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गुरुवार, 4 जून 2020

समीक्षा - ‘काल है संक्रांति का’ - राजेंद्र वर्मा



समीक्षा
यह ‘काल है संक्रांति का’
- राजेंद्र वर्मा 

गद्य-पद्य की विभिन्न विधाओं में निरंतर सृजनरत और हिंदी भाषा के व्याकरण तथा पिंगल के अधिकारी विद्वान आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ने खड़ी हिंदी के समांतर बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, राजस्थानी, हरियाणवी, सिरायकी तथा अंग्रेजी में भी लेखन किया है। अपनी बुआश्री महीयसी महादेवी जी तथा माताजी कवयित्री शांति देवी को साहित्य व भाषा-प्रेम की प्रेरणा माननेवाले ‘सलिल’ जी आभासी दुनिया में भी वे अपनी सतत और गंभीर उपस्थिति से हिंदी के साहित्यिक पाठकों को लाभान्वित करते रहे हैं। गीत, नवगीत, ग़ज़ल और कविता के लेखन में छंद की प्रासंगिकता और उसके व्याकरण पर भी उन्होंने अपेक्षित प्रकाश डाला है। रस-छंद- अलंकारों पर उनका विशद ज्ञान लेखों के माध्यम से हिंदी संसार को लाभान्वित करता रहा है। वस्तु की दृष्टि से शायद ही कोई ऐसा विषय हो जो उनकी लेखनी से अछूता रहा हो- भले ही वह गीत हो, कविता हो अथवा लेख! नवीन विषयों पर पकड़ के साथ-साथ उनकी रचनाओं में विशद जीवनानुभव बोलता-बतियाता है और पाठकों-श्रोताओं में संजीवनी भरता है।
‘काल है संक्रांति का’ संजीव जी का नवीनतम गीत-संग्रह है जिसमें ६५ गीत-नवगीत हैं। जनवरी २०१४ से मार्च २०१६ के मध्य रचे गये ये गीत शिल्प और विषय, दोनों में बेजोड़ हैं। संग्रह में लोकगीत, सोहर, हरगीतिका, आल्हा, दोहा, दोहा-सोरठा मिश्रित, सार आदि नए-पुराने छंदों में सुगठित ये गीति-रचनाएँ कलात्मक अभिव्यक्ति में सामयिक विसंगतियों और विद्रूपताओं की ख़बर लेते हुए आम आदमी की पीड़ा और उसके संघर्ष-संकल्प को जगर-मगर करती चलती हैं। नवगीत की शक्ति को पहचानकर शिल्प और वास्तु में अधिकाधिक सामंजस्य बिठाकर यथार्थवादी भूमि पर रचनाकार ने आस-पास घटित हो रहे अघट को कभी सपाट, तो कभी प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से उद्घाटित किया है। विसंगतियों के विश्लेषण और वर्णित समस्या का समाधान प्रस्तुत करते अधिकांश गीत टटकी भाव-भंगिमा दर्शाते हैं। बिम्ब-प्रतीक, भाषा और टेक्नीक के स्तरों पर नवता का संचार करते हैं। इनमें ऐंद्रिक भाव भी हैं, पर रचनाकार तटस्थ भाव से चराचर जगत को सत्यम्-शिवम्- सुन्दरम् के वैचारिक पुष्पों से सजाता है।
शीर्षक गीत, ‘काल है संक्रांति का’ में मानवीय मूल्यों और प्राची के परिवेश से च्युत हो रहे समाज को सही दिशा देने के उद्देश्य से नवगीतकार, सूरज के माध्यम से उद्बोधन देता है। यह सूरज आसमान में निकलने वाला सूरज ही नहीं, वह शिक्षा, साहित्य, विज्ञान आदि क्षेत्रों के पुरोधा भी हो सकते हैं जिन पर दिग्दर्शन का उत्तरदायित्व है—
काल है संक्रांति का / तुम मत थको सूरज!
दक्षिणायन की हवाएँ / कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी / काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती / फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश / से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रांति को / तुम मत रुको सूरज!
.......
प्राच्य पर पाश्चात्य का / अब चढ़ गया है रंग
कौन, किसको सम्हाले / पी रखी मद की भंग
शराफत को शरारत / नित कर रही है तंग
मनुज-करनी देखकर है / ख़ुद नियति भी दंग
तिमिर को लड़, जीतना / तुम मत चुको सूरज! (पृ.१६)

एक अन्य गीत, ‘संक्रांति काल है’ में रचनाकार व्यंग्य को हथियार बनाता है। सत्ता व्यवस्था में बैठे लोगों से अब किसी भले काम की आशा ही नहीं रही, अतः गीतकार वक्रोक्ति का सहारा लेता है-
प्रतिनिधि होकर जन से दूर / आँखे रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर / राजनीति तज दे तंदूर
अब भ्रान्ति टाल दो / जगो, उठो!
अथवा,
सूरज को ढाँके बादल / सीमा पर सैनिक घायल
नाग-साँप फिर साथ हुए / गुँजा रहे बंसी-मादल
झट छिपा माल दो / जगो, उठो!

गीतकार सत्ताधीशों की ही खबर नहीं लेता, वह हममें-आपमें बैठे चिन्तक-सर्जक पर भी व्यंग्य करता है; क्योंकि आज सत्ता और सर्जना में दुरभिसंधि की उपस्थिति किसी से छिपी नहीं हैं--
नवता भरकर गीतों में / जन-आक्रोश पलीतों में
हाथ सेंक ले कवि, तू भी / जी ले आज अतीतों में
मत खींच खाल दो / जगो, उठो! (पृ.२०)

शिक्षा जीवन की रीढ़ है। इसके बिना आदमी पंगु है, दुर्बल है और आसानी से ठगा जाता है। गीतकार ने सूरज (जो प्रकाश देने का कार्य करता है) को पढने का आह्वान किया है, क्योंकि जब तक ज्ञान का प्रकाश नहीं फैलता है, तब तक किसी भी प्रकार के विकास या उन्नयन की बात निरर्थक है। सन्देश रचने और अभिव्यक्त करने में रचनाकार का प्रयोग अद्भुत है—
सूरज बबुआ! / चल स्कूल।
धरती माँ की मीठी लोरी / सुनकर मस्ती ख़ूब करी।
बहिन उषा को गिरा दिया / तो पिता गगन से डाँट पड़ी।
धूप बुआ ने लपक चुपाया
पछुआ लायी बस्ता-फूल।
......
चिड़िया साथ फुदकती जाती / कोयल से शिशु गीत सुनो।
‘इकनी एक’ सिखाता तोता / ’अ’ अनार का याद रखो।
संध्या पतंग उड़ा, तिल-लडुआ
खा, पर सबक़ न भूल। (पृ.३५)

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। नव वर्ष का आगमन हर्षोल्लास लाता है और मानव को मानवता के पक्ष में कुछ संकल्प लेने का अवसर भी, पर हममें से अधिकांश की अन्यमनस्कता इस अवसर का लाभ नहीं उठा पाती। ‘सलिल’ जी दार्शनिक भाव से रचना प्रस्तुत करते हैं जो पाठक पर अन्दर-ही- अन्दर आंदोलित करती चलती है—
नये साल को/आना है तो आएगा ही।
करो नमस्ते या मुँह फेरो।
सुख में भूलो, दुख में टेरो।
अपने सुर में गायेगा ही/नये साल...।
एक-दूसरे को ही मारो।
या फिर, गले लगा मुस्काओ।
दर्पण छवि दिखलायेगा ही/नये साल...।
चाह, न मिटना, तो ख़ुद सुधरो।
या कोसो जिस-तिस को ससुरो!
अपना राग सुनायेगा ही/नये साल...। (पृ.४७)

विषयवस्तु में विविधता और उसकी प्रस्तुति में नवीनता तो है ही, उनके शिल्प में, विशेषतः छंदों को लेकर रचनाकार ने अनेक अभिनव प्रयोग किये हैं, जो रेखांकित किये जाने योग्य हैं। कुछ उद्धरण देखिए—
सुन्दरिये मुन्दरिये, होय!
सब मिल कविता करिये होय!
कौन किसी का प्यारा होय!
स्वार्थ सभी का न्यारा होय!
जनता का रखवाला होय!
नेता तभी दुलारा होय!
झूठी लड़ै लड़ाई होय!
भीतर करें मिताई होय!
.....
हिंदी मैया निरभै होय!
भारत माता की जै होय! (पृ.४९)

उपर्युक्त रचना पंजाब में लोहड़ी पर्व पर राय अब्दुल्ला खान भट्टी उर्फ़ दुल्ला भट्टी को याद कर गाये जानेवाले लोकगीत की तर्ज़ पर है। इसी प्रकार निम्नलिखित रचना बुन्देली लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फागों (पद भार१६/१२) पर आधारित है। दोनों ही गीतों की वस्तु में युगबोध उमगता हुआ दिखता है—
मिलती काय नें ऊँचीवारी / कुर्सी हमको गुइयाँ!
हमखों बिसरत नहीं बिसारे / अपनी मन्नत प्यारी
जुलुस, विसाल भीर जयकारा / सुविधा संसद न्यारी
मिल जाती, मन की कै लेते / रिश्वत ले-दे भइया!
......
कौनउ सगो हमारो नैयाँ / का काऊ से काने?
अपने दस पीढ़ी खें लाने / हमें जोड़ रख जानें।
बना लई सोने की लंका / ठेंगे पे राम-रमैया! (पृ.५१)

इसी छंद में एक गीत है, ‘जब लौं आग’, जिसमें कवि ने लोक की भाषा में सुन्दर उद्बोधन दिया है। कुछ पंक्तियाँ देखें—
जब लौं आग न बरिहै, तब लौं / ना मिटिहै अन्धेरा!
सबऊ करो कोसिस मिर-जुर खें / बन सूरज पगफेरा।
......
गोड़-तोड़ हम फ़सल उगा रए / लूट रए व्यापारी।
जन के धन से तनखा पा खें / रौंद रए अधिकारी।
जागो, बनो मसाल / नई तो / घेरे तुमै / अँधेरा! (पृ.६४)

गीत ‘सच की अरथी’ (पृ.55) दोहा छंद में है, तो अगले गीत, ‘दर्पण का दिल’ का मुखड़ा दोहे छंद में है और उसके अंतरे सोरठे में हैं, तथापि गीत के ठाठ में कोई कमी नहीं आयी है। कुछ अंश देखिए—
दर्पण का दिल देखता, कहिए, जब में कौन?
आप न कहता हाल, भले रहे दिल सिसकता।
करता नहीं ख़याल, नयन कौन-सा फड़कता!
सबकी नज़र उतारता, लेकर राई-नौन! (पृ.५७)

