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बुधवार, 25 नवंबर 2015

नवगीत:

नवगीत:
संजीव 
*
वैलेंटाइन 
चक्रवात में 
तिनका हुआ
वसन्तोत्सव जब,
घर की नींव
खोखली होकर
हिला रही दीवारें जब-तब.
*
हम-तुम
देख रहे खिड़की के
बजते पल्ले
मगर चुप्प हैं.
दरवाज़ों के बाहर
जाते डरते
छाये तिमिर घुप्प हैं.
अन्तर्जाली
सेंध लग गयी
शयनकक्ष
शिशुगृह में आया.
जसुदा-लोरी
रुचे न किंचित
पूजागृह में
पैग बनाया.
इसे रोज
उसको दे टॉफी
कर प्रपोज़ नित
किसी और को,
संबंधों के
अनुबंधों को
भुला रही सीत्कारें जब-तब.
वैलेंटाइन
चक्रवात में
तिनका हुआ
वसन्तोत्सव जब,
घर की नींव
खोखली होकर
हिला रही दीवारें जब-तब.
*
पशुपति व्यथित
देख पशुओं से
व्यवहारों की
जय-जय होती.
जन-आस्था
जन-प्रतिनिधियों को
भटका देख
सिया सी रोती.
मन 'मॉनीटर'
पर तन 'माउस'
जाने क्या-क्या
दिखा रहा है?
हर 'सीपीयू'
है आयातित
गत को गर्हित
बता रहा है.
कर उपयोग
फेंक दो तत्क्षण
कहे पूर्व से
पश्चिम वर तम
भटकावों को
अटकावों को
भुना रही चीत्कारें जब-तब.
वैलेंटाइन
चक्रवात में
तिनका हुआ
वसन्तोत्सव जब,
घर की नींव
खोखली होकर
हिला रही दीवारें जब-तब.
*

चर्चा:

अमीर का बयान मेरा दृष्टिकोण दोषी पत्रकार

भाई तिल का ताड़ बनाने की पत्रकारों की आदत इस तरह की बेसिर- पैर की बातें फैलाती रहती है.

आमिर और उसकी बीबी क्या बात करते हैं यह आमिर को कहाँ नहीं चाहिए, कह दी तो वहीं ख़त्म हो जानी चाहिए। पत्नी की शंका का समर्थन तो आमिर ने किया नहीं। हिन्दू पत्नी को चिंता और मुसलमान पति बेफिक्र लेकिन लोगों ने उसे कठघरे में खड़ा कर ही दिया। सवाल पूछना है तो किरण राव से पूछो।

पत्नी को शंका क्यों हुई? पत्रकारों द्वारा असहिष्णुता की झोथी कहानियाँ फ़ैलाने के कारण।

न मैं पहले आमिर का समर्थक था न अब विरोधी हूँ. विडम्बना यह है कि देश का निर्माण करनेवाले, खोज करनेवाले, रक्षा करनेवाले, पढ़ानेवाले, अन्न उपजानेवाले इन पत्रकारों के लिए महत्वपूर्ण नहीं होते। इनके लिए महत्वपूर्ण होते हैं अपराध करनेवाले, खेलनेवाले, अभिनय करनेवाले, और शासन करने वाले । इनके लिए रोटी, कपडा, मकान और शिक्षा से पहले मनोरंजन है. यह न होता तो ऐसी बेसिर-पैर की बातें क्यों पैदा हों?

rasanand de chhnad namada 7


रसानंद दे छंद नर्मदा: ७ 



दोहा है रस-खान 

गौ भाषा को दूह कर, कर दोहा-पय पान 
शेष छंद रस-धार है, दोहा है रस-खान  

रसः काव्य को पढ़ने या सुनने से मिलनेवाला आनंद ही रस है। काव्य मानव मन में छिपे भावों को जगाकर रस की अनुभूति कराता है। भरत मुनि के अनुसार "विभावानुभाव संचारी संयोगाद्रसनिष्पत्तिः" अर्थात् विभाव, अनुभाव व संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। रस के ४ अंग स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव व संचारी भाव हैं-


