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शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

पुरोवाक : छुप गया फिर चाँद

पुरोवाक :
: छुप गया फिर चाँद में है 'उग गया फिर चाँद' :
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
इस नश्वर सृष्टि में कुछ भी सनातन-शाश्वत, अनादि-अनंत, अजर-अमर नहीं है। शंकराचार्य इसे 'माया' कहते हैं तथापि 'माया' का अंश होने के लिए स्वयं 'मायापति' (परमात्मा) काया की रचना कर 'अंश' (आत्मा) रूप में उसमें स्थित होते हैं। काया में धड़कन बनकर वास कर रही 'माया' ही प्रकृति है। 'नाद' और 'ध्वनि' का संगम 'लय' और 'रस' बनकर गीत में गुंजित होता है। सृष्टि में कुछ भी स्थाई नहीं है। हर तत्व चंचल है, गतिमान है। गति में 'लय' है। 'लय' का असंतुलन 'विलय' को 'प्रलय' में बदल देता है। 'लय' को 'मलय' की तरह शब्दों में गुम्फित कर, भाव और अर्थ समाविष्ट कर गीति काव्य की रचना करना सहज नहीं होता। 'अनुभूतियों' की 'अभियक्ति' का सर्वप्रिय माध्यम है 'भाषा'। भाषा बनती है 'शब्दों' से। शब्द-समन्वय की कला जब 'नीति' बनकर सृजन के संग हो तब जन्म लेती है कवयित्री 'सुनीता'। सुनीता वृत्ति सतत परिष्कार की दिशा में गतिशील होकर अपनी जिज्ञासा की पिपासा शांत करने के लिए सलिल को तलाशती है। कहावत है 'बहता पानी निर्मला', सतत गतिशीलता कविता और सरिता दोनों के लिए अनिवार्य है। 'गति' के साथ 'दिशा' का समन्वय न हो तो यात्रा दिशाहीन हो जाती है। सुनीता वृत्ति 'गति' के साथ 'दिशा' में भी परिवर्तन करती हुई कविता, गीत, नवगीत, बाल गीत आदि विविध दिशाओं में गतिशील है यह संतोष का विषय है।

'छुप गया फिर चाँद' महाप्राण निराला जी द्वारा प्रदत्त ''नव गति नव लय ताल छंद नव'' का कालजयी संदेश ग्रहण कर गीत-गुंजन का प्रयास है। इन गीतों की गीतकार सजग नागरिक, प्रबुद्ध विचारक, कुशल गृहणी, प्रवीण अधिकारी और सहृदय मानव है। वह अपनी गीत अंजुरी में मनोरम भाव प्रवणता के साथ सुनियोजित तर्कशीलता का सम्मिश्रण करने में समर्थ है। उसके लिए न तो कथ्य मात्र, न शिल्प मात्र, न भाषा शैली ही सर्वस्व है। उसने इन तीनों का सम्मिश्रण रचना के पाठकों को लक्ष्य कर इस तरह तैयार किया है कि सामान्य पाठक वह अर्थ ग्रहण कर सके जो उस तक पहुँचाना रचनाकार का उद्देश्य है। बाग़ की अधखिली और बहुरंगी कलियों की तरह इन गीत रचनाओं में माटी का सौंधापन, अपरिपक्वता का नयापन, सुवैचारिकता की व्यवस्था और भावप्रवणता का माधुर्य अनुभव किया जा सकता है। कवयत्री का मन 'सच' का अन्वेषण करते हुए 'सुंदर' का रसपान कर 'शिवता' का वरण कर पाता है। गीत रचना अपेक्षाकृत एक नयी कलम के लिए चेतना, जाग्रति और कल्पना की भँवरों के बीच विचार नौका को खेते हुए समन्वय साध पाना सराहनीय उपलब्धि है।

इन गीतों में राष्ट्रीय भावधारा गीत, आह्वान गीत, प्रेरणा गीत, जनगीत, श्रृंगार (मिलन-विरह) गीत, दोहा गीत, रोला गीत, पर्व गीत, लोकगीत, बाल गीत, कुण्डलिया, ग़ज़ल आदि का रसास्वादन किया जा सकता है। भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र में भावमूलक कलात्मक अनुभूति को 'रस' कहा है। आचार्य धनंजय ने विभाव, अनुभाव, साहित्य भावव्यभिचारी भाव आदि को स्थाई रस का मूल माना है। डॉ. विश्वंभर नाथ भावों के छंदात्मक समन्वय को रस कहते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के विचार में जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा है उसी तरह ह्रदय की मुक्तावस्था रसदशा है। इन गीतों की गीतकार ह्रदय की मुक्तावस्था का आनंद लेते हुए रचनाकर्म में प्रवृत्त होकर गीतों को जन्म देती है।

भारत का लोक उत्सवधर्मी है। वह हर ऋतु परिवर्तन के अवसर पर त्यौहार मनाता है। सर्व धर्म समानता भारतीय संविधान ही नहीं, जीवनशैली की का भी वैशिष्ट्य है। क्रिसमस, नव वर्ष, स्वाधीनता दिवस, गणतंत्र दिवस, दिवाली, मतदान आदि संबंधी गीतों का होना संकलन को एक नया आयाम देता है। कारुण्य (बिछड़ी माँ से संवाद), मिलन श्रृंगार (हम नदी के दो किनारे, ओ साथिया, प्रीत से दिल प्रीत को, मुरली बोले राधा राधा, मन को भाती है, फिर सुधामय प्रेमधारा, रंग प्रेम का), विरह श्रृंगार (पीड़ा को वीणा बना, झलक दिखाकर बादलों में, संतापों के ताप में, काश कभी वो हमारी खातिर), शांत रस (गीतों को गंगा कर दूँ, कर रही मनुहार मनवा, बना लिया है निर्झर मन को, किरण चाँदनी की आदि) को प्रमुखता मिली है. बाल रचनाओं में रस का स्वाभाविक है। इसी तरह देश प्रेम परक रचनाओं में वीर रस का आनंद सुलभ है। भक्ति रस प्रकृति और ईश्वर दोनों को लेकर रची रचनाओं में खोजा जा सकता है। सुनीता जी परिवर्तन आकांक्षी युवा और माँ हैं। उनमें सकारात्मकता के प्राबल्य होना ही चाहिए। संभवत: इसी लिए भयानक, वीभत्स या रौद्र जैसे रस इस संग्रह में अनुपस्थित हैं। समाज में बढ़ती नकारात्मकता का एक कारन अख़बारों हुए दूरदर्शनी समाचार पटलों पर नकारात्मकता की बारह भी है। सुनीता जी ने सकारात्मकता की मशाल रचनात्मक गीतों को रचकर जलाई है।

