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रविवार, 11 अक्टूबर 2015

lekh: vaidik kaal men maans bhakshan

विशेष आलेख:
क्या वेदों में पशुबलि, मांसाहार आदि का विधान है?
- विवेक आर्य 

वेदों के विषय में सबसे अधिक प्रचलित अगर कोई शंका है तो वह हैं कि क्या वेदों में पशुबलि, माँसाहार आदि का विधान है?
इस लेख के माध्यम से आप इन प्रश्नों का उत्तर सहजता से पा सकते हैं।
*
वैदिक का ल में पशु मांस भक्षण की भ्रान्ति के होने के कुछ कारण है। सर्वप्रथम तो पाश्चात्य विद्वानों जैसे मैक्समुलर[i], ग्रिफ्फिथ[ii] आदि द्वारा यज्ञों में पशुबलि, माँसाहार आदि का विधान मानना, द्वितीय मध्य काल के आचार्यों जैसे सायण[iii], महीधर[iv] आदि का यज्ञों में पशुबलि का समर्थन करना, तीसरा ईसाईयों, मुसलमानों आदि द्वारा माँस भक्षण के समर्थन में वेदों कि साक्षी देना[v], चौथा साम्यवादी अथवा नास्तिक विचारधारा[vi] के समर्थकों द्वारा सुनी-सुनाई बातों को बिना जाँचें बार बार रटना।

किसी भी सिद्धांत अथवा किसी भी तथ्य को आँख बंद कर मान लेना बुद्धिमान लोगों का लक्षण नहीं है। हम वेदों के सिद्धांत कि परीक्षा वेदों कि साक्षी द्वारा करेगे जिससे हमारी भ्रान्ति का निराकरण हो सके। 

शंका 1 क्या वेदों में मांस भक्षण का विधान हैं?

उत्तर:- वेदों में मांस भक्षण का स्पष्ट निषेध किया गया हैं। अनेक वेद मन्त्रों में स्पष्ट रूप से किसी भी प्राणि को मारकर खाने का स्पष्ट निषेध किया गया हैं। जैसे: 

= हे मनुष्यों ! जो गौ आदि पशु हैं वे कभी भी हिंसा करने योग्य नहीं हैं - यजुर्वेद १।१

= जो लोग परमात्मा के सहचरी प्राणी मात्र को अपनी आत्मा का तुल्य जानते हैं अर्थात जैसे अपना हित चाहते हैं वैसे ही अन्यों में भी व्रतते हैं-यजुर्वेद ४०। ७

= हे दांतों तुम चावल खाओ, जौ खाओ, उड़द खाओ और तिल खाओ। तुम्हारे लिए यही रमणीय भोज्य पदार्थों का भाग हैं । तुम किसी भी नर और मादा की कभी हिंसा मत करो।- अथर्ववेद ६।१४०।२

= वह लोग जो नर और मादा, भ्रूण और अंड़ों के नाश से उपलब्ध हुए मांस को कच्चा या पकाकर खातें हैं, हमें उनका विरोध करना चाहिए- अथर्ववेद ८।६।२३

= निर्दोषों को मारना निश्चित ही महापाप है, हमारे गाय, घोड़े और पुरुषों को मत मार। -अथर्ववेद १०।१।२९

इन मन्त्रों में स्पष्ट रूप से यह सन्देश दिया गया हैं कि वेदों के अनुसार मांस भक्षण निषेध हैं। 

शंका २ क्या वेदों के अनुसार यज्ञों में पशु बलि का विधान है?

यज्ञ की महता का गुणगान करते हुए वेद कहते है कि सत्यनिष्ठ विद्वान लोग यज्ञों द्वारा ही पूजनीय परमेश्वर की पूजा करते है।[vii]

यज्ञों में सब श्रेष्ठ धर्मों का समावेश होता है। यज्ञ शब्द जिस यज् धातु से बनता है उसके देवपूजा, संगतिकरण और दान है। इसलिए यज्ञों वै श्रेष्ठतमं कर्म[viii] एवं यज्ञो हि श्रेष्ठतमं कर्म[ix] इत्यादि कथन मिलते है। यज्ञ न करने वाले के लिए वेद कहते है कि जो यज्ञ मयी नौका पर चढ़ने में समर्थ नहीं होते वे कुत्सित, अपवित्र आचरण वाले होकर यही इस लोक में नीचे-नीचे गिरते जाते है।[x] 

एक और वेद यज्ञ कि महिमा को परमेश्वर की प्राप्ति का साधन बताते है दूसरी और वैदिक यज्ञों में पशुबलि का विधान भ्रांत धारणा मात्र है। यज्ञ में पशु बलि का विधान मध्य काल की देन है। प्राचीन काल में यज्ञों में पशु बलि आदि प्रचलित नहीं थे। मध्यकाल में जब गिरावट का दौर आया तब मांसाहार, शराब आदि का प्रयोग प्रचलित हो गया। सायण, महीधर आदि के वेद भाष्य में मांसाहार, हवन में पशुबलि, गाय, अश्व, बैल आदि का वध करने की अनुमति थी जिसे देखकर मैक्समुलर , विल्सन[xi] , ग्रिफ्फिथ आदि पाश्चात्य विद्वानों ने वेदों से मांसाहार का भरपूर प्रचार कर न केवल पवित्र वेदों को कलंकित किया अपितु लाखों निर्दोष प्राणियो को मरवा कर मनुष्य जाति को पापी बना दिया। मध्य काल में हमारे देश में वाम मार्ग का प्रचार हो गया था जो मांस, मदिरा, मैथुन, मीन आदि से मोक्ष की प्राप्ति मानता था। आचार्य सायण आदि यूँ तो विद्वान थे पर वाम मार्ग से प्रभावित होने के कारण वेदों में मांस भक्षण एवं पशु बलि का विधान दर्शा बैठे। निरीह प्राणियों के इस तरह कत्लेआम एवं भोझिल कर्मकांड को देखकर ही महात्मा बुद्ध[xii] एवं महावीर ने वेदों को हिंसा से लिप्त मानकर उन्हें अमान्य घोषित कर दिया जिससे वेदों की बड़ी हानि हुई एवं अवैदिक मतों का प्रचार हुआ जिससे क्षत्रिय धर्म का नाश होने से देश को गुलामी सहनी पड़ी। इस प्रकार वेदों में मांसभक्षण के गलत प्रचार के कारण देश की कितनी हानि हुई इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। एक ओर वेदों में जीव रक्षा और निरामिष भोजन का आदेश है तो दूसरी ओर उसके विपरीत उन्हीं वेदों में पशु आदि कि यज्ञों में बलि तर्क संगत नहीं लगती है। स्वामी दयानंद[xiii] ने वेदभाष्य में मांस भक्षण ,पशुबलि आदि को लेकर जो भ्रान्ति देश में फैली थी उसका निवारण कर साधारण जनमानस के मन में वेद के प्रति श्रद्दा भाव उत्पन्न किया। वेदों में यज्ञों में पशु बलि के विरोध में अनेक मन्त्रों का विधान है जैसे:-

यज्ञ के विषय में अध्वर शब्द का प्रयोग वेद मन्त्रों में हुआ है जिसका अर्थ निरुक्त[xiv] के अनुसार हिंसा रहित कर्म है। 

हे ज्ञान स्वरुप परमेश्वर, तू हिंसा रहित यज्ञों (अध्वर) में ही व्याप्त होता है और ऐसे ही यज्ञों को सत्य निष्ठ विद्वान लोग सदा स्वीकार करते है। -ऋग्वेद 1/1 /4 

यज्ञ के लिए अध्वर शब्द का प्रयोग ऋग्वेद 1/1/8, ऋग्वेद 1/14/21,ऋग्वेद 1/128/4 ऋग्वेद 1/19/1,, ऋग्वेद 3/21/1, सामवेद 2/4/2, अथर्ववेद 4/24/3, अथर्ववेद 1/4/2 इत्यादि मन्त्रों में इसी प्रकार से हुआ है। अध्वर शब्द का प्रयोग चारों वेदों में अनेक मन्त्रों में होना हिंसा रहित यज्ञ का उपदेश है। 

हे प्रभु! मुझे सब प्राणी मित्र की दृष्टि से देखे, मैं सब प्राणियों को मित्र कि प्रेममय दृष्टि से देखूं , हम सब आपस में मित्र कि दृष्टि से देखें।- यजुर्वेद 36 /18

यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म के नाम से पुकारते हुए उपदेश है कि पशुओं कि रक्षा करे। - यजुर्वेद 1 /1 

पति पत्नी के लिए उपदेश है कि पशुओं कि रक्षा करे। - यजुर्वेद 6/11 

हे मनुष्य तुम दो पैर वाले अर्थात अन्य मनुष्यों एवं चार पैर वाले अर्थात पशुओं कि भी सदा रक्षा कर। - यजुर्वेद 14 /8

चारों वेदों में दिए अनेक मन्त्रों से यह सिद्ध होता है कि यज्ञों में हिंसा रहित कर्म करने का विधान है एवं मनुष्य का अन्य पशु पक्षियों कि रक्षा करने का स्पष्ट आदेश है।

शंका 3 क्या वेदों में वर्णित अश्वमेध, नरमेध, अजमेध, गोमेध में घोड़ा, मनुष्य, गौ कि यज्ञों में बलि देने का विधान नहीं है ? मेध का मतलब है मारना जिससे यह सिद्ध होता है?

