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रविवार, 18 जून 2023

नामदेव

सोनेट दोहा 
नामदेव  
*
भक्त-भक्ति में है नहीं, ऊँच-नीच का भेद।
नामदेव वाणी बनी, ऐक्य भाव का हेतु।  
प्रभु सम्मुख सब एक हैं, गंगा जल या स्वेद।।
मन को मन से जोड़कर, बना भक्ति को सेतु।। 
*
नाम देव बेनाम हो, भजे ईश को भक्त।
नामदेव की विरासत, है कबीर के पास।  
वर्ण भेद को भूलकर, हो प्रभु में अनुरक्त।। 
नानक मीरा तुका भी, रहे बुझाते प्यास।। 
भाषा भेद न मानकर, भाव भूमि तैयार। 
तृषा मिटाता सरोवर, छूत-अछूत न मान।
नामदेव ने की न क्यों, हम करते स्वीकार।। 
अंजुरी में ले पी सलिल, पाए शांति समान।। 
*
सबै भूमि गोपाल की, हर जन प्रभु का भक्त। 
निर्गुण-सगुण न शक्ति दो, चित-पट सं संयुक्त।।   
१८-६-२०२३   
***
सोनेट दोहा 
नामदेव
छंद अभंग भगत रचे, भंग न होती भक्ति। 
निर्गुण काव्य परंपरा, नामदेव-उपहार।
प्रभु चरणों में हो सदा, अविकल शुभ अनुरक्ति।।
दसों दिशा में भ्रमणकर, दिया लोक को प्यार।।
*
सांगीतिक संयोजना, करती हृद-स्पर्श।
सगुण भक्ति का प्रतिफलन, निर्गुण भक्ति स्वरूप। 
हरि भज नैना मूँद ले, झट हो प्रभु का दर्श।।
दोनों का सम्मिलन है, छंद अभंग अनूप।।
*
कातर अंतर्वेदना, गुणातीत आराध्य। 
गीत और संगीत से, सहज सधे प्रभु भक्ति।
नाम देव से ही मिला, हुआ नाम ही साध्य ।।
नामदेव रस-राग से, प्रभु पाएँ शुभ युक्ति।।
*
स्वर लय भाव-विभाव ही, ब्रहमानंद-उपाय। 
सुने गीत-संगीत प्रभु, विट्ठल भू पर आय।।
***
सोनेट दोहा 
नामदेव
*
हों सन्यस्त ग्रहस्थ भी, प्रभु भजते हैं संत। 
सतत सनातन साधना, गायन आहत नाद।
बिंदु सिंधु मिल एक हों, व्यापें दिशा-दिगंत।।
नाद अनाहद योगमय, प्रभु सुनते फ़रियाद।।
*
नाद ब्रह्म समकक्ष हैं, ज्ञान-ध्यान हैं एक।
सांसारिक सुख शोक दे,  लिप्त रहे खुद जीव।  
शरणागति का भाव ही, भक्त धारते नेक।।
जब अलिप्त हो प्रभु मिले, होता मन संजीव।।
*
श्रेष्ठ यज्ञ जप जानकर, नामदेव लें नाम। 
ध्वनि से ही आकार हो, ओंकार है मूल। 
एकहि सधे सब सधे, करे काम निष्काम।।
विधि-हरि-हर त्रय नाद हैं, जपिए सब जग भूल।।
*
ढोल दमामा जब बजे, गूँजे अनहद नाद। 
मुरली-डमरू धर कहें, गहो भक्ति का स्वाद।।   
२८-५-२०२३ 
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दिव्य अयोनिज भक्त थे, नामदेव जी संत।
माटी की मूरत बना, देखें ईश अनंत।।
*
पूर्व जन्म से भक्ति का, भाव रहा मन-व्याप्त।
शैशव से ही ईश प्रति, राग रहा था आप्त।।
*
भोग बना प्रभु को दिया, पाएँ ईश-प्रसाद।
ग्रहण न करते ईश यदि, जिऊँ न सुन फ़रियाद।।
*
ईश रीझ प्रगटे करें, ग्रहण भोग हँस आप।
प्रभु दर्शन पा धन्य हो, तरता मन निष्पाप।।
*
विट्ठल की पाई कृपा, हुआ प्रगट खुद कूप।
नामदेव पा प्रभु कृपा, थे भूपों के भूप।।
*
श्वान हुए विट्ठल करें, भोग ग्रहण झट भाग।
घृत ले दौड़े भक्त जी, मन में अति अनुराग।।
*
धनपति का धन तुला पर, तुला न तुलसी तुल्य।
भ्रम टूटा; उर में गड़ा, हटा गर्व का शल्य।।
*
सगुण भक्ति निर्गुण हुई, हैं दोनों ही एक। 
सिक्के के दो पट सदृश, जैसे बुद्धि-विवेक।। 
*
नाम देव का ; काम क्यों, करिए अपने हेतु। 
जो करिए प्रभु हेतु हो,अन्य न कोई सेतु।  
***    
  

नामदेव भारत के प्रसिद्ध संत थे। इनके समय में नाथ और महानुभाव पंथों का महाराष्ट्र में प्रचार था।

भक्त नामदेव महाराज का जन्म २६ अकटुबर १२७० (शके ११९२) में महाराष्ट्र के सतारा जिले में कृष्णा नदी के किनारे बसे नरसीबामणी नामक गाँव में एक शिंपी जिसे छीपा भी कहते है के परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम दामाशेट और माता का नाम गोणाई देवी था। इनका परिवार भगवान विट्ठल का परम भक्त था। नामदेव का विवाह राधाबाई के साथ हुआ था और इनके पुत्र का नाम नारायण था।

संत नामदेव ने विसोबा खेचर को गुरु के रूप में स्वीकार किया था। ये संत ज्ञानेश्वर के समकालीन थे और उम्र में उनसे ५ साल बड़े थे। संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर के साथ पूरे महाराष्ट्र का भ्रमण किए, भक्ति-गीत रचे और जनता जनार्दन को समता और प्रभु-भक्ति का पाठ पढ़ाया। संत ज्ञानेश्वर के परलोकगमन के बाद इन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया। इन्होंने मराठी के साथ ही साथ हिन्दी में भी रचनाएँ लिखीं। इन्होंने अठारह वर्षो तक पंजाब में भगवन्नाम का प्रचार किया। अभी भी इनकी कुछ रचनाएँ सिक्खों की धार्मिक पुस्तकों में मिलती हैं। मुखबानी नामक पुस्तक में इनकी रचनाएँ संग्रहित हैं। आज भी इनके रचित गीत पूरे महाराष्ट्र में भक्ति और प्रेम के साथ गाए जाते हैं। ये संवत १४०७ में समाधि में लीन हो गए।

