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सोमवार, 26 अक्टूबर 2015

prateep alankar

अलंकार सलिला: २५ 
प्रतीप अलंकार
*













*
अलंकार में जब खींचे, 'सलिल' व्यंग की रेख.
चमत्कार सादृश्य का, लें प्रतीप में देख..

उपमा, अनन्वय तथा संदेह अलंकार की तरह प्रतीप अलंकार में भी सादृश्य का चमत्कार रहता है, अंतर यह है कि उपमा की अपेक्षा इसमें उल्टा रूप दिखाया जाता है यह व्यंग पर आधारित सादृश्यमूलक अलंकार है प्रसिद्ध उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान सिद्ध कर चमत्कारपूर्वक उपमेय या उपमान की उत्कृष्टता दिखाये जाने पर प्रतीप अलंकार होता हैजब उपमेय के समक्ष उपमान का तिरस्कार किया जाता है तो प्रतीप अलंकार होता है

प्रतीप अलंकार के ५ प्रकार हैं

उदाहरण-

१. प्रथम प्रतीप:

जहाँ प्रसिद्ध उपमान को उपमेय के रूप में वर्णित किया जाता है अर्थात उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान बनाकर। 

उदाहरण-

१. यह मयंक तव मुख सम मोहन 

२. है दाँतों की झलक मुझको दीखती दाडिमों में.
    बिम्बाओं में पर अधर सी राजती लालिमा है.
    मैं केलों में जघन युग की देखती मंजुता हूँ.
    गुल्फों की सी ललित सुखमा है गुलों में दिखाती

३. वधिक सदृश नेता मुए, निबल गाय सम लोग 
    कहें छुरी-तरबूज या, शूल-फूल संयोग? 

२. द्वितीय प्रतीप:

जहाँ प्रसिद्ध उपमान को अपेक्षाकृत हीन उपमेय कल्पित कर वास्तविक उपमेय का निरादर किया जाता है

उदाहरण-

१. नृप-प्रताप सम सूर्य है, जस सम सोहत चंद 

२. का घूँघट मुख मूँदहु नवला नारि.
    चाँद सरग पर सोहत एहि अनुसारि

३. बगुला जैसे भक्त भी, धारे मन में धैर्य 
   बदला लेना ठनकर, दिखलाते निर्वैर्य  

3. तृतीय प्रतीप:


जहाँ प्रसिद्ध उपमान का उपमेय के आगे निरादर होता है

उदाहरण-

१. काहे करत गुमान मुख?, तुम सम मंजू मयंक 

२. मृगियों ने दृग मूँद लिए दृग देख सिया के बांके.
    गमन देखि हंसी ने छोडा चलना चाल बनाके.
    जातरूप सा रूप देखकर चंपक भी कुम्हलाये.
    देख सिया को गर्वीले वनवासी बहुत लजाये.

३. अभिनेत्री के वसन देख निर्वासन साधु शरमाये
    हाव-भाव देखें छिप वैश्या, पार न इनसे पाये  
   

४. चतुर्थ प्रतीप:

जहाँ उपमेय की बराबरी में उपमान नहीं तुल/ठहर पाता है, वहाँ चतुर्थ प्रतीप होता है

उदाहरण-

१. काहे करत गुमान ससि! तव समान मुख-मंजु।

२. बीच-बीच में पुष्प गुंथे किन्तु तो भी बंधहीन 
    लहराते केश जाल जलद श्याम से क्या कभी?
    समता कर सकता है
    नील नभ तडित्तारकों चित्र ले?

३. बोली वह पूछा तो तुमने शुभे चाहती हो तुम क्या?
    इन दसनों-अधरों के आगे क्या मुक्ता हैं विद्रुम क्या?

४. अफसर करते गर्व क्यों, देश गढ़ें मजदूर?
    सात्विक साध्वी से डरे, देवराज की हूर   

५. पंचम प्रतीप:

जहाँ उपमान का कार्य करने के लिए उपमेय ही पर्याप्त होता है और उपमान का महत्व और उपयोगिता व्यर्थ हो जाती है, वहाँ पंचम प्रतीप होता है

उदाहरण-

१.  का सरवर तेहि देऊँ मयंकू 

२. अमिय झरत चहुँ ओर से, नयन ताप हरि लेत.
    राधा जू को बदन अस चन्द्र उदय केहि हेत..

