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सोमवार, 7 जून 2021

नवगीत जयकार कीजिए

एक रचना-
*
शिव-राज में
शव-राज की
जयकार कीजिए.
*
मर्ज कर्ज का बढ़ाकर
करें नहीं उपचार.
उत्पादक को भिखारी
बना करें सत्कार.
गोली मारें फिर कहें
अन्यों का है काम.
लोकतंत्र का हो रहा
पल-पल काम तमाम.
दे सर्प-दंश
रोग का
उपचार कीजिए.
शिव-राज में
शव-राज की
जयकार कीजिए.
*
व्यापम हुआ गवाह रहे
हैं नहीं बाकी.
सत्ता-सुरा सुरूर चढ़ा,
गुंडई साकी.
खाकी बनी चेरी कुचलती
आम जन को नित्य.
झूठ को जनप्रतिनिधि ही
कह रहे हैं सत्य.
बाजीगरी ही
आंकड़ों की
आप कीजिए.
शिव-राज में
शव-राज की
जयकार कीजिए.
*
कर-वृद्धि से टूटी कमर
कर न सके कर.
बैंकों की दे उधार,गड़ी
जमीन पे नजर.
पैदा करो, न दाम पा
सूली पे जा चढ़ो.
माला खरीदो, चित्र अपना
आप ही मढ़ो.
टूटे न नींद,
हो न खलल
ज़हर पीजिए.
शिव-राज में
शव-राज की
जयकार कीजिए.
****
७-६-२०१७

दोहा लेखन विधान, मात्रा गणना नियम, विश्ववाणी ईकाई

विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर
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अब तक निम्न दोहाकारों के दोहे के दोहे यथावश्यक संशोधित / सम्पादित तथा सहभागिता निधि प्राप्त हो जाने पर प्रकाशनार्थ अनुमोदित किए जा चुके हैं। वर्ण क्रमानुसार नाम - सर्व श्री / सुश्री / श्रीमती १. अखिलेश खरे 'अखिल', २. अनिल कुमार मिश्र, ३. अरुण शर्मा, ४. आभा सक्सेना 'दूनवी', ५. कालिपद प्रसाद, ६. डॉ. गोपालकृष्ण भट्ट 'आकुल', ७. चंद्रकांता अग्निहोत्री', ८. छगनलाल गर्ग 'विज्ञ', ९. छाया सक्सेना 'प्रभु', १०. जयप्रकाश श्रीवास्तव, ११. त्रिभुवन कौल, १२. नीता सैनी, १३. डॉ. नीलमणि दुबे, १४. प्रेमबिहारी मिश्र, १५. बसंत शर्मा, १६. मिथिलेश बड़गैया, १७. रामकुमार चतुर्वेदी, १८. रामलखन सिंह चौहान, १९. रामेश्वर प्रसाद सारस्वत, २०. रीता सिवानी, २१. विजय बागरी, २२. विनोद जैन 'वाग्वर', २३. श्यामल सिन्हा, २४. शुचि भवि, २५. शोभित वर्मा, २६. श्रीधर प्रसाद द्विवेदी, २७. सरस्वती कुमारी, २८. सुरेश कुशवाहा 'तन्मय', २९ डॉ. हरि फैजाबादी, ३०. हिमकर श्याम। भाग १ व २ पूर्ण, भाग ३ में मात्र ३ स्थान शेष हैं।
निम्न सहयोगी शेष औपचारिकताएँ अविलंब पूर्ण करें ताकि उनका स्थान सुरक्षित हो सके: १. अरुण अर्णव खरे, २. उदयभानु तिवारी 'मधुकर', ३. ॐ प्रकाश शुक्ल, ४. कांति शुक्ल 'उर्मि', ५. गोपकुमार मिश्र, ६. जगन्नाथ प्रसाद बघेल, ७. महातम मिश्र, ८.राजकुमार महोबिया, ९. लता यादव, १०. विश्वंभर शुक्ल, ११. शशि त्यागी, १२. सविता तिवारी, १३. साहब लाल दशरिये, १४. सुनीता सिंह, १५.सुमन श्रीवास्तव । आप सब उक्तानुसार सहयोग निधि भेज सकते हैं। कार्य आरंभ हो जाएगा।
निम्न दोहाकारों ने सहभागिता हेतु सहमति देते हुए दोहा-लेखन को गति देना आरम्भ कर दिया है । सर्व श्री / सुश्री / श्रीमती प्रो. अपूर्व श्रीवास्तव, प्रो. हेमंत पटेल। संकलन में जुड़ने के इच्छुक दोहाकार १२० दोहे व निधि एक साथ भेज सकते हैं। विलंब न करें।
*
दोहा लेखन विधान
१. दोहा द्विपदिक छंद है। दोहा में दो पंक्तियाँ (पद) होती हैं। हर पद में दो चरण होते हैं।
२. दोहा मुक्तक छंद है। कथ्य (जो बात कहना चाहें वह) एक दोहे में पूर्ण हो जाना चाहिए। सामान्यत: प्रथम चरण में उद्भव, द्वितीय-तृतीय चरण में विस्तार तथा चतुर्थ चरण में उत्कर्ष या समाहार होता है।
३. विषम (पहला, तीसरा) चरण में १३-१३ तथा सम (दूसरा, चौथा) चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं।
४. तेरह मात्रिक पहले तथा तीसरे चरण के आरंभ में एक शब्द में जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित होता है।
५. विषम चरणान्त में 'सरन' तथा सम चरणान्त में 'जात' वरीयता दें। विषम चरणान्त में अन्य गण हो तो लय के प्रति सजग हों।
६. विषम कला से आरंभ दोहे के विषम चरण में में कल-बाँट ३ ३ २ ३ २ तथा सम कला से आरम्भ दोहे के विषम चरण में में कल बाँट ४ ४ ३ २ तथा सम चरणों की कल-बाँट ४ ४.३ या ३३ ३ २ ३ होने पर ले सहजता से सध जाती है।
७. हिंदी दोहाकार हिंदी के व्याकरण तथा मात्रा गणना नियमों का पालन करें। दोहा में वर्णिक छंद की तरह लघु को गुरु या गुरु को लघु पढ़ने की छूट नहीं होती।
८. हिंदी में खाय, मुस्काय, आत, भात, आब, जाब, डारि, मुस्कानि, हओ, भओ जैसे देशज / आंचलिक शब्द-रूपों का उपयोग न करें। बोलियों में दोहा रचना करते समय उस बोली का यथासंभव शुद्ध रूप व्यवहार में लाएँ।
९. श्रेष्ठ दोहे में लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, मार्मिकता (मर्मबेधकता), आलंकारिकता, स्पष्टता, पूर्णता, सरलता तथा सरसता होना चाहिए।
१०. दोहे में संयोजक शब्दों और, तथा, एवं आदि का प्रयोग यथासंभव न करें। औ' वर्जित 'अरु' स्वीकार्य। 'न' सही, 'ना' गलत। 'इक' गलत।
११. दोहे में कोई भी शब्द अनावश्यक न हो। शब्द-चयन ऐसा हो जिसके निकालने या बदलने पर दोहा अधूरा सा लगे।
१२. दोहा में विराम चिन्हों का प्रयोग यथास्थान अवश्य करें।
१३. दोहे में कारक (ने, को, से, के लिए, का, के, की, में, पर आदि) का प्रयोग कम से कम हो।
१४. दोहा सम तुकांती छंद है। सम चरण के अंत में समान तुक आवश्यक है।
१५. दोहा में लय का महत्वपूर्ण स्थान है। लय के बिना दोहा नहीं कहा जा सकता।
*
मात्रा गणना नियम
१. किसी ध्वनि-खंड को बोलने में लगनेवाले समय के आधार पर मात्रा गिनी जाती है।
२. कम समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की एक तथा अधिक समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की दो मात्राएँ गिनी जाती हैंं। तीन मात्रा के शब्द ॐ, ग्वं आदि संस्कृत में हैं, हिंदी में नहीं।
३. अ, इ, उ, ऋ तथा इन मात्राओं से युक्त वर्ण की एक मात्रा गिनें। उदाहरण- अब = ११ = २, इस = ११ = २, उधर = १११ = ३, ऋषि = ११= २, उऋण १११ = ३ आदि।
४. शेष वर्णों की दो-दो मात्रा गिनें। जैसे- आम = २१ = ३, काकी = २२ = ४, फूले २२ = ४, कैकेई = २२२ = ६, कोकिला २१२ = ५, और २१ = ३आदि।
५. शब्द के आरंभ में आधा या संयुक्त अक्षर हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होगा। जैसे गृह = ११ = २, प्रिया = १२ =३ आदि।
६. शब्द के मध्य में आधा अक्षर हो तो उसे पहले के अक्षर के साथ गिनें। जैसे- क्षमा १+२, वक्ष २+१, विप्र २+१, उक्त २+१, प्रयुक्त = १२१ = ४ आदि।
७. रेफ को आधे अक्षर की तरह गिनें। बर्रैया २+२+२आदि।
८. अपवाद स्वरूप कुछ शब्दों के मध्य में आनेवाला आधा अक्षर बादवाले अक्षर के साथ गिना जाता है। जैसे- कन्हैया = क+न्है+या = १२२ = ५आदि।
९. अनुस्वर (आधे म या आधे न के उच्चारण वाले शब्द) के पहले लघु वर्ण हो तो गुरु हो जाता है, पहले गुरु होता तो कोई अंतर नहीं होता। यथा- अंश = अन्श = अं+श = २१ = ३. कुंभ = कुम्भ = २१ = ३, झंडा = झन्डा = झण्डा = २२ = ४आदि।
१०. अनुनासिक (चंद्र बिंदी) से मात्रा में कोई अंतर नहीं होता। धँस = ११ = २आदि। हँस = ११ =२, हंस = २१ = ३ आदि।
मात्रा गणना करते समय शब्द का उच्चारण करने से लघु-गुरु निर्धारण में सुविधा होती है। इस सारस्वत अनुष्ठान में आपका स्वागत है। कोई शंका होने पर संपर्क करें।
*
७-६-२०१८

