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सोमवार, 3 सितंबर 2018

vimarsh devata

विमर्श:
प्रश्न-
देवता कौन हैं?
उत्तर-
देवता, 'दिव्' धातु से बना शब्द है, अर्थ 'प्रकाशमान होना' है। भावार्थ परालौकिक शक्ति जो अमर, पराप्राकृतिक है और पूजनीय है। देवता या देव इस तरह के पुरुष और देवी इस तरह की स्त्रियों को कहा गया है। देवता परमेश्वर (ब्रह्म) का लौकिक या सगुण रूप माने गए हैं।
बृहदारण्य उपनिषद के एक आख्यान में प्रश्न है कि कितने देव हैं? उत्तर - वास्तव में देव केवल एक है जिसके कई रूप हैं। पहला उत्तर है ३३ कोटि (प्रकार); और पूछने और पूछने पर ३ (विधि-हरि-हर या ब्रम्हा-विषय-महेश) फिर डेढ और फिर केवल एक (निराकार जिसका चित्र गुप्त है अर्थात नहीं है)। वेद मन्त्रों के विभिन्न देवता है। प्रत्येक मन्त्र का ऋषि, कीलक और देवता होता है।
देवताओं का वर्गीकरण- चार मुख्य प्रकार
१. स्थान क्रम से वर्णित देवता -- द्युस्थानीय यानी ऊपरी आकाश में निवास करने वाले देवता, मध्यस्थानीय यानी अन्तरिक्ष में निवास करने वाले देवता, और तीसरे पृथ्वीस्थानीय यानी पृथ्वी पर रहने वाले देवता माने जाते हैं।
२. परिवार क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में आदित्य, वसु, रुद्र आदि को गिना जाता है।
३. वर्ग क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में इन्द्रावरुण, मित्रावरुण आदि देवता आते हैं।
४. समूह क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में सर्व देवा (स्थान, वस्तु, राष्ट्र, विश्व
आदि) की गिनती की जाती है।
ऋग्वेद में स्तुतियों से देवताओं की पहचान की जाती है। ये देवता अग्नि, वायु, इंद्र, वरुण, मित्रावरुण, अश्विनीकुमार, विश्वदेवा, सरस्वती, ऋतु, मरुत, त्वष्टा, ब्रहस्पति, सोम, दक्षिणा इन्द्राणी, वरुणानी, द्यौ, पृथ्वी, पूषा आदि हैं। बहु देवता न माननेवाले सब नामों का अर्थ परब्रह्म परमात्मा वाचक करते है। बहुदेवतावादी परमात्मात्मक रूप में इनको मानते है। पुराणों में इन देवताओं का मानवीकरण अथवा लौकिकीकरण हुआ, फ़िर इनकी मूर्तियाँ, सम्प्रदाय, अलग अलग पूजा-पाठ बनाये गए।
धर्मशास्त्र में सबसे "तिस्त्रो देवता".(तीन देवता) ब्रह्मा, विष्णु और शिव का उदय हुआ। इनका कार्य सृष्टि का निर्माण, इसका पालन और संहार माना जाता है। काल-क्रम से देवों की संख्या बढ़ती गयी। निरुक्तकार यास्क के अनुसार," देवताऒ की उत्पत्ति आत्मा से है"। महाभारत के (शांति पर्व) में आदित्यगण क्षत्रिय देवता, मरुदगण वैश्य देवता, अश्विनी गण शूद्र देवता और अंगिरस ब्राहमण देवता माने गए हैं। शतपथ ब्राह्मण में भी इसी प्रकार से देवताओं को माना गया है।
आदित्या: क्षत्रियास्तेषां विशस्च मरुतस्तथा, अश्विनौ तु स्मृतौ शूद्रौ तपस्युग्रे समास्थितौ, स्मृतास्त्वन्गिरसौ देवा ब्राहमणा इति निश्चय:, इत्येतत सर्व देवानां चातुर्वर्नेयं प्रकीर्तितम
शुद्ध बहु ईश्वरवादी धर्मों में देवताओं को पूरी तरह स्वतन्त्र माना जाता है।प्रमुख वैदिक देवता गणेश (प्रथम पूज्य), सरस्वती, श्री देवी (लक्ष्मी), विष्णु, शक्ति (दुर्गा, पार्वती), शंकर, कृष्ण, इन्द्र, सूर्य, हनुमान, ब्रह्मा, राम, वायु, वरुण, अग्नि, शनि , कार्तिकेय, शेषनाग, कुबेर, धन्वंतरि, विश्वकर्मा आदि हैं।

muktika

मुक्तिका:
हाथ में हाथ रहे...
संजीव वर्मा 'सलिल'
* *
हाथ में हाथ रहे, दिल में दूरियाँ आईं.
दूर होकर ना हुए दूर- हिचकियाँ आईं..
चाह जिसकी न थी, उस घर से चूड़ियाँ आईं..
धूप इठलाई तनिक, तब ही बदलियाँ आईं..
गिर के बर्बाद ही होने को बिजलियाँ आईं.
बाद तूफ़ान के फूलों पे तितलियाँ आईं..
जीते जी जिद ने हमें एक तो होने न दिया.
खाप में तेरे-मेरे घर से पूड़ियाँ आईं..
धूप ने मेरा पता जाने किस तरह पाया?
बदलियाँ जबके हमेशा ही दरमियाँ आईं..
कह रही दुनिया बड़ा, पर मैं रहा बच्चा ही.
सबसे पहले मुझे ही दो, जो बरफियाँ आईं..
दिल मिला जिससे, बिना उसके कुछ नहीं भाता.
बिना खुसरो के न फिर लौट मुरकियाँ आईं..
नेह की नर्मदा बहती है गुसल तो कर लो.
फिर न कहना कि नहीं लौट लहरियाँ आईं..
*********************************
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम 

