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सोमवार, 30 जुलाई 2018

शिव पर दोहे

शिव त्रिनेत्र से देखते, तीन काल-त्रैलोक.
जो घटता स्वीकारते, देखें सत्य विलोक.
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ग्यान-कर्म परिणाम क्या?, किसका-क्या शुभ-लाभ?
सर्व हितैषी सदा शिव, श्वेत श्याम नीलाभ.
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शिव न नगरवासी हुए, शिव का महल न भव्य.
दिशा दिवालें हो गईं, नील गगन छत नव्य.
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शिव संकल्प न छोड़ते, शिव न भूलते भाव,
हर अभाव स्वीकारना, शिव का सहज स्वभाव.
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शिव शंकर पर रीझ मन, हरि शंकर भज नित्य.
पूज उमा शंकर सलिल- रवि शंकर सान्निध्य.
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उमा अरुणिमा सूर्य शिव, हैं श्रद्धा-विश्वास.
श्वास-श्वास में बस रहे, बने आस-आवास.
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शिव सम्पद चाहें नहीं, शिव को भाता भाव.
मन रम जा शिव-भक्ति में, भागे भूत-अभाव.
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2.1.2018
शिव-परिवार न जन्मना, नहीं देह-संबंध.
स्नेह-भावना तंतुमय, है अनादि अनुबंध.
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शिवा-पुत्र शिव का नहीं, शिव लें अपना मान.
शिव-सुत अपनातीं शिवा, छिड़कें उस पर जान.
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वृषभ-बाघ दुश्मन मगर, संग भुलाकर बैर.
कुशल तभी जब मनाएँ, सदा परस्पर खैर.
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अमृत-विष शशि-सर्प भी, हैं विपरीत स्वभाव.
किंतु परस्पर प्रेम से, करते 'सलिल' निभाव.
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गजमुख गणपति स्थूल हैं, कार्तिक चंचल-धीर.
कोई किसी से कम नहीं, दोनों ही मति-धीर.
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गरल ताप को शांत कर, बही नर्मदा धार,
शिव-तनया सोमात्मजा दर्शन से उद्धार.
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शिव न शत्रुता पालते, रहते परम प्रसन्न.
रहते खाली हाथ पर, होते नहीं विपन्न.
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3.1.2018
शिव अनेक से एक हों, शिव हैं शुद्ध विवेक.
हों अनेक पुनि एक से, नेक न कभी अ-नेक.
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शिव ही सबके प्राण हैं, शिव में सबके प्राण.
धूनी रचा मसान में, शिव पल-पल संप्राण.
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शिव न चढावा चाहते, माँगें नहीं प्रसाद.
शिव प्रसन्न हों यदि करे, निर्मल मन फ़रियाद.
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शिव भोले हैं पर नहीं, किंचित भी नादान.
पछताते छलिया रहे, लड़े-गँवाई जान.
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हर भव-बाधा हर रहे, हर पल हर रह मौन.
सबका सबसे हित सधे, कहो ना चाहे कौन?
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सबका हित जो कर रहा, बिना मोह छल लोभ.
वह सच्चा शिवभक्त है, जिसे न हो भय-क्षोभ.
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शक्तिवान शिव, शक्ति हैं, शिव से भिन्न न दूर.
चित-पट जैसे एक हैं, ये कंकर वे धूर.
.....
4.1.2018

वृषभ सवारी कर हुए, शिव पशुओं के साथ।
पशुपति को जग पूजता, विनत नवाया माथ।।
*
कृषि करने में सहायक, वृषभ हुआ वरदान।
ऋषभनाथ शिव कहाए, सृजन सभ्यता महान।।
*
ऋषभ न पशु को मारते, सबसे करते प्रेम।
पंथ अहिंसक रच किया, सबका सबसे क्षेम।।
*
शिवा बाघ शिशु का बदल, हिंसक दुष्ट स्वभाव।
बना अहिंसक सवारी, करतीं नेक प्रभाव।।
*
वंशज मनुज को सभ्य कर, हर शंका कर दूर।
शिव शंकर होकर पुजे, पा श्रद्धा भरपूर।।
*
७.१.२०१८

शिव को पा सकते नहीं, शिव से सकें न भाग।
शिव अंतर्मन में बसे, मिलें अगर अनुराग।।
*
शिव को भज निष्काम हो, शिव बिन चले न काम।
शिव-अनुकंपा नाम दे, शिव हैं आप अनाम।।
*‍
वृषभ-देव शिव दिगंबर, ढंकते सबकी लाज।
निर्बल के बल शिव बनें, पूर्ण करें हर काज।।
*
शिव से छल करना नहीं, बल भी रखना दूर।
भक्ति करो मन-प्राण से, बजा श्वास संतूर।।
*
शिव त्रिनेत्र से देखते, तीन लोक के भेद।
असत मिटा, सत बचाते, करते कभी न भेद।।
*
१५.१.२०१८
एफ १०८ सरिता विहार, दिल्ली


शिव में खुद को देख मन, मनचाहा है रूप।
शिव को खुद में देख ले, हो जा तुरत अरूप।।
*
शिव की कर ले कल्पना, जैसी वैसा जान।
शिव को कोई भी कहाँ, कब पाया अनुमान?
*
शिव जैसे शिव मात्र हैं, शिव सा कोई न अन्य।
आदि-अंत, नागर सहज, सादि-सांत शिव वन्य।।
*
शिव से जग उत्पन्न हो, शिव में ही हो लीन।
शिवा शक्ति अपरा-परा, जड़-चेतन तल्लीन।।
*
'भग' न अंग,ऐश्वर्य षड, धर्म ज्ञान वैराग।
सुख समृद्धि यश समन्वित, 'लिंग' सृजन-अनुराग।।
*
राग-विराग समीप आ, बन जाते भगवान।
हों प्रवृत्ति तब भगवती, कर निवृत्ति का दान।।
*
ज्योति लिंग शिव सनातन, ज्योतिदीप हैं शक्ति।
दोनों एकाकार हो, देते भाव से मुक्ति।।
*
१७-१-२०१८