स्थायी भावः मानव ह्र्दय में हमेशा विद्यमान, छिपाये न जा सकनेवाले, अपरिवर्तनीय भावों को स्थायी भाव कहा जाता है।


रस            श्रृंगार हास्य करुण रौद्र   वीर     भयानक वीभत्स  अद्भुत   शांत   वात्सल्य
स्थायी भाव  रति   हास  शोक  क्रोध उत्साह    भय       घृणा  विस्मय निर्वेद शिशु प्रेम

विभावः
किसी व्यक्ति के मन में स्थायी भाव उत्पन्न करनेवाले कारण को विभाव कहते हैं। व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति भी विभाव हो सकती है। ‌विभाव के दो प्रकार आलंबन व उद्दीपन हैं। ‌

आलंबन विभाव के सहारे रस निष्पत्ति होती है। इसके दो भेद आश्रय व विषय हैं ‌

आश्रयः जिस व्यक्ति में स्थायी भाव स्थिर रहता है उसे आश्रय कहते हैं। ‌शृंगार रस में नायक नायिका एक दूसरे के आश्रय होंगे।‌


विषयः जिसके प्रति आश्रय के मन में रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न हो, उसे विषय कहते हैं ‌ "क" को "ख" के प्रति प्रेम हो तो "क" आश्रय तथा "ख" विषय होगा।‌

उद्दीपन विभाव- आलंबन द्वारा उत्पन्न भावों को तीव्र करनेवाले कारण उद्दीपन विभाव कहे जाते हैं। जिसके दो भेद बाह्य वातावरण व बाह्य चेष्टाएँ हैं। वन में सिंह गर्जन सुनकर डरनेवाला व्यक्ति आश्रय, सिंह विषय, निर्जन वन, अँधेरा, गर्जन आदि उद्दीपन विभाव तथा सिंह का मुँह फैलाना आदि विषय की बाह्य चेष्टाएँ हैं ।

अनुभावः आश्रय की बाह्य चेष्टाओं को अनुभाव या अभिनय कहते हैं। भयभीत व्यक्ति का काँपना, चीखना, भागना आदि अनुभाव हैं। ‌

संचारी भावः आश्रय के चित्त में क्षणिक रूप से उत्पन्न अथवा नष्ट मनोविकारों या भावों को संचारी भाव कहते हैं। भयग्रस्त व्यक्ति के मन में उत्पन्न शंका, चिंता, मोह, उन्माद आदि संचारी भाव हैं। मुख्य ३३ संचारी भाव निर्वेद, ग्लानि, मद, स्मृति, शंका, आलस्य, चिंता, दैन्य, मोह, चपलता, हर्ष, धृति, त्रास, उग्रता, उन्माद, असूया, श्रम, क्रीड़ा, आवेग, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अवमर्ष, अवहित्था, मति, व्याथि, मरण, त्रास व वितर्क हैं।

रस
अ. श्रृंगार रस : स्थाई भाव रति श्रृंगार रस के दो प्रकार संयोग तथा वियोग हैं

संयोगः 
तुमने छेड़े प्रेम के, ऐसे राग हुजूर 
बजते रहते हैं सदा, तन-मन में संतूर। -अशोक अंजुम, नई सदी के प्रतिनिधि दोहाकार

द्वैत भुला अद्वैत वर, बजा रहे हैं बीन 
कौन कह सके कौन है, कबसे किसमें लीन। -सलिल   


वियोगः
हाथ छुटा तो अश्रु से, भीग गये थे गाल ‌
गाड़ी चल दी देर तक, हिला एक रूमाल - चंद्रसेन "विराट", चुटकी चुटकी चाँदनी