muktika machhliyan

मुक्तिका
मछलियाँ
संजीव 'सलिल'
*
कामनाओं की तरह, चंचल-चपल हैं मछलियाँ.
भावनाओं की तरह, कोमल-सबल हैं मछलियाँ..
मन-सरोवर-मथ रही हैं, अहर्निश ये बिन थके.
विष्णु का अवतार, मत बोलो निबल हैं मछलियाँ..
मनुज तम्बू और डेरे, बदलते अपने रहा.
सियासत करती नहीं, रहतीं अचल हैं मछलियाँ..
मलिनता-पर्याय क्यों मानव, मलिन जल कर रहा?
पूछती हैं मौन रह, सच की शकल हैं मछलियाँ..
हो विदेहित देह से, मानव-क्षुधा ये हर रहीं.
विरागी-त्यागी दधीची सी, 'सलिल' है मछलियाँ..
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दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

doha yamak

दोहा सलिला:
यमक का रंग दोहा के संग-
.....नहीं द्वार का काम
संजीव 'सलिल'
*
मन मथुरा तन द्वारका, नहीं द्वार का काम.
प्राणों पर छा गये है, मेरे प्रिय घनश्याम..
*
बजे राज-वंशी कहे, जन-वंशी हैं कौन?
मिटे राजवंशी- अमिट, जनवंशी हैं मौन..
*
'सज ना' सजना ने कहा, कहे: 'सजाना' प्रीत.
दे सकता वह सजा ना, यही प्रीत की रीत..
*
'साजन! साज न लाये हो, कैसे दोगे संग?'
'संग-दिल है संगदिल नहीं, खूब जमेगा रंग'..
*
रास खिंची घोड़ी उमग, लगी दिखने रास.
दर्शक ताली पीटते, खेल आ रहा रास..
*
'किसना! किस ना लौकियाँ, सकूँ दही में डाल.
जीरा हींग बघार से, आता स्वाद कमाल'..
*
भोला भोला ही 'सलिल', करते बम-बम नाद.
फोड़ रहे जो बम उन्हें, कर भी दें बर्बाद..
*
अर्ज़ किया 'आदाब' पर, वे समझे आ दाब.
वे लपके मैं भागकर, बचता फिर जनाब..
*
शब्द निशब्द अशब्द हो, हो जाते जब मौन.
मन से मन तक 'सबद' तब, कह जाता है कौन??
*
रात अलार्म लगा गयी, सपनों की बारात
खुली आँख गायब, दिखी बंद आँख सौगात
*

muktika

मुक्तिका:
हाथ में हाथ रहे...
संजीव वर्मा 'सलिल'
* *
हाथ में हाथ रहे, दिल में दूरियाँ आईं.
दूर होकर ना हुए दूर- हिचकियाँ आईं..
.
चाह जिसकी न थी, उस घर से चूड़ियाँ आईं..
धूप इठलाई तनिक, तब ही बदलियाँ आईं..
.
गिर के बर्बाद ही होने को बिजलियाँ आईं.
बाद तूफ़ान के फूलों पे तितलियाँ आईं..
.
जीते जी जिद ने हमें एक तो होने न दिया.
खाप में तेरे-मेरे घर से पूड़ियाँ आईं..
.
धूप ने मेरा पता जाने किस तरह पाया?
बदलियाँ जबके हमेशा ही दरमियाँ आईं..
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कह रही दुनिया बड़ा, पर मैं रहा बच्चा ही.
सबसे पहले मुझे ही दो, जो बरफियाँ आईं..
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दिल मिला जिससे, बिना उसके कुछ नहीं भाता.
बिना खुसरो के न फिर लौट मुरकियाँ आईं..
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नेह की नर्मदा बहती है गुसल तो कर लो.
फिर न कहना कि नहीं लौट लहरियाँ आईं..
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salil.sanjiv @gmail.com, ९४२५१८३२४४
http ://divyanarmada.blogspot.com
#हिंदी_ब्लॉगर.

lekh

लेख -
वर्तमान संक्रांतिकाल में सामाजिक समरसता 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
साहित्यिक-सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के वर्तमान संक्रमण काल में राजनैतिक नेतृत्व के प्रति जनमानस की आस्था डगमगाना चिंता और चिंतन दोनों का विषय है। आत्मोत्सर्ग और बलिदान के पथ से स्वातँत्र्योपासना करनेवाले बलिपंथियों के सिरमौर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के अदृश्य होने, जबलपुर तथा मुम्बई में भारतीय सेना की इकाइयों द्वारा विद्रोह करने, द्वितीय विश्वयुध्द पश्चात् इंग्लैण्ड की डाँवाडोल होती परिस्थिति ने ब्रिटेन को भारत से हटने के लिए बाध्य कर दिया। अंधे के हाथ बटेर लगने की तरह देश के स्वतंत्र होने का श्रेय कोंग्रेस को मिला जिसने गाँधी-नेहरू की अयथार्थवादी-आत्मकेंद्रित विचार धारा को शासन प्रणाली का केंद्र बना कर कश्मीर को गाँव दिया जबकि अन्य रियासतों को सरदार पटेल ने येन-केन-प्रकारेण बचा लिया।