सन्त नामदेव के समय में नाथ और महानुभाव पंथों का महाराष्ट्र में प्रचार था। नाथ पंथ "अलख निरंजन" की योगपरक साधना का समर्थक तथा बाह्याडंबरों का विरोधी था और महानुभाव पंथ वैदिक कर्मकांड तथा बहुदेवोपासना का विरोधी होते हुए भी मूर्तिपूजा को सर्वथा निषिद्ध नहीं मानता था। इनके अतिरिक्त महाराष्ट्र में पंढरपुर के "विठोबा" की उपासना भी प्रचलित थी। सामान्य जनता प्रतिवर्ष आषाढ़ी और कार्तिकी एकादशी को उनके दर्शनों के लिए पंढरपुर की "वारी" (यात्रा) किया करती थी (यह प्रथा आज भी प्रचलित है), इस प्रकार की वारी (यात्रा) करनेवाले "वारकरी" कहलाते हैं। विट्ठलोपासना का यह "पंथ" "वारकरी" संप्रदाय कहलाता है। नामदेव इसी संप्रदाय के प्रमुख संत माने जाते हैं।

वारकरी संत नामदेव के समय के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। मतभेद का कारण यह है कि महाराष्ट्र में नामदेव नामक पाँच संत हो गए हैं और उन सबने थोड़ी बहुत "अभंग" और पदरचना की है। आवटे की "सकल संतगाथा" में नामदेव के नाम पर 2500 अभंग मिलते हैं। लगभग 600 अभंगों में केवल नामदेव या "नामा" की छाप है और शेष में "विष्णुदासनामा" की।

कुछ विद्वानों के मत से दोनों "नामा" एक ही हैं। विष्णु (विठोबा) के दास होने से नामदेव ने ही संभवत: अपने को विष्णुदास "नामा" कहना प्रारंभ कर दिया हो। इस संबध में महाराष्ट्र के प्रसिद्ध इतिहासकार वि.का. राजवाड़े का कथन है कि "नाभा" शिंपी (दर्जी) का काल शके 1192 से 1272 तक है। विष्णुदासनामा का समय शके 1517 है। यह एकनाथ के समकालीन थे। प्रो॰ रानडे ने भी राजवाड़े के मत का समर्थन किया है। श्री राजवाड़े ने विष्णुदास नामा की "बावन अक्षरी" प्रकाशित की है जिसमें "नामदेवराय" की वंदना की गई है। इससे भी सिद्ध होता है कि ये दोनों व्यक्ति भिन्न हैं और भिन्न भिन्न समय में हुए हैं। चांदोरकर ने महानुभावी "नेमदेव" को भी वारकरी नामदेव के साथ जोड़ दिया है। परंतु डॉ॰ तुलपुले का कथन है कि यह भिन्न व्यक्ति है और कोली जाति का है। इसका वारकरी नामदेव से कोई संबंध नहीं है। नामदेव के समसामयिक एक विष्णुदास नामा कवि का और पता चला है पर यह महानुभाव संप्रदाय के हैं। इन्होने महाभारत पर ओवीबद्ध ग्रंथ लिखा है। इसका वारकरी नामदेव से कोई संबध नहीं है।

नामदेव विषयक एक और विवाद है। "गुरु ग्रन्थ साहिब" में नामदेव के 61 पद संगृहीत हैं। महाराष्ट्र के कुछ विवेचकों की धारणा है कि गुरुग्रंथ साहब के 'नामदेव' पंजाबी हैं, महाराष्ट्रीय नहीं। यह हो सकता है, वह महाराष्ट्रीय वारकरी नामदेव का कोई शिष्य रहा हो और उसने अपने गुरु के नाम पर हिन्दी में पद रचना की हो। परंतु महाराष्ट्रीय वारकरी नामदेव ही के हिंदी पद गुरुग्रंथसाहब में संकलित हैं क्योंकि नामदेव के मराठी अभंगों और गुरुग्रंथसाहब के पदों में जीवन घटनाओं तथा भावों, यहाँ तक कि रूपक और उपमाओं की समानता है। अत: मराठी अभंगकार नामदेव और हिंदी पदकार नामदेव एक ही सिद्ध होते हैं।

महाराष्ट्रीय विद्वान् वारकरी नामदेव को ज्ञानेश्वर का समसामयिक मानते हैं और ज्ञानेश्वर का समय उनके ग्रंथ "ज्ञानेश्वरी" से प्रमाणित हो जाता है। ज्ञानेश्वरी में उसका रचनाकाल "1212 शके" दिया हुआ है। डॉ॰ मोहनसिंह दीवाना नामदेव के काल को खींचकर 14वीं और 15वीं शताब्दी तक ले जाते हैं। परंतु उन्होंने अपने मतसमर्थन का कोई अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया। नामदेव की एक प्रसिद्ध रचना "तीर्थावली" है जिसकी प्रामाणिकता निर्विवाद है। उसमें ज्ञानदेव और नामदेव की सहयात्राओं का वर्णन है। अत: ज्ञानदेव और नामदेव का समकालीन होना अंत:साक्ष्य से भी सिद्ध है। नामदेव ज्ञानेश्वर की समाधि के लगभग 55 वर्ष बाद तक और जीवित रहे। इस प्रकार नामदेव का काल शके 1192 से शके 1272 तक माना जाता है।

नामदेव का जन्म शके 1192 में प्रथम संवत्सर कार्तिक शुक्ल एकादशी को नरसी ब्राह्मणी नामक ग्राम में दामा शेट शिंपी (छीपा) के यहाँ हुआ था। संत शिरोमणि श्री नामदेव जी ने विसोबा खेचर से दीक्षा ली। जो नामदेव पंढरपुर के "विट्ठल" की प्रतिमा में ही भगवान को देखते थे, वे खेचर के संपर्क में आने के बाद उसे सर्वत्र अनुभव करने लगे। उसकी प्रेमभक्ति में ज्ञान का समावेश हा गया। डॉ॰ मोहनसिंह नामदेव को रामानंद का शिष्य बतलाते हैं। परन्तु महाराष्ट्र में इनकी बहुमान्य गुरु परंपरा इस प्रकार है -

