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गुरुवार, 14 नवंबर 2019

समीक्षा, नवगीत, योगेंद्र प्रताप मौर्य

कृति चर्चा :
'चुप्पियों को तोड़ते हैं' नव आशाएँ जोड़ते नवगीत 
चर्चाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति परिचय - चुप्पियों को तोड़ते हैं, नवगीत संग्रह, योगेंद्र प्रताप मौर्य, प्रथम संस्करण २०१९, ISBN ९७८-९३-८९१७७-८७-९, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, २०.५ से. मी .x १४से. मी., पृष्ठ १२४, मूल्य १५०/-, प्रकाशक - बोधि प्रकाशन, सी ४६ सुदर्शनपुरा इंडस्ट्रियल एरिया विस्तार, नाला मार्ग, २२  गोदाम, जयपुर ३०२००६, ईमेल bodhiprakashan@gmail.com, चलभाष ९८२९०१८०८७, दूरभाष ०१४१२२१३७, रचनाकार संपर्क - ग्राम बरसठी, जौनपुर २२२१६२ उत्तर प्रदेश, ईमेल yogendramaurya198384@gmail.com, चलभाष ९४५४९३१६६७, ८४००३३२२९४] 
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                                सृष्टि के निर्माण का मूल 'ध्वनि' है। वैदिक वांगमय में 'ओंकार' को मूल कहा गया है तो विज्ञान बिंग बैंग थ्योरी' की दुहाई देता है। मानव सभ्यता के विकास के बढ़ते चरण 'ध्वनि' को सुनना-समझना, पहचानना, स्मरण रखना, उसमें अन्तर्निहित भाव को समझना, ध्वनि की पुनरावृत्ति कर पाना, ध्वनि को अंकित कर सकना और अंकित को पुनः ध्वनि के रूप में पढ़-समझ सकना है। ध्वनि से आरम्भ कर ध्वनि पर समाप्त होने वाला यह चक्र सकल कलाओं और विद्याओं का मूल है। प्रकृति-पुत्र  मानव को ध्वनि का यह अमूल्य उपहार जन्म और प्रकृति से मिला। जन्मते ही राव (कलकल) करने वाली सनातन सलिला को जल प्रवाह के शांतिदाई कलकल 'रव' के कारण 'रेवा' नाम मिला तो जन्मते ही उच्च रुदन 'रव' के कारण  शांति हर्ता कैकसी तनय को 'रावण' नाम मिला। परम शांति और परम अशांति दोनों का मूल 'रव' अर्थात ध्वनि ही है। यह ध्वनि जीवनदायी पंचतत्वों में व्याप्त है। सलिल, अनिल, भू, नभ, अनल में व्याप्त कलकल, सनसन, कलरव, गर्जन, चरचराहट आदि ध्वनियों का प्रभाव देखकर आदि मानव ने इनका महत्व जाना। प्राकृतिक घटनाओं जल प्रवाह, जल-वृष्टि, आँधी-तूफ़ान, तड़ितपात, सिंह-गर्जन, सर्प की फुँफकार, पंछियों का कलरव-चहचहाहट, हास, रुदन, चीत्कार, आदि में अंतर्निहित अनुभूतियों की प्रतीति कर, उन्हें स्मरण रखकर-दुहराकर अपने साथियों को सजग-सचेत करना, ध्वनियों को आरम्भ में संकेतों फिर अक्षरों और शब्दों के माध्यम से लिखना-पढ़ना अन्य जीवों की तुलना में मानव के द्रुत और श्रेष्ठ विकास का कारण बना। 
                           नाद की देवी सरस्वती और लिपि, लेखनी, स्याही और अक्षर दाता चित्रगुप्त की अवधारणा व सर्वकालिक पूजन ध्वनि के प्रति मानवीय कृतग्यता ज्ञापन ही है। ध्वनि में 'रस' है। रस के बिना जीवन रसहीन या नीरस होकर अवांछनीय होगा। इसलिए 'रसो वै स:' कहा गया। वह (सृष्टिकर्ता रस ही है), रसवान भगवान और रसवती भगवती। यह रसवती जब 'रस' का उपहार मानव के लिए लाई तो रास सहित आने के कारण 'सरस्वती' हो गई। यह 'रस' निराकार है। आकार ही चित्र का जनक होता है। आकार नहीं है अर्थात चित्र नहीं है, अर्थात चित्र गुप्त है। गुप्त चित्र को प्रगट करने अर्थात निराकार को साकार करनेवाला अक्षर (जिसका क्षर न हो) ही हो सकता है। अक्षर अपनी सार्थकता के साथ संयुक्त होकर 'शब्द' हो जाता है। 'अक्षर' का 'क्षर' त्रयी (पटल, स्याही, कलम) से मिलन द्वैत को मिटाकर अद्वैत की सृष्टि करता है। ध्वनि प्राण संचार कर रचना को जीवंत कर देती है। तब शब्द सन्नाटे को भंग कर मुखर हो जाते हैं, 'चुप्पियों को तोड़ते हैं'। चुप्पियों को तोड़ने से संवाद होता है। संवाद में कथ्य  हो, रस हो, लय हो तो गीत बनता है। गीत में विस्तार और व्यक्तिपरक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति  होता है।  जब यह अनुभूति सार्वजनीन  संश्लिष्ट हो तो नवगीत बनता है।    

                                शब्द का अर्थ, रस, लय से संयोग सर्व हित साध सके तो साहित्य हो जाता है। सबका हित समाहित करता साहित्य जन-जन के कंठ में विराजता है। शब्द-साधना तप और योग दोनों है। इंद्र की तरह ध्येय प्राप्ति हेतु 'योग' कर्ता 'योगेंद्र' का 'प्रताप', पीड़ित-दलित मानव रूपी 'मुरा' से व्युत्पन्न 'मौर्य' के साथ संयुक्त होकर जन-वाणी से जन-हित साधने के लिए शस्त्र के स्थान पर शास्त्र का वरण करता है तो आदि कवि की परंपरा की अगली कड़ी बनते हुए काव्य रचता है। यह काव्य नवता और गेयता का वरण  कर नवगीत के रूप में सामने हो तो उसे आत्मसात करने का मोह संवरण कैसे किया जा सकता है? 

