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रविवार, 19 जून 2011

प्राचीन भारतीय विज्ञानं 

अगस्त्य संहिता का विद्युत्‌ शास्त्र

 -- सुरेश सोनी


राव साहब कृष्णाजी वझे ने १८९१ में पूना से इंजीनियरिंग की परीक्षा पास की। भारत में विज्ञान संबंधी ग्रंथों की खोज के दौरान उन्हें उज्जैन में दामोदर त्र्यम्बक जोशी के पास अगस्त्य संहिता के कुछ पन्ने मिले। यह शक संवत्‌ १५५० के करीब के थे। आगे चलकर इस संहिता के पन्नों में उल्लिखित वर्णन को पढ़कर नागपुर में संस्कृत के विभागाध्यक्ष रहे डा। एम.सी. सहस्रबुद्धे को आभास हुआ कि यह वर्णन डेनियल सेल से मिलता-जुलता है। अत: उन्होंने नागपुर में इंजीनियरिंग के प्राध्यापक श्री पी.पी. होले को वह दिया और उसे जांचने को कहा। अगस्त्य का सूत्र निम्न प्रकार था-
संस्थाप्य मृण्मये पात्रेताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्‌।
छादयेच्छिखिग्रीवेनचार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्‌॥
अगस्त संहिताइसका तात्पर्य था, एक मिट्टी का पात्र (कठ्ठद्धद्यण्ड्ढद द्रदृद्य) लें, उसमें ताम्र पट्टिका (क्दृद्रद्रड्ढद्ध च्ण्ड्ढड्ढद्य) डालें तथा शिखिग्रीवा डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (ध्र्ड्ढद्य द्मठ्ठध्र्‌ क़्द्वद्मद्य) लगायें, ऊपर पारा (थ्र्ड्ढद्धड़द्वद्धन्र्‌) तथा दस्त लोष्ट (न्न्त्दड़) डालें, फिर तारों को मिलाएंगे तो, उससे मित्रावरुणशक्ति का उदय होगा।
उपर्युक्त वर्णन के आधार पर श्री होले तथा उनके मित्र ने तैयारी चालू की तो शेष सामग्री तो ध्यान में आ गई, परन्तु शिखिग्रीवा समझ में नहीं आया। संस्कृत कोष में देखने पर ध्यान में आया कि शिखिग्रीवा याने मोर की गर्दन। अत: वे और उनके मित्र बाग गए तथा वहां के प्रमुख से पूछा, क्या आप बता सकते हैं, आपके झ्दृदृ में मोर कब मरेगा, तो उसने नाराज होकर कहा क्यों? तब उन्होंने कहा, एक प्रयोग के लिए उसकी गरदन की आवश्यकता है। यह सुनकर उसने कहा ठीक है। आप एक एप्लीकेशन दे जाइये। इसके कुछ दिन बाद एक आयुर्वेदाचार्य से बात हो रही थी। उनको यह सारा घटनाक्रम सुनाया तो वे हंसने लगे और उन्होंने कहा, यहां शिखिग्रीवा का अर्थ मोर की गरदन नहीं अपितु उसकी गरदन के रंग जैसा पदार्थ कॉपरसल्फेट है। यह जानकारी मिलते ही समस्या हल हो गई और फिर इस आधार पर एक सेल बनाया और डिजीटल मल्टीमीटर द्वारा उसको नापा।
उसका ग्र्द्रड्ढद क्त्द्धड़द्वत्द्य ध्दृथ्द्यठ्ठढ़ड्ढ था १।३८ ज्दृथ्द्यद्म और च्ण्दृद्धद्य क्त्द्धड़द्वत्द्य क्द्वद्धद्धड्ढदद्य था २३ ग्त्थ्थ्त्‌ ठ्ठथ्र्द्रड्ढद्धड्ढद्म।प्रयोग सफल होने की सूचना डा. एम.सी. सहस्रबुद्धे को दी गई। इस सेल का प्रदर्शन ७ अगस्त, १९९० को स्वदेशी विज्ञान संशोधन संस्था (नागपुर) के चौथे वार्षिक सर्वसाधारण सभा में अन्य विद्वानों के सामने हुआ। तब विचार आया कि यह वर्णन इलेक्ट्रिक सेल का है। पर इसका आगे का संदर्भ क्या है इसकी खोज हुई और आगे ध्यान में आया ऋषि अगस्त ने इसके आगे की भी बातें लिखी हैं-
अनने जलभंगोस्ति प्राणोदानेषु वायुषु।
एवं शतानां कुंभानांसंयोगकार्यकृत्स्मृत:॥
अगस्त संहिताअगस्त्य कहते हैं सौ कुंभों की शक्ति का पानी पर प्रयोग करेंगे, तो पानी अपने रूप को बदल कर प्राण वायु ( ग्र्न्न्र्ढ़ड्ढद) तथा उदान वायु (क्तन्र्ड्डद्धदृढ़ड्ढद) में परिवर्तित हो जाएगा। उदान वायु को वायु प्रतिबन्धक वस्त्र में रोका जाए तो यह विमान विद्या में काम आता है।वायुबन्धकवस्त्रेणनिबद्धो यानमस्तकेउदान : स्वलघुत्वे बिभर्त्याकाशयानकम्‌। (अगस्त्य संहिता शिल्प शास्त्र सार)राव साहब वझे, जिन्होंने भारतीय वैज्ञानिक ग्रंथ और प्रयोगों को ढूंढ़ने में अपना जीवन लगाया, उन्होंने अगस्त्य संहिता एवं अन्य ग्रंथों के आधार पर विद्युत भिन्न-भिन्न प्रकार से उत्पन्न होती हैं, इस आधार उसके भिन्न-भिन्न नाम रखे-(१) तड़ित्‌-रेशमी वस्त्रों के घर्षण से उत्पन्न।(२) सौदामिनी-रत्नों के घर्षण से उत्पन्न।(३) विद्युत-बादलों के द्वारा उत्पन्न।(४) शतकुंभी-सौ सेलों या कुंभों से उत्पन्न।(५) हृदनि- हृद या स्टोर की हुई बिजली।(६) अशनि-चुम्बकीय दण्ड से उत्पन।अगस्त्य संहिता में विद्युत्‌ का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग के लिए करने का भी विवरण मिलता है। उन्होंने बैटरी द्वारा तांबा या सोना या चांदी पर पालिश चढ़ाने की विधि निकाली। अत: अगस्त्य को कुंभोद्भव (एठ्ठद्यद्यड्ढद्धन्र्‌ एदृदड्ढ) कहते हैं।
कृत्रिमस्वर्णरजतलेप: सत्कृतिरुच्यते।
-शुक्र नीतियवक्षारमयोधानौ सुशक्तजलसन्निधो॥
आच्छादयति तत्ताम्रंस्वर्णेन रजतेन वा।
सुवर्णलिप्तं तत्ताम्रंशातकुंभमिति स्मृतम्‌॥
५ (अगस्त्य संहिता)अर्थात्‌-कृत्रिम स्वर्ण अथवा रजत के लेप को सत्कृति कहा जाता है। लोहे के पात्र में सुशक्त जल अर्थात तेजाब का घोल इसका सानिध्य पाते ही यवक्षार (सोने या चांदी का नाइट्रेट) ताम्र को स्वर्ण या रजत से ढंक लेता है। स्वर्ण से लिप्त उस ताम्र को शातकुंभ अथवा स्वर्ण कहा जाता है।
                                                                                                            आभार :  हिंदी, हिन्दू, हिंदुस्तान 

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घनाक्षरी छंद : राजनीति का अखाड़ा..... --संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी छंद :
राजनीति का अखाड़ा.....
संजीव 'सलिल'
*
अपनी भी कहें कुछ, औरों की भी सुनें कुछ, बात-बात में न बात, अपनी चलाइए.
कोई दूर जाए  गर, कोई रूठ जाए गर, नेह-प्रेम बात कर, उसको मनाइए.
बेटी हो, जमाई हो  या, बेटा-बहू, नाती-पोते, भूल से भी भूलकर, शीश न चढ़ाइए.
दूसरों से जैसा चाहें, वैसा व्यवहार करें, राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइए..
*
एक देश अपना है, माटी अपनी है एक, भिन्नता का भाव कोई, मन में न लाइए.
भारत की, भारती की, आरती उतारकर, हथेली पे जान धरें, शीश भी चढ़ाइए..
भाषा-भूषा, जात-पांत,वाद-पंथ कोई भी हो, हाथ मिला, गले मिलें, दूरियाँ मिटाइए.
पक्ष या विपक्ष में हों, राष्ट्र-हित सर्वोपरि, राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइए..
**
सुख-दुःख, धूप-छाँव, आते-जाते जिंदगी में, डरिए न धैर्य धर, बढ़ते ही जाइये.
संकटों में, कंटकों में, एक-एक पग रख, कठिनाई सीढ़ी पर, चढ़ते ही जाइये..
रसलीन, रसनिधि, रसखान बनें आप, श्वास-श्वास महाकाव्य, पढ़ते ही जाइये.
शारदा की सेवा करें, लक्ष्मी मैया! मेवा वरें, शक्ति-साधना का पंथ, गढ़ते ही जाइये..
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शुक्रवार, 17 जून 2011

एक कविता: बदलेगा परिवेश.... संजीव 'सलिल'

एक कविता:
बदलेगा परिवेश....
 संजीव 'सलिल'
*
बहुत कुछ बाकी अभी है
मत हों आप निराश.
उगता है सूरज तभी
जब हो उषा हताश.
किरण आशा की कई हैं
जो जलती दीप.
जैसे मोती पालती 
निज गर्भ में चुप सीप.
*
आइये देखें झलक 
है जबलपुर की बात
शहर बावन ताल का
इतिहास में विख्यात..
पुर गए कुछ आज लेकिन
जुटे हैं फिर लोग.
अब अधिक पुरने न देंगे
मिटाना है रोग.
रोज आते लोग 
खुद ही उठाते कचरा.
नीर में या तीर पर
जब जो मिला बिखरा.
भास्कर ने एक
दूजा पत्रिका ने गोद
लिया है तालाब
जनगण को मिला आमोद.
*   
झलक देखें दूसरी
यह नर्मदा का तीर.
गन्दगी है यहाँ भी
भक्तों को है यह पीर.
नहाते हैं भक्त ही,
धो रहे कपड़े भी.
चढ़ाते हैं फूल-दीपक
करें झगड़े भी.
बैठकें की, बात की,
समझाइशें भी दीं.
चित्र-कविता पाठकर
नुमाइशें भी की.
अंतत: कुछ असर
हमको दिख रहा है आज.
जो चढ़ाते फूल थे वे
लाज करते आज.
संत, नेता, स्त्रियाँ भी
करें कचरा दूर.
ज्यों बढ़ाकर हाथ आगे
बढ़ रहा हो सूर.
*
इसलिए कहता:
बहुत कुछ अभी भी है शेष
आप लें संकल्प,
बदलेगा तभी परिवेश.
*

छंद सलिला: नवीन चतुर्वेदी


 
 अमृत ध्वनि छन्‍द - उन्नत धारा प्रेम की

उन्नत धारा प्रेम की, बहे अगर दिन रैन|
तब मानव मन को मिले, मन-माफिक सुख चैन||
मन-माफिक सुख चैन, अबाधित होंय अनन्दित|
भाव सुवासित, जन हित लक्षित, मोद मढें नित|
रंज  किंचित, कोई न वंचित, मिटे अदावत|
रहें इहाँ-तित, सब जन रक्षित, सदा समुन्नत||


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घनाक्षरी कवित्त - ढूँढ के छली को पेश कीजै दरबार में