देख रहे कुछ और हैं, दीख रहा कुछ और 
उन्मन मन करा रहा है, चित्तचोर पर गौर। - सलिल  


हास्य रस : स्थाई भाव हास 
आफिस में फाइल चले, कछुए की रफ्तार ‌
बाबू बैठा सर्प सा, बीच कुंडली मार।        राजेश अरोरा"शलभ", हास्य पर टैक्स नहीं

लालू-लीला देखिये, लिए राबड़ी गोद
सारा चारा चर गए, कहते किया विनोद।  - सलिल 


व्यंग्यः
अंकित है हर पृष्ठ पर, बाँच सके तो बाँच ‌
सोलह दूनी आठ है, अब इस युग का साँच। -जय चक्रवर्ती, संदर्भों की आग

नेता जी को रेंकते, देख गधा नाराज
इन्हें गधा मत बोलिए, भले पहन लें ताज। -सलिल 


करुण रस : स्थाई भाव शोक 
हाय, भूख की बेबसी, हाय, अभागे पेट ‌
बचपन चाकर बन गया, धोता है कप-प्लेट- डॉ. अनंतराम मिश्र 'अनंत', उग आयी फिर दूब

चिंदी-चिंदी चीर से, ढाँक रही है लाज
गड़ी शर्म से जा रही,धरती में बिन व्याज। - सलिल   


रौद्र रस : स्थाई भाव क्रोध

बलि का बकरा मत बनो, धम-धम करो न व्यर्थ
दाँत तोड़ने के लिए, जन-जन यहाँ समर्थ।       - डॉ. गणेशदत्त सारस्वत, नई सदी के प्रतिनिधि दोहाकार 
शिखर कारगिल पर मचल, फड़क रहे भुजपाश ‌
जान हथेली पर लिये, अरि को करते लाश     -सलिल


वीर रस : स्थाई भाव उत्साह   
रणभेरी जब-जब बजे, जगे युद्ध संगीत ‌
कण-कण माटी का लिखे, बलिदानों के गीत। - डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा "यायावर", आँसू का अनुवाद

नेट जेट को पीटते, रचते नव इतिहास
टैंकों की धज्जी उड़ा, सैनिक करते हास - सलिल   


भयानक रस : स्थाई भाव भय      
उफनाती नदियाँ चलीं, क्रुद्ध खोलकर केश ‌
वर्षा में धारण किया, रणचंडी का वेश।   - आचार्य भगवत दुबे, शब्दों के संवाद

काल बनीं काली झपट, घातक किया प्रहार
लहू उगलता गिर गया, दानव कर चीत्कार। -सलिल 


वीभत्स रस : स्थाई भाव घृणा


हा, पशुओं की लाश को, नोचें कौए गिद्ध ‌
खुश जनता का खून पी, नेता अफसर सिद्ध। -सलिल


अद्भुत रस : स्थाई भाव विस्मय 
पांडुपुत्र ने उसी क्षण, उस तन में शत बार ‌
पृथक-पृथक संपूर्ण जग, देखे विविथ प्रकार।-डॉ. उदयभानु तिवारी 'मधुकर', श्री गीता मानस


विस्मय से आँखें फटीं, देखा मायाजाल
काट-जोड़, वापिस किया, पल में जला रुमाल। -सलिल 


शांतः स्थाई भाव निर्वेद 
जिसको यह जग घर लगे, वह ठहरा नादान ‌
समझे इसे सराय जो, वह है चतुर सुजान-डॉ. श्यामानंद सरस्वती 'रौशन', होते ही अंतर्मुखी


हर्ष-शोक करना नहीं, रखना राग न द्वेष
पंकज सम रह पंक में, पा सुख-शांति अशेष। -सलिल   


वात्सल्यः स्थाई भाव शिशु प्रेम
छौने को दिल से लगा, हिरनी चाटे खाल ‌
पान करा पय मनाती, चिरजीवी हो लाल। -सलिल


