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मंगलवार, 5 मई 2020

समीक्षा, नवगीत, कुमार रविंद्र

कृति चर्चा-
'अप्प दीपो भव' प्रथम नवगीतिकाव्य
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण- अप्प दीपो भव, कुमार रवीन्द्र, नवगीतीय प्रबंध काव्य, आवरण बहुरंगी,सजिल्द जेकेट सहित, आकार २२ से.मी. x १४.५ से.मी., पृष्ठ ११२, मूल्य ३००/-, उत्तरायण प्रकाशन के ३९७ आशियाना, लखनऊ २२६०१२, ९८३९८२५०६२, रचनाकार संपर्क- क्षितिज ३१०, अर्बन स्टेट २ हिसार हरयाणा ०१६६२२४७३४७] 
*
'अप्प दीपो भव' भगवान बुद्ध का सन्देश और बौद्ध धर्म का सार है। इसका अर्थ है अपने आत्म को दीप की तरह प्रकाशवान बनाओ। कृति का शीर्षक और मुखपृष्ठ पर अंकित विशेष चित्र से कृति का गौतम बुद्ध पर केन्द्रित होना इंगित होता है। वृक्ष की जड़ों के बीच से झाँकती मंद स्मितयुक्त बुद्ध-छवि ध्यान में लीन है। कृति पढ़ लेने पर ऐसा लगता है कि लगभग सात दशकीय नवगीत के मूल में अन्तर्निहित मानवीय संवेदनाओं से संपृक्तता के मूल और अचर्चित मानक की तरह नवगीतानुरूप अभिनव कहन, शिल्प तथा कथ्य से समृद्ध नवगीति काव्य का अंकुर मूर्तिमंत हुआ है।

कुमार रवीन्द्र समकालिक नव गीतकारों में श्रेष्ठ और ज्येष्ठ हैं। नवगीत के प्रति समीक्षकों की रूढ़ दृष्टि का पूर्वानुमान करते हुए रवीन्द्र जी ने स्वयं ही इसे नवगीतीय प्रबंधकाव्य न कहकर नवगीत संग्रह मात्र कहा है। एक अन्य वरिष्ठ नवगीतकार मधुकर अष्ठाना जी ने विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर द्वारा आयोजित संगोष्ठी में इसे 'काव्य नाटक' कहा है । अष्ठाना जी के अनुसार रचनाओं की प्रस्तुति नवगीत के शिल्प में तो है किन्तु कथ्य और भाषा नवगीत के अनुरूप नहीं है। यह स्वाभाविक है। जब भी कोई नया प्रयोग किया जाता है तो उसके संदर्भ में विविध धारणाएँ और मत उस कृति को चर्चा का केंद्र बनाकर उस परंपरा के विकास में सहायक होते हैं जबकि मत वैभिन्न्य न हो तो समुचित चर्चा न होने पर कृति परंपरा का निर्माण नहीं कर पाती।
एक और वरिष्ठ नवगीतकार निर्मल शुक्ल जी इसे नवगीत संग्रह कहा है। सामान्यत: नवगीत अपने आप में स्वतंत्र और पूर्ण होने के कारण मुक्तक काव्य संवर्ग में वर्गीकृत किया जाता है। इस कृति का वैशिष्ट्य यह है कि सभी गीत बुद्ध के जीवन प्रसंगों से जुड़े होने के साथ-साथ अपने आपमें हर गीत पूर्ण और अन्यों से स्वतंत्र है। बुद्ध के जीवन के सभी महत्वपूर्ण प्रसंगों पर रचित नवगीत बुद्ध तथा अन्य पात्रों के माध्यम से सामने आते हुए घटनाक्रम और कथावस्तु को पाठक तक पूरी संवेदना के साथ पहुँचाते हैं। नवगीत के मानकों और शिल्प से रचनाकार न केवल परिचित है अपितु उनको प्रयोग करने में प्रवीण भी है। यदि आरंभिक मानकों से हटकर उसने नवगीत रचे हैं तो यह कोई कमी नहीं, नवगीत लेखन के नव आयामों का अन्वेषण है।
काव्य नाटक साहित्य का वह रूप है जिसमें काव्यत्व और नाट्यत्व का सम्मिलन होता है। काव्य तत्व नाटक की आत्मा तथा नाट्य तत्व रूप व कलेवर का निर्माण करता है। काव्य तत्व भावात्मकता, रसात्मकता तथा आनुभूतिक तीव्रता का वाहक होता है जबकि नाट्य तत्व कथानक, घटनाक्रम व पात्रों का। अंग्रेजी साहित्य कोश के अनुसार ''पद्य में रचित नाटक को 'पोयटिक ड्रामा' कहते हैं। इनमें कथानक संक्षिप्त और चरित्र संख्या सीमित होती है। यहाँ कविता अपनी स्वतंत्र सत्ता खोकर अपने आपको नाटकीयता में विलीन कर देती है।१ टी. एस. इलियट के अनुसार कविता केवल अलंकरण और श्रवण-आनंद की वाहक हो तो व्यर्थ है।२ एबरकोम्बी के अनुसार कविता नाटक में पात्र स्वयं काव्य बन जाता है।३ डॉ. नगेन्द्र के मत में कविता नाटकों में अभिनेयता का तत्व महत्वपूर्ण होता है।४, पीकोक के अनुसार नाटकीयता के साथ तनाव व द्वंद भी आवश्यक है।५ डॉ. श्याम शर्मा मिथकीय प्रतीकों के माध्यम से आधुनिक युगबोध व्यंजित करना काव्य-नाटक का वैशिष्ट्य कहते हैं६ जबकि डॉ. सिद्धनाथ कुमार इसे दुर्बलता मानते हैं।७. डॉ. लाल काव्य नाटक का लक्षण बाह्य संघर्ष के स्थान पर मानसिक द्वन्द को मानते हैं।८.