उत्तर: मेध शब्द का अर्थ केवल हिंसा नहीं है. मेध शब्द के तीन अर्थ है १. मेधा अथवा शुद्ध बुद्धि को बढ़ाना २. लोगो में एकता अथवा प्रेम को बढ़ाना ३. हिंसा। इसलिए मेध से केवल हिंसा शब्द का अर्थ ग्रहण करना उचित नहीं है। 

जब यज्ञ को अध्वर अर्थात ‘हिंसा रहित‘ कहा गया है, तो उस के सन्दर्भ में ‘ मेध‘ का अर्थ हिंसा क्यों लिया जाये? बुद्धिमान व्यक्ति ‘मेधावी‘ कहे जाते है और इसी तरह, लड़कियों का नाम मेधा, सुमेधा इत्यादि रखा जाता है, तो क्या ये नाम क्या उनके हिंसक होने के कारण रखे जाते है या बुद्धिमान होने के कारण?

अश्वमेध शब्द का अर्थ यज्ञ में अश्व कि बलि देना नहीं है अपितु शतपथ १३.१.६.३ और १३.२.२.३ के अनुसार राष्ट्र के गौरव, कल्याण और विकास के लिए किये जाने वाले सभी कार्य “अश्वमेध” है[xv]। 

गौ मेध का अर्थ यज्ञ में गौ कि बलि देना नहीं है अपितु अन्न को दूषित होने से बचाना, अपनी इन्द्रियों को वश में रखना, सूर्य की किरणों से उचित उपयोग लेना, धरती को पवित्र या साफ़ रखना -‘गोमेध‘ यज्ञ है। ‘ गो’ शब्द का एक और अर्थ है पृथ्वी। पृथ्वी और उसके पर्यावरण को स्वच्छ रखना ‘गोमेध’ कहलाता है।[xvi] 

नरमेध का अर्थ है मनुष्य कि बलि देना नहीं है अपितु मनुष्य की मृत्यु के बाद उसके शरीर का वैदिक रीति से दाह संस्कार करना नरमेध यज्ञ है। मनुष्यों को उत्तम कार्यों के लिए प्रशिक्षित एवं संगठित करना नरमेध या पुरुषमेध या नृमेध यज्ञ कहलाता है।

अजमेध का अर्थ बकरी आदि कि यज्ञ में बलि देना नहीं है अपितु अज कहते है बीज, अनाज या धान आदि कृषि की पैदावार बढ़ाना है। अजमेध का सिमित अर्थ अग्निहोत्र में धान आदि कि आहुति देना है।[xvii]

शंका 4: यजुर्वेद मन्त्र 24/29 में हस्तिन आलभते अर्थात हाथियों को मारने का विधान है?

समाधान :- ’लभ्’ धातु से बनने वाला आलम्भ शब्द का अर्थ मारना नहीं अपितु अच्छी प्रकार से प्राप्त करना , स्पर्श करना या देना होता है। हस्तिन शब्द का अर्थ अगर हाथी ले तो इस मंत्र में राजा को अपने राज्य के विकास हेतु हाथी आदि को प्राप्त करना, अपनी सेनाओं को सुदृढ़ करना बताया गया है। यहाँ पर हिंसा का कोई विधान नहीं है।

पारस्कर सूत्र 2 /2 /16 में कहा गया है कि आचार्य ब्रह्मचारी का आलम्भ अर्थात ह्रदय का स्पर्श करता है। यहाँ पर आलम्भ का अर्थ स्पर्श आया है। 

पारस्कर सूत्र 1 /8 /8 में ही आया है कि वर वधु के दक्षिण कंधे के ऊपर हाथ ले जाकर उसके ह्रदय का स्पर्श करे। यहाँ पर भी आलम्भ का अर्थ स्पर्श आया है। 

अगर यहाँ पर आलम्बन शब्द का अर्थ मरना ग्रहण करे तो यह कैसे युक्तिसंगत एवं तर्क संगत सिद्ध होगा? इससे सिद्ध होता हैं कि आलम्भ शब्द का अर्थ ग्रहण करना, प्राप्त करना अथवा स्पर्श करना है।

शंका 5 : वेद, ब्राह्मण एवं सूत्र ग्रंथों में संज्ञपन शब्द आया है जिसका अर्थ पशु को मारना है ?

समाधान:- संज्ञपन शब्द का अर्थ है ज्ञान देना दिलाना तथा मेल कराना है। 

अथर्ववेद 6/10/14-15 में लिखा है कि तुम्हारे मन का ज्ञानपूर्वक अच्छी प्रकार (संज्ञपन) मेल हो, तुम्हारे हृदयों का ज्ञान पूर्वक अच्छी प्रकार (संज्ञपन) मेल हो। 

इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण 1/4 में एक आख्यानिका है जिसका अर्थ है- मैं वाणी तुझ मन से अधिक अच्छी हूँ, तू जो कुछ मन में चिंतन करता है मैं उसे प्रकट करती हूँ, मैं उसे अच्छी प्रकार से दूसरों को जतलाती हूँ (संज्ञपयामी)

संज्ञपन शब्द का मेल के स्थान पर हिंसापरक अर्थ करना अज्ञानता का परिचायक है।

शंका 6 : वेदों में गोघ्न अर्थात गायों के वध करने का आदेश है। 

समाधान : गोघ्न शब्द में हन धातु का प्रयोग है जिसके दो अर्थ बनते है हिंसा और गति। गोघ्न में उसका गति अथवा ज्ञान, गमन, प्राप्ति विषयक अर्थ है। मुख्य भाव यहाँ प्राप्ति का है, अर्थात जिसे उत्तम गौ प्राप्त कराई जाये।

हिंसा के प्रकरण में वेद का उपदेश गौ कि हत्या करने वाले से दूर रहने का है। 

ऋग्वेद 1 /114 /10 में लिखा है जो गोघ्न - गौ कि हत्या करनेवाला है अह नीच पुरुष है , वह तुमसे दूर रहे। 

वेदों के कई उदाहरणों से पता चलता है कि ‘हन्’ का प्रयोग किसी के निकट जाने या पास पहुंचने के लिए भी किया जाता है उदहारण में अथर्ववेद 6 /101 /1 में पति को पत्नी के पास जाने का उपदेश है। इस मंत्र का यह अर्थ कि पति पत्नी के पास जाये उचित प्रतीत होता हैं नाकि पति द्वारा पत्नी को मारना उचित सिद्ध होता हैं। इसलिए हनन का केवल हिंसा अर्थ गलत परिपेक्ष में प्रयोग करना भ्रम फैलाने के समान है।

शंका 7 - वेदों में अतिथि को भोजन में गौ आदि का मांस पका कर खिलाने का आदेश है। 

समाधान- ऋग्वेद के मंत्र 10 /68 /3 में अतिथिनीर्गा: का अर्थ अतिथियों के लिए गौए किया गया हैं जिसका तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के आने पर गौ को मारकर उसके मांस से उसे तृप्त किया जाता था। 

यहाँ पर जोभ्रम हुआ है उसका मुख्य कारण अतिथिनी शब्द को समझने कि गलती के कारण हुआ है। यहाँ पर उचित अर्थ बनता है ऐसी गौएं जो अतिथियों के पास दानार्थ लाई जायें, उन्हें दान कि जायें। Monier Williams ने भी अपनी संस्कृत इंग्लिश शब्दकोश में अतिथिग्व का अर्थ "To whom guests should go " (P.14) अर्थात जिसके पास अतिथि प्रेम वश जायें ऐसा किया है। श्री Bloomfield ने भी इसका अर्थ "Presenting cows to guests" अर्थात अतिथियों को गौएं भेंट करनेवाला ही किया है। अतिथि को गौ मांस परोसना कपोलकल्पित है।[xviii]

शंका 8 - वेदों में बैल को मार कर खाने का आदेश है। 

समाधान- यह भी एक भ्रान्ति है कि वेदों में बैल को खाने का आदेश है। वेदों में जैसे गौ के लिए अघन्या अर्थात न मारने योग्य शब्द का प्रयोग है उसी प्रकार से बैल के लिए अघ्न्य शब्द का प्रयोग है। 

यजुर्वेद 12/73 में अघन्या शब्द का प्रयोग बैल के लिए हुआ है। इसकी पुष्टि सायणाचार्य ने काण्वसंहिता में भी कि है।

इसी प्रकार से अथर्ववेद 9/4/17 में लिखा है कि बैल सींगों से अपनी रक्षा स्वयं करता है, परन्तु मानव समाज को भी उसकी रक्षा में भाग लेना चाहिए। 

अथर्ववेद 9/4/19 मंत्र में बैल के लिए अधन्य और गौ के लिए अधन्या शब्दों का वर्णन मिलता है। यहाँ पर लिखा है कि ब्राह्मणों को ऋषभ (बैल) का दान करके यह दाता अपने को स्वार्थ त्याग द्वारा श्रेष्ठ बनाता है। वह अपनी गोशाला में बैलों और गौओं कि पुष्टि देखता है। 