छंद-प्रयोग की दृष्टि से पृष्ठ ५९, ६१ और ६२ पर छोटे-छोटे अंतरों के गीत ‘हरगीतिका’ में होने के कारण पाठक का ध्यान खींचते हैं। एक रचनांश का आनंद लीजिए—
करना सदा, वह जो सही।
........
हर शूल ले, हँस फूल दे
यदि भूल हो, मत तूल दे
नद-कूल को पग-धूल दे
कस चूल दे, मत मूल दे
रहना सदा, वह जो सही। (पृ.६२)

सत्ता में बैठे छद्म समाजवादी और घोटालेबाजों की कमी नहीं है। गीतकार ने ऐसे लोगों पर प्रहार करने में कसर नहीं छोड़ी है—
बग्घी बैठा / बन सामंती समाजवादी।
हिन्दू-मुस्लिम की लड़वाये
अस्मत की धज्जियाँ उड़ाये
आँसू, सिसकी, चीखें, नारे
आश्वासन कथरी लाशों पर
सत्ता पाकर / उढ़ा रहा है समाजवादी! (पृ.७६)

देश में तमाम तरक्क़ी के बावजूद दिहाड़ी मज़दूरों की हालत ज्यों-की- त्यों है। यह ऐसा क्षेत्र है जिसके संगठितहोने की चर्चा भी नहीं होती, परिणाम यह कि मजदूर को जब शाम को दिहाड़ी मिलती है, वह खाने-पीने के सामान और जीवन के राग को संभालने-सहेजने के उपक्रमों को को जुटाने बाज़ार दौड़ता है। ‘सलिल’ जी ने इस क्षण को बखूबी पकड़ा है और उसे नवगीत में सफलतापूर्वक ढाल दिया है—
मिली दिहाड़ी / चल बाज़ार।
चावल-दाल किलो-भर ले ले / दस रुपये की भाजी
घासलेट का तेल लिटर-भर / धनिया- मिर्चा ताज़ी
तेल पाव-भर फल्ली का / सिन्दूर एक पुड़िया दे-
दे अमरूद पाँच का / बेटी की न सहूँ नाराजी
ख़ाली ज़ेब, पसीना चूता / अब मत रुक रे! / मन बेज़ार! (पृ.८१)

आर्थिक विकास, सामाजिक विसंगतियों का जन्मदाता है। समस्या यह भी है कि हमारे अपनों ने अपने चरित्र में भी संकीर्णता भर ली है। ऐसे हम चाहते भी कुछ नहीं कर पाते और उच्छवास ले-ले रह जाते हैं। ऐसी ही व्यथा का चित्रांकन एक गीत, ‘राम बचाये’ में द्रष्टव्य है। इसके दो बंद देखें—
अपनी-अपनी मर्यादा कर तार-तार / होते प्रसन्न हम,
राम बचाये!
वृद्धाश्रम-बालाश्रम और अनाथालय / कुछ तो कहते हैं!
महिलाश्रम की सुनो सिसकियाँ / आँसू क्यों बहते रहते हैं?
राम-रहीम बीनते कूड़ा / रजिया-रधिया झाडू थामे
सड़क किनारे, बैठे लोटे बतलाते / कितने विपन्न हम,
राम बचाये!
अमराई पर चौपालों ने / फेंका क्यों तेज़ाब, पूछिए!
पनघट ने खलिहानों को क्यों / नाहक़ भेजा जेल बूझिए।
सास-बहू, भौजाई-ननदी / क्यों माँ-बेटी सखी न होती?
बेटी-बेटे में अंतर कर / मन से रहते सदा खिन्न हम,
राम बचाये! (पृ.९४)

इसी क्रम में एक गीत, ख़ुशियों की मछली’ उल्लेखनीय है जिसमें समाज और सत्ता का गँठजोड़ आम आदमी को जीने नहीं दे रहा है। गीत की बुनावट में युगीन यथार्थ के साथ दार्शनिकता का पुट भी है—
ख़ुशियों की मछली को / चिंता का बगुला/खा जाता है।
श्वासों की नदिया में / आसों की लहरें
कूद रही हिरनी-सी / पल भर ना ठहरें
आँख मूँद मगन / उपवासी साधक / ठग जाता है।
....
श्वेत वसन नेता है / लेकिन मन काला
अंधे न्यायालय ने / सच झुठला डाला
निरपराध फँस जाता / अपराधी शातिर बच जाता है।। (पृ.९८)

गीत, ‘लोकतंत्र’ का पंछी’ में भी आम आदमी की व्यथा का यथार्थ चित्रांकन है। सत्ता-व्यवस्था के दो प्रमुख अंग- विधायिका और न्यायपालिका अपने उत्तरदायित्व से विमुख होते जा रहे हैं और जनमत की भूमिका भी संदिग्ध होती जा रही है। लोकतांत्रिक व्यवस्था ही ध्वस्त होती जा रही है—
लोकतंत्र का पंछी बेबस!
नेता पहले डालें दाना / फिर लेते पर नोच
अफ़सर रिश्वत-गोली मारें / करें न किंचित सोच
व्यापारी दे नाश रहा डँस!
.......
राजनीति नफ़रत की मारी / लिए नींव में पोच
जनमत बहरा-गूंगा खो दी / निज निर्णय की लोच
एकलव्य का कहीं न वारिस! (पृ.१००)

प्रकृति के उपादानों को लेकर मानवीय कार्य-व्यापार की रचना विश्वव्यापक होती है, विशेषतः जब उसमें चित्रण-भर न हो, बल्कि उसमें मार्मिकता, और संवेदनापूरित जीवन्तता हो। ‘खों-खों करते’ ऐसा ही गीत है जिसमें शीत ऋतु में एक परिवार की दिनचर्या का जीवन्त चित्र है—
खों-खों करते बादल बब्बा / तापें सूरज सिगड़ी।
आसमान का आँगन चौड़ा / चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा
ऊधम करते नटखट तारे / बदरी दादी, ‘रुको’ पुकारे
पछुआ अम्मा बड़-बड़ करती / डाँट लगाती तगड़ी!
धरती बहिना राह हेरती / दिशा सहेली चाह घेरती
ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम / रात और दिन बेटे अनुपम
पाला-शीत / न आये घर में / खोल न खिड़की अगड़ी!
सूर बनाता सबको कोहरा / ओस बढ़ाती संकट दोहरा
कोस न मौसम को नाहक़ ही / फ़सल लायगी राहत को ही
हँसकर खेलें / चुन्ना-मुन्ना / मिल चीटी-ढप- लँगड़ी! (पृ.१०३)

इन विषमताओं और विसंगतियों के बाबजूद गीतकार अपना कवि-धर्म नहीं भूलता। नकारात्मकता को विस्मृत कर वह आशा की फ़सल बोने और नये इतिहास लिखने का पक्षधर है—
आज नया इतिहास लिखें हम।
अब तक जो बीता, सो बीता
अब न आस-घट होगा रीता
अब न साध्य हो स्वार्थ सुभीता,
अब न कभी लांछित हो सीता
भोग-विलास न लक्ष्य रहे अब
हया, लाज, परिहास लिखें हम।
आज नया इतिहास लिखें हम।।
रहें न हमको कलश साध्य अब
कर न सकेगी नियति बाध्य अब
स्नेह-स्वेद- श्रम हों अराध्य अब
कोशिश होगी महज माध्य अब
श्रम-पूँजी का भक्ष्य न हो अब
शोषक हित खग्रास लिखें हम।। (पृ.१२२)

रचनाकार को अपने लक्ष्य में अपेक्षित सफलता मिली है, पर उसने शिल्प में थोड़ी छूट ली है, यथा तुकांत के मामले में, अकारांत शब्दों का तुक इकारांत या उकारांत शब्दों से (उलट स्थिति भी)। इसी प्रकार, उसने अनुस्वार वाले शब्दों को भी तुक के रूप में प्रयुक्त कर लिया है, जैसे- गुइयाँ / भइया (पृ.५१), प्रसन्न / खिन्न (पृ.९४) सिगड़ी / तगड़ी / लंगड़ी (पृ.१०३)। एकाध स्थलों पर भाषा की त्रुटि भी दिखायी पड़ी है, जैसे- पृष्ठ १२७ पर एक गीत में‘दम’ शब्द को स्त्रीलिंग मानकर ‘अपनी’ विशेषण प्रयुक्त हुआ है। तथापि, इन छोटी-मोटी बातों से संग्रह का मूल्य कम नहीं हो जाता।
गीतकार ने गीतों की भाषा में अपेक्षित लय सुनिश्चित करने के लिए हिंदी-उर्दू के बोलचाल शब्दों को प्राथमिकता दी है; कहीं-कहीं भावानुसार तत्सम शब्दावली का चयन किया है। अधिकांश गीतों में लोक का पुट दिखलायी देता है जिससे पाठक को अपनापन महसूस होता है। आज हम गद्य की औपचारिक शब्दावली से गीतों की सर्जना करने में अधिक लगे हैं, जिसका परिणाम यह हो रहा है कि उनमें मार्मिकता और अपेक्षित संवेदना का स्तर नहीं आ पाता है। भोथरी संवेदनावाली कविता से हमें रोमावलि नहीं हो सकती, जबकि आज उसकी आवश्यकता है। ‘सलिल’ जी ने इसकी भरपाई की पुरज़ोर कोशिश की है जिसका हिंदी नवगीत संसार द्वारा स्वागत किया जाना चाहिए।
वर्तमान संग्रह निःसंदेह नवगीत के प्रसार में अपनी सशक्त भूमिका निभा रहा है और आने वाले समय में उसका स्थान इतिहास में अवश्य लिया जाएगा, यह मेरा विश्वास है।... लोक की शक्ति को सोद्देश्य नवगीतों में ढालने हेतु ‘सलिल’ जी साधुवाद के पात्र है।
- 3/29, विकास नगर, लखनऊ-226 022 (मो.80096 60096)
*
[कृति विवरण- पुस्तक का नाम- काल है संक्रांति का (नवगीत-संग्रह); नवगीतकार- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेन्ट, सुभद्रा वार्ड, नेपियर टाउन, जबलपुर- ४८२००१ संस्करण- प्रथम, २०१६; पृष्ठ संख्या- १२८, मूल्य- पुस्तकालय संस्करण: तीन सौ रुपये; जनसंस्करण: दो सौ रुपये।]
*****

मदनाग छंद

छंद सलिला:
मदनाग छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति पद - मात्रा २५ मात्रा, यति १७ - ८
लक्षण छंद:
कलाएँ सत्रह-आठ दिखाये, नटवर अपनी
उगल विष नाग कालिया कोसे, किस्मत अपनी
छंद मदनाग निराशाएं कर दूर, मगन हो
मुदित मन मथुरावासी हर्षित, मोद मगन हों
उदाहरण:
१. देश की जयकार करते रहें, विहँस हम सभी
आत्म का उद्धार करते रहें, विहँस हम सभी
बुरे का प्रतिकार करते रहें, विहँस हम सभी
भले का सहकार करते रहें, विहँस हम सभी
२. काम कुछ अच्छा करना होगा, संकल्प करें
नाम कुछ अच्छा वरना होगा, सुविकल्प करें
दाम हर चीज का होता नहीं, ये सच कह दें
जान निज देश पर निसार 'सलिल' हर कल्प करें
३.जीत वही पाता जो फिसलकर, उठ भी सकता
मंज़िल मिले उसे जो सम्हलकर, शुभ कर सकता
होता घना अँधेरा धरा पर, जब-जब बेहद
एक नन्हा दीप खुद जलकर सब, तम हर सकता
४-६-२०१४ 
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मदनाग, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, रोला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)