शारदा वंदना बुंदेली

 दोहा-

बंदौं सारद मात खौं, हंस बिराजीं मौन
साँसों में ऐंसी बसीं, ज्यों भोजन में नौन
*
टेक-
ओ बीनावाली सारदा!, बीना दो झनकार
हंसबिराजीं मोरी माता, मंद-मंद मुसकांय
हांत जोर ठाँड़े बिधि-हरि-हर, रमा-उमा सँग आँय
ओ बीनावाली सारदा! डालो दृष्टि उदार
कमल आसनी मोर म'तारी, ध्वनि-अच्छर मा बास
मो पे किरपा करियो मैया!, मम उर करो निवास
ओ बीनावाली सारदा!, बिनती हाँत पसार
तुमनें असुरों की मति फेरी, मोरी बिपदा टारो
भौत घना तम छाओ मैया!, बनकें जोत उबारो
ओ बीनावाली सारदा!, दया-दृष्टि दो डार
***
७-६-२०२०

श्री श्री चिंतन

श्री श्री चिंतन: दोहा गुंजन

*
जो पाया वह खो दिया, मिला न उसकी आस।
जो न मिला वह भूलकर, देख उसे जो पास।।
*
हर शंका का हो रहा, समाधान तत्काल।
जिस पर गुरु की हो कृपा, फल पाए हर हाल।।
*
धन-समृद्धि से ही नहीं, मिल पाता संतोष।
काम आ सकें अन्य के, घटे न सेवा कोष।।
*
गुरु जी से जो भी मिला, उसका कहीं न अंत।
गुरु में ही मिल जायेंगे, तुझको आप अनंत।।
*
जीवन यात्रा शुरू की, आकर खाली हाथ।
जोड़-तोड़ तज चला चल, गुरु-पग पर रख माथ।।
*
लेखन में संतुलन हो, सत्य-कल्पना-मेल।।
लिखो सकारात्मक सदा, शब्दों से मत खेल।।
*
गुरु से पाकर प्रेरणा, कर खुद पर विश्वास।
अपने अनुभव से बढ़ो, पूरी होगी आस।।.
*
गुरु चरणों का ध्यान कर, हो जा भव से पार।
गुरु ही जग में सार है, बाकी जगत असार।।
*
मन से मन का मिलन ही, संबंधों की नींव।
मन न मिले तो, गुरु-कृपा, दे दें करुणासींव।।
*
वाणी में अपनत्व है, शब्दों में है सत्य।
दृष्टि अमिय बरसा रही, बन जा गुरु का भृत्य।।
*
नस्ल, धर्म या लिंग का, भेद नहीं स्वीकार।
उस प्रभु को जिसने किया, जीवन को साकार।।
*
है अनंत भी शून्य भी, अहं ईश का अंश।
डूब जाओ या लीन हो, लक्ष्य वही अवतंश।।
*
शब्द-शब्द में भाव है, भाव समाहित अर्थ।
गुरु से यह शिक्षा मिली, शब्द न करिए व्यर्थ।।
*
बिंदु सिंधु में समाहित, सिंधु बिंदु में लीन।
गुरु का मानस पुत्र बन, रह न सकेगा दीन।।
*
सद्विचार जो दे जगा, वह लेखन है श्रेष्ठ।
लेखक सत्यासत्य को, साध बन सके ज्येष्ठ।।
७.६.२०१८, ७९९९५५९६१८

शुक्रवार, 4 जून 2021

दोहा सलिला

दोहा सलिला
सुधा-पान कर इंदु जा, बैठा शिव के शीश
नागनाथ के सिर चढ़ा, देखें चकित गिरीश
*
कर न सकें सरकार क्यों, असरकार कुछ काम?
गलत नीतियाँ बनाकर, कहें विधाता वाम
*
श्री वास्तव में पा सके, जो है वही रमेश
हाथ जोड़ वंदन करे, सुर नर सिद्ध सुरेश
*
वृक्षारोपण हो नहीं, सकता यह लें मान
पौधारोपण हो-बढ़े, तब हो वृक्ष वितान
*
भाषा वाहक भाव की, कहे सत्य अनुभूत
संवेदन हर शब्द में, अन्तर्निहित प्रभूत
*
शर्मा रहे सुधेन्दु क्यों, करें स्नेह संवाद
सीधी-सच्ची बात से, मिटते सभी विवाद
*
दोहा हिंदी बघेली, दोनों से कर प्रीत
भाईचारे की 'सलिल', बना रहा है रीत
*
४-६-२०२०

मुक्तिका

मुक्तिका

*
बाँचते सपने कथाएँ
विगत को कैसे भुलाएँ?
*
कहे आगत चूकना मत
जो मिले अवसर भुनाएँ
*
बात मुँह देखी करें सब
क्या सही सच कब बताएँ?
*
हमसफर-हमकदम हैं तो
श्वास-श्वासों में घुलाएँ
*
चाह निजता की विषैली
पाल दूरी मत बढ़ाएँ
*
आप बेगम क्यों न बे-गम
ख़ुशी को हमदम बनाएँ
*
धूप-छाँवी ज़िंदगी है
स्नेह-सलिला नित नहाएँ
***
[मानव जातीय छन्द]
२४-४-२०१६
सी २५६ आवास-विकास हरदोई