आज सपने में ललिता ने ये दिया हुकुम,
ढूँढ के छली को पेश कीजे दरबार में|

दिलों को दुखाने की मिलेगी सज़ा उसे आज,
जुर्म इकबाल होगा अदालतेप्यार में|

प्रेम का कनून तोड़ा, राधा जी से मुँह मोड़ा,
बख्शा न जाएगा वो, छपा दो अख़बार में|

सभी जगा ढूँढा, पर, मिला नहीं श्याम, चूँकि-
बैठा था वो तो छुप के दिलेसरकार में||

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सांगोपांग सिंहावलोकन छन्‍द - 
 
तान दें पताका उच्च हिंद की जहान में
ध्यान दें समाज पर अग्रज हमारे सब,
अनुजों की कोशिशों को बढ़ के उत्थान दें| 

उत्थान दें
 जन-मन रुचिकर रिवाजों को,

भूत काल वर्तमान भावी को भी मान दें| 

मान दें
 मनोगत विचारों को समान रूप,
हर बार अपनी ही जिद्द को न तान दें| 

तान दें
 पताका उच्च हिंद की जहान में औ,

उस के तने रहने पे भी फिर ध्यान दें||
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ग़ज़ल - फगुआ उमंग तरंग में

 सजावटें बनावटें बुनावटें घुमावटें|
चिठिया में होंवो लिखावटें हरें सकलअकुलाहटें||

मृदुहास मयपरिहास भीवही खास आस जगा गया|
मधुमास कीअभिलाष मेंअतिशय ढ़ी झुँझलाहटें||

यदि प्रेम हैडरिए नहींअभिव्यक्त भी करिए सजन|
फगुआ उमंग तरंग मेंक्यूँ  लूटें साथ तरावटें||

अनुपमअमितअविरलअगमअभिनवअकथअनिवार्य सा|
अमि-रस भरायहु प्रेम-पथ चलें यहाँ कडुवाहटें||

दोहा सलिला: भू को फिरसे हरा कर संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
भू को फिरसे हरा कर
संजीव 'सलिल'

*
अग्नि वृष्टिकर प्रभाकर, देता हमको दंड.
भू को फिरसे हरा कर, रे मानव उद्दंड..

क्यों अम्बर का ईश यह, देख रहा चुपचाप?
बरस, बहा कचरा सकल, 'सलिल' सके जग-व्याप..

जग-ज्योतित कर प्रभाकर, पाए वंदना नित्य.
बागी भी धर्मेन्द्र बन, दे आलोक अनित्य..
 
पूनम सी खिल-खिल हँसे, फिर 'मावस की रात.
समय समय का फेर है- समय समय की बात....
 
आयें पानी आँख में, सक्रिय हों फिर हाथ.
पौध लगा, पानी बचा, ऊंचा हो सर-माथ..
 
अम्बरीश पानी पिला, करे धरा को तृप्त.
हरियाली चूनर पहन, धरा रहे संतृप्त..
 
बागी बनकर रोप दें, परिवर्तन की पौध.
'सलिल' धरा फिर बन सके, हरियाली की सौध..
 
भोग-योग का संतुलन, मेटे सकल विकार.
जग-जीवन आलोक पा, बाँटे-पाए प्यार..
 
मरुथल में कर हरीतिमा, चित्र करें साकार.
धर्म यही है एक अब, भू का करें सिंगार..
 
एक द्विपदी:
वंदना हो वृष्टि की जब, प्रार्थना हो पेड़ की तब.
अर्चना हो आयु की अब, साधना हो साधु सी रब..
*

एक घनाक्षरी: एक सुर में गाइए..... संजीव 'सलिल'

एक घनाक्षरी:
एक सुर में गाइए.....
संजीव 'सलिल'
*
नया या पुराना कौन?, कोई भी रहे न मौन, 
करके अछूती बात, दिल को छू जाइए. 
छंद है 'सलिल'-धार, अभिव्यक्ति दें निखार, 
शब्दों से कर सिंगार, रचना सजाइए..
भाव, बिम्ब, लय, रस, अलंकार पञ्चतत्व,
हो विदेह देह ऐसी, कविता सुनाइए.
रसखान रसनिधि, रसलीन करें जग,
आरती सरस्वती की, साथ मिल गाइए..
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गुरुवार, 16 जून 2011

विज्ञान कथा लेखक इज़हार असर नहीं रहे

एक महान विज्ञान कथा लेखक की मृत्यु - खबर जो देर से मिली


जब कल मुझे डा0 अरविन्द मिश्र जी ने फोन पर बताया कि मशहूर उर्दू विज्ञान कथा लेखक इज़हार असर नहीं रहे तो एक झटका सा लगा। और जब उन्होंने ये बताया कि ये सानिहा 15 अप्रैल ही को हो चुका है और इसकी सूचना उन्हें मराठी विज्ञान कथा लेखक व मित्र श्री देशपाण्डे जी से मिली तो मेरे दु:ख का एहसास कुछ और बढ़ गया। क्योंकि अपने बीच के किसी लेखक की खबर डेढ़ महीने बाद और वो भी बाहर से मिले इससे बड़ी अफसोस की बात और क्या होगी। शायद हम अपने में कुछ ज्यादा ही गुम हो चुके हैं।
एक हज़ार से ऊपर उपन्यास लिखने वाले मशहूर उर्दू उपन्यासकार इज़हार असर उत्तर प्रदेश के ज़िला बिजनौर के करतपुर गाँव में 15 जून 1928 में पैदा हुए। शुरूआती शिक्षा वहीं हुई और मैट्रिक करने के बाद 1942 में लाहौर जाकर कपड़े की मिल में नौकरी कर ली। उसके बाद उन्होंने जूते की दुकान में भी नौकरी की। फिर 1947 में जब बँटवारे के फसाद शुरू हुए तो वे लाहौर छोड़कर दिल्ली आ गये। ऐसे वक्त में जबकि भारतीय मुसलमान पाकिस्तान जाकर मुहाजिर बनना पसंद कर रहे थे, इज़हार का लाहौर छोड़कर दिल्ली में बसना एक प्रशंसनीय और हालात को देखते हुए साहसिक क़दम था। उनका यह कदम सही साबित हुआ जब दिल्ली ने उनके अन्दर की साहित्यिक प्रतिभा को उभारा। और फिर उनके अनवरत लेखन का सिलसिला शुरू हुआ और जब 15 अप्रैल 2011 में 84 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हुई तो इस समय तक वे 1000 उपन्यास लिख चुके थे। हालांकि इसमें वो उपन्यास शामिल नहीं जो उन्होंने छद्म नाम से किसी पब्लिकेशन की माँग पर अक्सर लिखे। इनमें हिन्दी में प्रोफेसर दिवाकर और डा0 रमन के नाम से लिखे गये कई साइंस फिक्शन उपन्यास शामिल हैं।
उनके उपन्यासों के खास विषय रहे जुर्म, जासूसी, रहस्य और साइंस फिक्शन। 1950 में प्रकाशित उनकी नागिन सीरीज़ के उपन्यास बेस्ट सेलर साबित हुए। उनका पहला विज्ञान कथात्मक उपन्यास ‘आधी जिंदगी’ था जो 1955 में प्रकाशित हुआ था। जासूसी क्षेत्र में उनकी तुलना उर्दू के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार इब्ने सफी से की जाती है। जबकि साइंस फिक्शन के क्षेत्र में इज़हार असर उर्दू साहित्य में सर्वश्रेष्ठ हैं। जासूसी और साइंस फिक्शन का मिक्सचर उनकी बहराम सीरीज़ पाठकों के बीच काफी लोकप्रिय हुई। सन 2006 में इज़हार असर को ग़ालिब सम्मान से नवाज़ा गया। सामाजिक साहित्यकार के तौर पर भी इज़हार का कार्य उल्लेखनीय है। उनके सामाजिक ड्रामे ‘दो आँखें’ और ‘मेहरबान कैसे कैसे’ काफी लोकप्रिय हुए।
इज़हार के साइंस फिक्शन उपन्यासों में कई नये विचार देखने को मिलते हैं। मिसाल के तौर पर उनका उपन्यास ‘आधी जिंदगी’ एक औरत की कहानी है जो अपने मालिक के अनैतिक हुक्म को मानने से इंकार कर देती है। उस समय उसका मालिक उसे बताता है कि वह एक रोबोट है जिसे सिर्फ अपने मालिक का हुक्म मानने के लिये बनाया गया है। उनका नावेल ‘शोलों के इंसान’ अन्तरिक्ष यात्रा पर आधारित है। ‘बीस साल बाद’ में दूसरे ग्रह से आये हुए एलियेन एक ‘सुपर ब्रेन’ का निर्माण करते हें जो धरती पर खत्म हो रही एक जाति के बारे में छानबीन करता है।
इज़हार असर ने आधुनिक साइंस के बारे में आसान अलफाज़ में समझाने के लिये तीन किताबें भी लिखीं। साइंस के प्रति उनका समर्पण उनकी शायरी में भी देखा जा सकता है जहां उन्होंने कई वैज्ञानिक विचारों को जगह दी है। इज़हार असर एक मासिक डाईजेस्ट ‘इज़हार असर डाईजेस्ट’ के ताउम्र प्रकाशक भी रहे। इसकी प्रतियां उनके निवास Y-5, Dda Flats, Ranjit Nagar, Delhi - 110008 (Ph : 011-25702905) से प्राप्त की जा सकती हैं।
दिव्यनर्मदा परिवार शोक में सहभागी है.
                                                                                                                       courtsey : hindiscience fiction.