ज्ञानेश्वर और नामदेव उत्तर भारत की साथ साथ यात्रा की थी। ज्ञानेश्वर मारवाड़ में कोलदर्जी नामक स्थान तक ही नामदेव के साथ गए। वहाँ से लौटकर उन्होंने आलंदी में शके 1218 में समाधि ले ली। ज्ञानेश्वर के वियोग से नामदेव का मन महाराष्ट्र से उचट गया और ये पंजाब की ओर चले गए। गुरुदासपुर जिले के घोभान नामक स्थान पर आज भी नामदेव जी का मंदिर विद्यमान है। वहाँ सीमित क्षेत्र में इनका "पंथ" भी चल रहा है। संतों के जीवन के साथ कतिपय चमत्कारी घटनाएँ जुड़ी रहती है। नामदेव के चरित्र में भी सुल्तान की आज्ञा से इनका मृत गाय को जिलाना, पूर्वाभिमुख आवढ्या नागनाथ मंदिर के सामने कीर्तन करने पर पुजारी के आपत्ति उठाने के उपरांत इनके पश्चिम की ओर जाते ही उसके द्वार का पश्चिमाभिमुख हो जाना, विट्ठल की मूर्ति का इनके हाथ दुग्धपान करना, आदि घटनाएँ समाविष्ट हैं। महाराष्ट्र से लेकर पंजाब तक विट्ठल मंदिर के महाद्वार पर शके 1272 में समाधि ले ली। कुछ विद्वान् इनका समाधिस्थान घोमान मानते हैं, परंतु बहुमत पंढरपुर के ही पक्ष में हैं।

नामदेव के मत 

बिसोवा खेचर से दीक्षा लेने के पूर्व तक ये सगुणोपासक थे। पंढरपुर के विट्ठल (विठोबा) की उपासना किया करते थे। दीक्षा के उपरांत इनकी विट्ठलभक्ति सर्वव्यापक हो गई। महाराष्ट्रीय संत परंपरा के अनुसार इनकी निर्गुण भक्ति थी, जिसमें सगुण निर्गुण का काई भेदभाव नहीं था। उन्होंने मराठी में कई सौ अभंग और हिंदी में सौ के लगभग पद रचे हैं। इनके पदों में हठयोग की कुंडलिनी-योग-साधना और प्रेमाभक्ति की (अपने "राम" से मिलने की) "तालाबेली" (विह्वलभावना) दोनों हैं। निर्गुणी कबीर के समान नामदेव में भी व्रत, तीर्थ आदि बाह्याडंबर के प्रति उपेक्षा तथा भगवन्नाम एवं सतगुरु के प्रति आदर भाव विद्यमान है। कबीर के पदों में यततत्र नामदेव की भावछाया दृष्टिगोचर होती है। कबीर के पूर्व नामदेव ने उत्तर भारत में निर्गुण भक्ति का प्रचार किया, जो निर्विवाद है।

परलोक गमन 

आपने दो बार तीर्थ यात्रा की व साधु संतो से भ्रम दूर करते रहे। ज्यों ज्यों आपकी आयु बढती गई, त्यों त्यों आपका यश फैलता गया। आपने दक्षिण में बहुत प्रचार किया। आपके गुरु देव ज्ञानेश्वर जी परलोक गमन कर गए तो आप भी कुछ उपराम रहने लग गए। अन्तिम दिनों में आप पंजाब आ गए। अन्त में आप अस्सी साल की आयु में 1407 विक्रमी को परलोक गमन कर गए।

साहित्यक देन 

नामदेव जी ने जो बाणी उच्चारण की वह गुरुग्रंथ साहिब में भी मिलती है। बहुत सारी वाणी दक्षिण व महाराष्ट्र में गाई जाती है। आपकी वाणी पढ़ने से मन को शांति मिलती है व भक्ति की तरफ मन लगता है।

ठाकुर को दूध पिलाना 

एक दिन नामदेव जी के पिता किसी काम से बाहर जा रहे थे। उन्होंने नामदेव जी से कहा कि अब उनके स्थान पर वह ठाकुर की सेवा करेंगे जैसे ठाकुर को स्नान कराना, मन्दिर को स्वच्छ रखना व ठाकुर को दूध चढ़ाना। जैसे सारी मर्यादा मैं पूर्ण करता हूँ वैसे तुम भी करना। देखना लापरवाही या आलस्य मत करना नहीं तो ठाकुर जी नाराज हो जाएँगे।

नामदेव जी ने वैसा ही किया जैसे पिताजी समझाकर गए थे। जब उसने दूध का कटोरा भरकर ठाकुर जी के आगे रखा और हाथ जोड़कर बैठा व देखता रहा कि ठाकुर जी किस तरह दूध पीते हैं? ठाकुर ने दूध कहाँ पीना था? वह तो पत्थर की मूर्ति थे। नामदेव को इस बात का पता नहीं था कि ठाकुर को चम्मच भरकर दूध लगाया जाता व शेष दूध पंडित पी जाते थे। उन्होंने बिनती करनी शुरू की हे प्रभु! मैं तो आपका छोटा सा सेवक हूँ, दूध लेकर आया हूँ कृपा करके इसे ग्रहण कीजिए। भक्त ने अपनी बेचैनी इस प्रकार प्रगट की -

हे प्रभु! यह दूध मैं कपला गाय से दोह कर लाया हूँ। हे मेरे गोबिंद! यदि आप दूध पी लेंगे तो मेरा मन शांत हो जाएगा नहीं तो पिताजी नाराज़ होंगे। सोने की कटोरी मैंने आपके आगे रखी है। पीए! अवश्य पीए! मैंने कोई पाप नहीं किया। यदि मेरे पिताजी से प्रतिदिन दूध पीते हो तो मुझसे आप क्यों नहीं ले रहे? हे प्रभु! दया करें। पिताजी मुझे पहले ही बुरा व निकम्मा समझते हैं। यदि आज आपने दूध न पिया तो मेरी खैर नहीं। पिताजी मुझे घर से बाहर निकाल देंगे।

जो कार्य नामदेव के पिता सारी उम्र न कर सके वह कार्य नामदेव ने कर दिया। उस मासूम बच्चे को पंडितो की बईमानी का पता नहीं था। वह ठाकुर जी के आगे मिन्नतें करता रहा। अन्त में प्रभु भक्त की भक्ति पर खिंचे हुए आ गए। पत्थर की मूर्ति द्वारा हँसे। नामदेव ने इसका जिक्र इस प्रकार किया है -

