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शनिवार, 9 मई 2020

कोरोना : अभिशाप में वरदान


विश्ववाणी हिंदी संस्थान - अभियान जबलपुर
*
विमर्श - कोरोना : अभिशाप में वरदान
अध्यक्षीय संबोधन : संजीव वर्मा 'सलिल'
×
माँ शारदा - माँ भारती को प्रणाम। मुख्य अतिथि प्रिय विनोद जैन वाग्वर तथा सारगर्भित बीज वक्तव्य हेतु बसंत शर्मा जी के प्रति आभार। कुशल संचालन हेतु आलोक रंजन जी के प्रति शुभाशंसा। सभी वक्ताओं पुनीता जी, रजनी जी, छाया जी, मंजरी जी, संतोष जी, बबिता जी, शशि जी, कामना बिटिया, मुकुल जी, अरविन्द जी, अरुण जी, श्वेतांक किशोर जी, राजीव जी, श्यामलकिशोर जी, राजकुमार जी, महेशप्रकाश जी, ने विषय पर केंद्रित सटीक विचार व्यक्त कर इस विमर्श की सार्थकता सिद्ध की है। आप सबको हृद्तल से साधुवाद। इस विमर्श का विचार करते समय शंका थी कि कितना सफल होगा? आप सबने सिद्ध कर दिया 'विश्वासम फलदायकं' ।

कोरोना के संदर्भ में रामचरित मानस में उत्तरकाण्ड में कुछ संकेत हैं।

सब कई निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं।
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुःख पावहिं सब लोग।। १२० / १४

सबकी निंदा करनेवाला चीन, चमगादड़ व् मेंढक उनका आहार है। वाइरोलोजी की पुस्तकों व् अनुसंधानों के अनुसार कोविद १९ महामारी चमगादडो से मनुष्यों में फैली है।

काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।। १२० / १५

कोरोना में कफ ही कंठ और वक्ष को प्रभावित कर रहा है।

एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।

पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥१२१ क

एक ही व्याधि (रोग कोविद १९) से असंख्य लोग मरेंगे, फिर अनेक व्याधियाँ (कोरोना के साथ मधुमेह, रक्तचाप, कैंसर, हृद्रोग आदि) हों तो मनुष्य चैन से समाधि (मुक्ति / शांति) भी नहीं पा सकता।

नेम धर्म आचार तप, ज्ञान जग्य जप दान।

भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं, रोग जाहिं हरिजान।। १२१ ख

नियम (एकांतवास, क्वारेंटाइन), धर्म (समय पर औषधि लेना), सदाचरण (स्वच्छता, सामाजिक दूरी, सेनिटाइजेशन,गर्म पानी पीना आदि ), तप (व्यायाम आदि से प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाना), ज्ञान (क्या करें या न करें जानना), यज्ञ (मनोबल हेतु ईश्वर का स्मरण), दान (गरीबों को या प्रधान मंत्री कोष में) आदि अनेक उपाय हैं तथापि व्याधि सहजता से नहीं जाती।
एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी।।

मानस रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेहिं पाए।।१२१ / १

इस प्रकार सब जग रोगग्रस्त होगा (कोरोना से पूरा विश्व ग्रस्त है) जो शोक, हर्ष, भय, प्यार और विरह से ग्रस्त होगा। हर देश दूसरे देश के प्रति शंका, भय, द्वेष, स्वार्थवश संधि, और संधि भंग आदि से ग्रस्त है। तुलसी ने कुछ मानसिक रोगों का संकेत मात्र किया है, शेष को बहुत थोड़े लोग (नेता, अफसर, विशेषज्ञ) जान सकेंगे।

जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी।।

बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे। मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे।। १२१ / २