समीक्षा यह ‘काल है संक्रांति का’ - राजेंद्र वर्मा

समीक्षा
यह ‘काल है संक्रांति का’
- राजेंद्र वर्मा
गद्य-पद्य की विभिन्न विधाओं में निरंतर सृजनरत और हिंदी भाषा के व्याकरण तथा पिंगल के अधिकारी विद्वान आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ने खड़ी हिंदी के समांतर बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, राजस्थानी, हरियाणवी, सिरायकी तथा अंग्रेजी में भी लेखन किया है। अपनी बुआश्री महीयसी महादेवी जी तथा माताजी कवयित्री शांति देवी को साहित्य व भाषा-प्रेम की प्रेरणा माननेवाले ‘सलिल’ जी आभासी दुनिया में भी वे अपनी सतत और गंभीर उपस्थिति से हिंदी के साहित्यिक पाठकों को लाभान्वित करते रहे हैं। गीत, नवगीत, ग़ज़ल और कविता के लेखन में छंद की प्रासंगिकता और उसके व्याकरण पर भी उन्होंने अपेक्षित प्रकाश डाला है। रस-छंद- अलंकारों पर उनका विशद ज्ञान लेखों के माध्यम से हिंदी संसार को लाभान्वित करता रहा है। वस्तु की दृष्टि से शायद ही कोई ऐसा विषय हो जो उनकी लेखनी से अछूता रहा हो- भले ही वह गीत हो, कविता हो अथवा लेख! नवीन विषयों पर पकड़ के साथ-साथ उनकी रचनाओं में विशद जीवनानुभव बोलता-बतियाता है और पाठकों-श्रोताओं में संजीवनी भरता है।
‘काल है संक्रांति का’ संजीव जी का नवीनतम गीत-संग्रह है जिसमें ६५ गीत-नवगीत हैं। जनवरी २०१४ से मार्च २०१६ के मध्य रचे गये ये गीत शिल्प और विषय, दोनों में बेजोड़ हैं। संग्रह में लोकगीत, सोहर, हरगीतिका, आल्हा, दोहा, दोहा-सोरठा मिश्रित, सार आदि नए-पुराने छंदों में सुगठित ये गीति-रचनाएँ कलात्मक अभिव्यक्ति में सामयिक विसंगतियों और विद्रूपताओं की ख़बर लेते हुए आम आदमी की पीड़ा और उसके संघर्ष-संकल्प को जगर-मगर करती चलती हैं। नवगीत की शक्ति को पहचानकर शिल्प और वास्तु में अधिकाधिक सामंजस्य बिठाकर यथार्थवादी भूमि पर रचनाकार ने आस-पास घटित हो रहे अघट को कभी सपाट, तो कभी प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से उद्घाटित किया है। विसंगतियों के विश्लेषण और वर्णित समस्या का समाधान प्रस्तुत करते अधिकांश गीत टटकी भाव-भंगिमा दर्शाते हैं। बिम्ब-प्रतीक, भाषा और टेक्नीक के स्तरों पर नवता का संचार करते हैं। इनमें ऐंद्रिक भाव भी हैं, पर रचनाकार तटस्थ भाव से चराचर जगत को सत्यम्-शिवम्- सुन्दरम् के वैचारिक पुष्पों से सजाता है।
शीर्षक गीत, ‘काल है संक्रांति का’ में मानवीय मूल्यों और प्राची के परिवेश से च्युत हो रहे समाज को सही दिशा देने के उद्देश्य से नवगीतकार, सूरज के माध्यम से उद्बोधन देता है। यह सूरज आसमान में निकलने वाला सूरज ही नहीं, वह शिक्षा, साहित्य, विज्ञान आदि क्षेत्रों के पुरोधा भी हो सकते हैं जिन पर दिग्दर्शन का उत्तरदायित्व है—
काल है संक्रांति का / तुम मत थको सूरज!
दक्षिणायन की हवाएँ / कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी / काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती / फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश / से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रांति को / तुम मत रुको सूरज!
.......
प्राच्य पर पाश्चात्य का / अब चढ़ गया है रंग
कौन, किसको सम्हाले / पी रखी मद की भंग
शराफत को शरारत / नित कर रही है तंग
मनुज-करनी देखकर है / ख़ुद नियति भी दंग
तिमिर को लड़, जीतना / तुम मत चुको सूरज! (पृ.१६)
एक अन्य गीत, ‘संक्रांति काल है’ में रचनाकार व्यंग्य को हथियार बनाता है। सत्ता व्यवस्था में बैठे लोगों से अब किसी भले काम की आशा ही नहीं रही, अतः गीतकार वक्रोक्ति का सहारा लेता है-
प्रतिनिधि होकर जन से दूर / आँखे रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर / राजनीति तज दे तंदूर
अब भ्रान्ति टाल दो / जगो, उठो!
अथवा,
सूरज को ढाँके बादल / सीमा पर सैनिक घायल
नाग-साँप फिर साथ हुए / गुँजा रहे बंसी-मादल
झट छिपा माल दो / जगो, उठो!
गीतकार सत्ताधीशों की ही खबर नहीं लेता, वह हममें-आपमें बैठे चिन्तक-सर्जक पर भी व्यंग्य करता है; क्योंकि आज सत्ता और सर्जना में दुरभिसंधि की उपस्थिति किसी से छिपी नहीं हैं--
नवता भरकर गीतों में / जन-आक्रोश पलीतों में
हाथ सेंक ले कवि, तू भी / जी ले आज अतीतों में
मत खींच खाल दो / जगो, उठो! (पृ.२०)
शिक्षा जीवन की रीढ़ है। इसके बिना आदमी पंगु है, दुर्बल है और आसानी से ठगा जाता है। गीतकार ने सूरज (जो प्रकाश देने का कार्य करता है) को पढने का आह्वान किया है, क्योंकि जब तक ज्ञान का प्रकाश नहीं फैलता है, तब तक किसी भी प्रकार के विकास या उन्नयन की बात निरर्थक है। सन्देश रचने और अभिव्यक्त करने में रचनाकार का प्रयोग अद्भुत है—
सूरज बबुआ! / चल स्कूल।
धरती माँ की मीठी लोरी / सुनकर मस्ती ख़ूब करी।
बहिन उषा को गिरा दिया / तो पिता गगन से डाँट पड़ी।
धूप बुआ ने लपक चुपाया
पछुआ लायी बस्ता-फूल।
......
चिड़िया साथ फुदकती जाती / कोयल से शिशु गीत सुनो।
‘इकनी एक’ सिखाता तोता / ’अ’ अनार का याद रखो।
संध्या पतंग उड़ा, तिल-लडुआ
खा, पर सबक़ न भूल। (पृ.३५)
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। नव वर्ष का आगमन हर्षोल्लास लाता है और मानव को मानवता के पक्ष में कुछ संकल्प लेने का अवसर भी, पर हममें से अधिकांश की अन्यमनस्कता इस अवसर का लाभ नहीं उठा पाती। ‘सलिल’ जी दार्शनिक भाव से रचना प्रस्तुत करते हैं जो पाठक पर अन्दर-ही- अन्दर आंदोलित करती चलती है—
नये साल को/आना है तो आएगा ही।
करो नमस्ते या मुँह फेरो।
सुख में भूलो, दुख में टेरो।
अपने सुर में गायेगा ही/नये साल...।
एक-दूसरे को ही मारो।
या फिर, गले लगा मुस्काओ।
दर्पण छवि दिखलायेगा ही/नये साल...।
चाह, न मिटना, तो ख़ुद सुधरो।
या कोसो जिस-तिस को ससुरो!
अपना राग सुनायेगा ही/नये साल...। (पृ.४७)
विषयवस्तु में विविधता और उसकी प्रस्तुति में नवीनता तो है ही, उनके शिल्प में, विशेषतः छंदों को लेकर रचनाकार ने अनेक अभिनव प्रयोग किये हैं, जो रेखांकित किये जाने योग्य हैं। कुछ उद्धरण देखिए—
सुन्दरिये मुन्दरिये, होय!
सब मिल कविता करिये होय!
कौन किसी का प्यारा होय!
स्वार्थ सभी का न्यारा होय!
जनता का रखवाला होय!
नेता तभी दुलारा होय!
झूठी लड़ै लड़ाई होय!
भीतर करें मिताई होय!
.....
हिंदी मैया निरभै होय!
भारत माता की जै होय! (पृ.४९)
उपर्युक्त रचना पंजाब में लोहड़ी पर्व पर राय अब्दुल्ला खान भट्टी उर्फ़ दुल्ला भट्टी को याद कर गाये जानेवाले लोकगीत की तर्ज़ पर है। इसी प्रकार निम्नलिखित रचना बुन्देली लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फागों (पद भार१६/१२) पर आधारित है। दोनों ही गीतों की वस्तु में युगबोध उमगता हुआ दिखता है—
मिलती काय नें ऊँचीवारी / कुर्सी हमको गुइयाँ!
हमखों बिसरत नहीं बिसारे / अपनी मन्नत प्यारी
जुलुस, विसाल भीर जयकारा / सुविधा संसद न्यारी
मिल जाती, मन की कै लेते / रिश्वत ले-दे भइया!
......
कौनउ सगो हमारो नैयाँ / का काऊ से काने?
अपने दस पीढ़ी खें लाने / हमें जोड़ रख जानें।
बना लई सोने की लंका / ठेंगे पे राम-रमैया! (पृ.५१)
इसी छंद में एक गीत है, ‘जब लौं आग’, जिसमें कवि ने लोक की भाषा में सुन्दर उद्बोधन दिया है। कुछ पंक्तियाँ देखें—
जब लौं आग न बरिहै, तब लौं / ना मिटिहै अन्धेरा!
सबऊ करो कोसिस मिर-जुर खें / बन सूरज पगफेरा।
......
गोड़-तोड़ हम फ़सल उगा रए / लूट रए व्यापारी।
जन के धन से तनखा पा खें / रौंद रए अधिकारी।
जागो, बनो मसाल / नई तो / घेरे तुमै / अँधेरा! (पृ.६४)