श्रद्धांजलि: हिंदी प्रेमी रुक्माजी अमर हैं -डॉ. सी. जय शंकर बाबु

अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि






हिंदी प्रेमी रुक्माजी अमर हैं



-डॉ. सी. जय शंकर बाबु







रुक्माजी राव ‘अमर’ दक्षिण भारत के अधिकांश हिंदी प्रेमियों के लिए सुपरिचित हैं । ‘रुक्माजी’, ‘अमरजी’, ‘रावजी’, ‘राव साहब’…. कितने ही नामों से उन्हें संबोधित करते हैं उनके हितैषी । दि.9 जून, 2011 की शाम हैदराबाद में रुक्माजी के आकस्मिक निधन की खबर से उनके तमाम हितैषी, पाठक, साहित्यकार, पत्रकार, मित्र व हिंदी प्रेमी अत्यंत दुखी हैं ।
दि.2.12.1926 को कर्नाटक के बल्लारी में रुक्माजी का जन्म हुआ था । ‘अमर’जी 1946 से मद्रास महानगर में हिंदी प्रचार कार्य में संलग्न रहे हैं । ये बहुमुखी प्रतिभा वाले साहित्यकार हैं । रंगमंच के अभिनय से लेकर निर्देशन में इनकी प्रतिभा उल्लेखनीय है । कवि, नाटककार एवं निबंधकार के रूप में रुक्माजी ने हिंदी साहित्य जगत को कई कृतियाँ समर्पित की हैं । इनकी काव्य कृतियों (कविता संकलन) में ‘नया सूरज’, ‘खुली खिड़कियों का सूरज’, ‘धड़कन’, ‘तन्हाई में’, ‘रोशनी में’, ‘केवल तुम्हारे लिए’ (गीत), ‘अपने अपने अलग शिखर’, ‘बहुतेरे’ (तमिल से हिंदी में अनुवाद), ‘अपने अपने सपने’, ‘यादों के सायें’, ‘कगार पर’, ‘मुस्कुराने दो चाँद को’, ‘कितने आकाश’, ‘प्यार का आलम’ (ग़ज़ल) आदि शामिल हैं । ‘चिंतन के क्षण’ एवं ‘चिंतन के पल’ इनके निबंध संग्रह हैं । इनके अलावा ‘आईने के सामने’ (व्यंग्य), ‘सुहाना सफर’ (बाल उपन्यास), ‘अनुभूतियों के दायरे’ (समीक्षा), ‘सुहाना सफर’ (बाल उपन्यास), ‘बादलों की ओट में’ (एकांकी संग्रह), ‘पर्वतों की परतें ’ (साक्षात्कार) आदि इनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं । हिंदी प्रचार-प्रसार के क्षेत्र में ये काफ़ी सक्रिय हैं । आकाशवाणी के विभिन्न केंद्रों से भी इनकी रचनाएँ प्रसारित हुई हैं । इनके साहित्य पर कुछ शोध कार्य भी संपन्न हुए हैं । इनके प्रदेयों पर इन्हें कई उल्लेखनीय सम्मान-पुरस्कार प्राप्त हुए हैं जिनमें उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी, आचार्य आनंद ऋषि साहित्य निधि आदि द्वारा प्रदत्त पुरस्कार उल्लेखनीय हैं ।
रुक्माजी से मेरा परिचय लगभग दो दशक पुराना है । हिंदी साहित्यिक पत्रिका ‘युग मानस’ का संपादन व प्रकाशन गुंतकल (आंध्र प्रदेश) से आरंभ करने से पूर्व ही मैंने उनकी कई रचनाएँ पढ़ी थी । ‘युग मानस’ में समय-समय पर उनकी रचनाएँ प्रकाशित करने का सौभाग्य मुझे मिला था । ‘युग मानस’ के अक्तूबर – दिसंबर, 1997 के अंक में उनका एक साक्षात्कार प्रकाशित किया था । डॉ. राजेंद्र परदेसी ने ‘युग मानस’ के लिए वह साक्षात्कार लिया था ।
रुक्माजी बहुभाषी थे । मराठी उनकी मातृभाषा थी । कन्नड प्रदेश बेल्लारी में जन्म लेने के कारण सहजतः कन्नड और तेलुगु मातृभाषावत बोल लेते थे । तमिल प्रदेश स्थाई निवास बनाने के कारण तमिल और मलयालम भी वे बोल लेते थे । हिंदी की पढ़ाई व तदनंतर हिंदी प्रचार आंदोलन से जुड़ जाने के कारण वे हिंदी के विशिष्ट विद्वान व साहित्यकार के रूप में विख्यात हुए । 1946 में गांधीजी जब चेन्नई में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में गए थे, तब उनके भाषणों से प्रेरित होकर रुक्माजी हिंदी प्रचार आंदोलन से जुड़ गए । कालांतर में काफ़ी समय तक वे हिंदी प्रचारक संघ, चेन्नई के अध्यक्ष के रूप में चेन्नई महानगर में हिंदी प्रचार-प्रसार में पूरी तन्मयता के साथ जुड़े रहे हैं । अध्यापक, कवि, नाटककार, मंच संचालक, बाल रचनाकार के रूप बहुआयामी प्रतिभा के धनी रुक्माजी ने अपने बचपन, पढ़ाई के दिन व जीवन के विभिन्न मोड़ों संबंध साक्षात्कार के दौरान इस प्रकार बताया है – “मेरा जन्म 2 दिसंबर 1926 में कौल बाजार, बल्लारी – कर्नाटक में हुआ । मेरे माता-पिता धर्मपरायण थे । मेरे पिता रईस और कपड़ा व्यापारी थे । वे भावसार क्षत्रिय समाज के कोषाध्यक्ष थे । नाथ पंथियों का हमारे यहाँ आगमन हुआ करता था । नाथपंथियों से बाबा मच्छेंद्रनाथ तथा गुरु गोरखनाथ इत्यादि की कथा-कहानियाँ बड़े चाव से सुना करता था । धार्मिक वातावरण के कारण मेरे हिय मे सेवा-सुश्रुषा व श्रद्धा-भक्ति का भाव उत्पन्न हुआ । प्रारंभ से मेरे मन में नाटक के प्रति रुझान व संगीत के प्रति अभिरुचि रही । प्रख्यात कन्नड़भाषी गुब्बी वीरण्णा एवं तेलुगुभाषी राघवाचारी (बल्लारी राघव के नाम से ख्यात) के पौराणिक तथा ऐतिहासिक नाटकों को देखने जाया करता था । शनै-शनै मेरे मन में अभिनय के प्रति चाह गहराने लगी । बाल कलाकार के रूप में अभिनय करने का अवसर भी उपलब्ध हुआ । आगे चलकर मेरे नाटक के दीवानेपन ने मद्रास जैसे हिंदी विरोधी माहौल में अनेक मित्र पैदा किए । मैं कुंदनलाल सहराल और पंकज मल्लिक के फिल्मी गाने गुनाया करता था यदा-कदा सभा-समारोहों में वंदेमातरण एवं प्रर्थना गीत के लिए आमंत्रित करता था । सन् 1937 में मद्रास राज्य में श्री राजगोपालाचारी (राजाजी) मुख्य मंत्री के प्रयत्न से स्कूलों में हिंदी अनिवार्य रूप से लागू हो गई । एक बार हिंदी प्रतियोगिता में मुझे बाल गंगाधर तिलक की जीवनी पुरस्कार स्वरूप प्राप्त हुई । स्वाधीनता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है पंक्ति ने मुझे बहुत ही प्रभावित किया । आगे चलकर मेरी राष्ट्रीय भावनाओं को बल प्रदान किया । 9 अगस्त, 1942 को महात्मा गांधी सहित अनेक नेताओं की गिरफ्तारी का समाचार देश भर में बिजली की तहर फैल गया । मुनिसिपल हाईस्कूल के हम 15 छात्र तिरंगा झंडा और गांधीजी का चित्र लेकर नारे लगाते हुए शहर में घूमने लगे और जब हम लोगों ने टीपूसुल्तान के किल पर झंडा फहराया तो पुलीस ने हमें गिरफ्तार कर कारावास भेज दिया । यह मेरे जीवन का प्रथम मोड़ है । जिसने मुझे राष्ट्र की राजनैतिक गतिविधियों से परिचय कराया । मेरे जीवन का द्वितीय मोड़ और भी रोमांचक रहा । सन् 1946 में मैं राष्ट्रभाषा विशारद का छात्र था । दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा मद्रास के संस्थापक अध्यक्ष बापूजी सभा की रजत जयंती के सिलसिले में सम्मिलित होने हेतु मद्रास पधारे । उस समय स्वयं सेवक के रूप में बापूजी से भेंट हुई । उनके आदेश पर सक्रिय रूप से हिंदी प्रचार कार्य में संलग्न रहने का संकल्प लिया । सभा के प्रधान मंत्री मोटूरि सत्य नारायण एवं नगर संगठन श्री के. आर. विश्वनाथजी हिंदी नाटक को हिंदी प्रचार का सशक्त माध्यम मानते थे । उनके सहयोग व प्रोत्साहन से मद्रास महानगर के प्रेक्षागृहों में हिंदी नाटकों में अभिनय, निर्देशन-संगीत निर्देशन का अवसर उपलब्ध हुआ । मोटी तौर पर तब तक मैं गांधीजी के सिद्धांतों से प्रभावित हो गया था । मेरी पत्नी बंग्ला भाषी, मेरे बड़े जामाता तमिल भाषी, छोटा दामाद अनुसूचित जाति के तेलुगु भाषी व मेरी पुत्र वधू ईसाई है । परिवार में आपस में हम लोग हिंदी में ही वार्ताला करते हैं । मद्रास सरकार द्वारा स्वतंत्रता सेनानियों को भेंट दी गई ज़मीन, पेंशन तथा केंद्र सरकार के पेंशन तथा मुफ़्त रेल यात्रा की सुविधा प्राप्त करने का प्रयास मैंने नहीं किया । मेरी दृष्टि में महान देश भक्त एवं बलिदानियों के त्याग के समक्ष यह तुच्छ त्याग महा सिंधु में बिंदु के समान है । इस का कुछ श्रेय मेरी श्रीमती को भी है ।”
रक्माजी 22 वर्ष की आयु से लगातार लिखते रहें । 85 वर्ष की आयु में निधन से एकाध माह पूर्व भी उनका एक कविता संकलन ‘दुःख में रहता हूँ मैं सुख की तरह’ नाम से प्रकाशित हुआ है । इससे स्पष्ट है, वे अपनी युवा वस्था से हिंदी अध्यपन, प्रचार-प्रसार व लेखन से जुड़े रहे । उनकी पहली रचना (एक गीत) हिंदी में मद्रास सरकार द्वा प्रकाशित द्वैमासिक पत्रिका दक्खिनी हिंदी के मार्च-अप्रैल, 1948 के अंक में प्रकाशित हुआ था । अगे चलकर लगातार वे कविताएं, एकांकी, बाल साहित्य, शोधपरक लेख आदि लिखते रहे । चेन्नई के प्रतिष्ठित मद्रास क्रिस्टियन कालेज में हिंदी पढ़ाते रहे हैं । उनके छात्र कई क्षेत्रों में विख्यात हुए हैं । जिनमें कई नामी चिकित्सक, सिनेमा अभिनेता व राजनेता भी हुए हैं । लगभग 55 वर्ष चेन्नई में हिंदी प्रचार कार्य में वे सक्रिय योगदान देते रहे हैं ।
‘युग मानस’ की ओर से 1999 में जब मैंने गुंतकल (आंध्र प्रदेश) एक सप्ताह का हिंदी रचनाकार शिविर का आयोजन किया था, तब शिविर के निदेशक की जिम्मेदारी मैंने रुक्माजी को सौंप दी थी । उन्होंने इस जिम्मेदारी को बखूबी निभायी और शिविर के पश्चात अपने जन्मस्थान बल्लारी गए जहाँ उनके रिश्तेदार भी थे । चालीस साल बाद अपने जन्मस्थान जाने का अवसर शिविर के बहाने मिलाने का बयान उन्होंने उस समय दिया था ।
रुक्माजी चेन्नई में हिंदी प्रचार आंदोलन, लेखन, प्रकाशन व पत्रकारिता स्वयं जुड़े रहे और इस क्षेत्र से संबंधित कई संस्मरणों को निधि उनकी अनूठी संपत्ति थी । उनके देहांत से मद्रास हिंदी आंदोलन के इतिहास के एक महत्वपूर्ण सबूत को हिंदी जगत ने खो दिया है । कर्मठ अध्यपक व साहित्यकार के रूप में सामाजिक सेवा में सदा सक्रिय रुक्माजी का अंतिम दशक का जीवन कई समस्याओं से ग्रस्त था । परिवार के सदस्यों के साथ मन-मुठाव, स्वास्थ बिगड़ना आदि की वजह से वे काफ़ी चिंतित थे । इसके बावजूद दूर-दूर अपने मित्रों के यहाँ आया-जाया करते थे । मेरे व मेरे परिवार के सदस्यों के साथ रुक्माजी का आत्मीय संबंध रहा है । कोयंबत्तूर में मेरे कार्यकाल के दौरान दो बार लगभग दो-तीन सप्ताह मेरे यहाँ बिताए । विगत दो दशकों के दौरान लिखे मुझे लिखे गए उनके आत्मीय पत्र मेरे लिए बड़े दरोहर हैं । रुक्माजी सदा कई संस्मरणों के सच्चे प्रवक्ता के रूप में अपने मित्रों को सुनाया करते थे । उनसे मद्रास महानगर के हिंदी प्रचार, पत्रकारिता व साहित्यिक गतिविधियों के इतिहास के संबंध में कई संस्मरण मुझे सुनने का सौभाग्य मुझे मिला है ।
अपने छात्रों, मित्रों, पाठकों से सदा आत्मीयता के साथ संपर्क बनाए रखने वाले रुक्माजी के तमाम हितैषी उनके निधन के संबंध में विश्वास करने के तैयार नहीं है । यही उनके प्रति सबकी आत्मीयता है । हिंदी जगत कर्मठ हिंदी सेवी रुक्माजी के लिए ऋणी है । ‘अमर’ के नाम से वे लगभग छः दशक लेखन में सक्रिय रहे हैं । ‘अमर’ के नाम से लिखते रहे हैं और अपने पाठकों व हितैषियों के दिल में वे सदा अमर हैं । 
 
दिव्यनर्मदा परिवार की शोक संवेदनाएं.
                                                                                                                        साभार: युगमानस. 
 