ऐकु भगतु मेरे हिरदे बसै ।
नामे देखि नराइनु हसै ॥ (पन्ना ११६३)

एक भक्त प्रभु के ह्रदय में बस गया। नामदेव को देखकर प्रभु हँस पड़े। हँस कर उन्होंने दोनों हाथ आगे बढाएं और दूध पी लिया। दूध पीकर मूर्ति फिर वैसी ही हो गई।

दूधु पीआई भगतु घरि गइआ ।
नामे हरि का दरसनु भइआ ॥ (पन्ना ११६३ - ६४)

दूध पिलाकर नामदेव जी घर चले गए। इस प्रकार प्रभु ने उनको साक्षात दर्शन दिए। यह नामदेव की भक्ति मार्ग पर प्रथम जीत थी।

शुद्ध ह्रदय से की हुई प्रर्थना से उनके पास शक्तियाँ आ गई। वह भक्ति भव वाले हो गए और जो वचन मुँह निकलते वही सत्य होते। जब आपके पिताजी को यह ज्ञान हुआ कि आपने ठाकुर में जान डाल दी व दूध पिलाया तो वह बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने समझा उनकी कुल सफल हो गई है।

नामदेव जी के कुछ हिन्दी अभंग

हरि नांव हीरा हरि नांव हीरा । हरि नांव लेत मिटै सब पीरा ॥टेक॥
हरि नांव जाती हरि नांव पांती । हरि नांव सकल जीवन मैं क्रांती ॥1॥
हरि नांव सकल सुषन की रासी । हरि नांव काटै जम की पासी ॥2॥
हरि नांव सकल भुवन ततसारा । हरि नांव नामदेव उतरे पारा ॥3॥
रांम नांम षेती रांम नांम बारी । हमारै धन बाबा बनवारी ॥टेक॥
या धन की देषहु अधिकाई । तसकर हरै न लागै काई ॥1॥
दहदिसि राम रह्या भरपूरि । संतनि नीयरै साकत दूरि ॥2॥
नामदेव कहै मेरे क्रिसन सोई । कूंत मसाहति करै न कोई ॥3॥
रांमसो धन ताको कहा अब थोरौ । अठ सिधि नव निधि करत निहोरौ ॥टेक॥
हरिन कसिब बधकरि अधपति देई । इंद्रकौ विभौ प्रहलाद न लेई ॥1॥
देव दानवं जाहि संपदा करि मानै । गोविंद सेवग ताहि आपदा करि जानै ॥2॥
अर्थ धरम काम की कहा मोषि मांगै । दास नांमदेव प्रेम भगति अंतरि जो जागै ॥3॥



अंदाज अपना अपना

२२१ ११२ ११२

अंदाज अपना अपना
आगाज अपना अपना

नासाज है तबीयत 
ना साज अपना अपना 




शुक्रवार, 16 जून 2023

गीत, शिरीष, भगवत दुबे, समीक्षा, नवगीत, विधाता छंद, शुद्धगा छंद, रवींद्रनाथ, सोनेट, सदोका

सॉनेट
बादल
*
काले-काले बादल आए
आसमान पर दौड़ रहे हैं
झूम-झूमकर नाचे-गाए
जल की फोड़ रहे है।
धरती माँ की पीड़ा हरते
गर्मी हर राहत पहुँचाते
कागज-नौका सपने तिरते
बच्चे ताली झूम बजाते।
दादुर गुँजा रहे शहनाई
ताल दे रहे पीपल-पत्ते
नदियों पर आई तरुणाई
बारह देखने आए जत्थे।
हरियाली की चादर लाए
मोर झूमकर नाच दिखाए।
१६-६-२०२२
***
सदोका सलिला : ३
खिलखिलाई
इठलाई शर्माई
सद्यस्नाता नवोढ़ा।
चिलमन भी
रूप देख बौराया
दर्पण आहें भरे। १६।
*
लहराती है
नागिन जैसी लट,
भाल-गाल चूमती।
बेला की गंध
मदिर सूँघ-सूँघ
बेदनी सी नाचती। १७।
*
क्षितिज पर
मेघ घुमड़ आए
वसुंधरा हर्षाई।
पवन झूम
बिजली संग नाचा,
प्रणय पत्र बाँचा। १८।
*
लोकतंत्र में
नेता करे सो न्याय
अफसर का राज।
गौरैयों ने
राम का राज्य चाहा
बाजों को चुन लिया।१९।
*
घर को लगी
घर के चिराग से
दिन दहाड़े आग।
मंत्री का पूत
विधायकी का दावा
करे छाती फुलाए। २०।
१६-६-२०२२
***
कार्यशाला:
ये मेरी तिश्नगी, लेकर कहाँ चली आई?
यहाँ तो दूर तक सहरा दिखाई देता है.
- डॉ.अम्बर प्रियदर्शी
चला था तोड़ के बंधन मिलेगी आजादी
यहाँ तो सरहदी पहरा दिखाई देता है.
-संजीव वर्मा 'सलिल'
***
तिश्नगी का न पूछिए आलम
मैं जहाँ हूँ, वहाँ समंदर है.
- अम्बर प्रियदर्शी
राह बारिश की रहे देखते सूने नैना
क्या पता था कि गया रीत सारा अम्बर है.
-संजीव वर्मा 'सलिल'
मिला था ईद पे उससे गले हुलसकर मैं
किसे खबर थी वो पल में हलाल कर देगा.
ला दे दे, रम जान तू, चला गया रमजान
सूख रहा है हलक अब होने दे रस-खान.
***
छंद कोष की एक झलक:
लगभग ५५० नए छंद विधान और उदाहरण सहित रचे जा चुके हैं। आगे कार्य जारी है.
षड्मात्रीय रागी जातीय छंद (प्रकार १५)
*
महीयसी छंद:
विधान: लघु गुरु लघु गुरु (१२१२)।
लक्षण छंद:
महीयसी!
गरीयसी।
सदा रहीं
ह्रदै बसीं।।
*
उदाहरण
गीत:
निशांत हो,
सुशांत हो।
*
उषा उगी
कली खिली।
बही हवा
भली भली।
सुखी रहो,
न भ्रांत हो...
*
सही कहो,
सही करो।
चले चलो,
नहीं डरो।
विरोध क्यों
नितांत हो...
*
करो भला
वरो भला।
नरेश हो
तरो भला।
न दास हो,
न कांत हो...
*
विराट हो
विशाल हो।
रुको नहीं
निढाल हो।
सुलक्ष्य पा
दिनांत हो...
१६-६-२०१८