भारतीय परंपरा में काव्य दृश्य और श्रव्य दो वर्गों में वर्गीकृत है। दृश्य काव्य मंचित किए जा सकते हैं। दृश्य काव्य में परिवेश, वेशभूषा, पात्रों के क्रियाकलाप आदि महत्वपूर्ण होते हैं। विवेच्य कृति में चाक्षुष विवरणों का अभाव है। 'अप्प दीपो भव' को काव्य नाटक मानने पर इसकी कथावस्तु और प्रस्तुतीकरण को रंगमंचीय व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में भी आकलित करना होगा। कृति में कहीं भी रंगमंच संबंधी निर्देश या संकेत नहीं हैं। विविध प्रसंगों में पात्र कहीं-कहीं आत्मालाप तो करते हैं किन्तु संवाद या वार्तालाप नहीं हैं। नवगीतकार द्वारा पात्रों की मन: स्थितियों को सूक्ष्म संकेतों द्वारा इंगित किया गया है। कथा को कितने अंकों में मंचित किया जाए, कहीं संकेत नहीं है। स्पष्ट है कि यह काव्य नाटक नहीं है। यदि इसे मंचित करने का विचार करें तो कई परिवर्तन करना होंगे। अत:, इसे दृश्य काव्य या काव्य नाटक नहीं कहा जा सकता।
श्रव्य काव्य शब्दों द्वारा पाठकों और श्रोताओं के हृदय में रस का संचार करता है। पद्य, गद्य और चम्पू श्रव्यकाव्य हैं। गत्यर्थक में 'पद्' धातु से निष्पन ‘पद्य’ शब्द गति प्रधान है। पद्यकाव्य में ताल, लय और छन्द की व्यवस्था होती है। पद्यकाव्य के दो उपभेद महाकाव्य और खण्डकाव्य हैं। खण्डकाव्य को ‘मुक्तकाव्य’ भी कहते हैं। खण्डकाव्य में महाकाव्य के समान जीवन का सम्पूर्ण इतिवृत्त न होकर किसी एक अंश का वर्णन किया जाता है— खण्डकाव्यं भवेत्काव्यस्यैकदेशानुसारि च। – साहित्यदर्पण।

कवित्व व संगीतात्मकता का समान महत्व होने से खण्डकाव्य को ‘गीतिकाव्य’ भी कहते हैं। ‘गीति’ का अर्थ हृदय की रागात्मक भावना को छन्दोबद्ध रूप में प्रकट करना है। गीति की आत्मा भावातिरेक है। अपनी रागात्मक अनुभूति और कल्पना के कवि वर्ण्यवस्तु को भावात्मक बना देता है। गीतिकाव्य में काव्यशास्त्रीय रूढ़ियों और परम्पराओं से मुक्त होकर वैयक्तिक अनुभव को सरलता से अभिव्यक्त किया जाता है। स्वरूपत: गीतिकाव्य का आकार-प्रकार महाकाव्य से छोटा होता है। इस निकष पर 'अप्प दीपो भव' नव गीतात्मक गीतिकाव्य है। संस्कृत में गीतिकाव्य मुक्तक और प्रबन्ध दोनों रूपों में प्राप्त होता है। प्रबन्धात्मक गीतिकाव्य मेघदूत है। मुक्तक काव्य में प्रत्येक पद्य अपने आप में स्वतंत्र होता है। इसके उदाहरण अमरूकशतक और भतृहरिशतकत्रय हैं। संगीतमय छन्द व मधुर पदावली गीतिकाव्य का लक्षण है। इन लक्षणों की उपस्थित्ति 'अप्प दीपो भव' में देखते हुए इसे नवगीति काव्य कहना उपयुक्त है। निस्संदेह यह हिंदी साहित्य में एक नयी लीक का आरम्भ करती कृति है।
हिंदी में गीत या नवगीत में प्रबंध कृति का विधान न होने तथा प्रसाद कृत 'आँसू' तथा बच्चन रचित 'मधुशाला' के अतिरिक्त अन्य महत्त्वपूर्ण कृति न लिखे जाने से उपजी शून्यता को 'अप्प दीपो भव' भंग करती है। किसी चरिते के मनोजगत को उद्घाटित करते समय इतिवृत्तात्मक लेखन अस्वाभाविक लगेगा। अवचेतन को प्रस्तुत करती कृति में घटनाक्रम को पृष्ठभूमि में संकेतित किया जाना पर्याप्त है। घटना प्रमुख होते ही मन-मंथन गौड़ हो जाएगा। कृतिकार ने इसीलिये इस नवगीतिकाव्य में मानवीय अनुभूतियों को प्राधान्य देने हेतु एक नयी शैली को अन्वेषित किया है। इस हेतु लुमार रवीन्द्र साधुवाद के पात्र हैं।
