कुल पेज दृश्य

सोमवार, 1 सितंबर 2014

lekh: radha bante jana hai -- alaknanda sinh

राधाष्‍टमी पर

राधा बनते जाना है और ...बस !

 - अलकनंदा सिंह 

ओशो द्वारा कृष्ण पर दिए गए प्रवचन
को लेकर कभी अमृता प्रीतम ने लिखा 
था-''जिस तरह कृष्ण की बाँसुरी को 
भीतर से सुनना है, ठीक उसी तरह ‘भारत
एक सनातन यात्रा’को पढ़ते-सुनते, इस 
यात्रा पर चल देना है।कह सकती हूँ कि 
अगर कोई तलब कदमों में उतरेगी और 
कदम इस राह पर चल देंगे, तब वक्त 
आएगा कि यह राह सहज होकर कदमों के 
साथ चलने लगेगी और फिर ‘यात्रा’ शब्द अपने अर्थ को पा लेगा !''

यात्रा... , जी हां। एक ऐसा अनवरत सिलसिला जिसे किसी ठांव या मकसद की
हमेशा जरूरत  होती  है जिसे हर हाल में मंज़िल की तलाश होती और मंज़िल 
को पाना ही लक्ष्‍य।यूं तो यात्रा का अर्थ बहुत गहरा है मगर जब यह यात्रा एक 
धारा बनकर बहती है तो अनायास ही वह अपने उद्गम की ओर आने को उत्‍सुक 
रहती है। यही उत्‍सुकता धारा को राधा बना देती है।

राधा कोई एक किसी ग्‍वाले कृष्‍ण की एक सुन्‍दर सी प्रेयसी का नाम नहीं, ना ही
वो केवल वृषभान की दुलारी कन्‍या है बल्‍कि वह तो अनवरत हर कृष्‍ण अर्थात् 
ईश्‍वर के प्रत्‍येक अंश-अंश से मिलने को आतुर रहने वाली हर उस आध्‍यात्‍मिक 
शक्‍ति के रूप में बहने वाली धारा का नाम है जो भौतिकता के नश्‍वरवाद से 
आध्‍यात्‍मिक चेतना की ओर बहती है, उसमें एकात्‍म हो जाने को... बस यहीं से 
शुरू होती है किसी के भी राधा हो जाने की यात्रा ।

इसी 'राधा होते जाने की प्रक्रिया' को ओशो अपने प्रवचनों में कुछ यूं सुनाते हैं—
‘‘पुराने शास्त्रों में राधा का कोई जिक्र नहीं, वहाँ गोपियाँ  हैं, सखियाँ  हैं, कृष्ण 
बाँसुरी बजाते हैं और रास की लीला होती है। राधा का नाम पुराने शास्त्रों में नहीं है। 
बस इतना सा जिक्र है, कि सारी सखियों में कोई एक थीं, जो छाया की तरह साथ 
रहती थीं। यह तो महज सात सौ वर्ष पहले 'राधा' नाम प्रकट हुआ । उस नाम के 
गीत गाए जाने लगे, राधा और कृष्ण को व्‍यक्‍ति के रूप में प्रस्‍थापित किया गया। 
इस नाम की खोज में बहुत बड़ा गणित छिपा है । राधा शब्द बनता है धारा शब्द
को उलटा कर देने से।

‘‘गंगोत्री से गंगा की धारा निकलती है। स्रोत से दूर जाने वाली अवस्था का नाम
धारा है और धारा शब्द को उलटा देने से राधा हुआ, जिसा अर्थ है—स्रोत की तरफ 
लौट जाना। गंगा वापिस लौटती है गंगोत्री की तरफ। बहिर्मुखता, अंतर्मुखता 
बनती है।’’ओशो जिस यात्रा की बात करते हैं—वह अपने अंतर में लौट जाने की 
बात करते हैं। एकयात्रा धारामय होने की होती है, और एक यात्रा राधामय होने की।