जिनके बारे में पता च जाएगा ऐसे पापी (कोरोनाग्रस्त रोगी, मृत्यु या चिकित्सा के कारण) कम हो जायेंगे , परन्तु विषाणु का पूरी तरह नाश नहीं होगा। विषय या कुपथ्य (अनुकूल परिस्थिति या बदपरहेजी) की स्थिति में मुनि (सज्जन, स्वस्थ्य जन) भी इनके शिकार हो सकते हैं जैसे कुछ चिकित्सक आदि शिकार हुए तथा ठीक हो चुके लोगों में दुबारा भी हो सकता है।

तुलसी यहीं नहीं रुकते, संकेतों में निदान भी बताते हैं।

राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥ १२१ / ३

ईश्वर की कृपा से संयोग (जिसमें रोगियों की चिकित्सा, पारस्परिक दूरी, स्वच्छता, शासन और जनता का सहयोग) बने, सद्गुरु (सरकार प्रमुख) तथा बैद (डॉक्टर) की सलाह मानें, संयम से रहे, पारस्परिक संपर्क न करें तो रोग का नाश हो सकता है।

नकारात्मकता हल नहीं :

कोरोना को लेकर पत्रकार जगत अतिशयोक्तिपरक सनसनीखेज नकारात्मकता फैलाता रहा है।

रात के अँधेरे के बाद भोर का उजाला :
हमारी दृष्टि यह है कि "रात भर का है मेहमां अँधेरा, किसके रोके रुका है सवेरा"। अभिशाप कोरोना का मुकाबला कर हम इसे वरदान बना दें।

तालाबंदी के इन दिनों में पारंपरिक परिवार पद्धति को पुनर्जीवन मिला है। पीढ़ियों के बीच का अंतर घटा है। दूरियों का स्थान निकटता ले रही है। बरसों बाद पूरा परिवार एक साथ दूरदर्शन देखते समय निकट रह पा रहा है। यह नैकट्य स्थायी हो। तीन पीढ़ियाँ एक साथ रहें, बात करें, सुख-दुख बाँटें। समाज में वृद्धाश्रम घटें।

विवाह, अंतिम संस्कार आदि सादगी व मितव्ययिता से करने की परंपरा बन रही है, इसे स्थायित्व दें। झूठी शान-शौकत की आदत ख़त्म करें। वह राशि किसी समाजोपयोगी कार्य में लगाएँ।

इस दुष्काल में निर्धनों व असहायों की सहायता की प्रवृत्ति बढ़ी है। जीव-जंतुओें, पशु-पक्षियों के प्रति सद्भावना बढ़ी है। हमारे बचपन में हर घर में हर दिन गाय, कुत्ते, भिखारी के लिए रोटी बनती थी। चीटियों, पंछियों और मछलियों को आहार दिया जाता था। यह अब फिर से हो।

कोरोना के प्रतिबंधों में पर्यावरण प्रदूषण घटा है। वायु, जल, ध्वनि सभी शुद्ध हुए हैं। सामाजिक प्रदूषण अपराध और भ्रष्टाचार कम हुआ है। क्यों न हम इसे हमेशा के लिए घटा दें? वाहनों का दुरुपयोग हमेशा के लिए छोड़ दिया जाए। देश के आयल पूल का घाटा कम हो। वाहन आवश्यक होने पर ही चलाएँ। इससे सड़क दुर्घटना भी कम होंगी।

कोरोना का मुकाबला करने के लिए सामाजिक एकता बढ़ी है। समर्थों के मन में असमर्थों के प्रति सहायता का भाव उमड़ा है। यह हमारे दैनिक जीवन का अंग बने। हर समर्थ व्यक्ति किसी गरीब विद्यार्थी के अध्ययन का खर्च उठाए। सामाजिक उपयोग के निर्माण कराए। जर्जर शाला भवनों के मरम्मत कराए।

