कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 31 अगस्त 2010

दोहा-दुनिया: छाया से वार्तालाप : संजीव 'सलिल'

दोहा-दुनिया:

छाया से वार्तालाप :

संजीव 'सलिल'
*



















*
काया से छाया मिली, करने बैठी बात.
रहे अबोला हैं नहीं, ऐसे तो हालात..
*
छाया बोली: ''तुम किशन, मैं राधा हूँ संग.
तन पर चढ़ा न, मन-चढ़ा, श्याम तिहारा रंग..
*
तुम नटखट पीछा छुड़ा, भाग रहे चितचोर.
मैं चटपट हो साथ ली, होकर भाव विभोर''..
*
मैं अवाक सा रह गया, सुन ध्वनि एकाएक.
समझा तो राहत मिली, सुहृद सखी है नेक..
*
'दूर द्वैत से हम रहे, चिर अद्वैती साथ.
जैसे माया-ब्रम्ह हैं, जगलीला-जगनाथ..
*
वेणु, राधिका, जमुन-जल, ब्रज की पावन धूल.
जैसी  ही  तू  प्रिय  सखी,  शंकाएँ  निर्मूल'..
*
''शंका तनिक न है मुझे, जिज्ञासा है एक.
नहीं अकेली मैं तुम्हें, प्रिय हैं और अनेक..
*
कहाँ सतासत है कहो?, तुमसे कौन अभिन्न?
कौन भरम उपजा रहा?, किससे तुम विच्छिन्न?"
*
'दीप ज्योति मन, शिखा तन, दीपक मेरे तात.
जीवन संगिनी स्नेह है, बाती मेरी मात..
*
दीप तले छाया पले, जग को लगती दूर.
ज्योति संग बन-मिट रही, देख न पाते सूर'..
*
"स्नेह पले मन में सदा, बाधक बनूँ न मीत.
साधक मैं तुम साधना, कौन कामना क्रीत?.
*
क्यों इसकी चिंता करूँ?, किसका थामे हाथ?
धन्य हुई आ-जा रही, यदि मैं प्रिय के साथ..
*
भव-संगिनी का तुम करो, पूरा हर अरमान.
चिर-संगिनी मैं मौन हो, करूँ तुम्हारा ध्यान..
*
हम दोनों सुर-ताल हैं, तुम वादक हो आद्य.
द्वेष न हममें तुम्हीं हो, दोनों के आराध्य..
*
लक्ष्य तुम्हीं हैं पथिक हम, पंथ हमारा प्रेम.
तुमसे ही है हमारी, जग में जीवन-क्षेम''..
*
'चकित सुनूँ स्तब्ध मैं, गुनूँ स्नेह-माहात्म.
प्रिय में होकर लीं ही, आत्म बने परमात्म..
*
धन्य 'सलिल' जिसको मिलीं, छाया-माया साथ.
श्वास-आस सम तुम्हें पा, मैं हो सका सनाथ..'

*************************
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

गीत : स्वागत है... संजीव 'सलिल' *


गीत :

स्वागत है...

संजीव 'सलिल'
*

















*
पीर-दर्द-दुःख-कष्ट हमारे द्वार पधारो स्वागत है.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......
*
दिव्य विरासत भूल गए हम, दीनबंधु बन जाने की.
रूखी-सूखी जो मिल जाए, साथ बाँटकर खाने की..
मुट्ठी भर तंदुल खाकर, त्रैलोक्य दान कर देते थे.
भार भाई, माँ-बाप हुए, क्यों सोचें गले लगाने की?..

संबंधों के अनुबंधों-प्रतिबंधों तुम पर लानत है.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......
*
सात जन्म तक साथ निभाते, सप्त-पदी सोपान अमर.
ले तलाक क्यों हार रहे हैं, श्वास-आस निज स्नेह-समर?
मुँह बोले रिश्तों की महिमा 'सलिल' हो रही अनजानी-
मनमानी कलियों सँग करते, माली-काँटे, फूल-भ्रमर.
सत्य-शांति, सौन्दर्य-शील की, आयी सचमुच शामत है.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......
*

वसुधा सकल कुटुंब हमारा, विश्व नीड़वत माना था.
सबके सुख, कल्याण, सुरक्षा में निज सुख अनुमाना था..
सत-शिव-सुन्दर रूप स्वयं का, आज हो रहा अनजाना-
आत्म-दीप बिन त्याग-तेल, तम निश्चय हम पर छाना था.