रैप सांग

रैप सांग 
*
सुनो प्रणेता!
बनो विजेता।
कहो कहानी,
नित्य सुहानी।
तजो बहाना,

वचन निभाना।
सजन सजा ना!
साज बजा ना!
लगा डिठौना,
नाचे छौना
चाँद चाँदनी,
पूत पावनी।
है अखंड जग,
आठ दिशा मग
पग-पग चलना,
मंज़िल वरना।
४-६-२०१४ 

छंद शास्त्र में आंकिक उपमान

छंद शास्त्र में आंकिक उपमान:
संजीव
*
छंद शास्त्र में मात्राओं या वर्णों संकेत करते समय ग्रन्थों में आंकिक शब्दों का प्रयोग किया गया है। ऐसे कुछ शब्द नीचे सूचीबद्ध किये गये हैं। इनके अतिरिक्त आपकी जानकारी में अन्य शब्द हों तो कृपया, जोड़िये।
*
एक - ॐ, परब्रम्ह 'एकोsहं द्वितीयोनास्ति', क्षिति, चंद्र, भूमि, नाथ, पति, गुरु।
पहला - वेद ऋग्वेद, युग सतयुग, देव ब्रम्हा, वर्ण ब्राम्हण, आश्रम: ब्रम्हचर्य, पुरुषार्थ अर्थ,
इक्का, एकाक्षी काना, एकांगी इकतरफा, अद्वैत एकत्व,
दो - देव: अश्विनी-कुमार। पक्ष: कृष्ण-शुक्ल। युग्म/युगल: प्रकृति-पुरुष, नर-नारी, जड़-चेतन। विद्या: परा-अपरा। इन्द्रियाँ: नयन/आँख, कर्ण/कान, कर/हाथ, पग/पैर। लिंग: स्त्रीलिंग, पुल्लिंग।
दूसरा- वेद: सामवेद, युग त्रेता, देव: विष्णु, वर्ण: क्षत्रिय, आश्रम: गृहस्थ, पुरुषार्थ: धर्म,
महर्षि: द्वैपायन/व्यास। द्वैत विभाजन,
तीन/त्रि - देव / त्रिदेव/त्रिमूर्ति: ब्रम्हा-विष्णु-महेश। ऋण: देव ऋण, पितृ-मातृ ऋण, ऋषि ऋण। अग्नि: पापाग्नि, जठराग्नि, कालाग्नि। काल: वर्तमान, भूत, भविष्य। गुण: । दोष: वात, पित्त, कफ (आयुर्वेद)। लोक: स्वर्ग, भू, पाताल / स्वर्ग भूलोक, नर्क। त्रिवेणी / त्रिधारा: सरस्वती, गंगा, यमुना। ताप: दैहिक, दैविक, भौतिक। राम: श्री राम, बलराम, परशुराम। ऋतु: पावस/वर्षा शीत/ठंड ग्रीष्म।मामा:कंस, शकुनि, माहुल।
तीसरा- वेद: यजुर्वेद, युग द्वापर, देव: महेश, वर्ण: वैश्य, आश्रम: वानप्रस्थ, पुरुषार्थ: काम,
त्रिकोण, त्रिनेत्र = शिव, त्रिदल बेल पत्र, त्रिशूल, त्रिभुवन, तीज, तिराहा, त्रिमुख ब्रम्हा। त्रिभुज तीन रेखाओं से घिरा क्षेत्र।
चार - युग: सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग। धाम: द्वारिका, बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम धाम। पीठ: शारदा पीठ द्वारिका, ज्योतिष पीठ जोशीमठ बद्रीधाम, गोवर्धन पीठ जगन्नाथपुरी, श्रृंगेरी पीठ। वेद: ऋग्वेद, अथर्वेद, यजुर्वेद, सामवेद।आश्रम: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास। अंतःकरण: मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। वर्ण: ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र। पुरुषार्थ: अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष। दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण। फल: । अवस्था: शैशव/बचपन, कैशोर्य/तारुण्य, प्रौढ़ता, वार्धक्य।धाम: बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारिका। विकार/रिपु: काम, क्रोध, मद, लोभ।
अर्णव, अंबुधि, श्रुति,
चौथा - वेद: अथर्वर्वेद, युग कलियुग, वर्ण: शूद्र, आश्रम: सन्यास, पुरुषार्थ: मोक्ष,
चौराहा, चौगान, चौबारा, चबूतरा, चौपाल, चौथ, चतुरानन गणेश, चतुर्भुज विष्णु, चार भुजाओं से घिरा क्षेत्र।, चतुष्पद चार पंक्ति की काव्य रचना, चार पैरोंवाले पशु।, चौका रसोईघर, क्रिकेट के खेल में जमीन छूकर सीमाँ रेखा पार गेंद जाना, चार रन।
पाँच/पंच - गव्य: गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र, गोबर। देव: गणेश, विष्णु, शिव, देवी, सूर्य। तत्त्व: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश। अमृत: दुग्ध, दही, घृत, मधु, नर्मदा/गंगा जल। अंग/पंचांग: । पंचनद: । ज्ञानेन्द्रियाँ: आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा। कर्मेन्द्रियाँ: हाथ, पैर,आँख, कान, नाक। कन्या: ।, प्राण ।, शर: ।, प्राण: ।, भूत: ।, यक्ष: ।,
इशु: । पवन: । पांडव पाण्डु के ५ पुत्र युधिष्ठिर भीम अर्जुन नकुल सहदेव। शर/बाण: । पंचम वेद: आयुर्वेद।
पंजा, पंच, पंचायत, पंचमी, पंचक, पंचम: पांचवा सुर, पंजाब/पंचनद: पाँच नदियों का क्षेत्र, पंचानन = शिव, पंचभुज पाँच भुजाओं से घिरा क्षेत्र,
छह/षट - दर्शन: वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मीसांसा, दक्षिण मीसांसा। अंग: ।, अरि: ।, कर्म/कर्तव्य: ।, चक्र: ।, तंत्र: ।, रस: ।, शास्त्र: ।, राग:।, ऋतु: वर्षा, शीत, ग्रीष्म, हेमंत, वसंत, शिशिर।, वेदांग: ।, इति:।, अलिपद: ।
षडानन कार्तिकेय, षट्कोण छह भुजाओं से घिरा क्षेत्र,
सात/सप्त - ऋषि - विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ एवं कश्यप। पुरी- अयोध्या, मथुरा, मायापुरी हरिद्वार, काशी वाराणसी , कांची (शिन कांची - विष्णु कांची), अवंतिका उज्जैन और द्वारिका। पर्वत: ।, अंध: ।, लोक: ।, धातु: ।, सागर: ।, स्वर: सा रे गा मा पा धा नी।, रंग: सफ़ेद, हरा, नीला, पीला, लाल, काला।, द्वीप: ।, नग/रत्न: हीरा, मोती, पन्ना, पुखराज, माणिक, गोमेद, मूँगा।, अश्व: ऐरावत,
सप्त जिव्ह अग्नि,
सप्ताह = सात दिन, सप्तमी सातवीं तिथि, सप्तपदी सात फेरे,
आठ/अष्ट - वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष। योग- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। लक्ष्मी - आग्घ, विद्या, सौभाग्य, अमृत, काम, सत्य , भोग एवं योग लक्ष्मी ! सिद्धियाँ: ।, गज/नाग: । दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य।, याम: ।,
अष्टमी आठवीं तिथि, अष्टक आठ ग्रहों का योग, अष्टांग: ।,
अठमासा आठ माह में उत्पन्न शिशु,
नव दुर्गा - शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री। गृह: सूर्य/रवि , चन्द्र/सोम, गुरु/बृहस्पति, मंगल, बुध, शुक्र, शनि, राहु, केतु।, कुंद: ।, गौ: ।, नन्द: ।, निधि: ।, विविर: ।, भक्ति: ।, नग: ।, मास: ।, रत्न ।, रंग ।, द्रव्य ।,
नौगजा नौ गज का वस्त्र/साड़ी।, नौरात्रि शक्ति ९ दिवसीय पर्व।, नौलखा नौ लाख का (हार)।,
नवमी ९ वीं तिथि।,
दस - दिशाएं: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, पृथ्वी, आकाश।, इन्द्रियाँ: ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ।, अवतार - मत्स्य, कच्छप, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, श्री राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दशमुख/दशानन/दशकंधर/दशबाहु रावण।, दष्ठौन शिशु जन्म के दसवें दिन का उत्सव।, दशमी १० वीं तिथि।, दीप: ।, दोष: ।, दिगपाल: ।
ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
एकादशी ११ वीं तिथि,
बारह - आदित्य: धाता, मित, आर्यमा, शक्र, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।, ज्योतिर्लिंग - सोमनाथ राजकोट, मल्लिकार्जुन, महाकाल उज्जैन, ॐकारेश्वर खंडवा, बैजनाथ, रामेश्वरम, विश्वनाथ वाराणसी, त्र्यंबकेश्वर नासिक, केदारनाथ, घृष्णेश्वर, भीमाशंकर, नागेश्वर। मास: चैत्र/चैत, वैशाख/बैसाख, ज्येष्ठ/जेठ, आषाढ/असाढ़ श्रावण/सावन, भाद्रपद/भादो, अश्विन/क्वांर, कार्तिक/कातिक, अग्रहायण/अगहन, पौष/पूस, मार्गशीर्ष/माघ, फाल्गुन/फागुन। राशि: मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ, कन्यामेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या।, आभूषण: बेंदा, वेणी, नथ,लौंग, कुण्डल, हार, भुजबंद, कंगन, अँगूठी, करधन, अर्ध करधन, पायल. बिछिया।,
द्वादशी १२ वीं तिथि।, बारादरी ।, बारह आने।
तेरह - भागवत: ।, नदी: ।,विश्व ।
त्रयोदशी १३ वीं तिथि ।
चौदह - इंद्र: ।, भुवन: ।, यम: ।, लोक: ।, मनु: ।, विद्या ।, रत्न: ।
घतुर्दशी १४ वीं तिथि।
पंद्रह तिथियाँ - प्रतिपदा/परमा, द्वितीय/दूज, तृतीय/तीज, चतुर्थी/चौथ, पंचमी, षष्ठी/छठ, सप्तमी/सातें, अष्टमी/आठें, नवमी/नौमी, दशमी, एकादशी/ग्यारस, द्वादशी/बारस, त्रयोदशी/तेरस, चतुर्दशी/चौदस, पूर्णिमा/पूनो, अमावस्या/अमावस।
सोलह - कला: ।, श्रृंगार: ।, संस्कार: ।,
षोडशी सोलह वर्ष की, सोलह आने पूरी तरह, शत-प्रतिशत।, अष्टि: ।,
सत्रह -
अठारह -
उन्नीस -
बीस - कौड़ी, नख, बिसात, कृति ।
चौबीस स्मृतियाँ - मनु, विष्णु, अत्रि, हारीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगिरा, यम, आपस्तम्ब, सर्वत, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शांख्य, लिखित, दक्ष, शातातप, वशिष्ठ।
पच्चीस - रजत, प्रकृति ।
पचीसी = २५, गदहा पचीसी, वैताल पचीसी।,
तीस - मास,
तीसी तीस पंक्तियों की काव्य रचना,
बत्तीस - बत्तीसी = ३२ दाँत ।,
तैंतीस - सुर: ।,
छत्तीस - छत्तीसा ३६ गुणों से युक्त, नाई।
चालीस - चालीसा ४० पंक्तियों की काव्य रचना।
पचास - स्वर्णिम, हिरण्यमय, अर्ध शती।
साठ - षष्ठी।
सत्तर -
पचहत्तर -
सौ -
एक सौ आठ - मंत्र जाप
सात सौ - सतसई।,
सहस्त्र -
सहस्राक्ष इंद्र।,
एक लाख - लक्ष।,
करोड़ - कोटि।,
दस करोड़ - दश कोटि, अर्बुद।,
अरब - महार्बुद, महांबुज, अब्ज।,
ख़रब - खर्व ।,
दस ख़रब - निखर्व, न्यर्बुद ।,
*
३३ कोटि देवता
*
देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है, कोटि = प्रकार, एक अर्थ करोड़ भी होता। हिन्दू धर्म की खिल्ली उड़ने के लिये अन्य धर्मावलम्बियों ने यह अफवाह उडा दी कि हिन्दुओं के ३३ करोड़ देवी-देवता हैं। वास्तव में सनातन धर्म में ३३ प्रकार के देवी-देवता हैं:
० १ - १२ : बारह आदित्य- धाता, मित, आर्यमा, शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।
१३ - २० : आठ वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।
२१ - ३१ : ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
३२ - ३३: दो देव- अश्विनी और कुमार।
***०१ - परब्रह्म।
०२ -  पक्ष - कृष्ण पक्ष , शुक्ल पक्ष।
०३ - ऋण - देव ऋण, पितृ ऋण, ऋषि ऋण। 
०४ - युग - सत, त्रेता, द्वापर, कलि। धाम - द्वारिका, बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम धाम, पीठ - शारदा (द्वारिका),, ज्योतिष पीठ ( जोशी मठ बद्रीधाम), गोवर्धन पीठ (जगन्नाथपुरी) , श्रृंगेरी पीठ।  वेद - ऋग्वेद , अथर्वेद , यजुर्वेद , सामवेद। आश्रम - ब्रह्मचर्य , गृहस्थ , वानप्रस्थ , संन्यास। अंतःकरण - मन , बुद्धि , चित्त , अहंकार।
०५ - परमेश्वर - गणेश, विष्णु, शिव, देवी,सूर्य। तत्त्व -पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश।  गव्य गाय का घी, दूध, दही, गोमूत्र, गोबर।
०६ - दर्शन -वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मीसांसा , उत्तर मीसांसा।
०७ - ऋषि - विश्वामित्र , जमदाग्नि ,भरद्वाज , गौतम , अत्री , वशिष्ठ और कश्यप। पुरी अयोध्या, मथुरा, मायापुरी (हरिद्वार), काशी, कांची ( शिव कांची - विष्णु कांची), अवंतिका (उज्जयिनी) और द्वारिका।
०८- योग - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहा , धारणा, ध्यान एवं समाधि। लक्ष्मी - आद्या, विद्या, सौभाग्य, अमृत, काम, सत्य ,
भोग एवं योग।  विनायक - अदासा गणपति नागपुर, अमरावती, राय ढाबा पिपरिया, नरकेसरी ले आउट नागपुर, बोरगाँव, करेली, रमई नगर,  नागपुर, हाल्दा, औरंगाबाद, जलालपुर।  
०९ - दुर्गा - शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा,
कुष्मांडा, स्कंदमाता,
कात्यायिनी ,कालरात्रि ,
महागौरी एवं सिद्धिदात्री !
( १८ ) दस दिशाएं -
पूर्व , पश्चिम , उत्तर , दक्षिण ,
इशान , नेऋत्य , वायव्य , अग्नि , आकाश
एवं पाताल !
( १९ ) मुख्य ११ अवतार -
मत्स्य , कच्छप , वराह ,नरसिंह ,
वामन , परशुराम ,श्री राम , कृष्ण ,
बलराम , बुद्ध , एवं कल्कि !
( २० ) बारह मास -
चेत्र , वैशाख , ज्येष्ठ , अषाढ , श्रावण ,
भाद्रपद , अश्विन ,
कार्तिक ,मार्गशीर्ष , पौष , माघ ,
फागुन !
( २१ ) बारह राशी -
मेष , वृषभ , मिथुन , कर्क , सिंह ,
कन्या , तुला , वृश्चिक , धनु , मकर ,
कुंभ , कन्या !
( २२ ) बारह ज्योतिर्लिंग -
सोमनाथ , मल्लिकार्जुन ,महाकाल ,
ओमकारेश्वर , बैजनाथ ,
रामेश्वरम ,विश्वनाथ , त्र्यंबकेश्वर ,
केदारनाथ ,
घुष्नेश्वर ,भीमाशंकर ,नागेश्वर !
( २३ ) पंद्रह तिथियाँ -
प्रतिपदा ,द्वितीय , तृतीय ,
चतुर्थी , पंचमी , षष्ठी , सप्तमी ,
अष्टमी , नवमी ,दशमी , एकादशी ,
द्वादशी , त्रयोदशी , चतुर्दशी ,
पूर्णिमा , अमावष्या !
( २४ ) स्मृतियां -
मनु , विष्णु , अत्री , हारीत ,
याज्ञवल्क्य , उशना , अंगीरा , यम ,
आपस्तम्ब , सर्वत ,कात्यायन ,
ब्रहस्पति , पराशर , व्यास , शांख्य ,
लिखित , दक्ष , शातातप , वशिष्ठ !