अथर्ववेद 9/4/20 मंत्र में जो सत्पात्र में वृषभ (बैल) का दान करता है उसकी गौएं संतान आदि उत्तम रहती है। 

इन उदहारणों से यह सिद्ध होता है कि गौ के साथ साथ बैल कि रक्षा का वेद सन्देश देते है।

शंका 9 - वेद में वशा / वंध्या अर्थात वृद्ध गौ अथवा बैल (उक्षा) को मारने का विधान है। 

समाधान- शंका का कारण ऋग्वेद 8/43/11 मंत्र के अनुसार वन्ध्या गौओं कि अग्नि में आहुति देने का विधान बताया गया है। यह सर्वथा अशुद्ध है। 

इस मंत्र का वास्तविक अर्थ निघण्टु 3 /3 के अनुसार यह है कि जैसे महान सूर्य आदि भी जिसके प्रलयकाल में (वशा) अन्न व भोज्य के समान हो जाते है। इसका शतपथ 5/1/3 के अनुसार अर्थ है पृथ्वी भी जिसके (वशा) अन्न के समान भोज्य है ऐसे परमेश्वर कि नमस्कार पूर्वक स्तुतियों से सेवा करते है। 

वेदों के विषय में इस भ्रान्ति के होने का मुख्य कारण वशा, उक्षा, ऋषभ आदि शब्दों के अर्थ न समझ पाना है। 

यज्ञ प्रकरण में उक्षा और वशा दोनों शब्दों के औषधि परक अर्थ का ग्रहण करना चाहिए, जिन्हें अग्नि में डाला जाता है।

सायणाचार्य एवं मोनियर विलियम्स के अनुसार उक्षा शब्द के सोम, सूर्य, ऋषभ नामक औषधि है। 

वशा शब्द के अन्य अर्थ अथर्ववेद 1/10/1 के अनुसार ईश्वरीय नियम वा नियामक शक्ति है। शतपथ 1/8/3/15 के अनुसार वशा का अर्थ पृथ्वी भी है / अथर्ववेद 20/103/15 के अनुसार वशा का अर्थ संतान को वश में रखने वाली उत्तम स्त्री भी है। इस सत्यार्थ को न समझ कर वेद मन्त्रों का अनर्थ करना निंदनीय है।

शंका 10-वेदादि धर्म ग्रंथों में माष शब्द का उल्लेख हैं जिसका अर्थ मांस खाना है। 

समाधान- माष शब्द का प्रयोग ‘माषौदनम्‘ के रूप में हुआ है। इसे बदल कर किसी मांसभक्षी ने मांसौदनम् अर्थ कर दिया है। यहाँ पर माष एक दाल के समान वर्णित है। इसलिए यहाँ मांस का तो प्रश्न ही नहीं उठता। आयुर्वेद (सुश्रुत संहिता शरीर अध्याय २) गर्भवती स्त्रियों के लिए मांसाहार को सख्त मना करता है और उत्तम संतान पाने के लिए माष सेवन को हितकारी कहता है। इससे क्या स्पष्ट होता है। यही कि माष शब्द का अर्थ मांसाहार नहीं अपितु दाल आदि को खाने का आदेश है। फिर भी अगर कोई माष को मांस ही कहना चाहे, तब भी मांस को निरुक्त 4/1/3 के अनुसार मनन साधक, बुद्धि वर्धक और मन को अच्छी लगने वाली वास्तु जैसे फलका गूदा , खीर आदि कहा गया है। प्राचीन ग्रंथों में मांस अर्थात गूदा खाने के अनेक प्रमाण मिलते है जैसे चरक संहिता देखे में आम्रमांसं (आम का गूदा) , खजूरमांसं (खजूर का गूदा), तैत्तरीय संहिता २.३२.८ (दही, शहद और धान) को मांस कहा गया है। 

इससे यही सिद्ध होता है कि वेदादि शास्त्रों में जहाँ पर माष शब्द आता है अथवा मांस के रूप में भी जिसका प्रयोग हुआ है उसका अर्थ दाल अथवा फलों का मध्य भाग अर्थात गूदा है।

शंका 11- वेदों में यज्ञ में घोड़े कि बलि देने का और घोड़े का मांस पकाने का वेदों में आदेश है। 

समाधान- यजुर्वेद के 25 अध्याय में सायण, महीधर, उव्वट, ग्रिफ्फिथ, मैक्समुलर आदि ने अश्व हिंसापरक अर्थ किये है। इसका मुख्य कारण वाजिनम् शब्द के अर्थ को न समझना है। वाजिनम् का अश्व के साथ साथ अन्य अर्थ है शूर, बलवान, गतिशील और तेज। 

यजुर्वेद के 25/34 मंत्र का अर्थ करते हुए सायण लिखते है कि अग्नि से पकाए, मरे हुए तेरे अवयवों से जो मांस- रस उठता है वह वह भूमि या तृण पर न गिरे, वह चाहते हुए देवों को प्राप्त हो। 

इस मंत्र का अर्थ स्वामी दयानंद वेद भाष्य में लिखते है - हे मनुष्य जो ज्वर आदि से पीड़ित अंग हो उन्हें वैद्य जनों से निरोग कराना चाहिए क्यूंकि उन वैद्य जनों द्वारा जो औषध दिया जाता है वह रोगीजन के लिए हितकारी होता है एवं मनुष्य को व्यर्थ वचनों का उच्चारण न करना चाहिए, किन्तु विद्वानों के प्रति उत्तम वचनों का ही सदा प्रयोग करना चाहिए। 

अश्व कि हिंसा के विरुद्ध यजुर्वेद 13/47 मंत्र का शतपथकार ने पृष्ठ 668 पर अर्थ लिखा हैं कि अश्व कि हिंसा न कर। 

यजुर्वेद 25/44 के यज्ञ में घोड़े कि बलि के समर्थन में अर्थ करते हुए सायण लिखते है कि हे अश्व ! तू अन्य अश्वों कि तरह मरता नहीं क्यूंकि तुझे देवत्व प्राप्ति होगी और न हिंसित होता है क्यूंकि व्यर्थ हिंसा का यहां अभाव है। प्रत्यक्ष रूप में अवयव नाश होते हुए ऐसा कैसे कहते हो? इसका उत्तर देते है कि सुंदर देवयान मार्गों से देवों को तू प्राप्त होता है, इसलिए यह हमारा कथन सत्य है। 

इस मंत्र का स्वामी दयानंद अर्थ करते है कि जैसे विद्या से अच्छे प्रकार प्रयुक्त अग्नि, जल, वायु इत्यादि से युक्त रथ में स्थित हो के मार्गों से सुख से जाते है, वैसे ही आत्मज्ञान से अपने स्वरुप को नित्य जान के मरण और हिंसा के डर को छोड़कर दिव्य सुखों को प्राप्त हो। 

पाठक स्वयं विचार करे कहाँ स्वामी दयानंद द्वारा किया गया सच्चा उत्तम अर्थ और कहा सायण आदि के हिंसापरक अर्थ। दोनों में आकाश-पाताल का भेद है। ऐसा ही भेद वेद के उन सभी मन्त्रों में है जिनका अर्थ हिंसापरक रूप में किया गया है अत: वे मानने योग्य नहीं है।

शंका 12 - क्या वेदों के अनुसार इंद्र देवता बैल खाता है?

समाधान - इंद्र द्वारा बैल खाने के समर्थन में ऋग्वेद 10/28/3 और 10/86/14 मंत्र का उदहारण दिया जाता है। यहाँ पर वृषभ और उक्षन् शब्दों के अर्थ से अनभिज्ञ लोग उनका अर्थ बैल कर देते है। ऋग्वेद में लगभग 20 स्थलों पर अग्नि को, 65 स्थलों पर इंद्र को, 11 स्थलों पर सोम को, 3 स्थलों पर पर्जन्य को, 5 स्थलों पर बृहस्पति को, 5 स्थलों पर रूद्र को वृषभ कहा गया है[xix]। व्याख्याकारों के अनुसार वृषभ का अर्थ यज्ञ है। 

उक्षन् शब्द का अर्थ ऋग्वेद में अग्नि, सोम, आदित्य, मरुत आदि के लिए प्रयोग हुआ है। 

जब वृषभ और उक्षन् शब्दों के इतने सारे अर्थ वेदों में दिए गये है तब उनका व्यर्थ ही बैल अर्थ कर उसे इंद्र को खिलाना युक्तिसंगत एवं तर्कपूर्ण नहीं है। 

इसी सन्दर्भ में ऋग्वेद में इंद्र के भोज्य पदार्थ निरामिष रुपी धान, करम्भ, पुरोडाश तथा पेय सोमरस है नाकि बैल को बताया गया हैं।[xx]

शंका 13 - वेदों में गौ का क्या स्थान है ?