यूं तो विद्वानों ने राधा शब्‍द और राधा के अस्‍तित्‍व तथा राधा की ब्रज व कृष्‍ण के
जीवन में उपस्‍थिति को लेकर अपने नज़रिये से आध्‍यत्‍मिक विश्‍लेषण तो किया ही 
है, मगर लोकजीवन में आध्‍यत्‍म को सहजता से पिरो पाना काफी मुश्‍किल होता है।
दर्शन यूं भी भक्‍ति जैसी तरलता और सरलता नहीं पा सकता इसीलिए राधा भले ही 
ईश्‍वर की आध्‍यात्‍मिक चेतना में धारा की भांति बहती हों मगर आज भी उनके 
भौतिक- लौकिक स्‍वरूप पर कोई बहस नहीं की जा सकती।

ज्ञान हमेशा से ही भक्‍ति से ऊपर का पायदान रहा है, इसीलिए जो सबसे पहला
पायदान है भक्‍ति का, वह आमजन के बेहद करीब रहता है और राधा को 
आध्‍यात्‍मिक शक्‍ति से ज्‍यादा कृष्‍ण की प्रेयसी मान और उनकी अंतरसखी मान उन्‍हें
किसी भी एक सखी में प्रस्‍थापित कर उन्‍हें अपना सा जानता है। ये भी तो ईश्‍वर की 
ओर जाने की धारा ही है, बस रास्‍ता थोड़ा लौकिक है, सरल है...। ब्रज में समाई हुई 
राधा ... कृष्ण के नाम से पहले लगाया हुआ मात्र एक नामभ र नहीं हैं और ना ही राधा 
मात्र एक प्रेम स्तम्भ हैं जिनकी कल्‍पना किसी कदम्ब के नीचे कृष्ण के संग की जाती 
है।भक्‍ति के रास्‍ते ही सही राधा फिर भी कृष्‍ण के ही साथ जुड़ा हुआ एक आध्यात्मिक 
पृष्ठ है, जहाँ द्वैत-अद्वैत का मिलन है। राधा एक सम्पूर्ण काल का उद्गम है जो कृष्ण रुपी 
समुद्र से मिलती है ।

समाज में प्रेम को स्‍थापित करने के लिए इसे ईश्‍वर से जोड़कर देखा गया और समाज
को वैमनस्‍यता से प्रेम की ओर ले जाने का सहज उपाय समझा  गया इसीलिए श्रीकृष्ण 
के जीवन में राधा प्रेम की मूर्ति बनकर आईं। हो सकता है कि राधा का कृष्‍ण से संबंध 
शास्‍त्रों में ना हो मगर लोकजीवन में प्रेम को पिरोने का सहज उपाय बन गया। और इस 
तरह जिस प्रेम को कोई नाप नहीं सका, उसकी आधारशिला राधा ने ही रखी थी।

राधा की लौकिक कथायें बताती हैं कि प्रेम कभी भी शरीर की अवधारणा में नहीं सिमट
सकता...प्रेम वह अनुभूति है जिसमें साथ का एहसास निरंतर होता है। न उम्र... न जाति... 
न ऊंच नीच ...प्रेम हर बन्धनों से परे एक आत्मशक्ति है , जहाँ सबकुछ हो सकता है ।
यदि हम कृष्ण और राधा को हर जगह आत्मिक रूप से उपस्थित पाते हैं तो आत्मिक
प्यारकी ऊंचाई और गहराई को समझना होगा। कृष्‍ण इसीलिए हमारे इतने करीब हैं कि 
उन्‍हें सिर्फ ईश्वर ही नहीं बना दिया, उन्‍हें लड्डूगोपाल के रूप में लाड़ भी लड़ाया है तो वहीं 
राधा के संग झूला भी झुलाया है और रास भी रचाया है।

जब कृष्‍ण जननायक हैं तो भला राधा हममें से ही एक क्‍यों न मान ली जायें...जो सारे
आध्‍यात्‍मिक तर्कों से परे हों, फिर चाहे वो आत्‍मा की गंगोत्री से  धारा बनकर  वापस 
कृष्‍ण में समाने को राधा बनें और अपनी यात्रा का पड़ाव पा लें या फिर बरसाने वाली 
राधा प्‍यारी...संदेश तो एक ही है ना दोनों का कि प्रेम में इतना रम जाया जाये कि ईश्‍वर 
तक पहुंचने को यात्रा  कोई भी हो उसकी हर धारा राधा बन जाये, एकात्‍म हो जाये...।