स्वतंत्रता संघर्ष के समय विदेशी सत्ता के कानूनों को तोड़ने की मनोभावना स्वतंत्रता के बाद अपनी सरकार और अपने कानूनों को तोड़ने के रूप में उभरी। इस आपदा काल में तालाबंदी, एकांतवास, सामाजिक दूरी आदि के पालन ने अधिकांश लोगों को अनुशासन का पाठ सिखाया है। यह अनुशासन हमारे जीवन का स्थायी अंग बने। यातायात नियमों का उल्लंघन न हो। पान-गुटखा, शराब का बहिष्कार हो।

कोरोना ने वसुधैव कुटुंबकम्, विश्वैक नीड़म् की सनातन मान्यता को पुष्ट और व्यावहारिक किया है। सब देश मिलकर कोरोना का टीका और इलाज तलाश रहे हैं। एक दूसरे की सहायता कर रहे हैं। शीत युद्धों और गुटों में में बँटा विश्व चिकित्सा संसाधनों का आदान-प्रदान कर रहा है, कोरोना की औषधि खोज रहा है। यह सद्भाव बना रहे।
***
कुछ रचनाएँ
कर्फ्यू वंदना
(रैप सौंग)
*
घर में घर कर
बाहर मत जा
बीबी जो दे
खुश होकर खा
ठेला-नुक्कड़
बिसरा भुख्खड़
बेमतलब की
बोल न बातें
हाँ में हाँ कर
पा सौगातें
ताँक-झाँक तज
भुला पड़ोसन
बीबी के संग
कर योगासन
चौबिस घंटे
तुझ पर भारी
काम न आए
प्यारे यारी
बन जा पप्पू
आग्याकारी
तभी बेअसर
हो बीमारी
बिसरा झप्पी
माँग न पप्पी
चूड़ी कंगन
करें न खनखन
कहे लिपिस्टिक
माँजो बर्तन
झाड़ू मारो
जरा ठीक से
पौंछा करना
बिना पीक के
कपड़े धोना
पर मत रोना
बाई न आई
तुम हो भाई
तुरुप के इक्के
बनकर छक्के
फल चाहे बिन
करो काम गिन
बीबी चालीसा
हँस पढ़ना
अपनी किस्मत
खुद ही गढ़ना
जब तक कहें न
किस मत करना
मिस को मिस कर
मन मत मरना
जान बचाना
जान बुलाना
मिल लड़ जाएँ
नैन झुकाना
कर फ्यू लेकिन
कई वार हैं
कर्फ्यू में
झुक रहो, सार है
बीबी बाबा बेबी की जय
बोल रहो घुस घर में निर्भय।।
***
नवगीत
*
पीर ने पूछें
दोस दै रये
काय निकल रय?

कै तो दई 'घर बैठो भइया'
दवा गरीबी की कछु नइया
ढो लाये कछु कौन बिदेस सें
हम भोगें कोरोना दइया
रोजी-रोटी गई
राम रे! हांत सें
तोते उड़ रय

दो बचो-बचाओ खाओ
फिर उधार सें काम चलाओ
दो दिन भूखे बैठ बिता लए
जान बचाने, गाँव बुला रओ
रेल-बसें भईं बंद
राम रे! लट्ठ
फुकट में घल रय
खोदत-खाउत जिनगी बीती
बिकी कसेंड़ी, गुल्लक रीती
तकवारों की मौज भई रे
जनता हारी, रिस्वत जीती
कग्गज पै बँट रओ
धन-रासन, आसें
गिद्ध निगल रय
***