भक्तिः स्थाई भाव विराग
दूब दबाये शुण्ड में, लंबोदर गजमुण्ड ‌
बुद्धि विनायक हे प्रभो!, हरो विघ्न के झुण्ड। -भानुदत्त त्रिपाठी "मधुरेश", दोहा कुंज

वंदे भारत-भारती, नभ भू दिशा दिगंत
मैया गौ नर्मदा जी, सदय रहें शिव कंत  -सलिल   


रसराज दोहा में हर रस को भली-भांति अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य है। इसलिए इसे महाकाव्यों में अन्य छंदों के साथ गूँथकर कथाक्रम को विस्तार दिया जाता है। राम चरित मानस में तुलसीदास जी ने चौपाई के बीच में दोहा का प्रयोग किया है। दोहा में पचास, शतक, सतसई और सहस्त्रई लिखने की परंपरा है। किसी और छंद को यह सौभाग्य प्राप्त नहीं है
-------------------- निरंतर 
-समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४  

navgeet mahotsav 2015

आँखों देखा - 
द्विदिवसीय नवगीत महोत्सव लखनऊ २१-२२ नवंबर २०१५ 

'ऐ शहरे-लखनऊ तुझे मेरा सलाम है' कहते हुए मैं चित्रकूट एक्सप्रेस से रामकिशोर दाहिया, सुवर्णा दीक्षित तथा रोहित रूसिया के साथ २- नवंबर २०१५ को सवेरे १० बजे चारबाग स्टेशन पर उतरा। 

फैजाबाद मार्ग पर गोमती नगर में पॉलीटेक्निक के समीप कालिंदी विहार के १० वें तल पर अभिव्यक्ति विश्वं का प्रतिष्ठा पर्व 'नवगीत महोत्सव' श्री प्रवीण सक्सेना तथा श्रीमती पूर्णिमा बर्मन के संरक्षकत्व में संपन्न होने की तैयारियाँ अंतिम चरण में मिलीं. गत वर्ष पूर्णिमा जी के माता-पिता दोनों का आशीष पाया था, इस वर्ष सिर्फ पिताश्री का आशीष मिल सका, माता जी इहलोक से बिदा हो चुकी हैं. प्रवीण जी तथा पूर्णिमा जी दोनों तन से बीमार किन्तु मन से पूरी तरह स्वस्थ और तन मन धन समय और ऊर्जा सहित समर्पित हैं इस सारस्वत अनुष्ठान हेतु। नवगीतों के पोस्टरों से दीवारें सुसज्जित हैं. सुवर्णा और रोहित आते ही जुट गये सांस्कृतिक प्रस्तुतियों की तैयारी में। कल्पना रामानी जी अपनी रुग्णता के बावजूद पूर्णिमा जी का हाथ बन गयी हैं। शशि पुरवार जी के आते ही पूर्णिमा जी के हाथों का बल बढ़ गया है। 
२१ नवंबर: 