बुद्ध को विष्णु का अवतार स्वीकारे जाने पर भी पर स्व. मैथिलीशरण गुप्त रचित यशोधरा खंडकाव्य के अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण काव्य कृति नहीं है जबकि महावीर को विष्णु का अवतार न माने जाने पर भी कई कवत कृतियाँ हैं। कुमार रवीन्द्र ने बुद्ध तथा उनके जीवन काल में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करनेवाले पात्रों में अंतर्मन में झाँककर तात्कालिक दुविधाओं, शंकाओं, विसंगतियों, विडंबनाओं, उनसे उपजी त्रासदियों से साक्षात कर उनके समाधान के घटनाक्रम में पाठक को संश्लिष्ट करने में सफलता पाई है। तथागत ११, नन्द ५, यशोधरा ५, राहुल ५, शुद्धोदन ५, गौतमी २, बिम्बसार २, अंगुलिमाल २, आम्रपाली ३, सुजाता ३, देवदत्त १, आनंद ४ प्रस्तुतियों के माध्यम से अपने मानस को उद्घाटित करते हैं। परिनिर्वाण, उपसंहार तथा उत्तर कथन शीर्षकान्तार्गत रचनाकार साक्षीभाव से बुद्धोत्तर प्रभावों की प्रस्तुति स्वीकारते हुए कलम को विराम देता है।
गृह त्याग पश्चात बुद्ध के मन में विगत स्मृतियों के छाने से आरम्भ कृति के हर नवगीत में उनके मन की एक परत खुलती है. पाठक जब तक पिछली स्मृति से तादात्म्य बैठा पाए, एक नयी स्मृति से दो-चार होता है। आदि से अंत तक औत्सुक्य-प्रवाह कहीं भंग नहीं होता। कम से कम शब्दों में गहरी से गहरी मन:स्थिति को शब्दित करने में कुमार रवीन्द्र को महारथ हासिल है। जन्म, माँ की मृत्यु, पिता द्वारा भौतिक सुख वर्षा, हंस की प्राण-रक्षा, विवाह, पुत्रजन्म, गृह-त्याग, तप से बेसुध, सुजाता की खीर से प्राण-रक्षा, भावसमाधि और बोध- 'गौतम थे / तम से थे घिरे रहे / सूर्य हुए / उतर गए पल भर में / कंधों पर लदे-हुए सभी जुए', 'देह के परे वे आकाश हुए', 'दुःख का वह संस्कार / साँसों में व्यापा', 'सूर्य उगा / आरती हुई सॉंसें', ''देहराग टूटा / पर गौतम / अन्तर्वीणा साध न पाए', 'महासिंधु उमड़ा / या देह बही / निर्झर में' / 'सभी ओर / लगा उगी कोंपलें / हवाओं में पतझर में', 'बुद्ध हुए मौन / शब्द हो गया मुखर / राग-द्वेष / दोनों से हुए परे / सड़े हुए लुगड़े से / मोह झरे / करुना ही शेष रही / जो है अक्षर / अंतहीन साँसों का / चक्र रुका / कष्टों के आगे / सिर नहीं झुका / गूँजे धम्म-मन्त्रों से / गाँव-गली-घर / ऋषियों की भूमि रही / सारनाथ / करुणा का वहीं उठा / वरद हाथ / क्षितिजों को बेध गए / बुद्धों के स्वर'
गागर में सागर समेटती अभिव्यक्ति पाठक को मोहे रखती है। एक-एक शब्द मुक्तामाल के मोती सदृश्य चुन-चुन कर रखा गया है। सन्यस्त बुद्ध के आगमन पर यशोधरा की अकथ व्यथा का संकेतन देखें 'यशोधरा की / आँख नहीं / यह खारे जल से भरा ताल है... यशोधरा की / देह नहीं / यह राख हुआ इक बुझा ज्वाल है... यशोधरा की / बाँह नहीं / यह किसी ठूँठ की कटी डाल है... यशोधरा की / सांस नहीं / यह नारी का अंतिम सवाल है'। अभिव्यक्ति सामर्थ्य और शब्द शक्ति की जय-जयकार करती ऐसी अभिव्यक्तियों से समृद्ध-संपन्न पाठक को धन्यता की प्रतीति कराती है। पाठक स्वयं को बुद्ध, यशोधरा, नंद, राहुल आदि पात्रों में महसूसता हुआ सांस रोके कृति में डूबा रहता है।
कुमार रवींद्र का काव्य मानकों पर परखे जाने का विषय नहीं, मानकों को परिमार्जित किये जाने की प्रेरणा बनता है। हिंदी गीतिकाव्य के हर पाठक और हर रचनाकार को इस कृति का वाचन बार-बार करना चाहिए।
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संदर्भ- १. दामोदर अग्रवाल, अंग्रेजी साहित्य कोश, पृष्ठ ३१४।२. टी. एस. इलियट, सलेक्ट प्रोज, पृष्ठ ६८। ३. एबरकोम्बी, इंग्लिश क्रिटिक एसेज, पृष्ठ २५८। ४. डॉ. नगेंद्र, अरस्तू का काव्य शास्त्र, पृष्ठ ७४। ५. आर. पीकोक, द आर्ट ऑफ़ ड्रामा, पृष्ठ १६०। ६. डॉ. श्याम शर्मा, आधुनिक हिंदी नाटकों में नायक, पृष्ठ १५५। ७. डॉ. सिद्धनाथ कुमार, माध्यम, वर्ष १ अंक १०, पृष्ठ ९६। ८. डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल, आधुनिक हिंदी नाटक और रंगमंच, पृष्ठ १०। ९.