गीत ‘सच की अरथी’ (पृ.55) दोहा छंद में है, तो अगले गीत, ‘दर्पण का दिल’ का मुखड़ा दोहे छंद में है और उसके अंतरे सोरठे में हैं, तथापि गीत के ठाठ में कोई कमी नहीं आयी है। कुछ अंश देखिए—
दर्पण का दिल देखता, कहिए, जब में कौन?
आप न कहता हाल, भले रहे दिल सिसकता।
करता नहीं ख़याल, नयन कौन-सा फड़कता!
सबकी नज़र उतारता, लेकर राई-नौन! (पृ.५७)
छंद-प्रयोग की दृष्टि से पृष्ठ ५९, ६१ और ६२ पर छोटे-छोटे अंतरों के गीत ‘हरगीतिका’ में होने के कारण पाठक का ध्यान खींचते हैं। एक रचनांश का आनंद लीजिए—
करना सदा, वह जो सही।
........
हर शूल ले, हँस फूल दे
यदि भूल हो, मत तूल दे
नद-कूल को पग-धूल दे
कस चूल दे, मत मूल दे
रहना सदा, वह जो सही। (पृ.६२)
सत्ता में बैठे छद्म समाजवादी और घोटालेबाजों की कमी नहीं है। गीतकार ने ऐसे लोगों पर प्रहार करने में कसर नहीं छोड़ी है—
बग्घी बैठा / बन सामंती समाजवादी।
हिन्दू-मुस्लिम की लड़वाये
अस्मत की धज्जियाँ उड़ाये
आँसू, सिसकी, चीखें, नारे
आश्वासन कथरी लाशों पर
सत्ता पाकर / उढ़ा रहा है समाजवादी! (पृ.७६)
देश में तमाम तरक्क़ी के बावजूद दिहाड़ी मज़दूरों की हालत ज्यों-की- त्यों है। यह ऐसा क्षेत्र है जिसके संगठितहोने की चर्चा भी नहीं होती, परिणाम यह कि मजदूर को जब शाम को दिहाड़ी मिलती है, वह खाने-पीने के सामान और जीवन के राग को संभालने-सहेजने के उपक्रमों को को जुटाने बाज़ार दौड़ता है। ‘सलिल’ जी ने इस क्षण को बखूबी पकड़ा है और उसे नवगीत में सफलतापूर्वक ढाल दिया है—
मिली दिहाड़ी / चल बाज़ार।
चावल-दाल किलो-भर ले ले / दस रुपये की भाजी
घासलेट का तेल लिटर-भर / धनिया- मिर्चा ताज़ी
तेल पाव-भर फल्ली का / सिन्दूर एक पुड़िया दे-
दे अमरूद पाँच का / बेटी की न सहूँ नाराजी
ख़ाली ज़ेब, पसीना चूता / अब मत रुक रे! / मन बेज़ार! (पृ.८१)
आर्थिक विकास, सामाजिक विसंगतियों का जन्मदाता है। समस्या यह भी है कि हमारे अपनों ने अपने चरित्र में भी संकीर्णता भर ली है। ऐसे हम चाहते भी कुछ नहीं कर पाते और उच्छवास ले-ले रह जाते हैं। ऐसी ही व्यथा का चित्रांकन एक गीत, ‘राम बचाये’ में द्रष्टव्य है। इसके दो बंद देखें—
अपनी-अपनी मर्यादा कर तार-तार / होते प्रसन्न हम,
राम बचाये!
वृद्धाश्रम-बालाश्रम और अनाथालय / कुछ तो कहते हैं!
महिलाश्रम की सुनो सिसकियाँ / आँसू क्यों बहते रहते हैं?
राम-रहीम बीनते कूड़ा / रजिया-रधिया झाडू थामे
सड़क किनारे, बैठे लोटे बतलाते / कितने विपन्न हम,
राम बचाये!
अमराई पर चौपालों ने / फेंका क्यों तेज़ाब, पूछिए!
पनघट ने खलिहानों को क्यों / नाहक़ भेजा जेल बूझिए।
सास-बहू, भौजाई-ननदी / क्यों माँ-बेटी सखी न होती?
बेटी-बेटे में अंतर कर / मन से रहते सदा खिन्न हम,
राम बचाये! (पृ.९४)
इसी क्रम में एक गीत, ख़ुशियों की मछली’ उल्लेखनीय है जिसमें समाज और सत्ता का गँठजोड़ आम आदमी को जीने नहीं दे रहा है। गीत की बुनावट में युगीन यथार्थ के साथ दार्शनिकता का पुट भी है—
ख़ुशियों की मछली को / चिंता का बगुला/खा जाता है।
श्वासों की नदिया में / आसों की लहरें
कूद रही हिरनी-सी / पल भर ना ठहरें
आँख मूँद मगन / उपवासी साधक / ठग जाता है।
....
श्वेत वसन नेता है / लेकिन मन काला
अंधे न्यायालय ने / सच झुठला डाला
निरपराध फँस जाता / अपराधी शातिर बच जाता है।। (पृ.९८)
गीत, ‘लोकतंत्र’ का पंछी’ में भी आम आदमी की व्यथा का यथार्थ चित्रांकन है। सत्ता-व्यवस्था के दो प्रमुख अंग- विधायिका और न्यायपालिका अपने उत्तरदायित्व से विमुख होते जा रहे हैं और जनमत की भूमिका भी संदिग्ध होती जा रही है। लोकतांत्रिक व्यवस्था ही ध्वस्त होती जा रही है—
लोकतंत्र का पंछी बेबस!
नेता पहले डालें दाना / फिर लेते पर नोच
अफ़सर रिश्वत-गोली मारें / करें न किंचित सोच
व्यापारी दे नाश रहा डँस!
.......
राजनीति नफ़रत की मारी / लिए नींव में पोच
जनमत बहरा-गूंगा खो दी / निज निर्णय की लोच
एकलव्य का कहीं न वारिस! (पृ.१००)
प्रकृति के उपादानों को लेकर मानवीय कार्य-व्यापार की रचना विश्वव्यापक होती है, विशेषतः जब उसमें चित्रण-भर न हो, बल्कि उसमें मार्मिकता, और संवेदनापूरित जीवन्तता हो। ‘खों-खों करते’ ऐसा ही गीत है जिसमें शीत ऋतु में एक परिवार की दिनचर्या का जीवन्त चित्र है—
खों-खों करते बादल बब्बा / तापें सूरज सिगड़ी।
आसमान का आँगन चौड़ा / चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा
ऊधम करते नटखट तारे / बदरी दादी, ‘रुको’ पुकारे
पछुआ अम्मा बड़-बड़ करती / डाँट लगाती तगड़ी!
धरती बहिना राह हेरती / दिशा सहेली चाह घेरती
ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम / रात और दिन बेटे अनुपम
पाला-शीत / न आये घर में / खोल न खिड़की अगड़ी!
सूर बनाता सबको कोहरा / ओस बढ़ाती संकट दोहरा
कोस न मौसम को नाहक़ ही / फ़सल लायगी राहत को ही
हँसकर खेलें / चुन्ना-मुन्ना / मिल चीटी-ढप- लँगड़ी! (पृ.१०३)
इन विषमताओं और विसंगतियों के बाबजूद गीतकार अपना कवि-धर्म नहीं भूलता। नकारात्मकता को विस्मृत कर वह आशा की फ़सल बोने और नये इतिहास लिखने का पक्षधर है—
आज नया इतिहास लिखें हम।
अब तक जो बीता, सो बीता
अब न आस-घट होगा रीता
अब न साध्य हो स्वार्थ सुभीता,
अब न कभी लांछित हो सीता
भोग-विलास न लक्ष्य रहे अब
हया, लाज, परिहास लिखें हम।
आज नया इतिहास लिखें हम।।
रहें न हमको कलश साध्य अब
कर न सकेगी नियति बाध्य अब
स्नेह-स्वेद- श्रम हों अराध्य अब
कोशिश होगी महज माध्य अब
श्रम-पूँजी का भक्ष्य न हो अब
शोषक हित खग्रास लिखें हम।। (पृ.१२२)
रचनाकार को अपने लक्ष्य में अपेक्षित सफलता मिली है, पर उसने शिल्प में थोड़ी छूट ली है, यथा तुकांत के मामले में, अकारांत शब्दों का तुक इकारांत या उकारांत शब्दों से (उलट स्थिति भी)। इसी प्रकार, उसने अनुस्वार वाले शब्दों को भी तुक के रूप में प्रयुक्त कर लिया है, जैसे- गुइयाँ / भइया (पृ.५१), प्रसन्न / खिन्न (पृ.९४) सिगड़ी / तगड़ी / लंगड़ी (पृ.१०३)। एकाध स्थलों पर भाषा की त्रुटि भी दिखायी पड़ी है, जैसे- पृष्ठ १२७ पर एक गीत में‘दम’ शब्द को स्त्रीलिंग मानकर ‘अपनी’ विशेषण प्रयुक्त हुआ है। तथापि, इन छोटी-मोटी बातों से संग्रह का मूल्य कम नहीं हो जाता।
गीतकार ने गीतों की भाषा में अपेक्षित लय सुनिश्चित करने के लिए हिंदी-उर्दू के बोलचाल शब्दों को प्राथमिकता दी है; कहीं-कहीं भावानुसार तत्सम शब्दावली का चयन किया है। अधिकांश गीतों में लोक का पुट दिखलायी देता है जिससे पाठक को अपनापन महसूस होता है। आज हम गद्य की औपचारिक शब्दावली से गीतों की सर्जना करने में अधिक लगे हैं, जिसका परिणाम यह हो रहा है कि उनमें मार्मिकता और अपेक्षित संवेदना का स्तर नहीं आ पाता है। भोथरी संवेदनावाली कविता से हमें रोमावलि नहीं हो सकती, जबकि आज उसकी आवश्यकता है। ‘सलिल’ जी ने इसकी भरपाई की पुरज़ोर कोशिश की है जिसका हिंदी नवगीत संसार द्वारा स्वागत किया जाना चाहिए।
वर्तमान संग्रह निःसंदेह नवगीत के प्रसार में अपनी सशक्त भूमिका निभा रहा है और आने वाले समय में उसका स्थान इतिहास में अवश्य लिया जाएगा, यह मेरा विश्वास है।... लोक की शक्ति को सोद्देश्य नवगीतों में ढालने हेतु ‘सलिल’ जी साधुवाद के पात्र है।
- 3/29, विकास नगर, लखनऊ-226 022 (मो.80096 60096)
*
[कृति विवरण- पुस्तक का नाम- काल है संक्रांति का (नवगीत-संग्रह); नवगीतकार- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेन्ट, सुभद्रा वार्ड, नेपियर टाउन, जबलपुर- ४८२००१ संस्करण- प्रथम, २०१६; पृष्ठ संख्या- १२८, मूल्य- पुस्तकालय संस्करण: तीन सौ रुपये; जनसंस्करण: दो सौ रुपये।]
*****