इस गीत संग्रह में धरती (मेरे देश की धरती), भारत माता (भारत वर्ष, भारत भूमि), भारतीयता (पहचान भारतीयता की), भारत के प्रति समर्पण ( हम अखंड भारत के प्रहरी, ये वतन मेरा वतन), भाषा (हिंदी, बोलियाँ हों मधु जैसी), ध्वज (जहाँ तिरंगा शान है), प्रकृति-पर्यावरण (कोयल रानी, चिड़िया, पंख खोलें, पेड़ हमें जीवन देते हैं, धूप सर्दियों की, बर्फ पहाड़ों की, सूखा दरख्त, पेड़ हमें जीवन देते हैं) आदि के साथ-साथ नागरिक कर्त्तव्य (मतदाता गीत), परिवर्तन हेतु आह्वान (लड़ता क्यों नहीं तू?), प्रेरणा (जीना सीखो) आदि के साथ बाल संरक्षण (पतंग, नील गगन, नील समंदर, धूप सर्दियों की, बर्फ पहाड़ों की) आदि पर गीतों का होना एकता में अनेकता की प्रतीति कराता है।

कवयित्री सुनीता के लिए काव्य साधना शौक या शगल का जरिया नहीं है। उनके लिए सारस्वत साधना उपसना है, पूजा है। इस पद्धति की विधि आत्मावलोकन व आत्मालोचन कर आत्मोन्नयन की सीढ़ियाँ चढ़ना है। स्वागतलाप की मनस्थिति में रची गयी ये रचनाएँ 'रोशनी रूहानी' लेकर तिमिर का शिरोच्छेदन करने के लिए शब्द को तलवार बना लेती हैं। जीवन और जगत के अनगिन पहलू अंत:चक्षुओं के सामने उद्घाटित होते हैं और शब्दों का परिधान पहनकर लय को आत्मसात कर गीत बन जाते हैं। सुनीता का अंतर्मन प्रश्नों को सुनता है, परिस्थितियों को गुनता है और उत्तर की शोध का नैरंतर्य विविध पड़ावों पर भिन्न-भिन्न रूपाकारों, विधाओं, छंदों और प्रतीकों-बिम्बों के साथ संगुम्फित होकर निर्झर की तरह प्रवहित होता है किन्तु उसमें नहर की तरह व्यवस्थित और नियंत्रित प्रवाह भी दिखता है। यह प्रवृत्ति संभवत: प्रशासन से संलग्नता से व्युत्पन्न हो सकती है। आगामी संकलनों में जैसे-जैसे कवि का प्रभाव बढ़ेगा, व्यवस्था न्यून और प्राकृतिकता अधिक होगी।

रचनाओं में भाव की प्रधानता हो या विचार की, वे हृदयप्रधान हों या बुद्धि प्रधान, उनमें कल्पना अधिक हो या यथार्थ, सनातनता हो या युगबोध - ऐसे प्रश्न हर कवि के मानस में उठाते हैं और इनका कोइ एक सर्वमान्य समाधान नहीं होता। सुनीता का कवि मन इस भूल-भुलैयाँ में उलझता नहीं, वह रचनाओं को किसी एक दिशा में ठेलता भी नहीं, उन्हें स्वाभाविक रूप से बढ़ने, पूर्ण होने देता है। इसलिए इन रचनाओं में भावना और तर्क का सम्यक सम्मिश्रण सुलभ है। किसी विचारधारा विशेष से जुड़े समालोचकों की दृष्टि से देखने पर इनमें वैचारिक प्रतिबद्धता का अभाव हो सकता है पर समग्रता में विचार करें तो यह अभाव नहीं, वैशिष्ट्य है जो अनेकता में एकता और विविधता में सामंजस्यता की सृष्टि करता है। मेरे विचार में इस खूबी के कारण ही कवयित्री समय की साक्षी देती रचनाओं को रच पाती है जो सबके लिए पठनीय होकर लोक स्वीकृति पा सकती हैं।

युगकवि नीरज के शब्दों में "गीत तो अस्तित्व का नवनीत है"। अशोक अंजुम के अनुसार "गीत क्या है? / रौशनी का घट / या कि डोरी पर थिरकता नट"।१ राजेंद्र वर्मा कहते हैं "राह बोध का संगम हो या प्रायोजित बंधन / गीत हमेशा अपनेपन का गाती है पायल"।२ गेट को नर्मदांचल के श्रेष्ठ गीतकार जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण' "गीत फूल राग आग मस्ती औ' धुन" कहकर परिभाषित करते हैं।३ कविवर इंद्र बहादुर खरे गीत गीत की कसौटी बताते हैं- "ऐसे गीत अमर होते हैं / जिनमें भावों की तन्मयता / जिनमें बनी रहती है कविता / जिनके स्वर अंतर से उठकर, अंतर में ही लय होते हैं"।४ बकौल आचार्य भगवत दुबे "गीत माला में पिरोये, शब्द सुरभित साधना के"।५ साबरमती तट के गीत साधिका मधु प्रसाद के लिए गीत और आँसू का संबंध अन्यतम है- "आँखों के करघे पर कैसे / आँसू बनता गीत"।६ मेरे मत में "नव्यता संप्रेषणों में जान भरती /गेयता संवेदनों का गान करती / कथ्य होता तथ्यमय आधार खाँटा / सधी गति-यति अंतरों की जान बनती"।७ किसी गीतकार की प्रथम कृति में उससे सही मानकों पर खरा उतरने की अपेक्षा बेमानी है किन्तु संतोष यह है कि सुनीता सिंह के गीतों में इन तत्वों की झलक यत्र-तत्र दृष्टव्य है। ये गीत 'पूत के पाँव पालने में दीखते हैं' कहावत के अनुसार उज्जवल भविष्य का संकेत करते हैं।