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संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर २००१
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दोहा

दोहा दुनिया
*
सरहद पर सर काट कर, करते हैं हद पार
क्यों लातों के देव पर, हों बातों के वार?
*
गोस्वामी से प्रभु कहें, गो स्वामी मार्केट
पिज्जा-बर्जर भोग में, लाओ न होना लेट
*
भोग लिए ठाकुर खड़ा, करता दंड प्रणाम
ठाकुर जी मुस्का रहे, आज पड़ा फिर काम
*
कहें अजन्मा मनाकर, जन्म दिवस क्यों लोग?
भले अमर सुर, मना लो मरण दिवस कर सोग
*
ना-ना कर नाना दिए, है आकार-प्रकार
निराकार पछता रहा, कर खुद के दीदार
*

५-५-२०१७ 

मुक्तिका, अथाष्टि छंद, विधाता छंद

मुक्तिका
*
वार्णिक छंद: अथाष्टि जातीय छंद
मात्रिक छंद: यौगिक जातीय विधाता छंद
1 2 2 2 , 1 2 2 2 , 1 2 2 2 , 1 2 2 2.
मुफ़ाईलुन,मुफ़ाईलुन, मुफ़ाईलुन,मुफ़ाईलुन।
बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम।।
*
दियों में तेल या बाती नहीं हो तो करोगे क्या?
लिखोगे प्रेम में पाती नहीं भी तो मरोगे क्या?
.
बुलाता देश है, आओ! भुला दो दूरियाँ सारी
बिना गंगा बहाए खून की, बोलो तरोगे क्या?
.
पसीना ही न जो बोया, रुकेगी रेत ये कैसे?
न होगा घाट तो बोलो नदी सूखी रखोगे क्या?
.
परों को ही न फैलाया, नपेगा आसमां कैसे?
न हाथों से करोगे काम, ख्वाबों को चरोगे क्या?
.
न ज़िंदा कौम को भाती कभी भी भीख की बोटी
न पौधे रोप पाए तो कहीं फूलो-फलोगे क्या?
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५-५-२०१७
इस बह्र में कुछ प्रचलित गीत
~~~
१. तेरी दुनिया में आकर के ये दीवाने कहाँ जाएँ
मुहब्बत हो गई जिनको वो परवाने कहाँ जाएँ
२. मुझे तेरी मुहब्बत का सहारा मिल गया होता
३. चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों
४. खुदा भी आसमाँ से जब जमीं पर देखता होगा
५. सुहानी रात ढल चुकी न जाने तुम कब आओगेे
६. कभी तन्हाइयों में भी हमारी याद आएगी
७. है अपना दिल तो अावारा न जाने किस पे आएगा
८. बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है
९. सजन रे! झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है

कविता - ढाई आखर

कविता -
ढाई आखर
.
दाँत दूध के टूट न पाये
पर वयस्क हैं.
नहीं सुंदरी नर्स इसलिए
अनमयस्क हैं.
चूस रहे अंगूठा लेकिन
आँख मारते
बाल भारती पढ़ न सके
डेटिंग परस्त हैं
हर उद्यान
काम-क्रीड़ा हित
इनको बाखर
जिन्स बना
बिक रहा आजकल
ढाई आखर
.
मकरध्वज घुट्टी में शायद
गयी पिलायी
वात्स्यायन की खोज
गर्भ में गयी सुनायी
मान देह को माटी माटी से
मिलते हैं
कीचड किया, न शतदल कलिका
गयी खिलायी
मन अनजाना
तन इनको केवल
जलसाघर
जिन्स बना
बिक रहा आजकल
ढाई आखर
.
४.५.२०१५

जग छंद

छंद सलिला:
जग छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, यति १० - ८ - ५, चरणान्त गुरु लघु (तगण, जगण) ।

लक्षण छंद:
कदम-कदम मंज़िल / को छू पायें / पग आज
कोशिश-शीश रखेँ / अनथक श्रम कर / हम ताज
यति दस आठ पाँच / पर, गुरु लघु हो / चरणांत
तेइस मात्री जग / रच कवि पा यश / इस व्याज

उदाहरण:
१. धूप-छाँव, सुख-दुःख / धीरज धरकर / ले झेल
मन मत विचलित हो / है यह प्रभु / का खेल
सच्चे शुभ चिंतक / को दुर्दिन मेँ / पहचान
संग रहे तम मेँ / जो- हितचिंतक / मतिमान

२. चित्रगुप्त परब्रम्ह / ही निराकार / साकार
कंकर-कंकर मेँ / बसते लेकर / आकार
घट-घटवासी हैं / तन में आत्मा / ज्यों गुप्त
जागृत देव सदैव / होते न कभी / भी सुप्त

३. हम सबको रहना / है मिलकर हर/दम साथ
कभी न छोड़ेंगे / हमने थामे / हैं हाथ
एक-नेक होँ हम / सब भेद करें/गे दूर
'सलिल' न झुकने दें/गे हम भारत / का माथ

५-५-२०१४ 
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, रसामृत, राजीव, राधिका, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)

कविता

कविता 
कविता का है मूल क्या?,
और आप हैं कौन?