समाधान- यजुर्वेद 8/43 में गाय का नाम इडा, रन्ता, हव्या, काम्या, चन्द्रा, ज्योति, अदिति, सरस्वती, महि, विश्रुति और अध्न्या[xxi] कहा गया है। स्तुति कि पात्र होने से इडा, रमयित्री होने से रन्ता, इसके दूध कि यज्ञ में आहुति दी जाने से हव्या, चाहने योग्य होने से काम्या, ह्रदय को प्रसन्न करने से चन्द्रा, अखंडनीय होने से अदिति, दुग्ध वती होने से सरस्वती, महिमशालिनी होने से महि, विविध रूप में श्रुत होने से विश्रुति तथा न मारी जाने योग्य होने से अधन्या[xxii] कहलाती है[xxiii]

अघन्या शब्द में गाय का वध न करने का सन्देश इतना स्पष्ट है कि विदेशी लेखक भी उसे भली प्रकार से स्वीकार करते है।[xxiv]

हे गौओ, तुम पूज्य हो, तुम्हारी पूज्यता मैं भी प्राप्त करूं। - यजुर्वेद 3/20

मैं समझदार मनुष्य को कहे देता हूं कि तू बेचारी बेकसूर गाय कि हत्या मत कर, वह अदिति हैं काटने-चीरने योग्य नहीं है। - ऋग्वेद 8/101/15

उस देवी गौ को मनुष्य अल्प बुद्धि होकर मारे-काटे नहीं। - ऋग्वेद 8/101/16

निरपराध कि हत्या बड़ी भयंकर होती है, अत: तू हमारे गाय,घोड़े और पुरुष को मर मार। - अथर्ववेद 10/1/29

गौएं वधशाला में न जाएं। - ऋग्वेद 6/28/4

गाय का वध मत कर। - यजुर्वेद 13/43

वे लोग मुर्ख है जो कुत्ते से या गाय के अंगों से यज्ञ करते है। - अथर्ववेद 7/5/5

इसके अतिरिक्त भी वेदों में अनेक मंत्र गौ रक्षा के लिए दिए गये है। पाठक विचार करे कि जब वेदों में गौ रक्षा कि इतनी स्पष्ट साक्षी है ,तब उन्हीं वेदों में यज्ञ में पशु हिंसा का सन्देश कैसे हो सकता है।

शंका 14 - वेदों में गौ हत्या करने वाले के लिए क्या विधान हैं?

समाधान- वेदों में गाय हत्यारे के लिए कठिन से कठिन दंड का विधान है। 

जो गौ हत्या करने वाला हो उसे मृत्यु दंड दिया जाये। - यजुर्वेद 30/18 

हे गौऔ ! तुम प्रजाओं से सम्पन्न होकर उत्तम घास वाले चरागाहों में विचरो। सुखपूर्वक जिनसे जल पिया जा सके ऐसे जलाशयों में से शुद्ध जल को पियो। चोर और घातक तुम्हारा स्वामी न बने, क्रूर पुरुष का शास्त्र भी तुम्हारे ऊपर न गिरे।- अथर्ववेद 4/21/7 

गौ हत्या करने वाले के लिए स्पष्ट कहा गया है कि यदि तू हमारे गाय, घोड़े आदि पशुओं कि हत्या करेगा तो हम तुझे सीसे कि गोली से उड़ा देंगे। - अथर्ववेद 1/16/4 

वेदों में गौ हत्या पर मृत्यु दंड का विधान होने के बाद भी मध्य काल में यज्ञों में पशु बलि का प्रचलित होने का कारण राजाओं द्वारा संस्कृत एवं वेद ज्ञान से अनभिज्ञ होना था। दंड देने का कर्त्तव्य राजाओं का है जब राजा को ही यह नहीं सिखलाया गया कि गौ हत्यारे को क्या दंड दे तो वह कैसे दंड देते? इसके विपरीत यह बताया गया कि होम में बलि दिया गया पशु स्वर्ग को जाता है।[xxv] 

इन प्रमाणों से यही सिद्ध होता हैं कि यज्ञ में किसी भी पशु कि बलि का कोई भी विधान वेदों के सत्य उपदेश के अनुकूल नहीं है एवं जो कुछ भी मध्य काल में प्रचलित हुआ वह वेदों के मनमाने अर्थ करने से हुआ हैं जोकि त्यागने योग्य है। 

आधुनिक भारत में सायण, महीधर आदि भारतीय आचार्यों, मैक्समुलर, विल्सन, ग्रिफ्फिथ आदि के प्रचलित वेद भाष्यों को जब स्वामी दयानंद ने सत्य अर्थ कि दृष्टि से विश्लेषण किया तब उन्होंने पाया वेदों के भाष्यों में वेदों कि मूल भावना के विपरीत मनमाने अर्थ निकाले गये है। एक और भारतीय आचार्य वाममार्ग के प्रभाव में आकर वेदों को मांसभक्षण का समर्थक घोषित करने पर उतारू थे दूसरी और विदेशी चिंतक अपनी मतान्धता के जोश में वेदों के स्वार्थपूर्ति के लिए निंदक अर्थ निकाल रहे थे जिससे कि वेदों के प्रति भारतीय जनमानस में श्रद्धा समाप्त हो जाये और उनका मार्ग प्रशस्त हो सके। धन्य हैं स्वामी दयानंद जिन्होंने अपनी दूर दृष्टि से इस षडयन्त्र को न केवल पकड़ लिया अपितु निराकरण के लिए वेदों को उचित भाष्य भी किया। हम सभी को स्वामी जी के इस उपकार का आभारी होना चाहिए।

-------------------------------------------------------------------------------                                          सन्दर्ख; [i] Vedic Hymns - Maxmuller Part 1(1891) Part 2 (1897)  [ii] The Rig Vedas –Ralph T H Griffith 1896 [iii] ऋग्वेद भाष्य - सायणाचार्य [iv] यजुर्वेद भाष्य- महीधर [v] The Brahma Samaj and Arya samaj in the bearing of Christianity:- A study of Indian Theism by Frank Lillingston (1901), On the Religion and Philosophy of the Hindus by Henry Thomas Colebrooke (1858), Chips from a German Woodshop by Frederick Maxmuller (1875). [vi] The Myth of the Holy Cow- D.N.Jha(2002)/ पवित्र गाय का मिथक डी.न.झा (2004) [vii] ऋग्वेद 10/90/16 [viii] शतपथ 1/7/3/5 [ix] तैतरीय संहिता 3/2/1/4 [x] ऋग्वेद 10/44/6, अथर्ववेद 20/94/6 [xi] Refer to Journal of the Asiatic society of Bengal and Indo Aryans by Rajender Lal Mitra 1891 [xii] Buddha, by denying the authority of the Veda, became a Heretic. Refer Page 300 ,Chips from a German Workshop, Volume 2 by Maxmuller [xiii] ऋग्वेद भाष्य, यजुर्वेद भाष्य - स्वामी दयानंद 
[xiv] अध्वर इति यज्ञनाम ध्वरतीहिंसाकर्मा तत्प्रतिषेध:- निरुक्त 2/7 , 1/8 [xv] अश्वमेध यज्ञ में पशु बलि निषेध के सम्बन्ध में महाभारत के प्रमाण 

१. एक बार इंद्र ने एक विस्तृत यज्ञ रचाया। ऋत्विजों ने उस यज्ञ में पशु बलि के निमित पशुओं का संग्रह किया। पशुओं के आलम्बन के समय, ऋषियों ने पशुओं को दीन भाव युक्त देखकर इंद्र के समीप जाकर कहा कि हे इंद्र ! यज्ञ कि यह विधि शुभ नहीं है। आप महान धर्म करने के अभिलाषी हुए है, परन्तु आप इसे विशेष रूप से नहीं जानते। क्यूंकि पशुओं से यज्ञ करना विधि विहित नहीं है। जब हिंसा धर्म रूप से वर्णित ही नहीं है, तब आपका हिंसा मय यज्ञ धर्म युक्त कैसे होगा? इसलिए आपका यह समारम्भ धर्मोपघातक है। हे इंद्र, यदि आप धर्म कि अभिलाषा करते है तो ऋत्विगन, आगम (वेद और ब्राह्मण) के अनुसार आपका यज्ञ करे। आपको इस विधि द्वष्ट यज्ञ के द्वारा ही महान धर्म होगा। हे इंद्र! आप हिंसा त्याग कर, तीन वर्षों के पुराने बीजों से ही यज्ञ कीजिये। - महाभारत अश्वमेध पर्व 91 अध्याय। 

२. लोभी, लालची और नास्तिक लोगों ने जोकि वेदों के अभिप्राय को नहीं जानते जूठ को सत्य रूप से वर्णित किया है। परन्तु जो सत्पुरुषों के मार्ग के अनुगामी है वे तो बिना हिंसा के ही यज्ञ करते है। वे वनस्पति, औषधि, फलों तथा मूलों से यज्ञ करते है। - महाभारत शांतिपर्व मोक्ष धर्म 264 अध्याय। 

३. जिनकी कोई मर्यादा नहीं, जो स्वयं मूढ़, नास्तिक, संशयात्मा और छली कपटी है। उन्होंने स्वयं यज्ञ में हिंसा का वर्णन किया है। धर्मात्मा मनु ने तो सब कामों में अहिंसा धर्म कहा है। परन्तु मनुष्य व्यवहारों में तथा वेदों में अपने काम वश ही हिंसा करते है। - महाभारत शांतिपर्व मोक्ष धर्म 266 अध्याय। 