एक घनाक्षरी ये तो सब जानते हैं संजीव 'सलिल'

एक घनाक्षरी
ये तो सब जानते हैं
संजीव 'सलिल'
*
ये तो सब जानते हैं, जान के न मानते हैं,
जग है असार पर, सार बिन चले ना.
मायका सभी को लगे, भला किन्तु ये है सच,
काम किसी का भी, ससुरार बिन चले ना..
मनुहार इनकार, इकरार इज़हार, 
भुजहार अभिसार, प्यार बिन चले ना.
रागी हो विरागी हो या, हतभागी बड़भागी,
दुनिया में काम कभी, नार बिन चले ना..
***********

कुण्डलिया छन्द - वास्तविकता स्वीकारें --नवीन सी चतुर्वेदी


कुण्डलिनी छन्द - वास्तविकता स्वीकारें

जब से आइ पि एल ने, यार जगाई आस|
काउन्टी किरकेट का, क्रेज़ रहा ना खास||
क्रेज़ रहा ना खास, वास्तविकता स्वीकारें|
निज गृहजनगुणधर्म, समाज सदा सत्कारें|
निज 'भू' ही सम्मान - दिलाती - कहते तो सब|
किंतु समझते लोग, वक्त - समझाता है जब||



अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आइ सी सी की चौधराहट को आप लोग भूले नहीं होंगे| पर जब से आइ पी एल फॉर्मेट मशहूर हुआ है, इस को ले कर जब-तब आपत्तियाँ दर्ज कराई जाती रही हैं| हम मानते हैं कि आइ पी एल की अपनी खामियाँ हैं, पर क्या आइ सी सी दूध धुली थी? या है?

आज कम से कम भारतीय हुनरमंद प्रतियोगी किसी की इनायत के मोहताज तो नहीं हैं...................

भाई हमने तो अपने मन की बात कह दी है............................. आप क्या कहते हैं?



साभार
नवीन सी चतुर्वेदी
मुम्बई

मैं यहाँ हूँ : ठाले बैठे
साहित्यिक आयोजन : समस्या पूर्ति
दूसरे कवि / शायर : वातायन
मेरी रोजी रोटी : http;//vensys.biz

एक रचना:हुआ क्यों मानव बहरा?संजीव 'सलिल'

एक रचना:हुआ क्यों मानव बहरा?संजीव 'सलिल'*कूड़ा करकट फेंक, दोष औरों पर थोपें,
काट रहे नित पेड़, न पौधा कोई रोपें..
रोता नीला नभ देखे, जब-जब निज चेहरा.
सुने न करुण पुकार, हुआ क्यों मानव बहरा?.
कलकल नाद हुआ गुम, लहरें नृत्य न करतीं.
कछुए रहे न शेष, मीन बिन मारें मरतीं..
कौन करे स्नान?, न श्रद्धा- घृणा उपजती.
नदियों को उजाड़कर मानव बस्ती बसती..
लाज, हया, ना शर्म, मरा आँखों का पानी.
तरसेगा पानी को, भर आँखों में पानी..
सुधर मनुज वर्ना तरसेगी भावी पीढ़ी.
कब्र बनेगी धरा, न पाए देहरी-सीढ़ी..
शेष न होगी तेरी कोई यहाँ कहानी.
पानी-पानी हो, तज दे अब तो नादानी..

****

एक कुण्डली: पानी बिन यमुना दुखी संजीव 'सलिल'

एक कुण्डली:
पानी बिन यमुना दुखी  संजीव 'सलिल'
*
पानी बिन यमुना दुखी, लज्जित देखे ताज.
सत को तजकर झूठ को, पूजे सकल समाज..
पूजे सकल समाज, गंदगी मन में ज्यादा.
समय-शाह को, शह देता है मानव प्यादा..
कहे 'सलिल' कविराय, न मानव कर नादानी.
सारा जीवन व्यर्थ, न हो यदि बाकी पानी..
*****

नवगीत: समय-समय का फेर है... संजीव 'सलिल'

नवगीत:दोहा गीत
समय-समय का फेर है...
संजीव 'सलिल'

*
समय-समय का फेर है,
समय-समय की बात.
जो है लल्ला आज वह-
कल हो जाता तात.....
*
जमुना जल कलकल बहा
रची किनारे रास.
कुसुम कदम्बी कहाँ हैं?
पूछे ब्रज पा त्रास..
रूप अरूप कुरूप क्यों?
कूड़ा करकट घास.
पानी-पानी हो गयी
प्रकृति मौन उदास..
पानी बचा न आँख में-
दुर्मन मानव गात.
समय-समय का फेर है,
समय-समय की बात.....
*
जो था तेजो महालय,
शिव मंदिर विख्यात.
सत्ता के षड्यंत्र में-
बना कब्र कुख्यात ..
पाषाणों में पड़ गए
थे तब जैसे प्राण.
मंदिर से मकबरा बन
अब रोते निष्प्राण..
सत-शिव-सुंदर तज 'सलिल'-
पूनम 'मावस रात.
समय-समय का फेर है,
समय-समय की बात.....
*
घटा जरूरत करो, कुछ
कचरे का उपयोग.
वर्ना लीलेगा तुम्हें
बनकर घातक रोग..
सलिला को गहरा करो,
'सलिल' बहे निर्बाध.
कब्र पुन:मंदिर बने
श्रृद्धा रहे अगाध.
नहीं झूठ के हाथ हो
कभी सत्य की मात.
समय-समय का फेर है,
समय-समय की बात.....
******

एक कविता: हुआ क्यों मानव बहरा? संजीव वर्मा 'सलिल'

एक कविता:
हुआ क्यों मानव बहरा?
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
कूड़ा करकट फेंक, दोष औरों पर थोपें,
काट रहे नित पेड़, न लेकिन कोई रोपें..
रोता नीला नभ देखे, जब-जब निज चेहरा.
सुने न करुण पुकार, हुआ क्यों मानव बहरा?.
कलकल नाद हुआ गुम, लहरें नृत्य न करतीं.
कछुए रहे न शेष, मीन बिन मारें मरतीं..
कौन करे स्नान?, न श्रद्धा- घृणा उपजती.
नदियों को उजाड़कर मानव बस्ती बसती..
लाज, हया, ना शर्म, मरा आँखों का पानी.
तरसेगा पानी को, भर आँखों में पानी..
सुधर मनुज वर्ना तरसेगी भावी पीढ़ी.
कब्र बनेगी धरा, न पाए देहरी-सीढ़ी..
शेष न होगी तेरी कोई यहाँ कहानी.
पानी-पानी हो, तज दे अब तो नादानी..
***

सामयिक दोहा मुक्तिका: संदेहित किरदार..... संजीव 'सलिल

सामयिक दोहा मुक्तिका:

संदेहित किरदार.....

संजीव 'सलिल

*

लोकतंत्र को शोकतंत्र में, बदल रही सरकार.

असरदार सरदार सशंकित, संदेहित किरदार..

योगतंत्र के जननायक को, छलें कुटिल-मक्कार.

नेता-अफसर-सेठ बढ़ाते, प्रति पल भ्रष्टाचार..

आम आदमी बेबस-चिंतित, मूक-बधिर लाचार.

आसमान छूती मंहगाई, मेहनत जाती हार..

बहा पसीना नहीं पल रहा, अब कोई परिवार.

शासक है बेफिक्र, न दुःख का कोई पारावार..

राजनीति स्वार्थों की दलदल, मिटा रही सहकार.

देश बना बाज़ार- बिकाऊ, थाना-थानेदार..

अंधी न्याय-व्यवस्था, सच का कर न सके दीदार.

काले कोट दलाल- न सुनते, पीड़ित का चीत्कार..

जनमत द्रुपदसुता पर, करे दु:शासन निठुर प्रहार.

कृष्ण न कोई, कौन सकेगा, गीता-ध्वनि उच्चार?

सबका देश, देश के हैं सब, तोड़ भेद-दीवार.

श्रृद्धा-सुमन शहीदों को दें, बाँटें-पायें प्यार..

सिया जनास्था का कर पाता, वनवासी उद्धार.

सत्ताधारी भेजे वन को, हर युग में हर बार..

लिये खडाऊँ बापू की जो, वही बने बटमार.

'सलिल' असहमत जो वे भी हैं, पद के दावेदार..

'सलिल' एक है राह, जगे जन, सहे न अत्याचार.

अफसरशाही को निर्बल कर, छीने निज अधिकार..

*************

सिर्फ सेक्स तल पर मिलना आत्मीयता नहीं!




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सभी आत्मीयता से डरते हैं। यह बात और है कि इसके बारे में तुम सचेत हो या नहीं। आत्मीयता का मतलब होता है कि किसी अजनबी के सामने स्वयं को पूरी तरह से उघाड़ना। हम सभी अजनबी हैं--कोई भी किसी को नहीं जानता। हम स्वयं के प्रति भी अजनबी हैं, क्योंकि हम नहीं जानते कि हम हैं कौन। 

आत्मीयता तुम्हें अजनबी के करीब लाती है। तुम्हें अपने सारे सुरक्षा कवच गिराने हैं; सिर्फ तभी, आत्मीयता संभव है। और भय यह है कि यदि तुम अपने सारे सुरक्षा कवच, तुम्हारे सारे मुखौटे गिरा देते हो, तो कौन जाने कोई अजनबी तुम्हारे साथ क्या करने वाला है।

एक तरफ आत्मीयता अनिवार्य जरूरत है, इसलिए सभी यह चाहते हैं। लेकिन हर कोई चाहता है कि दूसरा व्यक्ति आत्मीय हो कि दूसरा व्यक्ति अपने बचाव गिरा दे, संवेदनशील हो जाए, अपने सारे घाव खोल दे, सारे मुखौटे और झूठा व्यक्तित्व गिरा दे, जैसा वह है वैसा नग्न खड़ा हो जाए। 

यदि तुम सामान्य जीवन जीते, प्राकृतिक जीवन जीते तो आत्मीयता से कोई भय नहीं होता, बल्कि बहुत आनंद होता-दो ज्योतियां इतनी पास आती हैं कि लगभग एक बन जाए। और यह मिलन बहुत बड़ी तृप्तिदायी, संतुष्टिदायी, संपूर्ण होती है। लेकिन इसके पहले कि तुम आत्मीयता पाओ, तुम्हें अपना घर पूरी तरह से साफ करना होगा। 

सिर्फ ध्यानी व्यक्ति ही आत्मीयता को घटने दे सकता है। आत्मीयता का सामान्य सा अर्थ यही होता है कि तुम्हारे लिए हृदय के सारे द्वार खुल गए, तुम्हारा भीतर स्वागत है और तुम मेहमान बन सकते हो। लेकिन यह तभी संभव है जब तुम्हारे पास हृदय हो और जो दमित कामुकता के कारण सिकुड़ नहीं गया हो, जो हर तरह के विकारों से उबल नहीं रहा हो, जो कि प्राकृतिक है, जैसे कि वृक्ष; जो इतना निर्दोष है जितना कि एक बच्चा। तब आत्मीयता का कोई भय नहीं होगा। 

