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मंगलवार, 30 अक्टूबर 2012

एक फूल की चाह -स्व. सियाराम गुप्त

धरोहर : स्व.सियारामशरण गुप्त

इस स्तम्भ में विश्व की किसी भी भाषा की श्रेष्ठ मूल रचना देवनागरी लिपि में, हिंदी अनुवाद, रचनाकार का परिचय व चित्र, रचना की श्रेष्ठता का आधार जिस कारण पसंद है. संभव हो तो रचनाकार की जन्म-निधन तिथियाँ व कृति सूची दीजिए. धरोहर में स्व. सियाराम शरण गुप्त की रचना का।
एक फूल की चाह
*
उद्वेलित कर अश्रु-राशियाँ,
              हृदय-चिताएँ धधकाकर,
महा महामारी प्रचण्ड हो
              फैल रही थी इधर उधर।
क्षीण-कण्ठ मृतवत्साओं का
              करुण-रुदन दुर्दान्त नितान्त,
भरे हुए था निज कृश रव में
              हाहाकार अपार अशान्त।
बहुत रोकता था सुखिया को
              'न जा खेलने को बाहर',
नहीं खेलना रुकता उसका
              नहीं ठहरती वह पल भर।
मेरा हृदय काँप उठता था,
              बाहर गई निहार उसे;
यही मानता था कि बचा लूँ
              किसी भांति इस बार उसे।
भीतर जो डर रहा छिपाये,
              हाय! वही बाहर आया।
एक दिवस सुखिया के तनु को
              ताप-तप्त मैंने पाया।
ज्वर से विह्वल हो बोली वह,
              क्या जानूँ किस डर से डर -
मुझको देवी के प्रसाद का
              एक फूल ही दो लाकर।

बेटी, बतला तो तू मुझको
              किसने तुझे बताया यह;
किसके द्वारा, कैसे तूने
              भाव अचानक पाया यह?
मैं अछूत हूँ, मुझे कौन हा!
              मन्दिर में जाने देगा;
देवी का प्रसाद ही मुझको
              कौन यहाँ लाने देगा?
बार बार, फिर फिर, तेरा हठ!
              पूरा इसे करूँ कैसे;
किससे कहे कौन बतलावे,
              धीरज हाय! धरूँ कैसे?
कोमल कुसुम समान देह हा!
              हुई तप्त अंगार-मयी;
प्रति पल बढ़ती ही जाती है
              विपुल वेदना, व्यथा नई।
मैंने कई फूल ला लाकर
              रक्खे उसकी खटिया पर;
सोचा - शान्त करूँ मैं उसको,
              किसी तरह तो बहला कर।
तोड़-मोड़ वे फूल फेंक सब
              बोल उठी वह चिल्ला कर -
मुझको देवी के प्रसाद का
              एक फूल ही दो लाकर!

क्रमश: कण्ठ क्षीण हो आया,
              शिथिल हुए अवयव सारे,
बैठा था नव-नव उपाय की
              चिन्ता में मैं मनमारे।
जान सका न प्रभात सजग से
              हुई अलस कब दोपहरी,
स्वर्ण-घनों में कब रवि डूबा,
              कब आई सन्ध्या गहरी।
सभी ओर दिखलाई दी बस,
              अन्धकार की छाया गहरी।
छोटी-सी बच्ची को ग्रसने
              कितना बड़ा तिमिर आया!
ऊपर विस्तृत महाकाश में
              जलते-से अंगारों से,
झुलसी-सी जाती थी आँखें
              जगमग जगते तारों से।
देख रहा था - जो सुस्थिर हो
              नहीं बैठती थी क्षण भर,
हाय! बही चुपचाप पड़ी थी
              अटल शान्ति-सी धारण कर।
सुनना वही चाहता था मैं
              उसे स्वयं ही उकसा कर -
मुझको देवी के प्रसाद का
              एक फूल ही दो लाकर!

हे मात:, हे शिवे, अम्बिके,
              तप्त ताप यह शान्त करो;
निरपराध छोटी बच्ची यह,
              हाय! न मुझसे इसे हरो!
काली कान्ति पड़ गई इसकी,
              हँसी न जाने गई कहाँ,
अटक रहे हैं प्राण क्षीण तर
              साँसों में ही हाय यहाँ!
अरी निष्ठुरे, बढ़ी हुई ही
              है यदि तेरी तृषा नितान्त,
तो कर ले तू उसे इसी क्षण
              मेरे इस जीवन से शान्त!
मैं अछूत हूँ तो क्या मेरी
              विनती भी है हाय! अपूत,
उससे भी क्या लग जावेगी
              तेरे श्री-मन्दिर को छूत?
किसे ज्ञात, मेरी विनती वह
              पहुँची अथवा नहीं वहाँ,
उस अपार सागर का दीखा
              पार न मुझको कहीं वहाँ।
अरी रात, क्या अक्ष्यता का
              पट्टा लेकर आई तू,
आकर अखिल विश्व के ऊपर
              प्रलय-घटा सी छाई तू!
पग भर भी न बढ़ी आगे तू
              डट कर बैठ गई ऐसी,
क्या न अरुण-आभा जागेगी,
              सहसा आज विकृति कैसी!
युग के युग-से बीत गये हैं,
              तू ज्यों की त्यों है लेटी,
पड़ी एक करवट कब से तू,
              बोल, बोल, कुछ तो बेटी!
वह चुप थी, पर गूँज रही थी
              उसकी गिरा गगन-भर भर -
'मुझको देवी के प्रसाद का -
              एक फूल तुम दो लाकर!'

"कुछ हो देवी के प्रसाद का
              एक फूल तो लाऊँगा;
हो तो प्रात:काल, शीघ्र ही
              मन्दिर को मैं जाऊँगा।
तुझ पर देवी की छाया है
              और इष्ट है यही तुझे;
देखूँ देवी के मन्दिर में
              रोक सकेगा कौन मुझे।"
मेरे इस निश्चल निश्चय ने
              झट-से हृदय किया हलका;
ऊपर देखा - अरुण राग से
              रंजित भाल नभस्थल का!
झड़-सी गई तारकावलि थी
              म्लान और निष्प्रभ होकर;
निकल पड़े थे खग नीड़ों से
              मानों सुध-बुध सी खो कर।
रस्सी डोल हाथ में लेकर
              निकट कुएँ पर जा जल खींच,
मैंने स्नान किया शीतल हो,
              सलिल-सुधा से तनु को सींच।
उज्वल वस्र पहन घर आकर
              अशुचि ग्लानि सब धो डाली।
चन्दन-पुष्प-कपूर-धूप से
              सजली पूजा की थाली।
सुकिया के सिरहाने जाकर
              मैं धीरे से खड़ा हुआ।
आँखें झँपी हुई थीं, मुख भी
              मुरझा-सा था पड़ा हुआ।
मैंने चाहा - उसे चुम लें,
              किन्तु अशुचिता से डर कर
अपने वस्त्र सँभाल, सिकुड़कर
              खड़ा रहा कुछ दूरी पर।
वह कुछ कुछ मुसकाई सहसा,
              जाने किन स्वप्नों में लग्न,
उसकी वह मुसकाहट भी हा!
              कर न सकी मुझको मुद-मग्न।
अक्षम मुझे समझकर क्या तू
              हँसी कर रही है मेरी?
बेटी, जाता हूँ मन्दिर में
              आज्ञा यही समझ तेरी।
उसने नहीं कहा कुछ, मैं ही
              बोल उठा तब धीरज धर -
तुझको देवी के प्रसाद का
              एक फूल तो दूँ लाकर!