४. यज्ञ और यूप के बहाने ने मनुष्य यदि वृथा मांस खाते है तो यह धर्म प्रशंसित नहीं है। सुरा, मछली, मांस, आसव और कृशरोधन- इनका खाना पीना धूर्तों ने चलाया है, वेदों में इनका जिक्र तक नहीं है। धूर्तों ने, गर्व, अज्ञान, लोभ तथा लालच से यह सब कल्पित कर लिया है। ब्राह्मण लोग सब यज्ञों में विष्णु कि पूजा करते है। और दूध, फल तथा वेदों में वर्णित वृक्षों द्वारा ही उस यज्ञ को करने का विधान है। - महाभारत शांतिपर्व मोक्ष धर्म 266 अध्याय। 

इस प्रकार से अनेक उदहारण महाभारत में मिलता हैं जिनका विवरण जानने के लिए प्रसिद्द वैदिक विद्वान एवं अथर्ववेद भाष्यकार श्री विश्वनाथ जी विद्यालंकार जी द्वारा लिखित पुस्तक वैदिक पशु यज्ञ मीमांसा के 12 वें प्रकरण को देख सकते है। 

[xvi] सन्दर्भ - निघण्टू 1 /1, शतपथ 13/15/3 
[xvii] सन्दर्भ - महाभारत शांतिपर्व 337/4-5 [xviii] इस भ्रान्ति का कारण मैकडोनाल्ड (वैदिक माइथोलॉजी पृष्ठ 145 ) एवं कीथ (दी रिलिजन एंड दी फिलोसोफी ऑफ़ दी वेदास एंड उपनिषदस ) द्वारा अतिथिग्व शब्द का अर्थ अतिथियों के लिए गोवध करना बताया जाना हैं जिसका समर्थन काणे (हिस्ट्री ऑफ़ धर्म शास्त्र भाग 2 पृष्ठ 749-56 ) ने भी किया है। [xix] सन्दर्भ आर्ष ज्योति- रामनाथ वेदालंकार पृष्ठ 223 [xx] ऋग्वेद 3/52/1 [xxi] अघन्या शब्द के वेदों में सन्दर्भ -अथर्ववेद 7/73/11 अथवा अथर्ववेद 9/10/20, ऋग्वेद 4/1/6, ऋग्वेद 7/68/9 [xxii][xxii] अघन्य (अवध्य) शब्द का प्रयोग ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में बैल के 4 बार हुआ हैं एवं अघन्या (अवध्या) का प्रयोग गाय के अर्थ में 42 हुआ है। सन्दर्भ -अघन्या शब्द का उल्लेख करने वाले वैदिक अवतरणों के हवाले - काणे (हिस्ट्री ऑफ़ धर्म शास्त्र भाग 2 पृष्ठ 772-773 ) 
[xxiii] वैदिक पर्यावाची कोष निघंटु में गाय की 21 संज्ञाएं दी गई है। [xxiv] Rigveda 9/1/9 - Inviolable milch-kine round about him blend for Indra's drink, The fresh young Soma with their milk-Rig Veda, tr. by Ralph T.H. Griffith [1896] [xxv] एक तर्क इस वाक्य के खंडन में प्रसिद्ध  है कि अगर होम में मारा गया पशु स्वर्ग को जाता है तब तो यजमान अपने पिता को मारकर क्यूँ न सीधे स्वर्ग भेज दे?
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शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2015

kavita

एक रचना: * ओ मेरी नेपाली सखी! एक सच जान लो समय के साथ आती-जाती है धूप और छाँव लेकिन हम नहीं छोड़ते हैं अपना गाँव। परिस्थितियाँ बदलती हैं, दूरियाँ घटती-बढ़ती हैं लेकिन दोस्त नहीं बदलते दिलों के रिश्ते नहीं टूटते। मुँह फुलाकर रूठ जाने से सदियों की सभ्यताएँ समेत नहीं होतीं। हम-तुम एक थे, एक हैं, एक रहेंगे। अपना सुख-दुःख अपना चलना-गिरना संग-संग उठना-बढ़ना कल भी था, कल भी रहेगा। आज की तल्खी मन की कड़वाहट बिन पानी के बदल की तरह न कल थी, न कल रहेगी। नेपाल भारत के ह्रदय में भारत नेपाल के मन में था, है और रहेगा। इतिहास हमारी मित्रता की कहानियाँ कहता रहा है, कहता रहेगा। आओ, हाथ में लेकर हाथ कदम बढ़ाएँ एक साथ न झुकाया है, न झुकाएँ हमेशा ऊँचा रखें अपना माथ। नेता आयेंगे-जायेंगे संविधान बनेंगे-बदलेंगे लेकिन हम-तुम कोटि-कोटि जनगण न बिछुड़ेंगे, न लड़ेंगे दूध और पानी की तरह शिव और भवानी की तरह जन्म-जन्म साथ थे, हैं और रहेंगे ओ मेरी नेपाली सखी! ***

muktak

मुक्तक:
हम भी भरते हैं उड़ान पर बेपर की, गीत ग़ज़ल कविता रचते-मुस्काते हैं
नहीं जलाते पेट्रोल, नहिं धुआँ करें, नहीं पटक बम तांडव कभी मचाते हैं 
तीर चलाते हैं शब्दों के हँस दिल पर, श्रोता सुन हँसते है, कुछ खिसियाते हैं
बात किसी के मन को यदि छू जाए तो, ह्रदय किले पर हम परचम लहराते हैं  

lekh : shreemadbhagwadgita men prabandhan sutra

लेख :

श्रीमद्भगवद्गीता में प्रबंधन सूत्र 

 आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

श्रीमद्भगवद्गीता मानव सभ्यता और विश्व वाङ्मय को भारत का अनुपम कालजयी उपहार है। गीता के आरम्भ में कुरुक्षेत्र की समरभूमि में पाण्डव-कौरव सेनाओं के मध्य खड़ा पराक्रमी अर्जुन रण हेतु उद्यत् सेनाओं में अपने रक्त सम्बन्धियों, पूज्य जनों तथा स्नेहीजनों को देखकर विषादग्रस्त हो जाता है। किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन को कर्तव्य बोध कराने के लिये श्रीकृष्ण जो उपदेश देते हैं, वहीं श्रीमद्भग्वदगीता में संकलित है। इन उपदेशों में विभ्रम ग्रस्त मन को संतुलित करने के लिये प्रबंधकीय उपाय अंतनिर्हित है।

वर्तमान दैनंदिन जीवन में प्रबंधन अपरिहार्य है। घर, कार्यालय, दूकान, कारखाना, चिकित्सालय, विद्यालय, शासन-प्रशासन या अन्य कहीं हर स्थान पर प्रबंधन कला के सूत्र-सिद्धान्त व्यवहार में आते हैं। समय, सामग्री, तकनीक, श्रम, वित्त, यंत्र, उपकरण, नियोजन, प्राथमिकताएँ, नीतियों, अभ्यास तथा उत्पादन हर क्षेत्र में प्रबंधन अपरिहार्य हो जाता है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में मानवीय प्रयासों को सम्यक्, समुचित, व्यवस्थित रूप से किया जाना ही प्रबंधन है। किसी एक मनुष्य को अन्य मनुष्यों के साथ पारस्परिक सक्रिय अंतर्संबंध में संलग्न करना ही प्रबंधन है। किसी मनुष्य की कमजोरियों, दुर्बलताओं, अभावों या कमियों पर विजय पाकर अन्य लोगों के साथ संयुक्त प्रयास करने में सक्षम बनाना ही प्रबंधन कला है।

प्रबंधन कला मनुष्य के विचारों तथा कर्म, लक्ष्य तथा प्राप्ति योजना तथा क्रियान्वयन, उत्पादन तथा विपणन में साम्य स्थापित करना है। यह लक्ष्य प्राप्ति हेतु जमीनी भौतिक, तकनीकी या मानवीय त्रुटियों, कमियों अथवा विसंगतियों पर उपलब्ध न्यूनतम संसाधनों व प्रक्रियाओं अधिकतम प्रयोग करने की कला व विज्ञान है।

प्रबंधन की न्यूनता, अव्यवस्था, भ्रम, बर्बादी, अपव्यय, विलंब ध्वंस तथा हताशा को जन्म देती है। सफल प्रबंधन हेतु मानव, धन, पदार्थ, उपकरण आदि संसाधनों का उपस्थित परिस्थितियों तथा वातावरण में सर्वोत्तम संभव उपयोग किया जाना अनिवार्य है। किसी प्रबंधन योजना में मनुष्य सर्वप्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक होता है। अतः, मानव प्रबंधन को सर्वोत्तम रणनीति माना जाता है। प्रागैतिहासिक काल की आदिम अवस्था से रोबोट तथा कम्प्यूटर के वर्तमान काल तक किसी न किसी रूप में उपलब्ध संसाधनों का प्रबंधन हमेशा महत्वपूर्ण रहा है। वसुधैव कुटुम्बकम् तथा विश्वैक नीड़म् के सिद्धान्तों को मूर्त होते देखते वर्तमान समय में प्रबंधन की विधियाँ अधिक जटिल हो गयी हैं। किसी समय सर्वोत्तम सिद्ध हुये नियम अब व्यर्थ हो गये हैं। इतने व्यापक परिवर्तनों तथा लम्बी समयावधि बीतने के बाद भी गीता के प्रबंधक सूत्रों की उपादेयता बढ़ रही है।
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रचनाकार परिचय:-
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा, बी.ई., एम.आई.ई., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम.ए., एल.एल.बी., विशारद, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है।
आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपने निर्माण के नूपुर, नींव के पत्थर, राम नाम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८, समयजयी साहित्यशिल्पी भागवतप्रसाद  मिश्र 'नियाज़' आदि पुस्तकों, ८ पत्रिकाओं व १६ स्मारिकाओं का संपादन तथा २९ पुस्तकों में आमुख लेखन तथा ३५० पुस्तकों का समीक्षा लेखन किया है। आपके शोध लेख तथा पत्रिकाओं व अंतर्जाल पर ५ लेख मालाएँ प्रकाशित हुई हैं। आपकी रचनाओं का ४ भाषाओँ में अनुवाद हुआ है.   

