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गुरुवार, 20 फ़रवरी 2025

फरवरी २०, दोहा, यमक, सॉनेट, हिंदी आरती, नामवर, श्रृंगार गीत, नर्मदा, उल्लाला, गीत, हास्य,

सलिल सृजन फरवरी २०
*
गले मिले दोहा यमक
*
धमक यमक की जब सुने, चमक-दमक हो शांत।
अटक-मटक मत मति कहे, सटक न होना भ्रांत।।
*
नौ कर आप न चाहते, पर नौकर की चाह।
हो न कलेजा चाक रब, चाकर कर परवाह।।
*
हो बस अंत असंत का, यही तंत है तात।
संत बसंत सजा सके, सपनों की बारात।।
*
यम कब यमक समझ सके, सोच यमी हैरान।
तमक बमक कर ले न ले, लपक जान की जान।।
***
सॉनेट
शुभकामना
सुमन करते आपका स्वागत।
भाल पर शोभित तिलक चंदन।
सफलता है द्वार पर आगत।।
हृदय करते आपका वंदन।।
अनिल कर दे श्वास हर सुरभित।
जया दे जय, जयी हो हर आस।
अनल से पा तेज हों प्रमुदित।।
धरा-नभ दे धैर्य शौर्य हुलास।।
सलिल सिंचित माथ हो गर्वित।
वरद हों कर, हृदय करुणापूर्ण।
दिशाएँ वर दें रहो चर्चित।।
हर विपद कर कोशिशें दें चूर्ण।।
वह मिले जो चाहते हैं आप।
यश युगों तक सके जग में व्याप।।
२०-२-२०२२
•••
अशआर
*
अदीब खुदा की नेमत।
मिले न जिसको उसकी शामत।।
*
खुद खुदा हो सको अगर अपने।
पूरे होंगे तभी तेरे सपने।।
*
चाह ही चाह से निकलती है।
आह ही अश्क बन पिघलती है।।
*
साथ किसके हमेशा कौन रहा?
लब न बोले जवाब मौन रहा।।
***
हिंदी आरती
*
भारती भाषा प्यारी की।
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
वर्ण हिंदी के अति सोहें,
शब्द मानव मन को मोहें।
काव्य रचना सुडौल सुन्दर
वाक्य लेते सबका मन हर।
छंद-सुमनों की क्यारी की
आरती हिंदी न्यारी की।।
*
रखे ग्यारह-तेरह दोहा,
सुमात्रा-लय ने मन मोहा।
न भूलें गति-यति बंधन को-
न छोड़ें मुक्तक लेखन को।
छंद संख्या अति भारी की
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
विश्व की भाषा है हिंदी,
हिंद की आशा है हिंदी।
करोड़ों जिव्हाओं-आसीन
न कोई सकता इसको छीन।
ब्रम्ह की, विष्णु-पुरारी की
आरती हिन्दी न्यारी की।।
२०.२.२०२०
***
एक रचना
नामवर
*
लीक से हटकर चला चल
काम कर।
रोकता चाहे जमाना
नाम वर।।
*
जोड़ता जो, वह घटा है
तोड़ता जो, वह जुड़ा है
तना दिखता पर झुका है
पथ न सीधा हर मुड़ा है
श्वास साकी, आस प्याला
जाम भर
रोकता चाहे जमाना
नाम वर
*
जो न जैसा, दिखे वैसा
जो न बदला, वह सड़ा है
महत्तम की चाह मत कर
लघुत्तम सचमुच बड़ा है
कह न मरता कोई किंचित
चाम पर
रोकता चाहे जमाना
नाम वर
*
बात पूरी नहीं हो कह
'जो गलत, वे तोड़ मानक'
क्यों न करता पूर्ण कहकर
'जो सही, मत छोड़ मानक'
बन सिपाही, जान दे दे विहँस सच के
लाम पर
रोकता चाहे जमाना
नाम वर
२०.२.२०१९
***
एक रचना
मन
*
मर रहा पल-पल
अमर मन
जी रहा है.
*
जो सुहाए
कह न पाता, भीत है मन.
जो निभाये
सह न पाता, रीत है मन.
सुन-सुनाये
जी न पाता, गीत है मन.
घुट रहा पल-पल
अधर मन
सी रहा है.
*
मिल गयी पर
मिल न पायी, जीत है मन.
दास सुविधा ने
ख़रीदा, क्रीत है मन.
आँख में
पानी न, पाती पीत है मन.
जी रहा पल-पल
न कुछ कह
मर रहा है.
***
मुक्तक
बीत गईँ कितनी ऋतुएँ, बीते कितने साल
कोयल तजे न कूकना, हिरन न बदले चाल
पर्व बसंती हो गया, वैलेंटाइन आज
प्रेम फूल सा झट झरे, सात जन्म कंगाल
***
पुस्तक चर्चा -
नियति निसर्ग : दोहा दुनिया का नया रत्न
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[पुस्तक परिचय- नियति निसर्ग, दोहा संग्रह, प्रो. श्यामलाल उपाध्याय, प्रथम संस्करण, २०१५, आकार २२.५ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण सजिल्द, जैकेट सहित, पृष्ठ १२६, मूल्य १३०/-, प्रकाशक भारतीय वांग्मय पीठ, लोकनाथ कुञ्ज, १२७/ए/८ ज्योतिष राय मार्ग, नया अलीपुर कोलकाता ७०००५३]
*
विश्व वाणी हिंदी के छंद कोष के सर्वाधिक प्रखर और मूल्यवान दोहा कक्ष को अलंकृत करते हुए श्रेष्ठ-ज्येष्ठ शारदा-सुत प्रो. श्यामलाल उपाध्याय ने अपने दोहा संकलन रूपी रत्न 'नियति निसर्ग' प्रदान किया है. नियति निसर्ग एक सामान्य दोहा संग्रह नहीं है, यह सोद्देश्य, सारगर्भित,सरस, लाक्षणिक अभिव्यन्जनात्मकता से सम्पन्न दोहों की ऐसी रसधार प्रवाहित का रहा है जिसका अपनी सामर्थ्य के अनुसार पान करने पर प्रगाढ़ रसानंद की अनुभूति होती है.
प्रो. उपाध्याय विश्ववाणी हिंदी के साहित्योद्यान में ऐसे वट-वृक्ष हैं जिनकी छाँव में गणित जिज्ञासु रचनाशील अपनी शंकाओं का संधान और सृजन हेतु मार्गदर्शन पाते हैं. वे ऐसी संजीवनी हैं जिनके दर्शन मात्र से माँ भारती के प्रति प्रगाढ़ अनुराग और समर्पण का भाव उत्पन्न होता है. वे ऐसे साहित्य-ऋषि हैं जिनके दर्शन मात्र से श्नाकों का संधान होने लगता है. उनकी ओजस्वी वाणी अज्ञान-तिमिर का भेदन कर ज्ञान सूर्य की रश्मियों से साक्षात् कराती है.
नियति निसर्ग का श्री गणेश माँ शारदा की सारस्वत वन्दना से होना स्वाभाविक है. इस वन्दना में सरस्वती जी के जिस उदात्त रूप की अवधारणा ही, वह अन्यत्र दुर्लभ है. यहाँ सरस्वती मानवीय ज्ञान की अधिष्ठात्री या कला-संगीत की आदि शक्ति इला ही नहीं हैं अपितु वे सकल विश्व, अंतरिक्ष, स्वर्ग और ब्रम्ह-लोक में भी व्याप्त ब्रम्हाणी हैं. कवि उन्हें अभिव्यक्ति की देवी कहकर नमन करता है.
'विश्वपटल पर है इला, अन्तरिक्ष में वाणि
कहीं भारती स्वर्ग में, ब्रम्ह-लोक ब्रम्हाणि'
'घर की शोभा' धन से नहीं कर्म से होती है. 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' की विरासत नयी पीढ़ी के लिए श्लाघ्य है-
'लक्ष्मी बसती कर्म में, कर्म बनता भाग्य
भाग्य-कर्म संयोग से, बन जाता सौभाग्य'
माता-पिता के प्रति, शिशु के प्रति, बाल विकास, अवसर की खोज, पाठ के गुण विशेष, शिक्षक के गुण, नेता के गुण, व्यक्तित्व की परख जैसे शीर्षकों के अंतर्गत वर्णित दोहे आम आदमी विशेषकर युवा, तरुण, किशोर तथा बाल पाठकों को उनकी विशिष्टता और महत्त्व का भान कराने के साथ-साथ कर्तव्य और अधिकारों की प्रतीति भी कराते हैं. दोहाकार केवल मनोरंजन को साहित्य सृजन का लक्ष्य नहीं मानता अपितु कर्तव्य बोध और कर्म प्रेरणा देते साहित्य को सार्थक मानता है.
राष्ट्रीयता को साम्प्रदायिकता मानने के वर्तमान दौर में कवि-ऋषि राष्ट्र-चिंतन, राष्ट्र-धर्म, राष्ट्र की नियति, राष्ट्र देवो भव, राष्ट्रयता अखंडता, राष्ट्रभाषा हिंदी का वर्चस्व, देवनागरी लिपि आदि शीर्षकों से राष्ट्रीय की ओजस्वी भावधारा प्रवाहित कर पाठकों को अवगाहन करने का सुअवसर उपलब्ध कराते हैं. वे सकल संतापों का निवारण का एकमात्र मार्ग राष्ट्र की सुरक्षा में देखते हैं.
आदि-व्याधि विपदा बचें, रखें सुरक्षित आप
सदा सुरक्षा देश की, हरे सकल संताप
हिंदी की विशेषता को लक्षित करते हुए कवि-ऋषि कहते हैं-
हिंदी जैसे बोलते, वैसे लिखते आप
सहज रूप में जानते, मिटते मन के ताप
हिंदी के जो शब्द हैं, रखते अपने अर्थ
सहज अर्थ वे दे चलें, जिनसे हो न अनर्थ
बस हिंदी माध्यम बने, हिंदी का हो राज
हिंदी पथ-दर्शन करे, हिंदी हो अधिराज
हिंदी वैज्ञानिक सहज, लिपि वैज्ञानिक रूप
इसको सदा सहेजिए, सुंदर स्निग्ध स्वरूप
तकनीकी सम्पन्न हों, माध्यम हिंदी रंग
हिंदी पाठी कुशल हों, रंग न होए भंग
देवनागरी लिपि शीर्षक से दिए दोहे भारत के इतिहास में हिंदी के विकास को शब्दित करते हैं. इस अध्याय में हिंसी सेवियों के अवदान का स्मरण करते हुए ऐसे दोहे रचे गए हैं जो नयी पीढ़ी का विगत से साक्षात् कराते हैं.
संत कबीर, महाबली कर्ण, कविवर रहीम, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, मौनी बाबा तथा श्रीकृष्ण पर केन्द्रित दोहे इन महान विभूतियों को स्मरण मात्र नहीं करते अपितु उनके अवदान का उल्लेख कर प्रेरणा जगाने का काम भी करते हैं.
कबीर का गुरु एक है, राम नाम से ख्यात
निराकार निर्गुण रहा, साई से प्रख्यात
जब तक स्थापित रश्मि है, गंगा जल है शांत
रश्मिरथी का यश रहे, जग में सदा प्रशांत
ऐसा कवि पायें विभो, हो रहीम सा धीर
ज्ञानी दानी वुगी हो, युद्ध क्षेत्र का वीर
महावीर आचार्य हैं, क्या द्विवेद प्रसाद
शेरश जागरण काल के, विषय रहा आल्हाद
मौनी बाबा धन्य हैं, धन्य आप वरदान
जनमानस सुख से रहे, यही बड़ा अवदान
भारत कर्म प्रधान देश है. यहाँ शक्ति की भक्ति का विधान सनातन काल से है. गीता का कर्मयोग भारत ही नहीं, सकल विश्व में हर काल में चर्चित और अर्चित रहा है. सकल कर्म प्रभु को अर्पित कर निष्काम भाव से संपादित करना ही श्लाघ्य है-
सौंपे सरे काज प्रभु, सहज हुए बस जान
सारे संकट हर लिए, रख मान तो मान
कर्म कराता धर्म है, धर्म दिलाता अर्थ
अर्थ चले बहु काम ले, यह जीवन का मर्म
जातीय छुआछूत ने देश की बहुत हानि की है. कविगुरु कर्माधारित वर्ण व्यवस्था के समर्थक हैं जिसका उद्घोष गीत में श्रीकृष्ण 'चातुर्वर्ण्य माया सृष्टं गुण-कर्म विभागश:' कहकर करते हैं.
वर्ण व्यवस्था थी बनी, गुणवत्ता के काज
कुलीनता के अहं ने, अपना किया अकाज
घृणा जन्म देती घृणा, प्रेम बढ़ाता प्रेम
इसीलिए तुम प्रेम से, करो प्रेम का नेम
सर्वधर्म समभाव के विचार की विवेचना करते हुए काव्य-ऋषि धर्म और संप्रदाय को सटीकता से परिभाषित करते हैं-
होता धर्म उदार है, संप्रदाय संकीर्ण
धर्म सदा अमृत सदृश, संप्रदाय विष-जीर्ण
कृषि प्रधान देश भारत में उद्योग्व्र्धक और कृषि विरोधी प्रशासनिक नीतियों का दुष्परिणाम किसानों को फसल का समुचित मूल्य न मिलने और किसानों द्वारा आत्म हत्या के रूप में सामने आ रहा है. कवी गुरु ने कृषकों की समस्या का जिम्मेदार शासन-प्रशासन को ही माना है-
नेता खेलें भूमि से, भूमिग्रहण व्यापार
रोके इसको संहिता, चाँद लगाये चार
रोटी के लाले पड़े, कृषक भूमि से हीन
तडपे रक्षा प्राण को, जल अभाव में मीन
दोहे गोशाला के भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था और किसान की दुर्दशा को बताते हैं. कवी गौ और गोशाला की महत्ता प्रतिपादित करते हैं-
गो में बसते प्राण हैं, आशा औ' विश्वास
जहाँ कृष्ण गोपाल हैं, करनी किसकी आस
गोवध अनुचित सर्वथा, औ संस्कृति से दूर
कर्म त्याज्य अग्राह्य है, दुर्मत कुत्सित क्रूर
राष्ट्र के प्रति कर्तव्य, स्वाधीनता की नियति, मादक द्रव्यों के दुष्प्रभाव, चिंता, दुःख की निरंतरता, आत्मबोध तत्व, परमतत्व बोध, आशीर्वचन, संस्कार, रक्षाबंधन, शिवरात्रि, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी आदि शीर्षकों के अंतर्गत दिए गए दोहे पाठकों का पाठ प्रदर्शन करने क साथ शासन-प्रशासन को भी दिशा दिखाते हैं. पुस्तकांत में 'प्रबुद्ध भारत का प्रारूप' शीर्षक से कविगुरु ने अपने चिंतन का सार तत्व तथा भविष्य के प्रति चिंतन-मंथन क नवनीत प्रस्तुत किया है-
सत्य सदा विजयी रहा, सदा सत्य की जीत
नहीं सत्य सम कुछ जगत, सत्य देश का गीत
सभी पन्थ हैं एक सम, आत्म सन्निकट जान
आत्म सुगंध पसरते, ईश्वर अंश समान
बड़ी सोच औ काम से, बनता व्यक्ति महान
चिंतन औ आचार हैं, बस उनके मन जान