विश्रांत होओ और समाज ने तुम्हारे भीतर जो विभाजन पैदा कर दिया है उसे समाप्त कर दो। वही कहो जो तुम कहना चाहते हो। बिना फल की चिंता किए अपनी सहजता के द्वारा कर्म करो। यह छोटा सा जीवन है और इसे यहां और वहां के फलों की चिंता करके नष्ट नहीं किया जाना चाहिए। 

आत्मीयता के द्वारा, प्रेम के द्वारा, दूसरें लोगों के प्रति खुल कर, तुम समृद्ध होते हो। और यदि तुम बहुत सारे लोगों के साथ गहन प्रेम में, गहन मित्रता में, गहन आत्मीयता में जी सको तो तुमने जीवन सही ढंग से जीया, और जहां कहीं तुम हो...तुमने कला सीख ली; तुम वहां भी प्रसन्नतापूर्वक जीओगे।

लेकिन इसके पहले कि तुम आत्मीयता के प्रति भयरहित होओ, तुम्हें सारे कचरे से मुक्त होना होगा जो धर्म तुम्हारे ऊपर डालते रहे हैं, सारा कबाड़ जो सदियों से तुम्हें दिया जाता रहा है। इस सब से मुक्त होओ, और शांति, मौन, आनंद, गीत और नृत्य का जीवन जीओ। और तुम रूपांतरित होओगे...जहां कहीं तुम हो, वह स्थान स्वर्ग हो जाएगा। 

अपने प्रेम को उत्सवपूर्ण बनाओ, इसे भागते दौडते किया हुआ कृत्य मत बनाओ। नाचो, गाओ, संगीत बजाओ-और सेक्स को मानसिक मत होने दो। मानसिक सेक्स प्रामाणिक नहीं होता है; सेक्स सहज होना चाहिए।

माहौल बनाओ। तुम्हारा सोने का कमरा ऐसा होना चाहिए जैसे कि मंदिर हो। अपने सोने के कमरे में और कुछ मत करो; गाओ और नाचो और खेलो, और यदि स्वतः प्रेम होता है, सहज घटना की तरह, तो तुम अत्यधिक आश्चर्यचकित होओगे कि जीवन ने तुम्हें ध्यान की झलक दे दी।

पुरुष और स्त्री के बीच रिश्ते में बहुत बड़ी क्रांति आने वाली है। पूरी दुनिया में विकसित देशों में ऐसे संस्थान हैं जो सिखाते हैं कि प्रेम कैसे करना। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जानवर भी जानते हैं कि प्रेम कैसे करना, और आदमी को सीखना पड़ता है। और उनके सिखाने में बुनियादी बात है संभोग के पहले की क्रीडा और उसके बाद की क्रीडा, फोरप्ले और ऑफ्टरप्ले। तब प्रेम पावन अनुभव हो जाता है।

इसमें क्या बुरा है यदि आदमी उत्तेजित हो जाए और कमरे से बाहर नंगा निकाल आए? दरवाजे को बंद रखो! सारे पड़ोसियों को जान लेने दो कि यह आदमी पागल है। लेकिन तुम्हें अपने चरमोत्कर्ष के अनुभव की संभावना को नियंत्रित नहीं करना है। चरमोत्कर्ष का अनुभव मिलने और मिटने का अनुभव है, अहंकारविहीनता, मनविहीनता, समयविहीनता का अनुभव है।

इसी कारण लोग कंपते हुए जीते हैं। भला वो छिपाएं; वे इसे ढंक लें, वे किसी को नहीं बताएं, लेकिन वे भय में जीते हैं। यही कारण है कि लोग किसी के साथ आत्मीय होने से डरते हैं। भय यह है कि हो सकता है कि यदि तुमने किसी को बहुत करीब आने दिया तो दूसरा तुम्हारे भीतर के काले धब्बे देख ना ले ।

इंटीमेसी (आत्मीयता) शब्द लातीन मूल के इंटीमम से आया है। इंटीमम का अर्थ होता है तुम्हारी अंतरंगता, तुम्हारा अंतरतम केंद्र। जब तक कि वहां कुछ न हो, तुम किसी के साथ आत्मीय नहीं हो सकते। तुम किसी को आत्मीय नहीं होने देते क्योंकि वह सब-कुछ देख लेगा, घाव और बाहर बहता हुआ पस। वह यह जान लेगा कि तुम यह नहीं जानते कि तुम हो कौन, कि तुम पागल आदमी हा; कि तुम नहीं जानते कि तुम कहां जा रहे हो कि तुमने अपना स्वयं का गीत ही नहीं सुना कि तुम्हारा जीवन अव्यवस्थित है, यह आनंद नहीं है। इसी कारण आत्मीयता का भय है। प्रेमी भी शायद ही कभी आत्मीय होते हैं। और सिर्फ सेक्स के तल पर किसी से मिलना आत्मीयता नहीं है। ऐंद्रिय चरमोत्कर्ष आत्मीयता नहीं है। यह तो इसकी सिर्फ परिधि है; आत्मीयता इसके साथ भी हो सकती है और इसके बगैर भी हो सकती है।
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(सौजन्‍य से ओशो इंटरनेश्‍नल फाउंडेशन)

बुधवार, 15 जून 2011

चिंतन: स्वच्छ्न्दता की तलाश में आधुनिक पाश्चात्यवादी नारी कुंठा - शिवेन्द्र कुमार मिश्र

:चिंतन:

स्वच्छ्न्दता की तलाश में आधुनिक पाश्चात्यवादी नारी कुंठा  

- शिवेन्द्र कुमार मिश्र, बरेली.





[इस चर्चा से यह भारतीय हिन्दू दृष्टिकोण स्वत: स्पष्ट है कि भौतिक सुखों के केन्द्र में है - ''नारी और यौन सुख अर्थात सेक्स है। इस प्रकार ''हिन्दू नारी विमर्श'' के लिए नारी की यौन संतुष्टि, उसके यौनाधिकार और उसकी संतानोत्पत्ति का अधिकार केन्द्र में आ जाता है। वेदों, उपनिषदों, आरण्यकों एवं नीति ग्रंथो में इसकी चर्चा है। अथर्ववेद में तो इस पर विस्तृत चर्चा देखी जा सकती है .... ]


हम जब भी स्त्री-विमर्श की चर्चा करते हैं तो यह चर्चा स्त्री-पुरूष समानता के चौराहे से चलकर स्त्री की देह पर समाप्त हो जाती है। लैंगिक समानता का अभिप्राय जहां एक ओर पुरूष के साथ काम के अवसरों की समानता से लगाया जाता है वहीं दूसरी ओर उसकी यौनिक आजादी से भी। मेरा मानना है कि स्वतंत्रता की अन्य विधाओं की तरह यौन संबंधी आजादी दिए जाने में भी कोई परहेज नहीं होना चाहिए बशर्तें इस बात का ध्यान रखा जाए कि जहां से मेरी नाक शुरू होती है वहीं से आप की आजादी समाप्त हो जाती है। किंतु महिलाओं के क्षेत्र में यही पेंच है। मसलन अगर कोई महिला शार्ट नेकर या माइक्रो मिनी स्कर्ट के साथ स्पोटर्स ब्रा पहन कर सार्वजनिक मार्ग पर घूमना चाहे तो उस पर अश्लीलता के आरोप में कानूनी कार्यवाही हो सकती है। यह देश आज भी किसी युवा स्त्री के सार्वजनिक स्थान पर नग्न होने की धमकी मात्र से सहम जाता है और फिर रूपहले पर्दे पर देख-देखकर अपने सपनों में ''चेयर खींचने के बाद (दीपिका की) स्कर्ट खींचने'' को बेताब तमाम, बेटा, बाप और बाबा की उम्र के पुरूष एक साथ अपने-अपने मन में ख्बाब सजाने लगते हैं। नारीवादी महिलाएं इस तथ्य को नारीवादी अधिकारो में शामिल किए जाने पर बहस कर सकती हैं।

इस संस्कृति से एक ओर जहां ''सोशलाइट नारी'' निकलती है वहीं दूसरी ओर वह नारी दिखाई देती है जिसकी ''देह'' साम्राज्यवादी - बाजार वाद में स्वंय के नित नए रूप प्रदर्शित करती है। एक शब्द ''ग्लैमर'' ने ''नारी-बाजार-वाद और वस्त्र-वातायन से झांकते नारी देह दर्शन को'' पर्यायवाची बना दिया है। अभी थोड़े दिनों पूर्व महिला टेनिस में ग्लैमर के नाम पर खिलाड़ियों को ''माइक्रो टाइप'' स्कर्ट को टेनिस प्रबंधन द्वारा अनिवार्य करने पर मीडिया में बहस छिड़ी थी सामान्यत: महिला खिलाड़ी शार्ट्स (छोटे नेकर) पहन कर ही खेलती है जिनमें जांघो का पर्याप्त हिस्सा खुला ही रहता है तो फिर और ''ग्लैमर'' क्या ? बाजार बाद देखिए इस प्रश्न पर कोई बहस नहीं। मैं बताता हूं कि ''मिनी स्कर्ट'' खेल के दौरान जब उडेग़ी तो कैमरों की ''फ्लश लाइटस'' के बीच खिलाड़ी की ''पेन्टी दर्शना'' तस्वीरें भी एक बड़े ब्राण्ड के रूप में बिकेंगी। इस मायावी दुनिया को ''पूनम पाण्डेय'' के सार्वजनिक रूप से नंगे होने से डर नहीं लगता अपितु अपनी नंगई चौराहे पर खुलने का डर सताने लगता है। ''पूनम'' के ''नंगा'' होने का तो ''ड्रेसिंग रूम'' में स्वागत है इसीलिए एक बयान के बाद ही उसे करोड़ो के शो आफर हो जाते हैं।

किंतु आश्चर्य यह है कि प्रगतिशीलता का लेबल चिपकाए नारीवादी संगठनो की विचारक और नेत्रियां स्वंय को ''फेमिनिस्ट'' या नारीवादी कहे जाने के डर से नारी हितों के मुद्दों पर खुलकर बहस करने से बचना चाहती हैं।

इस तरह के बाजार वाद में नारी की स्वतंत्र अस्मिता, पहचान और जरूरतें कहीं शोरगुल में दब जाती हैं और पुरूष के समान अधिकार दिए जाने की धुन में ''पुरूष टाइप महिला'' का चित्र उभर आता है। यह महिला बड़ी आसानी से बाजारवादी साम्राज्य वाद की भेंट चढ़ जाती है। यही तथा कथित आधुनिक महिला है जो उच्च वर्गीय पार्टियों में अल्प वस्त्रों और शराब की चुस्कियों के साथ पुरूष के साथ डांस पार्टियों का मजा उठाते हुए पुरूष के समान अधिकार प्राप्त करने, उसके साथ बराबरी में खड़ा होने और आधुनिक होने का दम भरती है और आसानी से बिना जाने बाजार वाद और पुरूष शोषण का शिकार हो जाती है।

यही है आधुनिक पाश्चात्यवादी नारी-विमर्श। हम वैदिक धर्मानुयायियों अर्थात हिन्दुओं पर ''पिछड़ा'' होने के आरोप युगों से चस्पा है और नारी के मामले में हमारी सोच को विदेशी ही नहीं हम भी दकियानूसी मानते हैं। ऐसे में ''नारी की आजादी'' को मैंने इस चश्मे से ही देखने का प्रयास किया है।