चेत न पाया व्हेतन मन, दर पर विनाश ही आगत है.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......
*
पंचतत्व के देवों को हम दानव बनकर मार रहे.
प्रकृति मातु को भोग्या कहकर, अपनी लाज उघार रहे.
धैर्य टूटता काल-चक्र का, असगुन और अमंगल नित-
पर्यावरण प्रदूषण की हर चेतावनी बिसार रहे.

दोष किसी को दें, विनाश में अपने स्वयं 'सलिल' रत हैं.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......

**************
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

गीत: है हवन-प्राण का......... संजीव 'सलिल'

गीत:

है हवन-प्राण का.........

संजीव 'सलिल'
*


















*
है हवन-प्राण का, तज दूरियाँ, वह एक है .
सनातन सम्बन्ध जन्मों का, सुपावन नेक है.....
*
दीप-बाती के मिलन से, जगत में मनती दिवाली.
अंशु-किरणें आ मिटातीं, अमावस की निशा काली..
पूर्णिमा सोनल परी सी, इन्द्रधनुषी रंग बिखेरे.
आस का उद्यान पुष्पा, ॐ अभिमंत्रित सवेरे..
कामना रथ, भावना है अश्व, रास विवेक है.
है हवन-प्राण का..........
*
सुमन की मनहर सुरभि दे, जिन्दगी हो अर्थ प्यारे.
लक्ष्मण-रेखा गृहस्थी, परिश्रम सौरभ सँवारे..
शांति की सुषमा सुपावन, स्वर्ग ले आती धरा पर.
आशुतोष निहारिका से, नित प्रगट करता दिवाकर..
स्नेह तुहिना सा विमल, आशा अमर प्रत्येक है..
है हवन-प्राण का..........
*
नित्य मन्वंतर लिखेगा, समर्पण-अर्पण की भाषा.
साधन-आराधना से, पूर्ण होती सलिल-आशा..
गमकती पूनम शरद की, चकित नेह मयंक है.
प्रयासों की नर्मदा में, लहर-लहर प्रियंक है..
चपल पथ-पाथेय, अंश्चेतना ही टेक है.
है हवन-प्राण का..........
*
बाँसुरी की रागिनी, अभिषेक सरगम का करेगी.
स्वरों की गंगा सुपावन, भाव का वैभव भरेगी..
प्रकृति में अनुकृति है, नियंता की निधि सुपावन.
विधि प्रणय की अशोका है, ऋतु वसंती-शरद-सावन..
प्रतीक्षा प्रिय से मिलन की, पल कठिन प्रत्येक है.
है हवन-प्राण का..........
*
श्वास-सर में प्यास लहरें, तृप्ति है राजीव शतदल.
कृष्णमोहन-राधिका शुभ साधिका निशिता अचंचल..
आन है हनुमान की, प्रतिमान निष्ठा के रचेंगे.
वेदना के, प्रार्थना के, अर्चन के स्वर सजेंगे..
गँवाने-पाने में गुंजित भाव का उन्मेष है.
है हवन-प्राण का..........

*************************

-- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

सोमवार, 30 अगस्त 2010

SOMETHING VERY FUNNY: VIJAY KAUSHAL.

 SOMETHING VERY FUNNY:   VIJAY KAUSHAL.
Now this is very interesting, especially the very last statements.  
  

 

 
Railroad tracks.
The  US  standard railroad gauge (distance between the rails) is 4 feet, 8.5 inches. That's an exceedingly odd number.

 
Why was that gauge used? Because that's the way they built them in England, and English expatriates designed the  US  railroads.

 
Why did the English build them like that? Because the first rail lines were built by the same people who built the pre-railroad tramways, and that's the gauge they used.

 
Why did 'they' use that gauge then? Because the people who built the tramways used the same jigs and tools that they had used for building wagons, which used that wheel spacing.

 

 
Why did the wagons have that particular odd wheel spacing? Well, if they tried to use any other spacing, the wagon wheels would break on some of the old, long distance roads in  England, because that's the spacing of the wheel ruts.

 

 
So who built those old rutted roads? Imperial  Rome built the first long distance roads in Europe (including  England ) for their legions. Those roads have been used ever since.

 
And the ruts in the roads? Roman war chariots formed the initial ruts, which everyone else had to match for fear of destroying their wagon wheels.

 

 
Since the chariots were made for Imperial  Rome, they were all alike in the matter of wheel spacing. Therefore the United States standard railroad gauge of 4 feet, 8.5 inches is derived from the original specifications for an Imperial Roman war chariot. Bureaucracies live forever.

 
So the next time you are handed a specification/procedure/process and wonder 'What horse's ass came up with this?' , you may be exactly right. Imperial Roman army chariots were made just wide enough to accommodate the rear ends of two war horses. (Two horses' asses.)