                                  कवि शब्द-सिपाही होता है। भाषा कवि का अस्त्र और शस्त्र  दोनों होती है। भाषा के साथ छल कवि को सहन नहीं होता। वह मुखर होकर अपनी पीड़ा को वाणी देता है -
लगा भाल पर 
बिंदी हिंदी-
ने धूम मचाई
बाहर-बाहर 
खिली हुयी 
पर भीतर से मुरझाई
लील गए हैं
अनुशासन को
फैशन के दीवाने
इंग्लिश देखो
मार रही है 
भोजपुरी को ताने

                                  गाँवों से नगरों की और पलायन, स्वभाषा बोलने में लज्जा और गलत ही सही विदेशी भाषा बोलने में छद्म गौरव की प्रतीति कवि को व्यथित करती है। 'अलगू की औरत' सम्बोधन में  गीतकार उस सामाजिक प्रथा को इंगित करता है, जिसमें विवाहित महिला की   पहचान उसके नाम से  नहीं, उसके पति के नाम से  की जाती है। गागर  में सागर भरने की तरह कही गयी अभिव्यक्ति में व्यंजना कवि के भावों को पैना बनाती है-
अलगू की 
औरत को देखो
बैठी आस बुने है
भले गाँव में 
पली-बढ़ी है
रहना शहर चुने है
घर की 
खस्ताहाली पर भी
आती नहीं दया है
सीख चुकी वह 
यहाँ बोलना
फर्राटे से 'हिंग्लिश'
दाँतों तले 
दबाए उँगली
उसे देखकर 'इंग्लिश'
हर पल फैशन 
में रहने का
छाया हुआ नशा है

                                  लोकतंत्र 'लोक' और 'तंत्र' के मध्य विश्वास का तंत्र है। जब जन प्रतिनिधियों का कदाचरण इस विश्वास को नष्ट कर देता है तब जनता जनार्दन की पीड़ा असहनीय हो  जाती है। राजनेताओं के मिथ्या आश्वासन, जनहित की अनदेखी कर मस्ती में लीन प्रशासन और खंडित होती  -आस्था से उपजी  विसंगति को कवि गीत के माध्यम से स्वर देता है -
संसद स्वयं 
सड़क तक आई
ले झूठा आश्वासन
छली गई फिर
भूख यहाँ पर
मौज उड़ाये शासन
लंबे-चौड़े
कोरे वादे
जानें पुनः मुकरना

                                  अपसंस्कृति के संक्रांति काल में समय से पहले सयानी होती सहनशीलता में अन्तर्निहित लाक्षणिकता पाठक को अपने घर-परिवेश की प्रतीत होती है। हर दिन आता अख़बार नकारात्मक समाचारों से भरा होता है जबकि सकारात्मक घटनाएँ खोजने से भी नहीं मिलतीं। बच्चे समय से पहले बड़े हो रहे हैं। कटु यथार्थ से घबराकर मदहोशी की डगर पकड़ने प्रवृत्ति पर कवि शब्दाघात करता है-
सुबह-सुबह
अखबार बाँचता
पीड़ा भरी कहानी
सहनशीलता 
आज समय से
पहले हुई सयानी
एक सफर की 
आस लगाये
दिन का घाम हुआ
अय्याशी 
पहचान न पाती
अपने और पराये
बीयर ह्विस्की 
'चियर्स' में
किससे कौन लजाये?             

                                   धर्म के नाम पर होता पाखंड कवि को सालता है। रावण से अधिक अनीति करनेवाले रावण को जलाते हुए भी अपने कुकर्मों पर नहीं लजाते। धर्म के नाम पर फागुन  में हुए रावण वध को कार्तिक में विजय दशमी से जोड़नेवाले भले ही इतिहास को झुठलाते हैं किन्तु कवि को विश्वास है कि अंतत: सच्चाई ही जीतेगी -
फिर आयी है 
विजयादशमी
मन में ले उल्लास
एक ओर 
कागज का रावण
एक ओर इतिहास
एक बार फिर
सच्चाई की
होगी झूठी जीत 

                                   शासक दल के मुखिया द्वारा बार-बार चेतावनी देना, अनुयायी भक्तों द्वारा चेतावनी की अनदेखी कर अपनी कारगुजारियाँ जारी रखी जाना, दल प्रमुख द्वारा मंत्रियों-अधिकारियों दलीय कार्यकर्ताओं के काम काम करने हेतु प्रेरित करना और सरकार का सोने रहना आदि जनतंत्री संवैधानिक व्यवस्थ के कफ़न में कील ठोंकने की तरह है -
महज कागजी
है इस युग के
हाकिम की फटकार
बे-लगाम 
बोली में जाने
कितने ट्रैप छुपाये
बहरी दिल्ली 
इयरफोन में
बैठी मौन उगाये
लंबी चादर 
तान सो गई

