ।।
*52--*
तेंदू, जामुन, चार,  औ',  ऊमर,  इमली, बेल ।
चालबाज़   सागौन  के,  हाथों  सबको जेल ।।
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    *......राजकुमार महोबिया, उमरिया, म.प्र.*
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  *श्रृंगार के दोहे*
  ==========
*53--*
मुस्कानों  में  श्लेष  हैं, नयन   यमक-आभास ।
मुख-द्युति में उपमान तो,देह लचक अनुप्रास ।।
*54--*
लपट-झपट  गति पाँव की, चंचल चपला नैन ।
घूँघट   की   जंजीर   में,  मन   हिरना  बेचैन ।।
*55--*
सोंधी - सोंधी     सादगी,   तीखे - तीखे    नैन ।
अधरों    की   नमकीन  में ,  मीठे-मीठे   बैन ।।
*56--*
बँधे  केश  तो  प्रात  थी, खुले केश  तो  साँझ ।
प्रीत  पावनी  प्रार्थना, खनक  उठे  मन झाँझ ।।
*57--*
यौवन  की   दहलीज   पर,  बासंती  अहसास ।
महुआ-महुआ देह तो, चितवन खिले  पलास ।।
*58--*
चंद्र-बदन,  मुख   चंद्र  पर,  ऊपर   से  श्रृंगार ।
कामदेव  हिय  को  सदा, पड़ी   दोहरी   मार ।।
*59--*
मन पर वश बेवश दिखे, दिखें नयन  दो,  चार ।
हिय की गति हिय जानता, या  जाने  करतार ।।
*60--*
वर्षों    की    आराधना,   वर्षों    बाट   निहार ।
पल  भर की मुस्कान से, ज्ञापित  सब आभार ।।
*61--*
सजे   हृदय   की   देहरी,  जब   से   वंदनवार ।
प्रणय-पत्रिका   लिख   रहे,   नैनों   के   उद्गार ।।
*62--*
अंतस्    के   इकरार   पर,  बाहर   से   इंकार ।
फूल  प्रीत के बदन  पर, दो  दुनिया  का  भार ।।
*63--*
पिया-रमण  के शगुन का, एक  बार अभिसार ।
तन,मन की द्युति का हुआ,सहस गुना विस्तार ।।
*64--*
उँगली में उलझा सकुच,नत-मुख, आँचल छोर ।
झेंपि-झपत नैनन कसे, हिय से हिय  की  डोर ।।
*65--*
बेला-बेला   देह   तो,   साँसों   खिले     गुलाब ।
उर  के  बंद   किवाड़   में, भरा  प्रणय-सैलाब ।।
*66--*
विष  के  प्याले  पर  लिखी, मीरा  की  तकदीर ।
प्रीत  पाहुनी  के  लिए,  पत्थर   खिंची  लकीर ।।
*67--*
कामदेव   का   एक   दिन,  हुआ  सिर्फ  संसर्ग ।
सतसैया  के   लिख  गए,  जाने   कितने   सर्ग ।।
*68--*
नख-शिख  झरता देखकर, कनक  रूप-मकरंद ।
जोगी   निरा  कबीर भी,  लिखे   लावणी   छंद ।।
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*जल रक्षार्थ, कुछ दोहे*
============≠==
*69--*
जल, जंगल रक्षार्थ नित, मिशन, सभा  परपंच ।
तस्तरियाँ  काजू  सजी, बिसलरियों  के  मंच ।।
*70--*
बूँदों  को  मुहताज  है, नदियों   की   जलधार ।
झूठे  वादे  कर   रही,   सावन   की   सरकार ।।
*71--*
मारकाट   तक  आ  गई,  पानी   की   दरकार ।
कामर  में  लाठी  छुपी,   मटकों   में  तलवार ।।
*72--*
धुआँ-धुआँ    नदियाँ    हुईं,    रेत-रेत   अंगार ।
दहरों-दहरों   रुदन   है,  लाश-लाश   पतवार ।।
*73--*
जोगन-जोगन  हो  गया,  बारिश  का  माहौल ।
जब से जंगल  हो गया,  मानव  को  माखौल ।।
*74--*
बूँद-बूँद जल का करें,  हम  मिलकर  सम्मान ।
ताकि  नहीं  रूठें  कभी,  पानी   के  भगवान ।।
*75--*
भू-गत जल के हित करें, मिलकर यही उपाय ।
जितना खर्चें आप जल,  भू  में  उतना  जाय ।।
*76--*
बढ़ता घर, आँगन, गली, नित कंक्रीट बिछान ।