किसी कृति का मूल्याङ्कन विविध आधारों पर किया जाता है. काव्यकृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष उसका कथ्य होता है. विवेच्य ८६ वर्षीय कवि-चिन्तक के जीवनानुभवों का निचोड़ है. रचनाकार आरंभ में कटी के शिल्प के प्रति अत्यधिक सजग होता है क्योंकि शिल्पगत त्रुटियाँ उसे कमजोर रचनाकार सिद्ध करती हैं. जैसे-जैसे परिपक्वता आती है, भाषिक अलंकरण के प्रति मोह क्रमश: कम होता जाता है. अंतत: 'सहज पके सो मीठा होय' की उक्ति के अनुसार कवि कथ्य को सरलतम रूप में प्रस्तुत करने लगता है. शिल्प के प्रति असावधानता यत्र-तत्र दिखने पर भी कथ्य का महत्व, विचारों की मौलिकता और भाषिक प्रवाह की सरलता कविगुरु के संदेश को सीधे पाठक के मन-मस्तिष्क तक पहुँचाती है. यह कृति सामान्य पाठक, विद्वज्जनों, प्रशासकों, शासकों, नीति निर्धारकों तथा बच्चों के लिए समान रूप से उपयोगी है. यही इसका वैशिष्ट्य है.
२०.२.२०१७
===
एक रचना
मन
*
मर रहा पल-पल
अमर मन
जी रहा है.
*
जो सुहाए
कह न पाता, भीत है मन.
जो निभाये
सह न पाता, रीत है मन.
सुन-सुनाये
जी न पाता, गीत है मन.
घुट रहा पल-पल
अधर मन
सी रहा है.
*
मिल गयी पर
मिल न पायी, जीत है मन.
दास सुविधा ने
ख़रीदा, क्रीत है मन.
आँख में
पानी न, पाती पीत है मन.
जी रहा पल-पल
न कुछ कह
मर रहा है.
२०.२.२०१६
***
श्रृंगार गीत:
.
चाहता मन
आपका होना
.
शशि ग्रहण से
घिर न जाए
मेघ दल में
छिप न जाए
चाह अजरा
बने तारा
रूपसी की
कीर्ति गाये
मिले मन में
एक तो कोना
.
द्वार पर
आ गया बौरा
चीन्ह भी लो
तनिक गौरा
कूक कोयल
गाए बन्ना
सुना बन्नी
आम बौरा
मार दो मंतर
करो टोना
.
माँग इतनी
माँग भर दूँ
आप का
वर-दान कर दूँ
मिले कन्या-
दान मुझको
जिंदगी को
गान कर दूँ
प्रणय का प्रण
तोड़ मत देना
२०.२.२०१५
.
॥नर्मदाष्टक मणिप्रवाल।।
हिंदी काव्यानुवाद॥
*
देवासुरा सुपावनी नमामि सिद्धिदायिनी,
त्रिपूरदैत्यभेदिनी विशाल तीर्थमेदिनी ।
शिवासनी शिवाकला किलोललोल चापला,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।१।।
सुर असुरों को पावन करतीं सिद्धिदायिनी,
त्रिपुर दैत्य को भेद विहँसतीं तीर्थमेदिनी।
शिवासनी शिवकला किलोलित चपल चंचला,
.भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥१॥
विशाल पद्मलोचनी समस्त दोषमोचनी,
गजेंद्रचालगामिनी विदीप्त तेजदामिनी ।।
कृपाकरी सुखाकरी अपार पारसुंदरी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।२।।
नवल कमल से नयन, पाप हर हर लेतीं तुम,
गज सी चाल, दीप्ति विद्युत सी, हरती भय तम।
रूप अनूप, अनिन्द्य, सुखद, नित कृपा करें माँ‍
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥२॥
तपोनिधी तपस्विनी स्वयोगयुक्तमाचरी,
तपःकला तपोबला तपस्विनी शुभामला ।
सुरासनी सुखासनी कुताप पापमोचनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।३।।
सतत साधनारत तपस्विनी तपोनिधी तुम,
योगलीन तपकला शक्तियुत शुभ हर विधि तुम।
पाप ताप हर, सुख देते तट, बसें सर्वदा,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥३॥
कलौमलापहारिणी नमामि ब्रम्हचारिणी,
सुरेंद्र शेषजीवनी अनादि सिद्धिधकरिणी ।
सुहासिनी असंगिनी जरायुमृत्युभंजिनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।४।।
ब्रम्हचारिणी! कलियुग का मल ताप मिटातीं,
सिद्धिधारिणी! जग की सुख संपदा बढ़ातीं ।
मनहर हँसी काल का भय हर, आयु दे बढ़ा,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥४॥
मुनींद्र ‍वृंद सेवितं स्वरूपवन्हि सन्निभं,
न तेज दाहकारकं समस्त तापहारकं ।
अनंत ‍पुण्य पावनी, सदैव शंभु भावनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।५।।
अग्निरूप हे! सेवा करते ऋषि, मुनि, सज्जन,
तेज जलाता नहीं, ताप हर लेता मज्जन ।
शिव को अतिशय प्रिय हो पुण्यदायिनी मैया,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥५॥
षडंगयोग खेचरी विभूति चंद्रशेखरी,
निजात्म बोध रूपिणी, फणीन्द्रहारभूषिणी ।
जटाकिरीटमंडनी समस्त पाप खंडनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।६।।
षडंग योग, खेचर विभूति, शशि शेखर शोभित,
आत्मबोध, नागेंद्रमाल युत मातु विभूषित ।
जटामुकुट मण्डित देतीं तुम पाप सब मिटा,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥६।।
भवाब्धि कर्णधारके!, भजामि मातु तारिके!
सुखड्गभेदछेदके! दिगंतरालभेदके!
कनिष्टबुद्धिछेदिनी विशाल बुद्धिवर्धिनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।७।।
कर्णधार! दो तार, भजें हम माता तुमको,
दिग्दिगंत को भेद, अमित सुख दे दो हमको ।
बुद्धि संकुचित मिटा, विशाल बुद्धि दे दो माँ!,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥७॥
समष्टि अण्ड खण्डनी पताल सप्त भैदिनी,
चतुर्दिशा सुवासिनी, पवित्र पुण्यदायिनी ।
धरा मरा स्वधारिणी समस्त लोकतारिणी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।८।।
भेदे हैं पाताल सात सब अण्ड खण्ड कर,
पुण्यदायिनी! चतुर्दिशा में ही सुगंधकर ।
सर्वलोक दो तार करो धारण वसुंधरा,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥८॥
***
नर्मदा नामावली
*
पुण्यतोया सदानीरा नर्मदा.
शैलजा गिरिजा अनिंद्या वर्मदा.
शैलपुत्री सोमतनया निर्मला.
अमरकंटी शांकरी शुभ शर्मदा.
आदिकन्या चिरकुमारी पावनी.
जलधिगामिनी चित्रकूटा पद्मजा.
विमलहृदया क्षमादात्री कौतुकी.
कमलनयनी जगज्जननि हर्म्यदा.
शाशिसुता रौद्रा विनोदिनी नीरजा.
मक्रवाहिनी ह्लादिनी सौंदर्यदा.
शारदा वरदा सुफलदा अन्नदा.
नेत्रवर्धिनि पापहारिणी धर्मदा.
सिन्धु सीता गौतमी सोमात्मजा.
रूपदा सौदामिनी सुख-सौख्यदा.
शिखरिणी नेत्रा तरंगिणी मेखला.
नीलवासिनी दिव्यरूपा कर्मदा.
बालुकावाहिनी दशार्णा रंजना.
विपाशा मन्दाकिनी चित्रोंत्पला.
रुद्रदेहा अनुसूया पय-अंबुजा.
सप्तगंगा समीरा जय-विजयदा.
अमृता कलकल निनादिनी निर्भरा.
शाम्भवी सोमोद्भवा स्वेदोद्भवा.
चन्दना शिव-आत्मजा सागर-प्रिया.
वायुवाहिनी कामिनी आनंददा.
मुरदला मुरला त्रिकूटा अंजना.
नंदना नाम्माडिअस भव मुक्तिदा.
शैलकन्या शैलजायी सुरूपा.
विपथगा विदशा सुकन्या भूषिता.
गतिमयी क्षिप्रा शिवा मेकलसुता.
मतिमयी मन्मथजयी लावण्यदा.
रतिमयी उन्मादिनी वैराग्यदा.
यतिमयी भवत्यागिनी शिववीर्यदा.
दिव्यरूपा तारिणी भयहांरिणी.
महार्णवा कमला निशंका मोक्षदा.
अम्ब रेवा करभ कालिंदी शुभा.
कृपा तमसा शिवज सुरसा मर्मदा.
तारिणी वरदायिनी नीलोत्पला.
क्षमा यमुना मेकला यश-कीर्तिदा.
साधना संजीवनी सुख-शांतिदा.
सलिल-इष्टा माँ भवानी नरमदा.
१२-१०-२०१४
***
अभिनव प्रयोग-
उल्लाला गीत:
जीवन सुख का धाम है
*
जीवन सुख का धाम है,
ऊषा-साँझ ललाम है.
कभी छाँह शीतल रहा-
कभी धूप अविराम है...
*
दर्पण निर्मल नीर सा,
वारिद, गगन, समीर सा,
प्रेमी युवा अधीर सा-
हर्ष, उदासी, पीर सा.
हरि का नाम अनाम है
जीवन सुख का धाम है...
*
बाँका राँझा-हीर सा,
बुद्ध-सुजाता-खीर सा,
हर उर-वेधी तीर सा-
बृज के चपल अहीर सा.
अनुरागी निष्काम है
जीवन सुख का धाम है...
*
वागी आलमगीर सा,
तुलसी की मंजीर सा,
संयम की प्राचीर सा-
राई, फाग, कबीर सा.
स्नेह-'सलिल' गुमनाम है
जीवन सुख का धाम है...
***
उल्लाला मुक्तिका:
दिल पर दिल बलिहार है
*
दिल पर दिल बलिहार है,
हर सूं नवल निखार है..
प्यार चुकाया है नगद,
नफरत रखी उधार है..
कहीं हार में जीत है,
कहीं जीत में हार है..
आसों ने पल-पल किया
साँसों का सिंगार है..
सपना जीवन-ज्योत है,
अपनापन अंगार है..
कलशों से जाकर कहो,
जीवन गर्द-गुबार है..
स्नेह-'सलिल' कब थम सका,
बना नर्मदा धार है..
***
उल्लाला मुक्तक:
*
उल्लाला है लहर सा,
किसी उनींदे शहर सा.
खुद को खुद दोहरा रहा-
दोपहरी के प्रहर सा.
*
झरते पीपल पात सा,
श्वेत कुमुदनी गात सा.
उल्लाला मन मोहता-
शरतचंद्र मय रात सा..
*
दीप तले अँधियार है,
ज्यों असार संसार है.
कोशिश प्रबल प्रहार है-
दीपशिखा उजियार है..
*
मौसम करवट बदलता,
ज्यों गुमसुम दिल मचलता.
प्रेमी की आहट सुने -
चुप प्रेयसी की विकलता..
*
दिल ने करी गुहार है,
दिल ने सुनी पुकार है.
दिल पर दिलकश वार या-
दिलवर की मनुहार है..
*
शीत सिसकती जा रही,
ग्रीष्म ठिठकती आ रही.
मन ही मन में नवोढ़ा-
संक्रांति कुछ गा रही..
*
श्वास-आस रसधार है,
हर प्रयास गुंजार है.
भ्रमरों की गुन्जार पर-
तितली हुई निसार है..
*
रचा पाँव में आलता,
कर-मेंहदी पूछे पता.
नाम लिखा छलिया हुआ-
कहो कहाँ-क्यों लापता?
*
वह प्रभु तारणहार है,
उस पर जग बलिहार है.
वह थामे पतवार है.
करता भव से पार है..
****
उल्लाला सलिला:
*
(छंद विधान १३-१३, १३-१३, चरणान्त में यति, सम चरण सम तुकांत, पदांत एक गुरु या दो लघु)
*
अभियंता निज सृष्टि रच, धारण करें तटस्थता।
भोग करें सब अनवरत, कैसी है भवितव्यता।।
*
मुँह न मोड़ते फ़र्ज़ से, करें कर्म की साधना।
जगत देखता है नहीं अभियंता की भावना।।
*
सूर सदृश शासन मुआ, करता अनदेखी सतत।
अभियंता योगी सदृश, कर्म करें निज अनवरत।।
*
भोगवाद हो गया है, सब जनगण को साध्य जब।
यंत्री कैसे हरिश्चंद्र, हो जी सकता कहें अब??
*
भृत्यों पर छापा पड़े, मिलें करोड़ों रुपये तो।
कुछ हजार वेतन मिले, अभियंता को क्यों कहें?
*
नेता अफसर प्रेस भी, सदा भयादोहन करें।
गुंडे ठेकेदार तो, अभियंता क्यों ना डरें??
*
समझौता जो ना करे, उसे तंग कर मारते।
यह कड़वी सच्चाई है, सरे आम दुत्कारते।।
*
हर अभियंता विवश हो, समझौते कर रहा है।
बुरे काम का दाम दे, बिन मारे मर रहा है।।
*
मिले निलम्बन-ट्रान्सफर, सख्ती से ले काम तो।
कोई न यंत्री का सगा, दोषारोपण सब करें।।
२०.२.२०१४
***
तेवरी
*
ताज़ा-ताज़ा दिल के घाव।
सस्ता हुआ नमक का भाव।।
मंझधारों-भंवरों को पार,
किया किनारे डूबी नाव।।
सौ चूहे खाने के बाद
सत्य-अहिंसा का है चाव।।
ताक़तवर के चूम कदम
निर्बल को दिखलाया ताव।।
ठण्ड भगाई नेता ने
जला झोपडी, बना अलाव।।
डाकू तस्कर चोर खड़े
मतदाता क्या करे चुनाव?
नेता रावण, जन सीता
कैसे होगा सलिल निभाव?
२०.२.२०१३
***
हास्य पद:
जाको प्रिय न घूस-घोटाला
*
जाको प्रिय न घूस-घोटाला...
वाको तजो एक ही पल में, मातु, पिता, सुत, साला.
ईमां की नर्मदा त्यागयो, न्हाओ रिश्वत नाला..
नहीं चूकियो कोऊ औसर, कहियो लाला ला-ला.
शक्कर, चारा, तोप, खाद हर सौदा करियो काला..
नेता, अफसर, व्यापारी, वकील, संत वह आला.
जिसने लियो डकार रुपैया, डाल सत्य पर ताला..
'रिश्वतरत्न' गिनी-बुक में भी नाम दर्ज कर डाला.
मंदिर, मस्जिद, गिरिजा, मठ तज, शरण देत मधुशाला..
वही सफल जिसने हक छीना,भुला फ़र्ज़ को टाला.
सत्ता खातिर गिरगिट बन, नित रहो बदलते पाला..
वह गर्दभ भी शेर कहाता बिल्ली जिसकी खाला.
अख़बारों में चित्र छपा, नित करके गड़बड़ झाला..
निकट चुनाव, बाँट बन नेता फरसा, लाठी, भाला.
हाथ ताप झुलसा पड़ोस का घर धधकाकर ज्वाला..
सौ चूहे खा हज यात्रा कर, हाथ थाम ले माला.
बेईमानी ईमान से करना, 'सलिल' पान कर हाला..
है आराम ही राम, मिले जब चैन से बैठा-ठाला.
परमानंद तभी पाये जब 'सलिल' हाथ ले प्याला..
२०.२.२०११
***

बुधवार, 19 फ़रवरी 2025

फरवरी १९, सॉनेट, मुक्तिका, शिव, गीतिका छंद, पिंकाट, भारतेंदु, ककुभ, दोहा, नवगीत

सलिल सृजन फरवरी १९
*
भोर भई
भोर भई सूरज ऊषा संग खेले आँख मिचौली।
गौरैया चूँ चूँ कर चहके, खोजे कहाँ सहेली।।
लोट-पोट करतब दिखलाए, दाना चुगे गिलहरी।
'चैया पी ले' टेरे मैया, अँखियाँ मलती कुँवरी।।
सूरज को जल ढारे दादी, जोड़े दोनों हाथ।
कुँवर सींच अपनी फुलबगिया, लाया पुस्तक साथ।
दादा चश्मा चढ़ा पढ़ रहे, फैलाकर अखबार।।
पिता नहा-धो करे कलेवा, करना काम हजार।।
चीनी लेने आई पड़ोसन, बात बनाती खूब।
भूली घर के काम चंचला, निंदा रस में डूब।।
१९.२.२०२५
०००
सॉनेट
वह
हमने उसे नहीं पहचाना।
गिला न शिकवा करता है वह।
रूप; रंग; आकार न जाना।।
करे परवरिश हम सबकी वह।।
लिया हमेशा सब कुछ उससे।
दिया न कुछ भी वापिस उसको।
उसकी करें शिकायत किससे?
उसका प्रतिनिधि मानें किसको?
कब भेजे?; कब हमें बुला ले?
क्यों भेजा है हमें जगत में?
कारण कुछ तो कभी बता दे।
मिले न क्यों वह कभी प्रगट में?
करे किसी से नहीं अदावत।
नहीं किसी से करे सखावत।।
•••
सॉनेट
अधिनायक
पत्थर दिल होता अधिनायक।
आत्ममुग्ध, चमचा-शरणागत।
देख न पाता विपदा आगत।।
निज मुख निज महिमा अभिभाषक।।
जन की बात न सुनता, बहरा।
मन की बात कहे मनमानी।
भूला मिट जाता अभिमानी।।
जनमत विस्मृत किया ककहरा।।
तंत्र न जन का, दल का प्यारा।
समझ रहा है मैदां मारा।
देख न पाता, लोक न हारा।।
हो उदार, जनमत पहचाने।
सब हों साथ, नहीं क्यों ठाने।
दल न, देश के पढ़े तराने।।
१९-२-२०२२
•••
'शाम हँसी पुरवाई में' गजल संग्रह बसंत शर्मा विमोचन पर मुक्तिका
*
शाम हँसी पुरवाई में।
ऋतु 'बसंत' मनभाई में।।
झूम उठा 'विश्वास' 'सलीम'।
'विकल' 'नयन' अरुणाई में।।
'दर्शन' कर 'संतोष' 'अमित'।
'सलिल' 'राज' तरुणाई में।।
छंद-छंद 'अमरेंद्र' सरस्।
'प्यासा' तृषा बुझाई में।।
महक 'मंजरी' 'संध्या' संग।
रस 'मीना' प्रभु भाई में।।
मति 'मिथलेश' 'विनीता' हो।
गीत-ग़ज़ल मुस्काई में।।
डगर-डगर 'मक़बूल' ग़ज़ल।
अदब 'अदीब' सुहाई में।
'जयप्रकाश' की कहे कलम।
'किसलय' की पहुनाई में।।
'प्रतुल' प्रवीण' 'तमन्ना' है।
'हरिहर' सुधि सरसाई में।।
'पुरुषोत्तम' 'कुलदीप' 'मनोज'।
हो 'दुर्गेश' बधाई में।।
*
शिव भजन
भज मन महाकाल प्रभु निशदिन।।
*
मनोकामना पूर्ण करें हर, हर भव बाधा सारी।
सच्चे मन से भज महेश को, विपद हरें त्रिपुरारी।।
कल पर टाल न मूरख, कर ले
श्वाश श्वास प्रभु सुमिरन।
भज मन महाकाल प्रभु निशदिन।।
*
महाप्राण हैं महाकाल खुद पिएँ हलाहल हँसकर।
शंका हरते भोले शंकर, बंधन काटें फँसकर।।
कोशिश डमरू बजा करो रे शिव शंभू सँग नर्तन।
भज मन महाकाल प्रभु निशदिन।
*
मोह सर्प से कंठ सजा, पर मन वैराग बसाएँ।
'सलिल'-धार जग प्यास बुझाने, जग की सतत बहाएँ।।
हर हर महादेव जयकारा लगा नित्य ही अनगिन।
भज मन महाकाल प्रभु निशदिन।।
१९-२-२०२१
***
दोहा सलिला
रूप नाम लीला सुनें, पढ़ें गुनें कह नित्य।
मन को शिव में लगाकर, करिए मनन अनित्य।।
*
महादेव शिव शंभु के, नामों का कर जाप।
आप कीर्तन कीजिए, सहज मिटेंगे पाप।।
*
सुनें ईश महिमा सु-जन, हर दिन पाएं पुण्य।
श्रवण सुपावन करे मन, काम न आते पण्य।।
*
पालन संयम-नियम का, तप ईश्वर का ध्यान।
करते हैं एकांत में, निरभिमान मतिमान।।
*
निष्फल निष्कल लिंग हर, जगत पूज्य संप्राण।
निराकार साकार हो, करें कष्ट से त्राण।।
१९-२-२०१८
***
दोहा सलिला
*
मधुशाला है यह जगत, मधुबाला है श्वास
वैलेंटाइन साधना, जीवन है मधुमास
*
धूप सुयश मिथलेश का, धूप सिया का रूप
याचक रघुवर दान पा, हर्षित हो हैं भूप
१९-२-२०१७
***
नवगीत
*
नयनों ने नैनों में
दुनिया को देखा
*
कितनी गहराई
कैसे बतलायें?
कितनी अरुणाई
कैसे समझायें?
सपने ही सपने
देखें-दिखलायें
मन-महुआ महकें तो
अमुआ गदरायें
केशों में शोभित
नित सिंदूरी रेखा
नयनों ने नैनों में
दुनिया को देखा
*
सावन में फागुन या
फागुन में सावन
नयनों में सपने ही
सपने मनभावन
मन लंका में बैठा
संदेही रावन
आओ विश्वास राम
वरो सिया पावन
कर न सके धोबी अब
मुझ-तुम का लेखा
नयनों ने नैनों में
दुनिया को देखा
*
रसानंद दे छंद नर्मदा १७ : गीतिका
दोहा, आल्हा, सार, ताटंक,रूपमाला (मदन), चौपाई तथा उल्लाला छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए गीतिका से.
लक्षण : गीतिका मात्रिक सम छंद है जिसमें २६ मात्राएँ होती हैं। १४ और १२ पर यति तथा अंत में लघु -गुरु आवश्यक है। इस छंद की तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं और चौबीसवीं अथवा दोनों चरणों के तीसरी-दसवीं मात्राएँ लघु हों तथा अंत में रगण हो तो छंद निर्दोष व मधुर होता है।
अपवाद- इसमें कभी-कभी यति शब्द की पूर्णता के आधार पर १२-१४ में भी आ पडती है। यथा-
राम ही की भक्ति में, अपनी भलाई जानिए। - जगन्नाथ प्रसाद 'भानु', छंद प्रभाकर
लक्षण छंद:
सूर्य-धरती के मिलन की, छवि मनोहर देखिए।
गीतिका में नर्मदा सी, 'सलिल'-ध्वनि अवरेखिए।।
तीसरा-दसवाँ सदा लघु, हर चरण में वर्ण हो।
रगण रखिये अंत में सुन, झूमिये ऋतु-पर्ण हो।।
*
तीन-दो-दो बार तीनहिं, तीन-दो धुज अंत हो।
रत्न वा रवि मत्त पर यति, चंचरी लक्षण कहो।। -नारायण दास, हिंदी छन्दोलक्षण
टीप- छंद प्रभाकर में भानु जी ने छब्बीस मात्रिक वर्णवृत्त चंचरी (चर्चरी) में 'र स ज ज भ र' वर्ण (राजभा सलगा जभान जभान भानस राजभा) बताये हैं। इसमें कुल मात्राएँ २६ तथा तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं और चौबीसवीं अथवा दोनों चरणों के तीसरी-दसवीं मात्राएँ लघु हैं किंतु दूसरे जगण को तोड़े बिना चौदह मात्रा पर यति नहीं आती। डॉ. पुत्तूलाल ने दोनों छंदों को अभिन्न बताया है। भिखारीदास और केशवदास ने २८ मात्रिक हरिगीतिका को ही गीतिका तथा २६ मात्रिक वर्णवृत्त को चंचरी बताया है। डॉ. पुत्तूलाल के अनुसार के द्विकल को कम कर यह छंद बनता है। सम्भवत: इसी कारण इसे हरिगीतिका के आरम्भ के दो अक्षर हटा कर 'गीतिका' नाम दिया गया। इसकी मात्रा बाँट (३+२+२) x ३+ (३+२) बनती है।
मात्रा बाँट:
ऽ । ऽ । । ऽ । ऽ ऽ ऽ । ऽ ऽ ऽ । ऽ
हे दयामय दीनबन्धो, प्रार्थना मे श्रूयतां।
यच्च दुरितं दीनबन्धो, पूर्णतो व्यपनीयताम्।।
चञ्चलानि मम चेन्द्रियाणि, मानसं मे पूयतां।
शरणं याचेऽहं सदा हि, सेवकोऽस्म्यनुगृह्यताम्।।
उदाहरण:
०१. रत्न रवि कल धारि कै लग, अंत रचिए गीतिका।
क्यों बिसारे श्याम सुंदर, यह धरी अनरीतिका।।
पायके नर जन्म प्यारे, कृष्ण के गुण गाइये।
पाद पंकज हीय में धर, जन्म को फल पाइये।। - जगन्नाथ प्रसाद 'भानु', छंद प्रभाकर
०२. मातृ भू सी मातृ भू है , अन्य से तुलना नहीं।
०३. उस रुदंती विरहिणी के, रुदन रस के लेप से।
और पाकर ताप उसके, प्रिय विरह-विक्षेप से।।
वर्ण-वर्ण सदैव जिनके, हों विभूषण कर्ण के।
क्यों न बनते कवि जनों के, ताम्र पत्र सुवर्ण के।। - मैथिलीशरण गुप्त, साकेत
३, ७, १० वीं मात्रा पूर्ववर्ती शब्द के साथ जुड़कर गुरु हो किन्तु लय-भंग न हो तो मान्य की जा सकती है-
०४. कहीं औगुन किया तो पुनि वृथा ही पछताइये - जगन्नाथ प्रसाद 'भानु', छंद प्रभाकर
०५. हे प्रभो! आनंददाता, ज्ञान हमको दीजिए
शीघ्र सारे दुर्गुणों से, दूर हमको कीजिए
लीजिए हमको शरण में, हम सदाचारी बनें
ब्रम्हचारी धर्मरक्षक, वीर व्रतधरी बनें -रामनरेश त्रिपाठी
०६. लोक-राशि गति-यति भू-नभ, साथ-साथ ही रहते
लघु-गुरु गहकर हाथ-अंत, गीतिका छंद कहते
०७. चौपालों में सूनापन, खेत-मेड में झगड़े
उनकी जय-जय होती जो, धन-बल में हैं तगड़े
खोट न अपनी देखें, बतला थका आइना
कोई फर्क नहीं पड़ता, अगड़े हों या पिछड़े
०८. आइए, फरमाइए भी, ह्रदय में जो बात है
क्या पता कल जीत किसकी, और किसकी मात है
झेलिये धीरज धरे रह, मौन जो हालात है
एक सा रहता समय कब?, रात लाती प्रात है
०९. सियासत ने कर दिया है , विरासत से दूर क्यों?
हिमाकत ने कर दिया है , अजाने मजबूर यों
विपक्षी परदेशियों से , अधिक लगते दूर हैं
दलों की दलदल न दल दे, आँख रहते सूर हैं
१९.२.२०१६
***
अंग्रेज दोहाकार फ्रेडरिक पिंकाट
हिंदी छंदों को कठिन और अप्रासंगिक कहनेवाले यह जानकर चकित होंगे कि स्वतंत्रता के पूर्व से कई विदेशी हिंदी भाषा और छंदों पर कार्य करते रहे हैं. एक अंग्रेज के लिये हिन्दी सीखना और उसमें छंद रचना सहज नहीं. श्री फ्रेडरिक पिंकाट ने द्वारा अपने मित्र भारतेंदु हरिश्चंद्र पर रचित निम्न सोरठा एवं दोहा यह भी तो कहता है कि जब एक विदेशी और हिन्दी न जाननेवाला इन छंदों को अपना सकता है तो हम भारतीय इन्हें सिद्ध क्यों नहीं कर सकते? सवाल इच्छाशक्ति का है, छंद तो सभी को गले लगाने के लिए उत्सुक है.
बैस वंस अवतंस, श्री बाबू हरिचंद जू.
छीर-नीर कलहंस, टुक उत्तर लिख दे मोहि.
शब्दार्थ: बैस=वैश्य, वंस= वंश, अवतंस=अवतंश, जू=जी, छीर=क्षीर=दूध, नीर=पानी, कलहंस=राजहंस, तुक=तनिक, मोहि=मुझे.
भावार्थ: हे वैश्य कुल में अवतरित बाबू हरिश्चंद्र जी! आप राजहंस की तरह दूध-पानी के मिश्रण में से दूध को अलग कर पीने में समर्थ हैं. मुझे उत्तर देने की कृपा कीजिये.
श्रीयुत सकल कविंद, कुलनुत बाबू हरिचंद.
भारत हृदय सतार नभ, उदय रहो जनु चंद.
भावार्थ: हे सभी कवियों में सर्वाधिक श्री संपन्न, कवियों के कुल भूषण! आप भारत के हृदयरूपी आकाश में चंद्रमा की तरह उदित हुए हैं.
फ्रेडरिक पिन्काट (१८३६ - ७ फ़रवरी १८९६) इंग्लैण्ड के निवासी एवं किन्तु हिन्दी के परम् हितैषी थे। स्वयं हिन्दी में लेख लिखने तथा हिन्दी पत्रिकाएँ सम्पादित करने के अलावा उन्होने तत्कालीन् हिन्दी लेखकों को भी प्रोत्साहित किया। इंग्लैण्ड में बैठे-बैठे ही उन्होने हिन्दी पर अच्छा अधिकार प्राप्त कर लिया था। भारतीय सिविल सेवा में हिन्दी के प्रतिष्ठापन का श्रेय भी इनको ही है। उन्होंने प्रेस के कामों का बहुत अच्छा अनुभव प्राप्त किया और अंत में लंदन की प्रसिद्ध ऐलन ऐंड कंपनी के विशाल छापेखाने के मैनेजर हुए। वहीं वे अपने जीवन के अंतिम दिनों के कुछ पहले तक शांतिपूर्वक रहकर भारतीय साहित्य और भारतीय जनहित के लिए बराबर उद्योग करते रहे।
संस्कृत की चर्चा पिंकाट साहब लड़कपन से ही सुनते आते थे, इससे उन्होंने बहुत परिश्रम के साथ उसका अध्ययन किया। इसके उपरांत उन्होंने हिन्दी और उर्दू का अभ्यास किया। इंगलैंड में बैठे ही बैठे उन्होंने इन दोनों भाषाओं पर ऐसा अधिकार प्राप्त कर लिया कि इनमें लेख और पुस्तकें लिखने और अपने प्रेस में छपाने लगे। यद्यपि उन्होंने उर्दू का भी अच्छा अभ्यास किया था, पर उन्हें इस बात का अच्छी तरह निश्चय हो गया था कि यहाँ की परंपरागत प्रकृत भाषा हिन्दी है, अत: जीवन भर ये उसी की सेवा और हितसाधना में तत्पर रहे। उनके हिन्दी लेखों, कविताओं और पुस्तकों की चर्चा आगे चलकर भारतेंदुकाल के भीतर की जाएगी।
संवत् १९४७ में उन्होंने उपर्युक्त ऐलन कंपनी से संबंध तोड़ा और 'गिलवर्ट ऐंड रिविंगटन' नामक विख्यात व्यवसाय कार्यालय में पूर्वीय मंत्री नियुक्त हुए। उक्त कंपनी की ओर से एक व्यापार पत्र 'आईन सौदागरी' उर्दू में निकलता था जिसका संपादन पिंकाट साहब करते थे। उन्होंने उसमें कुछ पृष्ठ हिन्दी के लिए भी रखे। कहने की आवश्यकता नहीं कि हिन्दी के लेख वे ही लिखते थे। लेखों के अतिरिक्त हिंदुस्तान में प्रकाशित होनेवाले हिन्दी समाचार पत्रों (जैसे हिंदोस्तान, आर्यदर्पण, भारतमित्र) से उद्धरण भी उस पत्र के हिन्दी विभाग में रहते थे।
भारत का हित वे सच्चे हृदय से चाहते थे। राजा लक्ष्मण सिंह, भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रतापनारायण मिश्र, कार्तिकप्रसाद खत्री इत्यादि हिन्दी लेखकों से उनका बराबर हिन्दी में पत्रव्यवहार रहता था। उस समय के प्रत्येक हिन्दी लेखक के घर में पिंकाट साहब के दो-चार पत्र मिलेंगे। हिन्दी के लेखकों और ग्रंथकारों का परिचय इंगलैंडवालों को वहाँ के पत्रों में लेख लिखकर वे बराबर दिया करते थे। संवत् १९५२ में (नवंबर सन् १८९५) में वे रीआ घास (जिसके रेशों से अच्छे कपड़े बनते थे) की खेती का प्रचार करने हिंदुस्तान में आए, पर साल भर से कुछ ऊपर ही यहाँ रह पाए थे कि लखनऊ में उनका देहांत हो गया। उनका शरीर भारत की मिट्टी में ही मिला।
संवत् १९१९ में जब राजा लक्ष्मणसिंह ने 'शकुंतला नाटक' लिखा तब उसकी भाषा देख वे बहुत ही प्रसन्न हुए और उसका एक बहुत सुंदर परिचय उन्होंने लिखा। बात यह थी कि यहाँ के निवासियों पर विदेशी प्रकृति और रूप-रंग की भाषा का लादा जाना वे बहुत अनुचित समझते थे। अपना यह विचार उन्होंने अपने उस अंग्रेजी लेख में स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है जो उन्होंने बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री के 'खड़ी बोली का पद्य' की भूमिका के रूप में लिखा था। देखिए, उसमें वे क्या कहते हैं,"फारसी मिश्रित हिन्दी (अर्थात् उर्दू या हिंदुस्तानी) के अदालती भाषा बनाए जाने के कारण उसकी बड़ी उन्नति हुई। इससे साहित्य की एक नई भाषा ही खड़ी हो गई। पश्चिमोत्तार प्रदेश के निवासी, जिनकी यह भाषा कही जाती है, इसे एक विदेशी भाषा की तरह स्कूलों में सीखने के लिए विवश किये जाते हैं।"
***
ककुभ / कुकुभ
*
(छंद विधान: १६ - १४, पदांत में २ गुरु)
*
यति रख सोलह-चौदह पर कवि, दो गुरु आखिर में भाया
ककुभ छंद मात्रात्मक द्विपदिक, नाम छंद ने शुभ पाया
*
देश-भक्ति की दिव्य विरासत, भूले मौज करें नेता
बीच धार मल्लाह छेदकर, नौका खुदी डुबा देता
*
आशिको-माशूक के किस्से, सुन-सुनाते उमर बीती.
श्वास मटकी गह नहीं पायी, गिरी चटकी सिसक रीती.
*
जीवन पथ पर चलते जाना, तब ही मंज़िल मिल पाये
फूलों जैसे खिलते जाना, तब ही तितली मँडराये
हो संजीव सलिल निर्मल बह, जग की तृष्णा हर पाये
शत-शत दीप जलें जब मिलकर, तब दीवाली मन पाये
*
(ककुभ = वीणा का मुड़ा हुआ भाग, अर्जुन का वृक्ष)
***
सामयिक दोहे
*
जो रणछोड़ हुए उन्हें, दिया न हमने त्याग
किया श्रेष्ठता से सदा, युग-युग तक अनुराग।
*
मैडम को अवसर मिला, नहीं गयीं क्या भाग?
त्यागा था पद अटल ने, किया नहीं अनुराग।
*
शास्त्री जी ने भी किया, पद से तनिक न मोह
लक्ष्य हेतु पद छोड़ना, नहिं अपराध न द्रोह।
*
केर-बेर ने मिलाये, स्वार्थ हेतु जब हाथ
छोड़ा जिसने पद विहँस, क्यों न उठाये माथ?
*
करते हैं बदलाव की, जब-जब भी हम बात
पूर्व मानकों से करें, मूल्यांकन क्यों तात?
*
विष को विष ही मारता, शूल निकाले शूल
समय न वह जब शूल ले, आप दीजिये फूल
*
सहन असहमति को नहीं, करते जब हम-आप
तज सहिष्णुता को 'सलिल', करें व्यर्थ संताप
१९-२-२०१४

***

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2025

गुलमोहर

फुलबगिया
कनबतियाँ करता स्वर्ग का फूल गुलमोहर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
लाल-पीले फूलोंवाले गुलमोहर को सोलहवीं शताब्दी में पुर्तगालियों ने मेडागास्कर में सबसे पहले देखा था। अठारहवीं शताब्दी में फ्रेंच किटीस के गवर्नर काउंटी डी प़ोएंशी ने इसका नाम बदल कर अपने नाम से मिलता-जुलता नाम पोइंशियाना रख दिया। बाद में यह सेंट किटीस व नेवीस का राष्ट्रीय फूल भी स्वीकृत किया गया। इसको रॉयल पोइंशियाना के अतिरिक्त फ्लेम ट्री के नाम से भी जाना जाता है। फ्रांसीसियों ने संभवत: गुलमोहर का सबसे अधिक आकर्षक नाम' स्वर्ग का फूल' दिया। यह पेड़ युगांडा, नाइजीरिया, श्री लंका, मेक्सिको, आस्ट्रेलिया तथा अमेरिका में फ्लोरिडा, ब्राजील तथा यूरोप में भी खूब पाया जाता है। मेडागास्कर जहाँ से इस पेड़ का विकास हुआ पर अब वहाँ यह लुप्तप्राय है। इसकी मूल प्रजाति संरक्षित वृक्षों की सूची में शामिल है। गुलमोहर के फूल मकरंद के अच्छे स्रोत हैं। गर्मियों में गुलमोहर के पेड़ पर नाममात्र पत्तियाँ और असंख्य फूल होते हैं।
भारत में गुलमोहर का इतिहास करीब दो सौ वर्ष पुराना है। संस्कृत में इसका नाम 'राज-आभरण' है, जिसका अर्थ राजसी आभूषणों से सजा हुआ वृक्ष है। गुलमोहर के फूलों से श्रीकृष्ण भगवान की प्रतिमा के मुकुट का श्रृंगार किया जाता है। इसलिए संस्कृत में इसे 'कृष्ण चूड़' कहते हैं। यह भारत के गरम तथा नमी वाले स्थानों में सब जगह पाया जाता है। गुलमोहर के फूल मकरंद के अच्छे स्रोत हैं। शहद की मक्खियाँ फूलों पर खूब मँडराती हैं। मकरंद के साथ पराग भी इन्हें इन फूलों से प्राप्त होता है। फूलों से परागीकरण मुख्यतया पक्षियों द्वारा होता है। सूखी कठोर भूमि पर खड़े पसरी हुई शाखाओं वाले गुलमोहर पर पहला फूल निकलने के एक सप्ताह के भीतर ही पूरा वृक्ष गाढ़े लाल नारंगी, पीले रंग के अंगारों जैसे फूलों से भर जाता है। सौंदर्य वृद्धि के लिए पार्क, बगीचे और सड़क के किनारे इसे लगाया जाता है। शहद की मक्खियाँ फूलों पर खूब मँडराती हैं। मकरंद के साथ पराग भी इन्हें इन फूलों से प्राप्त होता है।
गुलमोहर के फूलों के खिलने का मौसम अलग अलग देशों में अलग-अलग होता है। दक्षिणी फ्लोरिडा में यह जून के मौसम में खिलता है तो कैरेबियन देशों में मई से सितम्बर के बीच। भारत और मध्यपूर्व में यह अप्रैल-जून के मध्य फूल देता है। आस्ट्रेलिया में इसके खिलने का मौसम दिसम्बर से फरवरी है, जब इसको पर्याप्त मात्रा में गरमी मिलती है। उत्तरी मेरीयाना द्वीप पर यह मार्च से जून के बीच खिलता है। गुलमोहर की फली का रंग हरा होता है जबकि बीज भूरे रंग के बहुत सख्त होते हैं। कई जगहों पर इसे ईधन के काम में भी लाया जाता है। जब हवाएँ चलती हैं तो इनकी आवाज़ झुनझुने की तरह आती है, तब ऐसा लगता है जैसे कोई बातें कर रहा है इसीलिए इसका एक नाम "औरत की जीभ" भी है।गुलमोहर एक सुगंन्धित पुष्प है। प्रकृति ने गुलमोहर को बहुत ही सुव्यवस्थित तरीक़े से बनाया है, इसके हरे रंग की फर्न जैसी झिलमिलाती पत्तियों के बीच बड़े-बड़े गुच्छों में खिले फूल इस तरीक़े से शाखाओं पर सजते है कि इसे विश्व के सुंदरतम वृक्षों में से एक माना गया है। गुलमोहर का फूल आकार में लगभग १३ सेमी का होता है। इसमें पाँच पंखुड़ियाँ होती हैं। चार पंखुड़ियाँ तो आकार और रंग में समान होती हैं पर पाँचवी थोड़ी लंबी होती है और उस पर पीले सफ़ेद धब्बे भी होते हैं। फूलों का रंग सभी को अपनी ओर खींचता है मियामी में तो गुलमोहर को इतना पसंद किया जाता है कि वे लोग अपना वार्षिक पर्व भी तभी मनाते है जब गुलमोहर के पेड़ में फूल आते हैं। होली के रंग बनाने में गुलमोहर फूलों का प्रयोग किया जाता है।
औषधीय प्रयोग
गुलमोहर की छाल और बीजों का आयुर्वेदिक महत्त्व भी हैं। इसके फूल एंटीबैक्टीरियल, एंटीफंगल, एंटी-इंफ्लेमेटरी, एंटीमाइरियल, एंटीमाइक्रोबियल, एंटीऑक्सिडेंट, कार्डियो-प्रोटेक्टिव, गैस्ट्रो-प्रोटेक्टिव और घाव भरने के औषधीय गुण से युक्त होते हैं। गुलमोहर की पत्तियों में अतिसार-रोधी, हेपेटोप्रोटेक्शन, फ्लेवोनोइड्स और एंटी डायबिटिक गुण मौजूद होते हैं। इसके इस्तेमाल से गठिया, बवासीर जैसी बीमारियों समेत स्किन और बालों से जुड़ी कई समस्याएं भी दूर की जाती हैं। गुलमोहर के पत्तों का इस्तेमाल बालों की समस्या में बहुत फायदेमंद माना जाता है। गुलमोहर के तने की छाल में खून को बहने से रोकने के गुण, मूत्र और सूजन से जुड़ी समस्याओं को खत्म करने के गुण पाए जाते हैं। सिरदर्द और हाजमे के लिए आदिवासी लोग इसकी छाल का प्रयोग करते हैं। मधुमेह की आयुर्वेदिक दवाओं में भी गुलमोहर के बीजों को अन्य जड़ी-बूटियों के साथ मिला कर भी उपयोग किया जाता है। गुलमोहर की छाल का उपयोग मलेरिया की दवा में भी किया जाता है।


१. गुलमोहर फूल को सुखाकर इसका चूर्ण २ से ४ ग्राम चूर्ण को शहद के साथ मिलाकर खाने से पीरियड्स के दौरान होने वाले दर्द (Menstrual Cramp) और इससे जुड़ी अन्य समस्याओं में फायदा होगा।
२. बाल झड़ने की समस्या में गुलमोहर की पत्तियों को सुखा-पीसकर चूर्ण गर्म पानी में मिलाकर खोपड़ी (स्कैल्प्स) पर हफ्ते में दो बार लगाएं। ३. पेचिश, दस्त या डायरिया हो तो गुलमोहर के तने की छाल का २ ग्राम चूर्ण डायरिया की समस्या में खाएँ। बहुत फायदा मिलता है।
४. पीले गुलमोहर के पत्ते पीसकर गठिया-दर्द वाली जगह पर लगाने तथा पत्तों का का काढ़ा बनाकर उसका भाप देने से आराम मिलता है।
५. बवासीर (Piles) होने पर गुलमोहर के पत्ते दूध के साथ पीसकर मस्सों पर लगाने से आराम मिलता है।

गुलमोहर पर दोहे
गुल मोहर हो गई है, रुपया टका समान।
गुलमोहर खिलखिल करे, खिलखिल दे मुस्कान।।
हो जब गुल मो हर कहीं, दिखे आप ही आप।
मैं-तू बिसरे हम बनें, सके उजाला व्याप।।
हो न लाल-पीला कभी, रहे हमेशा शांत।
खिले लाल-पीला रहे, गुलमोहर अक्लांत।।
वर्षा ठंडी ग्रीष्म सह, रहता है चुपचाप।
संत सदृश धीरज धरे, इसने लिए न पाप।।
नहीं नहाता कुम्भ क्यों?, गुलमोहर निष्पाप।
छाँह-पुष्प दे पुण्य कर, छोड़े सब पर छाप।।
१८.२.२०२५
०००गुलमोहर बहुत याद आया
दिशा विद्यार्थी
आज फिर गुलमोहर बहुत याद आया
गली का शोर, घर का आँगन याद आया।
छुट्टी के दिन,चाचा की कुल्फी,
नीले आकाश का पतंन्गों से सतरंगी हो जाना
माँ के बुलाने पर पांच मिनट कह घंटों खेलना
रेट के टीलों पर नंगे पैर चढ़ जाना याद आया
आज फिर गुलमोहर याद आया
नानी का लाड़, बाबा का मनुहार
सावन के झूले,राखी का त्यौहार
सखियों की ठिठोली,मेहँदी चूड़ी के बाज़ार
थोड़ा सा रूठने पर सबका मनाना याद आया
आज फिर गुलमोहर याद आया।
यूँ तो बचपन बहुत पीछे छूट गया
काँधे पर बास्ते का बोझ बदल गया
दोने की चाट,बेफिक्र मौज
बीता ज़माना हो गया
चलो फिर से जी आएं बचपन
मन को गुड़िया का ब्याह रचाना याद आया
आज फिर गुलमोहर बहुत याद आया।
०००
मैं बनूँगा गुलमोहर
सुशोभित
.
अच्‍छा सुनो,
यदि प्रेम हो,
तो संकोच न करना।
कह देना नि:शंक :
'मैं प्रेम में हूँ!'
मुझसे न कह सको तो
कह देना किसी दरख्‍़त से
या मुझी को मान लेना,
अमलतास का एक पेड़।
कह देना
क्‍योंकि कहना ज़रूरी होता है
होने से एक रत्‍ती अधिक
एक सूत ज्‍़यादह
होना यूँ तो मुकम्‍मल है पर नाकाफ़ी
मुकम्‍मल काफ़ी भी हो
ये ज़रूरी तो नहीं!
अपने को पूरे से ज्‍़यादह बनाना
अपने होने को कहना
कहने के चंद्रमा से उसे आलोकना
दीठ को देना एक दीपती हुई दूरी
थोड़ा दूर तलक व्‍यापना।
क्‍योंकि सबसे अकेला वो होता है
जो होता है अकेला अपने प्‍यार के साथ
उसे कह देना यूँ कि तारे तक आ जाएँ उसकी ज़द में
सुदूर से भी परे झपकाते पलकें
अपने अकेलेपन को एक बेछोर पसार देना
क्‍योंकि और अकेला हो जाना बेहतर है
केवल अकेला होने से!
मत रखना दुविधा
कह देना कि प्‍यार है
मुझसे न कह सको तो
कह देना किसी दरख्‍़त से
या मुझी को मान लेना
चिनार का एक पेड़!
ये एक दस्‍तूर है कि राज़दार बनें दरख्‍़त
और ठहरें रहें ख़ामोश हज़ार आवाज़ों और तरानों के साथ
के ये एक रवायत है।
तुम्‍हारी आँखों में
परिंदों की विकल वापसी से भरी साँझ है
उनके लिए मैं बनूँगा नीड़
तुम्‍हारे कानों के नीले छल्‍ले
नदियों की नींद में काँपते हैं
उनके लिए मैं बनूँगा लहर
जब प्रेम में होओगी तुम और
कहना चाहोगी अपना होना
मैं बनूँगा गुलमोहर।
०००
गुलमोहर - प्रेम और जीवन का
निशु माथुर
.
गुलमोहर के पेड़ के नीचे
भड़कीले प्यार में
हमारी इच्छाओं की एक कहानी
एक दूसरे को रंगते हुए
एक चमकीला सिंदूर
उसके लाल रंग के फैलाव के नीचे
आनंदमय आश्रय में छाया हुआ।
उसकी शाखाओं तक पहुँचते
हुए, पकड़ते
हुए, चढ़ते हुए, झूलते हुए
, पीछा करते हुए, हँसते हुए
लाल पंखुड़ियों की एक चमकदार बौछार के नीचे
दिलों और गर्मी के, प्यार और जीवन के
एक झुलसाने वाले भारतीय गर्मियों के फूल।
लपटों में, उसका जीवंत जलता हुआ मुकुट
उसकी छतरी, उत्सवी कीनू के फूलों पर इठलाती
हुई झुर्रीदार चिढ़ाती हुई पंखुड़ियाँ
एक सीधी खड़ी
सफेद रंग की विचित्र मासूमियत
के साथ जोशीले जुनून के लाल रंग से सराबोर
जश्न मनाते और उम्मीद करते हुए
हमारे, हमारे प्यार के जश्न में
बारिश का इंतजार करते हुए..
जैसे उसकी शाखाएँ काले बादलों का वादा करने के लिए ऊँची पहुँचती हैं।
मानसून के संगीत के साथ
गुलमोहर की नम पत्तियां चमकती हैं
हवा और पानी के साथ, कोमल लय में बारिश की बूंदें फिसलने से पहले
एक पल के लिए रुकती हैं नम, तृप्त धरती पर बिखरी हुई नारंगी पंखुड़ियों से चमकती हुई गुलमोहर की हमारी तरह भीगी और भीगी हुई।
०००
तुम्हारा आख़िरी प्रेमपत्र
सोनी पांडेय
.
इस मौसम भी
गुलमोहर ज़रूर खिला होगा
मैं ही मुरझा रही हूँ
तुम्हें देखना था जी भर
आँचल में भर लेना था
मन की तहों में दबा कर रखना था
कि गुलमोहर मेरी याद में
तुम्हारा आख़िरी प्रेमपत्र है
मेरी उदासियों को पढ़ सकते हो तो पढ़ लेना
इस तन्हाई में बस इतना भरम रखते हैं
गुलमोहर के झरने से पहले
ख़त्म हो जाएँगी सारी दूरियाँ
उसके लाल दहकते फूलों से लदी डालियाँ
बचाए हैं हरे पत्तों में थोड़ा-सा मेरा बचपन
वहीं कहीं चिपकी है उसकी शाख़ पर
मेरे माथे की लाल बिंदी
बाहर दहक रहा है मौसम
अंदर भरा है महमह गुलमोहर का लाल रंग
इस लाली से बचेगी दुनिया
कि गुलमोहर मेरी याद में
तुम्हारा आख़िरी प्रेमपत्र है
तुम जा रहे हो!
जाओ!
मुझे याद मत करना
मत कुरेदना भूल कर मेरी किसी बात को
हमारे बीच केवल बातें थीं सेतु
बस इस सेतु को बचाए रखना
तुम जब भी पुकारोगे
मेरी बातें थाम लेंगी तुम्हारी उँगली...
देखना वहीं कहीं गदराया मिलेगा
दहकते लाल रंग में डूबा
खिलखिलाता गुलमोहर
बचपन की भोली मुस्कान लिए
बिना किसी यातना या छल के
गा रहा होगा वह गीत
जिसे तुम गुनगुनाते थे
हँस कर थाम लेगा तुम्हारा हाथ
जब भी थक कर गिरोगे
महसूसना उसके स्पर्श में
मेरे छुवन को...
मैंने धो-सूखा कर रख लिया है
सहेज कर मन की पिटारी में
क्योंकि गुलमोहर मेरी याद में
तुम्हारा आख़िरी प्रेमपत्र है
सुनो!
मुझसे मत कहना कि तुम मेरे प्रेम में थे
ग़लती से भी मत कहना
कुछ बातें कहने के साथ ही
अपना अर्थ खो देती हैं
हमारे बीच कितना प्रेम था
सोचना और लिखना
कहना-सुनना
संभव नहीं मेरे लिए
मैंने आँचल के कोर में बाँध लिया
फागुन की गाँठ की तरह
तपती जेठ की दुपहरी में
जलती धरती की छाती पर
विरहन की हूक की तरह उठती तुम्हारी यादें
इन सन्नाटे भरे दिनों में
जब जीना दुभर हो रहा हो तन्हाई में
मैंने सीख लिया प्रेम करना ख़ुद से
पकड़ कर तुम्हारी यादों की डोर
क्योंकि गुलमोहर मेरी याद में
तुम्हारा आख़िरी प्रेमपत्र है
थोड़ा नरम
थोड़ा खट्टा... मीठा भी
तुम्हें देखते हुए
मुझे बचपन के चूरन याद आते हैं
ख़ूब गिले-शिकवे
उलाहने
तुम समझे नहीं
मैंने बताया नहीं
जाओ यहीं छोड़कर
अपनी बातों की तासीर
जब तुमने कहा कि
मैं तुम्हारे दिल में रहती हूँ
बस इतना बहुत था
मैंने आँखे बंद कर लीं
सहेज लिया सब कुछ
जाओ! तुम ख़ुश रहना और बाँटते रहना
दुनिया में मेरे हिस्से का प्रेम...
जब-जब खिलेंगे गर्म मौसम में
गुलमोहर के फूल
मैं तलाश लूँगी तुम्हारे प्रेम की लाली
धरती ख़ुश हो लेती है जैसे
तमाम उलाहनों के बीच
गुलमोहर से मिलकर
मैं बचा कर रखूँगी रसोई में
हल्दी के डिब्बे में थोड़ा-सा पीलापन
हल्दी की थाप से सजी तुम्हारी गलियाँ
जब जोहती हैं बाट बसंत की
सावन को पुकारतीं हैं किसी नवब्याता बेटी की तरह
मैं जेठ की लू भरी दुपहरी से पूछती हूँ तुम्हारा पता
न जाने किस देश में है तुम्हारा ठौर
तुम जब भी लौटना
पूछ लेना गुलमोहर से मेरा पता
क्योंकि गुलमोहर मेरी याद में
तुम्हारा आख़िरी प्रेमपत्र है।
०००