आओ सभी भारतीय भाई बहन मिलके
नया स्वच्छ भारत बनाये
ॐ शाति ।।

बुधवार, 3 जून 2020

अभियान ३१ - भाष विज्ञान पर्व

समाचार:

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर
३१ वां दैनंदिन सारस्वत अनुष्ठान : भाषाविज्ञान पर्व
अनुभूत को अभिव्यक्त करती ध्वनि ही भाषा का मूल है - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
जबलपुर, ३ जून २०२०। संस्कारधानी जबलपुर की प्रतिष्ठित संस्था विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर के ३१ वे दैनंदिन सारस्वत अनुष्ठान 'भाषाविज्ञान पर्व, के अन्तर्गत भाषा के उद्भव, विकास, साम्य, भिन्नता, प्रकृति और संस्कार आदि विविध पक्षों पर विचार विनिमय संपन्न हुआ। मुखिया की आसंदी को गौरवान्वित किया संस्कृत - हिंदी साहित्य की प्रख्यात हस्ताक्षर डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी ने। आयोजन के पाहुना की आसंदी पर प्रतिष्ठित हुए चर्चित साहित्यसेवी अरुण श्रीवास्तव 'अर्णव'। इंजी. उदयभानु तिवारी 'मधुकर' द्वारा सरस् सरस्वती वंदना का पश्चात् विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान के संयोजक, छन्दशास्त्री, समालोचक, नवगीत-दोहाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा -''अनुभूत को अभिव्यक्त करने के लिए भावमुद्रा तथा ध्वनि की आवश्यकता होती है। मानव ने ध्वनि प्रकृति से ग्रहण की। सलिल प्रवाह की कलकल, पंछियों का कलरव, पवन वेग की सन सन, मेघ की गर्जन, दामिनी की तड़क, सर्प की फुँफकार, शेर की दहाड़ आदि से मनुष्य ने सुख, भय आदि की अनुभूति कर उन ध्वनियों को दुहराकर अन्य मानवों को सूचित किया। ध्वनियों का यह प्रयोग ही भाषा का मूल है। क्रमश: ध्वनियों की तीव्रता-मंदता, आवृत्ति आदि ने वह रूप लिए जिसमें हम कुछ-ध्वनियों व भाव मुद्रा में नवजात शिशु से बात करते हैं। नवजात शिशु कुछ नहीं जानता, किसी शब्द का अर्थ नहीं जनता पर कहा गया भाव ग्रहण कर पाता है। यही भाषा का आरंभ है। ध्वनियों के समन्वय से अक्षर और शब्द बनते हैं। किसी धवनि या ध्वनियों को विशेष अर्थ में उपयोग किये जाने पर पर उस अर्थ में रूढ़ और सर्वमान्य हो जाती है। शब्दार्थ लोकमान्य हो जाने पर उसे अंकित करने के लिए आकृतियों का प्रयोग किया गया को कालांतर में वर्ण और वर्णमाला के रूप में विक्सित हुई। इसमें हजारों साल लग गए। वर्णों / अक्षरों का समन्वय शब्द के रूप में सामने आया। शब्दों के साथ विशिष्ट अर्थ संश्लिष्ट होने से शब्द भण्डार बना। शब्द-प्रयोग ने शब्द-भेद का विकास किया। क्रमश: भाषा का विकास होने से व्याकरण और छंद शास्त्र का जन्म हुआ।''

भाषा वाहक भाव की, कहे सत्य अनुभूत
संवेदन हर शब्द में, अन्तर्निहित प्रभूत

रायपुर छत्तीसगढ़ से पधारी श्रीमती रजनी शर्मा 'बस्तरिया' ने छत्तीसगढ़ी भाषा में भावाभिव्यक्ति की - ''अपने भाषा अपनेच्च होथे, ऐमा जीवन भर बड़ाई है। दूसर के भाषा दूसरेच्च होथे, जेमा जीवन भर करलई है।' छगनलाल गर्ग विज्ञ सिरोही राजस्थान ने मारवाड़ी बोली में संज्ञा-सर्वनाम शब्दों के मूल स्वरूप उपबोलिओं में परिवर्तित होने के उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उनकी सार्थकता पर प्रकाश डाला। वक्ता ने शब्दों के उच्चारणों में ध्वनि परिवर्तन को स्वाभाविक तथा परिवेश व पर्यावरण के प्रभाव की भी चर्चा की।