३. छाह करे छितिमंडल में सब ऊपर यों मतिराम भ हैं.
    पानिय को सरसावत हैं सिगरे जग के मिटि ताप गए हैं.
    भूमि पुरंदर भाऊ के हाथ पयोदन ही के सुकाज ठये हैं.
    पंथिन के पथ रोकिबे को घने वारिद वृन्द वृथा उनए हैं.

४. क्यों आया रे दशानन!, शिव सम्मुख ले क्रोध 
    पाँव अँगूठे से दबा, तब पाया सत-बोध  
    

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utpreksha ke prakar

अलंकार सलिला: २४
उत्प्रेक्षा के प्रकार
*

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उत्प्रेक्षा के ३ भेद (प्रकार) होते हैं- १. वस्तूत्प्रेक्षा, २. हेतूत्प्रेक्षा तथा ३. फलोत्प्रेक्षा।








१. वस्तूत्प्रेक्षा: जब एक वस्तु या व्यक्ति में दूसरी वस्तु की सम्भावना (उपस्थिति की अभिव्यक्ति) की जाती है तब वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार होता है।

उदाहरण:

१. हरखि ह्रदय दशरथ-पुर आई। जनु गृह-दशा दुःसह दुखदाई।।

यहाँ अयोध्या की दुस्सह गृह-दशा में सरस्वती की सम्भावना की गयी है।

२. लखन मंजु मुनिमंडली, मध्य सीय-रघुचंद।
ज्ञान-सभा जनु तनु धरे, भगति सच्चिदानंद।।

यहाँ मुनि-मंडली में ज्ञान सभा की, सीता में भक्ति की और राम में सच्चिदानंद की संभावना की गयी है।

३. प्रात-समय उठि सोवत हरि को, बदन उघार् यो नंद।
स्वच्छ सेज में ते मुख निकस्यो, गयो तिमिर मिटि मंद।।
मानो मथि पय सिंधु फेन फटि, दरिस दिखायो चंद।

यहाँ स्वच्छ शैया में क्षीर-सागर की,चद्दर में फेन की और कृष्ण-मुख में शांद्रमा की संभावना की गयी है। देवों द्वारा सागर-मंथन करने पर जैसे चन्द्रमा निकला वैसे ही नन्द द्वारा सफ़ेद चद्दर हटाने से श्री कृष्ण का मुख दिखाई दिया।

४. नारी में दुर्गा दिखी, किया तुरंत प्रणाम।
नाम रखो तुम कह रहीं, देखे 'सलिल' अनाम।।

५. केश-लट में
सरसराती हुई
नागिन दिखी।

२. हेतूत्प्रेक्षा: जब अहेतु में हेतु की सम्भावना की जाती है अर्थात जब उसे कारण मान लिया जाता है जो वस्तुत: कारण नहीं होता तब हेतूत्प्रेक्षा अलंकारहोता है।

उदाहरण:

१. अरुण भये कोमल चरण भुवि चलिबें ते मानु।

कोमल चरण मानो पृथ्वी पर चलने से लाल (सूरज की तरह) हो गए। चरण प्राकृतिक रूप से लाल होने पर भी धरती पर चलने से लाल होने कीकी संभावना की गयी है अर्थात जो कारण नहीं है उसे कारण कहा गया है।

२. मुख सम नहिं याते मनों चंदहि छाया छाय।

मानो चंद्रमा मुख के समान नहीं है, इसलिए उसे कालिमा छाये रहती है। चंद्रमा पर कालिमा छाये राख्ने का कारण उसका मुख-समान न होना नहीं है किन्तु कहा गया है।

३. मुख सम नहिं यातें कमल मनु जल रह्यो छिपाइ।

जल में कमल के छिपने का कारण उसका मुख के समान न होना नहीं होने पर भी मान लिया गया है। इसलिए हेतूत्प्रेक्षा है।

४. सोवत सीतानाथ के, भृगु मुनि दीनी लात।
भृगुकुल-पति की गति हरी, मनो सुमिरि वह बात।।

