चुनौतियों के आँधी-तूफां.....
संजीव 'सलिल'
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चुनौतियों के आँधी-तूफां मुझको किंचित डिगा न पाये.
अपने सपने पतझर में इस तरह झरे वीरान कर गये ...
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संबंधों की मृग-मरीचिका, अनुबंधों के मिले भुलावे.
स्नेह-प्रेम का ओढ़ आवरण, पग-पग पर छल गए छलावे..
अनजाने लगते अपने हैं, अपने अपनापन सपने हैं.
छेद हुआ पेंदी में जिनके, बेढब दुनियावी नपने हैं..
अपनी-अपनी कहें बेसुरे, कोई किसी की नहीं सुन रहा.
हाय! इमारत का हर पत्थर, अलग-अलग निज शीश धुन रहा..
सत्ता-सियासती मौसम में, बिन मारे सद्भाव मर गए.
अपने सपने पतझर में इस तरह झरे वीरान कर गये ...
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अपने मत को सत्य मानना, मीता! बहुत सहज होता है.
केवल अपना सच ही सच है, जो कहता सच को खोता है..
अलग-अलग सुर-ताल मिलें जब, राग-रागिनी तब बन पाती.
रंग-बिरंगे तरह-तरह के, फूलों से बगिया सज पाती..
अपनी सीमा निर्धारित कर, कैद कर रहे खुद ही खुद को.
मन्दिर में भगवान समाता, कैसे? पूज रहे हैं बुत को..
पूर्वाग्रह की सुदृढ़ बेड़ियाँ, जेवर कहकर पहन घर गए.
अपने सपने पतझर में इस तरह झरे वीरान कर गये ...
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बड़े-बड़े घावों पर मलहम, समय स्वयं ही रहा लगता.
भूली-बिसरी याद दिला मन, चोटों पर कर चोट दुखाता..
निर्माणों की पूर्व पीठिका, ध्वंस-नाश में ही होती है.
हर सिकता-कण, हर चिनगारी, जीवन की वाहक होती है..
कंकर-कंकर को शंकर कर, प्रलयंकर अभ्यंकर होता.
विधि-शारद, हरि-श्री शक्तित हों, तब जागृत मन्वन्तर होता.
रतिपति मति-गति अभिमंत्रित कर, क्षार हुए, साहचर्य वर गए.
अपने सपने पतझर में इस तरह झरे वीरान कर गये ...
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Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
7 टिप्पणियां:
"अलग-अलग सुर-ताल मिलें जब, राग-रागिनी तब बन पाती.
रंग-बिरंगे तरह-तरह के, फूलों से बगिया सज पाती.."
कितने ऊँचे और स्वच्छ विचारों वाली रचना
पढ़ने को मिली , मन प्रसन्न हो गया | कुछ दिनों से मेरा ये translitration वाला
बटन काम नहीं कर रहाथा , न जाने आज कैसे वापस आया , लेकिन मैं खुश हूँ
की अब शायद ये काम करे, और आपका धन्यबाद करता हूँ | बधाइयां !!
Your's ,
Achal Verma
आदरणीय आचार्य जी,
एक अति सुन्दर शिक्षा प्रद रचना के लिए हार्दिक बधाई
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल
सुन्दर रचना !
- प्रतिभा.
आदरणीय संजीव जी
प्रथम दो पंक्तियाँ बहुत ही अच्छी लगी।
सुन्दर कविता के लिये बधाई।
सन्तोष कुमार सिंह
आ० आचार्य जी,
चुनौतियों के आँधी तूफाँ कविता के भाव , बिम्ब,और शब्द -चमत्कार
अंतर्मन को मुग्ध कर गये | आपकी लेखनी को पुनः नमन !
यह पंक्तियाँ विशेष प्रिय लगीं -
" कंकर कंकर को शंकर कर प्रलयंकर अभ्यंकर होता
विधि-शारद,हरि-श्री, शक्तित हों तब जाग्रत मन्वंतर होता
रति-पति मति-गति अभिमंत्रित कर, क्षार हुए,साहचर्य वर गए
अपने सपने पतझर में इस तरह झरे वीरान कर गए "
सादर
कमल
आभारी हूँ आपका, पाकर आशीर्वाद.
यही होता रहे, कमल-सलिल संवाद.
BHAI HME TO SAMAJH ME NAHI AA RAHAA HAI KIN SHABDO SE TARIF KAROON..........ATYANT SUNDAR ......HAM TO KAYAL HO GAYE
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