नवगीत, मुक्तक

नवगीत:
संजीव
*
थाली की
गोदी में बैठ
कटोरी खेले.
चम्मच के
नखरे अनगिन
दोनों ने झेले.
*
बब्बा गंज,
कढ़ाई दादी,
बेलन नाना,
झरिया नानी
मँहगाई का रोना रोते
नेह-प्रेम की फसलें बोते
बिना सियासत ताल-मेल कर
मन का संयम तनिक न खोते
आये एक पर
मुश्किल, सब मिल
सिर पर लेते.
थाली की
गोदी में बैठ
कटोरी खेले.
चम्मच के
नखरे अनगिन
दोनों ने झेले.
*
आटा-दाल,
मिठाई-रोटी,
पुड़ी-कचौरी ,
ताज़ी मोटी.
जिस मन भाये, जी भर खाये.
बिना मिलावट, पचा न पाये.
फास्ट फुडों की मारामारी
कोल्ड ड्रिंक करता बटमारी.
लस्सी-पनहा
पान-पन्हैया
बिसरा देते
थाली की
गोदी में बैठ
कटोरी खेले.
चम्मच के
नखरे अनगिन
दोनों ने झेले.
*
खस के परदे,
कूलर निगले,
भीषण ताप,
गैस भी उगले.
सरकारें कर बढ़ा-बढ़ाकर
अपनी ही जनता को लूटें.
अफसर-नेता निज सुविधा पर
बेदर्दी से जन-धन फूंकें.
अच्छे दिन है
अच्छे-अच्छे
हारे-रोते.
थाली की
गोदी में बैठ
कटोरी खेले.
चम्मच के
नखरे अनगिन
दोनों ने झेले.