प्रो० रेखा कुमारी सिंह, ए.के.सिंह काॅलेज, जपला,पलामू ,झारखंड ने मगही तथा हिंदी भाषाओँ के भाषा के संज्ञा शब्दों का तुलनात्मक अध्ययन कर अंतर पर चर्चा की। मगही में संज्ञा शब्द नाव नउआ, बीटा बिटवा, इतना एतना, जितना जेतना, मीठा मिठवा, पढ़ना पढ़नई, आदि बदलावों पर प्रकाश डाला। झंडा के स्थान पर समानार्थी पताका आदि का प्रयोग मगही का वैशिष्ट्य है।

ब्रज भाषा की कुछ विशेष विशिष्टताओं पर प्रकाश डालते हुए नरेन्द्र कुमार शर्मा 'गोपाल' आगरा ने शौरसेनी से विकसित हुई बृज भाषा में 'अर्ध र' के प्रयोग की वर्जना का कारण माधुर्य में ह्रास को बताया। कृपा को किरपा। बृज को बिराज, ब्रह्मा को बिरमा, त्रिपुरारी को तिपुरारि, प्रमोद को प्रमोद, अमृत को इमरत, गर्भ को गरभ आदि किये जाने के पीछे वक्ता ने माधुर्य को ही कारण बताया। इसीलिए श, ष का प्रयोग वर्जित है। इसलिए श्रीमान को सिरीमान, शर्बत को सरबत, विनाश को बिनास, षडानन को सदानन, दर्शन को दरसन के रूप में प्रयोग भी उच्चारण की तीक्ष्णता को कम करते हुए होता है।

जबलपुर निवासी डॉ. मुकुल तिवारी ने मौखिक तथा लिखित भाषा रूपों में अंतर बताते हुए उनमें स्वर तथा लिपि की भूमिका पर प्रकाश डाला। भाषा के विकास में लिपि का विशेष महत्त्व है। अक्षरों, शब्दों, वाक्यों का विकास ही भाषा के रूप को बनाते हैं। स्वर, व्यंजन, उच्चार, अनुस्वार, विसर्ग आदि पर वक्ता ने प्रकाश डाला।

दमोह से सहभागी बबीता चौबे 'शक्ति' ने बुंदेली के क्रिया पदों पर प्रकाश डालते हुए आइए आइए-आओ आओ, हाँ-हव, प्रणाम-पायलागू, क्यो-क़ाय, कहां गए थे-किते गै हते, उसको-उखो, नही-नईया, औरत-लुगाई, बेटी-बिटिया, बेटा-मोड़ा, चलो खाना खा लीजिये - चलो रोटी जे लेव, आज ब्रत है - आज पुआस है, कल आएंगे - भयाने आहे के उदाहरण दिए। पूड़ी - लुचई, चावल - भात, दही बड़े - वरा आदि नए शब्दों की जानकारी वक्त ने दी तथा मधुर स्वर में भारत माँ के प्रति पंक्तियाँ प्रस्तुत कर वाणी को विराम दिया -

मोरी सोन चिरइया लौट के आजा अपने देश रे
मोरी अमन चिरइया लौट के आजा अपने देश रे।

''हिंदी भाषा की उत्पत्ति, विकास और भविष्य'' पर विचार व्यक्त करते हुए आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने हिन्द, हिंदी, हिन्दू शब्दों का उद्भव फ़ारसी से बताया। विद्वान वक्त ने हिंदी भाषा को देश की विविध देशज बोलियों का समन्वित रूप कहा। राजस्थयनी, बिहारी, पहाड़ी, पश्चिमी तथा पूर्वी भाषाओँ के सम्मिश्रण से हिंदी का विकास होने पर विस्तार से वक्ता ने प्रकाश डाला। प्रेम सागर में लल्लूलाल जी द्वारा प्रयुक्त हिंदी का अंश पाठ करते हुए वक्ता ने खड़ी बोली में रूपांतरण के कारकों की चर्चा की। मेरठ-बिजनौर में अंकुरित भाषा रूप उर्दू और हिंदी दो शाखाओं में बँट गई। कन्नौजी, बुंदेली, बघेली, अवधी, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, मैथिली, मगही, मेवाती, मारवाड़ी, हाड़ौती, मालवी, पूर्वी पहाड़ी, पंजाबी आदि को हिंदी की जड़ें बताते हुए वक्ता ने आधुनिक खड़ी हिंदी में इन बोलिओं के शब्द, मुहावरे, कहावतें आदि हिंदी में आत्मसात करने की आवश्यकता पर वक्ता ने बल दिया।

पलामू के प्राध्यापक आलोकरंजन ने ''नागपुरी का परिचय और उसका रूपात्मक संरचना'' पर विचार व्यक्त करते हुए भाषा को सरल-सुगम बनाने के लिए लिखित एवं मौखिक रूप में परिवर्तन की आवश्यकता वक्ता ने प्रतिपादित की। आर्य भाषा परिवार की नागपुरी भाषा बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बंगाल आदि में बोली जाती है। नागपुरी की संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, भाववाचक संज्ञाओं आदि पर प्रो. रंजन ने चर्चा की।

भाषा-विज्ञान पर्व की मुखिया, युगपरिधि उपन्यासकार प्रोफ़ेसर चंद्रा चतुर्वेदी जी ने ''ब्रजबोली के कतिपय शब्दों के पर्याय'' पर चर्चा की। शौरसैनी से व्युत्पन्न बृज के विविध रूपों का उल्लेख करते हुए विदुषी वक्ता ने कालिंजर के किलाधीश चौबे श्री रामकृष्ण जी कृत २५० वर्ष पुरानी कृष्ण विलास से पद्यांश प्रस्तुत कर उसकी व्याख्या विदुषी प्रो चंद्रा जी ने व्यक्त की। चौबे दरियाव सिंह के कवित्त सुनाते हुए वक्त ने लाड़ और रसमयता को बृज भाषा का अभिन्न अंग बताया। विश्ववाणीहिंदी संस्थान अभियान जबलपुर द्वारा ३१ दिनों से निरंतर दैनंदिन अनुष्ठानों को अभूतपूर्व बताते हुए उन्होंने इसकी उपादेयता को असंदिग्ध कहा। डॉ. मुकुल तिवारी द्वारा आभार ज्ञापन के साथ भाषा विज्ञान पर्व का समापन हुआ।

चंदा देवी स्वर्णकार ने भाषा द्वारा संप्रेषण की विधियों का उल्लेख करते हुए तत्सम-तद्भव शब्दों की विवेचना की। चंदा जी ने लोक साहित्य की अविरल धारा को उत्सव-पर्व से संबद्ध बताया तथा बुंदेली, बघेली, मालवी, निमाड़ी लोक भाषाओँ तथा भीली, गौंडी, कोरकू, आदि आदिवासी भाषाओँ संक्षिप्त का उल्लेख किया।

''अवधी कहावतों में संज्ञा शब्दों का हिंदी में रूपांतरण'' पर रोचक चर्चा की इंजी. अरुण भटनागर ने। घर मां नहीं दाने, अम्मा चलीं भुनाने, जबरा मारे रोबर ना दें, समर्थ को नहीं दोष गोसाईं, तिरिया चरित न जानें कोई आदि अनेक कहावतों में प्रयुक्त अवधी संघ शब्दों को हिंदी में परिवर्तित कर लोक ग्राह्य बनाने पर अरुण जी ने प्रकाश डाला।

कार्यक्रम के पाहुने अरुण श्रीवास्तव 'अर्णव' ने विविध बोलिओं की मिठास को समाहित करते हुए भाषिक विकास और परिवर्तन के मध्य सेतु स्थापन के प्रयास को सराहते हुए मालवांचल की आंचलिक बोली मालवी में लोकगीतों की परंपरा की चर्चा करते हुए वक्त ने शहरों में इसका प्रभाव कम होने पर चिंता व्यक्त की। खाना-जीमना, अच्छा -आछा, सारी-सगली आदि अनेक शब्दों की सरसता, सरलता और संग्रहण के प्रयास को भूरि-भूरि सराहते हुए अरुण जी ने विश्ववाणी हिंदी अभियान की सफलता की कामना की।

इस सारस्वत अनुष्ठान की पूर्णाहुति देते हुए मुखिया की आसंदी से डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी जी ने विश्ववाणी हिंदी संस्थान द्वारा भाषा को केंद्र में रखकर सामाजिक समन्वय के प्रयास को अनुकरणीय निरूपित किया। अनुष्ठानों के संयोजक-परिकल्पक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', उद्घोषक प्रो. आलोकरंजन तथा वक्ताओं द्वारा व्यक्त विचारों का विश्लेषण नीर-क्षीर विश्लेषण कर विदुषी वक्त ने मुखिया की आसंदी की गरिमा वृद्धि की। डॉ. मुकुल तिवारी जबलपुर ने अनुष्ठान का समापन करते हुए सर्व सहयोगियों के प्रति आभार व्यक्त किया।
********

हिंदी : वैज्ञानिक भाषा

हिंदी एक वैज्ञानिक भाषा है
और कोई भी अक्षर वैसा क्यूँ है
उसके पीछे कुछ कारण है ,
अंग्रेजी भाषा में ये
बात देखने में नहीं आती |
______________________
क, ख, ग, घ, ङ- कंठव्य कहे गए,
क्योंकि इनके उच्चारण के समय
ध्वनि
कंठ से निकलती है।
एक बार बोल कर देखिये |
च, छ, ज, झ,ञ- तालव्य कहे गए,
क्योंकि इनके उच्चारण के
समय जीभ
तालू से लगती है।
एक बार बोल कर देखिये |
ट, ठ, ड, ढ , ण- मूर्धन्य कहे गए,
क्योंकि इनका उच्चारण जीभ के
मूर्धा से लगने पर ही सम्भव है।
एक बार बोल कर देखिये |
😀
त, थ, द, ध, न- दंतीय कहे गए,
क्योंकि इनके उच्चारण के
समय
जीभ दांतों से लगती है।
एक बार बोल कर देखिये |
प, फ, ब, भ, म,- ओष्ठ्य कहे गए,
क्योंकि इनका उच्चारण ओठों के
मिलने
पर ही होता है। एक बार बोल
कर देखिये ।
😀
________________________
हम अपनी भाषा पर गर्व
करते हैं ये सही है परन्तु लोगो को
इसका कारण भी बताईये |
इतनी वैज्ञानिकता
दुनिया की किसी भाषा मे
नही है
जय हिन्द
क,ख,ग क्या कहता है जरा गौर करें....
••••••••••••••••••••••••••••••••••••
क - क्लेश मत करो
ख- खराब मत करो
ग- गर्व ना करो
घ- घमण्ड मत करो
च- चिँता मत करो
छ- छल-कपट मत करो
ज- जवाबदारी निभाओ
झ- झूठ मत बोलो
ट- टिप्पणी मत करो
ठ- ठगो मत
ड- डरपोक मत बनो
ढ- ढोंग ना करो
त- तैश मे मत रहो
थ- थको मत
द- दिलदार बनो
ध- धोखा मत करो
न- नम्र बनो
प- पाप मत करो
फ- फालतू काम मत करो
ब- बिगाङ मत करो
भ- भावुक बनो
म- मधुर बनो
य- यशश्वी बनो
र- रोओ मत
ल- लोभ मत करो
व- वैर मत करो
श- शत्रुता मत करो
ष- षटकोण की तरह स्थिर रहो
स- सच बोलो
ह- हँसमुख रहो
क्ष- क्षमा करो
त्र- त्रास मत करो
ज्ञ- ज्ञानी बनो !!