 

 
 Now, the twist to the story:

 
When you see a Space Shuttle sitting on its launch pad, there are two big booster rockets attached to the sides of the main fuel tank. These are solid rocket boosters, or SRBs. The SRBs are made by Thiokol at their factory in  Utah

 

 
 The
engineers who designed the SRBs would have preferred to make them a bit fatter, but the SRBs had to be shipped by train from the factory to the launch site. The railroad line from the factory happens to run through a tunnel in the mountains, and the SRBs had to fit through that tunnel. The tunnel is slightly wider than the railroad track, and the railroad track, as you now know, is about as wide as two horses' behinds.

 

 
So, a major Space Shuttle design feature of what is arguably the world's most advanced transportation system was determined over two thousand years ago by the width of a horse's ass. And you thought being a horse's ass wasn't important? Ancient horse's asses control almost everything... and the current
 Horses Asses in Washington are controlling everything else
                                             ******************************

Visit http://www.fco.gov.uk for British foreign policy news and travel advice and http://blogs.fco.gov.uk to read our blogs.

This email (with any attachments) is intended for the attention of the addressee(s) only. If you are not the intended recipient, please inform the sender straight away before deleting the message without copying, distributing or disclosing its contents to any other person or organisation. Unauthorised use, disclosure, storage or copying is not permitted.
Any views or opinions expressed in this e-mail do not necessarily reflect the FCO's policy.
The FCO keeps and uses information in line with the Data Protection Act 1998. Personal information may be released to other UK government departments and public authorities.
All messages sent and received by members of the Foreign & Commonwealth Office and its missions overseas may be automatically logged, monitored and/or recorded in accordance with the Telecommunications (Lawful Business Practice) (Interception of Communications) Regulations 2000.
                                                         ***********************

रविवार, 29 अगस्त 2010

मुक्तिका: मछलियाँ -----संजीव 'सलिल'


मछलियाँ


मुक्तिका

मछलियाँ

संजीव 'सलिल'

*
कामनाओं की तरह, चंचल-चपल हैं मछलियाँ.
भावनाओं की तरह, कोमल-सबल हैं मछलियाँ..

मन-सरोवर-मथ रही हैं, अहर्निश ये बिन थके.
विष्णु का अवतार, मत बोलो निबल हैं मछलियाँ..

मनुज तम्बू और डेरे, बदलते अपने रहा.
सियासत करती नहीं, रहतीं अचल हैं मछलियाँ..

मलिनता-पर्याय क्यों मानव, मलिन जल कर रहा?
पूछती हैं मौन रह, सच की शकल हैं मछलियाँ..

हो विदेहित देह से, मानव-क्षुधा ये हर रहीं.
विरागी-त्यागी दधीची सी, 'सलिल' है मछलियाँ..

***********************
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम


Virtual Pet Fish

HELP PLEASE: SEARCH POOJA"S PARENTS

HELP PLEASE: 

SEARCH POOJA"S PARENTS

Dear Friends,

The below 4yrs baby name POOJA was kidnapped by a person at some place and now she is under Kerala Police custody. Since the baby could not communicate her identification clearly, Police is struggling to find her parents. The following information was given by the baby which may or may not be correct also. Requesting all to forward her photograph to the maximum people in India to identify her parents / relatives.

Hope this will cost only your time and will help one life.
Information given by the baby: 
 
Name: POOJA, 
 
Father's Name: Mr. Rajkiran 
 
Mother's Name: Mrs. Munny Devi
 
Language: HINDI
 
Place: Nagaluppi (this was pronounced by the baby which Police could not find such a place. The place must be related to the mentioned name).

She is having one younger Brother & Elder Sister.
 
****************
divyanarmada.blogspot.com

शनिवार, 28 अगस्त 2010

alarm: virus "LIFE IS BEAUTIFUL" don't open


Please Be Extremely Careful especially if using internet mail such as Yahoo, Hotmail, AOL and so on.
 
This information arrived this morning direct from both Microsoft and Norton.

You may receive an apparently harmless email with a Power Point presentation (PPT file attachment)

"LIFE IS BEAUTIFUL"
If you receive it DO NOT OPEN THE FILE UNDER ANY CIRCUMSTANCES , and delete it immediately.

If you open this file, a message will appear on your screen saying: 'It is too late now, your life is no longer beautiful.'

Subsequently you will LOSE EVERYTHING IN YOUR PC and the person who sent it to you will gain access to your name, e-mail and password.

This is a new virus which started to circulate on Tuesday  afternoon.

AOL has already confirmed the severity, and the antivirus software's are not capable of destroying it.