सुनीता सिंह की राष्ट्रीय चेतना कई गीतों में मुखर हुई है। उन्होंने राष्ट्रीय एकता और गौरव के प्रतीकों को भी अपने गीतों का विषय बनाया है-

यहाँ तिरंगा शान है,आन-बान-अभिमान है
हिन्द देश के वासी हैं हम, इसका हमें गुमान है

और

झंडा ऊँचा रहे सदा गान तिरंगा का
लहराये बन चिन्ह सदा, विजय पताका का
जन-गण-मन की लय गूँजे सभी दिशाओं में
वंदे मातरम गीत की चहुँ और हवाओं में

वे देश की धरती का गौरव गान कर अपनी कलम को धन्य करने के साथ-साथ सर्व धर्म समन्वय की नीति को नमन करती है -

मेरे देश की धरती, रहे बसंती, ओढ़े चूनर धानी
हिंदू मुस्लिम सिक्ख पारसी ईसाई बौद्ध जैन धर्मायी
सबके मन को एक सुनहरी किरण बाँधती आयी
रहे सद्भाव समन्वय एका के हैं सारे ही सेनानी

भारत की कोटि-कोटि जनता खुद को इसका प्रहरी मानकर धन्यता अनुभव करती है-

प्रति क्षण न्योछवर को तत्पर, हम अखंड भारत के प्रहरी

साहस बल जग में है चर्चित
कौन नहीं है इससे परिचित
गौरव गाथा लिखना नभ पर
पली लगन मन में है गहरी

भारत का कण कण सुंदरता से सराबोर है। कवयित्री प्रकृति, पशु-पक्षियों, लोक पर्वों आदि की महिमा गायन कर देश को नमन करती है-

फाग राग में डूबा मनवा, राधे राधे बोल रहा
बाँसुरिया की धुन पर मौसम, शरबत मीठा घोल रहा

कू-कू कूके कोयल रानी, बोली जैसे मीठा पानी
गीत मधुर गति हो सुंदर, सरगम की ले तान सुहानी

चिड़िया करती चीं चीं चीं चीं, गीत कौन सा जाती
फुदक-फुदक कर चहक चहक कर गीत कौन सा गाती

पंख खोले तितलियों ने , फूल पर भर पुलक डोले
सुरभियों ने तान छेड़ी, मन मगन कर भ्रमर बोले

मतदाता गीत के माध्यम से सुनीता जी ने नागरिकों को उनके सर्बाधिक महत्वपूर्ण कर्त्तव्य और अधिकार का स्मरण कराया है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है की वे स्वयं इस प्रक्रिया की नियामक होती हैं -

सब दानों में सबसे बढ़कर होता मतदान है
लोकतंत्र की पावनता का, अनुपम यही प्रतिमान है

जो अधिकारों के संग जुड़े
कर्तव्य उन्हें पहचान लो
तुम सभी बंधुवर माताओं
बहनों के संग जान लो
एक एक मत की अपनी गरिमा होती है
बूँद बूँद की सागर में महिमा होती है

मानव मात्र ही नहीं, सकल सृष्टि का मूल प्रेम व्यापार है। प्रेम के दोनों रूप विरह और मिलन इस संकलन के गीतों में है -

ओ साथिया, ओ साथिया, सुन ले माहिया
पुकारता हियाहै तुझे, आ जा ओ पिया

प्रीत से दिल प्रीत को आबद्ध करना चाहता है
देव तुमको ही बनाकर, दिल पूजना चाहता है

चल रहे हैं साथ लेकिन दूर साये हैं हमारे
इस जगत की धार में ज्यों, हम नदी के दो किनारे

इस संकलन में समाविष्ट आह्वान गान 'लड़ता क्यों नहीं तू?' युवाओं को झकझोरते हुए, कर्तव्य निर्वहन की प्रेरणा देता है -

डूबे बिन गहराइयों में
मोती ना मिलेगा

लहरों से बिन जूझे भँवर
पार न हो सकेगा
जिद लहरों से जूझने की
करता नहीं क्यों तू?

उफनती यदि लहर वीभत्स
लड़ता क्यों नहीं तू?

'छुप गया फिर चाँद' के गीत नवाशामय भोर पर्वत को फाँद कर, अपनी माँद को खोज, विश्राम कर फिर प्रतीत होते हैं। इनमें नवोन्मेष का आशाप्रद स्वर है। इन्हें 'उग गया फिर चाँद कहा जाए तो गलत न होगा।

छुप गया फिर चाँद
भोर पर्वत लाँघ
खोज अपनी माँद
उग गया फिर चाँद
***
संदर्भ: १. एक नदी प्यासी, २. अंतर संधि, ३.जीवन के रंग, ४. विजन के फूल, ५. प्रणय ऋचाएँ, ६. आँगन भर आकाश, ७. काल है संक्रांति का।
संपर्क : विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट्स, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ७९९९५५९६१८।


ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com

घनाक्षरी / कवित्त

घनाक्षरी या कवित्त
सघन संगुफन भाव का, अक्षर अक्षर व्याप्त.
मन को छूते चतुष्पद, रच घनाक्षरी आप्त..
अष्ट अक्षरी त्रै चरण, चौथे अक्षर सात .
लघु-गुरु मात्रा से करें, अंत हमेशा भ्रात..
*
चतुष्पदी मुक्तक छंद घनाक्षरी या छप्पय के पदों में वर्ण-संख्या निश्चित होती हैं किंतु छंद के पद वर्ण-क्रम या मात्रा-गणना से मुक्त होते हैं। किसी अन्य वर्णिक छंद की तरह इसके गण (वर्णों का नियत समुच्चय) व्यवस्थित नहीं होते अर्थात पदों में गणों की आवृत्तियाँ नहीं होतीं।वर्ण-क्रम मुक्तता घनाक्षरी छंद का वैशिष्ट्य है। वाचन में प्रवाहभंग या लयभंग से बचने के लिये सम कलों वाले शब्दों के बाद सम कल के शब्द तथा विषम कलों के शब्द के बाद विषम कलों के शब्द समायोजित किये जाते हैं। वर्ण-गणना में व्यंजन या व्यंजन के साथ संयुक्त स्वर अर्थात संयुक्ताक्षर एक वर्ण माना जाता है।
हिंदी के मुक्तक छंदों में घनाक्षरी सर्वाधिक लोकप्रिय, सरस और प्रभावी छंदों में से एक है। घनाक्षरी की पंक्तियों में वर्ण-संख्या निश्चित (३१, ३२, या ३३) होती है किन्तु मात्रा गणना नहीं की जाती। अतः, घनाक्षरी की पंक्तियाँ समान वर्णिक किन्तु विविध मात्रिक पदभार की होती हैं जिन्हें पढ़ते समय कभी लघु का दीर्घवत् उच्चारण और कभी दीर्घ का लघुवत् उच्चारण करना पड़ सकता है। इससे घनाक्षरी में लालित्य और बाधा दोनों हो सकती हैं। वर्णिक छंदों में गण नियम प्रभावी नहीं होते। इसलिए घनाक्षरीकार को लय और शब्द-प्रवाह के प्रति अधिक सजग होना होता है। समान पदभार के शब्द, समान उच्चार के शब्द, आनुप्रासिक शब्द आदि के प्रयोग से घनाक्षरी का लावण्य निखरता है। वर्ण गणना करते समय लघु वर्ण, दीर्घ वर्ण तथा संयुक्ताक्षरों को एक ही गिना जाता है अर्थात अर्ध ध्वनि की गणना नहीं की जाती है।
१ वर्ण = न, व, या, हाँ आदि.
२ वर्ण = कल, प्राण, आप्त, ईर्ष्या, योग्य, मूर्त, वैश्य आदि.
३ वर्ण = सजल,प्रवक्ता, आभासी, वायव्य, प्रवक्ता आदि.
४ वर्ण = ऊर्जस्वित, अधिवक्ता, अधिशासी आदि.
५ वर्ण = पर्यावरण आदि.
६ वर्ण = वातानुकूलित आदि.
आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर, मनहर घनाक्षरी, छन्द कवि रचिए.
लघु-गुरु रखकर, चरण के आखिर में, 'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिये..
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम, गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए.
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण- 'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए..
*
घनाक्षरी के ९ प्रकार होते हैं;
१. मनहर: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु अथवा लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-७ वर्ण।
२. जनहरण: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु शेष सब वर्ण लघु।
३. कलाधर: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण ।
४. रूप: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
५. जलहरण: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत लघु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
६. डमरू: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत बंधन नहीं, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
७. कृपाण: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण, प्रथम ३ चरणों में समान अंतर तुकांतता, ८-८-८-८ वर्ण।
८. विजया: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
९. देव: कुल वर्ण संख्या ३३. समान पदभार, समतुकांत, पदांत ३ लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-९ वर्ण।
उदाहरण-
०१. शस्य-श्यामला सघन, रंग-रूप से मुखर देवलोक की नदी है आज रुग्ण दाह से
लोभ मोह स्वार्थ मद पोर-पोर घाव बन रोम-रोम रीसते हैं, हूकती है आह से
यहाँ 'शस्य' (२ वर्ण, ३ मात्रा = २१ ), के बाद 'श्यामला' (३ वर्ण, ५ मात्रा, रगण = २१२ = ३ + २) है। अतः 'शस्य' के त्रिकल, के ठीक बाद श्याम का त्रिकल सटीक व्यवस्था कर वाचन में लयभंग नहीं होने देता। ऐसी मात्रा-व्यवस्था घनाक्षरी के सभी पदों में आवश्यक है। घनाक्षरी छन्द के कुल नौ भेदों में मुख्य चार १. मनहरण, २. जलहरण, ३. रूप तथा ४. देव घनाक्षरी हैं।
मनहरण घनाक्षरी- चार पदों के इस छंद के प्रत्येक पद में कुल वर्ण-संख्या ३१ तथा पदांत में गुरु अनिवार्य है। लघु-गुरु का कोई क्रम नियत नहीं है किंतु पदान्त लघु-गुरु हो तो लय सुगम हो जाती है। हर पद में चार चरण होते हैं। हर चरण में वर्ण-संख्या ८, ८, ८, ७ की यति के अनुसार होती है। पदांत में मगण (मातारा, गुरु-गुरु-गुरु, ऽऽऽ, २ २ २) वर्जित है।
अपवाद स्वरूप किसी चरण में वर्ण-व्यवस्था ८, ७, ९, ७ हो किंतु शब्द-कल का निर्वहन सहज हो अर्थात वाचन या गायन में लय-भंग न हो छन्द निर्दोष माना जाता है। सुविधा के लिये ३१ वर्ण की पद-यति १६-१५, १५, १६, १७-१४, १४-१७,१५-१६, १६-१५ या अन्य भी हो सकती है यदि लय बाधित न हो।
उदाहरण-
०२. हम कृतघ्न पुत्र हैं या दानवी प्रभाव है, स्वार्थ औ' प्रमाद में ज्यों लिप्त हैं वो क्या कहें? यति १६-१५
ममत्व की हो गोद या सुरम्यता कारुण्य की, नकारते रहे सदा मूढ़ता को क्या कहें?? यति १६-१५
यहां लय भंग नहीं है किन्तु शब्द-क्रम में यत्किंचित परिवर्तन भी लय भंग का हेतु बन जाता है।
'ममत्व की हो गोद या' को 'या गोद ममत्व की हो' अथवा 'गॉड या ममत्व की हो' किया जाय तो चरण में समान वर्ण होने के बावज़ूद लयभंगता स्पष्ट है। तथा पद-प्रवाह सहज रहें.
उदाहरण-
- सौरभ पांडेय
०१. शस्य-श्यामला सघन, रंग-रूप से मुखर देवलोक की नदी है आज रुग्ण दाह से