शिव अनंत ज्यों नील नभ, मिलता ओर न छोर।
विष पी अमृत बांटते, नील कण्ठ तमखोर।।
*
घनगर्जन स्वर रुदन सम, अश्रुपात बरसात।
रुद्र नाम दे भक्तगण, सुमिरें कहकर तात।।
*
सुबह-सांझ की लालिमा, बने नेत्र का रंग।
मिला नीललोहित विरुद, अनगिन तारे संग।।
*
चंद्र शीशमणि सा सजा, शशिशेखर दे नाम।
चंद्रनाथ शशिधर सदय, हैं बालेंदु अकाम।।
*
महादेव महनीय हैं, असुरेश्वर निष्काम।
देवेश्वर कमनीय को, करतीं उमा प्रणाम।।
*
जलधर विषधर अमियधर, ले त्रिशूल त्रिपुरारि।
डमरूधर नगनाथ ही, काममुक्त कामारि।।
*
विश्वनाथ समभाव से, देखें सबकी ओर।
कथनी-करनी फलप्रदा, अमिट कर्म की डोर।।
*
जो बोया सो काट ले, शिव का कर्म-विधान।
भेंट-चढ़ोत्री व्यर्थ है, करते नजर नादान।।
*
महाकाल निर्मम निठुर, भूले माया-मोह।
नहीं सत्य-पथ से डिगें, सहते सती-विछोह।।
*
करें ओम् का जप सतत, ओंकारेश्वर-भक्त।
सोमनाथ सौंदर्य प्रिय, चिदानंद अनुरक्त।।
*
शूलपाणि हर कष्ट सह, हॅंसकर करते नष्ट।
आपद से डरते नहीं, जीत करें निज इष्ट।।
*
२२.१.२०१८, जबलपुर

शिव हों, भाग न भोग से, हों न भोग में लीन।
योग साध लें भोग से, सजा साधना बीन।।
*
चाह एक की जो बने, दूजे की भी चाह।
तभी आह से मुक्ति हो, दोनों पाएं वाह।।
*
प्रकृति-पुरुष हैं एक में दो, दो में हैं एक।
दो अपूर्ण मिल पूर्ण हों, सुख दे-पा सविवेक।।
*
योनि जीव को जो मिली, कर्मों का परिणाम।
लिंग कर्म का मूल है, कर सत्कर्म अकाम।।
*
संग तभी सत्संग है, जब अभंग सह-वास।
संगी-संगिन में पले, श्रृद्धा सह विश्वास।
*
मन में मन का वास ही, है सच्चा सहवास।
तन समीप या दूर हो, शिथिल न हो आभास।।
*
मुग्ध रमणियों मध्य है, भले दिगंबर देह।
शिव-मन पल-पल शिवा का, बना हुआ है गेह।।
*
तन-मन-आत्मा समर्पण, कर होते हैं पूर्ण।
सतत इष्ट का ध्यान कर, खुद होते संपूर्ण।।
*
भक्त, भक्ति, भगवान भी, भिन्न न होते जान।
गृहणी, गृहपति, गृह रहें, एक बनें रसखान।।
*
शंका हर शंकारि शिव, पाकर शंकर नाम।
अंतर्मन में व्यापकर, पूर्ण करें हर काम।।
*
नहीं काम में काम हो, रहे काम से काम।
काम करें निष्काम हो, तभी मिले विश्राम।।
*
३१.१.२०१८, जबलपुर

कौर त्रिलोचन के हुए, गत अब आगत मीत।
उमा मौन हो देखतीं, जगत्पिता की प्रीत।।
*
यह अनुपम वह निरुपमा, गौर-बौरा साथ।
'सलिल' धन्य दर्शन मिले, जुड़े हाथ, नत माथ।।
*
शिव विद्येश्वर नित्य हैं, रुद्र उमेश्वर सत्य।
शिव अंतिम परिणाम हैं, शिव आरंभिक कृत्य।।
*
कैलाशी कैलाशपति, हैं पिनाकपति भूत।
भूतेश्वर शमशानपति, शिव हैं काल अभूत।।
*
शिव सतीश वागीश हैं, शिव सुंदर रागीश।
शून्य-अशून्य सुशील हैं, आदि नाद नादीश।।
*
शिव शंभू शंकर सुलभ, दुर्लभ रतिपतिनाथ।
नाथ अपर्णा के अगम, शिव नाथों के नाथ।।
*
शिव अनाथ के नाथ हैं, सचमुच भोलेनाथ।
बड़भागी है शीश वह, जिस पर शिव का हाथ।।
*
हाथ न शिव आते कभी, दशकंधर से जान।
हाथ लगाया खो दिया, सकल मान-सम्मान।।
*
नर्मदेश अखिलेश शिव, पर्वतेश गगनेश।
निर्मलेश परमेश प्रभु, नंदीश्वर नागेश।।
*
अनिल अनिल भू नभ सलिल, पंचतत्वपति ईश।
शिव गति-यति-लय छंद हैं, शंभु गिरीश हरीश।।
*
मंजुल मंजूनाथ शिव, गुरुओं को गुरुग्राम।
खास न शिव को पा सके, शिव को अतिप्रिय आम।।
*
आम्र मंजरी-धतूरा, अमिय-गरल समभाव।
शिव-प्रिय शशि है, सर्प भी, शिव में भावाभाव।।
*
भस्मनाथ शिव पुरातन, अति नवीन अति दिव्य।
सरल-सुगम सबको सुलभ, शिव दुर्लभ अति भव्य।।
*
१५-२-२०१८, ८.४५, एच ए १ महाकौशल एक्सप्रेस

***
दोहा में शिव तत्व
*
दोहा में शिव-तत्व है, दोहा भी शिव-तत्व।
'सलिल' न भ्रम यह पालना, दोहा ही शिव-तत्व।।
*
अजड़ जीव, जड़ प्रकृति सह, सृष्टि-नियंता मौन।
दिखते हैं पशु-पाश पर, दिखें न पशुपति, कौन?
*
अक्षर पशु ही जीव है, क्षर प्रकृति है पाश।
क्षर-अक्षर से परे हैं, पशुपति दिखते काश।।
*
पशुपति कुमार ही कृपा से, पशु को होता ज्ञान।
जान पाश वह मुक्त हो, कर पशुपति का ध्यान।।
*
पुरुषोत्तम पशुपति करें, निज माया से मुक्त।
माया-मोहित जीव पशु, प्रकृति मायायुक्त।।
*
क्षर प्रकृति अक्षर पुरुष, दोनों का जो नाथ।
पुरुषोत्तम शिव तत्व वह, जान झुकाकर माथ।।
*
है अनादि बिन अंत का, क्षर-अक्षर संबंध।
कर्मजनित अज्ञान ही, सृजे जन्म अनुबंध।।
*
माया शिव की शक्ति है, प्रकृति कहते ग्रंथ।
आच्छादित 'चिद्' जीव है, कर्म मुक्ति का पंथ।।
*
आच्छादक तम-तोम है, निज कल्पित लें मान।
शुद्ध परम शिव तम भरें, जीव करे सत्-भान।।
*
काल-राग-विद्या-नियति, कला भोगता जीव।‌
पुण्य-पाप सुख-दुख जनित, फल दें करुणासींव।।
*
मोह वासना अविद्या, जीव कर्म का मैल।
आत्मा का आश्रय गहे, ज्यों पानी पर तैल।।
*
कर्म-नाश हित भोग है, मात्र भोग है रोग।
जीव-भोग्या है प्रकृति, हो न भोग का भोग।।
*
शिव-अर्पित कर कर्म हर, शिव ही पल युग काल।
दशा, दिशा, गति, पंथ-पग, शिव के शिव दिग्पाल।।
*
३.३.२०१८