५. अकस्मात् साहित्य के, लौटाते ईनाम।
सामाजिक टकराव का, कहते हैं परिणाम।।

३. फलोत्प्रेक्षा: जो उद्देश्य परिणाम या फल न हो किन्तु मान लिया किन्तु मान लिया जाए तो फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है। अफल में फल की सम्भावना फलोत्प्रेक्षा अलंकार है।

१. तव पद समता को कमल, जल-सेवत एक पाँव
तुम्हारे चरणों की समता पाने के लिए कमल एक पैर (कमल नाल) पर खड़ा होकर जल की सेवा कर रहा है।कमल नाल पर खिले कमल का उद्देश्य तप कर चरणों की समानता पाना न होने पर भी मान लिया गया है, इसलिए फलोत्प्रेक्षा है।

२. रोज अन्हात है छीरधि में ससि, तव मुख की समता लहिवे को।

३. शिव से समता के लिये, दुर्गा रखे त्रिनेत्र ।

४. लड़ें चुनाव
जनसेवा के हेतु
नेता औ' दल।

५. नक्सलवाद
गरीब जनता का
रण निनाद
शासन के विरुद्ध,
विषमता मिटाने।
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फलोत्प्रेक्षा और हेतूत्प्रेक्षा में अंतर:

काव्य में वर्णित कार्य या क्रिया किस उद्देश्य से करी जा रही है? इस प्रश्न का उत्तर मिले तो फलोत्प्रेक्षा अलंकार होगा अन्यथा हेतूत्प्रेक्षा।

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शनिवार, 24 अक्टूबर 2015

रसानंद दे छंद नर्मदा ३

रसानंद दे छंद नर्मदा : ३  

दोहा अविरल धार   

- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

लगभग ३००० साल प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्र के अनुसार काव्य ऐसी रचना है जिसके शब्दों-अर्थों में दोष कदापि न हों, गुण अवश्य हों चाहे अलंकार कहीं-कहीं पर भी न हों। दिग्गज काव्याचार्यों ने काव्य को रमणीय अर्थमय चित्त को लोकोत्तर आनंद देने में समर्थ, रसमय वाक्य, काव्य को शोभा तथा धर्म को अलंकार, रीति (गुणानुकूल शब्द विन्यास/ छंद) को काव्य की आत्मा, वक्रोक्ति को काव्य का जीवन, ध्वनि को काव्य की आत्मा, औचित्यपूर्ण रस-ध्वनिमय, कहा है। काव्य (ग्रन्थ} या कविता (पद्य रचना) श्रोता या पाठक को अलौकिक भावलोक में ले जाकर जिस काव्यानंद की प्रतीति कराती हैं वह वस्तुतः शब्द, अर्थ, रस, अलंकार, रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति, वाग्वैदग्ध्य, तथा औचित्य की समन्वित-सम्मिलित अभिव्यक्ति है। आरम्भ में हर काव्य रचना 'दूहा' (दोहा) कही जाती थी१०। फिर संस्कृत के द्विपदीय श्लोकों के आधार पर केवल दो पंक्तियों की काव्य रचना 'दोहड़ा' कही गयी। कालांतर में संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश भाषाओं की पूर्वपरता एवं युग्परकता में छंद शास्त्र के साथ-साथ दोहा भी पला-बढ़ा। जन-मन-रंजन, भव-बाधा-भंजन, यश-कीर्ति-मंडन, अशुभ विखंडन तथा सर्व शुभ सृजन में दोहा का कोई सानी नहीं है। विश्व-वांग्मय का सर्वाधिक मारक-तारक-सुधारक छंद दोहा छंद शास्त्र की अद्भुत कलात्मक देन है११

दोहा गाथा सनातन, शारद कृपा पुनीत.
साँची साक्षी समय की, जनगण-मन की मीत.

ललित छंद दोहा अमर, भारत का सिरमौर.
हिन्दी माँ का लाडला, इस सा छंद न और.

हिन्दी ही नहीं सकल विश्व के इतिहास में केवल दोहा सबसे पुराना छंद है जिसने एक नहीं अनेक बार युद्धों को रोका है, नारी के मान-मर्यादा की रक्षा की है, भटके हुओं को रास्ता दिखाया है, देश की रक्षा की है, हिम्मत हार चुके राजा को लड़ने और जीतने का हौसला दिया है, बीमारियों से बचने की राह सुझाई है, प्रेमियों को मिलाया है और जिंदगी को सही तरीके से जीने का तरीका ही नहीं बताया भगवान के दर्शन कराने में भी सहायक हुआ है. आप इसे दोहे की अतिरेकी प्रशंसा मत मानिये 

अमरकंटकी नर्मदा, दोहा अविरल धार.
गत-आगत से आज का, सतत ज्ञान व्यापार.