nvgeet: chah kiski sanjiv

नवगीत:
चाह किसकी.... 
संजीव
*
चाह किसकी है
कि वह निर्वंश हो?....
*
ईश्वर अवतार लेता
क्रम न होता भंग
त्यगियों में मोह बसता
देख दुनिया दंग
संग-संगति हेतु करते
जानवर बन जंग
पंथ-भाषा कोई भी हो
एक ही है ढंग
चाहता कण-कण
कि बाकी अंश हो....
*
अंकुरित पल्लवित पुष्पित
फलित बीजित झाड़ हो
हरितिमा बिन सृष्टि सारी
खुद-ब-खुद निष्प्राण हो  
जानता नर काटता क्यों?
जाग-रोपे पौध अब
रह सके सानंद प्रकृति
हो ख़ुशी की सौध अब
पौध रोपें, वृक्ष होकर
'सलिल' कुल अवतंश हो....


doha salila sanatan 2 : sanjiv

दोहा सलिला सनातन : २  

संजीव 
* 

गृहस्थ संत कबीर (सं. १४५५-१५७५) के लिये 'यह दुनिया माया की गठरी'थी। कबीर जुलाहा थे, जो कपड़ा बुनते उसे बेचकर परिवार पलता पर कबीर वह धन साधुओं पर खर्च कर कहते 'आना खाली हाथ है, जाना खाली हाथ' उनकी पत्नी लोई नाराज होती पर कबीर तो कबीर... लोई ने पुत्र कमाल को कपड़ा बेचने भेजा, कमाल कपड़ा बेच पूरा धन घर ले आया, कबीर को पता चला तो नाराज हुए दोहा ही कबीर की नाराजगी का माध्यम बना- 

बूडा वंश कबीर का, उपजा पूत कमाल.

हरि का सुमिरन छोड़ के, भरि लै आया माल. 

कबीर ने कमाल को भले ही नालायक माना पर लोई प्रसन्न हुई. पुत्र को समझाते हुए कबीर ने कहा-


चलती चक्की देखकर, दिया कबीरा रोय.
दो पाटन के बीच में, साबित बचा न कोय. 



कमाल था तो कबीर का ही पुत्र, उसका अपना जीवन-दर्शन था दो पीढियों में सोच का जो अंतर आज है वह तब भी था। कमाल ने कबीर को ऐसा उत्तर दिया कि कबीर भी निरुत्तर रह गये यह उत्तर भी दोहे में हैं:

चलती चक्की देखकर, दिया कमाल ठिठोय 
जो कीली से लग रहा, मार सका नहिं कोय 

नीर गया मुल्तान:

सतसंगति की चाह में कबीर गुरुभाई रैदास के घर गये। रैदास कुटिया के बाहर चमड़ा पका रहे थे। कबीर को प्यास लगी तो रैदास ने चमड़ा पकाने की हंडी में से लोटा भर पानी दे दिया। कबीर को वह पानी पीने में हिचक हुई तो उन्होंने अँजुरी होंठ से न लगाकर ठुड्डी से लगायी, पानी मुँह में न जाकर कुर्ते की बाँह में चला गया। घर लौटकर कबीर ने कुरता बेटी कमाली को धोने के लिये दिया। कमाली ने कुर्ते की बाँह का का लाल रंग  छूटने पर चूस-चूसकर छुड़ाया जिससे उसका गला लाल हो गया। कुछ दिनों बाद वह अपनी ससुराल चली गयी। 

सद्गुरु रामानंद शिष्य कबीर के साथ पराविद्या (उड़ने की सिद्धि) से काबुल-पेशावर गये।बीच में कमाली का ससुराल आया तो मिलने पहुँच गये। कबीर यह देख चकित हुए पूर्व सूचना पहुँचने पर भी कमाली ने हाथ-मुँह धोने के लिये द्वार पर बाल्टी में पानी, अँगोछा लिये खड़ी थी। कमरे में २ बाजोट-गद्दी, २ लोटों में पीने के लिये पानी था। उनके बैठते ही कमाली गरम भोजन ले आयी मानो उसे पूर्व सूचना हो। कमाली से पूछा उसने बताया कि राँगा लगा अँगरखा से चूसकर रंग निकालने के बाद से उसे भावी का आभास हो जाता है। अब कबीर समझे कि रैदास बिना बताये कितनी बड़ी सिद्धि दे रहे थे। 