काम करें निष्काम हो, फल की करें न आस। श्री वास्तव में तब मिले, बुझे आत्म की प्यास।।
*
चित्र गुप्त होता प्रगट, देखें मन में झाँक। मैं तू यह वह एक हैं, सत्य कभी यह आँक।।
*
खरे काम का खरा ही, होता है परिणाम। जो खोटा उसका बुरा, आज न कल अंजाम।।
*
निगम न गम कर; थके बिन, कर ले सतत प्रयास। गिर उठ बढ़ता रह अथक, श्वास-श्वास मधुमास।।
*
शक-सेना का अंत कर, खुद पर कर विश्वास। सक्सेना की कोशिशें, दें अधरों को हास।।
*
भट है योद्धा पराक्रमी, नागर सबका मित्र।
लड़ता देश-समाज हित, उज्जवल रख निज चित्र।।
*
वही पूर्णिमा निरूपमा, जो दे जग उजियार। चंदा तारे नभ धरा, उस पर हों बलिहार।।
*
सूर्य उजाला देकर कहता शुभ प्रभात है। चिड़िया गाना गाकर कहती शुभ प्रभात है।। हम मानव कुछ करें सभी की ख़ातिर अच्छा- धरा पवन नभ सलिल कहें तब शुभ प्रभात है।।
*
समय ग्रन्थ के एक पृष्ठ को संजीवित कर आप रहे। बिंदु सिंधु में, सिंधु बिंदु में होकर नित प्रति व्याप रहे।। हर दिन जन्म नया होना है, रात्रि मूँदना आँख सखे! पैर धरा पर जमा, गगन छू आप सफलता नाप रहे।।
*
निरुपमा की उपमा कैसे शब्द कहेंगे? अपनी अक्षमता पर लज कर मौन रहेंगे।। कसे कसौटी पर कवि बार-बार शब्दों को- पूर्ण न तब भी, आंशिक ही कह 'वाह' गहेंगे।। *

लघुकथा: वेलेंटाइन

लघु कथा
वैलेंटाइन
*
'तुझे कितना समझाती हूँ, सुनता ही नहीं. उस छोरी को किसी न किसी बहाने कुछ न कुछ देता ही रहता है. इतने दिनों में तो बात आगे बढ़ी नहीं. अब तो उसका पीछा छोड़ दे'

"क्यों छोड़ दूँ? तेरे कहने से रोज सूर्य को जल देता हूँ न? फिर कैसे छोड़ दूँ?"

'सूर्य को जल देने से इसका क्या संबंध?'

"हैं न, देख सूर्य धरती को धूप की गिफ्ट देकर प्रोपोज करता हैं न?धरती माने या न माने सूरज धूप देना बंद तो नहीं करता. मैं सूरज की रोज पूजा करूं और उससे इतनी सी सीख भी न लूँ कि किसी को चाहो तो बदले में कुछ न चाहो, तो रोज जल चढ़ाना व्यर्थ हो जायेगा न? सूरज और धरती की तरह मुझे भी मनाते रहना है वैलेंटाइन."
*

basant

मुक्तक * श्वास-श्वास आस-आस झूमता बसन्त हो मन्ज़िलों को पग तले चूमता बसन्त हो भू-गगन हुए मगन दिग-दिगन्त देखकर लिए प्रसन्नता अनंत घूमता बसन्त हो * साथ-साथ थाम हाथ ख्वाब में बसन्त हो अँगना में, सड़कों पर, बाग़ में बसन्त हो तन-मन को रँग दे बासंती रंग में विहँस राग में, विराग में, सुहाग में बसन्त हो * अपना हो, सपना हो, नपना बसन्त हो पूजा हो, माला को जपना बसन्त हो मन-मन्दिर, गिरिजा, गुरुद्वारा बसन्त हो जुम्बिश खा अधरों का हँसना बसन्त हो * अक्षर में, शब्दों में, बसता बसन्त हो छंदों में, बन्दों में हँसता बसन्त हो विरहा में नागिन सा डँसता बसन्त हो साजन बन बाँहों में कसता बसन्त हो * मुश्किल से जीतेंगे कहता बसन्त हो किंचित ना रीतेंगे कहता बसन्त हो पत्थर को पिघलाकर मोम सदृश कर देंगे हम न अभी बीतेंगे कहता बसन्त हो * सत्यजित न हारेगा कहता बसन्त है कांता सम पीर मौन सहता बसंत है कैंसर के काँटों को पल में देगा उखाड़ नर्मदा निनादित हो बहता बसन्त है * मन में लड्डू फूटते आया आज बसंत गजल कह रही ले मजा लाया आज बसंत मिली प्रेरणा शाल को बोली तजूं न साथ सलिल साधना कर सतत छाया आज बसंत * वंदना है, प्रार्थना है, अर्चना बसंत है साधना-आराधना है, सर्जना बसंत है कामना है, भावना है, वायदा है, कायदा है मत इसे जुमला कहो उपासना बसंत है *

sarasvati

स्तवन
*
सरस्वती शारद ब्रम्हाणी!
जय-जय वीणा पाणी!!
*
अमल-धवल शुचि,
विमल सनातन मैया!
बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान
प्रदायिनी छैंया।
तिमिरहारिणी,
भयनिवारिणी सुखदा,
नाद-ताल, गति-यति
खेलें तव कैंया।
अनहद सुनवाई दो कल्याणी!
जय-जय वीणापाणी!!
*
स्वर, व्यंजन, गण,
शब्द-शक्तियां अनुपम।
वार्णिक-मात्रिक छंद
अनगिनत उत्तम।
अलंकार, रस, भाव,
बिंब तव चारण।
उक्ति-कहावत, रीति-
नीति शुभ परचम।
कर्मठ विराजित करते प्राणी
जय-जय वीणापाणी!!
*
कीर्ति-गान कर,
कलरव धन्य हुआ है।
यश गुंजाता गीत,
अनन्य हुआ है।
कल-कल नाद प्रार्थना,
अगणित रूपा,
सनन-सनन-सन वंदन
पवन बहा है।
हिंदी हो भावी जगवाणी
जय-जय वीणापाणी!!
*