शशिवदना छंद

छंद बहर का मूल है १६
वार्णिक अनुष्टुप छंद
मात्रिक दैशिक शशिवदना छंद
मुक्तिका
*
सूर्य ऊगा तो सवेरा ८/१४
सूर्य डूबा तो अँधेरा
.
प्रीत की जादूगरी है
नूर ऊषा ने बिखेरा
.
नींद तू भी जाग जा रे!
मुर्ग ने दे बाँग टेरा
.
भू न जाती सासरे को
सूर्य लेता संग फेरा
.
साँझ बाँधे रोज राखी
माँग तारे टाँक धीरा
.
है निशा बाँकी सहेली
बाँध-तोड़े मोह-घेरा
.
चाँदनी-चंदा लगाए
आसमां में प्रीत डेरा
***

चन्द्र छंद

छंद बहर का मूल है: १४
*
दस वार्णिक पंक्ति जातीय
सत्रह मात्रिक महासंस्कारी जातीय, चन्द्र छंद
छंद संरचना:२१२ २१२ २१२ २
सूत्र: र र र गा.
*
मुक्तक
*
आपका नूर है आसमानी
रूह है आपका शादमानी
आपका ही रहा बोलबाला
आपका रूप है जाफरानी
*
मुक्तिका- १
आसमां छू रहीं कामनाएँ
आप ही खो रहीं भावनाएँ
.
कौन है जो नहीं चाहता है
शांत हों, जागती वासनाएँ
.
खूब हालात ने आजमाया
आज हालात को आजमाएँ
.
कोशिशों को मिली कामयाबी
हौसले ही सदा काम आएँ
.
आदमी के नहीं पास जाएँ
हैं विषैले न वो काट खाएँ
***
मुक्तिका- २
आप जो हैं वही तो नहीं हैं
दीखते हैं वही जो नहीं हैं
.
खोजते हैं खुदी को जहाँ पे
जानते हैं वहाँ तो नहीं हैं
.
जो न बोला वही बोलते हैं
बोलते, बोलते जो नहीं हैं
.
तौल को तौलते ही रहे जो
तौल को तौलते वो नहीं हैं
.
देश का वेश क्या हो बताएँ?
दश में शेष क्या जो नहीं है
.
आदमी देवता क्या बनेगा?
आदमी आदमी ही नहीं है
.
जोश में होश ही खो न देना
होश में जोश हो, क्यां नहीं है?
***
२०-४-२०१७

दोहा सलिला

दोहा सलिला:
संजीव
*
भँवरे की अनुगूँज को, सुनता है उद्यान
शर्त न थककर मौन हो, लाती रात विहान
*
धूप जलाती है बदन, धूल रही हैं ढांक
सलिल-चाँदनी साथ मिल, करते निर्मल-पाक
*
जाकर आना मोद दे, आकर जाना शोक
होनी होकर ही रहे, पूरक तम-आलोक
*
अब नालंदा अभय हो, ज्ञान-रश्मि हो खूब
'सलिल' मिटा अज्ञान निज, सके सत्य में डूब
३०-५-२०१५
*

एकावली छंद

छंद बहर का मूल है १५
वार्णिक अनुष्टुप जातीय छंद
मात्रिक दैशिक जातीय एकावली छंद
*
मुक्तिका
*
नित इबादत करो
मत अदावत करो
.
कुछ शराफ़त रहे
कुछ शरारत करो
.
सो लिए तुम बहुत
उठ बगावत करो
.
मत नज़र फेरना
मिल इनायत करो
.
भूल शिकवे सभी
मत शिकायत करो
.
बेहतर जो लगे
पग रवायत करो
.
छोड़ चलभाष दो
खत-किताबत करो
.
२४-४-२०१६
सी २५६ आवास-विकास हरदोई
***
३-६-२०१६

मुक्तिका

मुक्तिका
*
नित इबादत करो
मत अदावत करो
.
मौन बैठो न तुम
कुछ शरारत करो
.
सो लिए हो बहुत
उठ बगावत करो
.
अब न फेरो नज़र
मिल इनायत करो
.
आज शिकवे भुला
कल शिकायत करो
.
बेहतरी का 'सलिल'
पग रवायत करो
.
छोड़ चलभाष प्रिय!
खत-किताबत करो
.
(दैशिक जातीय छंद)
२४-४-२०१६
सी २५६ आवास-विकास हरदोई
***

अभियान साप्ताहिक कार्यक्रम

🌞🌻🇮🇳🚩🌷🕉📕✍️🌳🐂🦚
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर
********************************
📝📚📙 समन्वय प्रकाशन जबलपुर 📙📚📝
=============================
संस्थापक- संचालक - आ० संजीव वर्मा सलिल जी
- : मार्गदर्शक मण्डल : -
आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी जी,
 डॉ. सुरेश कुमार वर्मा जी,
 सुश्री आशा वर्मा जी।
- : परामर्श मण्डल : -
इंजी. अमरेंद्र नारायण जी, डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव जी, डॉ. इला घोष जी, डॉ. साधना वर्मा जी, डॉ. संतोष शुक्ला, श्याम देवपुरा जी। 
- : सचेतक - मुख्यालय सचिव : छाया सक्सेना जी : -
- : अध्यक्ष - बसंत शर्मा जी,  उपाध्यक्ष  - जयप्रकाश श्रीवास्तव, सुरेश तन्मय, सचिव - मिथलेश बड़गैया जी।  
-----------------------------------------
सहयोगी संस्थाएँ :-
 वनमाली सृजनपीठ भोपाल,
 युवा उत्कर्ष साहित्यिक संस्था दिल्ली, साहित्य संगम दिल्ली।
-----------------------------------------
हिंदी आटा माढ़िए, देशज मोयन डाल।
सलिल संस्कृत सान दे,पूड़ी बने कमाल।।
-----------------------------------------
विक्रम संवत् २०७७, शक संवत् १९४१, वीर निर्वाण संवत् २५४६, बांग्ला संवत् १४२६, हिजरी संवत् १४४२, ईस्वी सन् २०२०.
-----------------------------------------
३ जून, २०२० से प्रभावी कार्यक्रम
🌞🌞🌞 अनुशासन फलदायकं 🌞🌞🌞
रचनाकाल- प्रात: ६ बजे से संध्या ६ बजे
मुक्त समय - संध्या ६ बजे से प्रात: ६ बजे
स्थाई स्तंभ
वंदना , सूक्ति - सुभाषित, तिथि/पंचांग,  कार्यशाला , पर्व-जयंती , पाठकीय, पटल प्रतिवेदन।
🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻
 📕🖊️ साप्ताहिक - स्तम्भ 🖊️📕
सोमवार - धर्म , आध्यात्म्य , योग , ज्योतिष , छंद (दोहा , सोरठा , रोला , कुण्डलियां) , भाषा विज्ञान, बाल साहित्य , खेल।
व्यवस्थापक : डाॅ. मुकुल तिवारी जी जबलपुर, बबीता चौबे 'शक्ति' जी दमोह।
-----------------------------------------
मंगलवार - लोक गीत, लोक कथा, कहावत, मुहावरे, लोक नाटक, लघुकथा, क्षणिका।
व्यवस्थापक : डाॅ०आलोक रंजन जी जपला झारखंड, सुषमा शैली दिल्ली। 
-----------------------------------------
बुधवार - गीत, नवगीत, रस, आलेख, निबंध, समालोचना ।
 व्यवस्थापक : मीनाक्षी शर्मा 'तारिका' जी जबलपुर, पुनीता भारद्वाज जी भीलवाड़ा राजस्थान।
-----------------------------------------
गुरुवार - मात्रिक छंद, अलंकार, अनुवाद,  कहानी , परिचर्चा , घरेलू नुस्खे , औषधि विज्ञान।
व्यवस्थापक :  डॉ. संतोष शुक्ल ग्वालियर, मीना भट्ट जी जबलपुर।
-----------------------------------------
शुक्रवार - वार्णिक छंद, हिंदी गजल (मुक्तिका, गीतिका, सजल, तेवरी), संस्मरण, रपट, पर्यटन कथा।
व्यवस्थापक : इंजी. अरुण भटनागर जी जबलपुर, अविनाश ब्यौहार जी जबलपुर।  
-----------------------------------------
शनिवार - अहिन्दी व अभारतीय छंद (माहिया, लावणी, अभंग, तांका, बांका,  सैदोका, हाइकु , कप्लेट, सोनेट, बैलेड) ।
व्यवस्थापकगण : छाया सक्सेना जी जबलपुर, डॉ. अनिल कुमार जैन जी दमोह, विनोद 'वाग्वर' जी सागवाड़ा राजस्थान।
-----------------------------------------
रविवार - शिल्प कला (गायन, वादन, नर्तन, छायांकन, पाक, श्रृंगार, साज-सज्जा), यांत्रिकी, वास्तु।
 व्यवस्थापकगण : बसंत शर्मा, मिथलेश बड़गैया, विनीता श्रीवास्तव, प्रो. शोभित वर्मा।
======================
नियम व दायित्व -
१. पटलारंभ- प्रात: ६ बजे मीनाक्षी शर्मा 'तारिका' व डाॅ०आलोक रंजन जी।
२. पटल सदस्यगण रचना काल के समय प्रात: ६ बजे से लेकर संध्या ६ बजे के बीच ऑडियो, वीडियो, चित्र, लिंक आदि  पटल पर प्रेषित न करें।  पटल व्यवस्थापकविषयेतर सामग्री हटवाएँगे।
३. रचनाओं व विमर्श की भाषा शिष्ट, कथ्य प्रामाणिक, शब्द सटीक हों।
४. सहभागियों की रचनाओं पर नम्रतापूर्ण प्रतिक्रिया अवश्य दें। 
५. अन्य स्रोत से ली गई सामग्री का संदर्भ दें।
६. सामग्री की प्रामाणिकता, सत्यता, वैधानिकता हेतु केवल प्रस्तुतकर्ता जिम्मेदार हैं, पटल संचालक-प्रबंधक नहीं।
७. विवाद की स्थिति में संयोजक का निर्णय सब पर बंधनकारी होगा।
८. पटल व्यवस्थापक / सचेतक पटल प्रतिवेदन प्रस्तुत करेंगे।
------------------------------------