आधुनिक ''नारी-विमर्श'' जहां ''पुरूषों के साथ काम की समानता'' और ''नारी देह'' पर पुंस वर्चस्व'' को तोड़ने के मिथ से ग्रसित है वहीं हिन्दू नारी विमर्श ''नारी देह एवं भाव जगत'' की मूलभूत आवश्यकताओं को केन्द्र में रखकर रचा गया है। पुरूष दोनो ही जगह लाभ की स्थिति में है किंतु वैदिक व्यवस्था में नारी बाजार वाद की होड़ से थोड़ा दूर है। अपनी यौनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक हद तक समाज का समर्थन प्राप्त करती है तो वहीं पुरूष भी समाज में एकाधिकारीवादी वर्चस्व का एकमात्र केन्द्र बन कर नहीं उभर पाता। वस्तुत: यह स्थिति एक ''आदर्श'' है जो इतिहास के थपेड़ो से शनै: शनै: टूटते हुए इस हद तक जा पहुंची कि इस विषय पर हम दकियानूसी सोच वाले लोग सिध्द किए जाने लगे।

इस विषय पर नारी की चर्चा बिना उसकी ''देह और यौन'' की चर्चा के नही हो सकती। आधुनिक ''बोल्ड नारी'' के युग मे मै समझता हूं मेरा आलेख मेरी इतनी ''बोल्डनेस'' स्वीकार कर लेगा और मेरे पाठक भी।

नारी की गूढ़ता और पुरूष की स्वाभाविक गंभीरता एवं उच्छंखलता के मध्य उनके यौनागों की बनावट एवं तज्जन्य उसकी अनुभूतियों में कहीं कोई संबंध तो नहीं। इस प्रश्न ने मेरे मन को अनेक बार मथा है। मैं समझता हूं कि भारत संवभत: पहला देश और ''हिन्दू'' पहली संस्कृति रही होगी जिसने ''काम'' सेक्स को देवता कहा और इस विषय पर विस्तृत शोध ग्रंथो की रचना की। इसकी चर्चा यहां हमारा उद्देश्य नहीं है किन्तु 'काम' या 'सेक्स' की भारतीयों की दृष्टि में महत्ता को स्पष्ट करना चाहूंगा।

आचार्य वात्सात्यन ने अपने ग्रंथ के मंगलाचरण में लिखा है - ''धर्मार्थकमेभ्य नम:'' अर्थात धर्म अर्थ और काम को नमस्कार है।'' 'धर्म' की वैशेषिक दर्शन की परिभाषा देखें - ''यतोsभ्यदुय नि:श्रेयस सिध्दिस: धर्म:।'' अर्थात इस लोक में सुख और परलोक में कल्याण करने वाला तत्व ही धर्म है इस लोक में अर्थात भौतिक संसार में सुख क्या है ?

चाणक्य का कथन है -

''भोज्यं भोजन शक्तिष्च रतिषक्तिर्वरागंनां
विभवो दान शक्तिष्च नाल्पस्यतपस: कलम॥''
अर्थात भोज्य पदार्थ और भोजन करने शक्ति, रति अर्थात सैक्स शक्ति एवं सुन्दर स्त्री का मिलना, वैभव और दानशक्ति का प्राप्त होना 'कम तपस्या' का फल नहीं है। (चा0नी0अ02/2)

स्पष्ट है कि भारतीय हिन्दू परम्परा में ''स्त्री और सेक्स'' सांसारिक सुखों का आधार है। 'काम' या सैक्स को लेकर कतिपय अन्य उदाहरण देखें -

कामो जज्ञे प्रथमे (अथर्ववेद - 9/12/19) कामस्तेदग्रे समवर्तत (अथर्ववेद - 19/15/17) (ऋग्वेद 10/12/18)

वृहदारव्यक में विषय-सुख की अनुभूति के लिए मिथनु अर्थात स्त्री पुरूष जोड़े की अनिवार्यता को वाणी दी गई है - ''स नैव रेमे तस्मादेकाकी न रमते। स द्वितीयमैच्छत।''

अर्थात किसी का अकेले में मन नहीं लगता ब्रहमा का भी नहीं। रमण के लिए उसे दूसरे की चाहना होती है।

मानव मन की मूलवासनाओं अथवा प्रवृत्तियों को हमारे आचार्यों ने इस प्रकार चिन्हित किया - ''वित्तैषणा, पुत्रषवणा तथ लोकेषणा'' इनको वर्गो में रखते हुए इनके मूल में ''आनन्द के उपभोग'' की प्रवृत्ति को माना है - ब्रहदारण्यक उपनिषद का कथन है - ''सर्वेषामानन्दानामुपस्थ एकायनम्'' अर्थात सभी सुख एकमात्र ''उपस्थ'' (योनिक एवं लिंग) के आधीन हैं। (उपस्थ - योनि एवं लिंग संस्कृत हिन्दी शब्द कोष - वा0शि0आप्टे - पृ0 213)

[इस चर्चा से यह भारतीय हिन्दू दृष्टिकोण स्वत: स्पष्ट है कि भौतिक सुखों के केन्द्र में है - ''नारी और यौन सुख अर्थात सेक्स है। इस प्रकार ''हिन्दू नारी विमर्श'' के लिए नारी की यौन संतुष्टि, उसके यौनाधिकार और उसकी संतानोत्पत्ति का अधिकार केन्द्र में आ जाता है। वेदों, उपनिषदों, आरण्यकों एवं नीति ग्रंथो में इसकी चर्चा है। अथर्ववेद में तो इस पर विस्तृत चर्चा देखी जा सकती है जिसे इस चार्ट से समझ सकते हैं। ]

यह कुछ उदाहरण हैं। ऐसे अनेकों काण्ड और सूक्त प्रस्तुत किया जा सकते हैं। हमारी परम्परा में ''वेदों'' को ''ज्ञान'' का ''इनसाइक्लोपीडिया'' माना गया है। मनु कहते हैं - वेदो अखिलोs धर्म ज्ञान मूलम''।

उपरोक्त उदाहरणों एवं चर्चा से यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि हमने ''सहचर्य'' जीवन की अनिवार्यता को कितना महत्व दिया और उस पर कितना विशद मनन एवं अध्ययन किया। प्रसंगत: यह चर्चा यहां यह भी समझने के लिए पर्याप्त है कि क्यों भारत में ही और हिन्दुओं द्वारा ही यौन रत् मूर्तियों के मन्दिर बनाये गए और क्यों ''कामसूत्र'' जैसी रचना का सृजन हमारे ही देश में हुआ। प्रसंगत: बता दूं कि महर्षि वात्सायन अपनी परम्परा के अकेले ऋषि नहीं है - ''इस परम्परा में भगवान ब्रहमा, बृहस्पति, महादेव के गण नन्दी, महर्षि उददालक पुत्र श्वेतकेतु, ब्रभु के पुत्र, पाटलिपुत्र के आचार्य दत्तक, आचार्य सुवर्णनाम्, आचार्य घोटकमुख, गोनर्दीय, गोणिका पुत्र, आचार्य कुचुमार आदि। प्रारम्भ में यह ग्रंथ एक लाख अध्यायों वाला था।''

यद्यपि सुधी जन इसे विषयान्तर मान सकते हैं तदापि हिन्दुओं में कामशास्त्र (सैक्स को एक विषय के रूप में मानना) की महत्ता, परम्परा एवं विशाल साहित्य का अनुमान लगाने के लिए यह जानकारी आवश्यक है।

इतनी व्यापक चर्चा के बाद यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि ''हिन्दू नारी विमर्ष के केन्द्र में ''नारी की दैहिक एवं भावात्मक संतुष्टि'' है। हमारा नारी विमर्श कैसे नारी की यौन संतुष्टि एवं संतान प्राप्ति (विशेषत: पुत्र) की उसकी इच्छा को लेकर केन्द्रित है। इसे आगे के प्रसंग से समझना चाहिए।

इस चर्चा से उन लोगों को उत्तर मिल जाना चाहिए जो यह मानते हैं कि - ''कामसूत्र की व्याख्या भारत में हुई। अजन्ता एलोरा तथा खजुराहों की जगहों में मूर्तिकला के विभिन्न यौनिक स्वरूप मिलते हैं। पर वैदिक संस्कृति का स्त्रीविरोध सैमेटिक धर्मों के व्यापन के दौरान भी बरकरार रहा।'' (स्त्री - यौनिकता बनाम अध्यात्मिकता : प्रमीला, के.पी. - अ0 4 पृ0 38) प्रमीला के.पी. जैसी नारीवादी चिन्तकों ने स्त्री-पुरूष सहचारी जीवन में आधुनिक नारी-विमर्श के सन्दर्भ में तमाम प्रश्न उठाये हैं। जिनके उत्तर स्वाभाविक रूप से इस लेख में मिल सकते हैं। जैसे उनका कथन है - ''मानव अधिकारों के नियमों की बावजूद व्यक्तिगत यौनिक चयन और प्रेम के साहस को सामाजिक मान्यता नहीं मिलती। क्यों ?'' (इसी पु0 के इसी अ0 के पृ0 44 से) यदि आधुनिक युग की एक नारीवादी विचारिका की यह पीड़ा है तो आप समझ सकते हैं कि आधुनिक पाश्चात्य-वादी ''नारी समानता'' के घाव कितने गहरे हैं।

हम सहचारी जीवन की यौनानुभूतियों की ओर चलते हैं। प्रमीला - के.पी. कामसूत्र के हवाले से लिखती हैं - ''विपरीत में कामसूत्र के अनुसार, यौनिक क्रिया में वह परम साथीवन का निभाव उपलब्ध होता है। उसके एहसास में युग्म एक स्पर्षमात्र से खुश रहते हैं। बताया जाता है कि मानव-शरीर इस तरह बनाया गया है कि उसमें यौनावयव ही नहीं किसी भी पोर में एक बार छूनेमात्र से एक नजर डाल देने मात्र से प्रेम की अथाह संवेदना जाग्रत होती है। पर यह नौबत सच्चे प्रेमियों को ही हासिल है।''

प्रोमिला जी सही जगह पर इस प्रसंग का पटाक्षेप करती हैं। वस्तुत: यौन जीवन में प्रेम के अतिरिक्त यौन उत्तेजना को पैदा करने, उसे बनाये रखने एवं सफल यौन व्यवहार एवं चरमसंतुष्टि प्रदान करने वाले संबंधों के लिए कामकला के ज्ञान की आवश्यकता होती है। स्त्री के लिए इसका विशेष महत्व होता है। ऐस वस्तुत: उसकी विशेष प्रकार की शरीर रचना के कारण होती है। कामग्रंथो यथा कामसूत्र, अनंगरंग, रतिरहस्य आदि में इसकी विशद चर्चा की गई है।