navgeet

नवगीत: ढाई आखर संजीव * जिन्स बना बिक रहा आजकल ढाई आखर . दाँत दूध के टूट न पाये पर वयस्क हैं.औ नहीं सुंदरी नर्स इसलिए अनमयस्क हैं. चूस रहे अंगूठा लेकिन आँख मारते बाल भारती पढ़ न सके डेटिंग परस्त हैं हर उद्यान काम-क्रीड़ा हित इनको बाखर जिन्स बना बिक रहा आजकल ढाई आखर . मकरध्वज घुट्टी में शायद गयी पिलायी वात्स्यायन की खोज गर्भ में गयी सुनायी मान देह को माटी माटी से मिलते हैं कीचड किया, न शतदल कलिका गयी खिलायी मन अनजाना तन इनको केवल जलसाघर जिन्स बना बिक रहा आजकल ढाई आखर .
एक कथ्य चार छंद:
*
जनक छंद
फूल खिल रहे भले ही
गर्मी से पंजा लड़ा
पत्ते मुरझा रहे हैं
*
माहिया
चाहे खिल फूल रहे
गर्मी से हारे
पत्ते कुम्हलाय हरे.
*
दोहा
फूल भले ही खिल रहे, गर्मी में भी मौन.
पत्ते मुरझा रहे हैं, राहत दे कब-कौन.
*
सोरठा
गर्मी में रह मौन, फूल भले ही खिल रहे,
राहत दे कब-कौन, पत्ते मुरझा रहे हैं.
रोला
गर्मी में रह मौन, फूल खिल रहे भले ही.
राहत कैसे मिलेगी, पत्ते मुरझा रहे हैं.
*
११.६.२०१८, ७९९९५५९६१८

rajasthani doha

राजस्थानी दोहे -
मरवण रा दूहा/ दीनदयाल शर्मा
मखमल जेड़ी मोवणी, तिरछा-तिरछा नैण।
औलै छानै झांकिया, मरवण करसी सैण।।
जाडी बंटली जेवड़ी, पींग बांध पुंगराय।
मरवण हिंडै मोद में, ऊभलियां मचकाय।।
झीणी-झीणी कांचळी, घाघरियो घुमकाय।
आंगणियै में न्हांवती, मरवण घणी सुहाय।।
मुळकै थारा होठिया, नैणां कैवै बात।
मरवण थारी ओढणी, तारां छाई रात।।
मरवण थारो कयौड़ो, टाळ सकै नां कोय।
मरतै दम तांईं पूरसी, टुकड़ा करद्यो दोय।।
फोटू थारी फूटरी, भीतर लई मंढाय।
मरवण हिड़दै मांडली, मरियां साथै जाय।।
गजगामिनी गोरड़ी, गोरा-गोरा गा'ल।
मरवण मळता मोकळौ, गैरौ घणौ गुलाल।।
मरवण थूं मनभांवती, काळजियै री कोर।
सागौ थारौ सांतरौ, बंध्या पतंग ज्यू डोर।।

दोहा सलिला

शिव पर दोहे
*
शिव सत हैं; रहते सदा, असत-अशुचि से दूर।
आत्मलीन परमात्म हैं, मोहमुक्त तमचूर।।
*
शिव सोकर भी जागते, भव से दूर-अदूर।
उन्मीलित श्यामल नयन, करुणा से भरपूर।।
*
शिव में राग-विराग है, शिव हैं क्रूर-अक्रूर।
भक्त विहँस अवलोकते, शिव का अद्भुत नूर।।
*
शिव शव का सच जानते, करते नहीं गुरूर।
काम वाम जा दग्ध हो,  चढ़ता नहीं सुरूर।।
*
शिव न योग या भोग को, त्याग हुए मगरूर ।
सती सतासत पंथ चल, गहतीं सत्य जरूर।।
*
शिव से शिवा न भिन्न हैं, भेद करे जो सूर।
शिवा न शिव से खिन्न हैं, विरह नहीं मंजूर।।
*
शिव शंका के शत्रु हैं, सकल लोक मशहूर।
शिव-प्रति श्रद्धा हैं शिवा, ऐच्छिक कब मजबूर।।
*
शिव का चिर विश्वास हैं, शिवा भक्ति का पूर।
निराकार साकार हो, तज दें अहं हुजूर।।
*
शिव की नवधा भक्ति कर, तन-मन-धन है धूर।
नेह नर्मदा सलिल बन, हो संजीव मजूर।।
***
29.7.2018,7999559618

रविवार, 29 जुलाई 2018

मुक्तिका: प्राण जी

वरिष्ठ ग़ज़लकार प्राण शर्मा, लंदन के प्रति 
भावांजलि 
संजीव 
*
फूँक देते हैं ग़ज़ल में प्राण अक्सर प्राण जी 
क्या कहें किस तरह रचते हैं ग़ज़ल सम्प्राण जी
.
ज़िन्दगी के तजुर्बों को ढाल देते शब्द में
सिर्फ लफ़्फ़ाज़ी कभी करते नहीं हैं प्राण जी
.
सादगी से बात कहने में न सानी आपका
गलत को कहते गलत ही बिना हिचके प्राण जी
.
इस मशीनी ज़िंदगी में साँस ले उम्मीद भी
आदमी इंसां बने यह सीख देते प्राण जी
.
'सलिल'-धारा की तरह बहते रहे, ठहरे नहीं
मरुथलों में भी बगीचा उगा देते प्राण जी
***

२९.७.२०१७
salil.sanjiv@gmail.com
#दिव्यनर्मदा , #हिंदी_ब्लॉगर

पोएम: रिवर

Poem:
RIVER
Sanjiv
*
I wish to be a river.
Why do you laugh?
I'm not joking,
I really want to be a river>
Why?
Just because
River is not only a river.
River is civilization.
River is culture.
River is humanity.
River is divinity.
River is life of lives.
River is continuous attempt.
River is journey to progress.
River is never ending roar.
River is endless silence.
That's why river is called 'mother'.
That's why river is worshipped.
'Namami devi Narmade'.
River live for hunman
But human pollute it until it die.
I wish to
Live and die for others.
Bless mother earth with forests.
Finish the thrust.
Regenerate my energy
again and again.
That's why I wish to be a river.
***
26-7-2015
salil.sanjiv@gmail.com
#दिव्यनर्मदा
#हिंदी_ब्लॉगर

सुमेरु छंद

छंद परिचय : २ 
पहचानें इस छंद को, क्या लक्षण?, क्या नाम?
रच पायें तो रचें भी, मिले प्रशंसा-नाम..
*
भोग्य यह संसार हो तुझको नहीं 
त्याज्य भी संसार हो तुझको नहीं 
देह का व्यापार जो भी कर रहा 
गेह का आधार बिसरा मर रहा 
***
टीप: यह १९ मात्रिक छंद सुमेरु छंद है जिस पर उर्दू की बह्र फाइलातुं फाइलातुं फाइलुं (२१२२ २१२२ २१२) आधारित है। 
salil.sanjiv@gmail.com 
#दिव्यनर्मदा 
#हिंदी_ब्लॉगर