कैसे भू की कोख में, हो जल  का  अभिधान ।।
*77--*
कुआँ, ताल, पोखर, नदी, केवल बाकी  कीच ।
मतलब  पानी  के  लिए, महासमर  नजदीक ।।
*78--*
घाट-घाट    सूने    पड़े,   नदी-नदी    है   रेत ।
हरियाएँगे   किस   तरह,   भूखे-प्यासे   खेत ।।
*79--*
बूँद  नहीं,  अब  डाइनें, करें   कुओं  में  वास ।
भर  सावन  में  ले  रखा, बरखा  ने  संन्यास ।।
*80--*
रह-रहकर  आने लगी, अब यम  की पदचाप ।
बेलगाम   इंसान   को,  पानी  का अभिशाप ।।
*81--*
भू-जल-दोहन  के  लिए,  निश्चित  हो  कानून ।
रहे  सलामत,  संतुलन,  पानी   का  मजमून ।।
*82--*
रोज प्रकृति से कर रहा,धनिक वर्ग व्यभिचार ।
दीन-हीन  ही  झेलते,  जल-जंगल  की  मार ।।
*83--*
यहाँ   जरूरी  कण्ठ   हैं,  वहाँ  जरूरी  लान ।
जल-रक्षा   पर   दोगले, सरकारी  अभियान ।।
============≠===============
   *......राजकुमार महोबिया, उमरिया, म.प्र.*
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*आज़ादी, सत्ता और विसंगतियों पर दोहे..*
===========================
*84--*
आज़ादी  के  नाम  पर,  बंधक   है  तक़दीर ।
क़ैदी  मिले उजास सब, अधरों  पर  जंजीर ।।
*85--*
घायल  हर्ष,  हुलास हैं, कर्ज-कर्ज   मुस्कान ।
प्रजातंत्र में  प्रजा को,  मिले  यही  अवदान ।।
*86--*
आज़ादी कुछ को फली,बाकी सब को व्यर्थ ।
सिर्फ तिजोरी तक रहा,  लोकतंत्र  का अर्थ ।।
*87--*
वादों    के  मिष्ठान्न  पर,  होते   रहे   निहाल ।
हाथ पसारे  रह  गए, अपने  अड़सठ  साल ।।
*88--*
सत्ता      साहूकार    ने,  यूँ   सौंपी   जागीर ।
रही  हाथ मलती सदा, सपनों  की  तकदीर ।।
*89--*
पाँच साल के बाद फिर, पाँच साल  पछताव ।
परिवर्तन   के   नाम   पर,  गये  कुरेदे  घाव ।।
*90--*
नये   सुधारों   ने   किये,   ऐसे   नये   सुधार ।
सदा  सुधारों  को  रही,   सुधरे  की  दरकार ।।
*91--*
निःशुल्कों  के  नाम  पर,  सत्ता   के  षड्यंत्र ।
पंगु बुद्धि,छल-बल करें, फिक्स वोट का तंत्र ।।
*92--*
रँग  सियार  खुद हो  गए, बाँटे  जब  से  रंग ।
रंग-रंग    सत्ता   सजी,  और   हुई    बदरंग ।।
*93--*
सिर्फ वोट  की  चाह तक, मंचों  का  माहौल ।
पाँच साल तक, बाद में, सपनों का  माखौल ।।
*94--*
मंचों   पर  तो   गैर  के,  मुर्दे   गड़े   उखाड़ ।
नेपथ्यों  में   एक-सी  सूरत  के  सब   भाड़ ।।
*95--*
कह दें किसको बीस  या, किसे  कहें उन्नीस ।
मठाधीश  हैं  सब यहाँ, सारे  जय जगदीश ।।
*96--*
जनसेवा के नाम पर, क्या बढ़िया भ्रमजाल ।
राजनीति  की  टोपियाँ, सुर्ख  गुलाबी गाल ।।
*97--*
प्रजातंत्र  के  भुवन  में,  राजतंत्र  का  वास ।
संविधान  के   मूल  का,  कैसा  सत्यानाश ।।
*98--*
वंशवाद   के   घुस    गए,  संसद   में  लंगूर ।
प्रजातंत्र  की  अस्मिता,  लूट   रहे   भरपूर ।।
*99--*
पढ़ने-लिखने   में   गधे,  लंपटिया कमबख्त ।
सबके खातिर ढाल-सा, राजनीति का तख्त ।।
*100--*
"अच्छे दिन" किसके हुए, "पंद्रह लाखी"कौन ।
ठगे-ठगे-से   चेहरे,    अधर-अधर   हैं  मौन ।।
============================
   *......राजकुमार महोबिया, उमरिया, म.प्र.*
                           संपर्क -- 7974851844.