लोभ मोह स्वार्थ मद पोर-पोर घाव बन रोम-रोम रीसते हैं, हूकती है आह से
जो कपिल की आग के विरुद्ध सौम्य थी बही अस्त-पस्त-लस्त आज दानवी उछाह से
उत्स है जो सभ्यता व उच्च संस्कार की वो सुरनदी की धार आज रिक्त है प्रवाह से - इकड़ियाँ जेबी से
०२. नीतियाँ बनीं यहाँ कि तंत्र जो चला रहा वो श्रेष्ठ भी दिखे भले परन्तु लोक-छात्र हो
तंत्र की कमान जन-जनार्दनों के हाथ हो, त्याग दे वो राजनीति जो लगे कुपात्र हो
भूमि-जन-संविधान, विन्दु हैं ये देशमान, संप्रभू विचार में न ह्रास लेश मात्र हो
किन्तु सत्य है यही सुधार हो सतत यहाँ, ताकि राष्ट्र का समर्थ शुभ्र सौम्य गात्र हो
- संजीव 'सलिल'
०३. फूँकता कवित्त प्राण, डाल मुरदों में जान, दीप बाल अंधकार, ज़िन्दगी का हरता।
नर्मदा निनाद सुनो,सच की ही राह चुनो, जीतता सुधीर वीर, पीर पीर सहता।।
'सलिल'-प्रवाह पैठ, आगे बढ़ नहीं बैठ, सागर है दूर पूर, दूरी हो निकटता।
आना-जाना खाली हाथ, कौन कभी देता साथ, हो अनाथ भी सनाथ, प्रभु दे निकटता।।
०४. गीत-ग़ज़ल गाइये / डूबकर सुनाइए / त्रुटि नहीं छिपाइये / सीखिये-सिखाइए
शिल्प-नियम सीखिए / कथ्य समझ रीझिए / भाव भरे शब्द चुन / लय भी बनाइए
बिम्ब नव सजाइये / प्रतीक भी लगाइये / अलंकार कुछ नये / प्रेम से सजाइए
वचन-लिंग, क्रिया रूप / दोष न हों देखकर / आप गुनगुनाइए / वाह-वाह पाइए
.
०५. कौन किसका है सगा? / किसने ना दिया दगा? / फिर भी प्रेम से पगा / जग हमें दुलारता
जो चला वही गिरा / उठ हँसा पुन: बढ़ा / आदि-अंत सादि-सांत / कौन छिप पुकारता?
रात बनी प्रात नित / प्रात बने रात फिर / दोपहर कथा कहे / साँझ नभ निहारता
काल-चक्र कब रुका? / सत्य कहो कब झुका? /मेहनती नहीं चुका / धरांगन बुहारता
.
०६. न चाहतें, न राहतें / न फैसले, न फासले / दर्द-हर्ष मिल सहें / साथ-साथ हाथ हों
न मित्रता, न शत्रुता / न वायदे, न कायदे / कर्म-धर्म नित करें / उठे हुए माथ हों
न दायरे, न दूरियाँ / रहें न मजबूरियाँ / फूल-शूल, धूप-छाँव / नेह नर्मदा बनें
गिर-उठें, बढ़े चलें / काल से विहँस लड़ें / दंभ-द्वेष-छल मिटें / कोशिशें कथा बुनें
०७. चाहते रहे जो हम / अन्य सब करें वही / हँस तजें जो भी चाह / उनके दिलों में रही
मोह वासना है यह / परार्थ साधना नहीं / नेत्र हैं मगर मुँदे / अग्नि इसलिए दही
मुक्त हैं मगर बँधे / कंठ हैं मगर रुँधे / पग बढ़े मगर रुके / सर उठे मगर झुके
जिद्द हमने ठान ली / जीत मन ने मान ली / हार छिपी देखकर / येन-केन जय गही
सावन में झूम-झूम, डालों से लूम-लूम,
झूला झूल दुःख भूल, हँसिए हँसाइये.
एक दूसरे की बाँह, गहें बँधें रहे चाह,
एक दूसरे को चाह, कजरी सुनाइये..
दिल में रहे न दाह, तन्नक पले न डाह,
मन में भरे उछाह, पेंग को बढ़ाइए.
राखी की है साखी यही, पले प्रेम-पाखी यहीं,
भाई-भगिनी का नाता, जन्म भर निभाइए..
*
बागी थे हों अनुरागी, विरागी थे हों सुहागी,
कोई भी न हो अभागी, दैव से मनाइए.
सभी के माथे हो टीका, किसी का न पर्व फीका,
बहनों का नेह नीका, राखी-गीत गाइए..
कलाई रहे न सूनी, राखी बाँध शोभा दूनी,
आरती की ज्वाल धूनी, अशुभ मिटाइए.
मीठा खाएँ मीठा बोलें, जीवन में रस घोलें,
बहना के पाँव छूलें, शुभाशीष पाइए..
*
बंधन न रास आये, बँधना न मन भाये,
स्वतंत्रता ही सुहाये, सहज स्वभाव है.
निर्बंध अगर रहें, मर्याद को न गहें,
कोई किसी को न सहें, चैन का अभाव है..
मना राखी नेह पर्व, करिए नातों पे गर्व,
निभायें संबंध सर्व, नेह का निभाव है.
बंधन जो प्रेम का हो, कुशल का क्षेम का हो,
धरम का नेम हो, 'सलिल' सत्प्रभाव है..
*
संकट में लाज थी, गिरी सिर पे गाज थी,
शत्रु-दृष्टि बाज थी, नैया कैसे पार हो?
करनावती महारानी, पूजतीं माता भवानी,
शत्रु है बली बहुत, देश की न हार हो..
राखी हुमायूँ को भेजी, बादशाह ने सहेजी,
बहिन की पत राखी, नेह का करार हो.
शत्रु को खदेड़ दिया, बहिना को मान दिया,
नेह का जलाया दिया, भेंट स्वीकार हो..
*
महाबली बलि को था, गर्व हुआ संपदा का,
तीन लोक में नहीं है, मुझ सा कोई धनी.
मनमानी करूँ भी तो, रोक सकता न कोई,
हूँ सुरेश से अधिक, शक्तिवान औ' गुनी..
महायज्ञ कर दिया, कीर्ति यश बल लिया,
हरि को दे तीन पग, धरा मौन था गुनी.
सभी कुछ छिन गया, मुख न मलिन हुआ,
हरि की शरण गया, सेवा व्रत ले धुनी..
बाधा दनु-गुरु बने, विपद मेघ थे घने,
एक नेत्र गँवा भगे, थी व्यथा अनसुनी.
रक्षा सूत्र बाँधे बलि, हरि से अभय मिली,
हृदय की कली खिली, पटकथा यूँ बनी..
विप्र जब द्वार आये, राखी बांध मान पाये,
शुभाशीष बरसाये, फिर न हो ठनाठनी.
कोई किसी से न लड़े, हाथ रहें मिले-जुड़े,
साथ-साथ हों खड़े, राखी मने सावनी..
*
कल :
कज्जल के कूट पर दीप शिखा सोती है कि, श्याम घन मंडल मे दामिनी की धारा है ।
भामिनी के अंक में कलाधर की कोर है कि, राहु के कबंध पै कराल केतु तारा है ।
शंकर कसौटी पर कंचन की लीक है कि, तेज ने तिमिर के हिये मे तीर मारा है ।
काली पाटियों के बीच मोहनी की माँग है कि, ढ़ाल पर खाँड़ा कामदेव का दुधारा है ।
काले केशों के बीच सुन्दरी की माँग की शोभा का वर्णन करते हुए कवि ने ८ उपमाएँ दी हैं.-
१. काजल के पर्वत पर दीपक की बाती.
२. काले मेघों में बिजली की चमक.
३. नारी की गोद में बाल-चन्द्र.
४. राहु के काँधे पर केतु तारा.
५. कसौटी के पत्थर पर सोने की रेखा.
६. काले बालों के बीच मन को मोहने वाली स्त्री की माँग.
७. अँधेरे के कलेजे में उजाले का तीर.
८. ढाल पर कामदेव की दो धारवाली तलवार.
कबंध=धड़. राहु काला है और केतु तारा स्वर्णिम, कसौटी के काले पत्थर पर रेखा खींचकर सोने को पहचाना जाता है. ढाल पर खाँडे की चमकती धार. यह सब केश-राशि के बीच माँग की दमकती रेखा का वर्णन है.
१०.४.२०१९