एक दोहा 
ला दे दे, रम जान तू, चला गया रमजान
सूख रहा है हलक अब होने दे रस-खान.
कार्यशाला:
ये मेरी तिश्नगी, लेकर कहाँ चली आई?
यहाँ तो दूर तक सहरा दिखाई देता है.
- डॉ.अम्बर प्रियदर्शी
चला था तोड़ के बंधन मिलेगी आजादी
यहाँ तो सरहदी पहरा दिखाई देता है.
-संजीव वर्मा 'सलिल'
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तिश्नगी का न पूछिए आलम
मैं जहाँ हूँ, वहाँ समंदर है.
- अम्बर प्रियदर्शी
राह बारिश की रहे देखते सूने नैना
क्या पता था कि गया रीत सारा अम्बर है.
-संजीव वर्मा 'सलिल'

मिला था ईद पे उससे गले हुलसकर मैं
किसे खबर थी वो पल में हलाल कर देगा.
१६-६-२०१८ 
***
कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर की एक
रचना का भावानुवाद:
*
रुद्ध अगर पाओ कभी, प्रभु! तोड़ो हृद -द्वार.
कभी लौटना तुम नहीं, विनय करो स्वीकार..
*
मन-वीणा-झंकार में, अगर न हो तव नाम.
कभी लौटना हरि! नहीं, लेना वीणा थाम..
*
सुन न सकूँ आवाज़ तव, गर मैं निद्रा-ग्रस्त.
कभी लौटना प्रभु! नहीं, रहे शीश पर हस्त..
*
हृद-आसन पर गर मिले, अन्य कभी आसीन.
कभी लौटना प्रिय! नहीं, करना निज-आधीन..
***
रसानंद दे छंद नर्मदा ३४ : विधाता/शुद्धगा छंद
गुरुवार, १५ जून २०१६
*
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन या सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रवज्रा, इंद्रवज्रा तथा सखी छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए विधाता छन्द से
*
छंद लक्षण: जाति यौगिक, प्रति पद २८ मात्रा,
यति ७-७-७-७ / १४-१४ , ८ वीं - १५ वीं मात्रा लघु
विशेष: उर्दू बहर हज़ज सालिम 'मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन' इसी छंद पर आधारित है.
लक्षण छंद:
विधाता को / नमन कर ले , प्रयासों को / गगन कर ले
रंग नभ पर / सिंधु में जल , साज पर सुर / अचल कर ले
सिद्धि-तिथि लघु / नहीं कोई , दिखा कंकर / मिला शंकर
न रुक, चल गिर / न डर, उठ बढ़ , सीकरों को / सलिल कर ले
संकेत: रंग =७, सिंधु = ७, सुर/स्वर = ७, अचल/पर्वत = ७
सिद्धि = ८, तिथि = १५
उदाहरण:
१. न बोलें हम न बोलो तुम , सुनें कैसे बात मन की?
न तोलें हम न तोलो तुम , गुनें कैसे जात तन की ?
न डोलें हम न डोलो तुम , मिलें कैसे श्वास-वन में?
न घोलें हम न घोलो तुम, जियें कैसे प्रेम धुन में?
जात = असलियत, पानी केरा बुदबुदा अस मानुस की जात
२. ज़माने की निगाहों से , न कोई बच सका अब तक
निगाहों ने कहा अपना , दिखा सपना लिया ठग तक
गिले - शिकवे करें किससे? , कहें किसको पराया हम?
न कोई है यहाँ अपना , रहें जिससे नुमायाँ हम
३. है हक़ीक़त कुछ न अपना , खुदा की है ज़िंदगानी
बुन रहा तू हसीं सपना , बुजुर्गों की निगहबानी
सीखता जब तक न तपना , सफलता क्यों हाथ आनी?
कोशिशों में खपा खुदको , तब बने तेरी कहानी
४. जिएंगे हम, मरेंगे हम, नहीं है गम, न सोचो तुम
जलेंगे हम, बुझेंगे हम, नहीं है तम, न सोचो तुम
कहीं हैं हम, कहीं हो तुम, कहीं हैं गम, न सोचो तुम
यहीं हैं हम, यहीं हो तुम, नहीं हमदम, न सोचो तुम
***
गीत,
यार शिरीष!
*
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
*
अब भी खड़े हुए एकाकी
रहे सोच क्यों साथ न बाकी?
तुमको भाते घर, माँ, बहिनें
हम चाहें मधुशाला-साकी।
तुम तुलसी को पूज रहे हो
सदा सुहागन निष्ठा पाले।
हम महुआ की मादकता के
हुए दीवाने ठर्रा ढाले।
चढ़े गिरीश
पर नहीं बिगड़े
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
*
राजनीति तुमको बेगानी
लोकनीति ही लगी सयानी।
देश हितों के तुम रखवाले
दुश्मन पर निज भ्रकुटी तानी।
हम अवसर को नहीं चूकते
लोभ नीति के हम हैं गाहक।
चाट सकें इसलिए थूकते
भोग नीति के चाहक-पालक।
जोड़ रहे
जो सपने बिछुड़े
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
*
तुम जंगल में धूनि रमाते
हम नगरों में मौज मनाते।
तुम खेतों में मेहनत करते
हम रिश्वत परदेश-छिपाते।
ताप-शीत-बारिश हँस झेली
जड़-जमीन तुम नहीं छोड़ते।
निज हित खातिर झोपड़ तो क्या
हम मन-मंदिर बेच-तोड़ते।
स्वार्थ पखेरू के
पर कतरे।
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
*
तुम धनिया-गोबर के संगी
रीति-नीति हम हैं दोरंगी।
तुम मँहगाई से पीड़ित हो
हमें न प्याज-दाल की तंगी।
अंकुर पल्लव पात फूल फल
औरों पर निर्मूल्य लुटाते।
काट रहे जो उठा कुल्हाड़ी
हाय! तरस उन पर तुम खाते।
तुम सिकुड़े
हम फैले-पसरे।
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
१६-६-२०१६
***
कृति चर्चा:
हम जंगल के अमलतास : नवाशा प्रवाही नवगीत संकलन
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४
[कृति विवरण: हम जंगल के अमलतास, नवगीत संग्रह, आचार्य भगवत दुबे, २००८, पृष्ठ १२०, १५० रु., आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेटयुक्त, प्रकाशक कादंबरी जबलपुर, संपर्क: २६७२ विमल स्मृति, समीप पिसनहारी मढ़िया, जबलपुर ४८२००३, चलभाष ९३००६१३९७५]
*