doha pacheli

दोहा पचेली में
*
ठाँड़ी खेती खेत मा, जब लौं अपनी नांय।
गाभिन गैया ताकियो, जब लौं नई बिआय।।
*
नीलकंठ कीरा भखैं, हमें दरस से काम।
कथरिन खों फेंकें नई, चिलरन भले तमाम।।
*
बाप न मारी लोखरी, बेटा तीरंदाज।
बात मम्योरे की करें, मामा से तज लाज।।
*
पानी में रै खें करें, बे मगरा सें बैर।
बैठो मगरा-पीठ पे, बानर करबे सैर।।
*
घर खों बैरी ढा रओ, लंका कैसो पाप।
कूकुर धोए बच्छ हो, कबऊँ न बचियो आप।।
*
६.८.२०१८ 
  

doha shatak dr.j p baghel


दोहा शतक
कसिए सत के निकष पर 
डॉ. जगन्नाथ प्रसाद बघेल




















जन्म:  १ जनवरी, १९५४, गाँव सीस्ता, जिला मथुरा (उ.प्र.)। 
शिक्षा: एम.एससी., एम. ए., पी.जी.डी. पत्रकारिता, पीएच.डी.। 
संप्रति: पूर्व उप महाप्रबंधक (तकनीकी), महानगर  टेलीफोन निगम लि. मुंबई।
प्रकाशन:  काव्य- स्वप्न और समय, घुटने की पीर, युग शतपदी, ब्रज मंडल में, संस्कृति के आयाम।इतिहास- अजपथ के कीर्तिपुरुष, ब्रज के लोकदेवता खुशहाली।समाज शास्त्र - भारत के धनगर। संकलनों, अखबारों व पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।  
संपादन:   मुंबई के हिंदी कवि, मुंबई की हिंदी कवयित्रियाँ, युगीन काव्या।  
उपलब्धि:- उ. प्र हिंदी संस्थान का इतिहास विधा के लिए ईश्वरी प्रसाद सर्जना पुरस्कार, महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी का फणीश्वरनाथ रेणु पुरस्कार। 
गतिविधियाँ: आजीवन सदस्य इंडियन हिस्ट्री काँग्रेस; जे.एन.यू. मालदा, त्रिवेंद्रम व कोलकाता में राष्ट्रीय सत्रों में शोध पत्र प्रस्तुत। 
महिलाओं के नासिकाभूषण (नथ) पर शोध कार्य पूर्ण, अन्य कृतियां प्रकाशनाधीन। 
संपर्क: डी २०४ , प्लैजेंट पा्र्क, दहिसर पुल के पास, दहिसर (प),  मुंबई ४०००६८ । 
चलभाष: ९८६९०७८४८५, ९४१०६३९३२२ । 9869078485, 9410639322
ई मेल: drjpbaghel@gmail.com 
*
दोहा छंद की कालजयिता का मूल कारण उसका लोक की समस्याओं से जुड़ा रहना और उनका समाधान सुझाना है। इस विरासत को ग्रहण करते हुए मुंबई निवासी डॉ. जगन्नाथ प्रसाद बघेल जी दोहा-रचना जन सामान्य से जुड़े विषयों पर सहज-सरल शब्दावली में करते हैं. अहिंदीभाषी मुंबई महानगर में भाषिक सरलता कथ्य को अधिक से अधिक श्रोताओं-पाठकों तक पहुँचने में सहायक होना स्वाभाविक है। इन दोहों में बृज, मराठी या अंग्रेजी के प्रभाव से मुक्त शुद्ध हिंदी का होना आश्वस्त करता है। भारत के विकास-चंद्र को भ्रष्टाचार रूपी ग्रहण लग गया है। जगन्नाथ जी व्यंग्योक्ति करते हैं: 
हमने देखा ध्यान से, दिन में नजर पसार।
लिए सड़क के पेट से, बँगलों ने आकार।।
भाषा और बोलिओं के टकराव ने हिंदी को सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषाओँ में क्रमांक १ से क्रमांक ५ पर ला पटका है। यह टकराव न रुका तो हिंदी की विकास का अश्वमेध बाधित होकर अंग्रेजी को भारत की राजभाषा बनाने का षड्यंत्र सफल होने का प्रयास कर सकता है। दोहाकार बोली बोली (भाखी) जाने पर भाषा बनती है कहकर हिंदी भारत की सभी बोलिओं का होना बता सका है: 
बोली तो बोली रही, झरती रही मिठास।
बोली भाखी, बन गई, भाषा का इतिहास।।
हममें से हर व्यक्ति अपने परिवेश और समस्याओं से परेशान नज़र आता है। जगन्नाथ जी का कहना है कि विश्वनाथ शिव जी हमसे बहुत अधिक विषमताओं का सामना करते हैं:
घर की हालत सोचकर, मत होइए अधीर।
हम से तो शिव की व्यथा, है ज्यादा गंभीर।।
बगुला भगतों से भरी इस दुनिया में संत वेशधारी असंतों के कारनामे जग-जाहिर हैं। ठगों से बचाव का एक मात्र
रास्ता सत्य के निकष पर परखने के बाद ही स्वीकार करना है: 
कसिए सत के निकष पर, तब करिए स्वीकार।
सुजन मिलेंगे बहुत कम, दुर्जन कई हजार।।
इस संसार की गति विचित्र है, भूखा भोजन हेतु परेशान है तो जिसे भोजन मिल गया है वह कल के लिए जोड़ने की चिंता से दुखी है, निर्धन धन चाहता है तो धनी और अधिक धन चाहता है: 
निर्धन दुखिया, धन बिना, धनिक दुखी, धन हेतु।
इनकी धड़-गति राहु सी, उनकी सिर-गति केतु।।