The virus has been created by a hacker who calls himself
'life owner'
Regards,

Sulabh Jaiswal
(IT Consultant)
Delhi, IN
+91-9811-146080 (M)
Skype: it.expert
www.sukritisoft.com
--

हिंदी ब्लॉग: http://sulabhpatra.blogspot.com/

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

एक कविता: पर्वतों पर... संजीव 'सलिल'

एक कविता:

पर्वतों पर...

संजीव 'सलिल'
*








*
पर्वतों पर
सघन वन प्रांतर में
मिलते हैं भग्नावशेष.
बताते हैं खंडहर
कभी बुलंद थीं इमारतें,
कुछ अब तक हैं बुलंद
किन्तु कब तक रहेंगी
कोई नहीं कह सकता.
*
पर्वतों पर
कभी हुआ करते थे
गगनचुम्बी वृक्षों से
होड़ लेते दुर्ग,
दुर्गों में महल,
महलों में राजा-रानियाँ,
बाहर आम लोग और
आम लोगों के बीच
लोकमान्य संत. 
*
राजा करते थे षड्यंत्र,
संत बनाते थे मंदिर.
राजा लड़ते थे सत्ता के लिये.
संत जीते थे
सबके कल्याण के लिये.
समय के साथ मिट गए
संतों के आश्रम
किन्तु
अमर है संतों की वाणी. 
*
समय के साथ
न रहे संत, न राजा-रानी
किन्तु शेष हैं दुर्ग और महल,
कहीं खंडित, कहीं सुरक्षित.
संतों की वाणी
सुरक्षित है पर अब
मानव पर नहीं होता प्रभाव.
दुर्ग और महल
बन गए होटल या
हो गए खंडहर.
पथदर्शक सुनाते हैं
झूठी-सच्ची कहानियाँ.
नहीं होता विश्वास या रोमांच
किन्तु सुन लेते हैं हम कुतूहल से.
वैसे ही जैसे संत-वाणी.
*
कहीं शौर्य, कहीं त्याग.
कहीं षड्यंत्र, कहीं अनुराग.
कहीं भोग, कहीं वैराग्य.
कहीं सौभाग्य, कहीं दुर्भाग्य.
भारत के हर कोने में फ़ैले हैं
अवशेष और कहानियाँ.
हर हिस्से में बताई जाती हैं
समझदारियाँ और नादानियाँ.
मन सहज सुने को
मानकर भी नहीं मानता.
बहुत कुछ जानकर भी नहीं जानता.
*
आज की पीढी
पढ़ती है सिर्फ एक पाठ.
कमाओ, उडाओ, करो ठाठ.
भूल जाओ बीता हुआ कल,
कौन जानता है के होगा कल,
जियो आज में, आज के लिये.
चंद सिरफिरे
जो कल से कल तक जीते हैं
वे आज भी, कल भी
देखेंगे किले और मंदिर,
खंडहर और अवशेष,
लेखेंगे गत-आगत.
दास्तां कहते-कहते
सो जायेंगे
पर कल की थाती
कल को दे जायेंगे.
भविष्य की भूमि में
अतीत की फसल
बो जायेंगे.
*

सामयिक कविता : है बुरा हाल मंहगाई की मार है ---प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘

सामयिक कविता :

देश दिखता मुझे बहुत बीमार है...........

प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘
*
है बुरा हाल मंहगाई की मार है, देश दिखता मुझे बहुत बीमार है।

गांव की हर गली झोपडी है दुखी, भूख से बाल-बच्चों में चीत्कार है।
*
 शांति उठ सी गई आज धरती से है, लोग सारे ही व्याकुल है बेचैन हैं

पेट की आग को बुझाने की फिकर में, सभी जन सतत व्यस्त दिन रैन है।

जो जहाँ भी है उलझन में गंभीर है, आयें दिन बढती जाती नई पीर है।

रोजी रोटी के चक्कर में है सब फंसे, साथ देती नहीं किंतु तकदीर है।

प्रदर्शन है कहीं, कहीं हड़ताल है, कहीं करफ्यू कहीं बंद बाजार है।

लाठियाँ, गोलियाँ औ‘ गिरफ्तारियाँ, जो जहाँ भी है भड़भड़ से बेजार है।
*
समझ आता नहीं, क्यों ये क्या हो रहा, लोग आजाद हैं डर किसी को नहीं।

मानता नहीं कोई किसी का कहा, जिसे जो मन में आता है करता वहीं।

बातों में सब हुये बड़े होषियार है, सिर्फ लेने को हर लाभ आगे खड़े।

किंतु सहयोग और समझारी भुला, स्वार्थ हित सिर्फ लड़ने को रहते अड़े है।

आदमी खो चुका आदमियत इस तरह, कहीं कोई न दिखता समझदार है,

जैसे रिष्ता किसी का किसी से नहीं, जिसे देखो वो लड़ने को तैयार है।
*
समझते लोग कम है नियम कायदे, देखते सभी अपने ही बस फायदे,