जनता की सरकार

                                 कृषि प्रधान देश को उद्योग प्रधान बनाने की मृग-मरीचिका में दम तोड़ते किसान की व्यथा ग्रामवासी कवि को विचलित करती है-
लगी पटखनी 
फिर सूखे से
धान हुये फिर पाई
एक बार फिर से
बिटिया की
टाली गयी सगाई
गला घोंटती 
यहाँ निराशा

टूट रहे अरमान

                               इन नवगीतों में योगेंद्र ने अमिधा, व्यंजना और लक्षणा तीनों  का यथावश्यक उपयोग किया है। इन नवगीतों की भाषा सहज, सरल, सरस, सार्थक और सटीक है। कवि जानता है कि शब्द  अर्थवाही होते हैं। अनुभूति को अभिव्यक्त  करते शब्दों की अर्थवत्ता मुख्या घटक है, शब्द का देशज, तद्भव, तत्सम या अन्य  भाषा से व्युत्पन्न हो पाठकीय दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं है, समीक्षक  भले ही नाक-भौं सिकोड़ते रहे-

उतरा पानी
हैंडपम्प का
हत्था बोले चर-चर
बिन पानी के
व्याकुल धरती
प्यासी तड़प रही है
मिट्टी में से
दूब झाँकती
फिर भी पनप रही है  
                                'दूब झाँकती', मुखर यहाँ अपराध / ओढ़कर / गाँधी जी की खादी, नहीं भरा है घाव / जुल्म का / मरहम कौन लगाये, मेहनत कर / हम पेट भरेंगे / दो मत हमें सहारे,  जैसे प्रयोग कम शब्दों में  अधिक कहने की सामर्थ्य रखते हैं। यह कवि कौशल योगेंद्र के उज्जवल भविष्य के प्रति आशा जगाता है। 

                               रूपक, उपमा आदि अलंकारों तथा बिम्बों-प्रतीकों के माध्यम से यत्र-तत्र प्रस्तुत शब्द-चित्र नवोदित की सामर्थ्य का परिचय देते हैं- 

जल के ऊपर
जमी बर्फ का
जलचर स्वेटर पहने
सेंक रहा है 
दिवस बैठकर
जलती हुई अँगीठी
और सुनाती
दादी सबको
बातें खट्टी-मीठी
आसमान 
बर्फ़ीली चादर
पंछी लगे ठिठुरने
दुबका भोर 
रजाई अंदर

बाहर झाँके पल-पल 

                                विसंगियों  के साथ आशावादी उत्साह का स्वर  नवगीतों को भीड़ से अलग, अपनी पहचान प्रदान करता है। उत्सवधर्मिता भारतीय जन जीवन के लिए के लिए संजीवनी का काम करती है। अपनत्व और जीवट के सहारे भारतीय जनजीवन यम के दरवाजे से भी सकुशल लौट आता है। होली का अभिवादन शीर्षक नवगीत नेह नर्मदा  प्रवाह का साक्षी है- 

ले आया ऋतुओं 
का राजा
सबके लिए गुलाल
थोड़ा ढीला 
हो आया है
भाभी का अनुशासन
पिचकारी
से करतीं देखो
होली का अभिवादन
किसी तरह का
मन में कोई
रखतीं नहीं मलाल
ढोलक,झाँझ,
मजीरों को हम
दें फिर से नवजीवन
इनके होंठों पर 
खुशियों का
उत्सव हो आजीवन
भूख नहीं 
मजबूर यहाँ हो

करने को हड़ताल

                              योगेंद्र नागर और ग्राम्य  दोनों परिवेशों और समाजों से जुड़े  होने के नाते दोनों स्थानों पर घटित विसंगतियों और जीवन-संघर्षों से सुपरिचित हैं। उनके लिए  किसान और श्रमिक, खेत और बाजार, जमींदार और उद्योगपति, पटवारी  और बाबू सिक्के के दो पहलुओं की तरह सुपरिचित प्रतीत होते हैं। उनकी अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों परिवेशों से समान रूप से सम्बद्ध  हो पाती है। इन नवगीतों  में अधिकाँश का एकांगी होना उनकी खूबी और खामी दोनों है। जनाक्रोश उत्पन्न  करने के इच्छुक जनों को विसंगतियों, विडंबनाओं, विद्रूपताओं, टकरावों और असंतोष का अतिरेकी चित्रण अभीष्ट प्रतीत होगा किंतु उन्नति, शांति, समन्वय, सहिष्णुता और ऐक्य की कामना कर रहे पाठकों को इन  गीतों में राष्ट्र गौरव, जनास्था और मेल-जोल, उल्लास-हुलास का अभाव खलेगा।   

                                'चुप्पियों को तोड़ते हैं' से योगेंद्र प्रताप मौर्य ने नवगीत के आँगन में प्रवेश किया है। वे पगडंडी को चहल-पहल करते देख किसानी अर्थात श्रम या उद्योग करने हेतु उत्सुक हैं। देश का युवा मन, कोशिश के दरवाजे पर दस्तक देता है - 

सुबह-सुबह 
उठकर पगडंडी
करती चहल-पहल है
टन-टन करे 
गले की घंटी
करता बैल किसानी

उद्यम निरर्थक-निष्फल नहीं होता, परिणाम लाता है- 

श्रम की सच्ची 
ताकत ही तो
फसल यहाँ उपजाती
खुरपी,हँसिया 
और कुदाली
मजदूरों के साथी


तीसी,मटर

चना,सरसों की
फिर से पकी फसल है
चूल्हा-चौका
बाद,रसोई
खलिहानों को जाती
देख अनाजों 
के चेहरों को
फूली नहीं समाती
टूटी-फूटी
भले झोपड़ी  