*

मुक्तक:
संजीव
*
इंसानी फितरत समान है, रहो देश या बसों विदेश
ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ मलिनता मिले न लेश
जैसा देश वेश हो वैसा पुरखे सच ही कहते थे-
स्वीकारें सच किन्तु क्षुब्ध हो नोचें कभी न अपने केश
*
४-६-२०१५

मदनाग छंद

छंद सलिला:
मदनाग छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति पद - मात्रा २५ मात्रा, यति १७ - ८
लक्षण छंद:
कलाएँ सत्रह-आठ दिखाये, नटवर अपनी
उगल विष नाग कालिया कोसे, किस्मत अपनी
छंद मदनाग निराशाएं कर दूर, मगन हो
मुदित मन मथुरावासी हर्षित, मोद मगन हों
उदाहरण:
१. देश की जयकार करते रहें, विहँस हम सभी
आत्म का उद्धार करते रहें, विहँस हम सभी
बुरे का प्रतिकार करते रहें, विहँस हम सभी
भले का सहकार करते रहें, विहँस हम सभी
२. काम कुछ अच्छा करना होगा, संकल्प करें
नाम कुछ अच्छा वरना होगा, सुविकल्प करें
दाम हर चीज का होता नहीं, ये सच कह दें
जान निज देश पर निसार 'सलिल' हर कल्प करें
३.जीत वही पाता जो फिसलकर, उठ भी सकता
मंज़िल मिले उसे जो सम्हलकर, शुभ कर सकता
होता घना अँधेरा धरा पर, जब-जब बेहद
एक नन्हा दीप खुद जलकर सब, तम हर सकता
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मदनाग, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, रोला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)

गीत

रैप गीत 
*
बनो विजेता
कहे प्रणेता!
बनो विजेता।
कहो कहानी,
नित्य सुहानी।
तजो बहाना,
वचन निभाना।
सजन सजा ना!
साज बजा ना!
लगा डिठौना,
नाचे छौना
चाँद चाँदनी,
पूत पावनी।
है अखंड जग,
आठ दिशा मग
पग-पग चलना,
मंज़िल वरना।
४-६-२-१४

आंकिक उपमान

छंद शास्त्र में आंकिक उपमान:
संजीव
*
छंद शास्त्र में मात्राओं या वर्णों संकेत करते समय ग्रन्थों में आंकिक शब्दों का प्रयोग किया गया है। ऐसे कुछ शब्द नीचे सूचीबद्ध किये गये हैं। इनके अतिरिक्त आपकी जानकारी में अन्य शब्द हों तो कृपया, जोड़िये।
*
एक - ॐ, परब्रम्ह 'एकोsहं द्वितीयोनास्ति', क्षिति, चंद्र, भूमि, नाथ, पति, गुरु।
पहला - वेद ऋग्वेद, युग सतयुग, देव ब्रम्हा, वर्ण ब्राम्हण, आश्रम: ब्रम्हचर्य, पुरुषार्थ अर्थ। 
इक्का, एकाक्षी काना, एकांगी, इकतरफा, अद्वैत, एकत्व। 
दो - देव- अश्विनी-कुमार। पक्ष- कृष्ण-शुक्ल। युग्म/युगल- प्रकृति-पुरुष, नर-नारी, जड़-चेतन। विद्या- परा-अपरा। इन्द्रियाँ- नयन/आँख, कर्ण/कान, कर/हाथ, पग/पैर। लिंग- स्त्रीलिंग, पुल्लिंग।
दूसरा- वेद: सामवेद, युग त्रेता, देव: विष्णु, वर्ण: क्षत्रिय, आश्रम: गृहस्थ, पुरुषार्थ: धर्म। 
महर्षि: द्वैपायन/व्यास। द्वैत, विभाजन। 
तीन/त्रि - देव / त्रिदेव/त्रिमूर्ति: ब्रम्हा-विष्णु-महेश। ऋण: देव ऋण, पितृ-मातृ ऋण, ऋषि ऋण। अग्नि- पापाग्नि, जठराग्नि, कालाग्नि। काल: वर्तमान, भूत, भविष्य। गुण: । दोष: वात, पित्त, कफ (आयुर्वेद)। लोक: स्वर्ग, भू, पाताल / स्वर्ग, भूलोक, नर्क। त्रैलोक्य-कृतक त्रैलोक्य (2) महर्लोक, (3) अकृतक त्रैलोक्य, त्रैलोक्य के तीन भेद- भूलोक (जहाँ तक सूर्य, चंद्रमा आदि का प्रकाश जाता है), भुवर्लोक (पृथ्वी और सूर्य के बीच का स्थान, ग्रह-नक्षत्र लोक), स्वर्लोक (सूर्य और ध्रुव के बीच जो चौदह लाख योजन का अंतर जहाँ सप्तर्षि हैं,स्वर्ग)। त्रिवेणी / त्रिधारा: सरस्वती, गंगा, यमुना। ताप: दैहिक, दैविक, भौतिक। राम: श्री राम, बलराम, परशुराम। ऋतु: पावस/वर्षा शीत/ठंड ग्रीष्म। मामा:कंस, शकुनि, माहुल। स्वांग (हास्य प्रहसन, लोक- पर्व, उपास्य, विवाह आदि, व्यवस्था विरोध)
तीसरा- वेद: यजुर्वेद, युग द्वापर, देव: महेश, वर्ण: वैश्य, आश्रम: वानप्रस्थ, पुरुषार्थ: काम। 
त्रिकोण, त्रिनेत्र = शिव, त्रिदल बेल पत्र, त्रिशूल, त्रिभुवन, तीज, तिराहा, त्रिमुख ब्रम्हा। त्रिभुज तीन रेखाओं से घिरा क्षेत्र।
चार - युग: सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग। धाम: द्वारिका, बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम धाम। पीठ: शारदा पीठ द्वारिका, ज्योतिष पीठ जोशीमठ बद्रीधाम, गोवर्धन पीठ जगन्नाथपुरी, श्रृंगेरी पीठ। वेद: ऋग्वेद, अथर्वेद, यजुर्वेद, सामवेद।आश्रम: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास। अंतःकरण: मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। वर्ण: ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र। पुरुषार्थ: अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष। दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण। फल: । अवस्था: शैशव/बचपन, कैशोर्य/तारुण्य, प्रौढ़ता, वार्धक्य।धाम: बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारिका। विकार/रिपु: काम, क्रोध, मद, लोभ।
अर्णव, अंबुधि, श्रुति,
चौथा - वेद: अथर्वर्वेद, युग कलियुग, वर्ण: शूद्र, आश्रम: सन्यास, पुरुषार्थ: मोक्ष,
चौराहा, चौगान, चौबारा, चबूतरा, चौपाल, चौथ, चतुरानन गणेश, चतुर्भुज विष्णु, चार भुजाओं से घिरा क्षेत्र।, चतुष्पद चार पंक्ति की काव्य रचना, चार पैरोंवाले पशु।, चौका रसोईघर, क्रिकेट के खेल में जमीन छूकर सीमाँ रेखा पार गेंद जाना, चार रन।
पाँच/पंच - गव्य: गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र, गोबर। देव: गणेश, विष्णु, शिव, देवी, सूर्य। तत्त्व: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश। अमृत: दुग्ध, दही, घृत, मधु, नर्मदा/गंगा जल। अंग/पंचांग: । पंचनद: । ज्ञानेन्द्रियाँ: आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा। कर्मेन्द्रियाँ: हाथ, पैर,आँख, कान, नाक। कन्या: ।, प्राण ।, शर: ।, प्राण: ।, भूत: ।, यक्ष: ।,
इशु: । पवन: । पांडव पाण्डु के ५ पुत्र युधिष्ठिर भीम अर्जुन नकुल सहदेव। शर/बाण: । पंचम वेद: आयुर्वेद।
पंजा, पंच, पंचायत, पंचमी, पंचक, पंचम: पांचवा सुर, पंजाब/पंचनद: पाँच नदियों का क्षेत्र, पंचानन = शिव, पंचभुज पाँच भुजाओं से घिरा क्षेत्र,
छह/षट - दर्शन: वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मीसांसा, दक्षिण मीसांसा। अंग: ।, अरि: ।, कर्म/कर्तव्य: ।, चक्र: ।, तंत्र: ।, रस: ।, शास्त्र: ।, राग:।, ऋतु: वर्षा, शीत, ग्रीष्म, हेमंत, वसंत, शिशिर।, वेदांग: ।, इति:।, अलिपद: ।
षडानन कार्तिकेय, षट्कोण छह भुजाओं से घिरा क्षेत्र,
सात/सप्त - ऋषि - विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ एवं कश्यप। पुरी- अयोध्या, मथुरा, मायापुरी हरिद्वार, काशी वाराणसी , कांची (शिन कांची - विष्णु कांची), अवंतिका उज्जैन और द्वारिका। पर्वत: ।, अंध: ।, लोक: ।, धातु: ।, सागर: ।, स्वर: सा रे गा मा पा धा नी।, रंग: सफ़ेद, हरा, नीला, पीला, लाल, काला।, द्वीप: ।, नग/रत्न: हीरा, मोती, पन्ना, पुखराज, माणिक, गोमेद, मूँगा।, अश्व: ऐरावत,
सप्त जिव्ह अग्नि,
सप्ताह = सात दिन, सप्तमी सातवीं तिथि, सप्तपदी सात फेरे,
आठ/अष्ट - वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष। योग- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। लक्ष्मी - आग्घ, विद्या, सौभाग्य, अमृत, काम, सत्य , भोग एवं योग लक्ष्मी ! सिद्धियाँ: ।, गज/नाग: । दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य।, याम: ।,
अष्टमी आठवीं तिथि, अष्टक आठ ग्रहों का योग, अष्टांग: ।,
अठमासा आठ माह में उत्पन्न शिशु,
नव दुर्गा - शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री। गृह: सूर्य/रवि , चन्द्र/सोम, गुरु/बृहस्पति, मंगल, बुध, शुक्र, शनि, राहु, केतु।, कुंद: ।, गौ: ।, नन्द: ।, निधि: ।, विविर: ।, भक्ति: ।, नग: ।, मास: ।, रत्न ।, रंग ।, द्रव्य ।,
नौगजा नौ गज का वस्त्र/साड़ी।, नौरात्रि शक्ति ९ दिवसीय पर्व।, नौलखा नौ लाख का (हार)।,
नवमी ९ वीं तिथि।,
दस - दिशाएं: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, पृथ्वी, आकाश।, इन्द्रियाँ: ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ।, अवतार - मत्स्य, कच्छप, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, श्री राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दशमुख/दशानन/दशकंधर/दशबाहु रावण।, दष्ठौन शिशु जन्म के दसवें दिन का उत्सव।, दशमी १० वीं तिथि।, दीप: ।, दोष: ।, दिगपाल: ।
ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
एकादशी ११ वीं तिथि,
बारह - आदित्य: धाता, मित, आर्यमा, शक्र, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।, ज्योतिर्लिंग - सोमनाथ राजकोट, मल्लिकार्जुन, महाकाल उज्जैन, ॐकारेश्वर खंडवा, बैजनाथ, रामेश्वरम, विश्वनाथ वाराणसी, त्र्यंबकेश्वर नासिक, केदारनाथ, घृष्णेश्वर, भीमाशंकर, नागेश्वर। मास: चैत्र/चैत, वैशाख/बैसाख, ज्येष्ठ/जेठ, आषाढ/असाढ़ श्रावण/सावन, भाद्रपद/भादो, अश्विन/क्वांर, कार्तिक/कातिक, अग्रहायण/अगहन, पौष/पूस, मार्गशीर्ष/माघ, फाल्गुन/फागुन। राशि: मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ, कन्यामेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या।, आभूषण: बेंदा, वेणी, नथ,लौंग, कुण्डल, हार, भुजबंद, कंगन, अँगूठी, करधन, अर्ध करधन, पायल. बिछिया।,
द्वादशी १२ वीं तिथि।, बारादरी ।, बारह आने।
तेरह - भागवत: ।, नदी: ।,विश्व ।
त्रयोदशी १३ वीं तिथि ।
चौदह - इंद्र: ।, भुवन: ।, यम: ।, लोक: ।, मनु: ।, विद्या ।, रत्न: ।
घतुर्दशी १४ वीं तिथि।
पंद्रह तिथियाँ - प्रतिपदा/परमा, द्वितीय/दूज, तृतीय/तीज, चतुर्थी/चौथ, पंचमी, षष्ठी/छठ, सप्तमी/सातें, अष्टमी/आठें, नवमी/नौमी, दशमी, एकादशी/ग्यारस, द्वादशी/बारस, त्रयोदशी/तेरस, चतुर्दशी/चौदस, पूर्णिमा/पूनो, अमावस्या/अमावस।
सोलह - कला: ।, श्रृंगार: ।, संस्कार: ।,
षोडशी सोलह वर्ष की, सोलह आने पूरी तरह, शत-प्रतिशत।, अष्टि: ।,
सत्रह -
अठारह -
उन्नीस -
बीस - कौड़ी, नख, बिसात, कृति ।
चौबीस स्मृतियाँ - मनु, विष्णु, अत्रि, हारीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगिरा, यम, आपस्तम्ब, सर्वत, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शांख्य, लिखित, दक्ष, शातातप, वशिष्ठ।
पच्चीस - रजत, प्रकृति ।
पचीसी = २५, गदहा पचीसी, वैताल पचीसी।,
तीस - मास,
तीसी तीस पंक्तियों की काव्य रचना,
बत्तीस - बत्तीसी = ३२ दाँत ।,
तैंतीस - सुर: ।,
छत्तीस - छत्तीसा ३६ गुणों से युक्त, नाई।
चालीस - चालीसा ४० पंक्तियों की काव्य रचना।
पचास - स्वर्णिम, हिरण्यमय, अर्ध शती।
साठ - षष्ठी।
सत्तर -
पचहत्तर -
सौ -
एक सौ आठ - मंत्र जाप
सात सौ - सतसई।,
सहस्त्र -
सहस्राक्ष इंद्र।,
एक लाख - लक्ष।,
करोड़ - कोटि।,
दस करोड़ - दश कोटि, अर्बुद।,
अरब - महार्बुद, महांबुज, अब्ज।,
ख़रब - खर्व ।,
दस ख़रब - निखर्व, न्यर्बुद ।,
*
३३ कोटि देवता
*
देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है, कोटि = प्रकार, एक अर्थ करोड़ भी होता। हिन्दू धर्म की खिल्ली उड़ने के लिये अन्य धर्मावलम्बियों ने यह अफवाह उडा दी कि हिन्दुओं के ३३ करोड़ देवी-देवता हैं। वास्तव में सनातन धर्म में ३३ प्रकार के देवी-देवता हैं:
० १ - १२ : बारह आदित्य- धाता, मित, आर्यमा, शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।
१३ - २० : आठ वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।
२१ - ३१ : ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
३२ - ३३: दो देव- अश्विनी और कुमार।