विश्ववाणी हिंदी के समृद्ध वांग्मय को रसप्लावित करती नवगीतीय भावधारा के समर्थ-सशक्त हस्ताक्षर आचार्य भगवत दुबे के नवगीत उनके व्यक्तित्व की तरह सहज, सरल, खुरदरे, प्राणवंत ततः जिजीविषाजयी हैं. इन नवगीतों का कथ्य सामाजिक विसंगतियों के मरुस्थल में मृग-मरीचिका की तरह आँखों में झूलते - टूटते स्वप्नों को पूरी बेबाकी से उद्घाटित तो करता है किन्तु हताश-निराश होकर आर्तनाद नहीं करता. ये नवगीत विधागत संकीर्ण मान्यताओं की अनदेखी कर, नवाशा का संचार करते हुए, अपने पद-चिन्हों से नव सृअन-पथ का अभिषेक करते हैं. संग्रह के प्रथम नवगीत 'ध्वजा नवगीत की' में आचार्य दुबे नवगीत के उन तत्वों का उल्लेख करते हैं जिन्हें वे नवगीत में आवश्यक मानते हैं:
नव प्रतीक, नव ताल, छंद नव लाये हैं
जन-जीवन के सारे चित्र बनाये हैं
की सरगम तैयार नये संगीत की
कसे उक्ति वैचित्र्य, चमत्कृत करते हैं
छोटी सी गागर में सागर भरते हैं
जहाँ मछलियाँ विचरण करें प्रतीत की
जो विरूपतायें समाज में दिखती हैं
गीत पंक्तियाँ उसी व्यथा को लिखती हैं
लीक छोड़ दी पारंपरिक अतीत की
अब फहराने लगी ध्वजा नवगीत की
सजग महाकाव्यकार, निपुण दोहाकार, प्रसिद्ध गजलकार, कुशल कहानीकार, विद्वान समीक्षक, सहृदय लोकगीतकार, मौलिक हाइकुकार आदि विविध रूपों में दुबे जी सतत सृजन कर चर्चित-सम्मानित हुए हैं. इन नवगीतों का वैशिष्ट्य आंचलिक जन-जीवन से अनुप्राणित होकर ग्राम्य जीवन के सहजानंद को शहरी जीवन के त्रासद वैभव पर वरीयता देते हुए मानव मूल्यों को शिखर पर स्थापित करना है. प्रो. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' इन नवगीतों के संबंध में ठीक ही लिखते हैं: '...भाषा, छंद, लय, बिम्ब और प्रतीकों के समन्वित-सज्जित प्रयोग की कसौटी पर भी दुबे जी खरे उतरते हैं. उनके गीत थके-हरे और अवसाद-जर्जर मानव-मन को आस्था और विश्वास की लोकांतर यात्रा करने में पूर्णत: सफल हुए हैं. अलंकार लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रचुर प्रयोग ने गीतों में जो ताजगी और खुशबू भर दी है, वह श्लाघनीय है.'
निराला द्वारा 'नव गति, नव लय, ताल-छंद नव' के आव्हान से नवगीत का प्रादुर्भाव मानने और स्व. राजेंद्र प्रसाद सिंह तथा स्व. शम्भुनाथ सिंह द्वारा प्रतिष्ठापित नवगीत को उद्भव काल की मान्यताओं और सीमाओं में कैद रखने का आग्रह करनेवाले नवगीतकार यह विस्मृत कट देते हैं कि काव्य विधा पल-पल परिवर्तित होती सलिला सदृश्य किसी विशिष्ट भाव-भंगिमा में कैद की ही नहीं जा सकती. सतत बदलाव ही काव्य की प्राण शक्ति है. दुबे जी नवगीत में परिवर्तन के पक्षधर हैं: "पिंजरों में जंगल की / मैना मत पालिये / पाँव में हवाओं के / बेड़ी मत डालिए... अब तक हैं यायावर'
यथार्थवाद और प्रगतिवाद के खोखले नारों पर आधरित तथाकथित प्रगतिवादी कविता की नीरसता के व्यूह को अपने सरस नवगीतों से छिन्न-भिन्न करते हुए दुबे जी अपने नवगीतों को छद्म क्रांतिधर्मिता से बचाकर रचनात्मक अनुभूतियों और सृजनात्मकता की और उन्मुख कर पाते हैं: 'जुल्म का अनुवाद / ये टूटी पसलियाँ हैं / देखिये जिस ओर / आतंकी बिजलियाँ हैं / हो रहे तेजाब जैसे / वक्त के तेव ... युगीन विसंतियों के निराकरण के उपाय भी घातक हैं: 'उर्वरक डाले विषैले / मूक माटी में / उग रहे हथियार पीने / शांत घाटी में'... किन्तु कहीं भी हताशा-निराशा या अवसाद नहीं है. अगले ही पल नवगीत आव्हान करता है: 'रूढ़ि-अंधविश्वासों की ये काराएँ तोड़ें'...'भ्रम के खरपतवार / ज्ञान की खुरपी से गोड़ें'. युगीन विडंबनाओं के साथ समन्वय और नवनिर्माण का स्वर समन्वित कर दुबेजी नवगीत को उद्देश्यपरक बना देते हैं.
राजनैतिक विद्रूपता का जीवंत चित्रण देखें: 'चीरहरण हो जाया करते / शकुनी के पाँसों से / छली गयी है प्रजा हमेशा / सत्ता के झाँसों से / राजनीti में सम्मानित / होती करतूतें काली' प्रकृति का सानिंध्य चेतना और स्फूर्ति देता है. अतः, पर्यावरण की सुरक्षा हमारा दायित्व है:
कभी ग्रीष्म, पावस, शीतलता
कभी वसंत सुहाना
विपुल खनिज-फल-फूल अन्न
जल-वायु प्रकृति से पाना
पर्यावरण सुरक्षा करके
हों हम मुक्त ऋणों से
नकारात्मता में भी सकरात्मकता देख पाने की दृष्टि स्वागतेय है:
ग्रीष्म ने जब भी जलाये पाँव मेरे
पीर की अनुभूति से परिचय हुआ है...
.....भ्रूण अँकुराये लता की कोख में जब
हार में भी जीत का निश्चय हुआ है.
प्रो. विद्यानंदन राजीव के अनुसार ये 'नवगीत वर्तमान जीवन के यथार्थ से न केवल रू-ब-रू होते हैं वरन सामाजिक विसंगतियों से मुठभेड़ करने की प्रहारक मुद्रा में दिखाई देते हैं.'
सामाजिक मर्यादा को क्षत-विक्षत करती स्थिति का चित्रण देखें: 'आबरू बेशर्म होकर / दे रही न्योते प्रणय के / हैं घिनौने चित्र ये / अंग्रेजियत से संविलय के / कर रही है यौन शिक्षा / मार्गदर्शन मनचलों का'
मौसमी परिवर्तनों पर दुबे जी के नवगीतों की मुद्रा अपनी मिसाल आप है: 'सूरज मार रहा किरणों के / कस-कस कर कोड़े / हवा हुई ज्वर ग्रस्त / देह पीली वृक्षों की / उलझी प्रश्नावली / नदी तट के यक्षों की / किन्तु युधिष्ठिर कृषक / धैर्य की वल्गा ना छोड़े.''
नवगीतकारों के सम्मुख नव छंद की समस्या प्राय: मुँह बाये रहती है. विवेच्य संग्रह के नवगीत पिन्गलीय विधानों का पालन करते हुए भी कथ्य की आवश्यकतानुसार गति-यति में परिवर्तन कर नवता की रक्षा कर पाते हैं.