देश के विभाजन से जनमानस पर लगे घावों के भरने के पूर्व ही गाँधी-हत्या ने राष्ट्रवादी हिन्दू शक्तियों को हाशिये पर डाल दिया। हिन्दू महासभा और जनसंघ बहुमत नहीं पा सके, समाजवादी वैचारिक बिखराव के शिकार होकर आपस में ही टकराते रहे, साम्यवादी अतिरेकी और एकतरफा क्रांति की भ्रांति में उलझे रह गए और कोंग्रस सत्तासीन होकर भ्रष्टाचार की इबारतें गढ़ती रही। फलत:, सामाजिक संरचना सतत क्षतिग्रस्त होती रही। विनोबा भावे ने सर्वोदय के माध्यम से सत-शिव-सुन्दर के प्रति जनास्था जगाने का प्रयास किया किन्तु वह तूफ़ान में दिए की लौ की तरह टिमटिमाता रह गया। १९६२ में चीन के विश्वासघात पूर्ण आक्रमण तथा नेहरू की मृत्यु ने पराभव की जो कालिमा देश के चेहरे पर पोती उससे निजात लालबहादुर शास्त्री ने पाकिस्तान को पटकनी देकर तथा इंदिरा गाँधी ने पाकिस्तान के एक हिस्से को बांग्ला देश बनवाकर दिलाई।
सामाजिक समरसता भंग हुई आपातकाल की घोषणा के साथ। कारावास में विविध विचारधारा के नेताओं का मोहभंग हुआ और समन्वय बिना मुक्ति की राह अवरुद्ध देखकर, सब नेता और दल जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक साथ आ खड़े हुए। केर-बेर का संग या चूं-चूं का मुरब्बा बहुत दिन टिक नहीं सका और आम आदमी की आशाओं पर तुषारापात करते दल फिर बिखराव की राह पर चल पड़े। राजनैतिक घटाटोप के स्वातंत्र्योत्तर काल में गुरु गोलवलकर, सत्य साईं बाबा, महर्षि महेश योगी, ओशो, आचार्य श्री राम शर्मा, स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी, रविशंकर आदि ने धर्म-दर्शन के आधार पर सामाजिक समरसता को बचाने-बढ़ाने का कार्य किया जिसे सरकारों से कोई सहयोग नहीं मिला। कोंग्रेस सरकारों द्वारा प्रताड़ना के बावजूद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने राष्ट्र-धर्म की ज्योति न केवल जलाये रखी अपितु संकट काल में समर्पण भाव से जनसेवा के मापदण्ड भी बनाये।
सामाजिक समरसता के समर्थक गुरु गोलवलकर के चिंतन का मूलाधार सत्य के प्रति आस्था, राष्ट्र के प्रति समर्पण, आम आदमी से जुड़ाव, आध्यात्म तथा वैश्विकता था। निर्भयता तथा निर्वैर्यता का वरण कर सबको समान समझने और सबके काम आने की विचारधारा देश के कोने-कोने में ही स्वयं सेवकों की अपराजेय वाहिनी नहीं खड़ी की अपितु अगणित स्वयंसेवकों को विविध देशों में प्रवासी बनाकर भेजा और भारतीय राष्ट्रवाद को धीरे-धीरे विश्ववाद का पर्याय बना दिया। गुरूजी ने 'हिंदू' शब्द को पंथ या संप्रदाय के स्थान पर सनातन मानव सभ्यता, मनुष्यता और वैश्विकता के पर्याय रूप में परिभाषित किया। उन्होंने हिंदू समाज के पतन को राष्ट्र के पराभव का कारण मानकर राष्ट्रोन्नति हेतु समाजोन्नति तथा समाजोन्नति हेतु भेद-भाव को भुलाकर एकात्मता, एकरसता तथा समरसता की स्थापना को अपरिहार्य बताया।
सनातन सभ्यता और समन्वयवादी सभ्यता के जनक भारत ने सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और वर्तमान कलियुग में आतताइयों का उद्भव, आतंक, संघर्ष और पराभव बार-बार देखा है। देश की माटी साक्षी है कि सत-शिव-सुंदर जीवन-मूल्यों पर कितने ही विकट संकट आयें, अंतत: समाप्त हो ही जाते हैं। अक्षय, अजर, अमर, अटल, अचल अमिट सत-चित-आनंद ही है। आधुनिक काल में भी विविध देशों में कई विचारकों और पंथ गुरुओं ने सामाजिक समरसता के स्वप्न देखे किंतु उन्हीं के अनुयायियों ने उन स्वप्नों को साकार न होने दिया। बुद्ध, महावीर, ईसा मसीह, मुहम्मद पैगंबर और कार्ल मार्क्स ने आदर्श समाज, नर-नारी सद्भाव, सर्व मानव समानता, शांति, सुख, सहकार आदि की कामना की किन्तु उन्हीं के अनुयायियों ने न केवल अन्य पंथों और देशों के अगणित लोगों को तो मारा ही, उसके पहले अपने ही देश में सहयोगियों को लूटा-मारा। गुरूजी ने नया पंथ स्थापित न कर अपने अनुयायियों को भटकने और मारने-मरने से विरत कर राष्ट्र-धर्म की उपासना और राष्ट्र-निर्माण के महायज्ञ में लगाये रखा। इसका परिणाम पाश्चात्य जीवन-पद्धति और शिक्षा-प्रणाली के प्रति अंध मोह के बावजूद सनातन-सात्विक-सद्भावपरक मूल्यों का पराभव न होने के रूप में हमारे सामने है। यह स्थिति तब है जब कि स्वतंत्रता-पश्चात् शासन-प्रशासन ने राष्ट्रीय शक्तियों की उपेक्षा ही नहीं की, दमन भी किया। यदि सनातन धर्म प्रणीत सामाजिक समरसता को भारत सरकार तथा प्रांतीय सरकारों ने स्थानीय निकायों के माध्यम से क्रियान्वित किया होता तो वर्तमान में भारत विश्व का सिरमौर होता।