लौटने के कुछ समय बाद कबीर फिर रैदास के पास गये। प्यास लगी तो पानी माँगा। रैदास ने स्वच्छ लोटे में लाकर जल दिया। कबीर बोले: पानी तो यहीं कुण्डी में भरा है, वही दे देते। रैदास ने दोहा कहा:

जब पाया पीया नहीं, मन में था अभिमान 
अब पछताए होत क्या, नीर गया मुल्तान   

कबीर ने भूल सुधारकर अहं से मुक्त हो अंतर्मन में छिपी प्रभु-प्रेम की कस्तूरी को पहचानकर कहा: 

कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूँढे वन माँहि 
ऐसे घट-घट राम है, दुखिया देखे नाँहि       

पिऊ देखन की आस
सूफी संतों ने दोहा को प्रगाढ़ आध्यात्मिक रंग दिया। बाबा शेख फरीद शकरगंज (११७३-१२६५ई.) का सानी नहीं 

कागा करंग ढढ़ोलिया, सगल खाइया मासु 
ए दुइ नैना मत छुहउ, पिऊ देखन की आस   

प्रसिद्ध सूफ़ी संत शेख मोहिदी के शागिर्द, पद्मावत, अखरावट तथा आख़िरी कलाम रचयिता मलिक मोहम्मद जायसी ने आज के भाषा विवाद के हल पारदर्शी दृष्टि से ५०० वर्ष पहले ही जानकर दोहा के माध्यम से कह दिया:

तुरकी अरबी हिंदवी, भाषा जेती आहि 
जामें मारग प्रेम का, सबै सराहै ताहि 
    
प्रेमपथ के पथिक गुरु नानक (१५२६-१५९६) ने भी दोहा को गले से लगाये रखा:

इक दू जीभौ लख होहि, लख होवहि लख वीस
लखु-लखु गेडा आखिअहि, एकु नामु जगदीस 

सूरसागर, सूरसारावली तथा साहित्य लहरी रचयिता चक्षुहीन संत सूरदास (सं. १५३५-१६२०)  ने दोहे को प्रगल्भता, रस परिपाक, नाद सौंदर्य आलंकारिकता, रमणीयता, लालित्य तथा स्वाभाविकता की सतरंगी किरणों से सार्थकता दी। सूर एक बार कुँए में पड़े, ६ दिन तक पड़े रहे। ७ दिन बाँकेबिहारी को पुकारा तो भक्तवत्सल भगवान ने आकर उन्हें बाहर निकाला। भगवन जाने लगे तो सूर की अंतर्व्यथा लेकर एक दोहा प्रगट हुआ जिसे सुन भगवान भी अवाक् रह गये:

बाँह छुड़ाकर जात हो, निबल जानि के मोहि 
हिरदै से जब जाहिगौ, मरद बदूंगौ तोहि    

दोहा आदि से अब तक संतों का प्रिय छंद है. दादूदयाल (सं. १६०१-१६६०) दोहा को प्रभु भक्ति का माध्यम बनाकर बनाकर धन्य करते हैं :  

रोम-रोम में रमि रह्या, तू जनि जानै दूर 
साध मिलै तब हरि मिलै, सब सुख आनंद मूर 

बाजन जीवन अमर है, मोवा कह्यो न कोय 
जो कोई मोवा कहे, वो ही सौदा होय         - बाजन 

उसका मुख इक जोत है, घूँघट है संसार 
घूँघट में वो छिप गया, मुख पर आँचर डार - बुल्लेशाह 

काला हंसा निर्मला, बसे समंदर तीर 
पंख पसारे बकह हरे, निर्मल करे सरीर   - शेख शर्फुद्दीन याहिया मनेरी 

साबुन साजी साँच की, घर-घर प्रेम डुबोय 
हाजी ऐसा धोइये, जन्म न मैला होय      - हाजी अली 

सजन सकारे जायेंगे, नैन मरेंगे रोय 
विधना ऐसी रैन कर, भोर कभी ना होय  -  बू अली कलंदर  