गुरुवार, 3 जून 2021

अभियान ३ जून २०२०

समाचार:
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर
३१ वां दैनंदिन सारस्वत अनुष्ठान : भाषाविज्ञान पर्व
अनुभूत को अभिव्यक्त करती ध्वनि ही भाषा का मूल है - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
जबलपुर, ३ जून २०२०। संस्कारधानी जबलपुर की प्रतिष्ठित संस्था विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर के ३१ वे दैनंदिन सारस्वत अनुष्ठान 'भाषाविज्ञान पर्व, के अन्तर्गत भाषा के उद्भव, विकास, साम्य, भिन्नता, प्रकृति और संस्कार आदि विविध पक्षों पर विचार विनिमय संपन्न हुआ। मुखिया की आसंदी को गौरवान्वित किया संस्कृत - हिंदी साहित्य की प्रख्यात हस्ताक्षर डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी ने। आयोजन के पाहुना की आसंदी पर प्रतिष्ठित हुए चर्चित साहित्यसेवी अरुण श्रीवास्तव 'अर्णव'। इंजी. उदयभानु तिवारी 'मधुकर' द्वारा सरस् सरस्वती वंदना का पश्चात् विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान के संयोजक, छन्दशास्त्री, समालोचक, नवगीत-दोहाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा -''अनुभूत को अभिव्यक्त करने के लिए भावमुद्रा तथा ध्वनि की आवश्यकता होती है। मानव ने ध्वनि प्रकृति से ग्रहण की। सलिल प्रवाह की कलकल, पंछियों का कलरव, पवन वेग की सन सन, मेघ की गर्जन, दामिनी की तड़क, सर्प की फुँफकार, शेर की दहाड़ आदि से मनुष्य ने सुख, भय आदि की अनुभूति कर उन ध्वनियों को दुहराकर अन्य मानवों को सूचित किया। ध्वनियों का यह प्रयोग ही भाषा का मूल है। क्रमश: ध्वनियों की तीव्रता-मंदता, आवृत्ति आदि ने वह रूप लिए जिसमें हम कुछ-ध्वनियों व भाव मुद्रा में नवजात शिशु से बात करते हैं। नवजात शिशु कुछ नहीं जानता, किसी शब्द का अर्थ नहीं जनता पर कहा गया भाव ग्रहण कर पाता है। यही भाषा का आरंभ है। ध्वनियों के समन्वय से अक्षर और शब्द बनते हैं। किसी धवनि या ध्वनियों को विशेष अर्थ में उपयोग किये जाने पर पर उस अर्थ में रूढ़ और सर्वमान्य हो जाती है। शब्दार्थ लोकमान्य हो जाने पर उसे अंकित करने के लिए आकृतियों का प्रयोग किया गया को कालांतर में वर्ण और वर्णमाला के रूप में विक्सित हुई। इसमें हजारों साल लग गए। वर्णों / अक्षरों का समन्वय शब्द के रूप में सामने आया। शब्दों के साथ विशिष्ट अर्थ संश्लिष्ट होने से शब्द भण्डार बना। शब्द-प्रयोग ने शब्द-भेद का विकास किया। क्रमश: भाषा का विकास होने से व्याकरण और छंद शास्त्र का जन्म हुआ।''
भाषा वाहक भाव की, कहे सत्य अनुभूत
संवेदन हर शब्द में, अन्तर्निहित प्रभूत
रायपुर छत्तीसगढ़ से पधारी श्रीमती रजनी शर्मा 'बस्तरिया' ने छत्तीसगढ़ी भाषा में भावाभिव्यक्ति की - ''अपने भाषा अपनेच्च होथे, ऐमा जीवन भर बड़ाई है। दूसर के भाषा दूसरेच्च होथे, जेमा जीवन भर करलई है।' छगनलाल गर्ग विज्ञ सिरोही राजस्थान ने मारवाड़ी बोली में संज्ञा-सर्वनाम शब्दों के मूल स्वरूप उपबोलिओं में परिवर्तित होने के उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उनकी सार्थकता पर प्रकाश डाला। वक्ता ने शब्दों के उच्चारणों में ध्वनि परिवर्तन को स्वाभाविक तथा परिवेश व पर्यावरण के प्रभाव की भी चर्चा की।
प्रो० रेखा कुमारी सिंह, ए.के.सिंह काॅलेज, जपला,पलामू ,झारखंड ने मगही तथा हिंदी भाषाओँ के भाषा के संज्ञा शब्दों का तुलनात्मक अध्ययन कर अंतर पर चर्चा की। मगही में संज्ञा शब्द नाव नउआ, बीटा बिटवा, इतना एतना, जितना जेतना, मीठा मिठवा, पढ़ना पढ़नई, आदि बदलावों पर प्रकाश डाला। झंडा के स्थान पर समानार्थी पताका आदि का प्रयोग मगही का वैशिष्ट्य है।
ब्रज भाषा की कुछ विशेष विशिष्टताओं पर प्रकाश डालते हुए नरेन्द्र कुमार शर्मा 'गोपाल' आगरा ने शौरसेनी से विकसित हुई बृज भाषा में 'अर्ध र' के प्रयोग की वर्जना का कारण माधुर्य में ह्रास को बताया। कृपा को किरपा। बृज को बिराज, ब्रह्मा को बिरमा, त्रिपुरारी को तिपुरारि, प्रमोद को प्रमोद, अमृत को इमरत, गर्भ को गरभ आदि किये जाने के पीछे वक्ता ने माधुर्य को ही कारण बताया। इसीलिए श, ष का प्रयोग वर्जित है। इसलिए श्रीमान को सिरीमान, शर्बत को सरबत, विनाश को बिनास, षडानन को सदानन, दर्शन को दरसन के रूप में प्रयोग भी उच्चारण की तीक्ष्णता को कम करते हुए होता है।
जबलपुर निवासी डॉ. मुकुल तिवारी ने मौखिक तथा लिखित भाषा रूपों में अंतर बताते हुए उनमें स्वर तथा लिपि की भूमिका पर प्रकाश डाला। भाषा के विकास में लिपि का विशेष महत्त्व है। अक्षरों, शब्दों, वाक्यों का विकास ही भाषा के रूप को बनाते हैं। स्वर, व्यंजन, उच्चार, अनुस्वार, विसर्ग आदि पर वक्ता ने प्रकाश डाला।
दमोह से सहभागी बबीता चौबे 'शक्ति' ने बुंदेली के क्रिया पदों पर प्रकाश डालते हुए आइए आइए-आओ आओ, हाँ-हव, प्रणाम-पायलागू, क्यो-क़ाय, कहां गए थे-किते गै हते, उसको-उखो, नही-नईया, औरत-लुगाई, बेटी-बिटिया, बेटा-मोड़ा, चलो खाना खा लीजिये - चलो रोटी जे लेव, आज ब्रत है - आज पुआस है, कल आएंगे - भयाने आहे के उदाहरण दिए। पूड़ी - लुचई, चावल - भात, दही बड़े - वरा आदि नए शब्दों की जानकारी वक्त ने दी तथा मधुर स्वर में भारत माँ के प्रति पंक्तियाँ प्रस्तुत कर वाणी को विराम दिया -
मोरी सोन चिरइया लौट के आजा अपने देश रे
मोरी अमन चिरइया लौट के आजा अपने देश रे।
''हिंदी भाषा की उत्पत्ति, विकास और भविष्य'' पर विचार व्यक्त करते हुए आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने हिन्द, हिंदी, हिन्दू शब्दों का उद्भव फ़ारसी से बताया। विद्वान वक्त ने हिंदी भाषा को देश की विविध देशज बोलियों का समन्वित रूप कहा। राजस्थयनी, बिहारी, पहाड़ी, पश्चिमी तथा पूर्वी भाषाओँ के सम्मिश्रण से हिंदी का विकास होने पर विस्तार से वक्ता ने प्रकाश डाला। प्रेम सागर में लल्लूलाल जी द्वारा प्रयुक्त हिंदी का अंश पाठ करते हुए वक्ता ने खड़ी बोली में रूपांतरण के कारकों की चर्चा की। मेरठ-बिजनौर में अंकुरित भाषा रूप उर्दू और हिंदी दो शाखाओं में बँट गई। कन्नौजी, बुंदेली, बघेली, अवधी, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, मैथिली, मगही, मेवाती, मारवाड़ी, हाड़ौती, मालवी, पूर्वी पहाड़ी, पंजाबी आदि को हिंदी की जड़ें बताते हुए वक्ता ने आधुनिक खड़ी हिंदी में इन बोलिओं के शब्द, मुहावरे, कहावतें आदि हिंदी में आत्मसात करने की आवश्यकता पर वक्ता ने बल दिया।
पलामू के प्राध्यापक आलोकरंजन ने ''नागपुरी का परिचय और उसका रूपात्मक संरचना'' पर विचार व्यक्त करते हुए भाषा को सरल-सुगम बनाने के लिए लिखित एवं मौखिक रूप में परिवर्तन की आवश्यकता वक्ता ने प्रतिपादित की। आर्य भाषा परिवार की नागपुरी भाषा बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बंगाल आदि में बोली जाती है। नागपुरी की संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, भाववाचक संज्ञाओं आदि पर प्रो. रंजन ने चर्चा की।
भाषा-विज्ञान पर्व की मुखिया, युगपरिधि उपन्यासकार प्रोफ़ेसर चंद्रा चतुर्वेदी जी ने ''ब्रजबोली के कतिपय शब्दों के पर्याय'' पर चर्चा की। शौरसैनी से व्युत्पन्न बृज के विविध रूपों का उल्लेख करते हुए विदुषी वक्ता ने कालिंजर के किलाधीश चौबे श्री रामकृष्ण जी कृत २५० वर्ष पुरानी कृष्ण विलास से पद्यांश प्रस्तुत कर उसकी व्याख्या विदुषी प्रो चंद्रा जी ने व्यक्त की। चौबे दरियाव सिंह के कवित्त सुनाते हुए वक्त ने लाड़ और रसमयता को बृज भाषा का अभिन्न अंग बताया। विश्ववाणीहिंदी संस्थान अभियान जबलपुर द्वारा ३१ दिनों से निरंतर दैनंदिन अनुष्ठानों को अभूतपूर्व बताते हुए उन्होंने इसकी उपादेयता को असंदिग्ध कहा। डॉ. मुकुल तिवारी द्वारा आभार ज्ञापन के साथ भाषा विज्ञान पर्व का समापन हुआ।
चंदा देवी स्वर्णकार ने भाषा द्वारा संप्रेषण की विधियों का उल्लेख करते हुए तत्सम-तद्भव शब्दों की विवेचना की। चंदा जी ने लोक साहित्य की अविरल धारा को उत्सव-पर्व से संबद्ध बताया तथा बुंदेली, बघेली, मालवी, निमाड़ी लोक भाषाओँ तथा भीली, गौंडी, कोरकू, आदि आदिवासी भाषाओँ संक्षिप्त का उल्लेख किया।
''अवधी कहावतों में संज्ञा शब्दों का हिंदी में रूपांतरण'' पर रोचक चर्चा की इंजी. अरुण भटनागर ने। घर मां नहीं दाने, अम्मा चलीं भुनाने, जबरा मारे रोबर ना दें, समर्थ को नहीं दोष गोसाईं, तिरिया चरित न जानें कोई आदि अनेक कहावतों में प्रयुक्त अवधी संघ शब्दों को हिंदी में परिवर्तित कर लोक ग्राह्य बनाने पर अरुण जी ने प्रकाश डाला।
कार्यक्रम के पाहुने अरुण श्रीवास्तव 'अर्णव' ने विविध बोलिओं की मिठास को समाहित करते हुए भाषिक विकास और परिवर्तन के मध्य सेतु स्थापन के प्रयास को सराहते हुए मालवांचल की आंचलिक बोली मालवी में लोकगीतों की परंपरा की चर्चा करते हुए वक्त ने शहरों में इसका प्रभाव कम होने पर चिंता व्यक्त की। खाना-जीमना, अच्छा -आछा, सारी-सगली आदि अनेक शब्दों की सरसता, सरलता और संग्रहण के प्रयास को भूरि-भूरि सराहते हुए अरुण जी ने विश्ववाणी हिंदी अभियान की सफलता की कामना की।
इस सारस्वत अनुष्ठान की पूर्णाहुति देते हुए मुखिया की आसंदी से डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी जी ने विश्ववाणी हिंदी संस्थान द्वारा भाषा को केंद्र में रखकर सामाजिक समन्वय के प्रयास को अनुकरणीय निरूपित किया। अनुष्ठानों के संयोजक-परिकल्पक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', उद्घोषक प्रो. आलोकरंजन तथा वक्ताओं द्वारा व्यक्त विचारों का विश्लेषण नीर-क्षीर विश्लेषण कर विदुषी वक्त ने मुखिया की आसंदी की गरिमा वृद्धि की। डॉ. मुकुल तिवारी जबलपुर ने अनुष्ठान का समापन करते हुए सर्व सहयोगियों के प्रति आभार व्यक्त किया।

********

भारत का भाषा गीत

भारत का भाषा गीत
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
हिंद और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
भाषा सहोदरा होती है, हर प्राणी की
अक्षर-शब्द बसी छवि, शारद कल्याणी की
नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम
जो बोले वह लिखें-पढ़ें, विधि जगवाणी की
संस्कृत सुरवाणी अपना, गलहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
असमी, उड़िया, कश्मीरी, डोगरी, कोंकणी,
कन्नड़, तमिल, तेलुगु, गुजराती, नेपाली,
मलयालम, मणिपुरी, मैथिली, बोडो, उर्दू
पंजाबी, बांगला, मराठी सह संथाली
​'सलिल' पचेली, सिंधी व्यवहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
ब्राम्ही, प्राकृत, पाली, बृज, अपभ्रंश, बघेली,
अवधी, कैथी, गढ़वाली, गोंडी, बुन्देली,
राजस्थानी, हल्बी, छत्तीसगढ़ी, मालवी,
भोजपुरी, मारिया, कोरकू, मुड़िया, नहली,
परजा, गड़वा, कोलमी से सत्कार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
शेखावाटी, डिंगल, हाड़ौती, मेवाड़ी
कन्नौजी, मागधी, खोंड, सादरी, निमाड़ी,
सरायकी, डिंगल, खासी, अंगिका, बज्जिका,
जटकी, हरयाणवी, बैंसवाड़ी, मारवाड़ी,
मीज़ो, मुंडारी, गारो मनुहार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़
शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़
गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर
समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़
'सलिल' विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम

हिंदी एक वैज्ञानिक भाषा

हिंदी एक वैज्ञानिक भाषा है
और कोई भी अक्षर वैसा क्यूँ है
उसके पीछे कुछ कारण है ,
अंग्रेजी भाषा में ये
बात देखने में नहीं आती |
______________________
क, ख, ग, घ, ङ- कंठव्य कहे गए,
क्योंकि इनके उच्चारण के समय
ध्वनि
कंठ से निकलती है।
एक बार बोल कर देखिये |
च, छ, ज, झ,ञ- तालव्य कहे गए,
क्योंकि इनके उच्चारण के
समय जीभ
तालू से लगती है।
एक बार बोल कर देखिये |
ट, ठ, ड, ढ , ण- मूर्धन्य कहे गए,
क्योंकि इनका उच्चारण जीभ के
मूर्धा से लगने पर ही सम्भव है।
एक बार बोल कर देखिये |

त, थ, द, ध, न- दंतीय कहे गए,
क्योंकि इनके उच्चारण के
समय
जीभ दांतों से लगती है।
एक बार बोल कर देखिये |
प, फ, ब, भ, म,- ओष्ठ्य कहे गए,
क्योंकि इनका उच्चारण ओठों के
मिलने
पर ही होता है। एक बार बोल
कर देखिये ।

________________________
हम अपनी भाषा पर गर्व
करते हैं ये सही है परन्तु लोगो को
इसका कारण भी बताईये |
इतनी वैज्ञानिकता
दुनिया की किसी भाषा मे
नही है
जय हिन्द
क,ख,ग क्या कहता है जरा गौर करें....
••••••••••••••••••••••••••••••••••••
क - क्लेश मत करो
ख- खराब मत करो
ग- गर्व ना करो
घ- घमण्ड मत करो
च- चिँता मत करो
छ- छल-कपट मत करो
ज- जवाबदारी निभाओ
झ- झूठ मत बोलो
ट- टिप्पणी मत करो
ठ- ठगो मत
ड- डरपोक मत बनो
ढ- ढोंग ना करो
त- तैश मे मत रहो
थ- थको मत
द- दिलदार बनो
ध- धोखा मत करो
न- नम्र बनो
प- पाप मत करो
फ- फालतू काम मत करो
ब- बिगाङ मत करो
भ- भावुक बनो
म- मधुर बनो
य- यशश्वी बनो
र- रोओ मत
ल- लोभ मत करो
व- वैर मत करो
श- शत्रुता मत करो
ष- षटकोण की तरह स्थिर रहो
स- सच बोलो
ह- हँसमुख रहो
क्ष- क्षमा करो
त्र- त्रास मत करो
ज्ञ- ज्ञानी बनो !!

मुक्तिका

मुक्तिका
*
नित इबादत करो
मत अदावत करो
.
मौन बैठो न तुम
कुछ शरारत करो
.
सो लिए हो बहुत
उठ बगावत करो
.
अब न फेरो नज़र
मिल इनायत करो
.
आज शिकवे भुला
कल शिकायत करो
.
बेहतरी का 'सलिल'
पग रवायत करो
.
छोड़ चलभाष प्रिय!
खत-किताबत करो
.
(दैशिक जातीय छंद)
२४-४-२०१६
सी २५६ आवास-विकास हरदोई
***

शशिवदना छंद मुक्तिका

छंद बहर का मूल है १६

वार्णिक अनुष्टुप छंद
मात्रिक दैशिक शशिवदना छंद
मुक्तिका
*
सूर्य ऊगा तो सवेरा ८/१४
सूर्य डूबा तो अँधेरा
.
प्रीत की जादूगरी है
नूर ऊषा ने बिखेरा
.
नींद तू भी जाग जा रे!
मुर्ग ने दे बाँग टेरा
.
भू न जाती सासरे को
सूर्य लेता संग फेरा
.
साँझ बाँधे रोज राखी
माँग तारे टाँक धीरा
.
है निशा बाँकी सहेली
बाँध-तोड़े मोह-घेरा
.
चाँदनी-चंदा लगाए
आसमां में प्रीत डेरा
***

चन्द्र छंद

छंद बहर का मूल है: १४
*
दस वार्णिक पंक्ति जातीय
सत्रह मात्रिक महासंस्कारी जातीय, चन्द्र छंद
छंद संरचना:२१२ २१२ २१२ २
सूत्र: र र र गा.
*
मुक्तक
*
आपका नूर है आसमानी
रूह है आपका शादमानी
आपका ही रहा बोलबाला
आपका रूप है जाफरानी
*
मुक्तिका- १
आसमां छू रहीं कामनाएँ
आप ही खो रहीं भावनाएँ
.
कौन है जो नहीं चाहता है
शांत हों, जागती वासनाएँ
.
खूब हालात ने आजमाया
आज हालात को आजमाएँ
.
कोशिशों को मिली कामयाबी
हौसले ही सदा काम आएँ
.
आदमी के नहीं पास जाएँ
हैं विषैले न वो काट खाएँ
***
मुक्तिका- २
आप जो हैं वही तो नहीं हैं
दीखते हैं वही जो नहीं हैं
.
खोजते हैं खुदी को जहाँ पे
जानते हैं वहाँ तो नहीं हैं
.
जो न बोला वही बोलते हैं
बोलते, बोलते जो नहीं हैं
.
तौल को तौलते ही रहे जो
तौल को तौलते वो नहीं हैं
.
देश का वेश क्या हो बताएँ?
दश में शेष क्या जो नहीं है
.
आदमी देवता क्या बनेगा?
आदमी आदमी ही नहीं है
.
जोश में होश ही खो न देना
होश में जोश हो, क्यां नहीं है?
***

२०-४-२०१७ 

दोहा सलिला

दोहा सलिला:
संजीव
*
भँवरे की अनुगूँज को, सुनता है उद्यान
शर्त न थककर मौन हो, लाती रात विहान
*
धूप जलाती है बदन, धूल रही हैं ढांक
सलिल-चाँदनी साथ मिल, करते निर्मल-पाक
*
जाकर आना मोद दे, आकर जाना शोक
होनी होकर ही रहे, पूरक तम-आलोक
*
अब नालंदा अभय हो, ज्ञान-रश्मि हो खूब
'सलिल' मिटा अज्ञान निज, सके सत्य में डूब
३०-५-२०१५
*

एकावली छंद

छंद बहर का मूल है १५
वार्णिक अनुष्टुप जातीय छंद
मात्रिक दैशिक जातीय एकावली छंद
*
मुक्तिका
*
नित इबादत करो
मत अदावत करो
.
कुछ शराफ़त रहे
कुछ शरारत करो
.
सो लिए तुम बहुत
उठ बगावत करो
.
मत नज़र फेरना
मिल इनायत करो
.
भूल शिकवे सभी
मत शिकायत करो
.
बेहतर जो लगे
पग रवायत करो
.
छोड़ चलभाष दो
खत-किताबत करो
.
२४-४-२०१६
सी २५६ आवास-विकास हरदोई
***
३-६-२०१६

भारत गीत


भारत गीत
- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'मैं अंधकार को जीत
उजाला पाने में रत हूँ,
मैं भारत हूँ, मैं भारत हूँ।'
*
सभ्यता सनातन मैं जानो
हूँ कल्प-कल्प से सच मानो
मैं पंचतत्व, मैं तीन लोक
मैं तीन देव हूँ सम्मानो
मैं ही गत, अब हूँ, आगत हूँ
मैं भारत हूँ, मैं भारत हूँ।
*
जीवनदायिनी भारतमाता
मैं ही जनगण-मन विख्याता
हूँ वंदे मातरम् मैं अनुपम
मैं झंडा ऊँचा जग त्राता
मैं मानवता का स्वागत हूँ
मैं भारत हूँ, मैं भारत हूँ।
*
मैं कंकरवासी शंकर हूँ
है चित्र गुप्त अभ्यंकर हूँ
हूँ शक्ति-शांति-निर्माण पथिक
मैं ही ओढ़े दिक् अंबर हूँ
मैं गीतागायक जागत हूँ
मैं भारत हूँ, मैं भारत हूँ।
*

एक रचना
*
'निर्मल शुक्ल'
न रही चाँदनी
'श्याम गुप्त' है चाँद
*
रोजगार बिन
लौट रहे 'कुलदीप'
विवश निज गाँव।
'मधुकर' द्रुत गति
आकर कुचले
देह, छीन ले ठाँव।
'संध्या सिंह'
लॉकडाउन में
भूखा, सिसके माँद
*
छप्पन इंची
छाती ठोंके सूरज
मन की बात।
'शांत' - घरों-घर
राशन-रुपया
बँटा 'मावसी रात।
अरथी निकली
सत्य व्रतों की
श्वास वनों को फाँद
*
फिर 'नीरव' को
कर्ज दिलाने
हैं 'मनोज' बेचैन।
चारण पत्रकार
चुप नत शिर
'अमरनाथ' बेचैन।
हुआ असहमत
जो 'नरेंद्र' से
वही भरेगा डाँड
***