प्रातः ९ बजे- दीप प्रज्वलन सर्व श्री / श्रीमती राधेश्याम बन्धु दिल्ली, डॉ. रामसनेही लाल शर्मा यायावर फिरोजाबाद, डॉ. उषा उपाध्याय अहमदाबाद, पूर्णिमा जी, डॉ. जगदीश व्योम नोएडा, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जबलपुर, डॉ. मालिनी गौतम महीसागर ने गीतिका वेदिका के कोकिल कंठी स्वर में गुञ्जित हो रही सरस्वती वंदना के मध्य किया। 
प्रथम सत्र में पूर्णिमा बर्मन जी की माता श्री तथा श्रीकांत मिश्र जी के अवदान को समारं करते हुए उन्हें मौन श्रृद्धांजलि दी गयी। नवोदित नवगीतकारों द्वारा नवगीतों की प्रस्तुति पश्चात् उन पर वरिष्ठ नवगीतकारों मार्गदर्शन के अंतर्गत गीतिका वेदिका दिल्ली को रामकिशोर दाहिया कटनी, शुभम श्रीवास्तव 'ॐ' मिर्ज़ापुर को आचार्य संजीव वर्मा ;सलिल' जबलपुर, रावेन्द्र 'रवि' खटीमा को राधेश्याम बंधु दिल्ली, रंजना गुप्ता लखनऊ को डॉ. रणजीत पटेल मुजफ्फरपुर,
आभा खरे लखनऊ को गणेश गंभीर मिर्ज़ापुर भावना तिवारी लखनऊ को मधुकर अष्ठाना लखनऊ तथा शीला पाण्डे लखनऊ को बंधु जी द्वारा परामर्श दिया गया। सत्रांत के पूर्व डॉ. यायावर ने नवगीत तथा गीत के मध्य की विभाजक रेखा को विरल बताते हुए कहा की किसी मेनिफेस्टो के अनुसार नवगीत नहीं लिखा जा सकता। नवगीत को गीत का विरोधी नहीं पूरक बताते हुए वक्ता ने नवगीत के समय सापेक्षी न होने, शहरी होने, नवगीत पर पर्याप्त शोध - समीक्षा न होने की धारणाओं से असहमति व्यक्त की।
द्वितीय सत्र में वरिष्ठ नवगीतकारों सर्व श्री / श्रीमती मालिनी गौतम, गणेश गंभीर, रामकिशोर दाहिया, रणजीत पटेल, देवेन्द्र शुक्ल 'सफल', विनोद निगम, डॉ. यायावर, राधेश्याम बन्धु, मधुकर अष्ठाना आदि ने नवगीत पाठ किया।  

तृतीय सत्र में सर्वश्री रोहित रसिया, सुवर्णा दीक्षित आदि ने मनमोहक सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किये।

२२ नवंबर:

प्रातः १० बजे अकादमिक शोधपत्र वाचन के अंतर्गत कुमार रविन्द्र की कृति 'पंख बिखरे रेत पर' पर  कल्पना रामानी, निर्मल शुक्ल की कृति 'एक और अरण्य काल' पर शशि पुरवार तथा 'गुजराती गीतों की प्रवृत्तियाँ' पर डॉ. उषा उपाध्याय के वक्तव्य सराहे गए।  

अपरान्ह पंचम सत्र में नवगीत संकलन विमोचन तथा समीक्षा के अंतर्गत अंजुरी भर प्रीति - रजनी मोरवाल पर कुमार रविन्द्र, अल्लाखोह मची - रामकिशोर दाहिया पर आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', सदी को सुन रहा हूँ मैं - जयकृष्ण 'तुषार' पर शशि पुरवार, चार दिन फागुन के - रामशंकर वर्मा पर मधुकर अष्ठाना, समय की आँख - विनय मिश्र पर डॉ. मालिनी गौतम झील अनबुझी प्यास की - डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर' पर निर्मल शुक्ल, गौरैया का घर खोया है - अश्वघोष पर डॉ. जगदीश व्योम द्वारा लिखित समीक्षाओं का वाचन किया गया।
अभिव्यक्ति विश्वम द्वारा नवगीत के सृजन, समीक्षा, नव मंगीतकारों के मार्गदर्शन आदि क्षेत्रों में महत्वपूर्म भूमिका का निर्वाण करनेवाले व्यक्तित्वों को नवांकुर पुरस्कार से पुरस्कृत किया जाता है जिसमें प्रशस्ति पत्र, स्मृति चिन्ह तथा ग्यारह हजार रुपये की नगद धनराशि होती है। 
कल्पना रामानी, रोहित रूसिया तथा ओमप्रकाश तिवारी के पश्चात २०१५ का अभिव्यक्ति पुष्पम पुरस्कार २०१५ सृजन, समीक्षा, मार्गदर्शन के क्षेत्रों में निरंतर सक्रिय रहकर महत्वपूर्ण भूमिका निर्वहन हेतु आचार्य संजीव वर्मा सलिल को भेंट किया गया। 
षष्ठम सत्र में 'बातचीत' के अंतर्गत डॉ. भारतेंदु मिश्र, डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर', डॉ. जगदीश व्योम, विनोद निगम, मधुकर अष्ठाना, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', गणेश गंभीर, डॉ. रणजीत पटेल आदि ने नवगीत के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला। प्रश्नोत्तर के साथ इस सारगर्भित सत्र का समापन हुआ। 