अनेकता में एकता भारतीय संस्कृति की विशेषता है। सामाजिक जीवन में व्याप्त केंद्रीय भाव के आधार पर मानव सभ्यता का ४ युगों में काल विभाजन किया जाना इसका प्रमाण है। मानव मात्र में समानता, संपत्ति पर सबके सामूहिक अधिकार, हर एक को अपनी आवश्यकतानुसार संसाधनों के उपयोग था। कर्तव्य पालन को धर्म की संज्ञा दी गयी। अपने धर्म का पालन राजा-प्रजा सब के लिए अनिवार्य था। समाज की समन्वित धारणा (सुचारु कार्य विभाजन हेतु वर्ण व्यवस्था, सबके उन्नयन हेतु विप्रों (विद्वानों) को परामर्श / शिक्षा दान का कार्य दिया गया। बाह्य तथा आतंरिक विघ्न संतोषियों से आम जान की रक्षा हेतु समर्थ क्षत्रियों को सैन्य दल गठित कर रक्षा कार्य क्षत्रियों को सौंप गया। दैनन्दिन आवश्यकताओं और अकाल, जलप्लावन, तूफ़ान आदि आपदाओं या आक्रमण काल के समय उपयोगी वस्तुओं के आदान-प्रदान और क्रय-विक्रय का दायित्व वैश्यों ने सम्हाला। आतंरिक व्यवस्था बनाये रखने हेतु शेष सेवा कार्य शूद्रों ने जिम्मे किया गया। कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए एक वर्ग द्वारा अन्य वर्ग के कार्य में हस्तक्षेप दण्डनीय था। शम्बूक को इसी आधार पर दण्डित किया गया। वह शूद्र के साथ राजन्य वर्ग का अनाचार नहीं निर्धारित रीति का पालन मात्र था। शूद्र उपेक्षित और शोषित होते तो एक धोबी जन प्रतिनिधि के आरोप पर राजमहिषि सीता को वनवास न जाना पड़ता। बाली, रावण, कंस और कौरवों को राजा होते हुए भी मर्यादा भंग करने पर सत्ता ही नहीं प्राण भी गँवाने पड़े।
समाज की धारणा करने वाली तथा ऐहिक और पारलौकिक सुख को संप्रदान करनेवाली शक्ति को ही हमने धर्म की संज्ञा दी है। अखंड मंडलाकार विश्व को एकात्मता का साक्षात्कार कराने वाले धर्म के आधार पर प्रत्येक अपनी प्रकृति को जानकर दूसरे के सुख के लिए काम करता है। सत्ता न होते हुए भी केवल धर्म के कारण न तो एक दूसरे पर आघात होते थे न आपस में संघर्ष ही होता था। चराचर के साथ एकात्मता का साक्षात्कार होने के कारण किसी प्रकार बाह्य नियंत्रण न होते हुए भी मनुष्य 'नायं हन्ति न हन्यते' के भाव के अनुसार पूर्ण शांति व्यवहार करता है। समता तत्व को लेकर स्वामी विवेकानन्द जी के चिंतन में भगवान बुद्ध के उपदेश का आधार मिलता है। वे कहते हैं ‘‘आजकल जनतंत्र और सभी मनुष्यों में समानता इन विषयों के संबंध में कुछ सुना जाता है, परंतु हम सब समान हैं, यह किसी को कैसे पता चले ? उसके लिए तीव्र बुद्धि तथा मूर्खतापूर्ण कल्पनाओं से मुक्त इस प्रकार का भेदी मन होना चाहिये. मन के ऊपर परतें जमाने वाली भ्रमपूर्ण कल्पनाओं का भेद कर अंतःस्थ शुद्ध तत्व तक उसे पहुंच जाना चाहिये. तब उसे पता चलेगा कि सभी प्रकार की पूर्ण रूप से परिपूर्ण शक्तियां ये पहले से ही उसमें हैं. दूसरे किसी से उसे वे मिलने वाली नहीं। उसे जब इसकी प्रत्यक्ष अनुभूति प्राप्त होगी, तब उसी क्षण वह मुक्त होगा तथा वह समत्व प्राप्त करेगा। उसे इसकी भी अनुभूति मिलेगी कि दूसरा हर व्यक्ति ही उसी समान पूर्ण है तथा उसे अपने बंधुओं के ऊपर शारीरिक, मानसिक अथवा नैतिक किसी भी प्रकार का शासन चलाने की आवश्यकता नहीं। खुद से निचले स्तर का और कोई मनुष्य है, इस कल्पना को तब वह त्याग देता है, तब ही वह समानता की भाषा का उच्चारण कर सकता है, तब तक नहीं।’’ (भगवान बुद्ध तथा उनका उपदेश स्वामी विवेकानन्द, पृष्ठ ‘28)
समरसतापूर्वक व्यवहार से स्वातंत्र्य, समता और बंधुता इन तीन तत्वों को साधा जा सकता है। दुर्भाग्य से हिन्दू समाज की रचना इन तीन तत्वों के आधार पर नहीं हुई है। जिस समाज रचना में उच्च तत्व व्यवहार्य हों, वही समाज रचना श्रेष्ठ है. जिस समाज रचना में वे व्यवहार्य नहीं होते, उस समाज रचना को भंग कर उसके स्थान पर शीघ्र नयी रचना बनायी जाये, ऐसा स्वामी विवेकानन्द का मत था। 
निसर्गतया जो असमानता उत्पन्न होती है उसे भेद या विषमता नहीं माना गया। मनुष्य योनि में जन्म के कारण सभी मानव, मानव इस संज्ञा से समान हैं, लेकिन काया से सब एक सरीखे(identical) नहीं होते। जन्मत: बुध्दि, रंग, कद, शक्ति, रूचि, गुण, स्वभाव आदि में भिन्नता, स्वाभाविक है। निसर्गत: मानव ही नहीं अन्य जीवों में भी गुणों की, क्षमताओं की असमानता रहती है। जन्मत: असमानता, विषमता नहीं है। यह परम चैतन्य शक्ति का विविधतापूर्ण आविष्कार है। आत्मा का आधार ही वास्तविक आधार है, क्योंकि आत्मा सम है, सब में एक ही जैसी समान रूप से अभिव्यक्त है। सब का एक ही चैतन्य है, इस पूर्णता के आधार पर ही प्रेमपूर्ण व्यवहार, व्यक्ति को परमात्मा का अंग मानकर नितांत प्रेम, विश्व को परमेश्वर का व्यक्त रूप मानकर विशुध्द प्रेम यही वह अवस्था है। इसीलिए प्रार्थना की जाती है - सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामय:, सर्वे भद्राणु पश्यन्ति मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत'
भारतवर्ष में संतों की भी लम्बी परंपरा रही है। संतों ने समरसता भाव और व्यवहार हेतु अपार योगदान दिया है। इनके विचार समय-समय पर लोगों के सामने लाना समरसता प्रस्थापित करने हेतु उपयुक्त है। गुरु गोलवलकर समरस समाज जीवन को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- 'एक वृक्ष को लीजिए, जिसमें शाखाएँ, पत्तियाँ, फूल और फल सभी कुछ एक दूसरे से नितांत भिन्न रहते हैं किंतु हम जानते हैं ये सब दिखनेवाली विविधाताएँ केवल उस वृक्ष की भाँति-भाँति की अभिव्यक्तियाँ है। यही बात हमारे सामाजिक जीवन की विविधाताओं के संबंध में भी है, जो इन सहस्रों वर्षों में विकसित हुई हैं।'' वसुधैव कुटुम्बकम, वैश्विक नीडं, सबै भूमि गोपाल की जैसी उक्तियॉं प्रमाण हैं कि भारत में असमानता नहीं थी।