'ध्वजा नवगीत की' शीर्षक नवगीत में २२-२२-२१ मात्रीय पंक्तियों के ६ अंतरे हैं. पहला समूह मुखड़े का कार्य कर रहा है, शेष समूह अंतरे के रूप में हैं. तृतीय पंक्ति में आनुप्रसिक तुकांतता का पालन किया गया है.
'हम जंगल के अमलतास' शीर्षक नवगीत पर कृति का नामकरण किया गया है. यह नवगीत महाभागवत जाति के गीतिका छंद में १४+१२ = २६ मात्रीय पंक्तियों में रचा गया है तथा पंक्त्यांत में लघु-गुरु का भी पालन है. मुखड़े में २ तथा अंतरों में ३-३ पंक्तियाँ हैं.
'जहाँ लोकरस रहते शहदीले' शीर्षक रचना महाभागवत जातीय छंद में है. मुखड़े तथा २ अंतरांत में गुरु-गुरु का पालन है, जबकि ३ रे अंतरे में एक गुरु है. यति में विविधता है: १६-१०, ११-१५, १४-१२.
'हार न मानी अच्छाई ने' शीर्षक गीत में प्रत्येक पंक्ति १६ मात्रीय है. मुखड़ा १६+१६=३२ मात्रिक है. अंतरे में ३२ मात्रिक २ (१६x४) समतुकांती पंक्तियाँ है. सवैया के समान मात्राएँ होने पर भी पंक्त्यांत में भगण न होने से यह सवैया गीत नहीं है.
'ममता का छप्पर' नवगीत महाभागवत जाति का है किन्तु यति में विविधता १६+१०, ११+१५, १५+११ आदि के कारण यह मिश्रित संकर छंद में है.
'बेड़ियाँ न डालिये' के अंतरे में १२+११=२३ मात्रिक २ पंक्तियाँ, पहले-तीसरे अंतरे में १२+१२=२४ मात्रिक २-२ पंक्तियाँ तथा दूसरे अंतरे में १०+१३=२३ मात्रिक २ पंक्तियाँ है. तीनों अंतरों के अंत में मुखड़े के सामान १२+१२ मात्रिक पंक्ति है. गीत में मात्रिक तथा यति की विविधता के बावजूद प्रवाह भंग नहीं है.
'नंगपन ऊँचे महल का शील है' शीर्षक गीत महापौराणिक जातीय छंद में है. अधिकांश पंक्तियों में ग्रंथि छंद के पिन्गलीय विधान (पंक्त्यांत लघु-गुरु) का पालन है किन्तु कहीं-कहीं अंत के गुरु को २ लघु में बदल लिया गया है तथापि लय भंग न हो इसका ध्यान रखा गया है.
वृद्ध मेघ क्वांर के (मुखड़ा १२+११ x २, ३ अन्तरा १२+१२ x २ + १२+ ११), वक्त यह बहुरुपिया (मुखड़ा १४+१२ , १-३ अन्तरा १४+१२ x ३, २ अन्तरा १२+ १४ x २ अ= १४=१२), यातनाओं की सुई (मुखड़ा १९,२०,१९,१९, ३ अन्तरा १९ x ६), हम त्रिशंकु जैसे तारे हैं, नयन लाज के भी झुक जाते - पादाकुलक छंद(मुखड़ा १६x २, ३ अन्तरा १६x ६), स्वार्थी सब शिखरस्थ हुए- महाभागवत जाति (२६ मात्रीय), हवा हुई ज्वर ग्रस्त २५ या २६ मात्रा, मार्गदर्शन मनचलों का-यौगिक जाति (मुखड़ा १४ x ४, ३ अन्तरा २८ x २ ), आचरण आदर्श के बौने हुए- महापौराणिक जाति (मुखड़ा १९ x २, ३ अन्तरा १९ x ४), पसलियाँ बचीं (मुखड़ा १२+८, १०=१०, ३ अन्तरा २०, २१ या २२ मात्रिक ४ पंक्तियाँ), खर्राटे भर रहे पहरुए (मुखड़ा १६ x २+१०, ३ अन्तरा १४ x ३ + १६+ १०),समय क्रूर डाकू ददुआ (मुखड़ा १६+१४ x २, ३ अन्तरा १६ x ४ + १४), दिल्ली तक जाएँगी लपटें (मुखड़ा २६x २, ३ अन्तरा २६x २ + २६), ओछे गणवेश (मुखड़ा २१ x २, ३ अन्तरा २० x २ + १२+१२ या ९), बूढ़ा हुआ बसंत (मुखड़ा २६ x २, ३ अन्तरा १६ x २ + २६), ब्याज रहे भरते (मुखड़ा २६ x २, ३ अन्तरा २६ x २ + २६) आदि से स्पष्ट है कि दुबे जी को छंदों पर अधिकार प्राप्त है. वे छंद के मानक रूप के अतिरिक्त कथ्य की माँग पर परिवर्तित रूप का प्रयोग भी करते हैं. वे लय को साधते हैं, यति-स्थान को नहीं. इससे उन्हें शब्द-चयन तथा शब्द-प्रयोग में सुविधा तथा स्वतंत्रता मिल जाती है जिससे भाव की समुचित अभिव्यक्ति संभव हो पाती है.
इन नवगीतों में खड़ी हिंदी, देशज बुन्देली, यदा-कदा उर्दू व् अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग, मुहावरों तथा लोकोक्तियों का प्रयोग हुआ है जो लालित्य में वृद्धि करता है. दुबे जी कथ्यानुसार प्रतीकों, बिम्बों, उपमाओं तथा रूपकों का प्रयोग करते हैं. उनका मत है: 'इस नयी विधा ने काव्य पर कुटिलतापूर्वक लादे गए अतिबौद्धिक अछ्न्दिल बोझ को हल्का अवश्य किया है.' हम जंगल के अमलतास' एक महत्वपूर्ण नवगीत संग्रह है जो छान्दस वैविध्य और लालित्यपूर्ण अभिव्यक्ति से परिपूर्ण है.
***
संपर्क: २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, वाट्सऐप ९४२५१८३२४४
दोहा गीत:
*
अगर नहीं मन में संतोष
खाली हो भरकर भी कोष
*
मन-हाथी को साधिये
संयम अंकुश मार
विषधर को सर पर धरें
गरल कंठ में धार
सुख आये करिए संकोच
जब पायें तजिए उत्कोच
दुःख जय कर करिए जयघोष
अगर नहीं मन में संतोष
खाली हो भरकर भी कोष
*
रहें तराई में कदम
चढ़ना हो आसान
पहुँच शिखर पर तू 'सलिल'
पतन सुनिश्चित जान
मान मिले तो गर्व न कर
मनमर्जी को पर्व न कर
मिले नहीं तो मत कर रोष
अगर नहीं मन में संतोष
खाली हो भरकर भी कोष
***
मुक्तिका
*
अच्छे दिन आयेंगे सुनकर जी लिये
नोट भी पायेंगे सुनकर जी लिये
सूत तजकर सूट को अपना लिया
फ्लैग फहरायेंगे सुनकर जी लिये
रोज झंडा विदेशी फहरा रहे
मन वही भायेंगे सुनकर जी लिये
मौन साधा भाग, हैं वाचाल अब
भाग अजमायेंगे सुनकर जी लिये
चोर-डाकू स्वांग कर हैं एक अब
संत बन जायेंगे सुनकर जी लिये
बात अंग्रेजी में हिंदी की करें
काग ही गायेंगे सुनकर जी लिये
आम भी जब ख़ास बन लड़ते रहें
लोग पछतायेंगे सुनकर जी लिये
१६-६-२०१५
***