अंतिम सत्र में आगंतुकों तथा स्थानीय साहित्यकारों द्वारा काव्यपाठ के साथ इस देर रात इस महत्वपूर्ण  सारस्वत अनुष्ठान का समापन हुआ।
हिंदी नवगीत पर केन्द्रित इस आयोजन का वैशिष्ट्य नवगीत तथा अन्य विधाओं के मध्य रचना सेतु निर्माण है. नवगीत, संगीत, नृत्य, चित्रकला, छायांकन, फिल्मांकन तथा समीक्षा के सात रंगों से निर्मित इन्द्रधनुषों की सुषमा मन-प्राण आल्हादित कर देती है और यह आयोजन सरोजन के उच्चतम स्तर को स्पर्श कर पाता है। आगामी आयोजनों में लिप्यंतरण और अनुवाद के आयाम जोडकर इसे और अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है। बिना किसी अन्य सहायता के स्वसंचित साधनों से इस स्तर और पैमाने पर कार्यक्रम का आयोजन कर पाना वाकई बहुत कठिन होता है. पूर्णिमा जी तथा प्रवीण जी न ही नहीं उनका पूरा परिवार जिस समर्पण भाव से अपने साधन ही नहीं अपने आपको भी झोंककर इसे समपान करते हैं। वे वस्तुत: साधुवाद के पात्र हैं।

***
नवोदित नवगीतकार श्री शिवम् श्रीवास्तव 'ॐ' के नवगीतों पर टिप्पणी, चर्चित नवगीतकार श्री रामकिशोर दाहिया के नवगीत संग्रह 'अल्लाखोह मची' पर समीक्षा, नवगीत के बदलते मानकों पर सारगर्भित चर्चा में सहभागिता, १८ पठनीय पुस्तकों की प्राप्ति तथा अभिव्यक्ति विश्वं के निर्माणाधीन भवन के अवलोकन गत वर्ष की तरह अभियंता के रूप में बेहतर निर्माण व उपयोग के सुझाव दे पाने लिये यह सारस्वत अनुष्ठान चिस्मरणीय है। लगभग ५० वर्षों बाद श्री विनोद निगम जी का आशीष पाया। श्री सुरेश उपाध्याय तथा विनोद जी की कवितायेँ शालेय जीवन में पढ़-सुन कर ही काव्य के प्रति रूचि जगी। दोनों विभूतियों को नमन।