ऊँचे शैल-शिखर के ऊपर
              मन्दिर था विस्तीर्ण विशाल;
स्वर्ण-कलश सरसिज विहसित थे
              पाकर समुदित रवि-कर-जाल।
परिक्रमा-सी कर मन्दिर की,
              ऊपर से आकर झर झर,
वहाँ एक झरना झरता था
              कल कल मधुर गान कर कर।
पुष्प-हार-सा जँचता था वह
              मन्दिर के श्री चरणों में,
त्रुटि न दिखती थी भीतर भी
              पूजा के उपकरणों में।
दीप-दूध से आमोदित था
              मन्दिर का आंगन सारा;
गूँज रही थी भीतर-बाहर
              मुखरित उत्सव की धारा।
भक्त-वृन्द मृदु-मधुर कण्ठ से
              गाते थे सभक्ति मुद-मय -
"पतित-तारिणि पाप-हारिणी,
              माता, तेरी जय-जय-जय!"
"पतित-तारिणी, तेरी जय-जय" -
              मेरे मुख से भी निकला,
बिना बढ़े ही मैं आगे को
              जानें किस बल से ढिकला!
माता, तू इतनी सुन्दर है,
              नहीं जानता था मैं यह;
माँ के पास रोक बच्चों की,
              कैसी विधी यह तू ही कह?
आज स्वयं अपने निदेश से
              तूने मुझे बुलाया है;
तभी आज पापी अछूत यह
              श्री-चरणों तक आया है।
मेरे दीप-फूल लेकर वे
              अम्बा को अर्पित करके
दिया पुजारी ने प्रसाद जब
              आगे को अंजलि भरके,
भूल गया उसका लेना झट,
              परम लाभ-सा पाकर मैं।
सोचा - बेटी को माँ के ये
              पुण्य-पुष्प दूँ जाकर मैं।

सिंह पौर तक भी आंगन से
              नहीं पहुँचने मैं पाया,
सहसा यह सुन पड़ा कि - "कैसे
              यह अछूत भीतर आया?
पकड़ो, देखो भाग न जावे,
              बना धूर्त यह है कैसा;
साफ-स्वच्छ परिधान किये है,
              भले मानुषों जैसा!
पापी ने मन्दिर में घुसकर
              किया अनर्थ बड़ा भारी;
कुलषित कर दी है मनिदर की
              चिरकालिक शुचिता सारी।"
ए, क्या मेरा कलुष बड़ा है
              देवी की गरिमा से भी;
किसी बात में हूँ मैं आगे
              माता की महिमा से भी?
माँ के भक्त हुए तुम कैसे,
              करके यह विचार खोटा
माँ से सम्मुख ही माँ का तुम
              गौरव करते हो छोटा!
कुछ न सुना भक्तों ने, झट से
              मुझे घेर कर पकड़ लिया;
मार मार कर मुक्के-घूँसे
              धम-से नीचे गिरा दिया!
मेरे हाथों से प्रसाद भी
              बिखर गया हा! सब का सब,
हाय! अभागी बेटी तुझ तक
              कैसे पहुँच सके यह अब।
मैंने उनसे कहा - दण्ड दो
              मुझे मार कर, ठुकरा कर,
बस यह एक फूल कोई भी
              दो बच्ची को ले जाकर।

न्यायालय ले गये मुझे वे
              सात दिवस का दण्ड-विधान
मुझको हुआ; हुआ था मुझसे
              देवी का महान अपमान!
मैंने स्वीकृत किया दण्ड वह
              शीश झुकाकर चुप ही रह;
उस असीम अभियोग, दोष का
              क्या उत्तर देता; क्या कह?
सात रोज ही रहा जेल में
              या कि वहाँ सदियाँ बीतीं,
अविस्श्रान्त बरसा करके भी
              आँखें तनिक नहीं रीतीं।
कैदी कहते - "अरे मूर्ख, क्यों
              ममता थी मन्दिर पर ही?
पास वहाँ मसजिद भी तो थी
              दूर न था गिरिजाघर भी।"
कैसे उनको समझाता मैं,
              वहाँ गया था क्या सुख से;
देवी का प्रसाद चाहा था
              बेटी ने अपने मुख से।

दण्ड भोग कर जब मैं छूटा,
              पैर न उठते थे घर को
पीछे ठेल रहा था कोई
              भय-जर्जर तनु पंजर को।
पहले की-सी लेने मुझको
              नहीं दौड़ कर आई वह;
उलझी हुई खेल में ही हा!
              अबकी दी न दिखाई वह।
उसे देखने मरघट को ही
              गया दौड़ता हुआ वहाँ -
मेरे परिचित बन्धु प्रथम ही
              फूँक चुके थे उसे जहाँ।
बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर
              छाती धधक उठी मेरी,
हाय! फूल-सी कोमल बच्ची
              हुई राख की थी ढेरी!
अन्तिम बार गोद में बेटी,
              तुझको ले न सका मैं हाय!
एक फूल माँ का प्रसाद भी
              तुझको दे न सका मैं हा!
वह प्रसाद देकर ही तुझको
              जेल न जा सकता था क्या?
तनिक ठहर ही सब जन्मों के
              दण्ड न पा सकता था क्या?
बेटी की छोटी इच्छा वह
              कहीं पूर्ण मैं कर देता
तो क्या अरे दैव, त्रिभुवन का
              सभी विभव मैं हर लेता?
यहीं चिता पर धर दूँगा मैं,
              - कोई अरे सुनो, वर दो -
मुझको देवी के प्रसाद का
              एक फूल ही लाकर दो!