हमारा विषय कामशास्त्रीय चर्चा नहीं है किंतु यह प्रासंगिक होगा कि स्त्री के कामसुख की चर्चा कामशास्त्रीय दृष्टि से कर ली जाए। वात्सायन कृत कामसूत्र के ''सांप्रयोगिक नामक द्वितीय अधिकरण के रत-अवस्थापन'' नामक अध्याय में इस विषय पर कामशास्त्र के विभिन्न शास्त्रीय विद्वानों के मतों की चर्चा की गई है। किंतु ''कामसुख'' की व्यापकता की दृष्टि से आचार्य बाभ्रव्य के शिष्यों का मत अधिक स्वीकार्य प्रतीत होता है - ''आचार्य वाभ्रव्य के शिष्यों की मान्यता है - पुरूष के स्खलन के समय आनन्द मिलता है और उसके उपरान्त समाप्त हो जाता है। किन्तु स्त्री को संभाग में प्रवृत्त होते ही संभोगकाल तक और उसकी समाप्ति पर निरन्तर आनन्द की अनुभूति होती है। यदि भोग में उसे आनन्द न आता होता तो उसकी भोगेच्छा जाग्रत ही नही होती और यदि भोगेच्छा न होती तो वह कभी गर्भधारण नही कर पाती। उसका गर्भ स्थिर नही रह पाता।'' अन्तिम वाक्य से सहमति नहीं भी हो सकती है किंतु पूर्वार्ध से आचार्य बाभ्रव्य सहित वात्सायन भी सहमत नजर आते हैं।'' इसी विषय पर श्री काल्याणमल्ल विरचित अनगरंग अनुवादक श्री डा0 रामसागर त्रिपाठी का मत जानना भी समीचीन होगा। कल्याणमल्ल दो महत्वपूर्ण बात करते हैं। वह स्त्री और पुरूष के यौनसुख में आनन्द के स्वरूप और काल की दृष्टि से भेद स्वीकार नही करते हैं। स्त्री इस क्रिया में आधार है और पुरूष कर्ता है। पुरूष भोक्ता है अर्थात वह इस बात से प्रसन्न है कि उसने अमुक महिला को भोगा है और महिला इस बात से प्रसन्न है कि वह अमुक पुरूष द्वारा भोगी गई है। इस प्रकार स्त्री पुरूष में उपाय तथा अभिमान में भेद होता है। अस्तु:! इस विषय पर और चर्चा न करके यह स्वीकारणीय तथ्य है कि - ''यौन क्रिया में पुरूष को सुख की प्राप्ति स्खलन पर होती है उसके लिए शेष कार्य यहां तक पहुंचने की दौड़मात्र है जबकि स्त्री प्रथम प्रहार से आनन्दित होती है और अन्तिम् बिन्दु पर चरमानन्द को प्राप्त करती है।'' वार्ता करने पर कुछ महिलाओं ने इस तथ्य की पुष्टि की है किंतु शालीनता साक्ष्य के प्रकटीकरण की सहमति नहीं देती।

अब जरा इस बात पर ध्यान दें कि यदि नारी असंतुष्ट छूट जाए तो क्या होता है। मेरा मानना है कि वह शनै: शनै: इस प्रवृत्ति को दबाये रखने की आदत डाल लेती हैं इसके कारण उसका शरीर और भावजगत अनेक प्रतिक्रियायें उत्पन्न करता है जिसमे ंउसकी यह गूढ़ प्रवृत्ति भी शामिल है। जो स्वंय के अन्तरमन को पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं देती। हिन्दू नारी विमर्श का मूल आधार उसके शरीरगत और भावगत यौनानुभूतियों का वैषम्य है। इसे किस प्रकार हिन्दू नारी विषयक वैदिक चिंतन अभिव्यक्त करता है। उन्हें इन शीर्षकों में देखना उचित होगा।

वर चयन की स्वतंत्रता एवं विवाह :- यदि वैदिक साहित्य का अनुशीलन किया जाए तो यह स्वत: स्पष्ट हो जायेगा कि स्त्रियों को वर-चयन में स्वतंत्रता प्राप्त थी। डा0 राजबली पाण्डेय अपनी पुस्तक हिन्दू संस्कार के अध्याय आठ ''विवाह संस्कार'' में विवाह के उद्भव पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं - ''प्रसवावस्था के कठिन समय में अपने व असहाय शिशु के समुचित संरक्षण के लिए स्त्री का चिन्तित होना स्वाभाविक ही था। जिसने उसे स्थायी जीवन सहयोगी चुनने के लिए प्रेरित किया। इस चुनाव में वह अत्यन्त सतर्क थी तथा किसी पुरूष को अपने आत्म समर्पण के पूर्व उसकी योग्यता, क्षमता व सामर्थ्य का विचार तथा सावधानीपूर्वक अन्तिम निष्कर्ष पर पहुंचना उसके लिए अत्यन्त आवश्यक था।'' इस विषय को महाभारत में वर्णित ''प्राग् विवाह स्थिति से भी समझा जा सकता है, ''अनावृता: किल् पुरा स्त्रिय: आसन वरानने कामाचार: विहारिण्य: स्वतंत्राश्चारूहासिनि॥ 1.128

अर्थात अति प्राचीन काल में स्त्रियां स्वतंत्र तथा अनावृत थीं और वे किसी भी पुरूष के साथ यौन सम्बन्ध स्थापित कर सकती थी।''
इस स्थिति से समझौता कर उन्होने विवाह संस्था को स्वीकार किया होगा तो यह तो संभव नही कि पूर्णत: पुंस आधिपत्य स्वीकार कर लिया हो अर्थात पुरूष जिससे चाहें विवाह कर ले और स्त्री की इच्छा का कोई सम्मान न हो। वर चयन की स्वतंत्रता के समर्थन में यह तर्क भी दिया जा सकता है कि ''औछालकि पुत्र श्वेतकेतु'' को विवाह संस्था की स्थापना का श्रेय जाता है और यह कि इन महर्षि की गणना ''कामशास्त्र'' के श्रेष्ठ आचार्यों में की जाती है। अत: विवाह संस्था की स्थापना करते समय इस ऋषि ने स्त्री की यौन प्रवृत्तियों का ध्यान न रखा हो, यह संभव नही।

एक अन्य उदाहरण के रूप में इस पुराकथा को प्रमाणरूप ग्रहण किया जा सकता है। - ''मद्रदेश के राजा अश्वपति की पुत्री सावित्री अत्यंत रूपवती थी। उसने अपने लिए स्वंय पर खोजना प्रारम्भ किया और अन्त में शाल्व नरेश सत्यवान का चयन कर विवाह किया।'' यह वही सावित्री है जिसने यमराज से अपने पति सत्यवान के प्राण वापस ले लिए थे और हिन्दू मानस में जो सती सावित्री के नाम से प्रसिध्द हुई। डा0 राधा कुमुद मुखर्जी ''हिन्दू सभ्यता'' अध्याय 7 भारत में ऋग्वेदीय ''आर्य - समाज - विवाह और परिवार'' पृ0 91 में यह स्वीकार करते हैं कि - ''विवाह में वर वधू को स्वंयवर की अनुमति थी (10/27/12 ऋग्वेद) गुप्त काल में ''कौमुदी महोत्सव'' मनाये जाने के प्रमाण मिलते हैं कौमुदी महोत्सव वस्तुत: मदनोत्सव या कामदेव की पूजा का ही उत्सव था। ऐसे उत्सव जहां बच्चो, प्रौढ़ो तथा वृध्दों के लिए सामान्य मनोरंजन ही प्रदान करते हैं वही युवक-युवतियों के लिए पारस्परिक चयन की स्वतंत्रता प्रदान करते थे। आज भी ''बसन्त पंचमी'' का त्यौहार मनाया जाता है जो कामदेव की पूजा ही है। ''बसन्तपंचमी'' से होली का महोत्सव या फाल्गुनी मस्ती और हंसी ठिठोली छा जाती है। इस मदनोत्सव का समापन ''होलिका दाह'' पर होता है और होली के पश्चात ''नवदुर्गो'' के पश्चात लगनों से विवाह कार्यक्रम शुरू हो जाते हैं।

विवाह :- वैदिक परम्परा में पत्नी को जो स्थान प्राप्त था उससे ही विवाह के महत्व को समझा जा सकता है।

''जायेदस्तम् मघवनत्सेदु योनिस्तदित त्वा युक्ता हस्यो वहन्तु। यदा कदा च सुनवाम् सोममग्निष्टवा द्रतो धन्वात्यछा।(ऋ 3.83.4)। भावार्थ यह है कि पत्नी ही घर होती है। वहीं घर में सब लोगो का आश्रय स्थान है। स्त्री के कारण ही परिवार का संगठन होता है। ऋग्वेद का ही मंत्र संख्या 3.53.6 भी स्त्री (पत्नी) का ऐसे ही गौरवान्वित करता है। ऋग्वेद के इन मंत्रो में आधुनिक नारी जिस अस्तित्व और अस्मिता के संकट से गुजर रही है शायद उसका समाधान मिल जाए। अस्तित्व संकट कार्य है। संकट प्रोमिला के.पी. के शब्दो में देखिए - ''वरजीनिया वुल्फ'' ने अपने कमरे को लेकर जो बाते बताई थीं : उसकी पूरी संभावनाएं कम से कम आज की मध्यवर्गीय औरत के पास हैं। पर उसने अपनी रसोई को छोड़ दिया : उसे उपभोगवादी सामग्री के हवाले कर दिया। घरेलू जगह में भी ऐसे अनेक कोने थे जो स्त्रियों के अपने थे। - पर हड़बड़ी में जगह ही खोने की नौबत उभर आई।'' यह है आधुनिकता के दंभ में छिपा आधुनिक नारी का दर्द। किंतु वैदिक ऋषि तो कहता है ''जायेदस्तम्'' पत्नी ही घर है। कोना नहीं सारा आवास ही आपकी कृपा के आश्रित हैं। श्रीमति प्रोमिला के.पी. का यह आरोप कि भारत में वात्स्यायन के पश्चात से हिन्दू धर्म भी मनुवादी रास्ते पर चला अर्थात यौनिकता या देह को हेय मानने का रास्ता। यह आरोप सर्वथा गलत है मनु विवाह के संबंध में कहते हैं - सुंख चेहेच्छता नित्यं योsधार्यों दुर्बलेन्द्रियौ: अर्थात दुर्बलेन्द्रिय व्यक्ति ग्रहस्थाश्रम को धारण नही कर सकता।'' (मनु. स्मृति 3-99-79) स्पष्ट है कि यह कथन स्त्री पुरूष की यौनिकता को ध्यान में रखकर ही कहा गया होगा। आइये, इस तथ्य का परीक्षण वैदिक मनीषियों द्वारा स्वीकार्य विवाह पध्दतियों के अनुशीलन से किया जाए।

वैसे तो आठ विवाह स्वीकार किए गए है - चार प्रशस्त या श्रेष्ठ और चार अप्रशस्त या निष्कृष्ट। यहां पर हम उन्हीं प्रकारों की संक्षिप्त चर्चा करेंगे जिसमें स्त्री के स्त्रीत्व की मर्यादा का सबसे अधिक ध्यान रखा गया हो। विवाह पध्दतियों में ''पिशाच विवाह'' को मैं प्रथम स्थान पर रखना चाहूंगा।

पिषाच विवाह :- ''सुप्तां, मत्तां, प्रमत्तां व रहो यत्रोपगच्छति। सा पापिष्ठो विवाहानां पैशाचाष्टमोsधम: मत। प्रमत्त, अथवा सेती हुई कन्या से मैथुन करना। (म.स्मृ.3.24) ही पिशाच विवाह है।'' वस्तुत: यह विवाह उस कन्या को विवाह, गृहस्थ जीवन, संतानोत्पति और सामाजिक वैधता का अधिकार देता है जिसके साथ बलात्कार किया गया हो। यद्यपि प्रत्येक स्थिति में ऐसा संभव नही होता होगा तो उसके लिए दण्ड संहिताओं मे अलग से विधान है - जिनका अध्ययन एक अलग विषय है। किंतु जिस नारी और विशेषत: कन्या से या अविवाहिता से, बलात्कार किया गया हो उसकी पीड़ा वही स्त्री ही समझ सकती है। प्राय: ऐसी स्थिति में लड़कियों को चुप रहने या आत्महत्या करते ही देखा गया है। आधुनिक राज्य और उनके दण्ड विधान इस दिशा में दोषी को दण्ड (जो त्रृटिपूर्ण व्यवस्था में प्राय: नहीं हो पाता) और पीड़िता को कुछ रूपयों का अनुतोष प्रदान करता है। ''बलात्कार'' के बदले ''अनुतोष'' की स्थिति क्या दयनीय और मजाकिया नहीं लगती ? इस व्यवस्था से उत्पन्न क्षोभ देखिए कि अभी हाल ही समाचार पत्रों की सुर्खियां बना यह समाचार कि एक निचली अदालत की जज ने बलात्कार के वाद में निर्णय देते हुए यह सुझावात्मक टिप्पणी की - ''कि बलात्कारियों को इंजेक्शन द्वारा नपुसंक बना देना चाहिए।''