उत्तर दोनों प्रश्न का,
'सलिल' एक है- 'मौन'..
५-५-२०१० 

स्त्री / women

women
women are like vehicles, everyone appreciate the outside beauty, but the inner beauty is embraced by her owner- पायल शर्मा
'स्त्री वाहन नहीं, संस्कृति की वाहक है.
मानव मूल्यों की स्त्री ही तो चालक है..
वाहन की चाबी कोई भी ले सकता है.
चाबी लगा घुमा कर उसको खे सकता है.
स्त्री चाबी बना पुरुष को सदा घुमाती.
जब जी चाहे रोके, उठा उसे दौडाती.
विधि-हरि-हर पर शारद-रमा-उमा हावी हैं.
नव दुर्गा बन पुजती स्त्री ही भावी है'

सोमवार, 4 मई 2020

नवगीत

नवगीत
जोड़-तोड़ है
मुई सियासत
*
मेरा गलत
सही है मानो।
अपना सही
गलत अनुमानो।
सत्ता पाकर,
कर लफ्फाजी-
काम न हो तो
मत पहचानो।
मैं शत गुना
खर्च कर पाऊँ
इसीलिए तुम
करो किफायत
*
मैं दो दूनी
तीन कहूँ तो
तुम दो दूनी
पाँच बताना।
मैं तुमको
झूठा बोलूँगा
तुम मुझको
झूठा बतलाना।
लोकतंत्र में
लगा पलीता
संविधान से
करें बगावत
*
यह ले उछली
तेरी पगड़ी।
झट उछाल तू
मेरी पगड़ी।
भत्ता बढ़वा,
टैक्स बढ़ा दें
लड़ें जातियाँ
अगड़ी-पिछड़ी।
पा न सके सुख
आम आदमी,
लात लगाकर
कहें इनायत।
*
11.4.2018

नवगीत

नवगीत
*
शीशमहल में बैठ
हाथ में पत्थर ले,
एक-दूसरे का सिर
फोड़ रहे चतुरे।
*
गौरैयौं के प्रतिनिधि
खूनी बाज बने।
स्वार्थ हेतु मिल जाते
वरना रहें तने।
आसमान कब्जाने
हाथ बढ़ाने पर
देख न पाते
हैं दीमक लग सड़क तने।
कागा मन पर
हंस वसन पहने ससुरे।
*
कंठी माला
राम नाम का दोशाला।
फतवे जारी करें
काम कर-कर काला।
पेशी बढ़ा-बढ़ाकर
लूट मुवक्किल नित
लड़वा जुम्मन-अलगू को
लूटें खाला।
अपराधी नायक
छूटें, जाते हज रे।
*
सरहद पर
सर हद से ज्यादा कटे-गिरे।
नेता, अफसर, सेठ-तनय
क्या कभी मरे?
भूखी-प्यासी गौ मरती
गौशाला में
व्यर्थ झगड़े झंडे
भगवा और हरे।
जिनके पाला वे ही
भार समझ मैया-
बापू को वृद्धाश्रम में
जाते तज रे।
*
12.4.2018

नवगीत

नवगीत 
*
आओ!
मिल उपवास करें.....
*
गरमा-गरम खिला दो मैया!
ठंडा छिपकर पी लें भैया!
भूखे आम लोग रहते हैं
हम नेता
कुछ खास करें
आओ!
मिल उपवास करें......
*
पहले वे, फिर हम बैठेंगे।
गद्दे-एसी ला, लेटेंगे।
पत्रकार!
आ फोटो खींचो।
पिओ,
पिलाओ, रास करें
आओ!
मिल उपवास करें.....
*
जनगण रोता है, रोने दो।
धीरज खोता है, खोने दो।
स्वार्थों की
फसलें काटें।
सत्ता
अपना ग्रास करें
आओ!
मिल उपवास करें.....
*
12.4.2018

दोहे और द्विपदियाँ


दोहे और द्विपदियाँ तेरह-ग्यारह; विषम-सम, दोहा में दुहराव 
ग्यारह-तेरह सोरठा, करिए सहज निभाव 
*
दोहा ने दोहा सदा, शब्द-शब्द का अर्थ 
दोहा तब ही सार्थक, शब्द न हो जब व्यर्थ 

*
जिया जिया में बसा ले, दोहा छंद पुनीत  
दोहा छंद जिया अगर, दिन दूनी हो प्रीत 
*
गला न घोंटें छंद का, बंदिश लगा अनेक
सहज गेय जो वह सही, माने बुद्धि-विवेक

*
कुछ अपनी कुछ और की, बात लीजिए मान.
नहीं किसी भी एक ने, पाया पूरा ज्ञान.

*
ओ शो मत कर; खुश रहो, ओशो का संदेश
व्यर्थ रूढ़ि मत मानना, सुन मन का आदेश

*
कुछ सुनना; कुछ सुनाना, तभी बनेगी बात
अपने-अपने तक रहे, सीमित क्यों जज़्बात?

*
सुन ओशो की देशना, तृप्त करें मन-प्यास
कुंठाओं से मुक्त हो, रखें अधर पर हास
*
ओ' शो करना जरूरी, तभी सके जग देख
मन की मन में रहे तो, कौन कर सके लेख?