गीत

कोरोना की जयकार करो

*
कोरोना की जयकार करो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
*
घरवाले हो घर से बाहर
तुम रहे भटकते सदा सखे!
घरवाली का कब्ज़ा घर पर
तुम रहे अटकते सदा सखे!
जीवन में पहली बार मिला
अवसर घर में तुम रह पाओ
घरवाली की तारीफ़ करो
अवसर पाकर सत्कार करो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
कोरोना की जयकार करो
*
जैसी है अपनी किस्मत है
गुणगान करो यह मान सदा
झगड़े झंझट बहसें छोडो
पाई जो उस पर रहो फ़िदा
हीरोइन से ज्यादा दिलकश
बोलो उसकी हर एक अदा
हँस नखरे नाज़ उठाओ तुक
चरणों कर झुककर शीश धरो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
कोरोना की जयकार करो
*
झाड़ू मारो, बर्तन धोलो
फिर चाय-नाश्ता दे बोलो
'भोजन में क्या तैयार करूँ'
जो कहें बना षडरस घोलो
भोग लगाकर ग्रहण करो
परसाद' दया निश्चय होगी
झट दबा कमर पग-सेवा कर
उनके मन की हर पीर हरो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
कोरोना की जयकार करो
*
ज्योति ज्योति ले हाथ में, देख रही है मौन
तोड़ लॉकडाउन खड़ा, दरवाजे पर कौन?

कोरोना के कैरियर, दूँगी नहीं प्रवेश
रख सोशल डिस्टेंसिंग, मान शासनादेश

जाँच करा अपनी प्रथम, कर एकाकीवास
लक्षण हों यदि रोग के, कर रोगालय वास

नाता केवल तभी जब, तन-मन रहे निरोग
नादां से नाता नहीं, जो करनी वह भोग
*
बेबस बाती जल मरी, किन्तु न पाया नाम
लालटेन को यश मिला, तेल जला बेदाम
***
एक रचना : साथ मोदी के

*
कर्ता करता है सही, मानव जाने सत्य
कोरोना का काय को रोना कर निज कृत्य
कोरो ना मोशाय जी, गुपचुप अपना काम
जो डरता मरता वही, काम छोड़ नाकाम
भीत न किंचित् हों रहें, घर के अंदर शांत
मदद करें सरकार की, तनिक नहीं हों भ्रांत
बिना जरूरत क्रय करें, नहीं अधिक सामान
पढ़ें न भेजें सँदेशे, निराधार नादान
सोमवार को किया था, हम सबने उपवास
शास्त्री जी को मिली थी, उससे ताकत खास
जनता कर्फ्यू लगेगा, शत प्रतिशत इस बार
कोरोना को पराजित, कर देगा यह वार
नमन चिकित्सा जगत को, करें झुकाकर शीश
जान हथेली पर लिए, बचा रहे बन ईश
देश पूरा साथ मिलकर, लड़ रहा है जंग
साथ मोदी के खड़ा है, देश जय बजरंग
***
आओ यदि रघुवीर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
गले न मिलना भरत से, आओ यदि रघुवीर
धर लेगी योगी पुलिस, मिले जेल में पीर