इससे यह तो स्पष्ट है कि तमाम महिला संगठनों और बड़े-बड़े कानूनो व दावों के बाद भी बलात्कार से पीड़िता ''नारी के हक'' में कुछ भी नहीं कर पाता। ''पिशाच विवाह'' कम से कम निम्न वर्गीय महिलाओं जैसे खेतिहर, मजदूर, वनवासी, खदानों में काम करने वाली, श्रीमती के घरो में काम करने सेविकाओं को आदि यौन शोषण के विरूध्द सामाजिक सुरक्षा, सम्मान और नारी के अधिकार प्रदान करता है। जो आधुनिक समाज भी देने में सक्षम नहीं है। इसके पीछे निश्चय ही राज्य की सहमति और शक्ति रही होगी क्योंकि उसके बिना ''बलात्कृता नारी'' को ''विवाह'' की सुरक्षा प्रदान कर पाना संभव ही नहीं। यह ध्यान रखना चाहिए कि प्राचीन हिन्दू समाज में ''बहुपत्नी प्रथा'' स्वीकार्य थी। अत: ऐसे विवाह के लिए बाध्य किए गए पुरूष को अन्य पत्यिों का चयन करने में और पुन: पूर्ववत् हरकत करने में, दोनो ही स्थितियों में विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता होगा।

राक्षस विवाह :- मनु ने इसके लक्षण में कहा है -

''हत्वा, छित्वा, च भित्वा च क्रोशन्तीं, रूदतीं गृहात्
प्रसध्यं कन्यां हरतो, राक्षसो विधिरूच्यते।'' (मनु-3.33)
अर्थात रोती, पीटती हुई कन्या का उसके संबंधियों को मारकर या क्षत विक्षत कर बलपूर्वक हरण कर विवाह करना ''राक्षस'' प्रकार का विवाह कहा जाता था।

मैं इस पध्दति को ''नारी'' की सामाजिक स्वीकार्यता और सम्मान से जोड़कर क्यों देखता हूं : उसका कारण है। पहली बात यह विवाह ''अपहरण और बलात्कार नही हैं।'' अपितु इसमें विवाह पूर्व ''प्रेम'' का स्थायी भाव पुष्पित होता है। ऐसा कतिपय विद्वान स्वीकार करते हैं। भगवान कृष्ण और रूक्मणी तथा पृथ्वीराज चौहान और संयुक्ता के विवाह को उदाहरण में रख सकते हैं। जहां ''राक्षस विवाह'' हुआ है और विवाहपूर्व ''प्रेम'' का स्थायी भाव विद्यमान है। यद्यपि इसके विरूध्द भी उदाहरण दिए जा सकते है किंतु बहुमान्य तथ्य विवाह पूर्व प्रेम का स्थायी भाव ही है।

अब मैं अपना मत रखता हूं कि यह नारी के ''सम्मान'' से कैसे संबंधित है। सामान्यत: यह विवाह राजन्यों या क्षत्रियों कुलों में सम्मानित माना गया। विवाह पूर्व ''प्रेम'' की स्थिति में एक अन्य उपाय ''गान्धर्व विवाह'' था (असुर विवाह भी) किंतु चोरी छिपे विवाह करने में वीर ''स्त्री-पुरूषों'' का सामाजिक अपमान था तो इस तरह ''राक्षस'' प्रकार के विवाह में दोनो पक्षों से निकट संबंधियों के युध्द में मारे जाने का भय था। ऐसी स्थिति में इन हत्याओं का सामाजिक कलंक नववधू को ही ढोना था। उल्लेखनीय है कि आज भी यदि नववधू के आगमन के पश्चात परिवार में कोई दुर्घटना हो जाए तो अशिक्षित परिवारों की तो छोड़िए शिक्षित परिवारों में भी इसका दोष ''नवागन्तुका'' के सिर पर ही थोप देते हैं। ऐसी स्थिति से ''कन्या'' को बचाने व युगल के ''प्रेम'' को सर्वोच्च सम्मान देते हुए ''राक्षस विवाह'' को न केवल स्वीकार किया गया अपितु क्षत्रियों के लिए सर्वाधिक प्रतिष्ठित विवाह पध्दतियों में रखा गया। स्पष्ट है कि राक्षस विवाह का विधान नारी की प्रतिष्ठा और सामाजिक सम्मान को बनाये रखने और विवाह पूर्व युगल के प्रेम को सामाजिक स्वीकरोक्ति का ही प्रकार है।

गान्धर्व विवाह :- यह संभवत: विवाह संस्था के जन्म से भी पूर्व से विद्यमान विवाह पध्दति है जिसे बाद में सभ्य समाज ने सामाजिक स्वीकरोक्ति प्रदान की है। मनु की गान्धर्व विवाह की परिभाषा देखें -
''इच्छायाsन्योन्यसंयोग: कन्यायाश्च वरस्य च
गान्धर्वस्य तु विज्ञेयो मैथुन्य: कामसंभव:।'' (मनु 3.32)
अर्थात कन्या और वर पारस्परिक इच्छा से कामुकता के वशीभूत होकर संभोग करते हैं। ऐसे स्वेच्छापूर्वक विवाह को गान्धर्व विवाह कहा जाता है।'' यह परिभाषा बहुलत: स्वीकार्य है।

इस विवाह में विवाह पूर्व कामुकता के वशीभूत स्वेच्छया किए गए संभोग को सामाजिक स्वीकृति से विवाह में बदल दिया गया है। इसमें न केवल नारी के सम्मान और गरिमा की रक्षा हुई है अपितु विवाह पूर्व जो बीज नारी के गर्भाशय में स्थापित हुआ है। उसकी भी मर्यादा और सामाजिक सम्मान का संरक्षण हुआ।

उपरोक्त के अतिरिक्त प्राजापत्य विवाह जिसे प्रशस्त विवाह श्रेणियों में माना गया है। को भी मैं नारी के सम्मान और गरिमा को महत्व प्रदान करने वाला विवाह मानता हूँ।

प्राजापात्य विवाह :- मनु की परिभाषा देखिए :-
''सहोभौ चरतां धर्मीमति वाचानुभाटय च
कन्याप्रदानमभ्यचर्य प्राजापत्यो विधि स्मृत:।''
अर्थात ''विवाह का वह प्रकार जिसमें तुम दोनों धर्म का साथ-साथ आचरण करो'' ऐसा आदेश दिया जाता है।'' इसमें विशेष बात यह है कि वर स्वंय वधू के पिता के पास प्रार्थी के रूप में आता था और पिता उसकी योग्यता पर विचार कर उस वर के साथ पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न कर देता था।'' वर का स्वंय वधू के पिता के पास प्रार्थी के रूप में आना वर-वधू का परस्पर पूर्व परिचय आकर्षण, एवं प्रेम सिध्द करता है और वधू के पिता द्वारा योग्यता के परीक्षणोपरान्त विवाह सम्पन्न करना पिता के दायित्व और कन्या के परिचय एवं प्रेम के बीच अद्भुत समन्वय का उदाहरण है।

उपरोक्त विवाह प्रकारों पर चर्चा करते हुए हम यह समझ सकते हैं कि वैदिक हिन्दू व्यवस्था द्वारा सुविचारित ''नारी विमर्श'' कितना आधुनिक और नारी की यौन स्वतंत्रता एवं सामाजिक मर्यादा के बीच कितना अद्भुत सामंजस्य स्थापित करता है।

आधुनिक सहचारी जीवन का चिन्त्य विषय स्त्री-पुरूष मित्रता और नारी की यौन स्वतंत्रता आदि कितना आधुनिक है। इसको यदि हिन्दू सभ्यता के परम्परागत साहित्य के द्वारा देखने का प्रयास करें तो स्थिति स्वत: स्पष्ट हो जायेगी।

सभ्यता के शैशव काल में युवक तथा युवतियां बिना किसी शक्ति अथवा छल के स्वंय परस्पर आकर्षित होते रहेंगे। ऋग्वेद 10.27.17 के अनुसार - ''वही वही वधु भ्रदा कहलाती है जो सुन्दर वेश-भूषा से अलंकृत होकर जनसमुदाय में अपने पति (मित्र) का वरण करती है।'' युवा लड़कियां ग्राम-जीवन अथवा अन्य अनेक उत्सवों व मेलों में जहां उनका स्वतंत्र चुनाव तथा परस्पर आकर्षण उनके संबंधियों को अवांछित न लगे इस प्रकार से एक दूसरे के सहवास का अनुभव कर चुके हो अथर्ववेद का मंत्र देखें :-

आ नो अग्ने सुमतिं संभलो गमेदिमां कुमारीं सहनो मगेन्
जृष्टावरेषु समनेषु वल्गुरोयां पत्या सौभगत्वमस्यै। अथर्ववेद 2.36

इस मंत्र से ऐसा प्रतीत होता है कि - ''प्राय: माता-पिता पुत्री को अपने प्रेमी (भावी पति) के चयन के लिए स्वतंत्र छोड़ देते थे और प्रेम प्रसंग में आगे बढ़ने के लिए उन्हें प्रत्यक्षत: प्रोत्साहित करते थे। ऋ.वे. 6.30.6 के अनुशीलन से ऐसा विदित होता है कि कन्या की माता उस समय का विचार करती रहती थी जब कन्या का विकसित यौवन (पतिवेदन) उसके लिए पति प्राप्त करने मे सफलता प्राप्त कर लेगा। यह पूर्णत: पवित्र व आनन्द का अवसर था जिसमें न तो किसी प्रकार कलुष था और न अस्वाभाविकता।

अन्त में महाभारत के निम्न उध्दरण को प्रस्तुत करना चाहूंगा -
''सकामाया: सकामेन निर्मन्त्र: श्रेष्ठ उच्यते।'' (म.भा. 4.94.60)
अर्थात् सकामा स्त्री का सकाम पुरूष के साथ विवाह भले ही धार्मिक क्रिया व संस्कार से रहित क्यो न हो, सर्वोत्त्म है।''

डा0 राजबली पाण्डेय कृत हिन्दू संस्कार - विवाह संस्कार से ''गृहीत उक्त सन्दर्भ से यह भलीभांति समझ में आ सकता है कि स्त्री को ''यौन स्वतंत्रता'' हिन्दू/वैदिक समाज के लिए महत्वपूर्ण रहा है। महाभारत के उपरोक्त श्लोक में ''सकामा'' शब्द पर बल देना भी यही स्पष्ट करता है कि यदि कामातुरा नारी कामातुर पुरूष से संबंध बना ले तो किसी विधि विधान के बिना भी वह ''सर्वोत्तम'' विवाह है। महाभारतकार ''श्रेष्ठ'' शब्द का उच्चारण कर रहे हैं। स्पष्ट है कि स्त्री की ''यौन संतुष्टि'' का भाव हमारे सामाजिक सहचारी जीवन की व्यवस्था करते समय नीतिकारों के मन में कितना गहरा बैठा हुआ है।