*
दोहा मैं लिखता नहीं, दोहा प्रगटे आप
कथ्य, भाव, रस आप ही, जाते दोहा-व्याप

*
आज प्रियदर्शी बना है अम्बर, शिव लपेटे हैं नाग- बाघम्बर 
नेह की भेंट आप लाई हैं- चुप उमा छोड़ सकल आडम्बर 

*
बाग़ पुष्पा है, महकती क्यारी, गंध में गंध घुल रही न्यारी 
मन्त्र पढ़ते हैं भ्रमर पंडित जी- तितलियाँ ला रही हैं अग्यारी 

*
जो मिला उससे है संतोष नहीं, छोड़ता है कुबेर कोष नहीं
नाग पी दूध ज़हर देता है, यही फितरत है, कहीं दोष नहीं

*
बोल जब भी जबान से निकले, पान ज्यों पानदान से निकले
कान में घोल दे गुलकंद 'सलिल, ज्यों उजाला विहान से निकले

*


दृढ़पत/उपमान छंद


छंद सलिला:
दृढ़पद (दृढ़पत/उपमान) छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, यति १३ - १०, चरणान्त गुरु गुरु (यगण, मगण) ।
लक्षण छंद:
तेईस मात्रा प्रति चरण / दृढ़पद रचें सुजान
तेरह-दस यति अन्त में / गुरु गुरु- है उपमान
कथ्य भाव रस बिम्ब लय / तत्वों का एका
दिल तक सीधे पहुँचता / लगा नहीं टेका
उदाहरण:
१. हरि! अवगुण से दूरकर / कुछ सद्गुण दे दो
भक्ति - भाव अर्पित तुम्हें / दिक् न करो ले लो
दुनियादारी से हुआ / तंग- शरण आया-
एक तुम्हारा आसरा / साथ न दे साया
२. स्वेद बिन्दु से नहाकर / श्रम से कर पूजा
फल अर्पित प्रभु को करे / भक्त नहीं दूजा
काम करो निष्काम सब / बतलाती गीता
जो आत्मा सच जानती / क्यों हो वह भीता?
३. राम-सिया के रूप हैं / सच मानो बच्चे
बेटी-बेटे में करें / फर्क नहीं सच्चे
शक्ति-लक्ष्मी-शारदा / प्रकृति रूप तीनो
जो न सत्य पहचानते / उनसे हक़ छीनो
४-५-२०१४
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, रसामृत, राजीव, राधिका, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)

हरि छंद


छंद सलिला: हरि छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, चरणारंभ गुरु, यति ६ - ६ - ११, चरणान्त गुरु लघु गुरु (रगण) ।

लक्षण छंद:
रास रचा / हरि तेइस / सखा-सखी खेलते
राधा की / सखियों के / नखरे हँस झेलते
गुरु से शुरु / यति छह-छह / ग्यारह पर सोहती
अंत रहे / गुरु लघु गुरु / कला 'सलिल' मोहती
उदाहरण:
१. राखो पत / बनवारी / गिरधारी साँवरे
टेर रही / द्रुपदसुता / बिसरा मत बावरे
नंदलाल / जसुदासुत / अब न करो देर रे
चीर बढ़ा / पीर हरो / मेटो अंधेर रे
२. सीता को / जंगल में / भेजा क्यों राम जी?
राधा को / छोड़ा क्यों / बोलो कुछ श्याम जी??
शिव त्यागें / सती कहो / कैसे यह ठीक है?
नारी भी / त्यागे नर / क्यों न उचित लीक है??

३. नेता जी / भाषण में / जो कुछ है बोलते
बात नहीं / अपनी क्यों / पहले वे तोलते?
मुकर रहे / कह-कहकर / माफी भी माँगते
देश की / फ़िज़ां में / क्यों नफरत घोलते?
४. कौन किसे / बिना बात / चाहता-सराहता?
कौन जो न / मुश्किलों से / आप दूर भागता?
लोभ, मोह / क्रोध द्रोह / छोड़ सका कौन है?
ईश्वर से / कौन और / अधिक नहीं माँगता?
४-५-२०१४
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(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दीप, दीपकी, दोधक, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, रसामृत, राजीव, राधिका, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)

मुक्तक

मुक्तक:
संजीव
*
मन सागर, मन सलिला भी है, नमन अंजुमन विहँस कहें
प्रश्न करे यह उत्तर भी दे, मन की मन में रखेँ-कहें?
शमन दमन का कर महकाएँ चमन, गमन हो शंका का-
बेमन से कुछ काम न करिए, अमन-चमन 'सलिल' में रहे
*
तेरी निंदिया सुख की निंदिया, मेरी निंदिया करवट-करवट”
मेरा टीका चौखट-चौखट, तेरी बिंदिया पनघट-पनघट
तेरी आसें-मेरी श्वासें, साथ मिलें रच बृज की रासें-
तेरी चितवन मेरी धड़कन, हैं हम दोनों सलवट-सलवट
*
बोरे में पैसे ले जाएँ, संब्जी लायें मुट्ठी में
मोबाइल से वक़्त कहाँ है, जो रुचि ले युग चिट्ठी में
कुट्टी करते घूम रहे हैं सभी सियासत के मारे-
चले गये वे दिन जब गले मिले हैं संगा मिट्ठी में
*
नहीं जेब में बचीं छदाम, खास दिखें पर हम हैँ आम
कोई तो कविता सुनकर, तनिक दाद दे करे सलाम
खोज रहीं तन्मय नज़रें, कहाँ वक़्त का मारा है?