कागा सब तन खाइयो, चुन  खइयो मास 
दू नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस  -केशवदास, नागमती  

महाकवि तुलसी  (सं.१५५४-१६८०) के जन्म, पत्नी रत्नावली द्वारा धिक्कार, श्रीराम-दर्शन, राम-कृष्ण अद्वैत, साकेतगमन तथा स्थान निर्धारण पर दोहा ही साथ निभा रहा था: 

पंद्रह सौ चौवन विषै, कालिंदी के तीर 
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी धरयौ सरीर 

अस्थि-चर्ममय देह मम, तामें ऐसी प्रीत?
तैसी जौ श्रीराम महँ, होति न तौ भवभीति 

चित्रकूट के घाट पर, भई संतन की भीर 
तुलसिदास चंदन घिसें, तिलक देत रघुबीर 

कहा कहौं छवि आज की, भले बने हो नाथ 
तुलसी मस्तक तब नबै, धनुष-बाण लो हाथ 

संवत सोरह सौ असी, असी गंग के तीर
श्रावण कृष्णा तीज शनि, तुलसी तज्यो सरीर

सूर सूर तुलसी ससी, उडगन केशवदास 
अब के कवि खद्योत सम, जहँ-तहँ करत प्रकास

सूर ने श्रीकृष्ण को ह्रदय से निकलने की चुनौती दी तो रत्नावली (सं. १५६७-१६५१) ने तुलसी को, माध्यम इस बार भी दोहा ही बना:

जदपि गये घर सों निकरि, मो मन निकरे नाहिं 
मन सों निकरौ ता दिनहिं, जा दिन प्रान नसाहिं       

देनहार कोई और है:


मुगल सम्राट अकबर के नवरत्नों में से एक में से एक 
  ​​
अब्दुर्रहीम खानखाना (संवत १६१० - संवत १६८२) श्रृंगार बृज एवं अवधी से किया
प्रश्नोत्तरी दोहे उनका वैशिष्ट्य है
-



नैन सलोने अधर मधु, कहि रहीम घटि कौन?

​​
मीठा भावे लोन पर, अरु मीठे पर लोन।
  ​

असि (अस्त्र)-मसि (कलम) को  समान दक्षता से चलानेवाले अब्दुर्रहीम खानखाना  (सं. १६१०-१६८२) अपने इष्टदेव श्री कृष्ण  की तरह रणभेरी और वेणुवादन का आनंद उठाते थे। रहीम दानी थे। महाकवि गंग के एक छप्पय पर प्रसन्न होकर उन्होंने एक लाख रुपयों का ईनाम दे दिया था। रहीम को संपत्ति का घमंड नहीं था। उनकी नम्रता देख गंग कवि ने पूछा:

सीखे कहाँ नवाबजू, देनी ऐसी देन?
ज्यों-ज्यों कर ऊँचो करें, त्यों-त्यों नीचे नैन 

रहीम ने तुरंत उत्तर दिया:

देनहार कोई और है, देत रहत दिन-रैन 
लोग भरम हम पर करें, ताते नीचे नैन  

उन्होंने दोहा को नट तरह कलाओं से संपन्न कहा:

देहा दीरघ अरथ के, आखर थोड़े आहिं 
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमटि कूदि चढ़ि जाहिं   

दोहा एक दोहाकार दो: 

दोहा केवल दो पंक्तियों का छोटा सा छंद है. कुछ प्रसंगों में एक दोहा एक दोहा को दो निपुण दोहाकारों ने पूर्ण किया 