कोरोना कलिकाल में, प्रबल- करें वनवास
कुटिया में सिय सँग रहें, ले अधरों पर हास

शूर्पणखा की काटकर, नाक धोइए हाथ
सोशल डिस्टेंसिंग रखें, तीर मारकर नाथ

भरत न आएँ अवध में, रहिए नंदीग्राम
सेनेटाइज शत्रुघन, करें- न विधि हो वाम

कैकई क्वारंटाइनी, कितने करतीं लेख
रातों जगें सुमंत्र खुद, रहे व्यवस्था देख

कोसल्या चाहें कुसल, पूज सुमित्रा साथ
मना रहीं कुलदेव को, कर जोड़े नत माथ

देवि उर्मिला मांडवी, पढ़ा रहीं हैं पाठ
साफ-सफाई सब रखें, खास उम्र यदि साठ

श्रुतिकीरति जी देखतीं, परिचर्या हो ठीक
अवधपुरी में सुदृढ़ हो, अनुशासन की लीक

तट के वट नीचे डटे, केवट देखें राह
हर तब्लीगी पुलिस को, सौंप पा रहे वाह

मिला घूमता जो पिटा, सुनी नहीं फरियाद
सख्ती से आदेश निज, मनवा रहे निषाद

निकट न आते, दूर रह वानर तोड़ें फ्रूट
राजाज्ञा सुग्रीव की, मिलकर करो न लूट

रात-रात भर जागकर, करें सुषेण इलाज
कोरोना से विभीषण, ग्रस्त विपद में ताज

भक्त न प्रभु के निकट हों, रोकें खुद हनुमान
मास्क लगाए नाक पर, बैठे दयानिधान

कौन जानकी जान की, कहो करे परवाह?
लव-कुश विश्वामित्र ऋषि, करते फ़िक्र अथाह

वध न अवध में हो सके, कोरोना यह मान
घुसा मगर आदित्य ने, सुखा निकली जान
*
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
९४२५१८३२४४

शुक्रवार, 8 मई 2020

दोहा

दोहा 
तना-शाख से सुत सुता, जीवन महकना फूल
मात-पिता जड़-मूल हैं, अहंकार है शूल।।
८-५-२०१९ 

बाङ्ग्ला-हिंदी भाषा सेतु: पूजा गीत रवीन्द्रनाथ ठाकुर

बाङ्ग्ला-हिंदी भाषा सेतु:
पूजा गीत
रवीन्द्रनाथ ठाकुर
*
जीवन जखन छिल फूलेर मतो
पापडि ताहार छिल शत शत।
बसन्ते से हत जखन दाता
रिए दित दु-चारटि तार पाता,
तबउ जे तार बाकि रइत कत
आज बुझि तार फल धरेछे,
ताइ हाते ताहार अधिक किछु नाइ।
हेमन्ते तार समय हल एबे
पूर्ण करे आपनाके से देबे
रसेर भारे ताइ से अवनत।
*
पूजा गीत: रवीन्द्रनाथ ठाकुर
हिंदी काव्यानुवाद : संजीव
*
फूलों सा खिलता जब जीवन
पंखुरियां सौ-सौ झरतीं।
यह बसंत भी बनकर दाता
रहा झराता कुछ पत्ती।
संभवतः वह आज फला है
इसीलिये खाली हैं हाथ।
अपना सब रस करो निछावर
हे हेमंत! झुककर माथ।
*
८-५-२०१४ 

गुरुवार, 7 मई 2020

माहिया गीत

माहिया गीत
मौसम के कानों में
संजीव 'सलिल'
*
(माहिया:पंजाब का त्रिपदिक मात्रिक छंद है. पदभार 12-10-12, प्रथम-तृतीय पद सम तुकांत, विषम पद तगण+यगण+2 लघु = 221 122 11, सम पद 22 या 21 से आरंभ, एक गुरु के स्थान पर दो गुरु या दो गुरु के स्थान पर एक लघु का प्रयोग किया जाता है, पदारंभ में 21 मात्रा का शब्द वर्जित।)
*
मौसम के कानों में
कोयलिया बोले,
खेतों-खलिहानों में।
*
आओ! अमराई से
आज मिल लो गले,
भाई और माई से।
*
आमों के दानों में,
गर्मी रस घोले,
बागों-बागानों में---
*
होरी, गारी, फगुआ
गाता है फागुन,
बच्चा, बब्बा, अगुआ।
*
प्राणों में, गानों में,
मस्ती है छाई,
दाना-नादानों में---
*
संजीव वर्मा 'सलिल' ७९९९५५९६१८

मुक्तक

मुक्तक 
बात हो बेबात तो 'क्या बात' कहा जाता है.
को ले गर दिल को तो ज़ज्बात कहा जाता है.
घटती हैं घटनाएँ तो हर पल ही बहुत सी लेकिन-
गहरा हो असर तो हालात कहा जाता है.
७-५-२०१० 