जगन्नाथ जी सूक्ष्म दृष्टि से समाज और व्यक्ति का आचार-विचार परखते हुए दोहा-लेखन करते हैं। प्रसाद गुण संपन्न ये दोहे अमिधा के अच्छे उदाहरण है। इनमें व्यंग्योक्ति की झलक भी दृष्टव्य है। दोहों में लाक्षणिकता  और मार्मिकता का भी स्पर्श है। सूली पर इतिहास एक घटना विशेष पर आधारित दोहा प्रबंध है। यह प्रयोग की दृष्टि से स्वागतेय है। दोहाकार के रूप में जगन्नाथ जी को लंबी दौड़ का अश्व कहा जा सकता है।  
*
सूली पर इतिहास
(दोहा प्रबंध)
जिन कलमों ने लिख दिए, स्मृति-संहिता-पुराण।
वे सब की सब हो गईं, आज निरी निष्प्राण।। 1
कलमें जो मशहूर थीं, क्यों हो गईं उदास?
सूली पर जब चढ़ रहा, भारत का इतिहास।। 2
पूजनीय ब्राह्मण जहाँ, माँ जैसी है गाय।
न्यौछावर होता जहाँ, इन पर जन समुदाय।। 3
गो ब्राह्मण प्रतिपाल की, होतीं जय जयकार।
लिए जहाँ इस ही लिए , प्रभुओं ने अवतार।। 4
तन -मन-धन देकर हरा, जिसने इनका क्लेश।
वह, इस धरती का हुआ, उतना बड़ा नरेश।। 5
शिवा अहिल्या के यहाँ, होते थे यशगान।
कृष्ण यहीं पर बन गए, मानव से भगवान।। 6
बुद्ध यहीं बुद्धू बने, विस्मृत हुआ अशोक।
कलमों ने लीकें रचीं, चलता आया लोक।। 7
हिन्दू धर्मोद्धार की, रचकर नई मिसाल।
उभर चुका है एक अब, गो-ब्राह्मण प्रतिपाल।। 8
पशुपालों का वंश फिर, फिर गरीब का पूत।
बनकर आया हिंदुओं की सत्ता का दूत।। 9
वह कसाइयों से लड़ा, और चुराईं गाय।
बाँटीं उनको ही मिले, जो गरीब असहाय।। 10
आदिवासियों का जहाँ जीवन है बदहाल,
देश उड़ीसा है वहीं, होतीं मौत अकाल । 11
रोजगार है ही नहीं, अनपढ़ हैं सब लोग,
जिनकी केवल नियति है, भूख गरीबी रोग। 12
इस गरीब की आत्मा, रोई, उठी पुकार,
हे रवीन्द्र इस देह को, इन दुखितों पर वार । 13
किए असंभव काम कुछ, और किए उपकार,
दारासिंह हीरो हुआ, पाल रवीन्द्र कुमार । 14
बालक बूढ़े कर लिए, वनवासी एकत्र,
शिक्षा का करने लगा, वह प्रचार सर्वत्र । 15
आदिवासियों में हुआ, दारासिंह मशहूर ,
ख्याति फैलती ही गई, उसकी दूर सुदूर । 16
दारा का चलता रहा, जनसेवा का काम,
हिन्दू बनने लग गया, हर वनवासी ग्राम। 17
दूर दूर तक पा गई, जब यह बात प्रचार ,
जागे हिन्दू धर्म के, फिर से ठेकेदार । 18
चला चुके थे धर्म-रथ, जो थे हुए हताश ,
मन्दिर को मस्जिद बता, करवा चुके विनाश। 19
दीख गया इनके नया, चरागाह फिर पास,
मिले और साजिश रची, ली तरकीब तलाश । 20
एक विदेशी का वहीं, रहता था परिवार ,
कुष्ठ रोगियों का वहीं, करता था उपचार। 21
घर में देखा एक दिन, मौके की थी ताक,
दुष्टों ने बेटों सहित, किया जलाकर राख । 22
सफल हो गए विप्लवी, कर मनचाहा काम,
खबर छपी अखबार में, है दारा का काम। 23
आदिवासियों ने सुना, वे रह गए अवाक ,
प्राणि-दया का रूप है, दारा का मन, पाक। 24
है गरीब का जन्म ही धरती पर अभिशाप,
लगे गरीबों को, किए, जो औरों ने पाप। 25
पुलिस खोजती आ गई, हर कुटिया हर द्वार,
आदिवासियों का हुआ, जीना भी दुश्वार । 26

उन पर अब होने लगे, जमकर अत्याचार,
दारासिंह की आत्मा, फिर से उठी पुकार । 27
मर कर भी न बताएंगे, दारा से है नेह,
इन्हें बचा ले वार दे, दारा अपनी देह । 28
दारा पहुँचा एक दिन, स्वयं पुलिस के पास,
बनी बहादुर पुलिस ने, कैद किया इतिहास। 29

हिन्दू मानस में उठा, एक नया तूफान,
गैर-हिन्दुओं पर तने, हर कमान के बान। 30
अँगड़ाई लेकर उठी, धुर हिन्दुई हिलोर,
लगे चीखने जोर से, कुछ बौरे चहुँओर ।31
हुआ गोधरा, हो गया, गरबीला गुजरात,
लाशों के ऊपर मिली, सत्ता की सौगात।32
होती आईं , हो रहीं, हत्याएं दिन रात ,
हुए यहाँ नरमेध भी, आए दिन की बात ।33
क्षम्य ब्रह्महत्या हुईं, करें अगर वे लोग,
जिनके घर में पक रहे, राजनीति के भोग।34
सिंहासन दिलवा सकें, तथा करें सहयोग,
वे ही हैं इस देश के, अब रखवाले लोग।35
जिनको सत्ता से मिला, रक्षा का वरदान,
वे हत्यारे घूमते, दिखलाते हैं शान ।36
जुड़े हुए जिनके कहीं, सत्ता से हैं तार,
जा विदेश बसते वही, कर के नर संहार।37

उकसाते नरमेध जो, वे हैं सत्तासीन,
सजा पराए पाप की, भोग रहा धनहीन ।38
जनसेवक की जान को, कहाँ मिलेगा ठौर,
राजनीति खा जाएगी कितने दारा और ।39
कागज के वन पर चली, कलम लिखेगी न्याय,
सूली पर इतिहास है, कौन बचावे हाय ? 40
(ग्राहम स्टेन्स का आरोपित हत्यारा दारासिंह अपनी पृष्ठभूमि एवं
तथ्यों के आधार पर निर्दोष किन्तु धार्मिक षडयंत्र का शिकार
हुआ लगता है – गुवाहाटी में प्रकाशित - दैनिक सेन्टीनल में 18-10-2003