जिसकी गर्दन पकड़ें हम फ़िर चकेवा दें बिल बेदाम
४-५-२०१४ 
*

दोहा छंद की सृजन यात्रा : १


कालजयी दोहा छंद की सृजन यात्रा : १

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

https://www.facebook.com/sanjiv.salil/videos/10217675078050942/

रविवार, 3 मई 2020

दोहे गरमागरम

दोहे गरमागरम :
*
जेठ जेठ में हो रहे, गर्मी से बदहाल
जेठी की हेठी हुई, थक हो रहीं निढाल
*
चढ़ा करेला नीम पर, लू पर धूप सवार
जान निकाले ले रही, उमस हुई हथियार
*
चुआ पसीना तर-बतर, हलाकान हैं लोग
पोंछे टेसू हवा से, तनिक न करता सोग
*
नीम-डाल में डाल दे, झूला ठंडी छाँव
पकी निम्बोली चूस कर, भूल न जाना गाँव
*
मदिर गंध मन मोहती, महुआ चुआ बटोर
ओली में भर स्वाद लूँ, पवन न करना शोर
*
कूल न कूलर रह गया, हीट कर रही तंग
फैन न कोई फैन का, हारा बेबस जंग
*
एसी टसुए बहाता, बिजली होती गोल
पीट रही है ढोल लू, जय सूरज की बोल
*
दोहे गरमागरम सुन, उड़ा जा रहा रंग
मेकप सारा धुल गया, हुई गजल बदरंग
*

लघुकथा


लघुकथा 
जंगल में जनतंत्र - 

आचार्य संजीव वर्मा "सलिल" 
जंगल में चुनाव होनेवाले थे। मंत्री कौए जी एक जंगी आमसभा में सरकारी अमले द्वारा जुटाई गयी भीड़  के आगे भाषण दे रहे थे- 'जंगल में मंगल के लिए आपस का दंगल बंद कर एक साथ मिलकर उन्नति की रह पर क़दम रखिये। सिर्फ़ अपना नहीं सबका भला सोचिये।' 
मंत्री जी! लाइसेंस दिलाने के लिए धन्यवाद। आपके काग़ज़ घर पर दे आया हूँ। '-  भाषण के बाद चतुर सियार ने बताया।
*

नवगीत

नवगीत 
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
दरक रए मैदान-खेत सब
मुरझा रए खलिहान।
माँगे सीतल पेय भिखारी
ले न रुपैया दान।
संझा ने अधरों पे बहिना
लगा रखो है खून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
धोंय, निचोरें सूखें कपरा
पहने गीले होंय।
चलत-चलत कूलर, हीटर भओ
पंखें चल-थक रोंय।
आँख-मिचौरी खेरे बिजुरी
मलमल लग रओ ऊन।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
गरमा-गरम नें कोऊ चाहे
रोएँ चूल्हा-भट्टी।
सब खों लगे तरावट नीकी
पनहा, अमिया खट्टी।
धारें झरें नई नैनन सें
बहें बदन सें दून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
लिखो तजुरबा, पढ़ तरबूजा
चक्कर खांय दिमाग।
मृगनैनी खों लू खें झोंकें
लगे लगा रए आग।
अब नें सरक पे घूमें रसिया
चौक परे रे! सून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
अंधड़ रेत-बगूले घेरे
लगी सहर में आग।
कितै गए पनघट, अमराई
कोयल गाए नें राग।
आँखों मिर्ची झौंके मौसम
लगा र ओ रे चून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।

३-५-२०१७
*

लेख विवाह, हम और समाज

सामयिक लेख
विवाह, हम और समाज
*
अत्यंत तेज परिवर्तनों के इस समय में विवाह हेतु सुयोग्य जीवनसाथी खोजना पहले की तुलना में अधिक कठिन होता जा रहा है. हर व्यक्ति को समय का अभाव है. कठिनाई का सबसे बड़ा कारन अपनी योग्यता से बेहतर जीवन साथी की कामना है. पहले वर और वरपक्ष को कन्या पसंद आते ही विवाह निश्चित हो जाता था. अब ऐसा नहीं है. अधिकाँश लडकियाँ सुशिक्षित और कुछ नौकरीपेशा भी हैं. शिक्षा के साथ उनमें स्वतंत्र सोच भी होती है. इसलिए अब लड़के की पसंद के समान लडकी की पसंद भी महत्वपूर्ण है.

नारी अधिकारों के समर्थक इससे प्रसन्न हो सकते हैं किन्तु वैवाहिक सम्बन्ध तय होने में इससे कठिनाई बढ़ी है, यह भी सत्य है. अब यह आवश्यक है की अनावश्यक पत्राचार और समय बचाने के लिए विवाह सम्बन्धी सभी आवश्यक सूचनाएं एक साथ दी जाएँ ताकि प्रस्ताव पर शीघ्र निर्णय लेना संभव हो.
१. जन्म- जन्म तारीख, समय और स्थान स्पष्ट लिखें, यह भी कि कुंडली में विश्वास करते हैं या नहीं? केवल उम्र लिखना पर्याप्त नहीं होता है.