दोहा

दोहा 
कौन अकेला जगत में, प्रभु हैं सबके साथ.
काम करो निष्काम रह, उठा-झुकाओ माथ..
७-५-२०१० 
मन में अब भी रह रहे, पल-पल मैया-तात 
जाने क्यों जग कह रहा, नहीं रहे बेबात
*
कल की फिर-फिर कल्पना, कर न कलपना व्यर्थ।
मन में छवि साकार कर, अर्पित कर कुछ अर्ध्य।।
*
जब तक जीवन-श्वास है, तब तक कर्म सुवास।
आस धर्म का मर्म है, करें; न तजें प्रयास।।
*
मोह दुखों का हेतु है, काम करें निष्काम।
रहें नहीं बेकाम हम, चाहें रहें अ-काम।।
*
खुद न करें निज कद्र गर, कद्र करेगा कौन?
खुद को कभी सराहिए, व्यर्थ न रहिए मौन.
*
प्रभु ने जैसा भी गढ़ा, वही श्रेष्ठ लें मान।
जो न सराहे; वही है, खुद अपूर्ण-नादान।।
*
लता कल्पना की बढ़े, खिलें सुमन अनमोल।
तूफां आ झकझोर दे, समझ न पाए मोल।।
*
क्रोध न छूटे अंत तक, रखें काम से काम।
गीता में कहते किशन, मत होना बेकाम।।
*
जिस पर बीते जानता, वही; बात है सत्य।
देख समझ लेता मनुज, यह भी नहीं असत्य।।
*
भिन्न न सत्य-असत्य हैं, कॉइन के दो फेस।
घोडा और सवार हो, अलग न जीतें रेस।।
***
७.५.२०१८
salil.sanjiv@gmail.com, ७९९९५५९६१८

बुधवार, 6 मई 2020

सवैया प्रकार १३९

नए छंद
सवैया प्रकार १३९
















*
सवैया वह छंद' जिसके पाठ में, सवाया लगता समय है।
यहाँ है यति खूब कर निर्वाह तो, लुभाता सजता समय है।
पढ़ें पंचम पंक्ति पहली जो बनी, लगेगा चलता समय है।
चढ़ें या उतरें सतत आगे बढ़ें,
रुकें ना कहता समय है।
***
संवस
६-५-२०१९
७९९९५५९६१८

गीत

गीत:
संजीव
*
आन के स्तन न होते, किस तरह तन पुष्ट होता
जान कैसे जान पाती, मान कब संतुष्ट होता?
*
पय रहे पी निरन्तर विष को उगलते हम न थकते
लक्ष्य भूले पग भटकते थक गये फ़िर भी न थकते
मौन तकते हैं गगन को कहीँ क़ोई पथ दिखा दे
काश! अपनापन न अपनोँ से कभी भी रुष्ट होता
*
पय पिया संग-संग अचेतन को मिली थी चेतना भी
पयस्वनि ने कब बतायी उसे कैसी वेदना थी?
प्यार संग तकरार या इंकार को स्वीकार करना
काश! हम भी सीख पाते तो मनस परिपुष्ट होता
*
पय पिला पाला न लेकिन मोल माँगा कभी जिसने
वंदनीया है वही, हो उऋण उससे कोई कैसे?
आन भी वह, मान भी वह, जान भी वह, प्राण भी वह
खान ममता की न होती, दान कैसे तुष्ट होता?
*
६-५-२०१४ 