मंगलवार, 2 जून 2020

अभियान ३० - आत्मावलोकन पर्व

समाचार:
३० वां दैनंदिन सारस्वत अनुष्ठान : आत्मावलोकन पर्व
आत्मावलोकन और आत्मालोचन ही आत्मोन्नयन का पथ प्रशस्त करता है - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
जबलपुर, २ जून २०२०। संस्कारधानी जबलपुर की प्रतिष्ठित संस्था विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर के ३० वे दैनंदिन सारस्वत अनुष्ठान आत्मावलोकन पर्व के अंतर्गत राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की पंक्ति 'हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी' को केंद्र में रखकर वर्तमान परिपेक्ष्य में विचारोत्तेजक विमर्श संपन्न हुआ। संस्था तथा कार्यक्रम के संयोजक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने विषय प्रवर्तन करते हुए 'मैं' और 'तुम' को 'हम' में विलीन कर, 'स्व' को 'सर्व' में विलीन कर समष्टि के हित में कार्य करने की आवश्यकता प्रतिपादित की। इसके पूर्व बुंदेली की आकाशवाणी उद्घोषिका प्रभा विश्वकर्मा 'शील' ने महाकवि ईसुरी तथा स्वरचित चौकड़ियों के माध्यम से सरस् स्वर में सरस्वती वंदना की। काव्यमय विचाराभिव्यक्ति करते हुए सपना सराफ ने 'अन्तर्मन की शुचिता' का महत्व प्रतिपादित कर ऋचाओं की आवृत्ति कर मन्त्रों की सुकृति बनने का आव्हान किया। कोरबा से पधारी गायत्री शर्मा जी ने भौतिकता और आध्यात्मिकता में समन्वय और सामंजस्य को आवश्यक बताया। इंजी अरुण भटनागर ने काव्यांजलि में में मर्यादा और नैतिक मूल्यों को समाज के लिए आवश्यक बताते हुए स्त्री-शक्ति को उन्नति हेतु श्रेय दिया।

सागवाड़ा राजस्थान से सहभागी विनोद जैन 'वाग्वर' ने परिवार के बिखराव पर चिंता व्यक्त करते हुए 'मैं' और 'तुम' को 'हम' बनाने पर बल दिया। मनोरमा जैन 'पाखी' भिंड ने साहित्यकार को समय का पारखी तथा बदलाव को जीवन का सत्य बताते हुए विदेश जीवन शैली के अंधानुकरण को वर्तमान विसंगतियों हेतु जिम्मेदार बताया। छाया सक्सेना 'प्रभु' ने सरस काव्याभिव्यक्ति करते हुए प्रकृति जे जुड़ाव को समस्याओं का हल बताया। ग्वालियर से पधारी वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. संतोष शुक्ला ने गौरवपूर्ण इतिहास का उल्लेख करते हुए उज्जवल भविष्य के प्रति आशावादिता दर्शायी। दतिया के प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव 'असीम' ने गतागत पर चिंतन हेतु प्रेरित करते विषय को वर्तमान समय और परिस्थितियों में उपयुक्त बताया। दिल्ली निवासी सुषमा शैली ने 'अब विष पीने से डरकर क्या होगा? / हमने ही भरा था इस गागर में विष / तो अमृत कहाँ से होगा?' कहते हुए आत्मावलोकन और आत्मालोचन पर बल दिया।

पलामू झारखण्ड से पधारे छंदशास्त्री श्रीधर प्रसाद द्विवेदी ने पद्य में विचार व्यक्त करते हुए ओजस्वी स्वर में अतीत के गौरव का गान किया। सिरोही राजस्थान के छगनलाल 'विज्ञ ने उपनिषदों की कथाओं से किताबी शिक्षा को 'तथ्यान्वेषण' मात्र बताया तथा 'आत्मान्वेषण' को आवश्यक बताया। जबलपुर की डॉ. मुकुल तिवारी ने संसार के रहस्यों के बीच में जीव के आने-जाने की गूढ़ता को व्याख्यायित किया। जपला झारखंड की प्राध्यापक रेखा सिंह ने मानव संस्कृति को जीविकीय रूप से अधिक व्यापक बताया। उन्होंने विकास हेतु परिवर्तन को अपरिहार्य बताया। दमोह का प्रतिनिधित्व कर रही बबीता चौबे 'शक्ति' ने पारिवारिक विघटन पर चिंता व्यक्त करते हुए सात्विक आहार को अपनाने पर बल दिया। आगरा से पधारे बृज कवि नरेंद्र कुमार शर्मा 'गोपाल' ने काव्याभिव्यक्ति की।

युवा चिंतक सारांश गौतम ने विमर्श को ऊँचाई की ओर ले जाते हुए धर्म और आध्यात्मिकता के अंतर को स्पष्ट कर, धर्म की आड़ में दिशाहीन कर्मकांड पर प्रश्न उठाते हुए कबीर, विवेकानंद, महर्षि रमन, महर्षि अरविन्द, ओशो आदि को पढ़ने और समझने को आवश्यक बताया। वेद विजान का उपहास करने की साम्यवादी सोच की आधारहीनता को उद्घाटित करते हुए वक्ता ने 'स्वार्थ के लिए न जीने' के जीवनादर्श को अपनाने पर बल दिया। विख्यात उपन्यासकार डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे ने वैदिक आर्य संस्कृति की महत्ता प्रतिपादित की। चंदादेवी स्वर्णकार ने धनार्जन की लक्ष्य मानकर पारिवारिक दायित्वों से विमुख हो रही पीढ़ी को इसके दुष्परिणामों के प्रति सचेत किया।

मुखिया पुष्पा अवस्थी 'स्वाति' ने इसकी उपादेयता तथा सहभागियों की प्रस्तुतियों को सार्थक बताया। मुखिया की आसंदी पर सुशोभित युवा शिक्षिका-गायिका मीनाक्षी शर्मा 'तारिका' ने विचारोत्तेजक अभिव्यक्ति करते हुए जीवन को शून्य से निर्गमित शून्य में विलीन होनेवाल मार्ग बताया। उन्होंने जीवन मार्ग चुनने के प्रति सजग करते हुए अपने-अपने कार्य संपादन को सुखानुभूति और संतोष का पाथेय पाने का एकमात्र उपाय बताया। एक माह तक निरंतर चली इस दैनंदिन रचनात्मक श्रृंखला की परिकल्पना, संयोजन तथा क्रियान्वयन हेतु आधार उपलब्ध करने के लिए आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', सभी वक्ताओं को उनकी सारगर्भित प्रस्तुतियों तथा संचालक डॉ. आलोकरंजन के प्रति आभार ज्ञापित किया संस्था की सचिव छाया सक्सेना ने।