दोहा उत्तम काव्य है, देश-काल पर्याय.
राह दिखाता मनुज को, जब वह हो निरुपाय.

नाना भाषा-बोलियाँ, नाना जनगण-भूप. 
पंचतत्व सम व्याप्त है, दोहा छंद अनूप. 

दोग्ध्क दूहा दूहरा, द्विपदिक दोहअ छंद. 
दोहक दूहा दोहरा, दुवअह दे आनंद.

द्विपथा दोहयं दोहडा, द्विपदी दोहड़ नाम.
दुहे दोपदी दूहडा, दोहा ललित ललाम. 

कल का कल से आज ही, कलरव सा संवाद.
कल की कल हिन्दी करे, कलकल दोहा नाद. 

(कल = बीता समय, आगामी समय, शान्ति, यंत्र -यमक अलंकार)

कुछ पारंपरिक दोहे:

सरसुती के भंडार की, बड़ी अपूरब बात.
ज्यों खर्चे त्यों-त्यों बढ़े, बिन खर्चे घट जात.

जो तो को काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल.
बाको शूल तो फूल है, तेरो है तिरसूल.

होनी तो होकर रहे, अनहोनी ना होय.
जाको राखे साइयां, मर सके नहिं कोय.

समय बिताने के लिये, करना है कुछ काम.
शुरू करो अन्त्याक्षरी, लेकर हरि का नाम.

जैसी जब भवितव्यता, तैसी बने सहाय.
आप न जाए ताहि पे, ताहि तहाँ ले जाय.
 


दोहा मुक्तक छंद है :

संस्कृत वांग्मय के अनुसार 'दोग्धि चित्तमिति दोग्धकम्' अर्थात जो श्रोता/पाठक के चित्त का दोहन करे वह दोग्धक (दोहा) है किंतु हिन्दी साहित्य का दोहा चित्त का ही नहीं वर्ण्य विषय के सार का भी दोहन करने में समर्थ है१२. दोहा अपने अस्तित्व-काल के प्रारम्भ से ही लोक परम्परा और लोक मानस से संपृक्त रहा है१३. संस्कृत साहित्य में बिना पूर्ववर्ती या परवर्ती प्रसंग के एक ही छंद में पूर्ण अर्थ व चमत्कार प्रगट करनेवाले अनिबद्ध काव्य को मुक्तक कहा गया है- ' मुक्तक श्लोक एवैकश्चमत्कारः क्षमः सतां'. अभिनव गुप्त के शब्दों में 'मुक्ता मन्यते नालिंकित तस्य संज्ञायां कन. तेन स्वतंत्रया परिसमाप्त निराकांक्षार्थमपि, प्रबंधमध्यवर्ती मुक्तक मिनमुच्यते'।

संस्कृत दोहा:

अपूर्वः कोऽपि कोशोऽयं विद्यते तव भारति ।
व्ययतो वृद्धिमायाति क्षयमायाति संचयात् ॥

हिन्दी गीति काव्य के अनुसार मुक्तक पूर्ववर्ती या परवर्ती छंद या प्रसंग के बिना चमत्कार या अर्थ की पूर्ण अभिव्यक्ति करनेवाला छंद है। मुक्तक का प्रयोग प्रबंध काव्य के मध्य में भी किया जा सकता है। रामचरित मानस महाकाव्य में चौपाइयों के बीच-बीच में दोहा का प्रयोग मुक्तक छंद के रूप में सर्व ज्ञात है। मुक्तक काव्य के दो भेद १. पाठ्य (एक भावः या अनुभूति की प्रधानता यथा कबीर के दोहे) तथा गेय (रागात्मकता प्रधान यथा तुलसी के दोहे) हैं। 

छंद : 

अक्षर क्रम संख्या तथा, गति-यति के अनुसार.
छंद सुनिश्चित हो 'सलिल', सही अगर पदभार.