राजनेताओं को याद रहते नहीं, कभी जनता से जो भी किये वायदे।

चाह उनकी हैं पहले सॅंवर जाये घर, देशहित की किसी को नहीं कोई फिकर,

बढ़ रही है समस्यायें नित नई मगर, रीति और नीति में कोई न दिखता असर।

घूंस लेना औ‘ देना चलन बन गई, सीधा- सच्चा जहाँ जो हैं लाचार है।

रोज घपले घोटाले है सरकार में, किंतु होता नहीं कोई उपचार है।
*
योजनायें नई बनती है आयें दिन, किंतु निर्विघ्न होने न पातीं सफल।

बढ़ता जाता अंधेरा हर एक क्षेत्र में, डर है शायद न हो घना और ज्यादा कल।

सिर्फ आशा है भगवान से, उठ चुका आपसी प्रेम सद्भाव विष्वास है।

देष की दुर्दशा देख होता है दुख, जिसका उज्जवल रहा पिछला इतिहास है।

आज की रीति हुई काम जिससे बने, कहा जाता उसी को सदाचार है।

जो निरूपयोगी उसका तिरस्कार है, आज का ‘विदग्ध‘ यह ही सुसंस्कार है।
*
कल क्या होगा यह कहना बहुत ही कठिन है, कोई भी नहीं दिखता खबरदार है

जिसे देखों जहाँ देखों, वह ही वहाँ कम या ज्यादा बराबर गुनहगार है।

                                      --- ओ.बी. 11 एम.पी.ई.बी. कालोनी, रामपुर, जबलपुर म.प्र.
********************

विचित्र किन्तु सत्य: 'आत्मा' का वजन सिर्फ 21 ग्राम !

विचित्र किन्तु सत्य:

'आत्मा' का वजन सिर्फ 21 ग्राम !

इंसानी आत्मा का वजन कितना होता है? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए 10 अप्रैल 1901 को अमेरिका के डॉर्चेस्टर में एक प्रयोग किया गया। डॉ. डंकन मैक डॉगल ने चार अन्य साथी डॉक्टर्स के साथ प्रयोग किया था।

इनमें 5 पुरुष और एक महिला मरीज ऐसे थे जिनकी मौत हो रही थी।इनको खासतौर पर डिजाइन किए गए फेयरबैंक्स वेट स्केल पर रखा गया था। मरीजों की मौत से पहले बेहद सावधानी से उनका वजन लिया गया था। जैसे ही मरीज की जान गई वेइंग स्केल की बीम नीचे गिर गई। इससे पता चला कि उसका वजन करीब तीन चौथाई आउंस कम हो गया है।

ऐसा ही तजुर्बा तीन अन्य मरीजों के मामले में भी हुआ। फिर मशीन खराब हो जाने के कारण बाकी दो को टेस्ट नहीं किया जा सका। साबित ये हुआ कि हमारी आत्मा का वजन 21 ग्राम है। इसके बाद डॉ डंकन ने ऐसा ही प्रयोग 15 कुत्तों पर भी किया। उनका वजन नहीं घटा, इससे निष्कर्ष निकाला कि जानवरों की आत्मा नहीं होती। फिर भी इस पर और रिसर्च होना बाकी थी लेकिन 1920 में डंकन की मौत हो जाने से रिसर्च वहीं खत्म हो गई। कई लोगों ने इसे गलत और अनैतिक भी माना। इस पर 2003 में फिल्म भी बनी थी। फिर भी सच क्या है ये एक राज है।
                                                                                                                आभार: लखनऊ ब्लोगर्स असोसिअशन
                                                                  *********************

गीत: पुकार - संजीव 'सलिल'

गीत

पुकार

संजीव 'सलिल'
*














*

आजा, जल्दी से घर आजा, भटक बाँवरे कहाँ रहा?
तुझसे ज्यादा विकल रही माँ, मुझे बता तू कहाँ रहा?...

जहाँ रहा तू वहाँ सफल था, सुन मैं गर्वित होती थी.
सबसे मिलकर मुस्काती थी, हो एकाकी रोती थी..
आज नहीं तो कल आएगा कैयां तुझे सुलाऊँगी-
मौन-शांत थी मन की दुनिया में सपने बोती थी.