लेकिन हृदय महल है

नवगीत की यह भाव मुद्रा इस संकलन की उपलब्धि है। नवगीत के आँगन में उगती कोंपलें इसे 'स्यापा ग़ीत, शोकगीत या रुदाली नहीं, आशा गीत, भविष्य गीत, उत्साह गीत बनाने की दिशा में पग बढ़ा रही है। योगेंद्र प्रताप मौर्य की पीढ़ी यदि नवगीत को इस मुकाम पर ले जाने की कोशिश करती है तो यह स्वागतेय है। किसी नवगीत संकलन का इससे बेहतर समापन हो ही नहीं सकता। यह संकलन पाठक बाँधे ही नहीं रखता अपितु उसे अन्य नवगीत संकलन पढ़ने  प्रेरित भी करता है। योगेंद्र 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं। आशा की जानी चाहिए कि युवा योगेंद्र के आगामी नवगीत संकलनों में भारतीय जन मानस की उत्सवधर्मिता और त्याग-बलिदान की भावनाएँ भी अन्तर्निहित होकर उन्हें जन-मन से अधिक सकेंगी।  
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संपर्क : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्व  हिंदी संस्थान, ४०१ विजय  अपार्टमेंट, नेपियरटाउन , जबलपुर ४८२००१, 
चलभाष - ९४२५१८३२४४, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com 
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समीक्षा, नवगीत, प्रदीप शुक्ल

कृति चर्चा :
"गाँव देखता टुकुर-टुकुर" शहर कर रहा मौज

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण - गाँव देखता टुकुर-टुकुर, नवगीत संग्रह, नवगीतकार - प्रदीप कुमार शुक्ल, प्रथम संस्करण, वर्ष २०१८, आवरण - बहुरंगी, पेपरबैक, आकार - २१ से. x १४ से., पृष्ठ १०७, मूल्य ११०/-, प्रकाशक - रश्मि प्रकाशन लखनऊ, गीतकार संपर्क - एन.एच.१, सेक्टर डी, एलडीए कॉलोनी, कानपुर मार्ग, लखनऊ २२६०१२ चलभाष ९४१५०२९७१३ ]
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गाँव से शहरों की ओर निरंतर तथा दिन-ब-दिन बढ़ते पलायन के दुष्काल में, गाँव से आकर महानगर में बसे किन्तु यादों, संपर्कों और स्मृतियों के माध्यम से गाँव से निरन्तर जुड़े नवगीतकार डॉ. प्रदीप शुक्ल द्वारा अपने गाँव को समर्पित यह नवगीत कृति अपनी माटी में जमीं ही नहीं अपितु उससे जुडी हुई जड़ों का जीवंत दस्तावेज है। खड़ी बोली और अवधी के गंगो-जमुनी संगम को समेटे यह प्रति नवगीत पटल पर नवाचार का एक पृष्ठ जोड़ती है। पेशे से चिकित्सक डॉ. प्रदीप कुमार शुक्ल भली-भाँति जानते हैं कि दर्द की दवा किसी एक जीवन सत्व में नहीं, विविध जीवन सत्वों के सम्यक-समुचित समायोजन और सेवन में होती है। उनके नवगीत किसी एक तत्व को न तो अतिरेकी महत्व देते हैं, न ही किसी तत्व की अवहेलना करते हैं। मानवीय चेतना परिवेश, परंपरा और जीवन मूल्यों में विकसित होने के साथ उन्हें नवता प्रदान करती है। संवेदनशीलता नवगीत लेखन और रोग निदान दोनों के लिए उर्वरक का कार्य करती है। प्रदीप जी की बहुआयामी संवेदनशीलता "गुल्लू का गाँव" बाल गीत संग्रह में चांचल्य, "यहै बतकही" अवधी नवगीत संग्रह में पारिवारिक सारल्य तथा "अम्मा रहतीं गाँव में" एवं "गाँव देखता टुकुर-टुकुर" दोनों हिन्दी नवगीत संग्रहों में समरसता की सरस धार प्रवाहित करती है। प्रदीप जी वाचिक परंपरा में अमीर खुसरो प्रणीत कह मुकरियाँ रचने में भी निपुण हैं। यह पृष्ठभूमि उनके नवगीतों को रस, लय व् छंद से समृद्ध करती है। उनका 'रामदीन' रोजी मिलने - न मिलने के चक्रव्यूह में घिरा हगोने के बाद भी धुकुर पुकुर करते दिल से सुरसतिया की अनकही पीड़ा में साझेदार है। गाँवों से पलायन, आजीविका अवसरों का भाव, युवाओं के जाने से नष्ट होती खेती, कॉन्क्रीटी सड़कों से पशुओं के नष्ट होते खुर, गावों को निगलने के लिए तटपर शहर और अपने अस्तित्व खोने की आशंका से टुकुर-टुकुर तकते गाँव सब कुछ चंद शब्दों में बयां कर देना कवी की सामर्थ्य का परिचायक है -

यहाँ शहर में
सारा आलम
आँख खुली बस दौड़ रहा,
वहाँ गाँव में रामदीन
बस दिन उजास के जोड़ रहा
मनरेगा में काम मिलेगा?
दिल करता है धुकुर-पुकुर
सुरतिया के
दोनों लड़के
सूरत गए कमाने हैं
गेहूँ के खेतों में लेकिन
गिल्ली लगी घमाने हैं
लँगड़ाकर चलती है गैया
सड़कों ने खा डाले खुर
दीदा फाड़े शहर देखता
गाँव देखता टुकर-टुकर।
गीतज नवगीत विधा को सामाजिक विसंगति, समसामयिक विडंबना, पारिवारिक बिखराव, व्यक्तिगत दर्द, समष्टिगत पीड़ा, बेबस रुदन आदि का पर्याय माननकर शोकगीत, रुदाली या स्यापा बनाने की असफल कोशिश में निमग्न दुराग्रहियों को प्रदीप जी अपने नवगीतों में प्रकृति सौंदर्य के मनोरम शब्द चित्र अंकित कर सटीक और सशक्त उत्तर देते हैं -