आपको देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० संस्थाओं ने शताधिक सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य, २०वी शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञान रत्न, अभियंता रत्न, सरस्वती रत्न, शारदा सुत, साहित्य शिरोमणि, साहित्य वारिधि, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, काव्य श्री, साहित्य श्री, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, कायस्थ कीर्तिध्वज, वास्तु गौरव, कामता प्रसाद गुरु वर्तिका अलंकरण, कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर साहित्य सम्मान, युगपुरुष विवेकानंद सम्मान आदि।

आप मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग में कार्यपालन यंत्री, संभागीय परियोजना यंत्री, सहायक महाप्रबंधक आदि पदों पर कार्य कर सेवा निवृत्त हुए हैं तथा हिंदी भाषा के छंदों,  अलंकारों, रसों आदि पर शोधपरक लेखन हेतु समर्पित हैं. 

संपर्क : समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com 
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श्रीमद्भगवद्गीता में प्रबंधनसूत्रः 

प्रबंधन के क्षेत्र में गीता का हर अध्याय महत्वपूर्ण मार्गदर्शन करता है। अब तक जनसामान्य गीता को धार्मिक-अध्यात्मिक ग्रंथ तथा सन्यास वृत्ति उत्पन्न करने वाला मानकर उससे दूर रहता है। अधिकांश घरों में गीता है ही नहीं, यह अलमारी की शोभा बढ़ाती है- पढ़ी नहीं जाती। गीता का संस्कृत में होना और भारतीय शिक्षा प्रणाली में संस्कृत का नाममात्र के लिये होना भी गीता व अन्य संस्कृत ग्रंथों के कम लोकप्रिय होने का कारण है। शिक्षालयों से किताबी अध्ययन पूर्ण कर आजीविका तलाशते युवकों-युवतियों को अपने भविष्य के जीवन संग्राम, परिस्थितियों, चुनौतियों, सहायकों वांछित कौशल अथवा सफलता हेतु आवश्यक युक्तियों की कोई जानकारी नहीं होती। विद्यार्थी काल तक माता-पिता की छत्र-छाया में जिम्मेदारियों से मुक्तता युवाओं को जीवन पथ की कठिनाइयों से दूर रखती है किन्तु पाठ्यक्रम पूर्ण होते ही उनसे न केवल स्वावलम्बी बनने की अपितु अभिभावकों को सहायता देने और पारिवारिक-सामाजिक- व्यावसायिक दायित्व निभाने की अपेक्षा की जाती है। 

व्यवसाय की चुनौतियों, अनुभव की कमी तथा दिनों दिन बढ़ती अपेक्षाओं के चक्रव्यूह में युवा का आत्मविश्वास डोलने लगता है और वह कुरुक्षेत्र के अर्जुन की तरह संशय, ऊहापोह और विषाद की उस मनः स्थिति में पहुँच जाता है जहां से निकलकर आगे बढ़ने के कालजयी सूत्र श्रीकृष्ण द्वारा दिये गये हैं। इन सूत्रों की पौराणिक- ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से कुछ हटकर वर्तमान परिवेश में व्याख्यायित किया जा सके तो गीता युवाओं के लिये Career building & Management का ग्रंथ सिद्ध होती है।

आरम्भ में ही कृष्ण श्लोक क्र. 2/3 में ‘‘क्लैव्यं मा स्म गमः’’ अर्थात् कायरता और दुर्बलता का त्याग करो कहकर अपनी सामथ्र्य के प्रति आत्मविश्वास जगाते हैं। ‘‘क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं व्यक्लोतिष्ठ परंतप’’ हृदय में व्याप्त तुच्छ दुर्बलता को त्यागे बिना सफलता के सोपानों पर पग रखना संभव नहीं है। 

श्लोक 2/7 में ‘‘शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नं’’ ‘अर्थात मैं शिष्य की भांति आपकी शरण में हूँ कहता हुआ अर्जुन भावी संघर्ष हेतु सूत्र ग्रहण करने की तत्परता दिखाता है। अध्ययनकाल में विद्यार्थी- शिक्षक सम्बन्ध औपचारिक होता है। सामान्यतः इसमें श्रद्धाजनित अनुकरण वृत्ति का अभाव होता है। आजीविका के क्षेत्र में पहले दिन से कार्य कुशलता तथा दक्षता दिखा पाना कठिन है। गीता के दो सूत्र ‘‘संशय छोड़ो’’ तथा ‘‘किसी योग्य की शरण में जाओ’’ मार्ग दिखाते हैं। 

कार्यारम्भ करने पर प्रारम्भ में गलती, चूक और विलंब और उससे नाराजी मिलना या हानि होना स्वाभाविक है। ऐसी स्थिति में ‘‘गतासूनगतासूंश्च नानुशोचंति पंडिताः’’-2/11 अर्थात् हर्ष-शोक से परे रहकर, लाभ-हानि के प्रति निरंतर तटस्थ भाव रखकर आगे बढ़ने का सूत्र उपयोगी है। ‘‘सम दुःख-सुख धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ‘‘2/15 अर्थात् असफलताजनित दुख या सफलताजनित को समभाव से ग्रहण करने पर ही अभीष्ट साफल्य की प्राप्ति संभव है। 
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नो द्विजेत्प्राप्यचाप्रियम् 
स्थिर बुद्धिसंमूढ़ो ब्रह्मचिद्बह्मणि स्थितः।। 
"जो प्रिय (सफलता) प्राप्त कर प्रसन्न नहीं होता अथवा अप्रिय (असफलता) प्राप्त कर उद्विग्न (अशांत) नहीं होता वह स्थिरबुद्धि ईश्वर (जिसकी प्राप्ति अंतिम लक्ष्य है) में स्थिर कहा जाता है।"- कहकर कृष्ण एक अद्भुत प्रबंधन सूत्र उपलब्ध कराते हैं।
प्रबंधन के आरम्भ में परियोजना सम्बन्धी परिकल्पनाएँ और प्राप्ति सम्बन्धी आँकड़ों का अनुमान करना होता है। इनके सही-गलत होने पर ही परिणाम निर्भर करता है। 

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।।2/16 

अर्थात् असत् (असंभव) की उपस्थिति तथा सत् (सत्य, संभव) की अनुपस्थिति संभव नहीं। यदि परियोजना की परिकल्पना में इसके विपरीत हो तो वह परियोजना विफल होगी ही। शासकीय कार्यों में इस ‘सतासत्’ का ध्यान न रखा जाने का दुष्परिणाम हम देखते ही हैं किन्तु वैयक्तिक जीवन में ‘सतासत्’ का संतुलन तथा पहचान अपरिहार्य है।


सुख-दुःखे समे कृत्वा, लाभालाभौ, जयाजयो
ततो युद्धाय युज्यस्व, तैवं पापं वाप्स्यसि।। 

कर्मों का क्रम नष्ट नहीं होता। कर्मफल पुनः कर्म कराता है। धर्म (कर्मयोग) का अल्प प्रयोग भी बड़े पाप (हानि) भय से बचा लेता है। न्यूटन गति का नियम "Each and every action has equal and opposite reaction" गीता के इस श्लोक की भिन्न पृष्ठभूमि में पुनरुक्ति मात्र है। प्रबंधन करते समय यह श्लोक ध्यान में रहे तो हर क्रिया की समान तथा विपरीत प्रतिक्रिया व उसके प्रभाव का पूर्वानुमान कर बड़ी हानि से बचाव संभव है।

व्यवसायात्मिका बुद्धि रेकेह कुरुनंदन
बहुशाखा ह्यनंताश्च बुद्धयोत्यवसायिनम्।।2/41।। 

निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है और अनिश्चयात्मक बुद्धि अनेक होती हैं।’’ 

त्रैगुण्य विषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन 
निद्वंदो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।2/45।। 

ज्ञानियों (वैज्ञानिकों) का विषय त्रिगुण (सत, रज, तम) प्रकृति है। तू इन गुणों की प्रकृति से ऊपर उठकर ज्ञानवान बन। प्रबंधन कला में अनेक विकल्पों में से किसी एक का चयन कर उसे संकल्प बनाना उसकी प्रकृति अर्थात् गुणावगुणों का अनुमान कर ज्ञानवान बने बिना कैसे मिलेगी? 

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
मा कर्मफल हेतुर्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि।।2/46।। 

To action alone there has't a right. 
Its first must remain out of thy sight. 
Neither the fruit be the impulsed of thy action. 
Nor be thou attached to the life of ideal in action.