२. शिक्षा- महत्वपूर्ण उपाधियाँ, डिप्लोमा, शोध, प्रशिक्षण आदि की पूर्ण विषय, शाखा, प्राप्ति का वर्ष तथा संस्था का नाम भी दें. यदि आप किसी विशेष उपाधि या विषय में शिक्षित जीवन साथ चाहते हैं तो स्पष्ट लिखें.
३. शारीरिक गठन- अपनी ऊँचाई, वजन, रंग, चश्मा लगते हैं या नहीं, रक्त समूह, कोई रोग (मधुमेह, रक्तचाप, दमा आदि) हो तो उसका नाम आदि जानकारी दें. आरम्भ में जानकारी छिपा कर विवाह के बाद सम्बन्ध खराब होने से बेहतर है पहले जानकारी देकर उसी से सम्बन्ध हो जो सत्य को स्वीकार सके.
४. आजीविका- अपने व्यवसाय या नौकरी के सम्बन्ध में पूरी जानकारी दें. कहाँ, किस तरह का कार्य है, वेतन-भत्ते आदि कुल वार्षिक आय कितनी है? कोई ऋण लिया हो और उसकी क़िस्त आदि कट रही हो तो छिपाइए मत. अचल संपत्ति, वाहन आदि वही बताइये जो वास्तव में आपका हो. सम्बन्ध स्वीकारने वाला पक्ष आपकी जानकारी को सत्य मानता है. बाद में पाता चले की आपके द्वारा बाते मकान आपका नहीं पिताजी का है, वाहन भाई का है, दूकान सांझा कई तो वह ठगा सा अनुभव करता है. इसलिए जो भी हो स्थिति हो स्पष्ट कर दें
५. पसंद- यदि जीवन साथी के समबन्ध में आपकी कोई खास पसंद हो तो बता दें ताकि अनुकूल प्रस्ताव पर ही बात आगे बढ़े.
६. दहेज- दहेज़ की माँग क़ानूनी अपराध, सामाजिक बुराई और व्यक्तिगत कमजोरी है. याद रखें दुल्हन ही सच्चा दहेज है. दहेज़ न लेने पर नए सम्बन्धियों में आपकी मान-प्रतिष्ठा बढ़ जाती है. यदि आप अपनी प्रतिष्ठा गंवा कर भी पराये धन की कामना करते है तो इसका अर्थ है कि आपको खुद पर विश्वास नहीं है. ऐसी स्थिति में पहले ही अपनी माँग बता दें ताकि वह सामर्थ्य होने पर ही बात बढ़े. सम्बन्ध तय होने के बाद किसी बहाने से कोई माँग करना बहुत गलत है. ऐसा हो तो समबन्ध ही नहीं करें.
७. चित्र- आजकल लडकियों के चित्र प्रस्ताव के साथ ही भेजने का चलन है. चित्र भेजते समय शालीनता का ध्यान रखें. चश्मा पहनते हैं तो पहने रहें. विग लगाते हों तो बता दें. बहुत तडक-भड़क वाली पोशाक न हो बेहतर.
८. भेंट- बात अनुकूल प्रतीत हो और दुसरे पक्ष की सहमती हो तो प्रत्यक्ष भेंट का कार्यक्रम बनाने के पूर्व दूरभाष या चलभाष पर बातचीत कर एक दुसरे के विचार जान लें. अनुकूल होने पर ही भेंट हेतु जाएँ या बुलाएँ. वैचारिक ताल-मेल के बिना जाने पर धन और समय के अपव्यय के बाद भी परिणाम अनुकूल नहीं होता.
९. आयोजन- सम्बन्ध तय हो जाने पर 'चाट मंगनी पट ब्याह' की कहावत के अनुसार 'शुभस्य शीघ्रं' दोनों परिवारों के अनुकूल गरिमापूर्ण आयोजन करें. आयोजन में अपव्यय न करें. सुरापान, मांसाहार, बंदूक दागना आदि न हो तो बेहतर. विवाह एक सामाजिक, पारिवारिक तथा धार्मिक आयोजन होता है जिससे दो व्यक्ति ही नहीं दो परिवार, कुल और खानदान भी एक होते हैं. अत: एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हुए आयोजन को सादगी, पवित्रता और उल्लास के वातावरण में पूर्ण करें
***

दोहा दो दुम का

दो दुम का दोहा
*
राजनीति में नीति का, कहीं न किंचित काम.
निज प्रशस्ति कर आप मुख, रहो बढ़ाते दाम.
लोग बिलखें या रोएँ
काँध पर तुमको ढोएँ
*

एक दूसरे को चलो, दें हम दोनों दोष.
मिल-जुल लूटें देश को, दिखला झूठा रोष.
लोग संतोष करेंगे
हमारा कोष भरेंगे

*
जब जिसने जो कह दिया, बोला सच्ची बात
सच न कहीं है अगर तो, सच दोषी कर घात

न दोषी होगा नेता 
हमेशा ही वह लेता 
*
देख रहे हैं तमाशा, अब अपने ही लोग.
ऋण ऋण मिल ऋण ही रहें, कैसा है दुर्योग?

मर रहा लोकतंत्र है 
जी रहा लोभ तंत्र है 
*
मन में क्या किससे कहें? कौन सुनेगा बात?
सुनकर समझेगा 'सलिल' अब न रहे हालात

जो कहे सत्ता वह सच 
नहीं सच कहने से बच 
*
३.५.२०१८