जाड़े में धूप के बिछौने
गुड़हल की पत्ती से
लटक रहे मोती।
अलसाई सुबह बहुत
देर तलक सोती
खिड़की पर किरणों के
फुदक रहे छौने।

श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार निर्मल शुक्ल ठीक ही लिखते हैं - "जब व्यक्ति की अनुभूति, अपनी रागात्मक अवस्था में यथार्थ को छूती है तो गीत का जन्म होता है। यथर्थ की यह आतंरिक सच्चाई जब गहन अनुभूति से शब्द-रूप में परिवर्तित होती है तो उसकी लोक संवेदना सामाजिक सरोकारों से जुड़ जाती है।" व्यक्तिगत पीड़ा का यह सार्वजनीकरण डॉ. प्रदीप शुक्ल के गीतों में सहज दृष्टव्य है किन्तु यह एकाकी या अतिरेकी नहीं है। गीत-नवगीत को भारत-पाकिस्तान की तरह एक-दूसरे के लिए अश्पृश्य, सर्वथा भिन्न और अस्वीकार्य बनाने की जिद ठाने नासमझों को भारतीय परंपरा, संस्कृति और जीवन मूल्यों का समय सापेक्ष उल्लेख कर, प्रदीप जी अपनी रचनाओं में विद्रूपता से साथ सुरूपता का सम्यक सामंजस्य का नीर-क्षीर विवेक का परिचय देते हैं। 'गुलमुहर ने आज हमसे बात की' शीर्षक नवगीत की पंक्तियों में दिशाओं की महक महसूस कीजिए -

"प्यार से
पुचकार कर
उसने हमें विश्राम बोला
वहीं हमने देर तक
भटके हुए मन को टटोला
गुलमुहर ने फिर हमें
बातें कहीं उस रात की।

रात में उस रोज़
महकी थीं सभी चारों दिशाएँ
ओस भीगी रात में जब
खौल उठी थी शिराएँ

और फिर खामोशियाँ थीं
थम चुकी बरसात की

प्रदीप शुक्ल जी की अनेक रचनाएँ गीत-नवगीत दोनों के हाशियों या सीमा रेखाओं पर रची गई हैं। घर के आँगन में जाड़े की धूप का लजाना, कुहरे की चादर में शर्माना, गौरैया का उतरकर चूं-चूं-चूं बोलना, आहट सुनकर कुत्ते का आँखें खोलना और सन्नाटे का भागना जैसे छोटे-छोटे विवरण प्रदीप जी के नवगीतों का वैशिष्ट्य है। इस परिवेश में दर्द की झालं नकली, अतिरेकी या थोपी हुई नहीं लगती। जीवन में धूप-छाँव की तरह सुख-दुख आते-जाते रहते हैं, प्रदीप जी उनका सम्यक सम्मिश्रण करने की सामर्थ्य रखते है-

खड़ी हुई है धूप लजाई
घर के आँगन में

आलस बिखरा
हर कोने में
दुबकी पड़ी रजाई
भोर अभी कुहरे की चादर
में बैठी शरमाई....
.... उतरी है गौरैया
आकर
चूं चूं चूं बोली
आहट सुनकर सोये कुत्ते
ने आँखें खोलीं
दबे भागा
आनन-फानन में

रात रानी की महक से सुवासित 'साँझ का गीत' कको भी महका रहा है-

खिल-खिल कर
हँसते हैं दूर खड़े तारे
अभी और चमकेंगे
रात के दुलारे
उन से ही पूछेंगे
रात की कहानी
खुशबू से महकेगी
अभी रात रानी
चंदा उग आया है
बरगद की डाल

ओ अमलतास, कनेर की बात, गुलमुहर के फूल, देखो आगे मौलसिरी है, जैसे नवगीत पादप संसार, गर्मी का गीत, फागुन, फागुन है पसरा, बरखा, बारिश, मेघा आये रे, बारिश को आना था,अगहन, जाड़े की धूप, चैट, मई का गीत, आदि ऋतुचक्र , यह भारत देश है मेरा, सीमा पर चिट्ठी, याद आयीं अम्मा में संबंधों तथा कहाँ गए तुम पानी, प्यासा रहा शहर, अच्छे दिन अभी लौटे नहीं हैं आदि सामाजिक-राजनैतिक-पर्यावरणीय विसंगतियों पर केंद्रित हैं। प्रदीप जी के गीतों की वैषयिक विविधता उनकी सूक्ष्म अंतर्दृष्टि की परिचायक है। मुझे आश्चर्य नहीं होगा यदि आगामी संकलनों में रोगों पर केंद्रित दें। उनकी सृजन सामर्थ्य मौलिक और लीक से हटकर लिखने में विश्वास रखती है। 'कनेर की बात' बचपन की यादों से बाबस्ता है-

तुम कनेर की बात ना छेड़ो,
बचपन याद दिला जाता है,
हरी-भरी पतली डाली पर
एक नजर रक्खूँ माली पर
किसी तरह से मिल जाए वह
रख दूँ पूजा की थाली पर
बाबा कहते हैं ठाकुर को
पीला फूल बहुत भाता है