कान्हा सम तू गया किन्तु मेरी यादों में यहाँ रहा.
आजा, जल्दी से घर आजा, भटक बाँवरे कहाँ रहा?
तुझसे ज्यादा विकल रही माँ, मुझे बता तू कहाँ रहा?...
*
दुनिया कहती बड़ा हुआ तू, नन्हा ही लगता मुझको .
नटखट बाल किशन में मैंने पाया है हरदम तुझको..
दुनिया कहती अचल मुझे तू चंचल-चपल सुहाता है-
आँचल-लुकते, दूर भागते, आते दिखता तू मुझको.

आ भी जा ओ! छैल-छबीले, ना होकर भी यहाँ रहा.
आजा, जल्दी से घर आजा, भटक बाँवरे कहाँ रहा?
तुझसे ज्यादा विकल रही माँ, मुझे बता तू कहाँ रहा?...
*
भारत मैया-हिन्दी मैया, दोनों रस्ता हेर रहीं.
अब पुकार सुन पाया है तू, कब से तुझको टेर रहीं.
कभी नहीं से देर भली है, बना रहे आना-जाना
सारी धरती तेरी माँ है, ममता-माया घेर रहीं?

मेरे दिल में सदा रहा तू, निकट दूर तू जहाँ रहा.
आजा, जल्दी से घर आजा, भटक बाँवरे कहाँ रहा?
तुझसे ज्यादा विकल रही मैं, मुझे बता तू कहाँ रहा?...
*
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

बुधवार, 25 अगस्त 2010

गीत: आराम चाहिए... संजीव 'सलिल'

गीत:

आराम चाहिए...

संजीव 'सलिल'
*













*
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
प्रजातंत्र के बादशाह हम,
शाहों में भी शहंशाह हम.
दुष्कर्मों से काले चेहरे
करते खुद पर वाह-वाह हम.
सेवा तज मेवा के पीछे-
दौड़ें, ऊँचा दाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
पुरखे श्रमिक-किसान रहे हैं,
मेहनतकश इन्सान रहे हैं.
हम तिकड़मी,घोर छल-छंदी-
धन-दौलत अरमान रहे हैं.
देश भाड़ में जाये हमें क्या?
सुविधाओं संग काम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
स्वार्थ साधते सदा प्रशासक.
शांति-व्यवस्था के खुद नाशक.
अधिनायक हैं लोकतंत्र के-
हम-वे दुश्मन से भी घातक.
अवसरवादी हैं हम पक्के
लेन-देन  बेनाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
सौदे करते बेच देश-हित,
घपले-घोटाले करते नित.
जो चाहो वह काम कराओ-
पट भी अपनी, अपनी ही चित.
गिरगिट जैसे रंग बदलते-
हमको ऐश तमाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
वादे करते, तुरत भुलाते.
हर अवसर को लपक भुनाते.
हो चुनाव तो जनता ईश्वर-
जीत उन्हें ठेंगा दिखलाते.
जन्म-सिद्ध अधिकार लूटना
'सलिल' स्वर्ग सुख-धाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
****************
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

*

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

Your last day on earth ..... -- Vijay Kaushal

Your last day on earth .....This is Awesome!





TheааLast аDayааааThis is аsobering!!!аа
аааааааааа
а
аа
а
аааааааа
а
а
аааааааа
а
а
аааааааа
а
аа

аа
аааааааа
а
а
аааааааааа
а
аа
а
аааааааааа
а
аа
аа
аааааааааа
а
аа
а

а
аааааааа
а
а
аааааааааа
а
аа
аа
аааааааааа
а
аа
аа'BE  KIND '

रविवार, 22 अगस्त 2010

मुक्तिका: समझ सका नहीं संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

समझ सका नहीं

संजीव 'सलिल'
*




















*
समझ सका नहीं गहराई वो किनारों से.
न जिसने रिश्ता रखा है नदी की धारों से..

चले गए हैं जो वापिस कभी न आने को.
चलो पैगाम उन्हें भेजें आज तारों से..

वो नासमझ है, उसे नाउम्मीदी मिलनी है.
लगा रहा है जो उम्मीद दोस्त-यारों से..

जो शूल चुभता रहा पाँव में तमाम उमर.
उसे पता ही नहीं, क्या मिला बहारों से.. 

वो मंदिरों में हुई प्रार्थना नहीं सुनता.
नहीं फुरसत है उसे कुटियों की गुहारों से..

'सलिल' न कुछ कहो ये आजकल के नेता हैं.
है इनका नाता महज तोड़-फोड़ नारों से..
*********************
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम  

शनिवार, 21 अगस्त 2010

मुक्तिका: बोलने से पहले संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

बोलने से पहले

संजीव 'सलिल'
*
1214530351IS1D2h.jpg





*
बोलने से पहले ले तोल.
बात होगी तब ही अनमोल.