नवगीत

नवगीत :
संजीव
*
विंध्याचल की
छाती पर हैं
जाने कितने घाव
जंगल कटे
परिंदे गायब
धूप न पाती छाँव
*
ऋषि अगस्त्य की करी वन्दना
भोला छला गया.
'आऊँ न जब तक झुके रहो' कह
चतुरा चला गया.
समुद सुखाकर असुर सँहारे
किन्तु न लौटे आप-
वचन निभाता
विंध्य आज तक
हारा जीवन-दाँव.
*
शोण-जोहिला दुरभिसंधि कर
मेकल को ठगते.
रूठी नेह नर्मदा कूदी
पर्वत से झट से.
जनकल्याण करे युग-युग से
जगवंद्या रेवा-
सुर नर देव दनुज
तट पर आ
बसे बसाकर गाँव.
*
वनवासी रह गये ठगे
रण लंका का लड़कर.
कुरुक्षेत्र में बलि दी लेकिन
पछताये कटकर.
नाग यज्ञ कह कत्ल कर दिया
क्रूर परीक्षित ने-
नागपंचमी को पूजा पर
दिया न
दिल में ठाँव.
*
मेकल और सतपुड़ा की भी
यही कहानी है.
अरावली पर खून बहाया
जैसे पानी है.
अंग्रेजों के संग-बाद
अपनों ने भी लूटा

कोयल का स्वर रुद्ध
कर रहेे रक्षित 
कागा काँव
*
कह असभ्य सभ्यता मिटा दी
ठगकर अपनों ने.
नहीं कहीं का छोड़ा घर में
बेढब नपनों ने.
शोषण-अत्याचार द्रोह को
नक्सलवाद कहा-
वनवासी-भूसुत से छीने
जंगल
धरती-ठाँव.
*
२८-७-२०१५
salil.sanjiv@gmail.com
#दिव्यनर्मदा
#हिंदी_ब्लॉगर
लघुकथा
ज़हर 
संजीव
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--'टॉमी को तुंरत अस्पताल ले जाओ।' जैकी बोला।
--'जल्दी करो, फ़ौरन इलाज शुरू होना जरूरी है। थोड़ी सी देर भी घातक हो सकती है।' टाइगर ने कहा।
--'अरे! मुझे हुआ क्या है?, मैं तो बीमार नहीं हूँ फ़िर काहे का इलाज?' टॉमी ने पूछा।
--'क्यों अभी काटा नहीं उसे...?' जैकी ने पूछा।
--'काटा तो क्या हुआ? आदमी को काटना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है।'
--'है, तो किसी आदमी को काटता। तूने तो नेता को काट लिया। कमबख्त ज़हर चढ़ गया तो भाषण देने, धोखा देने, झूठ बोलने, रिश्वत लेने, घोटाला करने और न जाने कौन-कौन सी बीमारियाँ घेर लेंगी? बहस मत कर, जाकर तुंरत इलाज शुरू करा। जैकी ने आदेश के स्वर में कहा...बाकी कुत्तों ने सहमति जताई और टॉमी चुपचाप सर झुकाए चला गया इलाज कराने।
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salil.sanjiv@gmail.com
#दिव्यनर्मदा
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प्राक्कथन: जब से मन की नाव चली