तुलसी की कुटिया में एक दिन एक याचक आया। प्रणाम कर कहा कि बिटिया के हाथ पीले करने हैं, धन चाहिए। रमापति राम में मन रमाये तुलसी की कुटिया में रमा कैसे रहतीं? विप्र समझ गया कि इन तिलों में तेल नहीं है सो निवेदन किया कि बाबा एक कविता लिख दें, तो काम बन जायेगा। तुलसी ने पूछा कविता से बिटिया का ब्याह कैसे होगा? याचक ने बताया कि समीप ही मुग़ल सेना का पड़ाव है, सेनापति सवेरे श्रेष्ठ कविता लानेवाले को एक मुहर ईनाम देते हैं। याचक की चतुराई पर मन ही मन मुस्कुराते बाबा ने कागज़ पर एक पंक्ति घसीट कर दी और पीछा छुड़ाकर पूजन-पाठ में रम गये याचक ने मुग़ल सेनापति के शिविर की ओर दौड़ लगा दी। हाँफते हुए पहुँचा ही था कि सेनापति तशरीफ़ ले आये, उसकी घिघ्घी बँध गयी। किसी तरह हिम्मत कर सलाम किया और कागज़ बढ़ा दिया। सेनापति ने कागज़ लेते हुए उसे पैनी नज़र से देखा, पढ़ा और पूछा तुमने लिखा है? याचक ने सहमति में सर हिलाया तो सेनापति ने कड़ककर पूछा सच कहो नहीं तो सर कलम कर दिया जायेगा। मन  मन ही मन बाबा को कोसते याचक ने सचाई बता दी। सेनापति हँस पड़े, कागज़ पर नीचे कुछ लिखा और बोले यह कागज़ बाबा को दे आओ तो तुम्हें दो मुहरें ईनाम में मिलेंगी। सेनापति थे 
 ​
अब्दुर्रहीम खानखाना
  ​
 कागज़ पर था एक दोहा जिसकी पहली पंक्ति तुलसी ने लिखी थी दूसरी रहीम ने: 

सुरतिय नरतिय नागतिय, सब चाहत अस होय    
गोद लिये हुलसी फिरैं, तुलसी सो सुत होय     

प्रीत करो मत कोय: 

गिरिधर गोपाल की बावरी आराधिका मीरांबाई (१५०३ई.-१५४६ई.) के दोहे देश-काल की सीमा के परे व्याप्त हैं: 

जो मैं ऐसा जाणती, प्रीत किये दुःख होय       
नगर ढिंढोरा फेरती, प्रीत न कीज्यो कोय   

दोहा रक्षक लाज का: 

महाकवि केशवदास की शिष्या, ओरछा नरेश इंद्रजीत की प्रेयसी  प्रवीण विदुषी-सुन्दरी थीं। नृत्य, गायन, काव्य लेखन तथा वाक् चातुर्य में उन जैसा कोई अन्य नहीं था। मुग़ल सम्राट अकबर को दरबारियों ने उकसाया कि ऐसा नारी रत्न बादशाह के दामन में होना चाहिए अकबर ने ओरछा नरेश को संदेश भेजा कि राय प्रवीण को दरबार में हाज़िर करें।नरेश धर्म संकट में पड़े, प्रेयसी को भेजें तो आन-मान नष्ट होने के साथ राय प्रवीण की प्रतिष्ठा तथा सतीत्व खतरे में न भेजें तो शक्तिशाली मुग़ल सेना के आक्रमण का खतराराज्य बचायें या प्रतिष्ठा? राज्य को  बचाने लिये अकबर के दरबार में महाकवि तथा राय प्रवीण उपस्थित हुए अकबर ने महाकवि का सम्मान कर  राय प्रवीण को तलब हरम में रहने को कहा। राय प्रवीण ने बादशाह को सलाम करते हुए एक दोहा कहा  लौटने की अनुमति चाही दोहा सुनते ही दरबार में सन्नाटा छा गया। बादशाह ने राय प्रवीण को न केवल सम्मान सहित वापिस जाने दिया अपितु कई बेशकीमती नजराने भी दिये। राय  अस्मिता बचानेवाला दोहा है:
बिनत रायप्रवीन की, सुनिये शाह सुजान।
जूठी पातर भखत हैं, बारी बायस स्वान॥
दोहा साक्षी समय का: 
मुग़ल सम्राट अकबर हर सुन्दर स्त्री को अपने हरम में लाने के लिये बेक़रार रहता था।
गोंडवाना की महारानी दुर्गावती की सुन्दरता, वीरता, लोकप्रियता, शासन कुशलता तथा सम्पन्नता की चर्चा चतुर्दिक थी महारानी का चतुर दीवान अधारसिंह कायस्थ तथा सफ़ेद हाथी 'एरावत' अकबर की आँख में काँटे की तरह गड़ रहे थे अधारसिंग के कारण सुव्यवस्था तथा सफ़ेद हाथी  कारण समृद्धि होने का बात सुन अकबर ने रानी के पास सन्देश भेजा-
अपनी सीमा राज की, अमल करो फरमान.