अवतार छंद


छंद सलिला:
अवतार छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, यति १३ - १०, चरणान्त गुरु लघु गुरु (रगण) ।
लक्षण छंद:
दुष्ट धरा पर जब बढ़ें / तभी अवतार हो
तेरह दस यति, रगण रख़ / अंत रसधार हो
सत-शिव-सुंदर ज़िंदगी / प्यार ही प्यार हो
सत-चित-आनँद हो जहाँ / दस दिश दुलार हो
उदाहरण:
१. अवतार विष्णु ने लिये / सब पाप नष्ट हो
सज्जन सभी प्रसन्न हों / किंचित न कष्ट हो
अधर्म का विनाश करें / धर्म ही सार है-
ईश्वर की आराधना / सच मान प्यार है
२. धरती की दुर्दशा / सब ओर गंदगी
पर्यावरण सुधारना / ईश की बंदगी
दूर करें प्रदूषण / धरा हो उर्वरा
तरसें लेनें जन्म हरि / स्वर्ग है माँ धरा
३. प्रिय की मुखछवि देखती / मूँदकर नयन मैं
विहँस मिलन पल लेखती / जाग-कर शयन मैं
मुई बेसुधी हुई सुध / मैं नहीं मैं रही-
चक्षु से बही जलधार / मैं छिपाती रही.
६-५-२०१४ 
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, रसामृत, राजीव, राधिका, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)

मंगलवार, 5 मई 2020

कविता - बच्चन

डॉ. हरिवंशराय बच्चन की यह कविता बेहद सुकून देती है :
"जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया.
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले ?
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है ?
जो बीत गई सो बात गई.
जीवन में वह था एक कुसुम
थे उस पर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया.
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ
जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली ?
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है ?
जो बीत गई सो बात गई.
जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया.
मदिरालय का आँगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं ?
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठते हैं ?
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है ?
जो बीत गई सो बात गई.
मृदु मिट्टी के हैं बने हुए
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन लेकर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं.
फिर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है ?
जो बीत गई सो बात गई."
---------

ओशो चिंतन: दोहा मंथन १

ओशो चिंतन: दोहा मंथन १.
लाओत्से ने कहा है, भोजन में लो स्वाद।
सुन्दर सी पोशाक में, हो घर में आबाद।।
रीति का मजा खूब लो
*
लाओत्से ने बताया, नहीं सरलता व्यर्थ।
रस बिन भोजन का नहीं, सत्य समझ कुछ अर्थ।।
रस न लिया; रस-वासना, अस्वाभाविक रूप।
ले विकृत हो जाएगी, जैसे अँधा कूप।।
छोटी-छोटी बात में, रस लेना मत भूल।
करो सलिल-स्पर्श तो, लगे खिले शत फ़ूल।
जल-प्रपात जल-धार की, शीतलता अनुकूल।।
जीवन रस का कोष है, नहीं मोक्ष की फ़िक्र।
जीवन से रस खो करें, लोग मोक्ष का ज़िक्र।।
मंदिर-मस्जिद की करे, चिंता कौन अकाम।
घर को मंदिर बना लो, हो संतुष्ट सकाम।।
छोटा घर संतोष से, भर होता प्रभु-धाम।
तृप्ति आदमी को मिले, घर ही तीरथ-धाम।।
महलों में तुम पाओगे, जगह नहीं है शेष।
सौख्य और संतोष का, नाम न बाकी लेश।।
जहाँ वासना लबालब, असंतोष का वास।
बड़ा महल भी तृप्ति बिन, हो छोटा ज्यों दास।।
क्या चाहोगे? महल या, छोटा घर; हो तृप्त?
रसमय घर या वरोगे, महल विराट अतृप्त।।
लाओत्से ने कहा है:, "भोजन रस की खान।
सुन्दर कपड़े पहनिए, जीवन हो रसवान।।"
लाओ नैसर्गिक बहुत, स्वाभाविक है बात।
मोर नाचता; पंख पर, रंगों की बारात।।
तितली-तितली झूमती, प्रकृति बहुत रंगीन।
प्रकृति-पुत्र मानव कहो, क्यों हो रंग-विहीन?
पशु-पक्षी तक ले रहे, रंगों से आनंद।
मानव ले; तो क्या बुरा, झूमे-गाए छंद।।
वस्त्राभूषण पहनते, थे पहले के लोग।
अब न पहनते; क्यों लगा, नाहक ही यह रोग?
स्त्री सुंदर पहनती, क्यों सुंदर पोशाक।
नहीं प्राकृतिक यह चलन, रखिए इसको ताक।।
पंख मोर के; किंतु है, मादा पंख-विहीन।
गाता कोयल नर; मिले, मादा कूक विहीन।।
नर भी आभूषण वसन, बहुरंगी ले धार।
रंग न मँहगे, फूल से, करे सुखद सिंगार।।
लाओ कहता: पहनना, सुन्दर वस्त्र हमेश।
दुश्मन रस के साधु हैं, कहें: 'न सुख लो लेश।।'
लाओ कहता: 'जो सहज, मानो उसको ठीक।'
मुनि कठोर पाबंद हैं, कहें न तोड़ो लीक।।
मन-वैज्ञानिक कहेंगे:, 'मना न होली व्यर्थ।
दीवाली पर मत जला, दीप रस्म बेअर्थ।।'
खाल बाल की निकालें, यह ही उनका काम।
खुशी न मिल पाए तनिक, करते काम तमाम।।
अपने जैसे सभी का, जीवन करें खराब।
मन-वैज्ञानिक शूल चुन, फेंके फूल गुलाब।।
लाओ कहता: 'रीति का, मत सोचो क्या अर्थ?
मजा मिला; यह बहुत है, शेष फ़िक्र है व्यर्थ।।
होली-दीवाली मना, दीपक रंग-गुलाल।
सबका लो आनंद तुम, नहीं बजाओ गाल।।
***
५-५-२०१८, १८.२०