सामाजिक सौहार्द्र को क्षति पहुँचाते, मतभेदों को बढ़ाते नवगीतों की खरपतवार के बीच में प्रदीप शुक्ल के नवगीत पंकज पुष्पों की तरह अलग आनंदित करते हैं। इन गीतों की भाषा आक्रामक, तेवर विद्रोही, भाव मुद्रा टकराव प्रधान, भाषा पैनी, शब्द चुभते हुए नहीं हैं। रचनाकार विखंडन नहीं, सृजन और समन्वय का पक्षधर है। वह फिर से सूरज उगाने को गीत रचना का लक्ष्य मानता है। उसके गीतों में विसंगति सुसंगती स्थापित करने की पृष्ठभूमि का काम करती है। वह दर्द पर हर्ष की जय का गायक है। प्रदीप शुक्ल के नवगीत जीवन और जिजीविषा की जय गुँजाते हैं। 'मैं तो चलता हूँ' शीर्षक नवगीत प्रदीप जी के गीतों में नव हौसलों की बानगी पेश करता है। तुमको रुकना हो
रुक जाओ
मैं तो चलता हूँ.
माना बहुत कठिन है राहें
आगे बढ़ने की
मन में लेकिन है इच्छाएँ
सूरज चढ़ने की
तुम सूरज के किस्से गाओ
मैं बस चढ़ता हूँ

प्रदीप शुक्ल का चिकित्सक उन्हें सामाजिक परिवेश में नवगीतों के माध्यम से घाव लगाने या घावों को कुरेदने की मन:स्थिति से दूर है। वे गीतों के माध्यम से घावों की मरहम-पट्टी करते हैं या विसंगतियों से आहत-संत्रस्त मानों को राहत पहुँचाते हैं। सामाजिक विसंगतियों का अतिरेकी चित्रण कर, असंतोष की वृद्धि कर, जनक्रोश उत्पन्न करने के इच्छुक राजनैतिक प्रतिबद्धताओं से जुड़े तथाकथित नवगीतकारों के रुष्ट होने या उनके द्वारा अनदेखे किए जाने जोखिम उठाकर भी डॉ. प्रदीप शुक्ल गीत-नवगीत को रस-सलिला के दो किनारे मानते हुए सटीक भाव-बिम्बों और सम्यक प्रतीकों के द्वारा हैं जो कहा जाना सामाजिक समरसता के है। प्रसाद गुण संपन्न भाषिक शब्दावली और अमिधा में बात करते ये गीत-नवगीत अवध की सरजमीं को तरह-तरह से सजदा करते हैं। दादा, आम आये, पाठक को अपनी जड़ों से जोड़ते हैं। इन नवगीतों में आशावादिता का जो स्वर बार-बार उभरता है वह बहुमूल्य और दुर्लभ है। ऐसा नहीं है की समाज के अमांगलिक पक्ष की और से बंद कर ली गयी हैं। नए साल में क्या बदलेगा, यह भारत देश है मेरा आदि नवगीतों में दीपक अँधेरे की किन्तु अर्चा दीपक के प्रकाश की है। भावी नवगीत को के उन्नयन का साक्षी बनकर अपनी सामायिक-सामाजिक उपयोगिता सिद्ध करनी होगी, चिरजीवी होंगे। यह सृष्टि का सनातन सत्य है कि जो उपयोगी नहीं होता, मिटा जाता है। डॉ. प्रदीप शुक्ल के नवगीत अभिव्यक्ति विश्वम लखनऊ तथा विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के नवगीत सृजन आयोजनों की सार्थकता प्रमाणित करते हैं। जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण', यतीन्द्र नाथ 'राही', गिरि मोहन गुरु, दयाराम गुप्त 'पथिक', निर्मल शुक्ल, मधु प्रधान, अशोक गीते, पूर्णिमा बर्मन, संजीव 'सलिल', संध्या सिंह, जयप्रकाश श्रीवास्तव, डॉ. वीरेंद्र निर्झर, बसंत शर्मा, गोपालकृष्ण 'आकुल', कल्पना रामानी, शीला पांडे,, रामशंकर वर्मा, धीरज श्रीवास्तव, शुभम श्रीवास्तव ॐ, गरिमा सक्सेना, अवनीश त्रिपाठी, शशि पुरवार, रोहित रूसिया, छाया सक्सेना, मिथिलेश बड़गैया आदि का नवगीत सृजन नवगीतों में प्रकृति, परिवेश और समाज की विसंगतियों के साथ-साथ उल्लास, आशावादिता, पर्व, श्रृंगार, आदि के माध्यम सुसंगतियों को भी शब्दांकित किया गया है। डॉ. प्रदीप शुक्ल इसी गीत-गंगा महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। भविष्य में यह नवगीतीय भावधारा अधिकाधिक पुष्ट होना है।

'गाँव देखता टुकुर-टुकुर' के नवगीत विसंगतिवादियों को भले ही रुचें किन्तु सुसंगतिवादी इनका स्वागत करने के साथ ही आगामी संकलन की प्रतीक्षा करेंगे।
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संपर्क - आचार्य ' सलिल', विश्ववाणी ,४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१,
चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com
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बुधवार, 13 नवंबर 2019