छंद वह सांचा या ढांचा है जिसमें ढलने पर ही शब्द कविता कहलाते हैं। छंद कविता का व्याकरण तथा अविच्छेद्य अंग है। छंद का जन्म एक विशिष्ट क्रम में वर्ण या मात्राओं के नियोजन, गति (लय) तथा यति (विराम) से होता है। वर्णों की पूर्व निश्चित संख्या एवं क्रम, मात्र तथा गति-यति से सम्बद्ध विशिष्ट नियोजित काव्य रचना छंद कहलाती है। 

दोहा : 

दोहा दो पंक्तियों (पदों) का मुक्तक काव्य है। प्रत्येक पद में २४ मात्राएँ होती हैं। हर पद दो चरणों में विभजित रहता है। विषम (पहले, तीसरे) पद में तेरह तथा सम (दूसरे, चौथे) पद में ग्यारह कलाएँ (मात्राएँ) होना अनिवार्य है। 

दोहा और शेर :

दोहा की अपने आप में पूर्ण एवं स्वतंत्र होने की प्रवृत्ति कालांतर में शे'र के रूप में उर्दू काव्य में भिन्न भावः-भूमि में विकसित हुई। दोहा और शे'र दोनों में दो पंक्तियाँ होती हैं, किंतु शे'र में चुलबुलापन होता है तो दोहा में अर्थ गौरव१४। शेर बहर (उर्दू chhand) में कहे जाते हैं जबकि दोहा कहते समय हिन्दी के 'गण' का ध्यान रखना होता है। शे'रों का वज़्न (पदभार) भिन्न हो सकता है किंतु दोहा में हमेशा समान पदभार होता है। शे'र में पद (पंक्ति या मिसरा) का विभाजन नहीं होता जबकि दोहा के दोनों पद दो-दो चरणों में यति (विराम) द्वारा विभक्त होते हैं। 

हमने अब तक भाषा, व्याकरण, वर्ण, स्वर, व्यंजन, तथा शब्द को समझने के साथ दोहा की उत्पत्ति लगभग ३००० वर्ष पूर्व संस्कृत, अपभ्रंश व् प्राकृत से होने तथा मुक्तक छंद की जानकारी ली। दोहा में दो पद, चार चरण तथा सम चरणों में १३-१३ और विषम चरणों में ११-११ मात्राएँ होना आवश्यक है। दोहा व शेर के साम्य एवं अन्तर को भी हमने समझा। अगले पाठ में हम छंद के अंगों, प्रकारों, मात्राओं तथा गण की चर्चा करेंगे। तब तक याद रखें-

भाषा-सागर मथ मिला, गीतिकाव्य रस कोष.
समय शंख दोहा करे, सदा सत्य का घोष.

गीति काव्य रस गगन में, दोहा दिव्य दिनेश.
अन्य छंद शशि-तारिका, वे सुर द्विपदि सुरेश.

गौ भाषा को दूह कर, कवि कर अमृत पान.
दोहों का नवनीत तू, पाकर बन रसखान.

दोहा ने मोहा सलिल, रुद्ध हो गयी धार.
दिल हारे दिल जीतकर, दिल जीते दिल हार. 

परिवर्तन नव सृजन का, सत्य मानिये मूल. 
जड़ को करता काल ख़ुद, निर्मम हो निर्मूल.

हो निशांत ऊगे नयी, उजली निर्मल भोर.
प्राची से आकर उषा, कहती खुशी अँजोर.

लाल भाल है गाल भी, हुए लाज से लाल.
प्रियतम सूरज ने किया, हाय! हाल बेहाल.

छमछम छमछम नाचती, सूर्य किरण रह मौन.
कलरव करके पूछती, गौरैया तुम कौन?

बरगद बब्बा बांचते, किसका कैसा भाग्य.
जान न पाये कब हुआ, ख़ुद को ही वैराग्य. 

पनघट औ' चौपाल से, पूछ रहा खलिहान.
पायल कंगन क्यों गए शहर गाँव वीरान.

हूटर चीखा जोर से, भागे तुरत मजूर.
नागा मत काटें करें हम पर कृपा हजूर.

मालिक थे वे खेत के, पर नौकर हैं आज.
जो न किया सब कर रहे, तज मर्यादा लाज.