    प्राक्कथन-
    "जब से मन की नाव चली" नवगीत लहरियाँ लगें भली
    आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"
    *
    गीतिकाव्य की अन्विति जीवन के सहज-सरस् रागात्मक उच्छवास से संपृकत होती है। "लय" गीति का उत्स है। खेत में धान की बुवाई करती महिलायें हों या किसी भारी पाषाण को ढकेलता श्रमिक दल, देवी पूजती वनिताएँ हों या चौपाल पर ढोलक थपकाते सावन की अगवानी करते लोक गायक बिना किसी विशिष्ट अध्ययन या प्रशिक्षण के "लय" में गाते-झूमते आनंदित होते हैं। बंबुलिया हो या कजरी, फाग हो या राई, रास हो या सोहर, जस हों या काँवर गीत जान-मन हर अवसर पर नाद, ताल और सुर साधकर "लय" की आराधना में लीन हो आत्मानंदित हो जाता है।
    यह "लय" ही वेदों का ''पाद'' कहे गए "छंद" का प्राण है। किसी ज्येष्ठ-श्रेष्ठ का आशीष पड़-स्पर्श से ही प्राप्त होता है। ज्ञान मस्तिष्क में, ज्योति नेत्र में, प्राण ह्रदय मे, बल हाथ में होने पर भी "पाद" बिना संचरण नहीं हो सकता। संचरण बिना संपर्क नहीं, संपर्क बिना आदान-प्रदान नहीं, इसलिए "पिंगल"-प्रणीत छंदशास्त्र वेदों का पाद है। आशय यह की छन्द अर्थात "लय" साढ़े बिना वेदों की ऋचाओं के अर्थ नहीं समझे जा सकते। जनगण ने आदि काल से "लय" को साधा जिसे समझकर नियमबद्ध करते हुए "पिंगलशास्त्र" की रचना हुई। लोकगीति नियमबद्ध होकर छन्द और गीत हो गयी। समयानुसार बदलते कथ्य-तथ्य को अगीकार करती गीत की विशिष्ट भावभंगिमा "नवगीत" कही गयी।
    स्वतन्त्रता पश्चात सत्तासीन दल ने एक विशेष विचारधारा के प्रति आकर्षण वश उसके समर्थकों को शिक्षा संस्थानों में वरीयता दी। फलत: योजनाबद्ध तरीके से विकसित होती हिंदी साहित्य विधाओं में लेखन और मानक निर्धारण करते समय उस विचारधारा को थोपने का प्रयास कर समाज में व्याप्त विसंगति, विडंबना अतिरेकी दर्द, पीड़ा, वैमनस्य, टकराव, ध्वंस आदि को नवगीत, लघुकथा, व्यंग्य तथा दृश्य माध्यमों नाटक, फिल्म आदि में न केवल वरीयता दी गयी अपितु समाज में व्याप्त सौहार्द्र, सद्भाव, राष्ट्रीयता, प्रकृति-प्रेम, सहिष्णुता, रचनात्मकता को उपेक्षित किया गया। इस विचारधारा से बोझिल होकर तथाकथित प्रगतिशील कविता ने दम तोड़ दिया जबकि गीत के मरण की छद्म घोषणा करनेवाले भले ही मर गए हों, गीत नव चेतना से संप्राणित होकर पुनर्प्रतिष्ठित हो गया। अब प्रगतिवादी गीत की नवगीतीय भाव-भंगिमा में घुसपैठ करने के प्रयास में हैं। वैदिक ऋचाओं से लेकर संस्कृत काव्य तक और आदिकाल से लेकर छायावाद तक लोकमंगल की कामना को सर्वोपरि मानकर रचनाकर्म करते गीतकारों ने ''सत-शिव-सुन्दर'' और ''सत-चित-आनंद'' की प्राप्ति का माध्यम ''गीत'' और ''नवगीत'' को बनाये रखा।
    यह सत्य है कि जब-जब दीप प्रज्वलित किया जाता है, 'तमस' उसके तल में आ ही जाता है किन्तु आराधना 'उजास' की ही की जाती है। इस मर्म को जान और समझकर रचनाकर्म में प्रवृत्त रहनेवाले साहित्य साधकों में वीर भूमि राजस्थान की शिक्षा नगरी कोटा के डॉ. गोपालकृष्ण भट्ट "आकुल" की कृति "जब मन की नाव चली" की रचनाएँ आश्वस्त करती हैं कि तमाम युगीन विसंगतियों पर उनके निराकरण के प्रयास और नव सृजन की जीजीविषा भारी है।
    कल था मौसम बौछारों का / आज तीज औ' त्योहारों का
    रंग-रोगन बन्दनवारों का / घर-घर जा बंजारन नित
    इक नवगीत सुनाती जाए।
    यह बनजारन क्या गायेगी?, टकराव, बिखराव, द्वेष, दर्द या हर्ष, ख़ुशी, उल्लास, आशा, बधाई? इस प्रश्न के उठते में ही नवगीत का कथ्य इंगित होगा। आकुल जी युग की पीड़ा से अपरिचित नहीं हैं।
    कलरव करते खग संकुल खुश / अभिनय करते मौसम भी खुश
    समय-चक्र का रुके न पहिया / प्रेम-शुक्र का वही अढैया
    छोटी करने सौर मनुज की / फिर फुसलायेगा इस बार
    'ढाई आखर' पढ़ने वाले को पण्डित मानाने की कबीरी परंपरा की जय बोलता कवि विसंगति को "स्वर्णिक मृग, मृग मरीचिका में / फिर दौड़ाएगा इस बार" से इंगित कर सचेत भी करता है।
    महाभारत के महानायक करना पर आधारित नाटक प्रतिज्ञा, गीत-ग़ज़ल संग्रह पत्थरों का शहर, काव्य संग्रह जीवन की गूँज, लघुकथा संग्रह अब रामराज्य आएगा, गीत संग्रह नव भारत का स्वप्न सजाएँ रच चुके आकुल जी के ४५ नवगीतों से समृद्ध यह संकलन नवगीत को साम्यवादी चश्मे से देखनेवालों को कम रुचने पर भी आम पाठकों और साहित्यप्रेमियों से अपनी 'कहन' और 'कथ्य' के लिए सराहना पायेगा।
    आकुल जी विपुल शब्द भण्डार के धनी हैं। तत्सम-तद्भव शब्दों का यथेचित प्रयोग उनके नवगीतों को अर्थवत्ता देता है। संस्कृत निष्ठ शब्द (देवोत्थान, मधुयामिनी, संकुल, हश्र, मृताशौच, शावक, वाद्यवृंद, बालवृन्द, विषधर, अभ्यंग, भानु, वही, कृशानु, कुसुमाकाशी, उदधि, भंग, धरणीधर, दिव्यसन, जाज्वल्यमान, विलोड़न, द्रुमदल, झंकृत, प्रत्यंचा, जिगीषा, अतिक्रम संजाल, उच्छवासा, दावानल, जठरानल, हुतात्मा, संवत्सर, वृक्षावलि, इंदीवर आदि), उर्दू से गृहीत शब्द (रिश्ते, कदम, मलाल, शिकवा, तहजीब, शाबाशी, अहसानों, तल्ख, बरतर, मरहम, बरकत, तबके, इंसां, सहर, ज़मीर, सगीर, मन्ज़िल, पेशानी, मनसूबे, जिरह, ख्वाहिश, उम्मीद, वक़्त, साजिश, तमाम, तरफ, पयाम, तारिख, असर, ख़ामोशी, गुज़र आदि ), अंग्रेजी शब्द (स्वेटर, कोट, मैराथन, रिकॉल आदि), देशज शब्द (अँगना, बिजुरिया। कौंधनि, सौर, हरसे, घरौंदे, बिझौना, अलाई, सैं, निठुरिया, चुनरिया, बिजुरिया, उमरिया, छैयाँ आदि) रचनाओं में विविध रंग-वर्ण की सुमनों की तरह सुरुचिपूर्वक गूँथे गये हैं। कुछ कम प्रचलित शब्द-प्रयोग के माध्यम से आकुल जी पाठक के शब्द-भण्डार को को समृद्ध करते हैं।