एवं दैनिक पूर्वांचल प्रहरी में 22-12-2003)
हारा, बना गुलाम भी, भारत जितनी बार।
नहीं किसी भी देश ने, झेलीं इतनी हार।। 1
भारत की धरती बहुत, अद्भुत और विचित्र।
रणबाँकों का भी यहाँ, बदला मूल चरित्र।। 2
सारी दौलत देश की, सिमट एक ही साथ।
जमा हो रही आजकल, कुछ लोगों के हाथ।। 3
मत पालो भ्रम यह कि, जज देते ही हैं न्याय।
आखिर है इन्सान ही, उनका भी समुदाय । 4
माना है जिस भूमि ने, शारीरिक श्रम हेय।
भारत ही है वह जहाँ, भिक्षाटन है श्रेय।। 5
इतना ज्यादा हो गया, हमें भाग्य से मोह।
सहा भेद अन्याय सब, नहीं किया विद्रोह।। 6
अँधियारे का अर्थ है, उजियारे का लोप।
अँधियारे पर ही लगे, दोष और आरोप।। 7
अपने हित, अपनी खुशी, किसको नहीं पसंद।
कौन, नहीं जो चाहता, जीवन में आनंद।। 8
कसिए सत के निकष पर, तब करिए स्वीकार।
सुजन मिलेंगे बहुत कम, दुर्जन कई हजार।। 9 
हमको जो सुख दे रहा, करिए उसका मान।
लेने से देना अधिक, माना गया महान।। 10
रसना बोली सीखना, वर्ष लगे बस तीन।
मुझको जीवन भर लगा, हुआ न वाक्-प्रवीन।। 11
वे ही ईश्वर के निकट, हरि के वही करीब।
जिनके जीने से जिएँ, अन्य अनेकों जीव।। 12 x
घर की हालत सोचकर, मत होइए अधीर।
हम से तो शिव की व्यथा है ज्यादा गंभीर।। 13
बचिए उस वाचाल से, जो बोले रस घोल।
अप्रिय लगे लगता रहे, सुनिए साँचे बोल।। 14
झुकना-रुकना सीखिए रखिए गुप्त विचार।
समय देख सह लीजिए, असहनीय व्यवहार।। 15
करिए मत वह जो लगे, हमें न खुद अनुकूल।
बात चाहकर भी जिसे, नहीं सकें हम भूल।। 16
बूझो उनसे विषय पर, हो जिनका अधिकार।
सुनो याद ऱख लो उन्हें, जो हों नेक विचार।। 17
त्यागी और पराक्रमी, होवें जो विद्वान।
माँगो उनसे जतन कर, संगति का वरदान।। 18
खल की टिकी न मित्रता, धन-लोभी का धर्म।
यश न लालची का टिका, दुर्जन का सत्कर्म।। 19
जारी हो अतिचार यदि, सहता नहीं समाज।
राजा कैसा भी रहे, टिका न उसका राज।। 20
जन्मा दिखलाने लगा, पाँव हमें खुद पूत।
सपने में आने लगा, हमें हमारा भूत।। 21
कठिनाई के बाद ही, साँप सके थे भाग।
बदले में अब आ गए, अधिक विषैले नाग।। 22
करता क्यों मेहनत अरे!, नेता बनकर देख।
तेरी किस्मत के सभी, बदल जाएंगे लेख।। 23
धोखे से करती नहीं, वार कभी सरकार।
सीटी देकर चोर को, कर देती हुशियार।। 24
है जिसको कुछ ज्ञान की, दर्शन की अभिलाष।
भूखा तपसी हो जहाँ, जावे उसके पास।। 25
सह ले जो अन्याय को, रहे साधकर मौन।
हो सकता उससे भला, भला आदमी कौन । 26
बना रहे हैं योजना ताजमहल की आज,
कितने शाहजहाँ यहाँ, कितनी ही मुमताज। 27
चलता चूहों की यहाँ पकड़-छोड़ का खेल,
पिंजड़े वाले का हुआ, पकड़कार से मेल । 28
मैं कोशिश करता रहा, बनकर जिऊँ मनुष्य,
रोटी के जंजाल में बीत गया आयुष्य । 29
होता हो यदि मित्र का किसी तरह उत्कर्ष,
करे न प्रतिस्पर्धा तनिक, मन में हो न अमर्ष । 30
मानव बन पाना कभी नहीं रहा आसान,
चढ़ने पड़ते हैं यहाँ कई-कई सोपान । 31
आँखों वाले ढो रहे, अँधे हुए सवार।
तीर्थ मंत्रि-परिषद हुए, देश हुआ सरकार।। 32
अंधे होते काईँयाँ, लेते लाभ टटोल,
उन्हें जवानी ढो रही, खुद की आँखें खोल । 33
हमने देखा ध्यान से, दिन में नजर पसार।
लिए सड़क के पेट से, बँगलों ने आकार।। 34
लेते ही पकड़े गए, रिश्वत रुपये पाँच,
पाँच लाख जिसने लिए, उसे न आई आँच । 35
चर्चा ये होने लगी, अखबारों में रोज,
नेताजी ने खा लिया दलितजनों का भोज । 36
मानेगा कोई नहीं भले बड़ा हो काम,
नाटक करने से सहज हो जाता है नाम । 37
तीनों भाई छोड़कर भागे जो दायित्व,
उनसे था शत्रुघ्न का ज्यादा श्लाघ्य कृतित्व । 38
गाली खाईं तीन तब, एक मिली आशीष,
तपसी चिमटा तानता, हम निपोरते खीस । 39
रोटी का भूला नहीं, कुत्ते ने अहसान,
संकट के क्षण देखकर, देने आया जान। 40
भाषा में से झलकते मानव के विश्वास,
शब्द शरण पाते रहे संस्कारों के पास । 41
अकुलाता है धन अगर हो जाता है श्रेय,
उछल बनाता रूप के दिखलावे को ध्येय । 42

शंका जन्मी ही नहीं उठा न कोई वाद,
शीघ्र हो गई पतिव्रता वह शादी के बाद । 43
हमको है निज धर्म से संस्कृति से अनुराग,
कूट-कूटकर के भरा जहाँ तपस्या-त्याग । 44