लखनऊ यात्रा ५-५-२०१६

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 3 लोग, Pradeep Kumar Singh Kushwaha और Kewal Prasad Satyam सहित

लखनऊ यात्रा ५-५-२०१६ 

दोहा मुक्तक

दोहा मुक्तक
लता-लता पर छा रहा, नव वासंती रंग।
ताल ताल में दे रहीं, मछली सहित तरंग।।
नेह-नर्मदा में नहा, भ्रमर-तितलियाँ मौन-
कली-फूल पी मस्त हैं, मानो मद की भंग।।
५.५.२०१८

छंद प्रश्नोत्तरी

छंद प्रश्नोत्तरी:
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प्र. ६. छंद सृजन लेखन का उद्देश्य क्या है?
प्र. ७. छंद निर्माण का आधार क्या है?
प्र. ८. छंद का मानव मन पर प्रभाव होता है या नहीं?
प्र. ९. छंद का शब्दगत / पंक्तिगत आकार क्या होना चाहिए?
प्र. १०.छंद और लय का क्या संबंध है?
प्र. ११. छंद को वेद का पैर क्यों कहा गया?
प्र. १२. हिंदी को छंद की विरासत कब, कहाँ से, कैसे मिली?
प्र. १३. छंद का काव्य में क्या स्थान है?
प्र. १४. छंदमुक्ति क्यों और कैसे?
प्र. १५. छंदहीनता क्या है?
प्र. १६. छंदयुक्तता, छंदमुक्तता और छंद हीनता में क्या अंतर है?
प्र. १७. छंद का काव्य के कथ्य पर क्या प्रभाव होता है?
प्र. १८. छंद और लोक काव्य का क्या सम्बन्ध है?
प्र. १९. छंद का कविता, खंड काव्य और महाकाव्य पर प्रभाव क्या और कितना होता है?
प्र. २०. छंद-आयात क्यों और कितना?
प्र. २१. आयातित छंद विधान में परिवर्तन क्यों और कितने?
प्र. २२. भारतीय और अभारतीय छंदों में अंतर क्या है?
प्र. २३. छंद पर भाषिक बदलावों का प्रभाव क्या और कितना है?
प्र. २४. छंद-विधान रूढ़ हो या लचीला और क्यों?
प्र. २५. नए छंद-निर्माण के सम्बन्ध में विचार?
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संपर्क: संजीव, विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, salil .sanjiv@gmail.com, ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४.