    मुहावरे भाषा की संप्रेषण शक्ति के परिचायक होते हैं। आकुल जी ने 'घर का भेदी / कहीं न लंका ढाए', 'मिट्टी के माधो', 'अधजल गगरी छलकत जाए', 'मत दुखती रग कोई आकुल' जैसे प्रयोगों से अपने नवगीतों को अलंकृत किया है। इन नवगीतों में शब्द-युग्मों का प्रयोग सरसता में वृद्धि करता है। कस-बल, रंग-रोगन, नार-नवेली, विष-अमरित, चारु-चन्द्र, घटा-घनेरी, जन-निनाद, बेहतर-कमतर, क्षुण्ण-क्षुब्ध, भक्ति-भाव, तकते-थकते, सुख-समृद्धि, लुटा-पिटा,बाग़-बगीचे, हरे-भरे, ताल-तलैया, शाम-सहर, शिकवे-जिले, हार-जीत, खाते-पीते, गिरती-पड़ती, छल-कपट, आब-हवा, रीति-रिवाज़, गर्म-नाज़ुक, लोक-लाज, ऋषि-मुनि-सन्त, गंगा-यमुनी, द्वेष-कटुता आदि ऐसे शब्द युग्म हैं जिन्हें अलग करने पर दोनों भाग सार्थक रहते हैं जबकि कनबतियाँ, छुटपुट, गुमसुम आदि को विभक्त करने पर एक या दोनों भाग अर्थ खो बैठते हैं। ऐसे प्रयोग रचनाकार की भाषिक प्रवीणता के परिचायक हैं।
    इन नवगीतों में अन्त्यानुप्रास अलंकारों का प्रयोग निर्दोष है। 'मनमथ पिघला करते', नील कंठ' आदि में श्लेष अलंकार का प्रयोग है। पहिया-अढ़ईया, बहाए-लगाये-जाए, जतायें-सजाएँ, भ्रकुटी-पलटी-कटी जैसे अंत्यानुप्रासिक प्रयोग नवता की अनुभूति कराते हैं। लाय, कलिंदी, रुत, क्यूँ, सुबूह, पैंजनि, इक, हरसायेगी, सरदी, सकरंत, ढाँढस आदि प्रयोग प्रचलित से हटकर किये गए हैं। दूल्हा राग बसन्त, आल्हा राग बसन्त, मेघ बजे नाचे बिजुरी, जिगिषा का दंगल, पीठ अलाई गीले बिस्तर, हाथ बिझौना रात न छूटे जैसे प्रयोग आनंदित करते हैं।
    आकुल जी की अनूठी कहन 'कम शब्दों में अधिक कहने' की सामर्थ्य रखती है। नवगीतों की आधी पंक्ति में ही वे किसी गंभीर विषय को संकेतित कर मर्म की बात कह जाते हैं। 'हुई विदेशी अब तो धरती', 'नेता तल्ख सवालों पर बस हँसते-बँचते', 'कितनी मानें मन्नत घूमें काबा-काशी', 'कोई तो जागृति का शंख बजाने आये',वेद पुराण गीता कुरआन / सब धरे रेहल पर धूल चढ़ी', 'मँहगाई ने सौर समेटी', 'क्यूँ नारी का मान न करती', 'आये-गये त्यौहार नहीं सद्भाव बढ़े', 'किसे राष्ट्र की पड़ी बने सब अवसरवादी', 'शहरों की दीवाली बारूदों बीच मनाते', 'वैलेंटाइन डे में लोग वसंतोत्सव भूले', अक्सर लोग कहा करते हैं / लोक-लुभावन मिसरे', समय भरेगा घाव सभी' आदि अभिव्यक्तियाँ लोकोक्तियों की तरह जिव्हाग्र पर आसीन होने की ताब रखती हैं।
    उलटबाँसी कहने की कबीरी विरासत 'चलती रहती हैं बस सड़कें, हम सब तो बस ठहरे-ठहरे' जैसी पंक्तियों में दृष्टव्य है। समय के सत्य को समझ-परखकर समर्थों को चेतावनी देने के कर्तव्य निभाने से कवि चूका नहीं है- 'सरहदें ही नहीं सुलग रहीं / लगी है आग अंदर भी' क्या इस तरह की चेतावनियों को वे समझ सकेंगे, जिनके लिए इन्हें अभिव्यक्त किया गया है ? नहीं समझेंगे तो धृतराष्ट्री विनाश को आमन्त्रित करेंगे।आकुल जी ने 'अंगद पाँव अनिष्ट ने जमाया है', कर्मण्य बना है वो, पढ़ता रहा जो गीता' की तरह मिथकों का प्रयोग यथावसर किया है। वे वरिष्ठ रचनाकार हैं।
    हिंदी छंद के प्रति उनका आग्रह इन नवगीतों को सरस बनाता है। अवतारी जातीय दिगपाल छंद में पदांत के लघु गुरु गुरु में अंतिम गुरु के स्थान पर कुछ पंक्तियों में दो लघु लेने की छूट उन्होंने 'किससे क्या है शिकवा' शीर्षक रचना में ली है। 'दूल्हा राग बसन्त' शीर्षक नवगीत का प्रथम अंतरा नाक्षत्रिक जातीय सरसी छंद में है किन्तु शेष २ अंतरों में पदांत में गुरु-लघु के स्थान पर गुरु-गुरु कर दिया गया है। 'खुद से ही' का पहले - तीसरा अंतरा महातैथिक जातीय रुचिर छन्द में है किन्तु दुआरे अंतरे में पदांत के गुरु के स्थान पर लघु आसीन है। संभवत: कवि ने छन्द-विधान में परिवर्तन के प्रयोग करने चाहे, या ग़ज़ल-लेखन के प्रभाव से ऐसा हुआ। किसी रचना में छंद का शुद्ध रूप हो तो वह सीखने वालों के लिये पाठ हो पाती है।
    आकुल जी की वरिष्ठता उन्हें अपनी राह आप बनाने की ओर प्रेरित करती है। नवगीत की प्रचलित मान्यतानुसार 'हर नवगीत गीत होता है किन्तु हर गीत नवगीत नहीं होता' जबकि आकुल जी का मत है ''सभी गीत नवगीत हो सकते हैं किन्तु सभी नवगीत गीत नहीं कहे जा सकते" (नवभारत का स्वप्न सजाएँ, पृष्ठ ८)। यहाँ विस्तृत चर्चा अभीष्ट नहीं है पर यह स्पष्ट है कि आकुल जी की नवगीत विषयक धारणा सामान्येतर है। उनके अनुसार "कविता छान्दसिक स्वरूप है जिसमें मात्राओं का संतुलन उसे श्रेष्ठ बनाता है, जबकि गीत लय प्रधान होता है जिसमें मात्राओं का सन्तुलन छान्दसिक नहीं अपितु लयात्मक होता है। गीत में मात्राओं को ले में घटा-बढ़ाकर सन्तुलित किया जाता है जबकि कविता मात्राओं मन ही सन्तुलित किये जाने से लय में पीढ़ी जा सकती है। इसीलिये कविता के लिए छन्दानुशासन आवश्यक है जबकि 'गीत' लय होने के कारण इस अनुशाशन से मुक्त है क्योंकि वह लय अथवा ताल में गाया जाकर इस कमी को पूर्ण कर देता है। गीत में भले ही छन्दानुशासन की कमी रह सकती है किन्तु शब्दों का प्रयोग लय के अनुसार गुरु व् लघु वर्ण के स्थान को अवश्य निश्चित करता है जो छन्दानुशासन का ही एक भाग है, जिसकी कमी से गीत को लयबद्ध करने में मुश्किलें आती हैं।" (सन्दर्भ उक्त)
    ''जब से मन की नाव चली'' के नवगीत आकुल जी के उक्त मंतव्य के अनुसार ही रचे गए हैं। उनके अभिमत से असहमति रखनेवाले रचनाकार और समीक्षक छन्दानुशासन की कसौटी पर इनमें कुछ त्रुटि इंगित करें तो भी इनका कथ्य इन्हें ग्रहणीय बनाने के लिए पर्याप्त है। किसी रचना या रचना-संग्रह का मूल्यांकन समग्र प्रभाव की दृष्टि से करने पर ये रचनाएँ सारगर्भित, सन्देशवाही, गेयात्मक, सरस तथा सहज बोधगम्य हैं। इनका सामान्य पाठक जगत में स्वागत होगा। समीक्षकगण चर्चा के लिए पर्याप्त बिंदु पा सकेंगे तथा नवगीतकार इन नवगीतों के प्रचलित मानकों के धरातल पर अपने नवगीतों के साथ परखने का सुख का सकेंगे। सारत: यह कृति विद्यार्थी, रचनाकार और समीक्षक तीनों वर्गों के लिए उपयोगी होगी।
    आकुल जी की वरिष्ठ कलम से शीघ्र ही अन्य रचनारत्नों की प्राप्ति की आशा यह कृति जगाती है। आकुल जी के प्रति अनंत-अशेष शुभकामनायें।
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    संपर्क समन्वय २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, दूरलेख salil.sanjiv@gmail.com,
    दूरवार्ता ९४२५१ ८३२४४ / ०७६१ २४१११३१
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दोहा