गलती कर मढ़ दीजिए किसी और पर दोष,
टोके कोई यदि कहीं, मत बैठो खामोश । 45
औरों का जो रच गए भाग्य और उत्थान,
खुद उनको देना पड़ा, प्राणों का बलिदान । 46
संकट में सूझा हमें सबसे सरल निदान,
भारत में नारा गढ़ो हल होगा आसान । 47
भारी है अचरज हमें, होता है संदेह,
यों ही तो होगा नहीं कोई जनक विदेह । 48
धन का बल का बुद्धि का होता जहाँ विकास,
आ ही जाता है वहाँ सहज आत्म-विश्वास । 49
अपना हित कैसे सधे, उत्तम यही उपाय,
बिना किसी का अहित कर अपना हित सध जाय । 50
करिए मत निर्णय कभी विज्ञापन ही देख,
बुद्धि लगाकर देखिए, मीन है, कि है मेख । 51
छापा सूरज पर पड़ा, अगले दिन चुपचाप,
नया ब्रांड बाजार में उतरा चंदा छाप । 52
तोता मैना एक-से, बोले उतना बोल,
जितना मालिक ने कहा, उतना ही मुँह खोल । 53

व्यापारी से कौन है बड़ा विश्व में वीर,
रख देता जो बदलकर धरती की तकदीर । 54
भारत के जैसे हुए लोग कहाँ बलवान,
निगल गए सूरज धरी धरती गैंद समान । 55

ज्ञानी हैं हम इसलिए, किए न आविष्कार,
हमें पता है एक दिन हरि लेंगे अवतार । 56
भीषण जल-संकट हुआ, रुष्ट हुआ भगवान,
जगह-जगह होने लगे, यज्ञों से आह्वान । 57
देहि देहि रटते हुए हम फैलाए हाथ,
युगों-युगों से माँगते कृपा करो हे नाथ । 58
बेड़ी डाले धर्म की श्रुति स्मृति नखत पुराण,
जन्म मृत्यु जीवन बँधा कैसे पावें त्राण । 59
हारा बिन संघर्ष ही भारत में विज्ञान,
देखी जो प्रतिकूलता छोड़ भगा मैदान । 60
मरते मंदिर तीर्थ में जहाँ हजारों भक्त,
पता नहीं क्यों हो गया है भगवान विरक्त । 61
पाया भारत में सदा वीरों ने सम्मान,
महावीर दो ही हुए वर्धमान हनुमान । 62
माना मोहक हैं वचन, हैं अभिराम वरांग,
वे गणिका, ये गणक हैं, दिखलाते पंचांग । 63
हमने ही पूजे जपे हमीं हुए आक्रांन्त,
युग बीते लेकिन हुए ग्रह न हमारे शान्त । 64

तारे देखे कर लिए नभ में अनुसंधान,
मेष वृषभ से मीन तक, ग्रहण-काल दिनमान । 65
नाड़ी की गति में छिपा जीवन का गतिमान,
इसी लिए जाता सदा नाड़ी पर ही ध्यान । 66

मन से तन ही श्रेष्ठ है, कहता विज्ञ समाज,
मन का रंजन कवि करे, तन-रंजन कविराज । 67
टोने जादू टोटके वशीकरण की मार,
पता नहीं क्यों आज तक देख सकी सरकार, 68
लात न मारो पेट पर लग जाता है पाप,
पुरुष भले ही चुप रहे पत्नी देती शाप । 69
अपना खुद उपकार कर किया पुण्य का काम,
कष्ट-मुक्ति की युक्ति को दिया धर्म का नाम । 70
योगी भोगी सन्त मुनि सबका एक मुकाम,
इस जीवन के बाद में मिले विष्णु का धाम । 71
गढ़ते हैं वे नर नए अपने मार्ग अनेक,
जिनकी बुद्धि कुशाग्र है, जिनका तीव्र विवेक । 72
नारी त्रिगुण स्वरूपिणी सत रज तम साकार,
हुआ प्रबल जो गुण, हुआ उसी तरह व्यवहार । 73
नजरें थीं सापेक्ष जब देखा आँख पसार,
अलग रूप हमको दिखा दुनिया का हर बार । 74
दिखती है दुनिया हमें अपनी रुचि अनुसार,
अपराधी को कठघरा दिखता है संसार । 75

रंग चुने हैं लोक ने कर वैचारिक जोख,
रंग जोगिया भक्ति का, ऋंगारिक है शोख । 76
लैला मजनूँ का हुआ प्रेम बहुत मशहूर,
तो भी उनसे रह गया पद पूजा का दूर । 77

ऋंगारी कवि ने किया प्रेयसियों का गान,
भोग्या में दिखला दिया देवी-सा पदमान । 78
राधा है बड़भागिनी भक्तों की आराध्य,
हुए भक्ति के नाम पर वर्णन बड़े असाध्य । 79
शब्दों में संस्कृति बसी, शब्द अर्थ के वाह,
क्या उत्कृष्ट, निकृष्ट क्या, मिल जाती है थाह । 80
वणिक हुआ कवि आज का बिक्री का अभ्यस्त,
अर्थ गुप्त रखने लगा होकर अर्थ परस्त । 81
संस्कृति की जड़ में बसा कीचड़ का संसार,
लगे पोसने में उसे धर्म और व्यापार । 82
इतने हैं वे वाकपटु इतने हैं गठजोड़,
लूट रहे हैं शान से लाखों लाख करोड़ । 83
कोई भी इस देश का हिन्दू सेवक-दास,
नहीं बना राजा कभी पढ़ देखा इतिहास । 84
ढीले बंधन जाति के थे जिस-जिस दौरान,
भारत पर असफल रहे, बाहर के अभियान। 85
मर्यादा का भान हो नीयत हो निष्पाप,
नहीं मानिये आप तब हिंसा में भी पाप। 86