ईष्या, स्पर्धा, द्वेष, अविश्वास, भोगलालसा, असमानता, शोषण, अन्याय आदि कलियुग की पहचान हैं। 'आर्थिक, राजनीतिक, वैचारिक आदि सभी आधारों पर लोग संघर्ष के लिए तैयार हैं। आत्मौपम्य बुध्दि घटी है। धर्म की न्यूनता के कारण जीवन में दु:ख, दैन्य और अशांति है। आदर्श समाज की रचना केवल भाषण देने, कविता लिखने, चुनाव लगाने से नहीं होगी। उस लक्ष्य प्राप्ति के लिए निरंतर कष्ट उठाने पड़ेंगे। संपूर्ण समाज की एकात्मता, पूर्ण राष्ट्र की सेवा, देशवासियों हेतु सर्वस्वार्पण करना होगा।सभी को समान देखते हुए, निरपेक्ष प्रेम भाव से समाज के सभी अंगों, प्रत्यंगों के साथ एकात्मभाव जगाने का प्रयास उन्होंने निरंतर करना होगा। 'समरसता' दिखावे का शब्द नहीं, जीवन व्यवहार का दर्शन बनाना होगा। कलियुग में हर व्यक्ति अपने परिवार, पेशे और लाभ का लक्ष्य लेकर अन्यों हेतु निर्धारित क्षेत्र में प्रवेश का प्रयास करेगा इसलिए टकराव होगा। 'समानों में समानता' (ईक्विटी अमंग्स्ट ईकवल्स) तथा 'विधि के शासन' (रूल ऑफ़ लॉ) हेतु आरक्षण का प्रावधान समता, समानता और साम्यता पाने-देने के लिए आवश्यक है किन्तु क्रमश: कम कर विलोपित करने की नीति अन्यों में असन्तोष न होने देगा।
गुरु जी के सुयोग्य उत्तराधिकारी डॉ. मोहन भागवत के अनुसार 'हमारे समाज में विविधता है स्वभाव, क्षमता और वैचारिक स्तर पर विविधता का होना स्वाभाविक है। भाषा, खान-पान, देवी-देवता, पंथ संप्रदाय तथा जाति व्यवस्था में भी विविधता है पर यह विविधता कभी हमारी आत्मीयता में बाधा उत्पन्न नहीं करती। विविध प्रकार के लोगों का समूह होने के बावजूद हम सब एक हैं। समान व्यवहार, समता का व्यवहार होने से यह विविधता भी समाज का अलंकार बन जाती है। सामाजिक जीवन में जातिभेद के कारण विषमता और संघर्ष होता है, इसलिए जातिभेद को दूर करना होगा। जब तक सामाजिक भेदभाव है, तब तक आरक्षण भी रहे। हमारा मन निर्मल हो, वचन दंशमुक्त हो, व्यवहार मित्र बनाने वाला हो तब समाज में समता का भाव विकसित होगा।
साम्यवादी चिंतन से उपजे सामाजिक विघटनात्मक नक्सलवाद, समाजवादी विचारधारा के व्यक्तिपरक चिन्तन से उपजे विखण्डन, मुस्लिम साम्प्रदायिकता से उत्पन्न आतंकवाद, तमिलनाड व असम में नसलीय टकराव जनित हिंसा और कश्मीर से पण्डितों के पलायन के बाद भी देश कमजोर न होना यह दर्शाता है कि ऊपरी टकराव के बाद भी सामाजिक समरसता कम नहीं हुई है। डॉ. सुवर्णा रावल के अनुसार सामाजिक व्यवस्था में ‘समता’ एक श्रेष्ठ तत्व है। भारत के संविधान में समानतायुक्त समाज रचना तथा विषमता निर्मूलन को प्राथमिकता दी गयी है।
निसर्ग के इस महान तत्व का विस्मरण जब व्यवहारिक स्तर के मनुष्य जीवन में आता है, तब समाज जीवन में भेदभाव युक्त समाज रचना अपनी जड़ पकड़ लेती है। समय रहते ही इस स्थिति का इलाज नहीं किया गया तो यही रूढ़ि के रूप में प्रतिस्थापित होती है। भारतीय समाज ने समता का यह सर्वश्रेष्ठ, सर्वमान्य तत्व स्वीकार तो कर लिया, विचार बुद्धि के स्तर पर मान्यता भी दे दी परंतु इसे व्यवहार में परिवर्तित करने में असफल रहा। ‘समता’ को सिद्ध और साध्य करने हेतु ‘समरसता’ का व्यावहारिक तत्व प्रचलित करना जरूरी है। समरसता में ‘बंधुभाव’ की असाधारण महत्ता है। 
भारतवर्ष में समय-समय पर अनेक राष्ट्र पुरुषों ने जन्म लिया है. उन्होंने अपने जीवन-काल का सम्पूर्ण समय समाज की स्थिति को सुधारने में लगाया। राजा राममोहन रॉय से डॉ. बाबासाहब आंबेडकर तक सभी राष्ट्र पुरुषों ने अधोगति के आखिरी पायदान पर पहुँची सामाजिक स्थिति को सुधारने में अपना सारा जीवन व्यतीत किया। सामाजिक मंथन, अपनी श्रेष्ठ इतिहास-परंपरा जागृति हेतु राष्ट्र पुरुषों के जीवन कार्य का सत्य वर्णन समाज में लाना यह समरसता भाव जगाने हेतु उपयुक्त है। रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा ज्योतिराव फुले, राजर्षि शाहू महाराज, डॉ. बाबासाहब आंबेडकर, नारायण गुरु आदि का योगदान अपार है। डॉ. बाबासाहब तो कहा करते थे, ‘‘बंधुता ही स्वतन्त्रता तथा समता का आश्वासन है। स्वतंत्रता तथा समता की रक्षा कानून से नहीं होती।’’
आज अपने देश में समाज व्यवस्था का दृश्य क्या है ? अभिजन वर्ग अत्यल्प है। बहुजन वर्ग वंचित वर्ग, पिछड़ा वर्ग, घुमंतु समाज, वनवासी, महिला समाज आदि अनेक अंगों पर विशेष ध्यान देना जरूरी है। सुदृढ़ समाज व्यवस्था की अपेक्षा करते समय इन दुर्बल कड़ियों पर ज्यादा ध्यान देना जरूरी है। बहुजन समाज की उन्नति उपर्युक्त समता-बंधुता-स्वातंत्रता, समरसता इन तत्वों के आधार पर हो सकती है। स्वामी विवेकानंद जी ने बहुजन समाज की उन्नति के लिए दो बातों पहली शिक्षा और दूसरी सेवा की आवश्यकता प्रतिपादित की है। उनके अनुसार ‘‘साधारण जनता में बुद्धि का विकास जितना अधिक, उतना राष्ट्र का उत्कर्ष अधिक। हिन्दुस्थान देश विनाश के इतने निकट पहुँचा, इसका कारण विद्या तथा बुद्धि का विकास दीर्घ अवधि तक मुट्ठीभर लोगों के हाथ में रहना है। इसमें राजाओं का समर्थन होने से साधारण जनता निरी गँवार रह गयी और देश विनाश के रास्ते पर बढ़ा। इस स्थिति में से ऊपर उठना है तो शिक्षा का प्रसार साधारण जनता में करने को छोड़कर दूसरा कोई उपाय नहीं है।