    सद्गुरु ओशो ज्ञान दें, बुद्धि प्रदीपा ज्योत
    रवि-शंकर खद्योत को, कर दें हँस प्रद्योत 
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sanjiv



हिंदी और हिंदी डॉ. महावीर सरन जैन

विमर्श:
हिंद और हिंदी 
डॉ. महावीर सरन जैन 
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ईरान की प्राचीन भाषा अवेस्ता में ‘स्’ ध्वनि नहीं बोली जाती थी। ‘स्’ को ‘ह्’ रूप में बोला जाता था। जैसे संस्कृत के ‘असुर’ शब्द को वहाँ ‘अहुर’ कहा जाता था। अफ़गानिस्तान के बाद सिन्धु नदी के इस पार हिन्दुस्तान के पूरे इला़के को प्राचीन फ़ारसी साहित्य में भी ‘हिन्द’, ‘हिन्दुश’ के नामों से पुकारा गया है। यहाँ की किसी भी वस्तु, भाषा, विचार को ‘एडजेक्टिव’ के रूप में ‘हिन्दीक’ कहा गया है जिसका मतलब है ‘हिन्द का’। यही ‘हिन्दीक’ शब्द अरबी से होता हुआ ग्रीक में ‘इंदिके’, ‘इंदिका’, लैटिन में ‘इंदिया’ तथा अंग्रेजी में इंडिक, ‘इंडिया’ बन गया। यह हिन्दी एवं इंडिया शब्दों की व्युत्पत्ति का भाषा-वैज्ञानिक इतिहास है।
अवेस्ता तथा ‘डेरियस के शिलालेख’ में ( ५२२ से ४८६ ईस्वी पूर्व ) में ‘हिन्दु’ शब्द का प्रयोग ‘सिंध’ के समीपवर्ती क्षेत्र के निवासियों के लिए हुआ है। ‘हिन्द’ शब्द धीरे धीरे भारत में रहने वाले निवासियों तथा फिर पूरे भारत के लिए होने लगा। भारत की भाषाओं के लिए ‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग मिलता है। ईरान के बादशाह नौशेरवाँ के काल में ( ५३१ - ५७९ ईस्वी ) उसके एक दरबारी कवि द्वारा संस्कृत भाषा के ‘पंचतंत्र’ के ईरानी भाषा ‘पहलवी’ में किए गए अनुवाद ‘कलीलहउदिमना’ में पंचतंत्र की भाषा को ‘जबान-ए-हिन्दी’ कहा गया है। सातवीं शताब्दी में महाभारत के कुछ अंशों का पहलवी में अनुवाद करने वाले विद्वान ने मूल भाषा को ‘जबान-ए-हिन्दी’ कहा है। दसवीं शताब्दी में अब्दुल हमीद ने भी पंचतंत्र की भाषा को ‘हिन्दी’ कहा है। तेरहवीं शताब्दी में मिनहाजुस्सिराज द्वारा अपने ग्रन्थ ‘तबकाते नासरी’ में भारतीय देसी भाषाओं के लिए ‘जबाने हिन्दी’ शब्द का प्रयोग किया है। इस प्रकार दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी तक अरबी एवं फारसी साहित्य में भारत में बोली जाने वाली ज़बानों के लिए ‘ज़बान-ए-हिन्दी’ लफ्ज़ का प्रयोग हुआ है। भारत आने के बाद मुसलमानों ने ‘ज़बान-ए-हिन्दी’, ‘हिन्दी जुबान’ अथवा ‘हिन्दी’ का प्रयोग दिल्ली-आगरा के चारों ओर बोली जाने वाली भाषा के अर्थ में किया। भारत के गैर-मुस्लिम लोग तो इस क्षेत्र में बोले जाने वाले भाषा-रूप को ‘भाखा’ नाम से पुकराते थे, ‘हिन्दी’ नाम से नहीं। कबीरदास की प्रसिद्ध काव्य पंक्ति है– संस्कृत है कूप जल, भाखा बहता नीर। (संस्कृत तो कुए के पानी की तरह है। भाखा बहते पानी की तरह है।)
जिस समय मुसलमानों का यहाँ आना शुरु हुआ उस समय भारत के इस हिस्से में साहित्य-रचना शौरसेनी अपभ्रंश में होती थी। बाद में डिंगल साहित्य रचा गया। मुग़लों के काल में अवधी तथा ब्रज में साहित्य लिखा गया। आधुनिक हिन्दी साहित्य की जो जुबान है, उस जुबान ‘हिन्दवी’ को आधार बनाकर रचना करनेवालों में सबसे पहले रचनाकार का नाम अमीर खुसरो है जिनका समय १२५३ ई0 से १३२५ ई0 के बीच माना जाता है। ये फ़ारसी के भी विद्वान थे तथा इन्होंने फ़ारसी में भी रचनाएँ लिखीं मगर ‘हिन्दवी’ में रचना करने वाले ये प्रथम रचनाकार थे। इनकी अनेक पहेलियाँ इसका प्रमाण है। उदाहरण के लिए खुसरो की दो रचनाएँ प्रस्तुत हैं।
(१) क्या जानूँ वह कैसा है?, जैसा देखा वैसा है।
(२) एक नार ने अचरज किया। साँप मारि पिंजड़े में दिया।
अमीर खुसरो ने अपनी भाषा को ‘हिन्दवी’ कहा है। एक जगह उन्होने लिखा है जिसका भाव है कि मैं हिन्दुस्तानी तुर्क हूँ, हिन्दवी में जवाब देता हूँ। ( उनकी मूल पंक्ति इस प्रकार है: ‘तुर्क हिन्तुस्तानियम हिन्दवी गोयम जवाब’)