मुई सियासत ने किया, हर घर को बरबाद.
टूटा नाता नेह का, हो न सका आबाद.

लोभतंत्र की जीत है लोकतंत्र की हार.
प्रजा तंत्र सिर पीटता, तंत्र हुआ सरदार. 

आतंकी बम फोड़ते, हम होते भयभीत.
डरना अपनी हार है, मरना उनकी जीत.

दहशतगर्दों का नहीं, किंचित करें प्रचार.
टी. वी. अनदेखा करे, अनदेखी अख़बार.

जाति धर्म के नाम पर, क्यों करिए तकरार?
खुश हो हिल-मिल मना लें क्रिसमस का त्यौहार.

हिंद और हिन्दी हुआ, युग्म बहुत मशहूर.
हर भारतवासी करे, इन पर 'सलिल' गुरूर. 

चलते-चलते 

किस मिस को मिस कर रहे, किस मिस को किस आप.
देख मिसेस को हो गया, प्रेम पुण्य से पाप.

इन दोहों को बार-बार पढ़ें। इनमें लघु- मात्राओं की गणना साथ उनके स्थान पर गौर करें। दोहे की दो पंक्तियों (पद) में चार भाग हैं जिन्हें चरण या पाद कहते हैं दोनों पंक्तियों के प्रथम आधे भाग को विषम चरण तथा अंतिम आधे भाग को सम चरण कहा जाता है.पंक्ति के अंत अथवा सम चरण के अंत में गुरु-लघु मात्रा पर ध्यान दें विषम चरणों में १३-१३ तथा सम चरणों में ११-११ मात्राएँ, प्रत्येक पंक्ति में २४-२४ मात्राएँ हैं। लघु-गुरु मात्राओं की संख्या समान नहीं है। इस आधार पर दोहों के २३ भेद (प्रकार) हैं। इन दोहों को सस्वर पढ़कर उनकी नकल (पैरोडी) बनायें यहाँ बताई बातों की जांच करें। दोहे के विषम चरण के आरम्भ में एक शब्द में जगण (जभान = लघु गुरु लघु) वर्जित है। 

अगली कड़ी में रचना में मात्राबाँट और प्रकारों की चर्चा होगी   
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सन्दर्भ :
१. तद्दोशौ शब्दार्थो सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि -- मम्मट, काव्य प्रकाश,
२. रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम -- पं. जगन्नाथ,
३. लोकोत्तरानंददाता प्रबंधः काव्यनामभाक -- अम्बिकादत्त व्यास,
४. रसात्मकं वाक्यं काव्यं -- महापात्र विश्वनाथ,
५. काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते -- डंडी, काव्यादर्श,
६. रीतिरात्मा काव्यस्य -- वामन, ९०० ई., काव्यालंकार सूत्र,
७. वक्रोक्तिः काव्य जीवितं -- कुंतक, १००० ई., वक्रोक्ति जीवित,
८. काव्यस्यात्मा ध्वनिरितिः, आनंदवर्धन, ध्वन्यालोक,
९. औचित्यम रस सिद्धस्य स्थिरं काव्यं जीवितं -- क्षेमेन्द्र, ११०० ई., औचित्य विचार चर्चा,
१०. बरजोर सिंह 'सरल', हिन्दी दोहा सार, पृ. ३०,
११. आचार्य पूनम चाँद तिवारी, समीक्षा दृष्टि, पृ. ६४,
१२. डॉ. नागेन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. ७७,
१३. डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' की भूमिका - शब्दों के संवाद- आचार्य भगवत दुबे,
१४. डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र', भूमिका- जैसे, हरेराम 'समीप'
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laghu katha

लघुकथा:
अट्टहास
*
= 'वाह, रावण क्या खूब जल रहा है?'
- 'तो इसमें ख़ुशी की क्या बात है?'
= ख़ुशी की बात तो है ही. जैसा करा वैसा भर। पाप का फल ऐसा ही होता है.
__ झूठ, बिलकुल झूठ. रावण के पुतले में से आवाज़ आई.
= झूठ क्यों? यही तो सच है.
__ 'यदि यह सच होता तो आज मैं नहीं, इस देश के नेता, अफसर और व्यापारी मुझसे पहले जलते, तुम सब भी तुर्की आंच में झुलसते और मैं कर रहा होता अट्टहास'
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geet