सामाजिक समरसता पर इस्लाम का विशेष आग्रह है। इस्लाम बहुदेववाद को नहीं मानता लेकिन मनुष्य के धार्मिक व्यवहार सहित दैनिक आचार में वह निश्चित रूप से सहिष्णुता का हिमायती रहा है। इसके लिए वह आस्था बदलना जरूरी नहीं समझता। समाज में जिस तरह सांप्रदायिक विद्वेष बढ़ रहा है, उसे देखकर सामाजिक जीवन के एक अंतर्निहित गुण के रूप में आज धार्मिक सद्भाव की आवश्यकता अधिक अनुभव की जा रही है। आम धारणा के विपरीत इस्लाम धर्म सामाजिक सौहार्द का प्रतिपादन करता है। क़ुरान के अनुसार 'जो इस्लाम के अलावा किसी अन्य धर्म का अनुयायी होगा, उसे अल्लाह स्वीकार नहीं करेंगे और वह इस दुनिया में आकर खो जाएगा' की बहुधा गलत व्याख्या की गई है। क़ुरान में साफ-साफ कहा गया है - यहूदी, ईसाई, सैबियन्स (प्राचीन साबा राजशाही के मूल निवासियों का धर्म) सभी आस्तिक हैं, जो खुदा और क़यामत में विश्वास रखते हैं और जो सही काम करते हैं, अल्लाह उन्हें इनाम देगा। उन्हें न तो डरने की जरूरत है और न पश्चाताप करने की।' इस्लाम के पैमाने से मोक्ष व्यक्ति के अपने आचरण पर निर्भर करता है न कि किसी खास धार्मिक समूह से संबंधित होने पर। यह समझदारी धार्मिक समरसता के लिए निहायत जरूरी है। इस्लाम ईश्वर या सच्चाई की अनेकता में नहीं, एकता में विश्वास करता है जबकि दुनिया में अनेक देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। तब उनमें समरसता कैसे हो? इस्लाम विचारधारात्मक मतभेदों को स्वीकार करलोगों के दैनिक जीवन में सहिष्णुता और एक-दूसरे के धर्म को आदर देने की वकालत करता है। क़ुरान घोषणा करता है कि धार्मिक मामलों में जोर-जबर्दस्ती के लिए कोई जगह नहीं है। क़ुरान किसी भी दूसरे धर्म की निंदा करने को गैरवाजिब बताता है।
इस्लाम धार्मिक समरसता के बदले धार्मिक लोगों की समरसता पर ज्यादा जोर देता है। सामाजिक समरसता मतभिन्नता के बावजू्‌द एकता पर आधारित होती है, न कि बिना मतभेद की एकता पर। मुहम्मद साहेब के जीवन काल में ही यहूदी, ईसाई और इस्लाम के धर्मगुरुओं ने उच्च विचार और धार्मिक समरसता के महान उद्देश्यों के लिए याथ्रिब शहर में बहस की थी। धार्मिक मामलों में सहिष्णुता से काम लेना ही काफी नहीं है, बल्कि यह हमारे जीवन के रोज-रोज के आचार-व्यवहार का हिस्सा होनी चाहिए। इस्लाम की आज्ञा है कि अगर प्रार्थना के समय मुसलमान के अलावा कोई अन्य धर्म का अनुयायी भी मस्जिद में आ जाए तो उसे अपने धर्म के अनुसार पूजा करने में स्वतंत्र महसूस करना चाहिए औऱ वह मस्जिद में ही ऐसा कर सकता है। इतिहास के हर दौर में सहिष्णुता इस्लाम का नियम रहा है। यही कारण है कि दुनिया का सबसे नया धर्म होने के बावजूद इसका इतने बड़े पैमाने पर प्रसार हुआ। इस्लाम ने किसी धर्म को मिटाया नहीं। धार्मिक सहिष्णुता लोगों की आस्था को बदलकर नहीं की जा सकती। इसका एकमात्र रास्ता यही है कि लोगों को दूसरे धर्म के मानने वालों के प्रति आदर भाव रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाए और व्यवहार में हमेशा लागू किया जाए।
भारत के गरीब, भूखे-कंगाल, पिछड़े, घुमंतु समाज के लोगों को शिक्षा कैसे दी जाए? गरीब लोग अगर शिक्षा के निकट पहुँच सकें हों तो शिक्षा उन तक पहुँचे। दुर्बलों की सेवा ही नारायण की सेवा है। दरिद्र नारायण की सेवा, शिव भावे जीव सेवा यह रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विवेकानन्द जी द्वारा दिखाया हुआ मार्ग है। लोक शिक्षण तथा लोकसेवा के लिए अच्छे कार्यकर्ता होना जरूरी हैं। कार्यकर्ता में सम्पूर्ण निष्कपटता, पवित्रता, सर्वस्पर्शी बुद्धि तथा सर्व विजयी इच्छा शक्ति इस हो तो मुट्ठीभर लोग भी सारी दुनिया में क्रांति कर सकते हैं। समरसता स्थापित करने हेतु ‘सामाजिक न्याय’ का तत्व अपरिहार्य है। ‘आरक्षण’ सामाजिक न्याय का एक साधन है साध्य नहीं। यह ध्यान रखना जरूरी है। डॉ. आंबेडकर का धर्म पर गहरा विश्वास रथा।धर्म के कारण ही स्वातंत्र्य, समता, बंधुता और न्याय की प्रतिस्थापना होगी, यह उनकी मान्यता थी। धर्म ही व्यक्ति तथा समाज को नैतिक शिक्षा दे सकता है। धर्म को राजनीतिक हथियार के रूप में उन्होंने कभी इस्तेमाल नहीं किया। बौद्ध धर्म ग्रहण कर उन्होंने स्वातंत्र-समता-बंधुता-न्याय समाज में प्रतिस्थापित करने का एक मार्ग प्रस्तुत किया। निस्संदेह सामाजिक समरसता, सहिष्णुता और बंधुत्व ही आधुनिक युग का मानव धर्म है।