नृत्य नाटिका वाग्देवी डॉक्टर चन्द्रा चतुर्वेदी


नृत्य नाटिका

वाग्देवी
डॉक्टर चन्द्रा चतुर्वेदी
*
[लेखिका परिचय - जन्म - १८ दिसंबर १९४५, पन्ना। आत्मजा - स्मृति शेष मोहनलाल नायक, जीवन साथी - आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी, शिक्षा- एम. ए. संस्कृत, "कालिदास और अश्वघोष के दार्शनिक सिद्धांतों का तुलनात्मक अध्ययन" पर शोधोपाधि। संप्रति- सेवानिवृत्त अधिष्ठाता विज्ञानं संकाय, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय। सृजन - पांचरात्र वैष्णव आगम के वैदिक आधार, कालिदास और अश्वघोष के दार्शनिक सिद्धांतों का तुलनात्मक अध्ययन, भाव मंजरी, उन्मेष काव्य संग्रह, संपर्क - एच.आई.जी. ८ शताब्दीपुरम, एम.आर.४, जबलपुर ४८२००२, चलभाष- ९४२५१५७८७३]
*


कह रही मधु ऋतु कथा, 
कैसे अवतरीं भगवती?
दृष्टिमयी सर्जना से उमगी थी नव सृष्टि
शून्य नभ जड़ प्रकृति, चहुँ दिश प्रलय विकल,
थिर जल स्तंभित अनल, था निश्चल अनिल
रुका काल का चिंतन-मंथन पल-पल
गाते हैं संरचना का इतिहास मधु मासी नव पल
जगत संग जीवन ही गति,
नियति है प्रलय में
दिन प्रहर प्रहर संध्या प्रातः,
घड़ी-घड़ी, अनवरत काल के सिरे
थमा थिर पल-छिन, थमी सृष्टि,
ब्रह्मा थे रुद्र भी संकोच में,
जड़ प्रकृति थी, थमी सृष्टि की धुरी।
ब्रह्मा रुद्र के अंतर्मन में
तब जगी विष्णु की स्मृति
सर्जक, पालक और संहारक हैं ब्र
ह्मा-विष्णु-महेश त्रिदेव।
रुद्र की थी दृष्टि नि:शेष,
आये विष्णु लिए संकल्प विशेष।
ब्रह्मा भी मनस-चक्षु से गढ़ने लगे संकल्प-विकल्प।
नि:शेष संकल्प और विकल्प जब आगत पथ में,
रचनाधर्मी दृष्टि नेह संचरण
हुई सृष्टि प्रक्रिया प्रगट तत्क्षण
संहारक सर्जक प्रेरणास्पद विष्णु-दर्शन
क्षण-क्षण शाश्वत निर्निमेष त्रिदेव दृष्टि मिलन
सच्चिदानंद घन विष्णु के दृष्टि नेहावर्तन, विह्वल स्पंदन
हुए रुद्र रोमांचित आकुल आनंदित संसृति संग नाद ब्रह्म।
व्यापी ध्वनि ओम शाश्वत ऋत की,
परस्पर दृष्टि विनिमय स्वीकृति,
ध्वनि-दृष्टि-दर्शन की चरम परिणति।
गढ़ने लगी सृष्टि की अनुकल्प संकल्प से
मनस-चक्षुओं में प्रगटी रूपवती सुंदरी
सर्वांग सुलक्षणा, कमलनयना सृष्टिमयी छवि।
चेतना के स्पंदन के गति के खुले द्वार।
चैतन्यमयी, जड़ प्रकृति बही वसंत बयार।
रम्यक् सम्यक् चहुँदिश, सुरभित मनोरम विस्तार
प्रकटी धरती पर थी स्वयं सृष्टि साकार।
काल की चौघड़ी, जगाने लगी संसार
नेह-दृष्टि उद्भूता, अद्भुत सरस्वती अवतार
शुभ्र नील-रक्तवर्णा, दिव्य रूप सर्जना
ब्रह्मा विष्णु रुद्र भी करें स्मित- वन्दना।
'कौन हो तुम हे देवि! दिव्यरूपा मनोरमा।
क्यों हुई है, तुम्हारी दिव्य अवतारणा यहाँ।'
''प्रश्न क्यों करते हैं देवाधिदेव त्रिदेव आप?
स्वयं प्रकट कर मुझे पूछते हो कौन मैं?"
"जगती की अवधारणा, करती मैं ही हूँ सृष्टि।
अब कहें किस भाँति, मैं देव रचूँ समष्टि?"
स्मित हास्य विष्णु का था, ब्रह्मा ने तब कहा-
अये मेरी मनस दृष्टि! अब करो साकार सृष्टि रचना
ब्राम्ही तप सिद्धा हुईं तब, दिव्य वर से ब्रह्मा के
ब्राह्मी ही एकाक्षरा, विभावरी और हैं सरस्वती
दृष्टिगोचर, दृष्टिभूता, दृष्टिमयी है सृष्टि।
ब्रह्मा के संकेत पर व्यापक जीव चराचर में
बुद्धिरूपिणी विज्ञानमयी तुम हो वीणावादिनी।
उनकी सुभग सहचरी प्रकृति, समष्टि में प्रतिबिंबित
प्राण-प्राण में बुद्धि-ज्ञान-कला-संगीत गुम्फित
हो तुम आद्या-आराध्या जगदंबा भगवती।
प्रज्ञा के मानस पटल की अधिष्ठात्री सरस्वती।
वाग्देवी! तुम ब्रह्म वर से हुईं व्यापक विविध रूप
प्रज्ञा, प्रेरणा, कल्पना, सर्जना, विचार, बुद्धि ज्ञान-संज्ञान की।
देवि ने ज्यों ही ज्यों दृष्टि सब ओर डाली
हुई कविता कामिनी की सर्जना प्रतिभा निराली।
जन्मी कविता सहृदयी साहित्य उद्भव सी
अगणित बिंब हैं शब्द ब्रह्म की थाती
करती प्राण प्रतिष्ठा स्मृति शक्ति की
फिर दृष्टि फिरी चहुँ ओर, वाग्देवी वीणाधारणी की।
गति, ताल, लय, छंद की, उद्भावना-धारणा जगी
मनुज-प्रकृति संगम सी वीणा- स्वर की झंकृति
जन्मी संगीत-विधा में नाद- ब्रह्म की संस्तुति।
बिखरे रंग, वास्तु-शिल्प, चित्रकला के नवोन्मेष
विकसीं चौंसठ कलायें, कलामयी हंसवाहिनी
तब दृष्टिबोधों से उनके नूतन परिवेश।
वीणावादिनी वाग्मयी कल्याणी देवि भगवती!
साहित्य, संगीत, कला की सर्जना कर रहीं।
चेतना के द्वार पर नयी दस्तक सी सुनतीं,
लगीं सोचने फिर विचारने सहृदय सरस सतरंग
आनन्द की हुई है सर्जना फिर क्या बाकी मानस मन में?
कल्पना स्मरण धारणा विविध बुद्धि के विलास की
कर अनुरंजना सहज सौम्य संस्कारों की रट अभ्यर्थना
पर कहीं क्या है शेष?, क्यों है अकुलाहट?
ठहरी अभी क्यों अंतस में विवेचना विशेष।
ऋत सत्य की भेरी सुनतीं ब्राम्ही भगवती
हँसी फिर आनंदमयी दृष्टि जो फिरी।
सत्य की चौखट पर आहट हुई विज्ञान की,
गति सत्य विश्लेषण की, यथार्थ की,
अणु-परमाणु, बिम्ब की, विद्युत की, ऊर्जा की।
पल-छिन ठिठके, लिये विज्ञान सत्य की भेरी
कृत्रिम दृष्टि (कैमरा) विज्ञान की बनी भौतिक शक्तिपात,
कल उपकरण आविष्करण जो हैं नित्य नूतन आस्वाद।
मुग्ध वासंती भोर में वाग्देवी, समूची सृष्टि करे अभिनंदन
दृष्टिदायिनी सृष्टिमयी शारदाम्बे!
शत-शत वंदन तव चरण कमलों में
शत शत वंदन, नमन नमन।।
(काव्य कृति उन्मेष से)
***