  
* * * 

क्या द्रौपदी मनस्विनी बन पाई है? -डॉ. सुमित्रा अग्रवाल


क्या द्रौपदी मनस्विनी बन पाई है?
डॉ. सुमित्रा अग्रवाल

जन्म: 13 सितंबर 1947, को कराची पाकिस्तान। 
महाभारत की द्रौपदी और आधुनिक रूप विषय पर राजस्थान यूनिवर्सिटी से 2007 में डी.लिट् के लिए थीसिस जमा किया गया‌।
1992 में एस.एन.डी.टी. यूनिवर्सिटी, मुंबई से नरेश मेहता के काव्य में मिथकीय चेतना विषय पर पीएच-डी. जिसके लिए 3 वर्ष तक जीआरएस प्राप्त।
मुंबई यूनिवर्सिटी के स्नातकोत्तर विभाग में व्याख़्याता तथा सोफिया कॉलेज में व्याख्याता के रूप में अध्यापन।
प्रकाशन :
नरेश मेहता के काव्य में मिथकीय चेतना शीर्षक से आनंद प्रकाशन द्वारा 1994 में पुस्तक प्रकाशितविभिन्न प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में 15 रिसर्च पेपर तथा 50 से अधिक समीक्षाएँ तथा लेख प्रकाशित।
संप्रति :
बहुपतित्व : एक तुलनात्मक अध्ययन – खस आदिवासी समाज तथा महाभारत की द्रौपदी के विशेष संदर्भ में
संपर्क : बी/604, वास्तु टावर, एवरशाइन नगर, मलाड (पश्चिम) पिन : 400 064 मो. 98921 38846
_________________________________
``मैंने जब कहानी लिखने के लिये कलम पकड़ी तो यह मेरे जेहन का तकाजा था कि मेरी कहानी की किरदार वह औरत होगी जो द्रौपदी की तरह भरी सभा में कोई सवाल पूछने की जुर्रत रखती हो.... इसलिये कह सकती हूँ कि मेरी कहानियों में जो भी किरदार हैं, उन औरतों के किरदान जिन्दगी से ही लिये हुये हैं, लेकिन उन औरतों के जो यथार्थ और यथार्थ का फासला तय करना जानती है - यथार्थ जो है, और यथार्थ जो होना चाहिये - और वह जो द्रौपदी की तरह भरी सभा में वक्त के निजाम से कोई सवाल पूछने की जुर्रत रखती है।''1
अमृता प्रीतम का उपर्युक्त मंतव्य यह सोचने के लिये प्रेरित करता है कि ऐसा क्या है इस प्राचीना द्रौपदी में जो आज की अति आधुनिक और स्वतंत्रचेता लेखिका के लिये भी वह रोलमॉडल बनकर उसके मानस में विराज रही है और इसी के साथ नित नये रूप धारणकर, नये सवालों के साथ काल के समान खड़ी हो रही है। उसके सवालों की धार पहले भी बड़ी पैनी थी, आज भी वह उतनी ही पैनी है। कहाँ से पाई उसने यह धार? कब तक उसका सवाल हवा में यों ही खड़ा रहेगा? भविष्य की नारी भी क्या उसके सवालों की ध्वनि में अपने सवालों के बीज देखेगी?
कैसी है यह द्रौपदी? इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिये जब समुद्र के समान विशाल, वहन और गंभीर महाभारत खोलते हैं तो यज्ञ की अग्नि से बाहर आती पूर्णयौवना, सर्वांगसुंदरी, नित्ययौवना द्रौपदी दिखाई देती है। उसका प्रादुर्भाव और अधिक असाधारण बनाने के लिये कवि ने एक चमत्कार की सृष्टि की है जो द्रौपदी की महानता और शक्तिमत्ता को प्रकर्ष तक पहुँचाता है। यज्ञ की ज्वालाओं से अपनी मानसपुत्री द्रौपदी को आविर्भूत होते दर्शाकर महामुनी व्यास ने लौकिकता पर अलौकिकता का दर्शन देते हुये उसे एक अभिनव व्यक्तित्व प्रदान किया है। महाभारत के पटल पर उसका अविर्भाव देवों, यक्षों और मानवों द्वारा समान रूप से काम्य स्त्री के रूप में हुआ है। युधिष्ठिर के शब्दों में एक पुरूष जैसी स्त्री की कामना करता है - द्रौपदी वैसी ही है। आकर्षण उसका दुनिर्वार है, कमनीयता लुब्ध करनेवाली है, बुद्धिमत्ता चमत्कृत करनेवाली है, धैर्य अभिभूत करनेवाला है और तेजस्विता प्रखर है। उसका गतिशील उर्जासंपन्न स्त्रीत्व, परिवेश से समायोजन की उसकी अद्भुत क्षमता, जागृत विवेक, समर्थ मनस्विता, सहज मनःपूत व्यक्तित्व सभी मिलकर उसे एक ऐसे तेजोवलय में स्थापित करते हैं जो उसके जन्मना तेजराशि रूप के अनुरूप ही है। वह मानो सीता, मैत्रेयी और रति का सम्मिलित नारी विग्रह है। महाभारत में उसका स्त्रीत्व इतना प्रभावशाली है कि उसके समक्ष द्रौपदी के स्त्री-जीवन की विविध भूमिकायें नेपथ्य में चली जाती हैं और केवल उसका सचेतन स्त्रीत्व सम्मुख रह जाता है।
भारतीय स्त्रीत्व के समस्त आदर्शों का मूर्त रूप होने पर भी वह लौकिक ही है। हिमालयी बहुपतित्वयुक्त प्रदेशों में वह देवी की स्थानापन्न है। उसके नाम पर बलि दी जाती है, पूर्वकाल में वहाँ पांडवनृत्य में उसकी भूमिका का निर्वाह करनेवाली अभिनेत्री उसके नाम पर बलि दी गई बकरी का खून पीती थी और द्रौपदी की आत्मा द्वारा अविष्ट होकर अपनी भूमिका का निर्वषन पूर्ण जीवंतता के साथ करती थी। इसीलिये प्रत्येक स्त्री के अंदर द्रौपदी सांस लेती है - अपनी ही तरह से। यही उसके सार्वकालिक आधुनिक व्यक्तित्व का केंद्रबिंदु है।
द्रौपदी मे एक सनसनाता चैतन्य है, एक ऐसी उर्मि है कि अपने स्थान और काल को लांघकर अपने युग के विभूतिपुरूष श्रीकृष्ण से वह सख्य स्थापित कर पाती है। यह सख्य उसके व्यक्तित्व का पूरक बनकर उसे समृद्ध करता है। यह उर्मि उसे नित नवीना बनाये रखती है और यह पूर्णता, यह समृद्धि, यह संपन्नता, उसके आकर्षण में एक दीप्ति उत्पन्न करती है। जीवन के अन्य सभी रूढ़, सम्बन्ध व्यक्ति को पूर्ण करते हैं पर उस पूर्णता के पश्चात् भी कुछ ऐसा रह जाता है जो उसमें समा नहीं पाता। उसी कुछ को द्रौपदी ने इस सख्य में समो दिया है।
एक आधुनिक स्त्री का मानस स्वकेन्द्रित होता है। उसी स्वकेन्द्रित मानस के द्वारा लिये गये निर्णय को वह सुविधा के अनुसार भिन्न-भिन्न व्यक्तियों से पूर्ण कराती है और इस सारे आयोजन के केन्द्र में स्वयं स्थित रहती है। द्रौपदी का आधुनिक मानस भी स्वयं केन्द्र में स्थित रहकर अपने द्वारा लिये निर्णयों को अन्य शक्तियों की सहायता से पूर्ण करता है। महाभारत की नायिका द्रौपदी अपने समय से भिन्न या विपरीत व्यक्तित्व अर्जित कर सकी है। उसकी विशिष्ट आनुवंशिक तथा पारिवेशिक शक्तियाँ इस संदर्भ में उसकी सहायक हुई हैं। `स्व' से निर्मित स्वातंत्र्यचेतना का विकास वह इस सीमा तक करती है कि उसके प्रकाश में एक स्वतंत्र जीवनस्वप्न वह न केवल देखती है अपितु उसके आधार पर अपने जीवन और परिवेश का मूल्यांकन भी करती है, विदुषी, पंडिता, महाप्राज्ञा द्रौपदी इसी विशिष्ट संदर्भ में `मनस्विनी' है। यह मनस्विनी युधिष्ठिर द्वारा हारे गये तेरह वर्षों के काल को मुट्ठी से सरकने नहीं देती - उसे बांधे रखती है।