सतही तौर पर ऐसा प्रतीत होता है कि प्रबंधन का लक्ष्य सुनिश्चित परिणाम पाना है जबकि श्रीकृष्ण कर्म करने और फल की चिंता न करने को कह रहे हैं। अतः ये एक दूसरे के विपरीत हैं किन्तु गहराई से सोचें तो ऐसा नहीं पायेंगे। श्लोक 48 में सफलता-असफलता के लोभ-मय से मुक्त होकर समभाव से कर्म करने, श्लोक 49 में केवल स्वहित कारक फल से किये कर्म को हीन (त्याज्य) मानने, श्लोक 50 में योगः कर्मसु कौशलं’’ कर्म में कुशलता (समभाव परक) ही योग है कहने के बाद श्रीकृष्ण कर्मफल से निर्लिप्त रहने वाले मनीषियों को निश्चित बुद्धि योग और बंधन मुक्ति का सत्य बताते हैं।

इन श्लोकों की प्रबंध विज्ञान के संदर्भ में व्याख्या करें तो स्पष्ट होगा कि श्रीकृष्ण केवल फल प्राप्ति को नहीं सर्वकल्याण कर्मकुशलता को समत्व योग कहते हुये उसे इष्ट बतला रहे हैं। स्पष्ट है कि शत-प्रतिशत परिणाम दायक कर्म भी त्याज्य है। यदि उससे सर्वहित न सधे। कर्म में कुशलता हो तथा सर्वहित सधता रहे तो परिणाम की चिंता अनावश्यक है। गीता की इस कसौटी पर प्रबंधन तथा उद्योग संचालन हो तो उद्योगपति, श्रमिक तथा आम उपभोक्ता सभी को समान हितकारी प्रबंधन ही साध्य होगा। तब उद्योगपति पूँजी का स्वामी नहीं, समाज और देश के लिये हितकारी न्यासी की तरह उनका भला करेगा। महात्मा गांधी प्रणीत ट्रस्टीशिप सिद्धान्त का मूल गीता में ही है। ‘समत्वं योग उच्यते’ (2/48) में श्री कृष्ण आसक्ति का त्यागकर सिद्धि-असिद्धि के प्रति समभाव की सीख देते हैं।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली बुद्धि का उपयोग केवल ‘स्वहित’ हेतु करने की शिक्षा देती है जबकि श्लोक 49-50 में समत्वपरक बुद्धि की शरण ग्रहण करने तथा स्वहित हेतु कर्म के त्याग तथा श्लोक 52-53 में मोह रूपी दलदल को पारकर निश्चल बुद्धि योग प्राप्ति की प्रेरणा दी गयी है। स्वार्थपरक ऐन्द्रिक सुखों से संचालित होने पर बुद्धि का हरण हो जाता है। अतः वैयक्तिक विषय भोग केा त्याज्य मानकर जब शेष जन शयन अर्थात विलास करते हों तब जागकर संयम साधना अभीष्ट है। ‘या निशा सर्वभूतानां तस्या जागर्ति संयमी’ (2/69) एक बार स्थित प्रज्ञता, निर्विकारता प्राप्त होने पर भोग से भी शांति नाश नहीं होता। (2/60) ‘‘निर्ममो निहंकारः स शांतिमधिगच्छति’’ (2/61)आसक्ति और अहंकार के त्याग से ही शांति प्राप्ति होती है।

सारतः गीता के अनुसार बुद्धि एक उपकरण है। निश्चय अथवा निर्णय करने में समर्थ होने पर बुद्धि स्वहित का त्याग कर सर्वहित में निर्णय ले तो सर्वत्र शांति और उन्नति होगी ही। प्रबंधन की श्रेष्ठता मापने का मानदण्ड यही है। अध्याय 3 में कर्मयोग की व्याख्या करते हुये श्री कृष्ण नियत कर्म को करने (3/8), आसक्ति रहित होने (3/9), धर्मानुसार कर्माचरण की श्रेष्ठतम प्रतिपादित करते हैं। (3/35)‘स्वधर्मों निधनं श्रेयः परधर्मों भयावहः।’ श्री कृष्ण का ‘धर्म’ अंग्रेजी का रिलीजन (सम्प्रदाय) नहीं कनजल (कर्तव्य) है। धर्म के अष्ठ लक्ष्य यज्ञ, अध्ययन, अध्यापन, दान-तप, सत्य, धैर्य, क्षमा व निर्लोभ वृत्ति है। समस्त कर्मों का लक्ष्य ‘परित्राणाय साधूनां विनाशाचाय च दुष्कृताम्। अर्थात् सज्जनों का कल्याण तथा दुष्टों का विनाश है। प्रबंधन कला यह लक्ष्य पा सके तो और क्या चाहिये? 

गीता में त्रिकर्म प्राकृत, नैमित्तिक तथा काम्य अथवा कर्म, अकर्म तथा विकर्म का सम्यक् विश्लेषण है जिसे प्रबंधन में करणीय तथा अकरणीय कहा जाता है। गांधीवाद का साध्य-साधन की पवित्रता का सिद्धान्त भी गीता से ही उद्गमित है। गीता के अनुसार स्वहितकारक फल अर्थात् स्वार्थ की कामना से किया गया कर्म हेय तथा बंधन कारक है जबकि ऐसे फल की चिन्ता न कर सर्वहित में निष्काम भाव से किया गया कर्म मुक्तिकारक है। यह मानक पूंजीपति अपना लें तो जनकल्याण होगा ही। 

प्रबंधन के क्षेत्र में व्यक्ति का मूल्यांकन उसकी जाति, धर्म, क्षेत्र, शिक्षा या सम्पन्नता से नहीं होता। केवल और केवल योग्यता या कर्मकुशलता ही मूल्यांकन का आधार होता है। यह मानक भी गीता से ही आयातित है।
‘‘विद्या विनय सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।’’ 
अर्थात् विद्या- विनय से युक्त ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और चण्डाल को समभाव से देखने वाला पण्डित है। विडंबना यह कि योग्यता को परखने वाला जौहरी पण्डित होने के स्थान पर जन्मना जाति विशेष में जन्मे लोगों को अयोग्य होने पर भी पंडित कहा जाता है। 
‘चातुर्चण्य मया स्रष्टम् गुण कर्म विभागशः’’ अर्थात् चारों वर्ण गुण-कर्म का विभाजन कर मेरे द्वारा बनाये गये हैं- कहकर कृष्ण वर्णों को जन्मना नहीं कर्मणा मानते हैं। प्रबंधन के क्षेत्र में व्यक्ति को उसका स्थान जन्म नहीं कर्म के आधार पर मिलता है। यह मानक आम आदमी के जीवन में लागू हो तो हर घर में चारों वर्णों के लोग मिलेंगे, ऊँच-नीच, छुआ-छूत, जाति प्रथा, आॅनर किलिंग जैसी समस्यायें तत्काल समाप्त हो जायेंगीं। श्लोक 29 अध्याय 6 के अनुसार 
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मिन। ईक्षते योग मुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः
अर्थात् योगमुक्त जीवात्मा सब प्राणियों को समान भाव से देखता है। सब सहयोगियों, सहभोगियों और उपभोक्ताओं को समभाव से देखने वाला प्रबंधक वेतन, कार्यस्थितियों, श्रमिक कल्याण, पर्यावरण और उत्पादन की गुणवत्ता में से किसी भी पक्ष की अनदेखी नहीं कर सकता। 

इसके पूर्व श्लोक 5 ‘‘उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानम वसादयेत्। आत्मैव हयात्मनो बन्धुर आत्मैव रिपुरात्मनः’’ में गीताकार मनुष्य को मनुष्य का मित्र और मनुष्य को ही मनुष्य का शत्रु बताते हुए स्वकल्याण की प्रेरणा देते हैं। कोई प्रबंधक अपने सहयोगियों का शत्रु बनकर तो अपना भला नहीं कर सकता। अतः श्रीकृष्ण का संकेत यही है कि उत्तम प्रबंधकर्ता अपने सहयोगियों से सहयोगी-प्रबंधकों के मित्र बनकर सद्भावना से कार्य सम्पादित करें। 