नवगीत

नवगीत
*
अब ओलंपिक में हो
चप्पलबाजी भी
*
तरस गए हम स्वर्ण पदक को
एक नहीं मिल पाया
किससे-कितना रोना रोयें
कोई काम न आया
हम सा निपुण न कोई जग में
आत्म प्रशंसा करने में
काम बंद कर, संसद ठप कर
अपनी जेबें भरने में
तीनों पदक हमीं पाएंगे
यदि हो धुप्पलबाजी भी
अब ओलंपिक में हो
चप्पलबाजी भी
*
दारू के ठेके दे-देकर
मद्य-निषेध कर रहे हम
दूरदर्शनी बहस निरर्थक
मन में ज़हर भर रहे हम
रीति-नीति-सच हमें न भाता
मनमानी के हामी हैं
पर उपदेश कुशल बहुतेरे
भ्रष्टाचारी नामी हैं
हों ब्रम्हांडजयी केवल हम
यदि हो जुमलेबाजी भी
अब ओलंपिक में हो
चप्पलबाजी भी
*
बीबी-बहू-बेटियाँ, बेटे
अपने मंत्री-अफसर हों
कोई हो सरकार, मरें जन
अपने उज्जवल अवसर हों
आम आदमी दबा करों से
धनिकों के ऋण माफ़ करें
करें देर-अंधेर, नहीं पर
न्यायालय इन्साफ करें
लोकतंत्र का दम निकले
ऐसी कुछ हो घपलेबाजी भी
अब ओलंपिक में हो
चप्पलबाजी भी
*

नवगीत

नवगीत:
चलो! कुछ गायें...
संजीव 'सलिल'
क्यों है मौन?
चलो कुछ गायें...
*
माना अँधियारा गहरा है.
माना पग-पग पर पहरा है.
माना पसर चुका सहरा है.
माना जल ठहरा-ठहरा है.
माना चेहरे पर चेहरा है.
माना शासन भी बहरा है.
दोषी कौन?...
न शीश झुकायें.
क्यों है मौन?
चलो कुछ गायें...
*
सच कौआ गा रहा फाग है.
सच अमृत पी रहा नाग है.
सच हिमकर में लगी आग है.
सच कोयल-घर पला काग है.
सच चादर में लगा दाग है.
सच काँटों से भरा बाग़ है.
निष्क्रिय क्यों?
परिवर्तन लायें.
क्यों है मौन?
चलो कुछ गायें...
*
१०-४-२०१०

नवगीत

नवगीत:
आओ! तम से लड़ें...
संजीव 'सलिल'
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***
माटी माता,
कोख दीप है.
मेहनत मुक्ता
कोख सीप है.
गुरु कुम्हार है,
शिष्य कोशिशें-
आशा खून
खौलता रग में.
आओ! रचते रहें
गीत फिर गायें जग में.
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***
आखर ढाई
पढ़े न अब तक.
अपना-गैर न
भूला अब तक.
इसीलिये तम
रहा घेरता,
काल-चक्र भी
रहा घेरता.
आओ! खिलते रहें
फूल बन, छायें जग में.
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***
१०.४.२०१०

नवगीत

नवगीत:
करो बुवाई...
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
ऊसर-बंजर जमीं कड़ी है.
मँहगाई जी-जाल बड़ी है.
सच मुश्किल की आई घड़ी है.
नहीं पीर की कोई जडी है.
अब कोशिश की
हो पहुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
उगा खरपतवार कंटीला.
महका महुआ मदिर नशीला.
हुआ भोथरा कोशिश-कीला.
श्रम से कर धरती को गीला.
मिलकर गले
हँसो सब भाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
मत अपनी धरती को भूलो.
जड़ें जमीं हों तो नभ छूलो.
स्नेह-'सलिल' ले-देकर फूलो.
पेंगें भर-भर झूला झूलो.
घर-घर चैती
पड़े सुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
१०.४.२०१०