महाभारतकालीन समाज में स्त्री का स्थान पतनोन्मुख था उसके गौरव की दीप्ति धुंधली पड़ती जा रही थी। पर स्त्री के इस दासत्वकाल में द्रौपदी एक प्रज्वलित दीपशिखा के रूप में महाभारत के पटल पर उभरती है। वह अदम्य स्वातंत्र्यचेतना द्वारा परिचालित है। अपने स्वयंवर को यह मनस्विनी अपने अपार मनोबल से वास्तविक `स्वयं-वर' बना देती है। विवाह के पश्चात् उसका बहुपतित्व उसे कुंठित नहीं बनाता - उसकी प्रभा में और भी दीप्ति ला देता है। पांडवों सदृश्य अमित तेजस्वी वीरों की पत्नी के रूप में वह अपने गौरव का स्मरण महाभारत में अनेक स्थलों पर करती है जिससे स्पष्ट है कि यह बहुपतित्व द्रौपदी की सामर्थ्य में श्रीवृद्धि कर उसे और अधिक गौरवशालिनी और अधिक समर्थ तथा और अधिक आकर्षक बनाता है। भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व से युक्त अपने पांचों पतियों को एकसूत्र में आबद्ध रखने में समर्थ द्रौपदी की प्रशंसा महाभारत के अनेक प्रमुख व्यक्तियों ने की है, अपने सफल बहुपतित्व से समर्थ बनी द्रौपदी युगपुरूष कृष्ण की सखी बनती है। सखी बनकर इस सख्य को वह केवल भावात्मक आयाम तक सीमित नहीं रखती अपितु जीवन के प्रत्येक आयाम में वह इस सख्य को मूर्त रूप प्रदान कर सखा कृष्ण का आवाहन करती है।
द्रौपदी का बहुपतित्व उसकी सामर्थ्य में किस प्रकार वृद्धि कर उसे भारतीय इतिहास पुराण की सर्वश्रेष्ठ स्त्री के रूप में प्रतिष्ठित करता है - इस तथ्य की स्थापना के क्रम में एक अन्य सत्य उद्घाटित हुआ कि आदिवासी स्त्री की मूल्य संकल्पना, प्रखर स्वातंत्र्यचेतना और बहुपतित्व के निर्वाह की अद्भुत सहज क्षमता महाभारत की द्रौपदी में उसी रूप और मात्रा में विद्यमान है। यह सत्य इस तथ्य का संकेतन है कि द्रौपदी की आनुवांशिकता का घनिष्ठ सम्बन्ध इस स्वतंत्र समर्थ आदिवासी स्त्री से है और उसका अग्नि से जन्म उसके व्यक्तित्व के अग्निसंस्कार का संकेतक है। परिस्थिति जन्य प्रमाण इस अवधारणा का समर्थन करते हैं।
द्रौपदी को देखकर प्रतीत होता है कि द्रौपदी यानि व्यास महामुनि के मन की स्त्री विषयक कल्पना तो नहीं है? महामुनि को अभिप्रेत वास्तविक स्त्री संभवतः द्रौपदी के रूप में उन्होंने साकार की है। इसलिये वह `है' `जैसी ही है' - बनती नहीं गई है। स्त्रीत्व के सारे सौन्दर्य, सारे माधुर्य, सारी शालीनता, स्त्री में निहित स्त्रीत्व की धारदार अस्मिता, स्वत्व का प्रचंड भान अखंड सेवावृत्ति - इन सबका प्रतीक है द्रौपदी। द्रौपदी जो भारतीय बहुपतित्व की आनंदप्रद देवी भी है। 
द्रौपदी की प्रासंगिकता और आधुनिकता की दृष्टी से मृणाल कुलकर्णी के विचार महत्त्वपूर्ण है जिन्होने दूरदर्शन के धारावाहिक `द्रौपदी' में द्रौपदी के पात्र को जीवन्त किया है। उनकी दृष्टी में, ``पूरे विश्व में वह अपने हक के लिये अकेली लड़ती है। वास्तव में द्रौपदी के अन्दर सीता, गार्गी और क्लियोपेट्रा का अद्भुत संगम नजर आता है। द्रौपदी ही महाभारत की धुरी है। उसी के चारों और महाभारत की समूची कहानी घूमती है। वह पांडवों की शक्ति और प्रेरणा है। द्रौपदी अपने समय से बहुत आगे थी वास्तव में वह हर समय की महिला का प्रतिनिधित्व करती है। यही वजह है कि द्रौपदी का पात्र आज भी प्रासंगिक है।''2
स्त्री की बदलती तस्वीर की बात उठने पर संदर्भित किया गया है द्रौपदी को। कुरूसभा में द्रौपदी ने जो प्रश्न उठाया है वह आज भी उठाया जा रहा है - नये संदर्भों में, नये रूपों में। इस विषय में मृदुला गर्ग सदृश विचारशील लेखिका का मंतव्य दृष्टव्य है - ``मुझे लगता है, द्रौपदी के प्रश्न का उत्तर हमें मध्यवर्ग की औरत के बजाय श्रमिकवर्ग की औरत ही दे सकती है। वह जानती है कि उसका मूल्य उसकी कल्याणकारी शक्ति में निहित है। उसे अपने प्रभाव का दायरा बढ़ाना होगा, जिसमें घर-गृहस्थी से आगे बढ़कर वह परिवेश और पर्यावरण को भी समेट सके। उसके लिये जरूरी है कि सरकार स्थानीय पर्यावरण के रखरखाव, प्रबंध और नवीनीकरण का अधिकार महिलाओं को दे दें।''3
अपनी इसी आधुनिकता के कारण महाभारत की बीजस्वरूपा प्राचीना द्रौपदी आधुनिक भारतीय साहित्य में अनेक रंगों में, अनेक रूपों में स्वयं को अभिव्यक्त कर रही है। यह उसके व्यक्तित्व की शक्ति है कि अनेक प्रतिष्ठित मनस्वी सर्जकों ने उसके बहुआयामी व्यक्तित्व को अनेक नवीन आयामों में देखा है। ये सभी नवीन आयाम मिलकर जिस प्रतिमा का निर्माण करते हैं वह प्रतिमा अत्यंत अनूठी है। आधुनिक भारतीय भाषाओं में द्रौपदी के मिथकीय पुनःसर्जन में उसके व्यक्तित्व की जिस विशिष्टता को प्रमुखता से रेखांकित किया गया है वह है उसकी शक्तिमत्ता, उसकी तेजस्विता, उसकी सनातन आधुनिकता। असमिया महाभारत से लेकर अति नवीन सृजनों तक उसकी यह विशिष्टता बनी रही है। कहीं वह पांडवों की विजयिनी सेना का नेतृत्व कर रही है, कहीं भारतमाता के रूप में अन्याय के प्रतिकार की शपथ ले रही है, कहीं पांडवों की गांडीव शक्ति है और कहीं वीरांगना क्षत्राणीरूप होकर युद्धकथाओं को सुनकर पुलकित हो रही है। सभी स्थानों पर वह पांडवों को चैतन्य करनेवाली ऊर्जा है। वह कृष्णप्रीति के रंग में रंगी है पर साथ ही मनस्विनी स्वयंसिद्धा है। उसका मनःपूत व्यक्तित्व अपनी ही पवित्रता से शुचितासंपन्न है।
आधुनिक स्त्री-विमर्श जिस शक्तिस्वरूपा, स्वयंसिद्धा, मनस्विनी नारी की प्रतिमा सामने रखकर अपनी बात कह रहा है वह प्रतिमा महामुनि व्यास ने महाभारत में हजारों वर्षों पूर्व ही गढ़कर लोकमानस में प्रस्थापित कर दी थी। यह द्रौपदी निरंतर मेरे मन में बसी रही, नित्य नवीन रूपों में मन के आकाश में उदित होती रही और इसी क्रम में पुनः अमृता प्रीतम की द्रौपदी मन के आकाश में आ खड़ी होती है-
``मैं जन्म जन्म की द्रौपदी हूँ
 मैं पाँच तत्व की काया....
 किसी एक तत्व से ब्याही हूँ....
 जुए की वस्तु की तरह
 राजसभा में आई थी
 इस जन्म में भी वह कौरव हैं
 वही चेहरे, वही मोहरें,
 और उन्होंने वही बिसात बिछायी है
 मैं वही पांच तत्व की काया
 मैं वही नारी द्रौपदी...
 आज जुए की वस्तु नहीं हूँ
 मैं जुआ खेलने आयी हूँ....
 मैं जन्म-जन्म की द्रौपदी हूँ।
 पूरा समाज कौरवों ने जीत लिया
 और नया दांव खेलने लगे
 तो पूरी सियासत दांव पर लगा दी।
 मैंने दाएँ हाथ से समाज हार दिया
 बायें हाथ से सियासत हार दी
 लेकिन कौरव दुहाई देते हैं-
 कि पांच तत्व... मेरे पांच पांडव हैं
 मैं भरी सभा से उठी हूँ
 और पाँचों जीतकर लायी हूँ...
 मैं जन्म जन्म की द्रौपदी हूँ।''4
1. द्रौपदी से द्रौपदी तक - अमृता : एक नजरिया/इमरोज
2. नवभारत टाइम्स, मृणाल कुलकर्णी 15/10/2001
3. मृदुला गर्ग, नवभारत टाइम्स 15/10/2001
4. द्रौपदी से द्रौपदी तक - अमृता : एक नजरिया/इमरोज
-0-0-0-0-
आभार: रचना समय 

शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2012

धरोहर : जीवन की आपाधापी में... स्व. हरिवंश राय बच्चन

धरोहर :

 
स्व. हरिवंश राय बच्चन
इस स्तम्भ में विश्व की किसी भी भाषा की श्रेष्ठ मूल रचना देवनागरी लिपि में, हिंदी अनुवाद, रचनाकार का परिचय व चित्र, रचना की श्रेष्ठता का आधार जिस कारण पसंद है. संभव हो तो रचनाकार की जन्म-निधन तिथियाँ व कृति सूची दीजिए. आनंद लीजिए  धरोहर में स्व. हरिवंश राय बच्चन की रचना का।

जीवन की आपाधापी में...
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा
मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,
मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा -
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस एक और पहलू से होकर निकल चला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

गुरुवार, 25 अक्टूबर 2012

बमबुलियाँ: गिरीश बिल्लोरे मुकुल

लोकगीत :

बमबुलियाँ:गाते हैं नर्मदा परिक्रमा करने वाले

गिरीश बिल्लोरे मुकुल 

ऊपर की फोटो गूगल से साभार नीचे धुंआधार सेल फोन फोटो


नर्मदा के दर्शन को जाने वाले /नर्मदा परिक्रमा करने वाले,बुन्देल खंड के नर्मदा भक्त यात्री बमबुलियाँ गा के अपनें सफर की शुरुआत करतें हैं । ये आवाजें उन दिनों खूब लुभातीं थीं अल्ल सुबह जब "परकम्मा-वासी "[नर्मदा की प्रदक्षिणा करने वाले ] रेल से उतर कर सीधे नर्मदा की और रुख करते और कोरस में उनके स्वर बिखरते हौले-हौले स्वर मध्धम होते जाते । जी हाँ माँ नरमदा के सेवकों का जत्था भेड़ाघाट रेलवे स्टेशन से सीधे भेडाघाट की संगमरमरी चट्टानों को धवल करती अपनी माँ के दर्शन को जाता । पक्के रंगों की साडियों में लिपटीं देवियाँ ,युवा अधेड़ बुजुर्ग सभी दल के सदस्य सब के सब एक सधी सजी संवरी आवाज़ गाते मुझे आज भी याद हैं । सच जिस नर्मदा की भक्ति इनको एक लय एक सूत्र में पिरो देती है तो उसकी अपनी धारा कैसी होगी ? जी बिलकुल एक सधी किंतु बाधित होते ही बिफरी भी चिर कुंवरी माँ नर्मदा ने कितने पहाडों के अभिमान को तोडा है.
बमबुलियाँ:पढ़ें लिखों को है राज
बिटिया....$......हो बाँच रे
पुस्तक बाँच रे.......
बिन पढ़े आवै लाज बिटिया बाँच रे
हो.....पुस्तक बाँच रे.......!!
[01]
दुर्गावती के देस की बिटियाँ....
पांछू रहे काय आज
बिटिया........बाँच ......रे......पुस्तक बाँच ........!
[02]
जग उजियारो भयो.... सकारे
मन खौं घेरत जे अंधियारे
का करे अनपढ़ आज रे
बाँच ......रे....बिटिया ..पुस्तक बाँच ........!
[03]
बेटा पढ़ खैं बन है राजा
बिटियन को घर काज रे.....
कैसे आगे देस जो जै है
पान्छू भओ समाज रे.....
कक्का सच्ची बात करत हैं
दोउ पढ़ हैं अब साथ रे .............!!

*
969/ए-2,गेट नंबर-04 जबलपुर म.प्र.
MAIL : girishbillore@gmail.com
Phone’s: 09926471072

मंगलवार, 23 अक्टूबर 2012

कृति चर्चा: 'उत्तरकथा' -संजीव 'सलिल'

नव दुर्गा पर्व समापन पर विशेष कृति चर्चा : 
राम कथा के अछूते आयामों को स्पर्श करती 'उत्तरकथा'
संजीव 'सलिल'
*
(कृति परिचय: उत्तर कथा, महाकाव्य, महाकवि डॉ. प्रतिभा सक्सेना, आकार डिमाई, पृष्ठ 208, सजिल्द-बहुरंगी लेमिनेटेड आवरण, मूल्य 260 रु. / 15$, अयन प्रकाशन नै दिल्ली रचनाकार संपर्क: "Pratibha Saksena" <pratibha_saksena@yahoo.com> )

*
विश्व वाणी हिंदी को संस्कृत, प्राकृत से प्राप्त उदात्त विरासतों में ध्वनि विज्ञान आधृत शब्दोच्चारण, स्पष्ट व्याकरणिक नियम, प्रचुर पिंगलीय (छान्दस) सम्पदा तथा समृद्ध महाकाव्यात्मक आख्यान हैं। विश्व की किसी भी नया भाषा में महाकाव्य लेखन की इतनी उदात्त, व्यापक, मौलिक, आध्यात्मिकता संपन्न और गहन शोधपरक दृष्टियुक्त परंपरा नहीं है। अंगरेजी साहित्य के वार-काव्य महाकाव्य के समकक्ष नहीं ठहर पाते। राम-कथा तथा कृष्ण-कथा क्रमशः राम्मायण तथा महाभारत काल से आज तक असंख्य साहित्यिक कृतियों के विषय बने हैं। हर रचनाकार अपनी-अपनी क्षमता के अनुरूप विषय-वास्तु के अन्य-नए आयाम खोजता है। महाकाव्य, खंडकाव्य, चम्पूकाव्य, उपन्यास, कहानी, दृष्टान्त कथा, बोध कथा, प्रवचन, लोकगीत, कवितायेँ, मंचन (नाटक, नृत्य, चलचित्र), अर्थात संप्रेषण के हर माध्यम के माध्यम से असंख्य बार संप्रेषित किये जाने और पढ़ी-सुने-देखी जाने के बाद भी इन कथाओं में नवीनता के तत्व मिलना इनके चरित नायकों के जीवन और घटनाओं की विलक्षणता के प्रतीक तो हैं ही, इन कथाओं के अध्येताओं के विलक्षण मानस के भी प्रमाण हैं जो असंख्य बार वर्णित की जा चुकी कथा में कुछ नहीं बहुत कुछ अनसुना-अनदेखा-अचिंतित अन्वेषित कर चमत्कृत करने की सामर्थ्य रखती है।

इन कथाओं के कालजयी तथा सर्वप्रिय होने का कारण इनमें मानव  अब तक विकसित सभ्यताओं तथा जातियों (सुर, असुर, मनुज, दनुज, गन्धर्व, किन्नर, वानर, रिक्ष, नाग, गृद्ध, उलूक) के उच्चतम तथा निकृष्टतममूल्यों को जीते हुए शक्तिवान तथा शक्तिहीन पात्र तो हैं ही सामान्य प्रतीत होते नायकों के महामानवटीवी ही नहीं दैवत्व प्राप्त करते दीप्तिमान चरित्र भी हैं। सर्वाधिक विस्मयजनक तथ्य यह कि रचनाकार विविध घटनाओं तथा चरित्रों को इस तरह तराश और निखार पाते हैं कि आम पाठक, श्रोता और दर्शक मंत्रमुग्ध रह जाते हैं की यह तो ज्ञात ही नहीं था। यहाँ तक की संभवतः वे चरित्र स्वयं भी अपने बारे में इतने विविधतापूर्ण आयामों की कल्पना न कर पाते। वैविध्य इतना की जो मात्र एक कृति में महामानव ही नहीं भगवन वर्णित है, वही अन्य कृति में अनाचारी वर्णित है, जो एक कृति में अधमाधम है वही अन्य कृति में महामानव है। राम कथा को केंद्र में रखकर रची गयी जिन कृतियों में मौलिक उद्भावना, नीर-क्षीर विवेचन तथा सामयिक व भावी आवश्यकतानुरूप चरित्र-चित्रण कर भावातिरेक से बचने में रचनाकार समर्थ हुआ है, उनमें से एक इस चर्चा के केंद्र में है।