भेजो नाग सुवेत सो, अरु अधार दीवान.



मरता क्या न करता... रानी ने अधारसिंह को दिल्ली भेजा। दरबार में अधारसिंह ने सिंहासन खाली देख दरबारियों के बीच छिपकर बैठे बादशाह अकबर को कोर्निश की।चमत्कृत अकबर ने अधार से पूछा कि उसने बादशाह को कैसे पहचाना? अधारसिंह ने नम्रता से उत्तर दिया कि जंगल में जिस तरह शेर न दिखने पर अन्य जानवर उस पर निगाह रखते हैं वैसे दरबारी उन पर नज़र रखे थे इससे अनुमान किया। अकबर ने नकली उदारता दिखाते हुए कुछ माँगने और दरबार में रहने को कहा अधारसिंहने चतुराई से बादशाह द्वारा कुछ माँगने के हुक्म की तामील करते हुए अपने देश लौट जाने की अनुमति माँग ली। अकबर ने अधारसिंह को जाने तो दिया किन्तु बाद में गोंडवाना पर हमला करने का हुक्म दे दिया दोहा बादशाह के सैन्य बल का वर्णन करते हुए कहता है-
कै लख रन मां मुग़लवा, कै लख वीर पठान? 
कै लख साजे पारधी, रे दिल्ली सुलतान?


इक लख रन मां मुगलवा, दुई लख वीर पठान. 
तिन लख साजे पारधी, रे दिल्ली सुलतान.



असाधारण बहादुरी से लड़ने के बाद भी अपने देवर की गद्दारी का कारण अंततः महारानी दुर्गावती देश पर शहीद हुईं मुग़ल सेना ने राज्य लूटा, भागते हुए लोगों और औरतों तक को  महारानी का नाम लेना भी गुनाह हो गया जनगण ने अपनी लोकमाता दुर्गावती को श्रद्धांजलि देने के लिये समाधि के समीप सफ़ेद पत्थर एकत्र किये, जो भी वहाँ से गुजरता एक सफ़ेद कंकर समाधि पर चढा देता।  स्वतंत्रता सत्याग्रह के समय इस परंपरा का पालनकर आजादी के लिये संघर्ष का संकल्प लिया गया। दोहा आज भी दुर्गावती, अधार सिंह और आजादी के दीवानों की याद दिल में बसाये है-
ठाँव बरेला आइये, जित रानी की ठौर.

हाथ जोर ठांड़े रहें, फरकन लगे बखौर.
अर्थात बरेला गाँव में रानी की समाधि पर हाथ जोड़कर श्रद्धाभाव से खड़े हों तो उनकी वीर गाथा से प्रेरित हो आपकी भुजाएँ फड़कने लगती हैं
महाकवि गंग का अंतिम दोहा: 
'तुलसी-गंग दुवौ भये सुकविन के सरदार' प्रसिद्ध  महाकवि गंग (सं. १५३८-१६१७) मुग़ल दरबारियों के षड्यंत्र के शिकार हुए, उन्हें क्षमायाचना का हुक्म मिला किन्तु स्वाभिमानी कवि  स्वीकार नहीं हुआ. हाथी के पैर तले कुचलवाने का आदेश मिलने पर उन्होंने गज में गणेश-दर्शन कर कर बिदा ली:  
कबहुँ न भडुआ रन चढ़ै, कबहुँ न बाजी बंब 
सकल सभहिं प्रनाम करि, बिदा होत कवि गंग 
माई एहणा पूत जन:
दुर्गावती के बाद अकबर की नज़र में चित्तौरगढ़ महाराणा प्रताप (१५४० ई.-१५९७ई.) खटकते रहे। प्रताप की मौत पर कवि पृथ्वीराज राठौड़ रचित दोहा अकबर को उसकी औकात बताने में नहीं चूका:
माई! एहणा पूत जण, जेहणा वीर प्रताप 
अकबर सुतो ओझके, जाण सिराणे साँप    
तानसेन के तान:
अकबर के नवरत्नों में से एक महान गायक तानसेन नमन करता दोहा की गुणग्राहकता देखिए:
विधना यह जिय जानिकै, शेषहिं दिये न कान
धरा-मेरु सब डोलिहैं, तानसेन के तान 
दोहा रोके युद्ध भी:
मुग़ल दरबारियों ने अकबर के साले और नवरत्नों में अग्रगण्य पराक्रमी मानसिंह को चुनौती दी कि उन्हें अपने बाहुबल पर भरोसा है तो  श्रीलंका को जीतकर मुग़ल साम्राज्य में सम्मिलित कर दिखाएँ। मानसिंह से समक्ष इधर खाई उधर कुआँ, चारों तरफ धुआं ही धुआँ' की हालत पैदा हो गयी। दूर सेना ले जाकर, समुद्र पार युद्ध अति खर्चीला, सैनिक जाने को तैयार नहीं, जीत की सम्भावना नगण्य, बिना कारण युद्ध हेतु न जाएँ तो सम्मान गँवाएँ। ऐसी विषम परिस्थिति में राजगुरु द्वारा कहा गया निम्न दोहा संकटमोचन सिद्ध हुआ:  
विप्र विभीषण जानी कै, रघुपति कीन्हों दान 
दिया दान किमि लीजियो, महामहीपति मान 
सूर्यवंशी मानसिंह अपने पूर्वज श्रीराम द्वारा  बाद विप्र विभीषण को दाम में दी गयी लंका कैसे वापिस लें? दोहे ने युद्ध टालकर असंख्य जान-धन की हानि रोक दी
     क्रमशः         