नवगीत महोत्सव लखनऊ के पूर्ण होने पर 
एक रचना: 
                         फिर-फिर होगा गीत पर्व यह 
                         *
                         दूर डाल पर बैठे पंछी 
                         नीड़ छोड़ मिलने आये हैं 
                         कलरव, चें-चें, टें-टें, कुहू 
                         गीत नये फिर गुंजाये हैं 
                         कुछ परंपरा,कुछ नवीनता 
                         कुछ अनगढ़पन,कुछ प्रवीणता 
                         कुछ मीठा,कुछ खट्टा-तीता
                         शीत-गरम, अब-भावी-बीता 
                         ॐ-व्योम का योग सनातन
                         खूब सुहाना मीत पर्व यह 
                         फिर-फिर होगा गीत पर्व यह 
                         *
                                    सुख-दुःख, राग-द्वेष बिसराकर
                                    नव आशा-दाने बिखराकर 
                                    बोयें-काटें नेह-फसल मिल 
                                    ह्रदय-कमल भी जाएँ कुछ खिल 
                                    आखर-सबद, अंतरा-मुखड़ा 
                                    सुख थोड़ा सा, थोड़ा दुखड़ा 
                                    अपनी-अपनी राम कहानी 
                                    समय-परिस्थिति में अनुमानी 
                                    कलम-सिपाही ह्रदय बसायें 
                                    चिर समृद्ध हो रीत, पर्व यह 
                                    फिर-फिर होगा गीत पर्व यह 
                                    *
                                                 मैं-तुम आकर हम बन पायें 
                                                 मतभेदों को विहँस पचायें 
                                                 कथ्य शिल्प रस भाव शैलियाँ 
                                                 चिंतन-मणि से भरी थैलियाँ 
                                                 नव कोंपल, नव पल्लव सरसे 
                                                 नव-रस मेघा गरजे-बरसे 
                                                 आत्म-प्रशंसा-मोह छोड़कर 
                                                 परनिंदा को पीठ दिखाकर 
                                                 नये-नये आयाम छू रहे 
                                                 मना रहे हैं प्रीत-पर्व यह 
                                                 फिर-फिर होगा गीत पर्व यह 
                                                 ********

बुधवार, 18 नवंबर 2015

laghukatha

लघुकथा: 

सहिष्णुता 

*
'हममें से किसी एक में अथवा सामूहिक रूप से हम सबमें कितनी सहिष्णुता है यह नापने, मापने या तौलने का कोई पैमाना अब तक ईजाद नहीं हुआ है. कोई अन्य किसी अन्य की सहिष्णुता का आकलन कैसे कर सकता है? सहिष्णुता का किसी दल की हार - जीत अथवा किसी सरकार की हटने - बनने से कोई नाता नहीं है. किसी क्षेत्र में कोई चुनाव हो तो देश असहिष्णु हो गया, चुनाव समाप्त तो देेश सहिष्णु हो गया, यह कैसे संभव है?' - मैंने पूछा। 

''यह वैसे हो संभव है जैसे हर दूरदर्शनी कार्यक्रमवाला दर्शकों से मिलनेवाली कुछ हजार प्रतिक्रियाओं को लाखों बताकर उसे देश की राय और जीते हुए उम्मीदवार को देश द्वारा चुना गया बताता है, तब तो किसी को आपत्ति नहीं होती जबकि सब जानते हैं कि ऐसी प्रतियोगिताओं में १% लोग भी भाग नहीं लेते।'' - मित्र बोला। 

''तुमने जैसे को तैसा मुहावरा तो सुना ही होगा। लोक सभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार ने ढेरों वायदे किये, जितने पर उनके दलाध्यक्ष ने इसे 'जुमला' करार दिया, यह छल नहीं है क्या? छल का उत्तर भी छल ही होगा। तब जुमला 'विदेशों में जमा धन' था, अब 'सहिष्णुता' है. जनता दोनों चुनावों में ठगी गयी।  

इसके बाद भी कहीं किसी दल अथवा नेता के प्रति उनके अनुयायियों में असंतोष नहीं है, धार्मिक संस्थाएँ और उनके अधिष्ठाता समाज कल्याण का पथ छोड़ भोग-विलास और संपत्ति - अर्जन को ध्येय बना बैठे हैं फिर भी उन्हें कोई ठुकराता नहीं, सब सर झुकाते हैं, सरकारें लगातार अपनी सुविधाएँ और जनता पर कर - भार बढ़ाती जाती हैं, फिर भी कोई विरोध नहीं होता, मंडियां बनाकर किसान को उसका उत्पाद सीधे उपभोक्ता को बेचने से रोक जाता है और सेठ जमाखोरी कर सैंकड़ों गुना अधिक दाम पर बेचता है तब भी सन्नाटा .... काश! न होती हममें या सहिष्णुता।'' मित्र ने बात समाप्त की। 
                                                                     ---------------