==========

लेख : अग्र सदा रहता सुखी

शोध परक लेख :
अग्र सदा रहता सुखी
आचार्य​ संजीव वर्मा 'सलिल'
​संपर्क​- 204 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
चलभाष ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
*​
अग्र सदा रहता सुखी, अगड़ा कहते लोग
पृष्ठ रहे पिछड़ा 'सलिल', सदा मनाता सोग
सब दिन जात न एक समान
मानव संस्कृति का इतिहास अगड़ों और पिछड़ों की संघर्ष कथा है. बाधा और संकट हर मनुष्य के जीवन में आते हैं, जो जूझकर आगे बढ़ गया वह 'अगड़ा' हुआ. इसके विपरीत जो हिम्मत हारकर पीछे रह गया 'पिछड़ा' हुआ. अवर्तमान राजनीति में अगड़ों और पिछड़ों को एक दूसरे का विरोधी बताया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है. वास्तव में वे एक दूसरे के पूरक हैं. आज का 'अगड़ा' कल 'पिछड़ा' और आज का 'पिछड़ा' कल 'अगड़ा' हो सकता है. इसीलिए कहते हैं- 'सब दिन जात न एक समान'.
मन के हारे हार है
जो मनुष्य भाग्य भरोसे बैठा रहता है उसे वह नहीं मिलता जिसका वह पात्र है. संस्कृत का एक श्लोक है-
उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथै:
नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:
.
उद्यम से ही कार्य सिद्ध हो, नहीं मनोरथ है पर्याप्त
सोते सिंह के मुख न घुसे मृग, सत्य वचन यह मानें आप्त
लोक में दोहा प्रचलित है-
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
अग्रधारा लक्ष्य पाती
जो​ मन से नहीं हारते और निरंतर प्रयास रात होकर आगे आते हैं या नेतृत्व करते हैं वे ही समाज की अग्रधारा में कहे जाते हैं. हममें से हर एक को अग्रधारा में सम्मिलित होने का प्रयास करते रहना चाहिए. किसी धारा में असंख्य लहरें, लहर में असंख्य बिंदु और बिंदु में असंख्य परमाणु होते हैं. यहाँ सब अपने-अपने प्रयास और पुरुषार्थ से अपना स्थान बनाते हैं, कोइ किसी का स्थान नहीं छीनता न किसी को अपना स्थान देता है. इसलिए न तो किसी से द्वेष करें न किसी के अहसान के तले दबकर स्वाभिमान गँवायें.
अग्रधारा लक्ष्य पाती, पराजित होती नहीं
कौन​ आगे कौन पीछे, देख ​पथ खोती नहीं
​बहुउपयोगी अग्र है
जो​ आगे रहेगा वह पीछे वालों का पाठ-प्रदर्शक या मार्गदर्शक अपने आप बन जाता है. उसके संघर्ष, पराक्रम, उपलब्धि, जीवट, और अनुकरण अन्यों के लिए प्रेरक बन जाते हैं. इस तरह वह चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने अन्यों के साथ और अन्य उसके साथ जुड़ जाते हैं.
बहुउपयोगी अग्र है, अन्य सदा दें साथ
बढ़ा उसे खुद भी बढ़ें, रखकर ऊँचा माथ
अग्र साथ दे सभी का
आगे​ जाने के लिए आवश्यक यह है कि पीछे वालों को साथ लिया जाय तथा उनका साथ दिया जाय. कुशल नायक 'काम करो' नहीं कहता, वह 'आइये, काम करें' कहकर सबको साथ लेकर चलता और मंजिल वार्ता है.
अग्र साथ दे सभी का, रखे सभी को संग
वरण​ सफलता का करें, सभी जमे तब रंग
अन्य स्थानों की तरह शब्दकोष में भी अग्रधारा आगरा-स्थान ग्रहण करती है. ​आइये आगरा और अग्र के साथियों से मिलें-
​​अग्र- वि. सं. अगला, पहला, मुख्य, अधिक. अ. आगे. पु. अगला भाग, नोक, शिखर, अपने वर्ग का सबसे अच्छा पदार्थ, बढ़-चढ़कर होना, उत्कर्ष, लक्ष्य आरंभ, एक तौल, आहार की के मात्रा, समूह, नायक.
​​अग्रकर-पु. हाथ का अगला हिस्सा, उँगली, पहली किरण​.
​​अग्र​ग- पु. नेता, नायक, मुखिया.
​​अग्र​गण्य-वि. गिनते समय प्रथम, मुख्य, पहला.
​​अग्र​गामी/मिन-वि. आगे चलनेवाला. पु. नायक, अगुआ, स्त्री. अग्रगामिनी.
​​अग्र​दल-पु. फॉरवर्ड ब्लोक भारत का एक राजनैतिक दल जिसकी स्थापना नेताजी सुभाषचन्द्र बोसने की थी, सेना की अगली टुकड़ी​.
​​अग्र​ज-वि. पहले जन्मा हुआ, श्रेष्ठ. पु. बड़ा भाई, ब्राम्हण, अगुआ.
​​अग्र​जन्मा/जन्मन-पु. बड़ा भाई, ब्राम्हण.
​​अग्र​जा-स्त्री. बड़ी बहिन.
​​अग्र​जात/ जातक -पु. पहले जन्मा, पूर्व जन्म का.
​​अग्र​जाति-स्त्री. ब्राम्हण.
​​अग्र​जिव्हा-स्त्री. जीभ का अगला हिस्सा.
​​अग्र​णी-वि. आगे चलनेवाला, प्रथम, श्रेष्ठ, उत्तम. पु. नेता, अगुआ, एक अग्नि.
​​अग्र​तर-वि. और आगे का, कहे हुए के बाद का, फरदर इ.
​​अग्र​दाय-अग्रिम देय, पहले दिया जानेवाला, बयाना, एडवांस, इम्प्रेस्ट मनी.-दानी/निन- पु. मृतकके निमित्त दिया पदार्थ/शूद्रका दान ग्रहण करनेवाला निम्न/पतित ब्राम्हण,-दूत- पु. पहले से पहुँचकर किसी के आने की सूचना देनेवाला.-निरूपण- पु. भविष्य-कथन, भविष्यवाणी, भावी. -सुनहु भरत भावी प्रबल. राम.,
​​अग्र​पर्णी/परनी-स्त्री. अजलोमा का वृक्ष.
​​अग्र​पा- सबसे पहले पाने/पीनेवाला.-पाद- पाँव का अगला भाग, अँगूठा.
​​अग्र​पूजा- स्त्री. सबसे पहले/सर्वाधिक पूजा/सम्मान.
​​अग्र​पूज्य- वि. सबसे पहले/सर्वाधिक सम्मान.
​​अग्र​प्रेषण-पु. देखें अग्रसारण.
​​अग्र​प्रेषित-वि. पहले से भेजना, उच्चाधिकारी की ओर आगे भेजना, फॉरवर्डेड इ.-बीज- पु. वह वृक्ष जिसकी कलम/डाल काटकर लगाई जाए. वि. इस प्रकार जमनेवाला पौधा.
​​अग्र​भाग-पु. प्रथम/श्रेष्ठ/सर्वाधिक/अगला भाग -अग्र भाग कौसल्याहि दीन्हा. राम., सिरा, नोक, श्राद्ध में पहले दी जानेवाली वस्तु.
​​अग्र​भागी/गिन-वि. प्रथम भाग/सर्व प्रथम पाने का अधिकारी.
​​अग्र​भुक/ज-वि. पहले खानेवाला, देव-पिटर आदि को खिलाये बिना खानेवाला, पेटू.
​​अग्र​भू/भूमि-स्त्री. लक्ष्य, माकन का सबसे ऊपर का भाग, छत.
​​अग्र​महिषी-स्त्री. पटरानी, सबसे बड़ी पत्नि/महिला.-मांस-पु. हृदय/यकृत का रक रोग.
​​अग्र​यान-पु. सेना की अगली टुकड़ी, शत्रु से लड़ने हेतु पहले जानेवाला सैन्यदल. वि. अग्रगामी.​ ​​अग्र​यायी/यिन वि. आगे बढ़नेवाला, नेतृत्व करनेवाला​.
​​अग्र​योधी/धिन-पु. सबसे आगे बढ़कर लड़नेवाला, प्रमुख योद्धा.
​​अग्र​लेख- सबसे पहले/प्रमुखता से छपा लेख, सम्पादकीय, लीडिंग आर्टिकल इ.​
​​अग्र​लोहिता-स्त्री. चिल्ली शाक.
​​अग्र​वक्त्र-पु. चीर-फाड़ का एक औज़ार.
​​अग्र​वर्ती/तिन-वि. आगे रहनेवाला.
​​अग्र​शाला-स्त्री. ओसारा, सामने की परछी/बरामदा, फ्रंट वरांडा इं.
​​अग्र​संधानी-स्त्री. कर्मलेखा, यम की वह पोथी/पुस्तक जिसमें जीवों के कर्मों का लिखे जाते हैं.
​​अग्र​संध्या-स्त्री. प्रातःकाल/भोर.
​​अग्र​सर-वि. पु. आगेजानेवाला, अग्रगामी, अगुआ, प्रमुख, स्त्री. अग्रसरी.​​
अग्रसारण-पु. आगे बढ़ाना, अपनेसे उच्च अधिकारी की ओर भेजना, अग्रप्रेषण.
​​अग्र​सारा-स्त्री. पौधे का फलरहित सिरा.
​​अग्र​सारित-वि. देखें अग्रप्रेषित.
​​अग्र​सूची-स्त्री. सुई की नोक, प्रारंभ में लगी सूची, अनुक्रमाणिका.
​​अग्र​सोची-वि. समय से पहले/पूर्व सोचनेवाला, दूरदर्शी. अग्रसोची सदा सुखी मुहा.
​​अग्र​स्थान-पहला/प्रथम स्थान.
​​अग्र​हर-वि. प्रथम दीजानेवाली/देय वस्तु.
​​अग्र​हस्त-पु. हाथ का अगला भाग, उँगली, हाथी की सूंड़ की नोक.
​​अग्र​हायण-पु. अगहन माह,
​​अग्र​​हार-पु. राजा/राज्य की प्र से ब्राम्हण/विद्वान को निर्वाहनार्थ मिलनेवाला भूमिदान, विप्रदान हेतु खेत की उपज से निकाला हुआ अन्न.
अग्रजाधिकार- पु. देखें ज्येष्ठाधिकार.
अग्रतः/तस- अ. सं. आगे, पहले, आगेसे.
अग्रवाल- पु. वैश्यों का एक वर्गजाति, अगरवाल.
अग्रश/अग्रशस/अग्रशः-अ. सं. आरम्भ से ही.
अग्रह- पु.संस्कृत ग्रहण न करना, गृहहीन, वानप्रस्थ.
--------------
​​संपर्क​- 204 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
चलभाष ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com ​

दोहा सलिला

दोहा सलिला:
संजीव
*
भँवरे की अनुगूँज को, सुनता है उद्यान
शर्त न थककर मौन हो, लाती रात विहान
*
धूप जलाती है बदन, धूल रही हैं ढांक
सलिल-चाँदनी साथ मिल, करते निर्मल-पाक
*
जाकर आना मोद दे, आकर जाना शोक
होनी होकर ही रहे, पूरक तम-आलोक
*
अब नालंदा अभय हो, ज्ञान-रश्मि हो खूब
'सलिल' मिटा अज्ञान निज, सके सत्य में डूब
३०-५-२०१५

मुक्तिका

मुक्तिका
*
तुम आओ तो सावन-सावन
तुम जाओ मत फागुन-फागुन
.
लट झूमें लब चूम-चुमाकर
नचती हैं ज्यों चंचल नागिन
.
नयनों में शत स्वप्न बसे नव
लहराता अपनापन पावन
.
मत रोको पीने दो मादक
जीवन रस जी भर तज लंघन
.
पहले गाओ कजरी भावन
सुन धुन सोहर की नाचो तब
***

१५-५-२०१६
(संस्कारी जातीय, डिल्ला छंद
बहर मुतफाईलुन फेलुन फेलुन
प्रतिपद सोलह मात्रा,पंक्तयांत भगण)

मुक्तक

मुक्तक
*
वीणा की तरह गुनगुना के गीत गाइए
चम्पा की तरह ज़िंदगी में मुस्कुराइए
आगम-निगम, पुराण पढ़ें या नहीं पढ़ें
इंसान की तरह से पसीना बहाइये

Book Review Showers to the Bowers

Book Review
Showers to the Bowers : Poetry full of emotions
(Particulars of the book _ Showers to Bowers, poetry collection, N. Marthymayam 'Osho', pages 72, Price Rs 100, Multycolour Paperback covr, Amrit Prakashan Gwalior )
Poetry is the expression of inner most feelings of the poet. Every human being has emotions but the sestivity, depth and realization of a poet differs from others. that's why every one can'nt be a poet. Shri N. Marthimayam Osho is a mechanical engineer by profession but by heart he has a different metal in him. He finds the material world very attractive, beautiful and full of joy inspite of it's darkness and peshability. He has full faith in Almighty.
The poems published in this collection are ful of gratitudes and love, love to every one and all of us. In a poem titled 'Lending Labour' Osho says- ' Love is life's spirit / love is lamp which lit / Our onus pale room / Born all resplendor light / under grace, underpeace / It's time for Divine's room / who weave our soul bright. / Admire our Aur, Wafting breez.'
'Lord of love, / I love thy world / pure to cure, no sword / can scan of slain the word / The full of fragrance. I feel / so charming the wing along the wind/ carry my heart, wchih meet falt and blend' the poem ' We are one' expresses the the poet's viewpoint in the above quoted lines.
According to famous English poet Shelly ' Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.' Osho's poetry is full of sweetness. He feels that to forgive & forget is the best policy in life. He is a worshiper of piece. In poem 'Purity to unity' the poet say's- 'Poems thine eternal verse / To serve and save the mind / Bringing new twilight to find / Pray for the soul's peace to acquire.'
Osho prays to God 'Light my life,/ Light my thought,/ WhichI sought.' 'Infinite light' is the prayer of each and every wise human being. The speciality of Osho's poetry is the flow of emotions, Words form a wave of feelings. Reader not only read it but becomes indifferent part of the poem. That's why Osho's feeliongs becomes the feelings of his reader.
Bliss Buddha, The Truth, High as heaven, Ode to nature, Journey to Gnesis, Flowing singing music, Ending ebbing etc. are the few of the remarkable poems included in this collection. Osho is fond of using proper words at proper place. He is more effective in shorter poems as they contain ocean of thoughts in drop of words. The eternal values of Indian philosophy are the inner most instict and spirit of Osho's poetry. The karmyoga of Geeta, Vasudhaiv kutumbakam, sarve bhavantu sukhinah, etc. can be easily seen at various places. The poet says- 'Beings are the owner of their action, heirs of their action" and 'O' eternal love to devine / Becomes the remedy.'
In brief the poems of this collection are apable of touching heart and take the reader in a delighted world of kindness and broadness. The poet prefers spirituality over materialism.