मंगलवार, 12 नवंबर 2019

नवगीत : काल बली है

नवगीत :
काल बली है
बचकर रहना
सिंह गर्जन के
दिन न रहे अब
तब के साथी?
कौन सहे अब?
नेह नदी के
घाट बहे सब
सत्ता का सच
महाछली है
चुप रह सहना
कमल सफल है
महा सबल है
कभी अटल था
आज अचल है
अनिल-अनल है
परिवर्तन की
हवा चली है
यादें तहना
ये इठलाये
वे इतराये
माथ झुकाये
हाथ मिलाये
अख़बारों
टी. व्ही. पर छाये
सत्ता-मद का
पैग ढला है
पर मत गहना
बिना शर्त मिल
रहा समर्थन
आज, करेगा
कल पर-कर्तन
कहे करो
ऊँगली पर नर्तन
वर अनजाने
सखा पुराने
तज मत दहना
***

नवगीत

नवगीत
*
सहनशीलता कमजोरी है
सीनाजोरी की जय
*
गुटबंदीकर
अपनी बात कहो
ताली पिटवाओ।
अन्य विचार
न सुनो; हूटकर
शालीनता भुलाओ।
वृद्धों का
अपमान करो फिर
छाती खूब फुलाओ।
श्रम की कद्र
न करो, श्रमिक के
हितकारी कहलाओ।
बातें करें किताबी पर
आचरण न किंचित है भय
*
नहीं गीत में
छंद जरूरी
मिथ्या भ्रम फैलाते।
नव कलमों को
गलत दिशा में
नाहक ही भटकाते।
खुद छंदों में
नव प्रयोग कर
आगे बढ़ते जाते।
कम साहित्य,
सियासत ज्यादा
करें; घूम मदमाते।
मौन न हारे,
शोर न जीते,
हो छंदों की ही जय
*
एक विधा को
दूजी का उच्छिष्ट
बताकर फूलो।
इसकी टोपी
उसके सर धर
सुख-सपनों में झूलो।
गीत न आश्रित
कविता-ग़ज़लों का
यह सच भी भूलो।
थाली के पानी में
बिम्ब दिखा कह
शशि को छू लो।
छद्म दर्द का,
गुटबंदी का,
बिस्तर बँधना है तय
*
संजीव
१२-११-२०१९

दोहे


एक दोहा 
छठ पूजन कर एक दिन, शेष दिवस नाबाद
दूध छठी का कराती, गृहस्वामी को याद 


अनपढ़ पढ़ता अनलिखा, समझ-बूझ चुपचाप.
जीवन पुस्तक है बडी, अक्षर-अक्षर आप.
*
छठ के दोहे
*
छठ पूजन कर एक दिन, शेष दिवस नाबाद
दूध छठी का कराती, गृहस्वामी को याद
*
हरछठ पर 'हऱ' ने किए, नखरे कई हजार
'हिज़' बेचारा उठाता, नखरे बाजी हार
*
नाक-शीर्ष से सर तलक, भरी देख ले माँग
माँग न पूरी की अगर, बच न सकेगी टाँग
*
'मी टू' छठ का व्रत रही, तू न रहा क्यों बोल?
ढँकी न अब रह सकेगी, खोलेगी वह पोल
*
माँग नहीं जिसकी भरी, रही एक वर माँग
माँग भरे वह कर सके, जो पूरी हर माँग

*