गाँधी और रवीन्द्र
जन्मे दो दो युग-पुरुष, एक देश युग एक ।
युग ने दोनों का किया, मान सहित अभिषेक ।। 1 ।।
युग-वंदित युग-श्रेष्ठ द्वय, युग-दृष्टा द्वयमेव ।
पश्चिम के वे महात्मा, पूरब के गुरुदेव ।। 2।।
एक साथ दो दो उगे, भारत में आदित्य ।
देश-भक्ति जगमग हुई, ललित हुआ साहित्य ।।3।।
राष्ट्र-पिता इनका विरुद, उनका विरुद कवीन्द्र ।
मोहन मोहनदास गुण, रवि-गुण नाथ रवीन्द्र ।। 4।।
संत निहत्था पा गया सम्राटों पर जीत ।
कवि ने जीता जगत को भर अंजलि में गीत ।।5।।
गांधी ने दर्शन दिया किया अचूक प्रयोग ।
अभिजन को टैगोर का भाया भावालोक ।।6।।

धन आये ...
निर्धन दुखिया, धन बिना, धनिक दुखी, धन हेतु ।
इनकी धड़-गति राहु सी, उनकी सिर-गति केतु ॥1।
धन के बिन घरनी दुखी, दुखिया सधन ग्रहस्थ ।
वर भी वही वरेण्य जो, धनपति, राज-पदस्थ ॥2॥
धन आए लालच बढ़ा, पद पाए अभिमान ।
जिनका मन पर सन्तुलन, वे नर देव समान ॥3॥
धन पाए नीयत गई, पद पाए ईमान ।
धन पद बिना बधेल कब, कहा गया इन्सान ॥4॥
धन था नीयत नेक थी, धन की हुई न वृध्दि ।

पद भी था, ईमान भी, आई नहीं समृध्दि ॥5॥
धन साधन ऊँची पहुँच, या कि निकट सम्पर्क ।
गलत सही सच भी सही, झूठे तर्क वितर्क ॥6॥
श्रम, संयम के योग से, रचे गये इतिहास ।
भोग, असंयम ने किये, संस्कृतियों के नाश ॥7॥
साँठ गाँठ कर बच गया, था जिसका सब दोष।
अपराधी घोषित हुआ, बैठा जो खामोश ॥8॥
एक तरफ जनता खड़ी, एक तरफ थे सेठ ।
शासन सारा सेठ के, गया चरण में लेट ॥9॥
मन्दिर में की दण्डवत, ली गरीब की जान ।
मैं बघेल समझा नहीं, क्यों खुश था भगवान ॥10॥
मन्नत क्यों पूरी हुई, कर बकरे कुरबान ।
क्यों बघेल सुनता नहीं, करुण चीख रहमान ॥11॥
बोली तो बोली रही, झरती रही मिठास ।
बोली भाखी, बन गई, भाषा का इतिहास ॥12॥
अँगरेजी की जोर से, जब से चली दुकान ।
तब से ही सहमे डरे, हिन्दी के विद्वान ॥ 13॥
अँगरेजी के बन गए, ग्राहक सब अभिजात ।
हिन्दी के दर पर खड़े, बस गरीब-गुरबात ॥14॥
हर विदेश की चीज पर, देश रहा जब रीझ ।
क्यों उतारते लोग तब, अंगरेजी पर खीझ ॥15॥

श्रम करि थके न फल मिला, मन के मिटे न क्लेश ।
यदि बघेल फल चाहिये, आओ चलें विदेश ॥16॥

प्रतिभा झोली में लिए, मत भारत में डोल ।
कर जुगाड़ परदेश चल, वहीं मिलेगा मोल ॥17॥
जीवित है इस देश में, जाति-वंश-कुल वाद ।
किशनलाल की दिग्विजय, किसे आ रही याद ॥18॥
तन के सुन्दर बहुत ही, मन के बड़े मलीन ।
राजमहल तो पा गए, रहे सम्पदा-हीन ॥19॥
जमुना में विष घुला गया, उठे कालिया जाग।
तीर तीर काबिज हुए, फिर से नागर नाग ॥20॥

जिसकी लाठी उसकी भैंस..
जहाँ जहां घी दूध का, भारत में व्यवसाय ।
भैंस तबेलों में मिली, गोशाला में गाय ॥1॥
दुनिया भर में है यही , भारत देश अनूप ।
भैंसों भरोसे ही मिला, जहाँ दूध, घी, तूप ॥2॥
बिना दूध की भैंस को, खूँटे पर ही घास ।
गाय दुधारू दीखती, कचरे के भी पास ॥3॥
यम का वाहन है महिष, गौ में देव निवास ।
गोरों का यह मान है, कालों का उपहास ॥4॥
बल क्या भैंसों में नहीं, बैल कहाँ बलदूत ?
तो भी अभिनन्दित हुआ, गायों का ही पूत ॥5॥

सरल संयमी भैंस ही, गाय चतुर चालाक ।
गायों की तो भी जमीं, भोलेपन की धाक ॥6॥
मँहगी मिलती भैंस ही, सस्ती मिलती गाय ।
गौ माता है, मोल कम, यही लोक का न्याय ॥7॥

अधिक भैंस ही , गाय कम, जन-धन का आधार।
श्रध्दा पर भारी पड़ा, सदा लोक व्यवहार ॥8॥
गली मुहल्ले सड़क पर, खुली घूमतीं गाय ।
लाठी वाले घूमते , भैंस रहे हथियाय ॥9॥
नहीं मान बहुसंख्य का, अल्पसंख्य का मान ।
भैंसों के ही देश में, भैंस रही अनजान ॥10॥
(27-02-2007)

सूली पर इतिहास
(दोहा प्रबंध)
जिन कलमों ने लिख दिए, स्मृति-संहिता-पुराण,
वे सब की सब हो गईं, आज निरी निष्प्राण । 1
कलमें जो मशहूर थीं, क्यों हो गईं उदास ?
सूली पर जब चढ़ रहा, भारत का इतिहास । 2
पूजनीय ब्राह्मण जहाँ, माँ जैसी है गाय,
न्यौछावर होता जहाँ, इन पर जन समुदाय । 3