एक रचना-
*
तन के प्रति मन का आकर्षण 
मन में तन के लिये विकर्षण 
कितना उचित? 
कौन बतलाये?
*
मृण्मय मन ने तन्मय तन को
जब ठुकराया तब यह जाना
एक वही जिसने लांछित हो
श्वासों में रस घोल दिया है
यश के वश कोशिश-संघर्षण
नियम संग संयम का तर्पण
क्यों अनुचित है?
कौन सिखाये??
कितना उचित?
कौन बतलाये?
तन के प्रति मन का आकर्षण
मन में तन के लिये विकर्षण
*
नंदन वन में चंदन-वंदन
महुआ मादक अप्रतिम गन्धन
लाल पलाश नटेरे नैना
सती-दाह लख जला हिया है
सुधि-पावस का अमृत वर्षण
इसका उसको सब कुछ अर्पण
क्यों प्रमुदित पल ?
मौन बिताये??
कितना उचित?
कौन बतलाये?
तन के प्रति मन का आकर्षण
मन में तन के लिये विकर्षण
*
यह-वह दोनों लीन हुए जब
तनिक न तिल भर दीन हुए तब
मैंने, तूने या किस-किसने
उस पल को खो आत्म, जिया है?
है असार संसार विलक्षण
करे आक्रमण किन्तु न रक्षण
क्या-क्यों अनुमित?
कौन बनाये??
कितना उचित?
कौन बतलाये?
तन के प्रति मन का आकर्षण
मन में तन के लिये विकर्षण
*

jigyasa

हमारा धर्म जिज्ञासा- १.
१. लघुकथा में वर्णित क्षण की पृष्भूमि और कारण का वर्णन हो या न हो?
२. वर्णन हो तो कितना और क्यों?
३. क्या वर्णन देकर पाठक के कल्पना-संसार को दिशा देना या सीमित करना उचित है?
कृपया, बिन्दुवार मत दें.

laghu katha

लघुकथा की कसौटी-
१.शीर्षक,
२.रूप,
३.कथा,
४.पात्र,
५. लक्ष्य,
६. भाषा तथा
७. समाप्ति-कौशल।
आपकी क्या राय है? यही या अन्य??

laghukatha

लघुकथा:
गाइड
*
मेरे लघुकथा संग्रह की पाण्डुलिपि देखकर परामर्श दीजिए, मैंने अनुरोध किया।
लघुकथा में क्या होना चाहिए उन्होंने पूछा?
लघुता, वैषम्य और मर्मस्पर्शिता मैंने उत्तर दिया।
और क्या नहीं होना चाहिए फिर प्रश्न पूछा गया?
अभिमत, विश्लेषण या उपदेश मैंने संकोच सहित कहा।
आज के लिए इतना पर्याप्त है सुनते ही मैंने विदा ली गाइड से।
***