न मन का राज सभी से खोल.
ढोल में सदा रही है पोल..

ठुमकियाँ दें तो उड़े पतंग.
न ज्यादा तान, न देना झोल..

भरोसा कर मत आँखों पर
दिखे भू चपटी पर है गोल..

सत्य होता कड़वा मत बोल.
बोल तो पहले मिसरी घोल..

फिजा बदली है 'सलिल' न भूल.
न बाहर रात-रात भर डोल..

'सलिल' तन मंदिर हो निर्मल.
करे मन-मछली तभी किलोल.
****************
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

गीत: आपकी सद्भावना में... संजीव 'सलिल'

गीत:

आपकी सद्भावना में...

संजीव 'सलिल'
*











*
आपकी सद्भावना में कमल की परिमल मिली.
हृदय-कलिका नवल ऊष्मा पा पुलककर फिर खिली.....
*
उषा की ले लालिमा रवि-किरण आई है अनूप.
चीर मेघों को गगन पर है प्रतिष्टित दैव भूप..
दुपहरी के प्रयासों का करे वन्दन स्वेद-बूँद-
साँझ की झिलमिल लरजती, रूप धरता जब अरूप..

ज्योत्सना की रश्मियों पर मुग्ध रजनी मनचली.
हृदय-कलिका नवल आशा पा पुलककर फिर खिली.....
*
है अमित विस्तार श्री का, अजित है शुभकामना.
अपरिमित है स्नेह की पुष्पा-परिष्कृत भावना..
परे तन के अरे! मन ने विजन में रचना रची-
है विदेहित देह विस्मित अक्षरी कर साधना.

अर्चना भी, वंदना भी, प्रार्थना सोनल फली.
हृदय-कलिका नवल ऊष्मा पा पुलककर फिर खिली.....
*
मौन मन्वन्तर हुआ है, मुखरता तुहिना हुई.
निखरता है शौर्य-अर्णव, प्रखरता पद्मा कुई..
बिखरता है 'सलिल' पग धो मलिनता को विमल कर-
शिखरता का बन गयी आधार सुषमा अनछुई..

भारती की आरती करनी हुई सार्थक भली.
हृदय-कलिका नवल ऊष्मा पा पुलककर फिर खिली.....
*******
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

गीत: मंजिल मिलने तक चल अविचल..... संजीव 'सलिल'

गीत:
मंजिल मिलने तक चल अविचल.....
संजीव 'सलिल'
*

















*
लिखें गीत हम नित्य न भूलें, है कोई लिखवानेवाला.
कौन मौन रह मुखर हो रहा?, वह मन्वन्तर और वही पल.....
*
दुविधाओं से दूर रही है, प्रणय कथा कलियों-गंधों की.
भँवरों की गुन-गुन पर हँसतीं, प्रतिबंधों की व्यथा-कथाएँ.
सत्य-तथ्य से नहीं कथ्य ने  तनिक निभाया रिश्ता-नाता
पुजे सत्य नारायण लेकिन, सत्भाषी सीता वन जाएँ.

धोबी ने ही निर्मलता को लांछित किया, पंक को पाला
तब भी, अब भी सच-साँचे में असच न जाने क्यों पाया ढल.....
*
रीत-नीत को बिना प्रीत के, निभते देख हुआ उन्मन जो
वही गीत मनमीत-जीतकर, हार गया ज्यों साँझ हो ढली.
रजनी के आँसू समेटकर, तुहिन-कणों की भेंट उषा को-
दे मुस्का श्रम करे दिवस भर, संध्या हँसती पुलक मनचली.

मेघदूत के पूत पूछते, मोबाइल क्यों नहीं कर दिया?
यक्ष-यक्षिणी बैकवर्ड थे, चैट न क्यों करते थे पल-पल?.....
*
कविता-गीत पराये लगते, पोयम-राइम जिनको भाते.
ब्रेक डांस के उन दीवानों को अनजानी लचक नृत्य की.
सिक्कों की खन-खन में खोये, नहीं मंजीरे सुने-बजाये
वे क्या जानें कल से कल तक चले श्रंखला आज-कृत्य की.