गुरुवार, 15 जून 2023

धारा छंद, पिता, दोहे,

छंद सलिला:
धारा छंद
*
छंद लक्षण: जाति महायौगिक, प्रति पद २९ मात्रा, यति १५ - १४, विषम चरणांत गुरु लघु सम चरणांत गुरु।
लक्षण छंद:
दे आनंद, न जिसका अंत , छंदों की अमृत धारा
रचें-पढ़ें, सुन-गुन सानंद , सुख पाया जब उच्चारा
पंद्रह-चौदह कला रखें, रेवा-धारा सदृश बहे
गुरु-लघु विषम चरण अंत, गुरु सम चरण सुअंत रहे
उदाहरण:
१. पूज्य पिता को करूँ प्रणाम , भाग्य जगा आशीष मिला
तुम बिन सूने सुबहो-शाम , 'सलिल' न मन का कमल खिला
रहा शीश पर जब तक हाथ , ईश-कृपा ने सतत छुआ
छाँह गयी जब छूटा साथ , तत्क्षण ही कंगाल हुआ
२. सघन तिमिर हो शीघ्र निशांत , प्राची पर लालिमा खिले
सूरज लेकर आये उजास , श्वास-श्वास को आस मिले
हो प्रयास के अधरों हास , तन के लगे सुवास गले
पल में मिट जाए संत्रास , मन राधा को रास मिले
३. सतत प्रवाहित हो रस-धार, दस दिश प्यार अपार रहे
आओ! कर सोलह सिंगार , तुम पर जान निसार रहे
मिली जीत दिल हमको हार , हार ह्रदय तुम जीत गये
बाँटो तो बढ़ता है प्यार , जोड़-जोड़ हम रीत गये
१५-६-२०१४
__________
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अनुगीत, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामरूप, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गीता, गीतिका, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, धारा, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मदनाग, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, रोला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विद्या, विधाता, विरहणी, विशेषिका, विष्णुपद, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, शोभन, शुद्धगा, शंकर, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हरिगीतिका, हेमंत, हंसगति, हंसी)
***
पितृ दिवस पर-
पिता सूर्य सम प्रकाशक :
*
पिता सूर्य सम प्रकाशक, जगा कहें कर कर्म
कर्म-धर्म से महत्तम, अन्य न कोई मर्म
*
गृहस्वामी मार्तण्ड हैं, पिता जानिए सत्य
सुखकर्ता भर्ता पिता, रवि श्रीमान अनित्य
*
भास्कर-शशि माता-पिता, तारे हैं संतान
भू अम्बर गृह मेघ सम, दिक् दीवार समान
*
आपद-विपदा तम हरें, पिता चक्षु दें खोल
हाथ थाम कंधे बिठा, दिखा रहे भूगोल
*
विवस्वान सम जनक भी, हैं प्रकाश का रूप
हैं विदेह मन-प्राण का, सम्बल देव अनूप
*
छाया थे पितु ताप में, और शीत में ताप
छाता बारिश में रहे, हारकर हर संताप
*
बीज नाम कुल तन दिया, तुमने मुझको तात
अन्धकार की कोख से, लाकर दिया प्रभात
*
गोदी आँचल लोरियाँ, उँगली कंधा बाँह
माँ-पापा जब तक रहे, रही शीश पर छाँह
*
शुभाशीष से भरा था, जब तक जीवन पात्र
जान न पाया रिक्तता, अब हूँ याचक मात्र
*
पितृ-चरण स्पर्श बिन, कैसे हो त्यौहार
चित्र देख मन विकल हो, करता हाहाकार
*
तन-मन की दृढ़ता अतुल, खुद से बेपरवाह
सबकी चिंता-पीर हर, ढाढ़स दिया अथाह
*
श्वास पिता की धरोहर, माँ की थाती आस
हास बंधु, तिय लास है, सुता-पुत्र मृदु हास
१५-६-२०१९
***