नवगीत

नवगीत:
करना होगा...
हमको कुछ तो
करना होगा...
***
देखे दोष,
दिखाए भी हैं.
लांछन लगे,
लगाये भी है.
गिरे-उठे
भरमाये भी हैं.
खुद से खुद
शरमाये भी हैं..
परिवर्तन-पथ
वरना होगा.
हमको कुछ तो
करना होगा...
***
दीपक तले
पले अँधियारा.
किन्तु न तम की
हो पौ बारा.
डूब-डूबकर
उगता सूरज.
मिट-मिट फिर
होता उजियारा.
जीना है तो
मरना होगा.
हमको कुछ तो
करना होगा...
***
१०.४.२०१०

मुक्तक

मुक्तक
प्रश्न उत्तर माँगते हैं, घूरती चुप्पी
बनें मुन्ना भाई लें-दें प्यार से झप्पी
और इस पर भी अगर मन हो न पाए शांत
गाल पर शिशु के लगा दें प्यार से पप्पी
१०-४-२०१७
*

समीक्षा : व्यंग्य संग्रह मँहगाई का शुक्ल पक्ष - सुदर्शन सोनी

पुस्तक चर्चा-
'महँगाई का शुक्ल पक्ष'-सामयिक विसंगतियों की शल्यक्रिया
-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[पुस्तक विवरण- महँगाई का शुक्ल पक्ष, व्यंग्य लेख संग्रह, सुदर्शन कुमार सोनी, ISBN ९७८-९३-८५९४२-११-२, प्रथम संस्करण २०१६, आकार- २०.५ सेमी X १४ सेमी, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, लेमिनेटेड, पृष्ठ १४४, मूल्य १२०/-,बोधि प्रकाशन, ऍफ़ ७७, सेक्टर ९, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, दूरभाष ०१४१ २५०३९८९, ९८२६० १८०८७, व्यंग्यकार संपर्क- डी ३७ चार इमली, भोपाल, ४६२०१६, चलभाष ९४२५६३४८५२, sudarshanksoniyahoo.co.in ]
*
विवेच्य कृति एक व्यंग्य संग्रह है। संस्कृत भाषा का शब्द ‘व्यंग्य’ शब्द ‘अज्ज’ धातु में ‘वि’ उपसर्ग और ‘ण्यत्’ प्रत्यय के लगाने से बनता है। यह व्यंजना शब्द शक्ति से संबंधित है तथा ‘व्यंग्यार्थ’ के रूप में प्रयोग किया जाता है। आम बोलचाल में व्यंग्य को ‘ताना’ या ‘चुटकी’ कहा जाता है जिसका अर्थ है “चुभती हुई बात जिसका कोई गूढ़ अर्थ हो।” आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार “व्यंग्य कथन की एक ऐसी शैली है जहाँ बोलने वाला अधरोष्ठों में मुस्करा रहा हो और सुननेवाला तिलमिला उठे।” व्यंग्य सोद्देश्य, तीखा व तेज-तर्रार कथन है जिसका प्रभाव तिलमिला देने वाला होता है। कथन की एक शैली के रूप में जन्मा व्यंग्य क्रमश: साहित्य की ऊर्जस्वित विधा के रूप में विक्सित हो रहा है।
आज़ादी के बाद आमजन का रामराज की परिकल्पना से शासन-प्रशासन की व्यवस्था में मनोवांछित परिवर्तन न पाकर मोह-भंग हुआ। राजनैतिक-सामाजिक विद्रूपताओं ने व्यंग्य शैली को विधा का रूप धारण करने के लिए उर्वर जमीन प्रदान की है। व्यंग्य ‘जो गलत है’ उस पर तल्ख चोट कर ‘जो सही होना चाहिए’ उस सत्य ओर इशारा भी करता है। इसलिए व्यंग्य आमें साहित्य की केन्द्रीय विधा बनने की पूरी संभावना सन्निहित है। आधुनिक हिंदी साहित्य का व्यंग्य अंग्रेजी की 'सैटायर' विधा से प्रेरित है जिसमें व्यवस्था का मजान उदय जाता है। व्यंग्य में उपहास, कटाक्ष, मजाक, लुत्फ़, आलोचना तथा यत्किंचित निंदा का समावेश होता है।
इस पृष्ठ भूमि में सुदर्शन कुमार सोनी के व्यंग्य लेख संग्रह 'मँहगाई का शुक्ल पक्ष' को पढ़ना सैम सामयिक विसंगतियों से साक्षात् करने की तरह है। उनके व्यंग्य लेख न तो परसाई जी के व्यंग्य की तरह तिलमिलाते हैं, न शरद जोशी के व्यंग्य की तरह गुदगुदाते हैं, न लतीफ़ घोंघी के व्यंग्य लेखों की तरह गुदगुदाते हैं। सनातन सलिल नर्मदा तट स्थित संस्कारधानी जबलपुर में जन्में सुदर्शन जी प्रशासनिक अधिकारी हैं, अत: उनकी भाषा में गाम्भीर्य, अभिव्यक्ति में संतुलन, आक्रोश में मर्यादा तथा असहमति में संयम होना स्वाभाविक है। विवेच्य कृति के पूर्व उनके ३ कहानी संग्रह नजरिया, यथार्थ, जिजीविषा तथा एक व्यंग्य संग्रह 'घोटालेबाज़ न होने का गम' छप चुके हैं।