आज हम पर्यावरणीय प्रदूषण से परेशान हैं। लोकप्रिय प्रधानमंत्री का राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान और उसमें हममें से हर एक की भागीदारी आवश्यक है। इसका मूल सूत्र गीता में ही है। अध्याय 7 श्लोक 4-7 में मुरलीधर, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश (पंचमहाभूत) मन, बुद्धि और अहंकार इन 8 प्रकार की अपरा (प्रत्यक्ष/समीप) तथा अन्य जीव भूतों (प्राणियों) की पराम् (अप्रत्यक्ष/दूर) प्रकृतियों का सृष्टिकर्ता खुद को बताते हैं। विचारणीय है कि गिरि का नाश करने से गिरिधर कैसे प्रसन्न हो सकते हैं। गोवंश की हत्या हो तो गोपाल की कृपा कैसे मिल सकती है? वन कर्तन होता रहे तो बनमाली कुपित कैसे न हों? केदारवन, केदार गिरि को नष्ट किया जाये तो केदारनाथ कुपित क्यों न हों। कर्म मानव का। दोष प्रकृति पर....... अब भी न चेते तो भविष्य भयावह होगा। इसी अध्याय में त्रिगुणात्मक (सत्व, रज, तम) माया से मोहित लोगों का आसुरी प्रकृति का बताते हैं। स्पष्ट है कि असुर, दानव या राक्षस कोई अन्य नहीं हम स्वयं हैं। हमें इस मोह को त्यागकर परमात्मतत्व की प्राप्ति हेतु पौरुष करना होगा। प्रकाश, ओंकार, शब्द, गंध, तेज और सृष्टि मूल कोई अन्य नहीं श्रीकृष्ण ही हैं। ‘आत्मा सो परमात्मा’ परमात्मा का अंश होने के कारण ये सब लक्षण हममें से प्रत्येक में हो। कोई प्रबंधक यह अकाट्य सत्य जैसे ही आत्मसात् कर अपने सहकर्मियों को समझा सकेगा, कर्मयोगी बनकर सर्वकल्याण के समत्व मार्ग पर चल सकेगा। अध्याय 8 श्लोक 4 में श्रीकृष्ण‘‘अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर’’ अर्थात् शरीर में परमात्म ही अधियज्ञ (यज्ञ करने वाला/कर्म करने वाला) है कहकर सिर्फ कौन्तेय को नहीं हर जननी की हर संतति को सम्बोधित करते हैं। प्रबंधक अपने प्रतिष्ठान में खुद को परमात्मा और हर कर्मचारी/उपभोक्ता को अपनी संतति समझे तो शोषण समाप्त न हो जायेगा। 

प्रबंधकों के लिये एक महत् संकेत श्लोक 14 में है। ‘‘अनन्यचेताः सततं यो’’ सबमें परमात्मा की प्रतीति क्षण मात्र को हो तो पर्याप्त नहीं है। अभियंता हर निर्माण और श्रमिकों में, चिकित्सक हर रोगी में, अध्यापक को हर विद्यार्थी में, पण्डित को हर यजमान में, पुरुष को हर स्त्री में परमात्मा की प्रतीति सतत हो तो क्या होगा? सोचिए... क्या अब भी गीता को पूज्य ग्रंथ मानकर अपने से दूर रखेंगे या पाठ्य पुस्तक की तरह हर एक के हाथ में हर दिन देंगे ताकि उसे पढ़-समझकर आचरण में लाया जा सके। 

नवम् अध्याय का श्री गणेश ही अर्जुन को वृत्ति से (पर दोष दर्शन) से दूर रखने से होता है। हम किसी की कमी दिखाने के लिये उसकी ओर तर्जनी उठाते हैं। यह तर्जनी उठते ही शेष 3 अंगुलियां मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठा कहाँ होती है। वे ‘आत्म’ अर्थात स्वयं को इंगित कर खुद में 3 गुना अधिक दोष दर्शाती हैं। यहाँ प्रबन्धकों के लिये, अध्यापकों के लिये, अधिकारियों के लिये, प्रशासकों के लिये, उद्यमियों के लिये, गृह स्वामियों के लिये अर्थात् हर एक के लिये संकेत है। जितने दोष सहयोगियों, सहभागियों, सहकर्मियों, अधीनस्थों में हैं, उनके प्रति 3 गुना जिम्मेदारी हमारी है। अध्याय 10 में श्रीकृष्ण स्वदोष दर्शन की अतिशयता से उत्पन्न आत्महीनता की प्रवृत्ति से प्रबंधक को बचाते हैं। श्लोक 4-5 में कहते हैं 
‘‘बुद्धिज्र्ञान संमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः। 
सुखं दुखं भवोऽभावोभयं चाभयमेव च।’’  

अहिंसा समता तुष्टिस्तयो दानं यशोऽयशः। 

भवति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः।’’ 

अर्थात बुद्धि, ज्ञान, मोहमुक्ति, क्षमा, सत्य, इंद्रिय व मन पर नियंत्रण, शांति, सुख-दुख, उत्पत्ति-मृत्यु भय तथा अभय, अहिंसा, समता, संतोष, तप (परिश्रम) दान, यश, अपयश आदि स्थितियों का कारक परमात्मा अर्थात् आत्मा अर्थात् प्रबंधन क्षेत्र का प्रबंधक ही है। 

गीता में सर्वत्र समत्व योग अंतर्निहित है। ऊपरी दृष्टि से सभी के दोषों का पात्र होना और सब गुणों का कारण होना अंतर्विरोधी प्रतीत होता है किन्तु इन दोनों की स्थिति दिन-रात की तरह है, एक के बिना दूसरा नहीं। दीप के ऊपर प्रकाश और नीचे तमस होगा ही। हमें से प्रत्येक को बाती बनकर तम को जय कर प्रकाश का वाहक बनने का पथ गीता दिखाती है। 

अध्याय 11 श्लोक 33 में श्रीकृष्ण अर्जुन को निमित्त मात्र बताते हैं। प्रबंधक के लिये यह सूत्र आवश्यक है। आसंदी पर बैठकर किये गये कार्यों, लिये गये निर्णयों तथा प्राप्त उपलब्धियों के भार से आसंदी से उठते ही मुक्त होकर घर जाते ही एक-एक पत्र पारिवारिक सदस्यों को दें तो परिवारों का बिखराव खलेगा। होता यह है कि हम घर में कार्यालय और कार्यालय में घर का ध्यान कर दोनों जगह अपना श्रेष्ठ नहीं दे पाते। यह निमित्त भाव इस चक्रव्यूह को भेदने में समर्थ है। निमित्त भाव की पूर्णता निर्वेद्रता (श्लोक 55) में है। यह अजातशत्रुत्व भाव बुद्ध, महावीर में दृष्टव्य है।

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muktika

मुक्तिका :
सूखी नदी भी रेत सीपी शंख दे देती हमें
हम मनुज बहती नदी को नित्य गन्दा कर रहे
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कह रहे मैया! मगर आँसू न इसके पोंछते
झाड़ पत्थर रेत मछली बेच धंधा कर रहे
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काल आ मारे हमें इतना नहीं है सब्र अब
गले मिलकर पीठ पर चाकू चलाकर हँस रहे
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व्यथित प्रकृति रो रही, भूचाल-तूफां आ रहे
हम जलाने लाश अपनी आप चंदा कर रहे
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सूरज ठहाका लगाता है, देख कोशिश बेतुकी
मलिन छवि भायी नहीं तो दीप मंदा कर रहे
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वाह! शाबाशी खुदी को दे रहे कर रतजगा
बाँह में ये, चाह में वो आह फंदा कर रहे
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सभ्यता-तरु पौल डाला, मूल्य अवमूल्यित किये
पाँच अँगुली हों बराबर, पञ्च रंदा कर रहे
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गुरुवार, 8 अक्टूबर 2015

geet

एक रचना:
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मुर्दा मन ही
मुर्दा तन की
करे नुमाइश।
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संबंधों के अनुबंधों को
प्रतिबंधों सम जिसने जाना।
माया-मोह, लोभ-लालच ही
साध्य जिसे, अपना बेगाना। 
नहीं निधन पर 
अश्रु बहाने की भी 
वहाँ रही गुंजाइश।
मुर्दा मन ही
मुर्दा तन की
करे नुमाइश।
*
जानेवाला चला गया पर
बेगाना तो डटा खड़ा है।
चित्र खिंचाने का लालच भी
तनिक न छोटा बहुत बड़ा है। 
साक्ष्य जुटा लूँ,  
काम वक़्त पर आये  
है इतनी फरमाइश।
मुर्दा मन ही
मुर्दा तन की
करे नुमाइश।
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माटी का ही गढ़ा घरौंदा
माटी ने माटी से मिलकर।
माटी के कुछ बना खिलौने
विदा हुआ माटी में मिलकर। 
हाय विधाता!
सबक न सीखी  
अब भी रंजिश।
मुर्दा मन ही
मुर्दा तन की
करे नुमाइश।
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alankar

अलंकार सलिला-

जन मन रंजन :

निम्न चित्रपटीय गीतों में अलंकार बताइए :

१. कहीं दूर जब दिन ढल जाए, साँझ की दुल्हन बदन चुराए, चुपके से आये
    मेरे ख्यालों के आँगन में कोई सपनों के दीप जलाये, नज़र न आये       - आनंद
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२. दोस्त दोस्त ना रहा, प्यार प्यार ना रहा
    ज़िंदगी हमें तेरा ऐतबार ना रहा
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३. चाँद सी मेहबूबा हो मेरी, कब ऐसा मैंने सोचा था?
     हाँ तुम बिलकुल वैसी हो जैसा मैंने सोचा था 
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४. चाँद सा रौशन चेहरा, ज़ुल्फ़ों का रंग सुनहरा 
     ये झील सी नीली आँखें, कोई राज है जिनमें गहरा
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५. चंदन सा वदन, चंचल चितवन, धीरे से तेरा ये मुस्काना 
     मुझे दोष न देना जगवालों, हो जाऊँ अगर मैं दीवाना  
     ये काम-कमान भँवें तेरी, पलकों के किनारे कजरारे 
     माथे पर सिन्दूरी सूरज, होंठों पे दहकते अंगारे 
     साया भी जो तेरा पड़ जाए, आबाद हो दिल का वीराना 
    *