apni baat: sanjiv

अपनी बात :

संजीव 
*
सुखों की 

भीख मत दो, 

वे तो मेरा 

सर झुकाते हैं 

दुखों का 

हाथ थामे, 

सर उठा 

जीना मुझे भाता। 

*

ज़माने से 

न शिकवा 

गैर था 

धोखा दिया 

तो क्या?

गिला  

अपनों से है 

भोंका छुरा 

मिल पीठ में 

हँसकर 

शनिवार, 30 अगस्त 2014

shri ganesh awhan : madhukar

श्री गणेश आवाहन :


डॉ. उदयभानु तिवारी 'मधुकर'
आये गजानन द्वार हमारे,मंगल कलश सजाओ जी!! 
बंदनवार बनाओ जी!…  

बुद्धि निधान भक्त चित चन्दन 
विघ्न विनाशन गिरिजानंदन 
द्वार खड़े सब करलो वंदन 
करो वेद ध्वनि से अभिनन्दन 
घी के दीप जलाओ जी! सुमन माल ले आओ जी!!
आये गजानन द्वार हमारे,मंगल कलश सजाओ जी!!

मूषक वाहन अद्भुत भ्राजे   
चतुर्भुजी भगवान विराजे
ऋद्धि-सिद्धि दोउ सँग में राजे
झांझर, शंख बजाओ बाजे
मोदक,फल ले आओ जी! आरति थार सजाओ जी!!
आये गजानन द्वार हमारे,मंगल कलश सजाओ जी!! 

प्रभु! अंधों के नयनप्रदाता 
बाँझन के हैं सुख-सुतदाता   
देव!मनुज के बुद्धि विधाता
इन्हें प्रथम ही पूजा जाता 
एकदन्त गुण गाओजी! आसन पर ले आओ जी!!
आये गजानन द्वार हमारे,मंगल कलश सजाओ जी!! 

जय लम्बोदर भव-दुखहारी 
हम सब हैं प्रभु शरण तुम्हारी 
जय जय जय संतन हितकारी   
सुनिए गणपति विनय हमारी   
आसन पर आजाओ जी!,विमल छटा छिटकाओ जी!!
आये गजानन द्वार हमारे,मंगल कलश सजाओ जी!! 

कर तन,मन,धन तुम्हें समर्पण 
पत्र, पुष्प, फल करके अर्पण  
''मधुकर'' भक्त करें सब अर्चन 
कीजै प्रभु निर्मल अंतर्मन
कृपा दृष्टि बरसाओ जी!,सारे विघ्न मिटाओ जी!!
आये गजानन द्वार हमारे,सब मिल आरति गाओ जी!!  
-------------------------------