इस संग्रह में बैंडवालों से माफी की फरियाद, अनोखा मर्ज़, देश में इस समय दो ही काम बयान हो रहे हैं, सबके पेट पर लात, कुछ घट रहा है तो कुछ बढ़ रहा है, इट्स रेनिंग डिक्शनरीज एंड ग्रामर बुक्स, मँहगाई का शुक्ल पक्ष, चिर यौवनता की धनी, आज अफसर बहुत खुश है, आम और ख़ास, आवश्यकता नहीं उचक्कापन ही आविष्कार की जननी है, आई एम वोटिंग फॉर यू, धूमकेतु समस्या, सबसे ज्यादा असरकारी इंसान नहीं उसके रचे शब्द हैं, लाइन में लगे रहो, हाय मैंने उपवास रखा, नींद दिवस, समस्या कभी खत्म नहीं होती, सरकार के लिए कहाँ स्कोप है?, मीटिंग अधिकारी, देश का रोजनामचा, झाड़ू के दिन जैसे सबके फिरे, ये ही मेरे आदर्श हैं, फूलवालों की सैर, इन्सान नहीं परियोजनाएं अमर होती हैं, उदासी का सेलिब्रेशन, महिला सशक्तिकरण के सही पैमाने, नेता का पियक्कड़ से चुनावी मौसम में आमना-सामना, भरे पेट का चिंतन खालीपेट का चिंतन, पलटे पेटवाला आदमी, खूब जतन कर लिये नहीं हो पाया, मानसून व पत्नी की तुलना, अनोखी घुड़दौड़, रत्नगर्भा अभियान, पेड़ कटाई, बेचारे ये कुत्ते घुमानेवाले, जेनरेशन गैप इन कुत्तापालन, इंसान की पूंछ होती तो क्या होता?, इन्सान के इंजिन व ऑटोमोबाइल के हार्ट का परिसंवाद, धांसू अंतिम यात्रा की चाहत, 'अच्छे दिन आने वाले हैं' पर पीएच डी, आक्रोश ज़ोन तथा इन्सान तू सच में बहुरूपिया है शीर्षक ४३ व्यंग्य लेख सम्मिलित हैं।
प्रस्तुत संग्रह से देश के सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य में व्याप्त अराजकता के साथ-साथ हिंदी के भाषिक लिखित-वाचिक रूप में व्याप्त अराजकता का भी साक्षात् हो जाता है। व्यंग्यकार सुशिक्षित, अनुभवी और समृद्ध शब्द-भण्डार के धनी हैं। साहित्य का उद्देश्य मनोरंजन मात्र नहीं होता, वह भाषा के स्वरूप को संस्कारित भी करता है। नई पीढ़ी पुरानी पुस्तकों से ही भाषा को ग्रहण करती है। यह सर्वमान्य तथ्य है की किसी भाषा के श्रेष्ठ साहित्य में अन्य भाषा के शब्द आवश्यक होने पर ही लिये जाते हैं। विवेच्य कृति में हिंदी, संस्कृत, उर्दू तथा अंग्रेजी के शब्दों का उदारतापूर्वक और बहुधा उपयुक्त प्रयोग हुआ है। अप्रतिम, उत्तरार्ध, शाश्वत, अदृश्य, गरिष्ठ, अपसंस्कृति, वयस्कता जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्द, नून तलक, बावला, सयाना आदि देशज शब्द, खास, रिश्तों, खत्म, माशूक, अय्याश, खुराफाती, जंजीर जैसे उर्दू शब्द और क्रिकेट, एस एम एस, डोक्टर, इलेक्ट्रोनिक, डॉलर, सोफ्टवेयर जैसे अंग्रेजी शब्दों के समुचित प्रयोग से लेखों की भाषा जीवंत और सहज हुई है किन्तु ऐसे अंग्रेजी शब्द जिनके सरल, सहज और प्रचलित हिंदी शब्द उपलब्ध और जानकारी में हैं उनका प्रयोग न कर अंग्रेजी शब्द को ठूँसा जाना खीर में कंकर की प्रतीति कराता है। ऐसे शताधिक शब्दों में से कुछ इंटरेस्ट (रूचि), लेंग्थ (लंबाई), ड्रेस (पोशाक), क्वालिटी (गुणवत्ता), क्वांटिटी (मात्रा), प्लाट (भूखंड), साइज (परिमाप), लिस्ट (सूची), पैरेंट (अभिभावक), चैप्टर (अध्याय), करेंसी (मुद्रा), इमोशनल (भावनात्मक) आदि हैं। इससे भाषा प्रदूषित होती है।
कोढ़ में खाज यह कि मुद्रण-त्रुटि ने भी जाने-अनजाने शब्दों को विरूपित कर दिया है। महँगाई (बृहत हिंदी कोश, पृष्ठ ८७८) शब्द के दो रूप महंगाई तथा मंहगाई मुद्रित हुए हैं किन्तु दोनों ही गलत हैं। गजब यह कि 'मंह' का मतलब 'मुंह' बता दिग गया है। यह भाषा विज्ञानं के किस नियम से संभव है? यदि वह सन्दर्भ दे दिया जाता तो मुझ पाठक का ज्ञान बढ़ पाता। अनुस्वार तथा अनुनासिक के प्रयोग में भी स्वच्छन्दता बरती गयी है। 'ढ' और 'ढ़' के मुद्रण की त्रुटि ने 'मेंढक' को 'मेंढ़क' बना दिया। 'लड़ाई' के स्थान पर 'लड़ी', 'ढूँढना' के स्थान पर 'ढूंढ़ने' जैसी मुद्रण त्रुटी सम्भवत:शीघ्रता के कारण हुई हो क्योंकि प्रकाशक की अन्य पुस्तकें पथ्य त्रुटियों से मुक्त हैं। व्यंग्यकार का भाषा कौशल 'आम के आम गुठली के दाम', 'नाक-भौं सिकोड़ना' आदि मुहावरों तथा 'आवश्यकता अविष्कार की जननी है' जैसे सूक्ति वाक्यों के प्रयोग में निखरा है। 'लोकलीकरण' जैसे नये शब्द का प्रयोग लेखक की सामर्थ्य दर्शाता है। ऐसे प्रयोगों से भाषा समृद्ध होती है।
व्यंग्य लेखों के विषय सामयिक, चिन्तन सार्थक तथा भाषा शैली सहज ग्राह्य है। 'व्यंजना' शक्ति का अधिकाधिक प्रयोग भाषा के मारक प्रभाव में वृद्धि करेगा। पाठकों के बीच यह संग्रह लोकप्रिय होगा।
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