हिंदी की समर्पित अध्येता, निष्णात प्राध्यापिका, प्रवीण कवयित्री तथा सुधी समीक्षक डॉ.प्रतिभा सक्सेना रचित महाकाव्य 'उत्तर कथा' में राम-कथा के सर्वमान्य तथ्यों का ताना-बाना कुछ इस तरह बुना गया है कि सकल कथा से पूर्व परिचित होने पर भी न केवल पिष्ट-पेशण या दुहराव की अनुभूति नहीं होती अपितु निरंतर औत्सुक्य तथा नूतनता की प्रतीति होती है। भूमिजा भगवती सीता को केंद्र में रखकर रचा गया यह महाकाव्य वाल्मीकि, पृष्ठभूमि, प्रस्तावना, आगमन, मन्दोदरी, घटनाक्रम, अशोक वन में, प्रश्न, रावण, युद्ध के बाद, वैदेही, सहस्त्रमुख पर विजय, अवधपुरी में, निर्वासिता, मातृत्व, स्मृतियाँ: रावण का पौरोहित्य, कौशल्या, स्मृतियाँ : सीता, रात्रियाँ, आक्रोश, क्या धरती में ही समा गयी, अयोध्या में, वाल्मीकि, जल समाधि, अंतिम प्रणाम, वाल्मीकि, जल-समाधि, अंतिम प्रणाम, वाल्मीकि  तथा उपसंहार शीर्षक 27 सर्गों में विभाजित है।

प्राच्य काव्याचार्यों ने बाह्य प्रकृति (दृश्य, घटना, परिस्थिति, अवस्था आदि), अन्य व्यक्ति (गुरु, आश्रयदाता, मित्र, शत्रु आदि), विचार (उपदेश, दर्शन, देश-प्रेम, आदर्श-रक्षा, क्रांति, त्याग आदि), तथा जिज्ञासा को काव्य-प्रेरणा कहा है। पाश्चात्य साहित्यविदों की दृष्टि में दैवी-प्रेरणा, अनुकरण वृत्ति, सौंदर्य-प्रेम, आत्माभिव्यक्ति, आत्म-विस्तार तथा मनोविश्लेषकों के अनुसार अतृप्त कामना, हीनता आदि काव्य-प्रेरणा हैं। विवेच्य कृति में प्राच्य-पाश्चात्य कव्याचार्यों द्वारा मान्य काव्य-तत्वों में से अधिकांश की सम्यक उपस्थिति उल्लेख्य है।

काव्यालंकार में आचार्य भामह महाकाव्य के लक्षण निर्धारित करते हुए कहते हैं:

'' सर्गबद्धो महाकाव्यं महतां च महच्चयत।
अग्राम्यशब्दमर्थ च अलंकारं सदाश्रयं।।
मन्त्रदूत प्रयाणाजिन नायकाभ्युदयन्चवत।
पञ्चभिःसंधिभिर्युक्तं नाति व्याख्येयमृद्धियं।।''

भामह सर्गबद्धता, वृहदाकार, उत्कृष्ट अप्रस्तुतविधान, शिष्ट-नागर शब्द-विधान, आलंकारिक भाषा, महान चरित्रवान दिग्विजयी नायक (केन्द्रीय चरित्र), जीवन के विविध रूपो; दशाओं व् घटनाओं का चित्रण, संघटित कथानक, न्यून व्याख्या तथा प्रभाव की अन्विति को महाकाव्य का लक्षण मानते हैं। धनञ्जय के अनुसार ''अतरैकार्थ संबंध संधिरेकान्वयेसति'' अर्थात संधि का लक्षण एक प्रयोजन से संबद्ध अनेक कथांशों का प्रयोजन विशेष से संबद्ध किया जाना है। 'उत्तरकथा' में महाकाव्य के उक्त तत्वों की सम्यक तथा व्यापक उपस्थति सहज दृष्टव्य है।

पाश्चात्य साहित्य में मूल घटना की व्याख्या (एक्स्पोजीशन ऑफ़ इनीशिअल इंसिडेंट), विकास (ग्रोथ), चरम सीमा (क्लाइमैक्स), निर्गति (डेनौमेंट) तथा परिणति (कैटोस्ट्रोफ्री) को महाकाव्य का लक्षण बताया गया है। इस निकष पर भी 'उत्तरकथा' महाकव्य की श्रेणी में परिगणित की जाएगी। विदुषी कवयित्री ने स्वयं कृति को महाकाव्य नहीं कहा यह उनकी विनम्रता है। भूमुका में उनहोंने पूरी ईमानदारी से रामकथा के बहुभाषी वांग्मय के कृतिकारों, प्रस्तोताओं, आलोचकों, लोक-कथाओं, लोक-गीतों आदि का संकेत कर उनका ऋण स्वीकारा है।

रुद्रट ने महाकाव्य के लक्षण लंबी पद्यबद्ध कथा, प्रसंगानुकूल अवांतर कथाएं, सर्गबद्धता, नाटकीयता, समग्र जीवन चित्रण, अलंकार वर्णन, प्रकृति चित्रण, धीरोद्दात्त नायक, प्रतिनायक, नायक की जय, रसात्मकता, सोद्देश्यता तथा अलौकिकता मने हैं। उत्तर कथा में सामान्य के विपरीत नायक सीता हैं। ऐसे कथानक में सामायतः प्रतिनायक रावण होता है किन्तु यहाँ राम की दुर्बलता उन्हें प्रतिनायकत्व के निकट ले जाती है। यह एक दुस्साहसिक और मौलिक अवधारणा है। राम और रावण में से कौन एक या दोनों प्रतिनायक हैं? यह विचारणीय है। इसी तरह सीता को छोड़कर शेष सभी उनके साथ हो रहे अन्याय में मुखर या मौन सहभागिता का निर्वहन करते दिखते हैं। रचनाकार ने समग्र जीवन चित्रण के स्थान पर प्रमुख घटनाओं को वरीयता देने का औचित्य प्रतिपादित करते हुए भूमिका में कहा है- 'लोक-मानस में राम कथा इतनी सुपरिचित है की बीच की घटनाएँ या कड़ियाँ न भी हों तो कथा-क्रम में बाधा नहीं आती। वैसे भी कथा कहना या चरित गान करना मेरा उद्देश्य नहीं है।' अतः, घटनाओं के मध्य कथा-विकास का अनुमान लगाने का दायित्व पाठक को कथा-विकास के विविध आयामों के प्रति सजग रखता है। प्रकृति चित्रण अपेक्षाकृत न्यून है। यत्र-तत्र अलंकारों की शोभा काठ-प्रवाह या चरित्रों के निखर में सहायक है किन्तु कहीं भी रीतिकालीन रचनाकारों की तरह आवश्यक होने पर भी अलंकार ठूंसने से बचा गया है। नायक की विजय का तत्व अनुपस्थित है। प्रमुख चरित्रों सीता, राम तथा रावण तीनों में से किसी को भी विजयी नहीं कहा जा सकता। सीता का ओजस्वी, धीर-वीर-उदात्त केन्द्रीय चरित्र अपने साथ हुए अन्याय के कारन पाठकीय सहानुभूति अर्जित करने के बाद भी दिग्विजयी तो नहीं ही कहा जा सकता। घटनाओं तथा चरितों के विश्लेषण को विश्वसनीयता के निकष पर प्रमाणिक तथा खरा सिद्ध करने के उद्देश्य से असाधारणता, चमत्कारिकता या अलौकिकता को दूर रखा जाना उचित ही है। आचार्य हेमचन्द्र ने शब्द-वैचित्र्य, अर्थ-वैचित्र्य तथा उभय-वैचित्र्य (रसानुरूप सन्दर्भ-अर्थानुरूप छंद) को आवश्यक माना है किन्तु प्रतिभा जी ने सरलता, सहजता, सरसता की त्रिवेणी को अधिक महत्वपूर्ण माना है। वे परम्परागत मानकों का न तो अन्धानुकरण करती हैं, न ही उनकी उपेक्षा करती हैं अपितु कथानक की आवश्यकतानुसार यथा समय यथायोग्य मानकों का अनुपालन अथवा अनदेखी कर अपना पथ स्वयं प्रशस्त कर पाठक को बांधे रखती हैं। डॉ। नागेन्द्र द्वारा स्थापित उदात्तता मत (उदात्त चरित्र, उदात्त कार्य, उदात्त भाव, उदात्त कथानक व उदात्त शैली) इस कृति से पुष्ट होता है।