laghukatha

लघुकथा:
गाइड
*
गाइड शिक्षिका से सूचना पाते है वह हर्ष से उछल पड़ी, सूचना थी ही ऐसी। उसे गाइड आंदोलन में राज्यपाल पदक से सम्मानित किया गया था।
कुछ वर्ष बाद किंचित उत्सुकता के साथ वह प्रतीक्षा कर रही थी आगंतुकों की। समय पर अतिथि पधारे, स्वल्पाहार के शिष्टाचार के साथ चर्चा आरंभ हुई: 'बिटिया! आप नौकरी करेंगी?'
मैंने जितना अध्ययन किया है, देश ने उसकी सुविधा जुटाई, मेरे ज्ञान और योग्यता का उपयोग देश और समाज के हित में होना चाहिए- उसने कहा।
लेकिन घर और परिवार भी तो.…
आप ठीक - परिवार मेरी पहली प्राथमिकता है किन्तु उसके साथ-साथ मैं कुछ अन्य तो घर के विकास में सहायक हो होऊंगी।
तुम मांसाहारी हो या शाकाहारी?
मैं शाकाहारी हूँ, मेरे साथ बैठा व्यक्ति शालीनतापूर्वक जो चाहे खाये मुझे आपत्ति नहीं किंतु मैं क्या खाती पहनती हूँ यह मेरी पसंद होगी।
ऐसा तो सभी लड़कियाँ कहती हैं पर बाद में नए माहौलके अनुसार बदल जाती हैं। मेरी बड़ी बहू भी शाकाहारी थी पर बेटे ने कहते-कहते उसे मुँह से लगा-खिला कर उसे माँसाहारी बना दिया। आगन्तुका अब उसके पिताश्री की ओर उन्मुख हुईं और पूछा: आपके यहाँ क्या रस्मो-रिवाज़ होते हैं?
अन्य स्वजातीय परिवारों की तरह हमारे यहाँ भी सभी रस्में की जाती हैं. आपको स्वागत में कोई कमी नहीं मिलेगी, निश्चिन्त रहिए। पिताजी ने उत्तर दिया।
मेरे बड़े बेटे की शादी में यह-यह हुआ था। बेंगलुरु से गोरखपुर एक व्यक्ति का जाने-आने का वायुयान किराया ही १५,००० रु.है। ८ लोगों का बार-बार आना-जाना, हमारे धनी-मानी संबंधी-मित्र आदि का आथित्य, बड़े बेटे को कार और मकान मिला …
बहुत देर से बेचैन हो रही वह बोल पड़ी: आई आई टी जैसे संस्थान में पढ़ने और ३० लाख रुपये सालाना कमाने के बाद भी जिसे दूसरों के आगे हाथ पसारने में शर्म नहीं आती, जो अपने माँ-बाप को अपना सौदा करते देख चुप रहता है, मुझे ऐसे भिखारी को अपना जीवनसाथी नहीं बनाना है। मैं ठुकराती हूँ तुम्हारा प्रस्ताव, और आप दोनों उम्र में मुझसे बहुत बड़े हैं पर आपकी सोच बहुत छोटी है। आपने अपने लड़कों को कमाऊ बैल तो बना दिया पर अच्छा आदमी नहीं बना सके। आपमें से किसी मुझ जैसी बहू पाने की योग्यता नहीं है। आपकी बातचीत मैंने रिकॉर्ड कर ली है कहिए तो थाने में रिपोर्ट कर आप सबको बंद करा दूँ। आप ने सुना नहीं पिता जी ने बताया था कि मुझे कोई गलत बात सहन नहीं होती, मैं हूँ गाइड।
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laghukatha

लघुकथा:
रिश्ते
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लंबे विदेश प्रवास के बीच पति के किसी अन्य महिला से जुड़ने का समाचार पाकर बिखर गयी थी वह। पति का फोन सुनना भी बंद कर दिया। विश्वास और संदेह में डूबते-उतराते उसने अपना कार्य निबटाया और स्वदेश लौट आयी।

जितने मुँह उतनी बातें, सत्य की तलाश में एक दिन किसी को कुछ बताये बिना मन कड़ा कर वह पहुँच गयी पति के दरवाज़े पर।

दरवाज़ा खटकाने को थी कि अंदर से किसी को डाँटते हुए महिला स्वर सुनाई पड़ा 'कितनी बार कहा है अपना ध्यान रखा करिए लेकिन सुनते ही नहीं हो, भाभी का नंबर दो तो उनसे ऐसी शिकायत करूँ कि आपकी खटिया खड़ी कर दें।'

'किससे शिकायत करोगी और क्या वह न तो अपनी खबर देती है, न कोई फोन उठाती है। हमारे घरवाले पहले ही इस विवाह के खिलाफ थे। तुम्हें मना करता करता हूँ फिर भी रोज चली आती हो, लोग पीठ पीछे बातें बनायेंगे।'

'बनाने दो बातें, भाई को बीमार कैसे छोड़ दूँ?.... उसका धैर्य जवाब दे गया। भरभराती दीवार सी ढह पड़ी.… आहट सुनते ही दरवाज़ा खुला, दो जोड़ी आँखें पड़ीं उसके चेहरे पर गड़ी की गड़ी रह गयीं। तुम-आप? चार हाथ सहारा देकर उसे उठाने लगे। उसे लगा धरती फट जाए वह समा जाए उसमें, इतना कमजोर क्यों था उसका विश्वास? उसकी आँखों से बह रहे थे आँसू पर मुस्कुरा रहे थे रिश्ते।

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