मानक अगर अमानक हैं तो, चालक अगर कुचालक हैं तो
मति-गति , देश-दिशा को साधे, मंजिल मिलने तक चल अविचल.....
*******
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

दोहा सलिला: वानस्पतिक दवाई ले रहिये सदा प्रसन्न संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:

वानस्पतिक दवाई ले रहिये सदा प्रसन्न

संजीव 'सलिल'
*
















*
ले वानस्पतिक औषधि, रहिये सदा प्रसन्न.
जड़ी-बूटियों की फसल, करती धन-संपन्न..
*
पादप-औषध के बिना, जीवन रुग्ण-विपन्न.
दूर प्रकृति से यदि 'सलिल', लगे मौत आसन्न..
*
पाल केंचुआ बना ले, उत्तम जैविक खाद. 
हरी-भरी वसुधा रहे, भूले मनुज विषाद..
*
सेवन ईसबगोल का, करे कब्ज़ को दूर.
नित्य परत जल पीजिये, चेहरे पर हो नूर..
*
अजवाइन से दूर हो, उदर शूल, कृमि-पित्त.
मिटता वायु-विकार भी, खुश रहता है चित्त..
*
ब्राम्ही तुलसी पिचौली, लौंग नीम जासौन.
जहाँ रहें आरोग्य दें, मिटता रोग न कौन?
*
मधुमक्खी पालें 'सलिल', है उत्तम उद्योग.
शहद मिटाता व्याधियाँ, करता बदन निरोग..
*
सदा सुहागन मोहती, मन फूलों से मीत.
हर कैंसर मधुमेह को, कहे गाइए गीत..
*
कस्तूरी भिन्डी फले, चहके लैमनग्रास.
अदरक हल्दी धतूरा, लाये समृद्धि पास..
*
बंजर भी फूले-फले, दें यदि बर्मी खाद.
पाल केंचुए, धन कमा, हों किसान आबाद..
*
भवन कहता घर 'सलिल', पौधें हों दो-चार.
नीम आँवला बेल संग, अमलतास कचनार..
*
मधुमक्खी काटे अगर, चुभे डंक दे पीर.
गेंदा की पाती मलें, धरकर मन में धीर..
*
पथरचटा का रस पियें, पथरी से हो मुक्ति.
'सलिल' आजमा देखिये, अद्भुत है यह युक्ति..
*
घमरा-रस सिर पर मलें, उगें-घनें हों केश.
गंजापन भी दूर हो, मन में रहे न क्लेश..
*
प्रकृति-पुत्र बनकर 'सलिल', पायें-दें आनंद.
श्वास-श्वास मधुमास हो, पल-पल गायें छंद..
************
-- दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

 

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

मुक्तिका: कब किसको फांसे ---संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

कब किसको फांसे

संजीव 'सलिल'
*











*
सदा आ रही प्यार की है जहाँ से.
हैं वासी वहीं के, न पूछो कहाँ से?

लगी आग दिल में, कहें हम तो कैसे?
न तुम जान पाये हवा से, धुआँ से..

सियासत के महलों में जाकर न आयी
सचाई की बेटी, तभी हो रुआँसे..

बसे गाँव में जब से मुल्ला औ' पंडित.
हैं चेलों के हाथों में फरसे-गंडांसे..

अदालत का क्या है, करे न्याय अंधा.
चलें सिक्कों जैसे वकीलों के झाँसे..

बहू आई घर में, चाचा की फजीहत.
घुसें बाद में, पहले देहरी से खाँसे..

नहीं दोस्ती, ना करो दुश्मनी ही.
भरोसा न नेता का कब किसको फांसे..

****************************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

सामयिक गीत: आज़ादी की साल-गिरह संजीव 'सलिल'


सामयिक गीत:

आज़ादी की साल-गिरह

संजीव 'सलिल'
*
freedom1.jpg



*
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
चमक-दमक, उल्लास-खुशी,
कुछ चेहरों पर तनिक दिखी.
सत्ता-पद-धनवालों की-
किस्मत किसने कहो लिखी?
आम आदमी पूछ रहा
क्या उसकी है जगह कहीं?
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
पाती बांधे आँखों पर,
अंधा तौल रहा है न्याय.
संसद धृतराष्ट्री दरबार
कौरव मिल करते अन्याय.
दु:शासन शासनकर्ता
क्यों?, क्या इसकी कहो वज़ह?
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
उच्छ्रंखलता बना स्वभाव.
अनुशासन का हुआ अभाव.
सही-गलत का भूले फर्क-
केर-बेर का विषम निभाव.
दगा देश के साथ करें-
कहते सच को मिली फतह.
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
निज भाषा को त्याग रहे,
पर-भाषा अनुराग रहे.
परंपरा के ईंधन सँग
अधुनातनता आग दहे.
नागफनी की फसलों सँग-
कहें कमल से: 'जा खुश रह.'
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
संस्कार को भूल रहें.
मर्यादा को तोड़ बहें.
अपनों को, अपनेपन को,
सिक्कों खातिर छोड़ रहें.
श्रम-निष्ठा के शाहों को
सुख-पैदल मिल देते शह.
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम