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बुधवार, 14 अगस्त 2024

अगस्त १४, नवगीत, आल्हा, हास्य, यमक, दोहा, बरवै-दोहा गीत, भारत

सलिल सृजन अगस्त १४
*
नवगीत
*
सभागार में
रोज़ तमाशा -
बंधु! बधाई, प्रजातंत्र है।
.
राजपथों पर
प्रजाजनों के
जाने की है सख़्त मनाही।
सभी सुखी हैं, सब समर्थ हैं
नए संत दे रहे गवाही।
हाट बिकी मर्यादा सारी
रामराज की
फिरी दुहाई
सुखी तंत्र है।
सभागार में
रोज़ तमाशा -
बंधु! बधाई, प्रजातंत्र है।
.
सुख-सुविधा के
झूठ आँकड़े
रचे जा रहे रजधानी में.
बजा रहे डुगडुगी शाहजी
शहद घुला उनकी बानी में।
लूट रहे धनपति जनगण को
नहीं पूरती ,
बंधु! कमाई
मनुज यंत्र है।
सभागार में
रोज़ तमाशा -
बंधु! बधाई, प्रजातंत्र है।
.
संसद में
नौ टंकी अद्भुत
देख रही परजा मुँह-बाए
फ़ैल गए चौखट-ड्योढ़ी तक
महाकोट के अंधे साये
विश्वहाट का शंख बज रहा
'फॉरेन' ऋचा
गई है गाई
दगा मंत्र है
सभागार में
रोज़ तमाशा -
बंधु! बधाई, प्रजातंत्र है।
१४.८ २०२३
***
बुंदेली लोकमानस में प्रतिष्ठित छंद आल्हा :
तनक न चिंता करो दाऊ जू, बुंदेली के नीके बोल.
जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल..
कबू-कबू ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिर रै डोल.
आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल..
अंगरेजी खों मोह ब्याप गौ, हिंदी मोड़ें जानत नांय.
छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय..
नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय.
पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय..
फ़िल्मी धुन में टर्राउत हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय.
बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय..
बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छाँड़ केक बिस्कुट बें खांय.
अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय..
१४-८-२०११
***
गले मिले दोहा यमक
*
अजब गजब दुनिया सलिल, दिखा रही है रंग.
रंग बदलती है कभी, कभी कर रही जंग.
*
जंग करे बेबात ही, नापाकी है पाक
जंग लगी है अक्ल में, तनिक न बाकी धाक
*
तंग कर रहे और को, जो उनका दिल तंग
भंग हुआ सपना तुरत, जैसे उत्तरी भंग
*
संगदिलों को मत रखें, सलिल कभी भी संग
गंग नहाएँ दूर हो, नहीं लगाएँ अंग
१४-८-२०२०
***
नवगीत
*
हैं स्वतंत्र पर
तंत्र न अपना
दाल दले छाती पर
*
गए विदेशी दूर
स्वदेशी अफसर
हुए पराए.
सत्ता-सुविधा लीन
हुए जन प्रतिनिधि
खेले-खाए.
कृषक, श्रमिक,
अभियंता शोषित
शिक्षक है अस्थाई.
न्याय व्यवस्था
अंधी-बहरी, है
दयालु नाती पर
हैं स्वतंत्र पर
तंत्र न अपना
दाल दले छाती पर
*
अस्पताल है
डॉक्टर गायब
रोगी राम भरोसे.
अंगरेजी में
मँहगी औषधि
लिखें, कंपनी पोसे.
दस प्रतिशत ने
अस्सी प्रतिशत
देश संपदा पाई.
देशभक्त पर
सौ बंदिश हैं
कृपा देश-घाती पर
हैं स्वतंत्र पर
तंत्र न अपना
दाल दले छाती पर
१४-८-२०२०
***
हल्ला-गुल्ला शब्द है,
मौन करे संवाद।
क्वीन जिया में पैठकर
करे विहँस आबाद।
क्या लेना है शब्द से,
रखें भाव से काम।
नहीं शब्द से काम से,
ही होता है नाम।
१४-८-२०१९
बरवै-दोहा गीत:
*
मेघा गरजे बरसे,
है आतंक
*
कल तक आए नहीं तो,
रहे जोड़ते हाथ.
आज आ गए बरसने,
जोड़ रहा जग हाथ.
करें भरोसा किसका
हो निश्शंक?
मेघा गरजे बरसे,
है आतंक
*
अनावृष्टि से काँपती,
कहीं मनुज की जान.
अधिक वृष्टि ले रही है,
कहीं निकाले जान.
निष्ठुर नियति चुभाती
जैसे डंक
मेघा गरजे बरसे,
है आतंक
*
बादल-सांसद गरजते,
एक साथ मिल आज.
बंटाढार हुआ 'सलिल'
बिगड़े सबके काज.
घर का भेदी ढाता
जैसे लंक
मेघा गरजे बरसे,
है आतंक
१४.८.२०१८
***
राष्ट्रीय गीत
हम वही हैं
*
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
*
हमारे दिल में पली थी
सरफरोशी की तमन्ना।
हमारी गर्दन कटी थी
किंतु
किंचित भी झुकी ना।
काँपते थे शत्रु सुनकर
नाम जिनका
हम वही हैं।
कारगिल देता गवाही
मर अमर
होते हमीं हैं।
*
इंकलाबों की करी जयकार
हमने फेंककर बम।
झूल फाँसी पर गये
लेकिन
न झुकने दिया परचम।
नाम कह 'आज़ाद', कोड़े
खाये हँसकर
हर कहीं हैं।
नहीं धरती मात्र
देवोपरि हमें
मातामही हैं।
*
पैर में बंदूक बाँधे,
डाल घूँघट चल पड़ी जो।
भवानी साकार दुर्गा
भगत के
के संग थी खड़ी वो।
विश्व में ऐसी मिसालें
सत्य कहता हूँ
नहीं हैं।
ज़िन्दगी थीं या मशालें
अँधेरा पीती रही
रही हैं।
*
'नहीं दूँगी कभी झाँसी'
सुनो, मैंने ही कहा था।
लहू मेरा
शिवा, राणा, हेमू की
रग में बहा था।
पराजित कर हूण-शक को
मर, जनम लेते
यहीं हैं।
युद्ध करते, बुद्ध बनते
हमीं विक्रम, 'जिन'
हमीं हैं।
*
विश्व मित्र, वशिष्ठ, कुंभज
लोपामुद्रा, कैकयी, मय ।
ऋषभ, वानर, शेष, तक्षक
गार्गी-मैत्रेयी
निर्भय?
नाग पिंगल, पतंजलि,
नारद, चरक, सुश्रुत
हमीं हैं।
ओढ़ चादर रखी ज्यों की त्यों
अमल हमने
तही हैं।
*
देवव्रत, कौंतेय, राघव
परशु, शंकर अगम लाघव।
शक्ति पूजित, शक्ति पूजी
सिय-सती बन
जय किया भव।
शून्य से गुंजित हुए स्वर
जो सनातन
हम सभी हैं।
नाद अनहद हम पुरातन
लय-धुनें हम
नित नयी हैं।
*
हमीं भगवा, हम तिरंगा
जगत-जीवन रंग-बिरंगा।
द्वैत भी, अद्वैत भी हम
हमीं सागर,
शिखर, गंगा।
ध्यान-धारी, धर्म-धर्ता
कम-कर्ता
हम गुणी हैं।
वृत्ति सत-रज-तम न बाहर
कहीं खोजो,
त्रय हमीं हैं।
*
भूलकर मत हमें घेरो
काल को नाहक न टेरो।
अपावन आक्रांताओं
कदम पीछे
हटा फेरो।
बर्फ पर जब-जब
लहू की धार
सरहद पर बही हैं।
कहानी तब शौर्य की
अगणित, समय ने
खुद कहीं हैं।
*
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
१४-८-२०१६
***
नवगीत
*
सब्जी-चाँवल,
आटा-दाल
देख रसोई
हुई निहाल
*
चूहा झाँके आँखें फाड़
बना कनस्तर खाली आड़
चूल्हा काँखा, विवश जला
ज्यों-त्यों ऊगा सूर्य, बला
धुँआ करें सीती लकड़ी
खों-खों सुन भागी मकड़ी
फूँक मार बेहाल हुई
घर-लछमी चुप लाल हुई
गौरैया झींके
बदहाल
मुनिया जाएगी
हुआ बबाल
*
माचिस-तीली आग लगा
झुलसी देता समय दगा
दाना ले झटपट भागी
चीटी सह न सकी आगी
कैथ, चटनी, नोंन, मिरच
प्याज़ याद आये, सच बच
आसमान को छूटे भाव
जैसे-तैसे करें निभाव
तिलचट्टा है
सुस्त निढाल
छिपी छिपकली
बन कर काल
*
पुंगी रोटी खा लल्ला
हँस थामे धोती पल्ला
सदा सुहागन लाई चाय
मगन मोगरा करता हाय
खनकी चूड़ी दैया रे!
पायल बाजी मैया रे!
नैन उठे मिल झुक हैं बंद
कहे-अनकहे मादक छंद
दो दिल धड़के,
कर करताल
बजा मँजीरा
लख भूचाल
*
'दाल जल रही' कह निकरी
डुकरो कहे 'बहू बिगरी,
मत बौरा, जा टैम भया
रासन लइयो साँझ नया'
दमा खाँसता, झुकी कमर
उमर घटे पर रोग अमर
चूं-चूं खोल किवार निकल
जाते हेरे नज़र पिघल
'गबरू कभऊँ
न होय निढाल
करियो किरपा
राम दयाल'
१४-८-२०१५
***
गीत:
कब होंगे आजाद
*
कब होंगे आजाद?
कहो हम
कब होंगे आजाद?....
*
गए विदेशी पर देशी अंग्रेज कर रहे शासन.
भाषण देतीं सरकारें पर दे न सकीं हैं राशन..
मंत्री से संतरी तक कुटिल कुतंत्री बनकर गिद्ध-
नोच-खा रहे
भारत माँ को
ले चटखारे स्वाद.
कब होंगे आजाद?
कहो हम
कब होंगे आजाद?....
*
नेता-अफसर दुर्योधन हैं, जज-वकील धृतराष्ट्र.
धमकी देता सकल राष्ट्र को खुले आम महाराष्ट्र..
आँख दिखाते सभी पड़ोसी, देख हमारी फूट-
अपने ही हाथों
अपना घर
करते हम बर्बाद.
कब होंगे आजाद?
कहो हम
कब होंगे आजाद?....
*
खाप और फतवे हैं अपने मेल-जोल में रोड़ा.
भष्टाचारी चौराहे पर खाए न जब तक कोड़ा.
तब तक वीर शहीदों के हम बन न सकेंगे वारिस-
श्रम की पूजा हो
समाज में
ध्वस्त न हो मर्याद.
कब होंगे आजाद?
कहो हम
कब होंगे आजाद?....
*
पनघट फिर आबाद हो सकें, चौपालें जीवंत.
अमराई में कोयल कूके, काग न हो श्रीमंत.
बौरा-गौरा साथ कर सकें नवभारत निर्माण-
जन न्यायालय पहुँच
गाँव में
विनत सुनें फ़रियाद-
कब होंगे आजाद?
कहो हम
कब होंगे आजाद?....
*
रीति-नीति, आचार-विचारों भाषा का हो ज्ञान.
समझ बढ़े तो सीखें रुचिकर धर्म प्रीति विज्ञान.
सुर न असुर, हम आदम यदि बन पायेंगे इंसान-
स्वर्ग तभी तो
हो पायेगा
धरती पर आबाद.
कब होंगे आजाद?
कहो हम
कब होंगे आजाद?....
१४-८-२०१४
***
कुण्डलिया:
आती उजली भोर..
*
छाती छाती ठोंककर, छाती है चहुँ ओर.
जाग सम्हल सरकार जा, आती उजली भोर..
आती उजली भोर, न बंदिश व्यर्थ लगाओ.
जनगण-प्रतिनिधि अन्ना, को सादर बुलवाओ..
कहे 'सलिल' कविराय, ना नादिरशाही भाती.
आम आदमी खड़ा, वज्र कर अपनी छाती..
*
रामदेव से छल किया, चल शकुनी सी चाल.
अन्ना से मत कर कपट, आयेगा भूचाल..
आएगा भूचाल, पलट जायेगी सत्ता.
पल में कट जायेगा, रे मनमोहन पत्ता..
नहीं बचे सरकार नाम होगा बदनाम.
लोकपाल से क्यों डरता? कर कर इसे सलाम..
*
अनशन पर प्रतिबन्ध है, क्यों, बतला इसका राज?
जनगण-मन को कुचलना, नहीं सुहाता काज..
नहीं सुहाता काज, लाज थोड़ी तो कर ले.
क्या मुँह ले फहराय तिरंगा? सच को स्वर दे..
चोरों का सरदार बना ईमानदार मन.
तज कुर्सी आ तू भी कर ले अब तो अनशन..
१४-८-२०११
***
गीत
भारत माँ को नमन करें....
*
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें.
ध्वजा तिरंगी मिल फहराएँ
इस धरती को चमन करें.....
*
नेह नर्मदा अवगाहन कर
राष्ट्र-देव का आवाहन कर
बलिदानी फागुन पावन कर
अरमानी सावन भावन कर
राग-द्वेष को दूर हटायें
एक-नेक बन, अमन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
अंतर में अब रहे न अंतर
एक्य कथा लिख दे मन्वन्तर
श्रम-ताबीज़, लगन का मन्तर
भेद मिटाने मारें मंतर
सद्भावों की करें साधना 
सारे जग को स्वजन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
काम करें निष्काम भाव से
श्रृद्धा-निष्ठा, प्रेम-चाव से
रुके न पग अवसर अभाव से
बैर-द्वेष तज दें स्वभाव से'
जन-गण-मन' गा नभ गुंजा दें
निर्मल पर्यावरण करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
जल-रक्षण कर पुण्य कमायें
पौध लगायें, वृक्ष बचाएं
नदियाँ-झरने गान सुनाएँ
पंछी कलरव कर इठलायें
भवन-सेतु-पथ सुदृढ़ बनाकर
सबसे आगे वतन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
शेष न अपना काम रखेंगे
साध्य न केवल दाम रखेंगे
मन-मन्दिर निष्काम रखेंगे
अपना नाम अनाम रखेंगे
सुख हो भू पर अधिक स्वर्ग से
'सलिल' समर्पित जतन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
१४-८-२०१०
***

मंगलवार, 13 अगस्त 2024

अगस्त १३, छंद महासंस्कारी, मुक्तक, नवगीत, दोहा, संसद, सॉनेट,

सलिल सृजन अगस्त १३
*
सॉनेट
हाथ
लिए हाथ में हाथ चलें हम,
बाँटें सब मिल सबका सुख-दुख,
ऊँचा रखकर मार चलें हम,
मलिन किसी का कभी न हो मुख।
टूट न पाए कभी एकता,
सबसे सबका हित सध पाए,
पले एकता में अनेकता,
बनें न अपने कभी पराए।
हाथ मिलाएँ, हाथ जोड़ लें,
धरे हाथ पर हाथ न बैठें,
हाथ जमाकर मन न तोड़ ले।
हाथ हाथ से लड़ें न ऐंठे।
अँगुली थामे हाथ हाथ की।
जय गुंजाए हाथ साथ की।।
१३-८-२०२३
•••
***
इतिहास
धोया गया संसद भवन
मुहूर्त निकाल तय किया था आजादी का दिन|
हमारे संविधान के निर्माण में 2 साल 11 महीने 18 दिन का समय लगा। डॉ. भीमराव अंबेडकर को संविधान निर्माता कहलाने का गौरव प्राप्त है। वे संविधान बनाने वाली प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे जिसमें कुल 7 सदस्य थे। भारत के संविधान के बारे में आपने यह जानकारियां पहले भी पढ़ी होंगी, लेकिन यहां हम आपसे एक ऐसी रोचक जानकारी साझा कर रहे हैं, जिसके बारे में आपको शायद ही मालूम होगा।
देश में गणतंत्र स्थिर रहे इसलिए उज्जैन के ज्योतिष सूर्यनारायण व्यास ने पंचांग देखकर आजादी का मुहूर्त निकाला था। डॉ. राजेंद्र प्रसाद के आग्रह पर उन्होंने बताया कि अगर आजादी 15 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि 12 बजे ली गई तो हमारा गणतंत्र अमर रहेगा।
देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद.
पंडित सूर्यनारायण व्यास.
कहा था 1990 के बाद देश करेगा तरक्की
आजादी के समय उन्होंने संकेत दे दिए थे कि 1990 के बाद से देश की तरक्की होगी और 2020 तक भारत विश्व का सिरमौर बन जाएगा। इसके बाद से चाहे शनि की दशा में देश को आजादी मिली, देश के टुकड़े हो गए, केतु की महादशा में देश भुखमरी और तंगहाली से गुजरा। मगर 1990 में शुक्र की महादशा शुरू होने के बाद देश की तरक्की भी शुरू हो गई।
1947 में जब यह तय हो गया कि अंग्रेज भारत छोडऩे के लिए तैयार हैं, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने गोस्वामी गणेशदत्त महाराज के माध्यम से उज्जैन के पंडित सूर्यनारायण व्यास को बुलावा भेजा। पंडित व्यास ने पंचांग देखकर बताया कि आजादी के लिए सिर्फ दो ही दिन शुभ हैं। 14 और 15 अगस्त। इसमें एक दिन पाकिस्तान को आजाद घोषित किया जा सकता है और एक दिन भारत को। उन्होंने डॉ. प्रसाद को भारत की आजादी के लिए मध्यरात्रि 12 बजे यानी स्थिर लग्न नक्षत्र का समय सुझाया। ताकि देश में लोकतंत्र स्थिर रहे। इतना ही नहीं पंडित व्यास के कहने पर आजादी के बाद देर रात संसद को धोया भी गया था। क्योंकि ब्रिटिश शासकों के बाद अब यहां भारतीय बैठने वाले थे। धोने के बाद उनके बताए मुहूर्त पर गोस्वामी गिरधारीलाल ने संसद की शुद्धि करवाई थी।
इनके कहने पर धोया गया संसद भवन, मुहूर्त निकाल तय किया था आजादी का दिन
व्यास जी के जीवन पर लिखी पुस्तक का मुखपृष्ठ.
पंडित जी के जीवन पर किताब
पंडित सूर्यनारायण व्यास के पुत्र राजशेखर ने उनके जीवन और उनकी भविष्यवाणियों पर एक किताब लिखी है। 'याद आते हैं शीर्षक वाली इस किताब के 34 वें 'अध्याय ज्योतिष जगत के सूर्य (पृष्ठ क्रमांक 197 और 198) में आजादी के दिन के मुहूर्त का उल्लेख किया गया है। राजशेखर ने इस अध्याय में अपने पिता की अन्य भविष्यवाणियों का भी जिक्र किया है। सांदीपनी ऋषि के वंशज महान ज्योतिषाचार्य, लेखक, पत्रकार, पंडित सूर्यनारायण व्यास थे। उनका जन्म 2 मार्च 1902 को हुआ था।
भविष्यवाणियां जो सच निकली लालबहादुर शास्त्री के ताशकंद जाने से पहले सूर्यनारायण ब्यास ने एक लेख में इस बात का उल्लेख कर दिया था कि वे जीवित नहीं लौटेंगे। उन तक यह खबर पहुंची भी लेकिन उन्होंने इसे हंसकर टाल दिया। बाद में भविष्यवाणी सच साबित हुई। 7 दिसंबर 1950 को एक अखबार में उन्होंने लिखा कि उपप्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल का स्वास्थ्य अत्यंत चिंताजनक हो सकता है। 17 दिसंबर तक उनके लिए कठिन समय रहेगा। आखिर 16 दिसंबर की अर्ध रात्रि को सरदार पटेल दिवंगत हो गए। इससे पहले 1932 में उन्होंने एक अंग्रेजी अखबार में भूकंप पर एक लेख लिखा था। फिर एक पत्र लिखकर आने वाले 300 भूकंपों की सूची प्रकाशित करवा दी। समय के साथ-साथ ये भी सही साबित होती जा रही है। यह पत्र और अखबार सुरक्षित हैं। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद और महात्मा गांधी के बारे में भी कई सटीक भविष्यवाणियां काफी पहले ही कर दी थीं।
***
भ्रष्टाचार के विरुद्ध खड़े होते थे फिरोज गांधी
अपनी अलग पहचान रखने के कायल फिरोज गांधी को एक ऐसे नेता और सांसद के रूप में याद किया जाता है जो हमेशा स्वच्छ सामाजिक जीवन के पैरोकार रहे और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करते रहे। फिरोज के समकालीन लोगों का कहना है कि वह भले ही संसद में कम बोलते रहे लेकिन वे बहुत अच्छे वक्ता थे और जब भी किसी विषय पर बोलते थे तो पूरा सदन उनको ध्यान से सुनता था। उन्होंने कई कंपनियों के राष्ट्रीयकरण का भी अभियान चलाया था।
फिरोज गांधी अपने दौर के एक कुशल सांसद के रूप में जाने जाते थे। फिरोज इलाहाबाद के रहने वाले थे और आज भी लोग उनकी पुण्यतिथि के दिन उनकी मजार पर जुटते हैं और उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है। दिल्ली में मृत्यु के बाद फिरोज गांधी की अस्थियों को इलाहाबाद लाया गया था और पारसी धर्म के रिवाजों के अनुसार वहां उनकी मजार बनाई गई।
फिरोज गांधी अच्छे खानपान के बेहद शौकीन थे। इलाहाबाद में फिरोज को जब भी फुर्सत मिलती थी वह लोकनाथ की गली में जाकर कचौड़ी तथा अन्य लजीज व्यंजन खाना पसंद करते थे। इसके अलावा हर आदमी से खुले दिल से मिलते थे। फिरोज गांधी का जन्म 12 अगस्त 1912 को मुंबई के एक पारसी परिवार में हुआ था। बाद में वह इलाहाबाद आ गए और उन्होंने एंग्लो वर्नाकुलर हाई स्कूल और इवनिंग क्रिश्चियन कालेज से पढ़ाई की। पढ़ाई के दौरान ही उनकी जान पहचान नेहरू परिवार से हुई। शिक्षा के लिए फिरोज बाद में लंदन स्कूल आफ इकोनामिक्स चले गये।
इंग्लैंड में पढ़ाई के दौरान फिरोज और इंदिरा गांधी के बीच घनिष्ठता बढ़ी। इसी दौरान कमला नेहरू के बीमार पड़ने पर वह स्विट्जरलैंड चले गये। कमला नेहरू के आखिरी दिनों तक वह इंदिरा के साथ वहीं रहे। फिरोज बाद में पढ़ाई छोड़कर वापस आ गए और मार्च 1942 में उन्होंने इंदिरा गांधी से हिन्दू रीति रिवाजों के अनुसार विवाह कर लिया। विवाह के मात्र छह महीने बाद भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान दंपत्ति को गिरफ्तार कर लिया गया। फिरोज को इलाहाबाद के नैनी जेल में एक साल कारावास में बिताना पड़ा। आजादी के बाद फिरोज नेशनल हेरल्ड समाचार पत्र के प्रबंध निदेशक बन गये। पहले लोकसभा चुनाव में वह रायबरेली से जीते। उन्होंने दूसरा लोकसभा चुनाव भी इसी संसदीय क्षेत्र से जीता। संसद में उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ कई मामले उठाये जिनमें मूंदड़ा मामला प्रमुख था। फिरोज गांधी का निधन 8 सितंबर 1960 को दिल्ली में दिल का दौरा पड़ने से हुआ।
***
***
दोहा सलिला
मित्र
*
निधि जीवन की मित्रता, करे सुखी-संपन्न
मित्र न जिसको मिल सके, उस सा कौन विपन्न.
*
सबसे अधिक गरीब वह, मिला न जिसको मित्र
गुल गुलाब जिससे नहीं, बन सकता हो इत्र
*
बिना स्वार्थ संबंध है, मन से मन का मित्र
मित्र न हो तो ज़िंदगी, बिना रंग का चित्र
१३-८-२०२०
***
नवगीत:
*
हल्ला-गुल्ला
शोर-शराबा
*
जंगल में
जनतंत्र आ गया
पशु खुश हैं
मन-मंत्र भा गया
गुराएँ-चीखें-रम्भाएँ
काँव-काँव का
यंत्र भा गया
कपटी गीदड़
पूजता बाबा
हल्ला-गुल्ला
शोर-शराबा
*
शतुरमुर्ग-गर्दभ
हैं प्रतिनिधि
स्वार्थ साधते
गेंडे हर विधि
शूकर संविधान
परिषद में
गिद्ध रखें
परदेश में निधि
पापी जाते
काशी-काबा
हल्ला-गुल्ला
शोर-शराबा
*
मानुष कैट-वाक्
करते हैं
भौंक-झपट
लड़ते-भिड़ते हैं
खुद कानून
बनाकर-तोड़ें
कुचल निबल
मातम करते हैं
मिटी रसोई
बसते ढाबा
हल्ला-गुल्ला
शोर-शराबा
***
एक दोहा
बाप, बाप के है सलिल, बच्चे कम मत मान
वे तुझसे आगे बहुत, खुद पर कर न गुमान
१३-८-२०१५
***
मुक्तक:
*
मापनी: २१२११ १२१११ २११
छंद: महासंस्कारी
बह्र: फाइलातुन मुफाईलुन फैलुन
*
रोकना मत चले सदन संसद
चेतना झट अगर रुके संसद
स्वार्थ साधन करें सतत जो दल
छोड़ना मत, गति भटक संसद
*
लीडरों! फिर बबाल करना मत
जो हुआ, अब धमाल करना मत
लोक का दुःख नहीं तनिक भी कम
शोक का इंतिज़ाम करना मत
*
पंडितों! तनिक राम भजिए अब
लोभ-लालच हराम तजिए अब
अस्थियाँ धरम की करम में लख
भूतभावन सदृश्य सजिए अब
१३-८-२०१३

*

सोमवार, 12 अगस्त 2024

अगस्त १२, सरस्वती, बधावा, मुकरी, तारकेश्वरी, हास्य, मैत्री, गीत, दोहा, नवगीत

सलिल सृजन अगस्त १२
*
सरस्वती वंदना:
*
संवत १६७७ में रचित ढोला मारू दा दूहा से सरस्वती वंदना का दोहा :
सकल सुरासुर सामिनी, सुणि माता सरसत्ति.
विनय करीन इ वीनवुं, मुझ घउ अविरल मत्ति..
(सकल स्वरों की स्वामिनी, सुनो सरस्वती मात
विनय करूँ सर नवा दो, अविरल मति सौगात)
*
अम्ब विमल मति दे.....
*
हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....
*
नन्दन कानन हो यह धरती।
पाप-ताप जीवन का हरती।
हरियाली विकसे.....
*
बहे नीर अमृत सा पावन।
मलयज शीतल शुद्ध सुहावन।
अरुण निरख विहसे.....
*
कंकर से शंकर गढ़ पायें।
हिमगिरि के ऊपर चढ़ जाएँ।
वह बल-विक्रम दे.....
*
हरा-भरा हो सावन-फागुन।
रम्य ललित त्रैलोक्य लुभावन।
सुख-समृद्धि सरसे.....
*
नेह-प्रेम से राष्ट्र सँवारें।
स्नेह समन्वय मन्त्र उचारें।
'सलिल' विमल प्रवहे.....
***
२.
हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....
जग सिरमौर बने माँ भारत.
सुख-सौभाग्य करे नित स्वागत.
आशिष अक्षय दे.....
साहस-शील हृदय में भर दे.
जीवन त्याग तपोमय करदे.
स्वाभिमान भर दे.....
*
लव-कुश, ध्रुव, प्रहलाद हम बनें.
मानवता का त्रास-तम् हरें.
स्वार्थ सकल तज दे.....
*
दुर्गा, सीता, गार्गी, राधा,
घर-घर हों काटें भव बाधा.
नवल सृष्टि रच दे....
*
सद्भावों की सुरसरि पावन.
स्वर्गोपम हो राष्ट्र सुहावन.
'सलिल' निरख हरषे...
***
३.
हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....
नाद-ब्रम्ह की नित्य वंदना.
ताल-थापमय सलिल-साधना
सरगम कंठ सजे....
*
रुन-झुन रुन-झुन नूपुर बाजे.
नटवर-नटनागर उर साजे.
रास-लास उमगे.....
*
अक्षर-अक्षर शब्द सजाये.
काव्य, छंद, रस-धार बहाये.
शुभ साहित्य सृजे.....
*
सत-शिव-सुन्दर सृजन शाश्वत.
सत-चित-आनंद भजन भागवत.
आत्मदेव पुलके.....
*
कंकर-कंकर प्रगटें शंकर.
निर्मल करें हृदय प्रलयंकर.
गुप्त चित्र प्रगटे.....
*
४.
हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....
*
कलकल निर्झर सम सुर-सागर.
तड़ित-ताल के हों कर आगर.
कंठ विराजे सरगम हरदम-
सदय रहें नटवर-नटनागर.
पवन-नाद प्रवहे...
*
विद्युत्छटा अलौकिक वर दे.
चरणों में गतिमयता भर दे.
अंग-अंग से भाव साधना-
चंचल चपल चारू चित कर दे.
तुहिन-बिंदु पुलके....
*
चित्र गुप्त, अक्षर संवेदन.
शब्द-ब्रम्ह का कलम निकेतन.
जियें मूल्य शाश्वत शुचि पावन-
जीवन-कर्मों का शुचि मंचन.
मन्वन्तर महके...
***
भक्ति गीत :
कहाँ गया
*
कहाँ गया रणछोड़ रे!
जला प्रेम की ज्योत
*
कण-कण में तू रम रहा
घट-घट तेरा वास.
लेकिन अधरों पर नहीं
अब आता है हास.
लगे जेठ सम तप रहा
अब पावस-मधुमास
क्यों न गूँजती बाँसुरी
पूछ रहे खद्योत
कहाँ गया रणछोड़ रे!
जला प्रेम की ज्योत
*
श्वास-श्वास पर लिख लिया
जब से तेरा नाम.
आस-आस में तू बसा
तू ही काम-अकाम.
मन-मुरली, तन जमुन-जल
व्यथित विधाता वाम
बिसराया है बोल क्यों?
मिला ज्योत से ज्योत
कहाँ गया रणछोड़ रे!,
जला प्रेम की ज्योत
*
पल-पल हेरा है तुझे
पाया अपने पास.
दिखता-छिप जाता तुरत
ओ छलिया! दे त्रास.
ले-ले अपनी शरण में
'सलिल' तिहारा दास
दूर न रहने दे तनिक
हम दोनों सहगोत
कहाँ गया रणछोड़ रे!
जला प्रेम की ज्योत
***
बधावा
*
***
नन्द घर आनंद है
गूँज रहा नव छंद है
नन्द घरा नंद है
*
मेघराज आल्हा गाते
तड़ित देख नर डर जाते
कालिंदी कजरी गाये
तड़प देवकी मुस्काये
पीर-धीर-सुख का दोहा
नव शिशु प्रगटा, मन मोहा
चौपाई-ताला डोला
छप्पय-दरवाज़ा खोला
बंबुलिया गाये गोकुल
कूक त्रिभंगी बन कोयल
बेटा-बेटी अदल-बदल
गया-सुन सोहर सम्हल-सम्हल
जसुदा का मुख चंद है
दर पर शंकर संत है
प्रगटा आनँदकंद है
नन्द घर आनंद है
गूँज रहा नव छंद है
नन्द घरा नंद है
*
काल कंस पर मँडराया
कर्म-कुंडली बँध आया
बेटी को उछाल फेंका
लिया नाश का था ठेका
हरिगीतिका सुनाई दिया
काया कंपित, भीत हिया
सुना कबीरा गाली दें
जनगण मिलकर ताली दें
भेद न वासुदेव खोलें
राई-रास चरण तोलें
गायें बधावा, लोरी, गीत
सुना सोरठा लें मन जीत
मति पापी की मन्द है
होना जमकर द्वन्द है
कटना भव का फंद
नन्द घर आनंद है
गूँज रहा नव छंद है
नन्द घरा नंद है
***
पुस्तक सलिला :
रसरंगिनी : मनसंगिनी
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण : रसरंगिनी, मुकरी संग्रह, तारकेश्वरी यादव 'सुधि', प्रथम संस्करण, वर्ष २०२०, आकार २१ से. मी. x १४ से. मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ ४८, मूल्य ६०रु., राजस्थानी ग्रंथागार प्रकाशन जोधपुर, रचनाकार संपर्क : truyadav44@gmailcom ]
*
भारतीय लोक साहित्य में आदिकाल से प्रश्नोत्तर शैली में काव्य सृजन की परंपरा अटूट है। नगरों की तुलना में कम शिक्षित और नासमझ समझे जानेवाले ग्रामीण मजदूर-किसानों ने काम की एकरसता और थकान को दूर करने के लिए मौसमी लोकगीत गाने के साथ-साथ एक दूसरे के साथ स्वस्थ्य छेड़-छाड़ कर ते हुए प्रश्नोत्तरी गायन के शैली विकसित की। इस शैली को समय-समय पर दिग्गज साहित्यकारों ने भी अपनाया। कबीर और खुसरो इस क्षेत्र में सर्वाधिक पुराने कवि हैं जिनकी रचनाएँ प्राप्त हैं। इन दोनों की प्रश्नोत्तरी रचनाएँ अध्यात्म से जुडी हैं। कबीर की रचनाओं में गूढ़ता है तो खुसरों की रचनाओं में लोक रंजकता। कबीर की रचनाएँ साखी हैं तो खुसरो की मुकरी। साखी में सीख देने का भाव है तो मुकरी में कुछ कहना और उससे मुकरने का भाव निहित है।
कबीर ने कहा -
चलती चाकी देखकर, दिया कबीरा रोय
दो पाटन के बीच में, साबित बचो न कोय
कबीर के पुत्र कमाल ने उत्तर दिया-
चलती चाकी देखकर दिया कमाल ठिठोय
जो तीली से लग रहा, मार सका नहीं कोय
ये दोनों दोहे द्विअर्थी हैं। कबीर के दोहे का सामान्य अर्थ है चक्की के दो पाटों के बीच में जो दाना पड़ा वह पिस जायेगा उसे कोई बचा नहीं सकता जबकि गूढ़ार्थ है ब्रह्म और माया के दो पाटों में पीसने से जीव की रक्षा कोई नहीं कर सकता। कमाल के दोहे का सामान्य अर्थ है कि दोनों पाटों से बचकर,चलती हुई चक्की की कीली (धुरी) से जो दाना चिपक गया वह नहीं पिसा, बच गया जबकि विशेषार्थ है संसार की चक्की में जो जीव ब्रह्म से प्रेम कर उससे अभिन्न हो गया उसका यम भी बाल-बाँका नहीं कर सकता।
शब्द कोष के अनुसार मुक़री, संज्ञा स्त्रीलिंग शब्द हैं जिसका अर्थ है एक पद्य जिसमें पहले कथन किया जाए फिर उसका खंडन किया जाए। वह कविता जिसमें प्रारंभिक चरणों में कही हुई बात से मुकरकर उसके अंत में भिन्न अभिप्राय व्यक्त किया जाय। यह कविता प्रायः चार चरणों की होती है इसके पहले तीन चरण ऐसे होते हैं; जिनका आशय दो जगह घट सकता है। इनसे प्रत्यक्ष रूप से जिस पदार्थ या व्यक्ति का आशय निकलता है, चौथे चरण में किसी और पदार्थ का नाम लेकर, उससे इनकार कर दिया जाता है । इस प्रकार मानो कही हुई बात से मुकरते हुए कुछ और ही अभिप्राय प्रकट किया जाता है।
मुकरी लोकप्रचलित पहेलियों का ही एक रूप है, जिसका लक्ष्य मनोरंजन के साथ-साथ बुद्धिचातुरी की परीक्षा लेना होता है। इसमें जो बातें कही जाती हैं, वे द्वयर्थक या श्लिष्ट होती है, पर उन दोनों अर्थों में से जो प्रधान होता है, उससे मुकरकर दूसरे अर्थ को उसी छन्द में स्वीकार किया जाता है, किन्तु यह स्वीकारोक्ति वास्तविक नहीं होती, कही हुई बात से मुकरकर उसकी जगह कोई दूसरी उपयुक्त बात बनाकर कह दी जाती है। जिससे सुननेवाला कुछ का कुछ समझने लगता है। मुकरी और पहेली में साम्य और वैषम्य दोनों है। पहेली में भी प्रश्न और उत्तर होता है किन्तु पहेली का उत्तर उसके पद्य का अंग नहीं होता अपितु पतंग की पूंछ की तरह उससे जुड़ा होकर भी अलग रहता है।
हिन्दी में अमीर खुसरो ने इस लोककाव्य-रूप को साहित्यिक रूप दिया। अलंकार की दृष्टि से इसे छेकापह्नुति कह सकते हैं, क्योंकि इसमें प्रस्तुत अर्थ को अस्वीकार करके अप्रस्तुत को स्थापित किया जाता है। इसे ‘कह-मुकरी’ अर्थात पहले कहना और फिर मुकर जाना भी कहते हैं। हिन्दी में अमीर खुसरो की मुकरियाँ प्रसिद्ध हैं। खुसरो इसके अंत में प्राय: 'सखी' या 'सखिया' भी कहते हैं । एक जीवंत उदाहरण देखें -
सगरि रैन वह मो संग जागा।
भोर भई तब बिछुरन लागा।
वाके बिछरत फाटे हिया।
क्यों सखि साजन? ना सखि दिया।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र रचित एक मुकरी का आनंद लें -
भीतर भीतर सब रस चूसै,
हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै।
जाहिर बातन मैं अति तेज,
क्यों सखि सज्जन?
नहिं अँगरेज।
इस सदी के आरंभ में मैंने भी कुछ मुकरियाँ कहीं। एक उदाहरण देखें -
इससे उसको जोड़ मिलाता
झटपट दूरी दूर भगाता
कोई स्वार्थ न कोई हेतु
क्या सखि साजन, ना सखि सेतु।
२०११ में प्रकाशित योगराज प्रभाकर रचित एक मुकरी देखें -
इस बिन तो वन उपवन सूना,
सच बोलूँ तो सावन सूना,
सूनी सांझ है सूनी भोर,
ए सखि साजन ? ना सखि मोर !
अगस्त २०१७ में मंतव्य पत्रिका ने डॉ. प्रदीप शुक्ल की ४८० मुकरियों को एक १६७ पृष्ठीय विशेषांक के रूप में प्रकाशित किया। एक मुकरी का अवलोकन करें -
जब आये वो धूम मचाये,
मुझको रातों रात जगाये,
जाने उससे कौन लगाव,
ए सखि साजन ? नहीं चुनाव!
इंजी. त्रिलोक सिंह ठकुरेला (मुकरी संग्रह आनंद मंजरी) ने भी मुकरी लेखन की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनकी कहमुकरी विषय वैविध्य की दृष्टी से महत्वपूर्ण हैं। एक बानगी पेश है-
जैसे चाहे वह तन छूता।
उसको रोके, किसका बूता।
करता रहता अपनी मर्जी।
क्या सखि, साजन ? ना सखि, दर्जी।
कह मुकरियाँ सृजन के क्रम की नवीनतम कड़ी हैं तारकेश्वरी यादव 'सुधि' जिन्होंने १२० मुकरियों का संग्रह 'रसरंगिनी' शीर्षक से प्रकाशित किया है। इन मुकरियों में शिल्प की दृष्टि से चार पंक्तियाँ हैं जिनमें १६-१६ मात्राएँ हैं। प्रथम दो पंक्तियों में सामान तुकांत है जबकि शेष दो पंक्तियों में भिन्न समान तुकांत है। अंतिम पंक्ति का आठ मात्रिक प्रथम चरण प्रश्न का उत्तर देते हुए पूर्ण होता है जबकि आठ मात्रिक दूसरे चरण में इसे नकार कर वैकल्पिक उत्तर दिया जाता है। पूर्ववर्ती कवियों ने भिन्न छंदों, पंक्ति संख्या तथा यति का प्रयोग किया है किंतु सुधि जी ने आजकल प्रचलि सोलह मात्रिक चार चरणों में ही मुकरी कही है। इस संग्रह में ईश्वर, डॉक्टर, डाकिया, मनिहार, मालिन, चौकीदार, आँगन, सपना, पायल, दर्पण, काजल, सागर, बसंत, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, बेलन, मंच्छर, आदि पारंपरिक विषयों के साथ-साथ गूगल, मोबाइल, डायरी, चाय, हलवा, टेलीविजन जैसी दैनंदिन उपयोग की वस्तुओं पर भी मुकरियाँ कही गयीं हैं।
तारकेश्वरी की मुकरियों की 'कहन' सहज बोध गम्य है। उनकी भाषा सरल है। वे क्लिष्ट शब्दों का उपयोग न कर मुकरी के रसानंद में पाठक को निमग्न होने देती हैं।
जब भी बैठा थाम कलाई
मैं मन ही मन में इतराई
नहीं कर पाती मैं प्रतिकार
क्या सखि साजन? नहीं, मनिहार
प्रकृति के उपादान बादल सागर, अँधेरा, आदि उन्हें प्रिय हैं।
रात गए वह घर में आता
सुबह सदा ही जल्दी जाता
दिन में जाने किधर बसेरा
काया सखि साजन? नहीं अँधेरा
किसी वास्तु के लक्षणों के मध्यान से उसका शब्दांकन करना मुकरी की विशेषता है। तारकेश्वरी इस कला में दक्ष हैं -
जैसी हूँ वैसी बतलाये
सत्य बोलना उसे सुहाए
मेरा मुझको करता अर्पण
क्या सखि साजन? ना सखी दर्पण
सप्ताह के छह दिन काम करने के बाद इतवार की सब को प्रतीक्षा रहती है। तारकेश्वरी की मुकरी भी अपवाद नहीं है -
जब वह आता देता खुशियाँ
बात जोहती मेरी अँखियाँ
फरमाइश का लगे अंबार
क्या सखि साजन? नहीं इतवार
सुगृहणी का काम छलनी के बिना नहीं चलता, 'सार सार को गहि रहे' जैसे गुण की धनी छलनी पर मुकरी में 'मनहरनी' शब्द का प्रयोग नवता लिए है-
सार-सार वह मुझको देती
अपशिष्टों को खुद रख लेती
इसीलिये है वह मनहरनी
क्या प्रिय सजनी? ना प्रिय छलनी
सुबह उठते ही चाय के तलब सबको लगती है। 'चाय' पर मुकरी अच्छी बन पड़ी है -
जब भी होठों को छू जाए
तन-मन की सब थकन मिटाए
उसका कोई नहीं पर्याय
क्या सखि साजन? ना सखि चाय
टेलीविजन आजकल जीवन की अनिवार्यता बन गया है। तारकेश्वरी का मुकरी लोक भला कैसे इससे दूर रह सकता है? इसमें अंतिम पंक्ति मात्राधिक्य की शिकार हो गयी है।
जब मैं चाहूँ तब वह बोले
अगर रोक दूँ मुँह ना खोले
अक्सर वह बहलाता है मन
क्या सखि साजन ? ना सखि टेलीविजन
बिखरते परिवार और घर-घर में उठी दीवार एक अप्रिय सत्य है। तारकेश्वरी मुकरी में इस स्थिति से आँखें चार करती हैं-
खंडित करती भाई चारा
पल में कर दे वह बँटवारा
बिखरा देती घर-परिवार
क्या सखी साजन? नहीं दीवार
मीरा पर मुकरी कहते समय तारकेश्वरी 'प्रेम दीवानी' विशेषण का प्रयोग करती हैं।
वह तो पगली प्रेम दीवानी
समझाया पर बात न मानी
उसे लुभाये ढोल मंजीरा
क्या प्रिय सजनी? नाप्रिय मीरा
मुकरी विधा को समृद्ध करने में तारकेश्वरी 'सुधि' का अवदान महत्वपूर्ण है। उन्हें बधाई। अपवाद स्वरूप मात्राधिक्य व लयभंग के बावजूद इन मुकरियों में पाठक को बाँधने की सामर्थ्य है।
***
विमर्श: बचाओ पर्वत, घाटी, जमीन और सागर
महासागरों का पानी पीने-योग्य मीठा व पौष्टिक होता तो सम्भवतय इंसान पर्वतों को समतल करके गगनचुंबी होटल्स, मोल्स, फ्लैट्स बनाकर नदियों को विलुप्त करवाकर उनकी तलछटी में झुग्गी-झोंपड़ियाँ बसा चूका होता; महासागरों को गट्टर में बदलकर फेसबुक-युग आने से पहले विलुप्त हो चूका होता! सौभाग्य से महासागरों का पानी खारा और लवणीय है; पीने के योग्य नहीं है; महासागरों की बदौलत पर्वतों की चोटियों पर जमा हुई बर्फ पिघलकर नदियों के रूप में बहती है और धरती पर जीवन का आधार बनती है! बर्फ पिघलने से बना पानी मीठा तो होता है लेकिन उसमें पौष्टिकता पर्वतों की वनस्पति व पत्थरों से आती है! मीठे-पौष्टिक पानी हेतु पर्वतों व पर्वतों की प्राकृतिक सुन्दरता, रमणीयता व स्वच्छता को सुरक्षित व संरक्षित करना यानी पर्वतों एवं नदियों के बहाव-क्षेत्रों में आवाजाही, आवास व उद्योगीकरण को नियंत्रित रखना अत्यंत ही जरूरी है! जीवन है तो सबकुछ है यानी पर्वतों व नदियों के संरक्षण के सामने हिंदुत्व, इस्लाम, राष्ट्रवाद आदि शब्द महत्वहीन हैं! >>> तथाकथित राजनीतिज्ञ व नेता राजनीति की किताब को ‘राजनीतिक-विज्ञान’ तो कहते हैं, लेकिन राजनीति करते समय ‘विज्ञान’ को भूल जाते हैं! फलस्वरूप राजनीति पर ‘अज्ञानता’ व ‘मूर्खता’ हावी होकर भारतीय-उपमहाद्वीप का दुर्भाग्य बनकर उभरती है; धूर्तता, पाखण्ड, नौटंकी की बदौलत लोकतंत्र कब्बडी की प्रतियोगिता जैंसा बन गया है; नासमझ भावुक आमजन इस कब्बडी-प्रतियोगिता में चलरही दांव-पेच से मंत्रमुग्ध होकर सबकुछ भूल जाता है: नेताओं के आका पूंजीपति अपना सिट्टा-सेककर साफसुथरी रमणीक जगह पर रैनबसेरा बनाकर ठाठ से रहते हैं! >>> पर्वतों व नदियों के बहाव-क्षेत्रों में आवाजाही, आवास व उद्योगीकरण बढ़ने का ही परिणाम है कि आम-इंसान की औसत प्राकृतिक-आयु 40 वर्ष है, 40 के बाद उसकी औषधीय-आयु शुरू हो जाती है!
१२.८.२०२०
***
हास्य रचना:
उल्लू उवाच
मुतके दिन मा जब दिखो, हमखों उल्लू एक.
हमने पूछी: "कित हते बिलमे? बोलो नेंक"
बा बोलो: "मुतके इते करते रैत पढ़ाई.
दो रोटी दे नई सके, बो सिच्छा मन भाई.
बिन्सें ज्यादा बड़े हैं उल्लू जो लें क्लास.
इनसें सोई ज्यादा बड़े, धरें परिच्छा खास.
इनसें बड़े निकालते पेपर करते लीक.
औरई बड़े खरीदते कैते धंधा ठीक.
करें परीच्छा कैंसिल बिन्सें बड़े तपाक.
टीवी पे इनसें बड़े, बैठ भौंकते आप.
बिन्सें बड़े करा रए लीक काण्ड की जाँच.
फिर से लेंगे परिच्छा, और बड़े रए बाँच
इतने उल्लुन बीच में अपनी का औकात?
एई काजे लुके रए, जान बचाखें भ्रात.
***
गीत:
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
*
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
*
होनी-अनहोनी कब रुकती?
सुख-दुःख नित आते-जाते हैं.
जैसा जो बीते हैं हम सब
वैसा फल हम नित पाते हैं.
फिर क्यों एक दिवस मैत्री का?
कारण कृपया, मुझे बतायें
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
*
मन से मन की बात रुके क्यों?
जब मन हो गलबहियाँ डालें.
अमराई में झूला झूलें,
पत्थर मार इमलियाँ खा लें.
धौल-धप्प बिन मजा नहीं है
हँसी-ठहाके रोज लगायें.
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
*
बिरहा चैती आल्हा कजरी
झांझ मंजीरा ढोल बुलाते.
सीमेंटी जंगल में फँसकर-
क्यों माटी की महक भुलाते?
लगा अबीर, गायें कबीर
छाछ पियें मिल भंग चढ़ायें.
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
*
गीत
करो आचमन.
*
भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर,
अवगाहो या करो आचमन .
*
जीव सभ्यता ने ध्वनियों को
जब पहचाना
चेतनता ने भाव प्रगट कर
जुड़ना जाना.
भावों ने हरकर अभाव हर
सचमुच माना-
मिलने-जुलने से नव रचना
करना ठाना.
ध्वनि-अंकन हित अक्षर आये
शब्द बनाये
मानव ने नित कर नव चिंतन.
भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर,
अवगाहो या करो आचमन .
*
सलिला की कलकलकल सुनकर
मन हर्षाया.
सांय-सांय सुन पवन झकोरों की
उठ धाया.
चमक दामिनी की जब देखी, तब
भय खाया.
संगी पा, अपनी-उसकी कह-सुन
हर्षाया.
हुआ अचंभित, विस्मित, चिंतित,
कभी प्रफुल्लित
और कभी उन्मन अभिव्यंजन.
भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर,
अवगाहो या करो आचमन .
*
कितने पकडे, कितने छूटे
शब्द कहाँ-कब?
कितने सिरजे, कितने लूटे
भाव बता रब.
अपना कौन?, पराया किसको
कहो कहें अब?
आये-गए कहाँ से कितने
जो बोलें लब.
थाती, परिपाटी, परंपरा
कुछ भी बोलो
पर पालो सबसे अपनापन.
भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर,
अवगाहो या करो आचमन .
* * *
नवगीत
*
हैं स्वतंत्र पर
तंत्र न अपना
दाल दले छाती पर
*
गए विदेशी दूर
स्वदेशी अफसर
हुए पराए.
सत्ता-सुविधा लीन
हुए जन प्रतिनिधि
खेले-खाए.
कृषक, श्रमिक,
अभियंता शोषित
शिक्षक है अस्थाई.
न्याय व्यवस्था
अंधी-बहरी, है
दयालु नाती पर
हैं स्वतंत्र पर
तंत्र न अपना
दाल दले छाती पर
*
अस्पताल है
डॉक्टर गायब
रोगी राम भरोसे.
अंगरेजी में
मँहगी औषधि
लिखें, कंपनी पोसे.
दस प्रतिशत ने
अस्सी प्रतिशत
देश संपदा पाई.
देशभक्त पर
सौ बंदिश हैं
कृपा देश-घाती पर
हैं स्वतंत्र पर
तंत्र न अपना
दाल दले छाती पर
***
गीत
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है...
*
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है...
*
प्रतिभा मेघा दीप्ति उजाला
शुभ या अशुभ नहीं होता है.
वैसा फल पाता है साधक-
जैसा बीज रहा बोता है.
शिव को भजते राम और
रावण दोनों पर भाव भिन्न है.
एक शिविर में नव जीवन है
दूजे का अस्तित्व छिन्न है.
शिवता हो या भाव-भक्ति हो
सबको अब तक प्रार्थनीय है.
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है.....
*
अन्न एक ही खाकर पलते
सुर नर असुर संत पशु-पक्षी.
कोई अशुभ का वाहक होता
नहीं किसी सा है शुभ-पक्षी.
हो अखंड या खंड किन्तु
राकेश तिमिर को हरता ही है.
पूनम और अमावस दोनों
संगिनीयों को वरता भी है
भू की उर्वरता-वत्सलता
'सलिल' सभी को अर्चनीय है.
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है.
*
कौन पुरातन और नया क्या?
क्या लाये थे?, साथ गया क्या?
राग-विराग सभी के अन्दर-
क्या बेशर्मी और हया क्या?
अतिभोगी ना अतिवैरागी.
सदा जले अंतर में आगी.
नाश और निर्माण संग हो-
बने विरागी ही अनुरागी.
प्रभु-अर्पित निष्काम भाव से
'सलिल'-साधना साधनीय है.
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है.
१२.८.२०१७
***
दोहा सलिला
गले मिले दोहा यमक
संजीव
देव! दूर कर बला हर, हो न करबला और
जाई न हो अन्याय अब, चले न्याय का दौर
*
'सलिल' न हो नवजात की, अब कोई नव जात
मानव मानव एक हो, भेद रहे अज्ञात
*
अबला सबला या बला, बतलायेगा कौन?
बजे न तबला शीश पर, बेहतर रहिए मौन
१२.८.२०१४
***
गीत:
चुनौतियों के आँधी-तूफां.....
*
चुनौतियों के आँधी-तूफां मुझको किंचित डिगा न पाये.
अपने सपने पतझर में इस तरह झरे वीरान कर गये ...
*
संबंधों की मृग-मरीचिका, अनुबंधों के मिले भुलावे.
स्नेह-प्रेम का ओढ़ आवरण, पग-पग पर छल गए छलावे..
अनजाने लगते अपने हैं, अपने अपनापन सपने हैं.
छेद हुआ पेंदी में जिनके, बेढब दुनियावी नपने हैं..
अपनी-अपनी कहें बेसुरे, कोई किसी की नहीं सुन रहा.
हाय! इमारत का हर पत्थर, अलग-अलग निज शीश धुन रहा..
सत्ता-सियासती मौसम में, बिन मारे सद्भाव मर गए.
अपने सपने पतझर में इस तरह झरे वीरान कर गये ...
*
अपने मत को सत्य मानना, मीता! बहुत सहज होता है.
केवल अपना सच ही सच है, जो कहता सच को खोता है..
अलग-अलग सुर-ताल मिलें जब, राग-रागिनी तब बन पाती.
रंग-बिरंगे तरह-तरह के, फूलों से बगिया सज पाती..
अपनी सीमा निर्धारित कर, कैद कर रहे खुद ही खुद को.
मन्दिर में भगवान समाता, कैसे? पूज रहे हैं बुत को..
पूर्वाग्रह की सुदृढ़ बेड़ियाँ, जेवर कहकर पहन घर गए.
अपने सपने पतझर में इस तरह झरे वीरान कर गये ...
*
बड़े-बड़े घावों पर मलहम, समय स्वयं ही रहा लगता.
भूली-बिसरी याद दिला मन, चोटों पर कर चोट दुखाता..
निर्माणों की पूर्व पीठिका, ध्वंस-नाश में ही होती है.
हर सिकता-कण, हर चिनगारी, जीवन की वाहक होती है..
कंकर-कंकर को शंकर कर, प्रलयंकर अभ्यंकर होता.
विधि-शारद, हरि-श्री शक्तित हों, तब जागृत मन्वन्तर होता.
रतिपति मति-गति अभिमंत्रित कर, क्षार हुए, साहचर्य वर गए.
अपने सपने पतझर में इस तरह झरे वीरान कर गये ...
१२-८-२०१०
***

रविवार, 11 अगस्त 2024

अगस्त ११ , बाल गीत, माँ, मुक्तिका, दोहा, निबंध, राखी, लघुकथा, शारदा, हिन्दी

सलिल सृजन अगस्त ११
*
हिन्दी जनवाणी जगवाणी
हिंदी माँ अनुपम कल्याणी
हिंदी सीखें बोलें लिख पढ़
हिंदीभाषी भाग्य आप गढ़
हिंदी सद्भावों की भाषा
हिंदी जन-गण मन की आशा
हिंदी सरल सुग्राह्य सहज है
हिंदी चार धाम है, हज है
हिंदी ममता स्नेह प्रेम है
हिंदी सबकी खैर-क्षेम है
हिंदी का परिवार सृष्टि है
हिंदी आप शीत वृष्टि है
हिंदी भाषा नेह नर्मदा
हिंदी भाषी रहें सर्वदा
११.८.२०२४
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शारद वंदन
*
आरती करो, अनहद की करो, सरगम की, मातु शारद की,
आरती करो शारद की...
*
वसन सफेद पहननेवाली, हंस-मोर पर उड़नेवाली।
कला-ग्यान-विग्यान प्रदात्री, विपद हरो निज जन की।।
आरती करो शारद की...
*
महामयी जय-जय वीणाधर, जयगायनधर, जय नर्तनधर।
हो चित्रण की मूल मिटाओ, दुविधा नव सर्जन की।।
आरती करो शारद की...
*
भाव-कला-रस-ग्यान वाहिनी, सुर-नर-किन्नर-असुर भावनी।
दस दिश हर अग्यान, ग्यान दो,
मूल ब्रह्म-हरि-हर की।
आरती करो शारद की...
***
दोहा सलिला:
*
रक्षा किसकी कर सके, कहिये जग में कौन?
पशुपतिनाथ सदय रहें, रक्षक जग के मौन
*
अविचारित रचनाओं का, शब्दजाल दिन-रात
छीन रहा सुख चैन नित, बचा शारदा मात
*
अच्छे दिन मँहगे हुए, अब राखी-रूमाल
श्रीफल कैसे खरीदें, जेब करे हड़ताल
*
कहीं मूसलाधार है, कहीं न्यून बरसात
दस दिश हाहाकार है, गहराती है रात
*
आ रक्षण कर निबल का, जो कहलाये पटेल
आरक्षण अब माँगते, अजब नियति का खेल
*
आरक्षण से कीजिए, रक्षा दीनानाथ
यथायोग्य हर को मिले, बढ़ें मिलकर हाथ
*
दीप्ति जगत उजियार दे, करे तिमिर का अंत
श्रेय नहीं लेती तनिक, ज्यों उपकारी संत.
*
तन का रक्षण मन करे, शांत लगाकर ध्यान
नश्वर को भी तब दिखें अविनाशी भगवान
*
कहते हैं आज़ाद पर, रक्षाबंधन-चाह
रपटीली चुन रहे हैं, अपने सपने राह
*
सावन भावन ही रहे, पावन रखें विचार
रक्षा हो हर बहिन की, बंधन तब त्यौहार
*
लघुकथा
पहल
*
आपके देश में हर साल अपनी बहिन की रक्षा करने का संकल्प लेने का त्यौहार मनाया जाता है फिर भी स्त्रियों के अपमान की इतनी ज्यादा घटनाएँ होती हैं। आइये! अपनी बहिन के समान औरों की बहनों के मान-सम्मान की रक्षा करने का संकल्प भी रक्षबंधन पर हम सब लें।
विदेशी पर्यटक से यह सुझाव आते ही सांस्कृतिक सम्मिलन के मंच पर छा गया मौन, अपनी-अपनी कलाइयों पर रक्षा सूत्रों का प्रदर्शन करते अतिथियों में कोई भी नहीं कर सका यह पहल।
***
लघुकथा:
समय की प्रवृत्ति
*
'माँ! मैं आज और अभी वापिस जा रही हूँ।'
"अरे! ऐसे... कैसे?... तुम इतने साल बाद राखी मनाने आईं और भाई को राखी बाँधे बिना वापिस जा रही हो? ऐसा भी होता है कहीं? राखी बाँध लो, फिर भैया तुम्हें पहुँचा आयेगा।"
'भाई इस लायक कहाँ रहा कहाँ कि कोई लड़की उसे राखी बाँधे? तुम्हें मालूम तो है कि कल रात वह कार से एक लड़की का पीछा कर रहा था। लड़की ने किसी तरह पुलिस को खबर की तो भाई पकड़ा गया।'
"तुझे इस सबसे क्या लेना-देना? तेरे पिताजी नेता हैं, उनके किसी विरोधी ने यह षड्यंत्र रचा होगा। थाने में तेरे पिता का नाम जानते ही पुलिस ने माफी माँग कर छोड़ भी तो दिया। आता ही होगा..."
'लेना-देना क्यों नहीं है? पिताजी के किसी विरोधी का षययन्त्र था तो भाई नशे में धुत्त कैसे मिला? वह और उसका दोस्त दोनों मदहोश थे।कल मैं भी राखी लेने बाज़ार गयी थी, किसी ने फब्ती कस दी तो भाई मरने-मरने पर उतारू हो गया।'
"देख तुझे कितना चाहता है और तू?"
'अपनी बहिन को चाहता है तो उसे यह नहीं पता कि वह लड़की भी किसी भाई की बहन है। वह अपनी बहन की बेइज्जती नहीं सह सकता तो उसे यह अधिकार किसने दिया कि किसी और की बहन की बेइज्जती करे। कल तक मुझे उस पर गर्व था पर आज मुझे उस पर शर्म आ रही है। मैं ससुराल में क्या मुँह दिखाऊँगी? भाई ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा। इसीलिए उसके आने के पहले ही चले जाना चाहती हूँ।'
"क्या अनाप-शनाप बके जा रही है? दिमाग खराब हो गया है तेरा? मुसीबत में भाई का साथ देने की जगह तमाशा कर रही है।"
'तुम्हें मेरा तमाशा दिख रहा है और उसकी करतूत नहीं दिखती? ऐसी ही सोच इस बुराई की जड़ है। मैं एक बहन का अपमान करनेवाले अत्याचारी भाई को राखी नहीं बाँधूँगी।' 'भाई से कह देना कि अपनी गलती मानकर सच बोले, जेल जाए, सजा भोगे और उस लड़की और उसके परिवार वालों से क्षमायाचना करे। सजा भोगने और क्षमा पाने के बाद ही मैं उसे मां सकूँगी अपना भाई और बाँध सकूँगी राखी। सामान उठाकर घर से निकलते हुए उसने कहा- 'मैं अस्वीकार करती हूँ 'समय की प्रवृत्ति' को।
***
***
दोहा सलिला:
अलंकारों के रंग-राखी के संग
*
राखी ने राखी सदा, बहनों की मर्याद.
संकट में भाई सदा, पहलें आयें याद..
राखी= पर्व, रखना.
*
राखी की मक्कारियाँ, राखी देख लजाय.
आग लगे कलमुँही में, मुझसे सही न जाय..
राखी= अभिनेत्री, रक्षा बंधन पर्व.
*
मधुरा खीर लिये हुए, बहिना लाई थाल.
किसको पहले बँधेगी, राखी मचा धमाल..
*
अक्षत से अ-क्षत हुआ, भाई-बहन का नेह.
देह विदेहित हो 'सलिल', तनिक नहीं संदेह..
अक्षत = चाँवल के दाने,क्षतिहीन.
*
रो ली, अब हँस दे बहिन, भाई आया द्वार.
रोली का टीका लगा, बरसा निर्मल प्यार..
रो ली= रुदन किया, तिलक करने में प्रयुक्त पदार्थ.
*
बंध न सोहे खोजते, सभी मुक्ति की युक्ति.
रक्षा बंधन से कभी, कोई न चाहे मुक्ति..
*
हिना रचा बहिना करे, भाई से तकरार.
हार गया तू जीतकर, जीत गयी मैं हार..
*
कब आएगा भाई? कब, होगी जी भर भेंट?
कुंडी खटकी द्वार पर, भाई खड़ा ले भेंट..
भेंट= मिलन, उपहार.
*
मना रही बहिना मना, कहीं न कर दे सास.
जाऊँ मायके माय के, गले लगूँ है आस..
मना= मानना, रोकना, माय के=माता-पिता का घर, माँ के
*
गले लगी बहिना कहे, हर संकट हो दूर.
नेह बर्फ सा ना गले, मन हरषे भरपूर..
गले=कंठ, पिघलना.
***
राखी पर एक रचना -
बंधनों से मुक्त हो जा
*
बंधनों से मुक्त हो जा
कह रही राखी मुखर हो
कभी अबला रही बहिना
बने सबला अब प्रखर हो
तोड़ देना वह कलाई
जो अचाहे राह रोके
काट लेना जुबां जो
फिकरे कसे या तुझे टोंके
सासरे जा, मायके से
टूट मत, संयुक्त हो जा
कह रही राखी मुखर हो
बंधनों से मुक्त हो जा
*
बलि न तेरे हौसलों को
रीति वामन कर सके अब
इरादों को बाँध राखी
तू सफलता वर सके अब
बाँध रक्षा सूत्र तू ही
ज़िंदगी को ज़िंदगी दे
हो समर्थ-सुयोग्य तब ही
समय तुझको बन्दगी दे
स्वप्न हर साकार करने
कोशिशों के बीज बो जा
नयी फसलें उगाना है
बंधनों से मुक्त हो जा
*
पूज्य बन जा राम राखी
तुझे बाँधेगा जमाना
सहायक हो बँधा लांबा
घरों में रिश्ते जिलाना
वस्त्र-श्रीफल कर समर्पित
उसे जो सब योग्य दिखता
अवनि की हर विपद हर ले
शक्ति-वंदन विश्व करता
कसर कोई हो न बाकी
दाग-धब्बे दिखे धो जा
शिथिल कर दे नेह-नाते
बंधनों से मुक्त हो जा
***
विशेष आलेख-
रक्षाबंधन : कल, आज और कल
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भारतीय लोक मनीषा उत्सवधर्मी है। ऋतु परिवर्तन, पवित्र तिथियों-मुहूर्तों, महापुरुषों की जयंतियों आदि प्रसंगों को त्यौहारों के रूप में मनाकर लोक मानस अभाव पर भाव का जयघोष करता है। ग्राम्य प्रथाएँ और परंपराएँ प्रकृति तथा मानव के मध्य स्नेह-सौख्य सेतु स्थापना का कार्य करती हैं। नागरजन अपनी व्यस्तता और समृद्धता के बाद भी लोक मंगल पर्वों से संयुक्त रहे आते हैं। हमारा धार्मिक साहित्य इतिहास, धर्म, दर्शन और सामाजिक मूल्यों का मिश्रण है। विविध कथा प्रसंगों के माध्यम से सामाजिक जीवन में नैतिक मूल्यों के नियमन का कार्य पुराणादि ग्रंथ करते हैं। श्रावण माह में त्योहारों की निरंतरता जन-जीवन में उत्साह का संचार करती है। रक्षाबंधन, कजलियाँ और भाईदूज के पर्व भारतीय नैतिक मूल्यों और पावन पारिवारिक संबंधों की अनूठी मिसाल हैं।
सावन में झूम-झूम, डालों से लूम-लूम, झूला झूल दुःख भूल, हँसिए हँसाइये.
एक दूसरे की बाँह, गहें बँधें रहे चाह, एक दूसरे को चाह, कजरी सुनाइये..
दिल में रहे न दाह, तन्नक पले न डाह, मन में भरे उछाह, पेंग को बढ़ाइए.
राखी की है साखी यही, पले प्रेम-पाखी यहीं, भाई-भगिनी का नाता, जन्म भर निभाइए..
(विजया घनाक्षरी)
रक्षा बंधन क्यों ?
स्कंदपुराण, पद्मपुराण तथा श्रीमद्भागवत में वामनावतार प्रसंग के अनुसार दानवेन्द्र राजा बलि का अहंकार मिटाकर उसे जनसेवा के सत्पथ पर लाने के लिए भगवान विष्णु ने वामन रूप धारणकर भिक्षा में ३ पग धरती माँगकर तीन पगों में तीनों लोकों को नाप लिया तथा उसके मस्तक पर चरणस्पर्श कर उसे रसातल भेज दिया। बलि ने भगवान से सदा अपने समक्ष रहने का वर माँगा। नारद के सुझाये अनुसार इस दिन लक्ष्मी जी ने बलि को रक्षासूत्र बाँधकर भाई माना तथा विष्णु जी को वापिस प्राप्त किया।
महाबली बलि को था, गर्व हुआ संपदा का, तीन लोक में नहीं है, मुझ सा कोई धनी.
मनमानी करूँ भी तो, रोक सकता न कोई, हूँ सुरेश से अधिक, शक्तिवान औ' गुनी..
महायज्ञ कर दिया, कीर्ति यश बल लिया, हरि को दे तीन पग, धरा मौन था गुनी.
सभी कुछ छिन गया, मुख न मलिन हुआ, हरि की शरण गया, सेवा व्रत ले धुनी..
(कलाधर घनाक्षरी)
भवन विष्णु के छल को पहचान कर असुर गुरु शुक्राचार्य ने शिष्य बलि को सचेत करते हुए वामन को दान न देने के लिए चेताया पर बलि न माना। यह देख शुक्राचार्य सक्षम रूप धारणकर जल कलश की टोंटी में प्रवाह विरुद्ध कर छिप गए ताकि जल के बिना भू दान का संकल्प पूरा न हो सके। इसे विष्णु ने भाँप लिया। उनहोंने कलश की टोंटी में एक सींक घुसेड़ दी जिससे शुक्राचार्य की एक आँख फुट गयी और वे भाग खड़े हुए-
बाधा दनु-गुरु बने, विपद मेघ थे घने, एक नेत्र गँवा भगे, थी व्यथा अनसुनी.
रक्षा सूत्र बाँधे बलि, हरि से अभय मिली, हृदय की कली खिली, पटकथा यूँ बनी..
विप्र जब द्वार आये, राखी बांध मान पाये, शुभाशीष बरसाये, फिर न हो ठनाठनी.
कोई किसी से न लड़े, हाथ रहें मिले-जुड़े, साथ-साथ हों खड़े, राखी मने सावनी..
(कलाधर)
भविष्योत्तर पुराण के अनुसार देव-दानव युद्ध में इंद्र की पराजय सन्निकट देख उसकी पत्नी शशिकला (इन्द्राणी) ने तपकर प्राप्त रक्षासूत्र श्रवण पूर्णिमा को इंद्र की कलाई में बाँधकर उसे इतना शक्तिशाली बना दिया कि वह विजय प्राप्त कर सका।
गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- 'मयि सर्वमिदं प्रोक्तं सूत्रे मणिगणा इव' अर्थात जिस प्रकार सूत्र बिखरे हुए मोतियों को अपने में पिरोकर माला के रूप में एक बनाये रखता है उसी तरह रक्षासूत्र लोगों को जोड़े रखता है। प्रसंगानुसार विश्व में जब-जब नैतिक मूल्यों पर संकट आता है भगवान शिव प्रजापिता ब्रम्हा द्वारा पवित्र धागे भेजते हैं जिन्हें बाँधकर बहिने भाइयों को दुःख-पीड़ा से मुक्ति दिलाती हैं। भगवान कृष्ण ने महाभारत युद्ध में विजय हेतु युधिष्ठिर को सेना सहित रक्षाबंधन पर्व मनाने का निर्देश दिया था।
बागी थे हों अनुरागी, विरागी थे हों सुहागी, कोई भी न हो अभागी, दैव से मनाइए.
सभी के माथे हो टीका, किसी का न पर्व फीका, बहनों का नेह नीका, राखी-गीत गाइए..
कलाई रहे न सूनी, राखी बाँध शोभा दूनी, आरती की ज्वाल धूनी, अशुभ मिटाइए.
मीठा खाएँ मीठा बोलें, जीवन में रस घोलें, बहना के पाँव छूलें, शुभाशीष पाइए..
(कलाधर घनाक्षरी)
उत्तरांचल में इसे श्रावणी कहा जाता है तथा यजुर्वेदी विप्रों का उपकर्म (उत्सर्जन, स्नान, ऋषितर्पण आदि के पश्चात नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है।) राजस्थान में रामराखी (लालडोरे पर पीले फुंदने लगा सूत्र) भगवान को, चूड़ाराखी (भाभियों को चूड़ी में) या लांबा (भाई की कलाई में) बाँधने की प्रथा है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि में बहनें शुभ मुहूर्त में भाई-भाभी को तिलक लगाकर राखी बाँधकर मिठाई खिलाती तथा उपहार प्राप्त कर आशीष देती हैं।महाराष्ट्र में इसे नारियल पूर्णिमा कहा जाता है। इस दिन समुद्र, नदी तालाब आदि में स्नान कर जनेऊ बदलकर वरुणदेव को श्रीफल (नारियल) अर्पित किया जाता है। उड़ीसा, तमिलनाडु व् केरल में यह अवनिअवित्तम कहा जाता है। जलस्रोत में स्नानकर यज्ञोपवीत परिवर्तन व ऋषि का तर्पण किया जाता है।
बंधन न रास आये, बँधना न मन भाये, स्वतंत्रता ही सुहाये, सहज स्वभाव है.
निर्बंध अगर रहें, मर्याद को न गहें, कोई किसी को न सहें, चैन का अभाव है..
मना राखी नेह पर्व, करिए नातों पे गर्व, निभायें संबंध सर्व, नेह का निभाव है.
बंधन जो प्रेम का हो, कुशल का क्षेम का हो, धरम का नेम हो, 'सलिल' सत्प्रभाव है..
(कलाधर घनाक्षरी)
रक्षा बंधन से जुड़ा हुआ एक ऐतिहासिक प्रसंग भी है। राजस्थान की वीरांगना रानी कर्मावती ने राज्य को यवन शत्रुओं से बचने के लिए मुग़ल बादशाह हुमायूँ को राखी भेजी थी। राखी पाते ही हुमायूँ ने अपना कार्य छोड़कर बहिन कर्मवती की रक्षा के लिए प्रस्थान किया। विधि की विडंबना यह कि हुमायूँ के पहुँच पाने के पूर्व ही कर्मावती ने जौहर कर लिया, तब हुमायूँ ने कर्मवती के शत्रुओं का नाश किया।
संकट में लाज थी, गिरी सिर पे गाज थी, शत्रु-दृष्टि बाज थी, नैया कैसे पार हो?
करनावती महारानी, पूजतीं माता भवानी, शत्रु है बली बहुत, देश की न हार हो..
राखी हुमायूँ को भेजी, बादशाह ने सहेजी, बहिन की पत राखी, नेह का करार हो.
शत्रु को खदेड़ दिया, बहिना को मान दिया, नेह का जलाया दिया, भेंट स्वीकार हो..
(कलाधर घनाक्षरी )
रक्षा बंधन के दिन बहिन भाई के मस्तक पर कुंकुम, अक्षत के तिलक कर उसके दीर्घायु और समृद्ध होने की कामना करती है। भाई बहिन को स्नेहोपहारों से संतुष्ट कर, उसकी रक्षा करने का वचन देकर उसका आशीष पाता है।
कजलियाँ
कजलियां मुख्यरूप से बुंदेलखंड में रक्षाबंधन के दूसरे दिन की जाने वाली एक परंपरा है जिसमें नाग पंचमी के दूसरे दिन खेतों से लाई गई मिट्टी को बर्तनों में भरकर उसमें गेहूं बो दिये जाते हैं और उन गेंहू के बीजों में रक्षाबंंधन के दिन तक गोबर की खाद् और पानी दिया जाता है और देखभाल की जाती है, जब ये गेंहू के छोटे-छोटे पौधे उग आते हैं तो इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि इस बार फसल कैसी होगी, गेंहू के इन छोटे-छोटे पौधों को कजलियां कहते हैं। कजलियां वाले दिन घर की लड़कियों द्वारा कजलियां के कोमल पत्ते तोडकर घर के पुरूषों के कानों के ऊपर लगाया जाता है, जिससे लिये पुरूषों द्वारा शगुन के तौर पर लड़कियों को रूपये भी दिये जाते हैं। इस पर्व में कजलिया लगाकर लोग एक दूसरे की शुभकामनाये के रूप कामना करते है कि सब लोग कजलिया की तरह खुश और धन धान्य से भरपूर रहे इसी लिए यह पर्व सुख समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।
भाई दूज
कजलियों के अगले दिन भाई दूज पर बहिनें गोबर से लोककला की आकृतियाँ बनाती हैं। भटकटैया के काँटों को मूसल से कूट-कूटकर भाई के संकट दूर होने की प्रार्थना करती हैं। नागपंचमी, राखी, कजलियाँ और भाई दूज के पर्व चतुष्टय भारतीय लोकमानस में पारिवारिक संबंधों की पवित्रता और प्रकृति से जुड़ाव के प्रतीक हैं। पाश्चात्य मूल्यों के दुष्प्रभाव के कारण नई पीढ़ी भले ही इनसे कम जुड़ पा रही है पर ग्रामीणजन और पुरानी पीढ़ी इनके महत्व से पूरी तरह परिचित है और आज भी इन त्योहारों को मनाकर नव स्फूर्ति प्राप्त करती है।
***
निबंध
पावस पानी पयस्विनी
*
पावस ऋतुरानी का स्वागत कर पाना प्रकृति और पुरुष दोनों का सौभग्य है। सनातन काल से रमणियों के हृदय और कवि-लेखकों की कलम सृष्टि-चक्र के प्राण सदृश "पावस" की पवन छटा का प्रशस्ति गान भाव-भीने गीतों से करते हुए, धन्य होते रहे रहे हैं। पावस का धरागमन होते ही प्रकृति क्रमश: नटखट बालिका, चपल किशोरी, तन्वंगी षोडशी, लजाती नवोढ़ा व प्रौढ़ प्रगल्भा छवि लिए अठखेलियाँ करती, मुस्कुराती है, खिल-खिल कर हँसती है और मनोहर छटा बिखेरती हुई जल बिंदुओं के संग केलि क्रीड़ा करती प्रतीत होती है। पावस की अनुभूति विरह तप्त मानव मन को संयोग की सुधियों से आप्लावित और ओतप्रोत कर देती है।
पावस की प्रतीति होते ही कालिदास का यक्ष अपनी प्रिय को संदेश देने के लिए मेघ को दूत बनाकर भेजता है। तुलसी क्यों पीछे रहते? वे तो बारह से उफनती नदी में कूदकर बहते हुई शव को काष्ठ समझ उसके सहारे नदी पार कर प्रिय रत्नावली के समीप पहुँचकर सांसारिक सुख प्राप्ति की आकांशा करते है किंतु तुलसी प्रिया कामिनी मात्र न रहकर भामिनि हो जाती है। वह प्रिय की इष्ट पूर्ति के लिए, अपना खुद का अनिष्ट भी स्वीकार कर, समूची मानवता के कल्याण हेतु अपने स्वामी गोस्वामी को 'गो स्वामी' कहकर सकल सृष्टि के स्वामी श्री राम के पदपद्मों से प्रीत करने का पाठ पढ़ाने के सुअवसर को व्यर्थ नहीं जाने देतीं। गोस्वामी अपनी गोस्वामिनी के अनन्य त्याग को देखकर क्षण मात्र को स्तबध रह जाते हैं किंतु शीघ्र ही सम्हल कर प्रिया के मनोरथ को पूर्ण करने का हर संभव उपाय करते हैं। दैहिक मिलान को सर्वस्व जाननेवाले कैसे समझें की पावस हो या न हो, गोस्वामी और गोस्वामिनी के चक्षुओं से बहती जलधार तब तक नहीं थमी जब तक राम भक्ति की जल वर्षा से समूचे सज्जनों और उनकी सजनियों को सराबोर नहीं कर दिया।
पावस ऋतु के आते ही वसुधा में नव जीवन का संचार होता है। नभ पटल पर छाये मेघराज, अपनी प्रेयसी वसुधा से मिलने के लिए उतावला होकर घनश्याम बन जाते हैं और प्रेम-प्यासी की करुण ध्वनि चित्तौड़गढ़ के प्रासादों के पत्थरों को आह भरने के लिए विवश करती हुई टेरती है हैं- 'श्याम गहन घनश्याम बरसो बहुत प्यासी हूँ'।
धरा को मनुहारता घन-गर्जन सुनकर उसकी भामिनि दामिनी तर्जन द्वारा रोष व्यक्त कर सबका दिल ही नहीं दहलाती, तड़ितपात कर मेघराज को अपने कदम पीछे करने के लिए विवश भी कर देती है। मेघ को बिन बरसे जाते देख, पवन भी पीछे नहीं रहता और दिशाओं को नापता हुआ, तरुओं को झकझोरता हुआ, लताओं को छेड़ता हुआ अपने विक्रम का प्रदर्शन करता है। भीत तन्वंगी लताएँ हिचकती-लजाती अपने तरु साथियों से लिपटकर भय निवारण के साथ-साथ, नटवर को सुमिरती हुई जमुन-तट की रास लीला को मूर्त कारण में कसर नहीं छोड़तीं। बालिका वधु सी सरिता, पर्वत बाबुल के गृह से विदा होते समय चट्टान बंधुओं से भुज भेंटकर कलपती हुई, बालुका मैया के अंक में विलाप कर सांत्वना पाने का प्रयास करती है किंतु अंतत: प्रिय समुद्र की पुकार सुनकर, सबसे मुख फेरकर आगे बढ़ भी जाती है और उसकी इस यात्रा का पाथेय जुटाता है पावस अपनी प्रेयसी वर्षा का सबला पाकर।
प्रकृति की लीला अघटन घटना पचीयसी की तरह कुछ दिखलाती, कुछ छिपाती, होनी से अनहोनी और अनहोनी से होनी की प्रतीति कराने की तरह होती है। क्रमश: पीहर की सुधियों में डूबती-उतराती सलिला, सपनों के संसार में प्रिय से मिलन की आस लिए हुए, कुछ आशंकित कुछ उल्लसित होती हुई, मंथर गति से बढ़ चलती है। कोकिलादि सखियों की छेड़-छाड़ से लजाती नदी, बेध्यानी में फिसलकर पथ में आए गह्वर में गिर पड़ती है। तन की पीड़ा मन की व्यथा भुला देती है। कलकल करती लहरियों का निनाद सुनकर मुस्कुराती तरंगिणी मत्स्यादि ननदियों और दादुरादि देवरों से भौजी, भौजी सुनकर मनोविनोद करते हुए आगे बढ़ती जाती है। पल-पल, कदम दर कदम बढ़ते हुए, कब उषा दुपहरी में, दुपहरी संध्या में और संध्या रजनी में परिवर्तिति हो जाती, पता ही नहीं चला। न जाने कितने दिन-रात हो गए? नील गगन से कपसीले बादल शांति संदेश देते, रंग-बिरंगे घुड़पुच्छ बादल इंद्रधनुषी सपने दिखाते, वर्षामेघ अपने स्नेहाशीष से शैलजा को समृद्ध करते। भोर होते ही तीर पर प्रगट होकर प्रणाम करते भक्त, मंदिरों में बजती घण्टियाँ, गूँजती शंख ध्वनियाँ, भक्ति-भाव से भरी प्रार्थनाएँ सुनकर शैवलिनी के कर अनजाने ही जुड़ जाते और वह अपने आराध्य नीलकंठ शिव का स्मरण कर अपने जल में अवगाहन कर रहे नारी-नारियों के पाप-शाप मिटाने के लिए कृत संकल्पित होकर, सुग्रहणी की तरह क्षमाशील हो ममता मूर्ति बनकर कब सबकी श्रद्धा का पात्र बन गई, उसे पता ही न चला।
सब दिन जात न एक समान। प्रकृति पुत्र मनुज को श्रांत-क्लांत पाकर निर्झरिणी उसे अंक में पाते ही दुलारती-थपथपाती लेकिन यह देख आहत भी होती कि यह मनुज स्वार्थ और लोभवध दनुज से भी बदतर आचरण कर रहा है। मनुष्यों के कदाचार और दुराचार से त्रस्त वृक्षों की हत्या से क्षुब्ध शैवलिनी क्या करे यह सोच ही रही थी कि अपने बंधु-बांधवों, मिटटी के टीलों-चट्टानों तथा पितृव्य गिरी-शिखरों को खोदकर भूमिसात किए जाते देख प्रवाहिनी समझ गई कि लातों के देव बातों से नहीं मानते। कोढ़ में खाज यह कि खुद को सभ्य-सुसंस्कृत कहते नागर जनों ने नागों, वानरों, ऋक्षों, उलूकों, गंधर्वों आदि को पीछे छोड़ते हुए मैया कहते-कहते शिखरिणी के निर्मल-धवल आँचल को मल-मूत्र और कूड़े-कचरे का आगार बना दिया। नदी को याद आया कि उसके आराध्य शिव ही नहीं, आराध्या शिवा को भी अंतत: शस्त्र धारण कर दुराचारों और दुराचारियों का अंत कर अपनी ही बनाई सृष्टि को मिटाना पड़ा था। 'महाजनो येन गत: स पंथा:' का अनुकरण करते हुए जलमला ने उफनाते हुए अपना रौद्र रूप दिखाया, तटबंधों को तोड़कर मानव बस्तियों में प्रवेश किया और गगनचुंबी अट्टालिकाओं को भूमिसात कर मानवी निर्मित यंत्रों को तिनकों की तरह बहकर नष्ट कर दिया। गगन ने भी अपनी लाड़ली के साथ हुए अत्याचार से क्रुद्ध होकर बद्रीनाथ और केदारनाथ पर हनीमून मनाते युग्मों को मूसलाधार जल वृष्टि में बहाते हुए पल भर में निष्प्राण कर दिया। सघन तिमिर में होती बरसात ने उस भयंकर निशा का स्मरण करा दिया जब हैं को हाथ नहीं सूझता था। कालिंदी का शांत प्रवाह, उफ़न उफनकर जग को भयभीत कर रहा था। क्रुद्ध नागिन की तरह दौड़ती-फुँफकारती लहरें दिल दहला रही थीं। तब तो द्वापर में नराधम कंस के अनाचारों का अंत करने के लिए घनश्याम की छत्रछाया में स्वयं घनश्याम अवतरित हुए थे किन्तु अब इस कलिकाल में अमला-धवला बालुकावाहिनी को अपनी रक्षा आप ही करनी थी। मदांध और लोलुप नराधमों को काल के गाल में धकेलते हुए स्रोतस्विनी ने महाकाली का रूप धारण किया और सब कुछ मिटाना आरंभ कर दिया, जो भी सामने आया, वही नष्ट होता गया।
इतिहास स्वयं को दुहराता है (हिस्ट्री रिपीट्स इटसेल्फ), किसी कल्प में जगजननी गौरी द्वारा महाकाली रूप धारण करने पर सृष्टि को विनाश से बचाने के लिए स्वयं महाकाल शिव को उनके पथ में लेट जाना पड़ा था और अपने स्वामी शिव के वक्ष पर चरण स्पर्श होते ही शिवा का आक्रोश, पल भर में शांत हो गया था। जो नहीं करना था, वही कर दिया। मेरे स्वामी मेरे ही पगतल में? यह सोचते ही काली का गौरी भाव जाग्रुत हुई और इनकी जिह्वा बाहर निकल आई। यह मूढ़ मनुष्य उनकी पार्थिव पूजा तो करता है किंतु यह भूल जाता है कि पार्वती और शिखरिणी दोनों ही पर्वत सुता हैं। दोनों शिवप्रिया है, एक शिव के हृदयासीन होकर जगतोद्धार करती है तो दूसरी शिव के मस्तक से प्रवहकर जगपालन करती है। तब भी मेघ गरजे थे, तब भी बिजलियाँ गिरी थीं, तब भी पवन प्रवाह मर्यादा तोड़कर बहा था, अब भी यही सब कुछ हुआ। तब भी क्रुद्ध शिवप्रिया सृष्टि नाश को तत्पर थीं, अब भी शिवप्रिया सृष्टिनाश को उद्यत हो गयी थीं। शैलजा के अदम्य प्रवाह के समक्ष पेड़-पौधों की क्या बिसात?, विशाल गिरि शिखर और भीमकाय गगनचुंबी अट्टालिकाएँ भी तृण की तरह निर्मूल हुए जा रहे थे। तब भी भोले भंडारी को राह में आना पड़ा था, अब भी दयानिधान भोले भंडारी राह में आ गए कि सर्वस्व नाश न हो जाए। पावस और तटिनी दोनों शिवशंकर के आगे नतमस्तक हो शांत हो गए।
कभी वृंदा नामक गोपी के मुख से परम भगवत श्री परमानंद दास का काव्य मुखरित हुआ था-"फिर पछताएगी हो राधा, कित ते, कित हरि, कित ये औसर, करत-प्रेम-रस-बाधा!'' सलिल-प्रवाह शांत हुआ तो सलिला फिर पावस को साथ लेकर चल पड़ी सासरे की ओर। उसे शांत रखने के लिए सदाशिव घाट-घाट पर आ विराजे और सुशीला शिवात्मजा अपने तटों पर तीर्थ बसाते हुए पहुँच गई अपनी यात्रा के अंतिम पड़ाव पर। उसे फिर याद आ गए तुलसी जिन्होंने सरितनाथ की महिमा में त्रिलोकिजयी लंकाधिपति शिवभक्त दशानन से कहलवाया था था-
बाँध्यो जलनिधि नीरनिधि, जलधि सिंधु वारीश।
सत्य तोयनिधि कंपति, उदधि पयोधि नदीश।।
अपलक राह निहारते सागर ने असंख्य मणि-मुक्ता समर्पित कर प्राणप्रिया की अगवानी की। प्रतीक्षा के पल पूर्ण हुए, चिर मिलन की बेला आरंभ हुई। पितृव्य गगन और भ्रातव्य मेघ हर बरस सावन पर जलराशि का उपहार सलिला को देते रहे हैं, देते रहेंगे। हम संकुचित स्वार्थी मनुष्य अम्ल-विमल सलिल प्रवाह में पंक घोलते रहेंगे और पुण्य सलिला पंकजा, लक्ष्मी निवास बनकर सकल सृष्टि के चर-अचर जीवों की पिपासा शांत करती रहेगी। हमने अपने कुशल-क्षेम की चिंता है तो हम पावस, पानी और पयस्विनी के पुण्य-प्रताप को प्रणाम करें। रहीम तो कह ही गये हैं -
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरे, मोती मानुस चून।।
11-8-2021
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दोहा सलिला
*
जाते-जाते बता दें, क्यों थे अब तक मौन?
सत्य छिपा पद पर रहे, स्वार्थी इन सा कौन??
*
कुर्सी पाकर बंद थे, आज खुले हैं नैन.
हिम्मत दें भय-भीत को, रह पाए सुख-चैन.
*
वे मीठा कह कर गए, मिला स्नेह-सम्मान.
ये कड़वा कह जा रहे, क्यों लादे अभिमान?
*
कोयल-कौए ने कहे, मीठे-कडवे बोल.
कौन चाहता काग को?, कोयल है अनमोल.
*
मोहन भोग मिले मगर, सके न काग सराह.
देख छीछड़े निकलती, बरबस मुँह से आह.
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फ़िक्र न खल की कीजिए, करे बात बेबात.
उसके न रात दिन, और नहीं दिन रात.
*
जितनी सुन्दर कल्पना, उतना सुन्दर सत्य.
नैन नैन में जब बसें, दिखता नित्य अनित्य.
११-८-२०१७
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मुक्तिका:
मापनी: 212 212 212 212
छंद: महादैशिक जातीय, तगंत प्लवंगम
तुकांत (काफ़िआ): आ
पदांत (रदीफ़): चाहिये
बह्र: फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
*
बोलना छोड़िए मौन हो सोचिए
बागबां कौन हो मौन हो सोचिए
रौंदते जो रहे तितलियों को सदा
रोकना है उन्हें मौन हो सोचिए
बोलते-बोलते भौंकने वे लगे
सांसदी क्यों चुने हो मौन हो सोचिए
आस का, प्यास का है हमें डर नहीं
त्रास का नाश हो मौन हो सोचिए
देह को चाहते, पूजते, भोगते
खुद खुदी चुक गये मौन हो सोचिए
मंदिरों में तलाशा जिसे ना मिला
वो मिला आत्म में ही छिपा सोचिए
छोड़ संजीवनी खा रहे संखिया
मौत अंजाम हो मौन हो सोचिए
11-8-2015
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मुक्तिका:
हाथ में हाथ रहे...
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हाथ में हाथ रहे, दिल में दूरियाँ आईं.
दूर होकर ना हुए दूर- हिचकियाँ आईं..
चाह जिसकी न थी, उस घर से चूड़ियाँ आईं..
धूप इठलाई तनिक, तब ही बदलियाँ आईं..
गिर के बर्बाद ही होने को बिजलियाँ आईं.
बाद तूफ़ान के फूलों पे तितलियाँ आईं..
जीते जी जिद ने हमें एक तो होने न दिया.
खाप में मेरे, तेरे घर से पूड़ियाँ आईं..
धूप ने मेरा पता जाने किस तरह पाया?
बदलियाँ जबके हमेशा ही दरमियाँ आईं..
कह रही दुनिया बड़ा, पर मैं रहा बच्चा ही.
सबसे पहले मुझे ही दो, जो बरफियाँ आईं..
दिल मिला जिससे, बिना उसके कुछ नहीं भाता.
बिना खुसरो के न फिर लौट मुरकियाँ आईं..
नेह की नर्मदा बहती है गुसल तो कर लो.
फिर न कहना कि नहीं लौट लहरियाँ आईं..
११-८-२०१०
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बाल गीत :
अपनी माँ का मुखड़ा.....
*
मुझको सबसे अच्छा लगता
अपनी माँ का मुखड़ा.....
*
सुबह उठाती गले लगाकर,
फिर नहलाती है बहलाकर.
आँख मूँद, कर जोड़ पूजती
प्रभु को सबकी कुशल मनाकर.
देती है ज्यादा प्रसाद फिर
सबकी नजर बचाकर.
आंचल में छिप जाता मैं
ज्यों रहे गाय सँग बछड़ा.
मुझको सबसे अच्छा लगता
अपनी माँ का मुखड़ा.....
*
बारिश में छतरी आँचल की.
ठंडी में गर्मी दामन की..
गर्मी में धोती का पंखा,
पल्लू में छाया बादल की.
कभी दिठौना, कभी आँख में
कोर बने काजल की..
दूध पिलाती है गिलास भर -
कहे बनूँ मैं तगड़ा. ,
मुझको सबसे अच्छा लगता -
अपनी माँ का मुखड़ा!
११-८-२०१०
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