भारत ही नहीं विश्व के सर्वाधिक प्रभावशाली राजनेताओं में अग्रगण्य नरेन्द्र मोदी जी प्रणीत स्वच्छता अभियान केवल भौतिक नहीं अपितु मानसिक कचरे की सफाई की भी प्रेरणा देता है। जब तक देश और विश्व में हर व्यक्ति को शिक्षा, धन, धर्म, वाद, पंथ, क्षेत्र, लिंग आदि अधरों पर बिना किसी भेदभाव के 'मन की बात' करने और कहने का अवसर न मिले, वह अपने मन के 'मेक इन' और 'मेड इन' को सबके साथ बाँट न सके सामाजिक समरसता बेमानी है। सामाजिक समरसता का महामंत्र विश्व में सर्वत्र बार-बार गुंजित हो रहा है। इसे अपने जीवन में उतारकर हम मानववाद की अनादि-अनंत श्रंखला से जुड़ कर जीवन को सार्थक कर सकते हैं। 
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संपर्क- समन्वयं, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, चललेख salil.sanjiv@gmail.com 
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doha yamak

दोहा सलिला:
दोहा-दोहा यमकमय
संजीव
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चरखा तेरी विरासत, ले चर खा तू देश
किस्सा जल्दी ख़त्म कर, रहे न कुछ भी शेष
*
नट से करतब देखकर, राधा पूछे मौन
नट मत, नटवर! नट कहाँ?, कसे बता कब कौन??
*
देख-देखकर शकुन तला, गुझिया-पापड़ आज
शकुनतला-दुष्यंत ने, हुआ प्रेम का राज
*
पल कर, पल भर भूल मत, पालक का अहसान
पालक सम हरियाएगा, प्रभु का पा वरदान
*
नीम-हकीम न नीम सम, दे पाते आरोग्य
ज्यों अयोग्य में योग्य है, किन्तु न सचमुच योग्य
*
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in/