गो ब्राह्मण प्रतिपाल की, होतीं जय जयकार,
लिए जहाँ इस ही लिए , प्रभुओं ने अवतार । 4
तन मन धन देकर हरा, जिसने इनका क्लेश,
वह, इस धरती का हुआ, उतना बड़ा नरेश । 5
शिवा अहिल्या के यहाँ, होते थे यशगान,
कृष्ण यहीं पर बन गए, मानव से भगवान । 6

बुद्ध यहीं बुद्धू बने, विस्मृत हुआ अशोक,
कलमों ने लीकें रचीं, चलता आया लोक। 7
हिन्दू धर्मोद्धार की , रचकर नई मिसाल,
उभर चुका है एक अब, गो-ब्राह्मण प्रतिपाल । 8
पशुपालों का वंश फिर, फिर गरीब का पूत,
बनकर आया हिन्दुओं की सत्ता का दूत । 9
वह कसाइयों से लड़ा, और चुराईं गाय,
बाँटीं उनको ही मिले, जो गरीब असहाय। 10
आदिवासियों का जहाँ जीवन है बदहाल,
देश उड़ीसा है वहीं, होतीं मौत अकाल । 11
रोजगार है ही नहीं, अनपढ़ हैं सब लोग,
जिनकी केवल नियति है, भूख गरीबी रोग। 12
इस गरीब की आत्मा, रोई, उठी पुकार,
हे रवीन्द्र इस देह को, इन दुखितों पर वार । 13
किए असंभव काम कुछ, और किए उपकार,
दारासिंह हीरो हुआ, पाल रवीन्द्र कुमार । 14
बालक बूढ़े कर लिए, वनवासी एकत्र,
शिक्षा का करने लगा, वह प्रचार सर्वत्र । 15

आदिवासियों में हुआ, दारासिंह मशहूर ,
ख्याति फैलती ही गई, उसकी दूर सुदूर । 16
दारा का चलता रहा, जनसेवा का काम,
हिन्दू बनने लग गया, हर वनवासी ग्राम। 17
दूर दूर तक पा गई, जब यह बात प्रचार ,

जागे हिन्दू धर्म के, फिर से ठेकेदार । 18
चला चुके थे धर्म-रथ, जो थे हुए हताश ,
मन्दिर को मस्जिद बता, करवा चुके विनाश। 19
दीख गया इनके नया, चरागाह फिर पास,
मिले और साजिश रची, ली तरकीब तलाश । 20
एक विदेशी का वहीं, रहता था परिवार ,
कुष्ठ रोगियों का वहीं, करता था उपचार। 21
घर में देखा एक दिन, मौके की थी ताक,
दुष्टों ने बेटों सहित, किया जलाकर राख । 22
सफल हो गए विप्लवी, कर मनचाहा काम,
खबर छपी अखबार में, है दारा का काम। 23
आदिवासियों ने सुना, वे रह गए अवाक ,
प्राणि-दया का रूप है, दारा का मन, पाक। 24
है गरीब का जन्म ही धरती पर अभिशाप,
लगे गरीबों को, किए, जो औरों ने पाप। 25
पुलिस खोजती आ गई, हर कुटिया हर द्वार,
आदिवासियों का हुआ, जीना भी दुश्वार । 26

उन पर अब होने लगे, जमकर अत्याचार,
दारासिंह की आत्मा, फिर से उठी पुकार । 27
मर कर भी न बताएंगे, दारा से है नेह,
इन्हें बचा ले वार दे, दारा अपनी देह । 28
दारा पहुँचा एक दिन, स्वयं पुलिस के पास,
बनी बहादुर पुलिस ने, कैद किया इतिहास। 29

हिन्दू मानस में उठा, एक नया तूफान,
गैर-हिन्दुओं पर तने, हर कमान के बान। 30
अँगड़ाई लेकर उठी, धुर हिन्दुई हिलोर,
लगे चीखने जोर से, कुछ बौरे चहुँओर ।31
हुआ गोधरा, हो गया, गरबीला गुजरात,
लाशों के ऊपर मिली, सत्ता की सौगात।32
होती आईं , हो रहीं, हत्याएं दिन रात ,
हुए यहाँ नरमेध भी, आए दिन की बात ।33
क्षम्य ब्रह्महत्या हुईं, करें अगर वे लोग,
जिनके घर में पक रहे, राजनीति के भोग।34
सिंहासन दिलवा सकें, तथा करें सहयोग,
वे ही हैं इस देश के, अब रखवाले लोग।35
जिनको सत्ता से मिला, रक्षा का वरदान,
वे हत्यारे घूमते, दिखलाते हैं शान ।36
जुड़े हुए जिनके कहीं, सत्ता से हैं तार,
जा विदेश बसते वही, कर के नर संहार।37

उकसाते नरमेध जो, वे हैं सत्तासीन,
सजा पराए पाप की, भोग रहा धनहीन ।38
जनसेवक की जान को, कहाँ मिलेगा ठौर,
राजनीति खा जाएगी कितने दारा और ।39
कागज के वन पर चली, कलम लिखेगी न्याय,
सूली पर इतिहास है, कौन बचावे हाय ? 40
(ग्राहम स्टेन्स का आरोपित हत्यारा दारासिंह अपनी पृष्ठभूमि एवं
तथ्यों के आधार पर निर्दोष किन्तु धार्मिक षडयंत्र का शिकार
हुआ लगता है – गुवाहाटी में प्रकाशित - दैनिक सेन्टीनल में 18-10-2003

एवं दैनिक पूर्वांचल प्रहरी में 22-12-2003)