गुलमोहर के प्रेमपथ पर
अभिनव पंचोली


मार्ग पर चलते हुए,
मनन-चिंतन करते हुए,
जहां तक गयी दृष्टि,
छितराए पड़े थे,
लाल फूल ही लाल फूल……..
ग्रीवा उठाकर इधर-उधर देखा,
चहुं ओर हरा और लाल,
अनंत नीला परिप्रेक्ष्य,
बीच-बीच में पुष्पवर्षा,
साधारण सड़क किसी चित्र-सी सुशोभित ।
ना मानो, तो कुछ नहीं,
हैं वही पुराने गुलमोहर,
जो बूझ सको सौन्दर्य अगर तो,
रंग लाल, रंगत अति मनोहर,
गुलमोहर हैं, गुल मोहर !
लाल फूल हैं, सुर्ख लाल!
आसक्त हो कर चमके लाल,
धूप में तपकर हुए लाल,
भक्ति में रंग गए लाल,
लहू से भी गहरे ये लाल !
चूंकि प्रभु मस्तक पर सजाये,
तो कृष्णचूड़ भी कहलाए,
आभूषणों से सुसज्जित वृक्ष को,
राज आभरण पुकारा जाये,
नाम चला लेकिन एक ही-
गुलमोहर ही जनमानस को भाए,
पुष्पित हो जब यह वृक्ष तब,
नगर विवाह-मंडप सा सज जाए।
००० 

फरवरी १८, सॉनेट, धतूरा, सूरज, चित्रालंकार, नवगीत, दोहा, लघुकथा, प्रेम गीत में संगीत, चंडिका छंद, दोहा ग़ज़ल, बसंत