महाकाव्यत्व के भारतीय मानकों में प्रसंगानुकूल तथा रसानुकूल छंद वैविध्य की अनिवार्यता प्रतिपादित है जबकि अरस्तू आद्योपरांत एक ही छन्द आवश्यक मानते हैं। प्रतिभा जी की यह महती कृति मुक्त छंद में है किन्तु सर्वत्र निर्झर की तरह प्रवाहमयी भाषा, सम्यक शब्द-चयन, लय की प्रतीति, आलंकारिक सौष्ठव, रम्य लालित्य तथा अन्तर्निहित अर्थवत्ता कहीं भी बोझिल न होकर रसमयी नर्मदा तथा शांत क्षिप्रा की जल-तरंगों से मानव-मूल्यों के महाकाल का भावाभिषेक करती प्रती होता है।

यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने त्रासदी (ट्रेजेडी) को महाकाव्य (एपिक) का अनिवार्य व केन्द्रीय लक्षण कहा है। सीता के जीवन में हुई त्रासदियों से अधिक त्रासदी और क्या हो सकती है- जन्म के पूर्व ही पिता से वंचित, जन्म के साथ ही  माता द्वारा परित्यक्त, पिता द्वारा शिव-धनुष भंग के प्रण के कारण विवाह में बाधा, विवाह के मध्य परशुराम प्रसंग से अवरोध, विवाह-पश्चात् राम वनवास, रावण द्वारा हरण, मुक्ति पश्चात् राम का संदेह, आग्नि परीक्षा, अयोध्या में लांछन, निष्कासन, वन में युगल पुत्रों का पालन और अंत में निज-त्रासदियों के महानायक राम के आश्रय में पुत्रों को ह्बेजने की विवशता और अनंत अज्ञातवास...। अरस्तु के इस निकष पर महाकाव्य रचना के लिए सीता से बेहतर और कोई चरित्र नहीं हो सकता।

महाकाव्य के मानकों में सर्ग, प्रसंग तथा रसानुकूल छंद-चयन की परंपरा है। छंद-वैविध्य को महाकाव्य का वैशिष्ट्य माना गया है। प्रतिभा जी ने इस रूढ़ि के विपरीत असीमित आयाम युक्त मुक्त-छंद का चयन किया है जिसे बहुधा छंद-मुक्त ता छंद हीन मानने की भूल की जाती है। मानक छंदों के न होने तथा गति-यति के निश्चित विधान का अनुपालन न किये जाने के बावजूद समूची कृति में भाषिक लय-प्रवाह, आलंकारिक वैभव, अर्थ गाम्भीर्य, कथा विकास, रसात्मकता, सरलता, सहजता, घटनाक्रम की निरंतरता, नव मूल्य स्थापना, जन सामान्य हेतु सन्देश, रूढ़ि-खंडन तथा मौलिक उद्भावनाओं का होना कवयित्री के असाधारण सामर्थ्य का परिचायक है।

सामान्यतः छंद पिंगल का ज्ञान न होने या छंद सिद्ध न हो पाने के कारण कवि छंद रहित रचना करते हैं किन्तु प्रतिभा जी अपवाद हैं। उनहोंने छन्द शास्त्र से सुपरिचित तथा छन्द लेखन में समर्थ होते हुए भी छंद का वरण संभवतः सामान्य पाठकों की छंद को समझने में असुविधा के कारण नहीं किया। अधिकतर प्रयुक्त चतुष्पदियों में कहीं-कहीं  प्रथम-द्वितीय तथा तृतीय-चतुर्थ पंक्तियों में तुकांत साम्य है, कहीं प्रथम-तृतीय, द्वितीय-चतुर्थ पंक्ति में पदभार समान है, कहीं असमान... सारतः किसी पहाडी निर्झरिणी की सलिल-तरंगों की तरह काव्यधारा उछलती-कूदती, शांत होती-मुड़ती, टकराती-चक्रित होती,  गिरती-चढ़ती डराती-छकाती, मोहती-बुलाती प्रतीत होती है।

कृतिकार ने शैल्पिक स्तर पर ही नहीं अपितु कथा तत्वों व तथ्यों के स्तर पर भी स्वतंत्र दृष्टिकोण, मौलिक चिंतन और अन्वेषणपूर्ण तार्किक परिणति का पथ चुना है। आमुख में कंब रामायण, विलंका रामायण, आनंद रामायण, वाल्मीकि रामायण आदि कृतियों से कथा-सूत्र जुटाने का संकेत कर पाठकीय जिज्ञासा का समाधान कर दिया है। स्वतंत्र चिन्तन तथा चरित्र-चित्रण हेतु संभवत: राजतरंगिणीकार कल्हण का मत कवयित्री को मन्य है, तदनुसार 'वही श्रेष्ठ कवि प्रशंसा का अधिकारी है जिसके शब्द एक न्यायाधीश के पादक्य की भांति अतीत का चेत्र्ण करने में घृणा अथवा प्रेम की भवना से मुक्त होते हैं।' कवयित्री ने रचना के केन्द्रीय पात्र सीता के प्रति पूर्ण सहानुभूति होते हुए भी पक्षधरता का पूत कहीं भी नहीं आने दिया- यह असाधारण संतुलित अभिव्यक्ति सामर्थ्य उनमें है।

कृतिकार ने सफलता तथा साहसपूर्वक श्री राम पर अन्य कवियों द्वारा आरोपित मर्यादा पुरुषोत्तम, अवतार, भगवान् तथा लंकेश रावण पर आरोपित राक्षसत्व, तानाशाही, अनाचारी आदि दुर्गुणों से अप्रभावित रहकर राम की तुलना में रावण को श्रेष्ठ तथा सीता को श्रेष्ठतम निरूपित किया है। वे श्री इलयावुलूरि राव के इस मत से सहमत प्रतीत होती हैं- 'यह विडंबना की बात है की सारा संसार सीता और राम को आदर्श दम्पति मानकर उनकी पूजा करता है किन्तु उनका जैसा दाम्पत्य किसी को स्वीकार नहीं होगा।'

उत्तरकथा का रावन अपनी लंबी अनुपस्थिति में मन्दोदरी द्वारा कन्या को जन्म देने, उससे यह सत्य छिपाए जाने तथा उसे बताये बिना पुत्री को त्यागे जाने के बाद भी पत्नी पर पूर्ण विशवास करता है जबकि राम रावण द्वारा बलपूर्वक ले जाकर राखी गयी सीता के निष्कलंकित होने पर भी उन पर बार-बार संदेह कर मर्यादा के विपरीत न केवल कटु वचन कहते हैं अपितु अग्निपरीक्षा लेने के बाद भी एक अविवेकी के निराधार लांछन की आड़ में सीता को निष्कासित कर देते हैं। इतना ही नहीं सीता-पुत्रों द्वारा पराजित किये जाने पर राम अपने पितृत्व (जिसे वे खुद संदेह के घेरे में खड़ा कर चुके थे) का वास्ता देकर उन्हें पुत्र देने को विवश करते हैं। फलतः, सीता अपनी गरिमा और आत्म सम्मान की रक्षा के लिए रामाश्रय निकृष्टतम मानकर किसी से कुछ कहे बिना अग्यात्वास अज्ञातवास अंगीकार कर लेती हैं, आत्मग्लानिवश सीता-वनवास में सहयोगी रहे रामानुज लक्ष्मण तथा राम दोनों आत्महत्या करने के लिए विवश होते हैं।

विविध रामकथाओं में से कथा सूत्रों का चयन करते समय प्रतिभा जी को राम की बड़ी बहिन शांता के अस्तिस्व, पुत्रेष्टि यज्ञ के पौरोहित्य की दक्षिणा में ऋषि श्रृंगी से विवाह, लंका विजय पश्चात् बार-बार उकसाकर सीता से रावण का चित्र बनवाने-राम को दिखाकर संदेह जगाने, की कथा भी ज्ञात हुई होगी किन्तु यह प्रसंग संभवतः अप्रासंगिक मानकर छोड़ दिया गया। यक्ष-रक्ष, सुर-असुर सभ्यताओं के संकेत कृति में हैं किन्तु उन्नत नाग सभ्यता (एक केंद्र उज्जयिनी, वंशज कायस्थ) का उल्लेख न होना विस्मित करता है, संभवतः उन्होंने नागों को रामोत्तर माना हो। राम-कथा पर लिखनेवालों ने प्रायः घटना-स्थल की भौगोलिक-पर्यावरणीय परिस्थितियों की अनदेखी की है। प्रतिभा जी ने लीक से हटकर मय सभ्यता तथा मायन कल्चर का साम्य इंगित किया है, यहप्रशंसनीय है।

इस कृति का मूलोद्देश्य तथा सशक्त पक्ष सीता, मन्दोदरी तथा रावण के व्यक्तित्वों को लोक-धारणा से हटकर तथ्यों के आधार पर मूल्यांकित करना तथा जनमानस में सप्रयास भगवतस्वरुप विराजित किये गए राम-लक्ष्मण के चरित्रों के अपेक्षाकृत अल्पज्ञात पक्षों को सामने लाकर समाज पर पड़े दुष्प्रभावों को इंगित करना है। कृतिकार इस उद्देश्य में सफल तथा साधुवाद का पात्र है।
_________________________________
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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0761- 2411131 / 094251 83244


dengue: Symptoms, Treatment & Prevention Dr Acharya L S

HEALTH CORNER_
 
dengue: Symptoms, Treatment & Prevention
 
 Dr Acharya L S का प्रोफ़ाइल फ़ोटो 
 
Dr.Acharya L S


The alarming rise in cases of dengue across cities in the country has become an increasing cause of worry. It now more important than ever to be aware of the risk factors, and protect yourself. Prevention in this case, is truly better than cure.

What is dengue?

Dengue is a disease caused by a family of viruses that are transmitted by mosquitoes. Dengue cannot be spread directly from person to person, i.e., is not contagious. A person can only become infected by the bite of a mosquito that is infected with the dengue virus. It is important to note that these mosquitoes bite during the daytime as well as nighttime.

Symptoms

Dengue usually begins with chills, headache, pain while moving the eyes, and backache. Persistent high fever is characteristic of dengue. Other symptoms to watch out for are exhaustion, backache, joint pains, nausea, vomiting, low blood pressure and rash.

Treatment

Because dengue is caused by a virus, there is no specific treatment for it; treatment of dengue is typically concerned only with the relief of symptoms. People who show the symptoms mentioned above should immediately consult a physician. It is important to drink plenty of fluids, stay hydrated and get as much rest as possible.

Dengue hemorrhagic fever (DHF)

DHF is a more severe form of dengue and can be fatal if untreated. It tends to affect children under the age of ten, and causes abdominal pain, hemorrhage (bleeding), and circulatory collapse (shock).

Prevention

There is no vaccine to prevent dengue. Prevention of dengue requires eradication of the mosquitoes that carry this virus. This means high standards of hygiene and sanitation. Avoid areas littered with garbage. All containers of stationary water (like drums or buckets) should be covered or discarded, including flower vases and pets' feeding bowls. If your area is infested with mosquitoes, wear long sleeves, use mosquito repellants and fumigate if necessary.

Dr.Acharya L S
 
             (Dy.Commissioner)
    VII UP SJAB (India)
                  Lucknow Center
Member UP State Red Cross Management Committee
(National Disaster Response Team of INDIA)
National Disaster WatSan Response Team of India.

सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

आज का विचार thought of the day:

आज का विचार thought of the day:

मन ने कल्पित किया कभी कुछ 
निराकार साकार भी।
सच पाया था 'सलिल' कुछ न कुछ
निराधार साधार भी।।




जो न बदल पाऊँ, कर पाऊँ जस का तस, स्वीकार मैं।
बदल सकूँ जो, साहस दे बदलूँ  कर अंगीकार मैं।।
और बुद्धि दे जो अंतर  को अंतर में स्थान दे-
मौन होकर अशुभ-अनय का करूँ 'सलिल' प्रतिकार मैं।।



रविवार, 21 अक्टूबर 2012

विचित्र किन्तु सच: 'आत्मा' का वजन सिर्फ 21 ग्राम !



विचित्र किन्तु सच:

'आत्मा' का वजन सिर्फ 21 ग्राम !

इंसानी आत्मा का वजन कितना होता है?

इस सवाल का जवाब तलाशने के लिये 10 अप्रैल 1901 को अमेरिका के डॉर्चेस्टर में एक प्रयोग किया गया। डॉ. डंकन मैक डॉगल ने चार अन्य साथी डॉक्टर्स के साथ प्रयोग किया था।

इनमें 5 पुरुष और एक महिला मरीज ऐसे थे जिनकी मौत हो रही थी। इनको खासतौर पर डिजाइन किये गये फेयरबैंक्स वेट स्केल पर रखा गया था। मरीजों की मौत से पहले बेहद सावधानी से उनका वजन लिया गया था। जैसे ही मरीज की जान गई वेइंग स्केल की बीम नीचे गिर गई। इससे पता चला कि उसका वजन करीब तीन चौथाई आउंस कम हो गया है।

ऐसा ही तजुर्बा तीन अन्य मरीजों के मामले में भी हुआ। फिर मशीन खराब हो जाने के कारण बाकी दो को टेस्ट नहीं किया जा सका। साबित ये हुआ कि हमारी आत्मा का वजन 21 ग्राम है। इसके बाद डॉ. डंकन ने ऐसा ही प्रयोग 15 कुत्तों पर भी किया। उनका वजन नहीं घटा, इससे निष्कर्ष निकाला कि जानवरों की आत्मा नहीं होती।


फिर भी इस पर और रिसर्च होना बाकी थी लेकिन 1920 में डंकन की मौत हो जाने से रिसर्च वहीं खत्म हो गई। कई लोगों ने इसे गलत और अनैतिक भी माना। इस पर 2003 में फिल्म भी बनी थी। फिर भी सच क्या है ये एक राज है।

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