सलिल सृजन फरवरी १८
*
आज प्लूटो दिवस 
० 
गुलमोहर पर दोहे 
० 
गुल मोहर हो गई है, रुपया टका समान।
गुलमोहर खिलखिल करे, खिलखिल दे मुस्कान।। 
० 
हो जब गुल मो हर कहीं, दिखे आप ही आप। 
मैं-तू बिसरे हम बनें, सके उजाला व्याप।। 
० 
हो न लाल-पीला कभी, रहे हमेशा शांत। 
खिले लाल-पीला रहे, गुलमोहर अक्लांत।। 
वर्षा ठंडी ग्रीष्म सह, रहता है चुपचाप। 
संत सदृश धीरज धरे, इसने लिए न पाप।। 
० 
नहीं नहाता कुम्भ क्यों?, गुलमोहर निष्पाप। 
छाँह-पुष्प दे पुण्य कर, छोड़े सब पर छाप।। 
१८.२.२०२५ 
०००     
दोहा
सूरज पुजता जगत में, तम हर जग उजियार।
काम करे निष्काम रह, ले-दे नहीं उधार।।
सोरठा
करे न मन की बात, कर्मव्रती रवि शत नमन।
समभावी विख्यात, स्वार्थ न किंचित साधता।।
रोला
भास्कर अपने आप, करता अग्निस्नान क्यों?
आत्मदाह का दोष, क्यों उस पर लगता नहीं?
साधे स्वार्थ न क्रोध, रश्मिरथी जग-हित वरे।
काम-क्रोध कर क्षार, सकल जगत उजियारता।।
नायक छंद
उगता रह।
ढलता रह।
चमको रवि
पुजते रह।
•••
सॉनेट
धतूरा
*
सदाशिव को है 'धतूरा' प्रिय।
'कनक' कहते हैं चरक इसको।
अमिय चाहक को हुआ अप्रिय।।
'उन्मत्त' सुश्रुत कहें; मत फेंको।।
.
तेल में रस मिला मलिए आप।
शांत हो गठिया जनित जो दर्द।
कुष्ठ का भी हर सके यह शाप।।
मिटाता है चर्म रोग सहर्ष।।
.
'स्ट्रामोनिअम' खाइए मत आप।
सकारात्मक ऊर्जा धन हेतु।
चढ़ा शिव को, मंत्र का कर जाप।
पार भव जाने बनाएँ सेतु।।
.
'धुस्तूर' 'धत्तूरक' उगाता बाल।
फूल, पत्ते, बीज,जड़ अव्याल।।
१७-२-२०२३
...
सॉनेट
शुभेच्छा
नहीं अन्य की, निज त्रुटि लेखें।
दोष मुक्त हो सकें ईश! हम।
सद्गुण औरों से नित सीखें।।
काम करें निष्काम सदा हम।।
नहीं सफलता पा खुश ज्यादा।
नहीं विफल हो वरें हताशा।
फिर फिर कोशिश खुद से वादा।।
पल पल मन में पले नवाशा।।
श्रम सीकर से नित्य नहाएँ।
बाधा से लड़ कदम बढ़ाएँ।
कर संतोष सदा सुख पाएँ।।
प्रभु के प्रति आभार जताएँ।।
आत्मदीप जल सब तम हर ले।
जग जग में उजियारा कर दे।।
१८-२-२०२२
•••
कार्यशाला
कुंडलिया
*
पुष्पाता परिमल लुटा, सुमन सु मन बेनाम।
प्रभु पग पर चढ़ धन्य हो, कण्ठ वरे निष्काम।।
चढ़े सुंदरी शीश पर, कहे न कर अभिमान।
हृदय भंग मत कर प्रिये!, ले-दे दिल का दान।।
नयन नयन से लड़े, झुके मिल मुस्काता।
प्रणयी पल पल लुटा, प्रणय परिमल पुष्पाता।।
१८-२-२०२०
***
नवगीत:
अंदाज अपना-अपना
आओ! तोड़ दें नपना
*
चोर लूट खाएंगे
देश की तिजोरी पर
पहला ऐसा देंगे
अच्छे दिन आएंगे
.
भूखे मर जाएंगे
अन्नदाता किसान
आवारा फिरें युवा
रोजी ना पाएंगे
तोड़ रहे हर सपना
अंदाज अपना-अपना
*
निज यश खुद गाएंगे
हमीं विश्व के नेता
वायदों को जुमला कह
ठेंगा दिखलाएंगे
.
खूब जुल्म ढाएंगे
सांस, आस, कविता पर
आय घटा, टैक्स बढ़ा
बांसुरी बजाएंगे
कवि! चुप माला जपना
अंदाज अपना-अपना
***
१८.२.२०१८
***
चित्रालंकार:पर्वत
गाएंगे
अनवरत
प्रणय गीत
सुर साधकर।
जी पाएंगे दूर हो
प्रिये! तुझे यादकर।
१८-२-२०१८
***
नवगीत-
पड़ा मावठा
*
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
सिकुड़-घुसड़कर बैठ बावले
थर-थर मत कँप, गरम चाय ले
सुट्टा मार चिलम का जी भर
उठा टिमकिया, दे दे थाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
आल्हा-ऊदल बड़े लड़ैया
टेर जोर से,भगा लड़ैया
गारे राई,सुना सवैया
घाघ-भड्डरी
बन जा आप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
कुछ अपनी, कुछ जग की कह ले
ढाई आखर चादर तह ले
सुख-दुःख, हँस-मसोस जी सह ले
चिंता-फिकिर
बना दे भाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
बाप न भैया, भला रुपैया
मेरा-तेरा करें न लगैया
सींग मारती मरखन गैया
उठ, नुक्कड़ का
रस्ता नाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
जाकी मोंड़ी, बाका मोंड़ा
नैन मटक्का थोडा-थोडा
हम-तुम ने नाहक सर फोड़ा
पर निंदा का
मर कर पाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
***
दोहा दुनिया
*
राजनीति है बेरहम, सगा न कोई गैर
कुर्सी जिसके हाथ में, मात्र उसी की खैर
*
कुर्सी पर काबिज़ हुए, चेन्नम्मा के खास
चारों खाने चित हुए, अम्मा जी के दास
*
दोहा देहरादून में, मिला मचाता धूम
जितने मतदाता बने, सब है अफलातून
*
वाह वाह क्या बात है?, केर-बेर का संग
खाट नहीं बाकी बची, हुई साइकिल तंग
*
आया भाषणवीर है, छाया भाषणवीर
किसी काम का है नहीं, छोड़े भाषण-तीर
*
मत मत का सौदा करो, मत हो मत नीलाम
कीमत मत की समझ लो, तभी बनेगा काम
*
एक मरा दूजा बना, तीजा था तैयार
जेल हुई चौथा बढ़ा, दो कुर्सी-गल हार
***
लघुकथा
सबक
*
'तुम कैसे वेलेंटाइन हो जो टॉफी ही नहीं लाये?'
''अरे उस दिन लाया तो था, अपने हाथों से खिलाई भी थी. भूल गयीं?''
'भूली तो नहीं पर मुझे बचपन में पढ़ा सबक आज भी याद है. तुमने कुछ पढ़ा-लिखा होता तो तुम्हें भी याद होता.'
''अच्छा, तो मैं अनपढ़ हूँ क्या?''
'मुझे क्या पता? कुछ पढ़ा होता तो सबक याद न होता?'
''कौन सा सबक?''
'वही मुँह पर माखन लगा होने के बाद भी मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो कहने वाला सूर का पद. जब मेरे आराध्य को रोज-रोज खाने के बाद भी माखन खाना याद नहीं रहा तो एक बार खाई टॉफी कैसे??? चलो माफ़ किया अब आगे से याद रखना सबक '
१८-२- २०१७
***
नवगीत:
तुमसे सीखा
*
जीवन को
जीवन सा जीना
तुमसे सीखा।
*
गिरता-उठता
पहले भी था
रोता-हँसता
पहले भी था
आँसू को
अमृत सा पीना
तुमसे सीखा।
*
खिलता-झरता
पहले भी था
रुकता-बढ़ता
पहले भी था
श्वासों में
आसों को जीना
तुमसे सीखा।
*
सोता-जगता
पहले भी था
उगता-ढलता
पहले भी था
घर ही
काशी और मदीना
तुमसे सीखा
*
थकता-थमता
पहले भी था
श्रोता-वक्ता
पहले भी था
देव
परिश्रम और पसीना
तुमसे सीखा
***
नवगीत:
ओ' मेरी तुम!
*
श्वास-आस में मुखरित
निर्मल नेह-नर्मदा
ओ मेरी तुम!
हो मेरी तुम!
*
प्रवहित-लहरित
घहरित-हहरित
बूँद-बूँद में मुखरित
चंचल-चपल शर्मदा
ओ' मेरी तुम!
हो मेरी तुम!
*
प्रमुदित-मुकुलित
हर्षित-कुसुमित
कुंद इंदु सम अर्चित
अर्पित अचल वर्मदा
ओ' मेरी तुम!
हो मेरी तुम!
*
कर्षित-वर्षित
चर्चित-तर्पित
शब्द-शब्द में छंदित
वन्दित विमल धर्मदा
ओ' मेरी तुम!
हो मेरी तुम!
१८-२-२०१६
***
प्रेम गीत में संगीत चेतना
*
साहित्य और संगीत की स्वतंत्र सत्ता और अस्तित्व असंदिग्ध है किन्तु दोनों के समन्वय और सम्मिलन से अलौकिक सौंदर्य सृष्टि-वृष्टि होती है जो मानव मन को सच्चिदानंद की अनुभूति और सत-शिव-सुन्दर की प्रतीति कराती है. साहित्य जिसमें सबका हित समाहित हो और संगीत जिसे अनेक कंठों द्वारा सम्मिलित-समन्वित गायन१।
वाराहोपनिषद में अनुसार संगीत 'सम्यक गीत' है. भागवत पुराण 'नृत्य तथा वाद्य यंत्रों के साथ प्रस्तुत गायन' को संगीत कहता है तथा संगीत का लक्ष्य 'आनंद प्रदान करना' मानता है, यही उद्देश्य साहित्य का भी होता है.
संगीत के लिये आवश्यक है गीत, गीत के लिये छंद. छंद के लिये शब्द समूह की आवृत्ति चाहिए जबकि संगीत में भी लयखंड की आवृत्ति चाहिए। वैदिक तालीय छंद साहित्य और संगीत के समन्वय का ही उदाहरण है.
अक्षर ब्रम्ह और शब्द ब्रम्ह से साक्षात् साहित्य करता है तो नाद ब्रम्ह और ताल ब्रम्ह से संगीत। ब्रम्ह की
मतंग के अनुसार सकल सृष्टि नादात्मक है. साहित्य के छंद और संगीत के राग दोनों ब्रम्ह के दो रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं.
साहित्य और संगीत का साथ चोली-दामन का सा है. 'वीणा-पुस्तक धारिणीं भगवतीं जाड्यंधकारापहाम्' - वीणापाणी शारदा के कर में पुस्तक भी है.
'संगीत साहित्य कलाविहीन: साक्षात पशु: पुच्छ विषाणहीनः' में भी साहित्य और संगीत के सह अस्तित्व को स्वीकार किया गया है.
स्वर के बिना शब्द और शब्द के बिना स्वर अपूर्ण है, दोनों का सम्मिलन ही उन्हें पूर्ण करता है.
ग्रीक चिंतक और गणितज्ञ पायथागोरस के अनुसार 'संगीत विश्व की अणु-रेणु में परिव्याप्त है. प्लेटो के अनुसार 'संगीत समस्त विज्ञानों का मूल है जिसका निर्माण ईश्वर द्वारा सृष्टि की विसंवादी प्रवृत्तियों के निराकरण हेतु किया गया है. हर्मीस के अनुसार 'प्राकृतिक रचनाक्रम का प्रतिफलन ही संगीत है.
नाट्य शास्त्र के जनक भरत मुनि के अनुसार 'संगीत की सार्थकता गीत की प्रधानता में है. गीत, वाद्य तथा नृत्य में गीत ही अग्रगामी है, शेष अनुगामी.
गीत के एक रूप प्रगीत (लिरिक) का नामकरण यूनानी वाद्य ल्यूरा के साथ गाये जाने के अधर पर ही हुआ है. हिंदी साहित्य की दृष्टि से गीत और प्रगीत का अंतर आकारगत व्यापकता तथा संक्षिप्तता ही है.
गीत शब्दप्रधान संगीत और संगीत नाद प्रधान गीत है. अरस्तू ने ध्वनि और लय को काव्य का संगीत कहा है. गीत में शब्द साधना (वर्ण अथवा मात्रा की गणना) होती है, संगीत में स्वर और ताल की साधना श्लाघ्य है. गीत को शब्द रूप में संगीत और संगीत को स्वर रूप में गीत कहा जा सकता है.
प्रेम के दो रूप संयोग तथा वियोग श्रृंगार तथा करुण रस के कारक हैं.
प्रेम गीत इन दोनों रूपों की प्रस्तुति करते हैं. आदिकवि वाल्मीकि के कंठ से नि:सृत प्रथम काव्य क्रौंचवध की प्रतिक्रिया था. पंत जी के नौसर: 'वियोगी होगा पहला कवि / आह से उपजा होगा गान'
लव-कुश द्वारा रामायण का सस्वर पाठ सम्भवतः गीति काव्य और संगीत की प्रथम सार्वजनिक समन्वित प्रस्तुति थी.
लालित्य सम्राट जयदेव, मैथिलकोकिल विद्यापति, वात्सल्य शिरोमणि सूरदास, चैतन्य महाप्रभु, प्रेमदीवानी मीरा आदि ने प्रेमगीत और संगीत को श्वास-श्वास जिया, भले ही उनका प्रेम सांसारिक न होकर दिव्य आध्यात्मिक रहा हो.
आधुनिक हिंदी साहित्य में भारतेन्दु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', हरिवंश राय बच्चन आदि कवियों की दृष्टि और सृष्टि में सकल सृष्टि संगीतमय होने की अनुभूति और प्रतीति उनकी रचनाओं की भाषा में अन्तर्निहित संगीतात्मकता व्यक्त करती है.
निराला कहते हैं- "मैंने अपनी शब्दावली को छोड़कर अन्यत्र सभी जगह संगीत के छंदशास्त्र की अनुवर्तिता की है.… जो संगीत कोमल, मधुर और उच्च भाव तदनुकूल भाषा और प्रकाशन से व्यक्त होता है, उसके साफल्य की मैंने कोशिश की है.''
पंत के अनुसार- "संस्कृत का संगीत जिस तरह हिल्लोलाकार मालोपमा से प्रवाहित होता है, उस तरह हिंदी का नहीं। वह लोल लहरों का चंचल कलरव, बाल झंकारों का छेकानुप्रास है.''
लोक में आल्हा, रासो, रास, कबीर, राई आदि परम्पराएं गीत और संगीत को समन्वित कर आत्मसात करती रहीं और कालजयी हो गयीं।
गीत और संगीत में प्रेम सर्वदा अन्तर्निहित रहा. नव गति, नव लय, ताल छंद नव (निराला), विमल वाणी ने वीणा ली (प्रसाद), बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ (महादेवी), स्वर्ण भृंग तारावलि वेष्ठित / गुंजित पुंजित तरल रसाल (पंत) से प्रेरित समकालीन और पश्चात्वर्ती रचनाकारों की रचनाओं में यह सर्वत्र देखा जा सकता है.
छायावादोत्तर काल में गोपालदास सक्सेना 'नीरज', सोम ठाकुर, भारत भूषण, कुंवर बेचैन आदि के गीतों और मुक्तिकाओं (गज़लों) में प्रेम के दोनों रूपों की सरस सांगीतिक प्रस्तुति की परंपरा अब भी जीवित है.
१८-२-२०१४
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द्विपदी
मिलाकर हाथ खासों ने, किया है आम को बाहर
नहीं लेना न देना ख़ास से, हम आम इन्सां हैं
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विमर्श
झाड़ू
* ज्योतिष-वास्तु एवं पौराणिक मान्यताओं के अनुसार झाड़ू सिर्फ हमारे घर की गंदगी को दूर नहीं करती है, बल्कि हमारे * जीवन में आ रही दरिद्रता को भी घर से बाहर निकालने का कार्य करती है। झाड़ू हमारे घर-परिवार में सुख-समृद्घि लाती है। जिस घर में झाड़ू का अपमान होता है, वहाँ धन हानि होती है।
* झाड़ू में महालक्ष्मी का वास माना गया है। झाड़ू घर से बाहर अथवा छत पर न रखें। इससे चोरी का भय होता है।
* झाड़ू छिपाकर ऐसी जगह पर रखना चाहिए जहाँ से झाड़ू हमें, घर या बाहर के सदस्यों को दिखाई नहीं दें।
* गौ माता या अन्य किसी भी जानवर को झाड़ू से मारकर कभी भी नहीं भगाना चाहिए।
* गलती से भी कभी झाड़ू को लात न मारें अन्यथा लक्ष्मी रुष्ट होकर घर से चली जाती है।
* घर-परिवार के सदस्य अगर खास कार्य से घर से जाएँ तो उनके जाने के उपरांत तुरंत झाड़ू नहीं लगाना चाहिए। यह अपशकुन है। ऐसा करने से बाहर गए व्यक्ति को अपने कार्य में असफलता का मुंह देखना पड़ सकता है।
* झाड़ू को आदर-सत्कार से रखें तो हमारे घर में कभी भी धन-संपन्नता की कमी महसूस नहीं होगी।
* झाड़ू के सम्मान का परिणाम आप दल को सत्ता के रूप में मिल रहा है।
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छंद सलिला:
चंडिका छंद
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दो पदी, चार चरणीय, १३ मात्राओं के मात्रिक चंडिका छंद में चरणान्त में गुरु-लघु-गुरु का विधान है.
लक्षण छंद:
१. तेरह मात्री चंडिका, वसु-गति सम जगवन्दिता
गुरु लघु गुरु चरणान्त हो, श्वास-श्वास हो नंदिता
२. वसु-गति आठ व पाँच हो, रगण चरण के अंत में
रखें चंडिका छंद में, ज्ञान रहे ज्यों संत में
उदाहरण:
१. त्रयोदशी! हर आपदा, देती राहत संपदा
श्रम करिये बिन धैर्य खो, नव आशा की फस्ल बो
२. जगवाणी है भारती, विश्व उतारे आरती
ज्ञान-दान जो भी करे, शारद भव से तारती
३. नेह नर्मदा में नहा, राग द्वेष दुःख दें बहा
विनत नमन कर मात को, तम तज वरो उजास को
४. तीन न तेरह में रहे, जो मिथ्या चुगली कहे
मौन भाव सुख-दुःख सहे, कमल पुष्प सम हँस बहे
१८-२-२०१४
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बासंती दोहा ग़ज़ल
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स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित शत कचनार.
किंशुक कुसुम विहँस रहे, या दहके अंगार..
पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार.
पवन खो रहा होश निज, लख वनश्री श्रृंगार..
महुआ महका देखकर, चहका-बहका प्यार.
मधुशाला में बिन पिए, सिर पर नशा सवार..
नहीं निशाना चूकती, पंचशरों की मार.
पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..
नैन मिले लड़ मिल झुके, करने को इंकार.
देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..
मैं तुम यह वह ही नहीं, बौराया संसार.
फागुन में सब पर चढ़ा, मिलने गले खुमार..
ढोलक, टिमकी, मँजीरा, करें ठुमक इसरार.
फगुनौटी चिंता भुला. नाचो-गाओ यार..
घर-आँगन, तन धो लिया, अनुपम रूप निखार.
अपने मन का मैल भी, किंचित 'सलिल' बुहार..
बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.
सीरत-सूरत रख 'सलिल', निर्मल सहज सँवार..
१८-२-२०११

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