pratibha saxena

मेरी पसंद
कवि से -
- प्रतिभा सक्सेना
*
कवि,
महाकाल ,माँगता नहीं मृदु-मधुर मात्र ,
सारे स्वादों से युक्त परोसा वह लेगा.
भोजक, सब रस वाले व्यंजन प्रस्तुत कर दे
अपनी रुचि का वह ग्रास स्वयं ही भर लेगा .
रसपूरित मधु भावों के संग तीखे कषाय भी हों अर्पण
वर्णों -वर्गों में स्वर के सँग धर दो कठोर और कटु व्यंजन
उसकी थाली में सभी स्वाद ,सारे रस- भावनुभाव रहें
अन्यथा सभी को उलट-पलट अपना आस्वादन ढूँढेगा !
*
रुचि का परिमार्जन है अनिवार्य शर्त उसकी
उन दाढ़ों में सामर्थ्य कि सभी करे चर्वण ,
कड़ुआहट खट्टापन का पाक न पाया तो
अपने हिसाब से औटेगा ले वही स्वयं.
उस रुद्र रूप को ,तीखापन ज़्यादा भाता ,
युग -युग के संचित कर्मों के आसव के सँग
नयनों में उसके थोड़ा नशा उतर आता ,
खप्पर में भरे तरल का ले अरुणाभ रंग !
*
वह ग्रास-ग्रास कर जो भाये वह खायेगा ,
जब चाहे जागे या चाहे सो जायेगा
उसकी अपनी ही मौज और अपनी तरंग !
कवि ,उसको दो जीवन का आस्वादन समग्र !
सबसे प्रिय भावांजलि ही स्वीकारेगा
दिख रहा सभी जो उसका एक परोसा है ,
क्रम--क्रम से कवलित कर लेना उसका स्वभाव .
*
बाँटता अवधि का दान कि जिसका जो हिस्सा ,
सिर चढ़ कर वह कीमत भी स्वयं वसूलेगा ?
भोजन परसो कवि ,महाकाल की थाली में,
षट्र्स नव रस में परिणत कर दो नये स्वाद ,
पकने दो उत्तापों की आँच निरंतर दे ,
रच रच पागो अंतर की कड़ुआहट- मिठास
नित-नूतन स्वाद ग्रहण करने का आदी है ,
परिपक्व बना प्रस्तुत कर दो
स्वर के व्यंजन
नव रस भर धर उसके समक्ष .
*
हो वीर -रौद्र सँग करुणा में डूबा विषाद !
वत्सलता उन नन्हों को जो बच जाते हैं
निर्- आश्रित हो उस विषम काल के तुरत बाद !
कवि अगर दे सको ,अपने कोमल भाव उन्हें ,
दे दो उछाह से भरा प्रेम का राग उन्हें !
मुरझाई छिन्न कली को साहस शान्ति धीर ,
बेआस बुढ़ापा शान्ति- भक्ति से संजीवन !
सब उस अदम्य की थाती शिरसा स्वीकारो
कुछ नये मंत्र उच्चार करो दे नये तंत्र का आश्वासन !
*
निश्चिंत हृदय निश्चित सीमा , अग्रिम ही सब कुछ लो सँवार,
सब डाल चले अपने खप्पर में भऱ वह जब
यों ग्रहण करे तो धन्य समझ अन्अन्य भाग !
वह जन्म-मृत्यु का भोग लगाता नित चलता !
जो दाँव स्वयं को लगा ,सके आगे आये
अपनी अभिलाषा आशायें आकर्षण भी
सारे सपने उसके खप्पर में धर जाये !
कवि वह अपराजित टेर रहा ,लाओ दो धर
बढ कर चुन लेगा ताज़े पुष्प मरंद भरे
सबसे टटकी कलियाँ बिंध माल सजायें उसकी छाती पर ,
उसकी पूजा में कौन डाल पाये अंतर !
*
अक्षत अंजलि संकल्पित हो सम्मान सहित ,
जो बिना शिकायत सहज भाव न्योछावर दे
बिन झिझके सौंपे अपने प्रियतम चरम भाव
निरउद्विग्न मनस् धर चले ,आरती- भाँवर दे !
धर दे निजत्व उसके आगे विरहित प्रमाद !
प्रस्तुत कर दे रे, महाकाल का महा- भोग
तू भी है उसकी भेंट ,स्वयं बन जा प्रसाद !
*
उसके कदमों की आहट पर जीते हैं युग ,
उसके पद-चाप बदल देते इतिहासों को !
संसार सर्ग,युग एक भाव ,
मन्वंतर कल्प करवटें ,युग-संध्यायें निश्वास हेतु
इस महाकाश में लेते उसके चित्र रूप !
है महाकाव्य यह सृष्टि, बाह्य-अंतःस्वरूप
अनगिनती नभ-गंगायें ये विस्तृत-विशाल ,
उसका आवेष्टन रूप व्याप्तिमय व्याल-जाल !
उस महाराट् के लिये
बहुत लघु,लघुतम हम ,
पर उस लघुता में भी है उसका एक रूप !
*
बस यही शर्त ,जिसको भाये आगे आये
आमंत्रण स्वीकारे , तम के प्रतिकार हेतु ,
अनसुनी करे जो इस दुर्वह पुकार को सुन,
वह लौट जाय निज शयन-भवन अभिसार हेतु !
*
कवि ,चिर प्रणम्य वह माँग रहा
तेरे उदात्ततम अंतःस्वर !
जिसमें युगंधरा गाथायें निज को रचतीं !
जो महाभाव से आत्मसात् हो सके सतत्
उसका अपना स्व-भाव उसकी तो परख यही
सत्कृत कर ,धरो सधे शब्दों का ऐसा क्रम ,
जिसमें तुम समा सको संसृति के चरम भाव !
*
वह नृत्य करेगा महसृष्टि को मंच बना ,
लपटों को हहराता सब तमस् जला देगा ,
उन्मत्त चरण धर आकाशों को चीर-चीर
क्षितिजों के घेरे तोड़ गगन दहका देगा !
*
भीषण भावों के व्यक्त रूप मुद्राओं में
भर मृत्यु- राग उठते भैरव डमरू के स्वर
लिपि बद्ध कर सको भाषा में लक्षित-व्यंजित
तो समझो तुम तद्रूप हो गये अमर-अजर !
*

navgeet

नवगीत 
*
पल में बारिश, 
पल में गर्मी 
गिरगिट सम रंग बदलता है 
यह मौसम हमको छलता है
*
खुशियों के ख्वाब दिखाता है
बहलाता है, भरमाता है
कमसिन कलियों की चाह जगा
सौ काँटे चुभा, खिजाता है
अपना होकर भी छाती पर
बेरहम! दाल दल हँसता है
यह मौसम हमको छलता है
*
जब एक हाथ में कुछ देता
दूसरे हाथ से ले लेता
अधिकार न दे, कर्तव्य निभा
कह, यश ले, अपयश दे देता
जन-हित का सूर्य बिना ऊगे
क्यों, कौन बताये ढलता है?
यह मौसम हमको छलता है
*
गर्दिश में नहीं सितारे हैं
हम तो अपनों के मारे हैं
आधे इनके, आधे उनके
कुटते-पिटते बंजारे हैं
घरवाले ही घर के बाहर
क्या ऐसे भी घर चलता है?
यह मौसम हमको छलता है
*
तुम नकली आँसू बहा रहे
हम दुःख-तकलीफें तहा रहे
अंडे कौओं के घर में धर
कोयल कूके, जग अहा! कहे
निर्वंश हुए सद्गुण के तरु
दुर्गुण दिन दूना फलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
है यहाँ गरीबी अधनंगी
है वहाँ अमीरी अधनंगी
उन पर जरुरत से ज़्यादा है
इन पर हद से ज्यादा तंगी
धीरज का पैर न जम पाता
उन्मन मन रपट-फिसलता है
यह मौसम हमको छलता है
*

bhasha vividha: magahi


मगही भाषा: इतिहास और विकास

‘‘तैत्तिरीय संहिता’’ के निम्न श्लोक से भाषा का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है -
वाग्वै पराच्यव्याकृतवदत। ते इन्द्रमब्रुवमन इमा नो वाच।।
व्याकुर्वति . . . तामिद्रो मध्यतोऽवक्रम्य व्याकरोत।।  ६/४/७
अर्थात पुरा-काल में वाणी अव्याकृत (व्याकरण संबंधी प्रकृति-प्रत्यादि संस्कार से रहित अखण्ड पद रूप) बोली जाती थी। उन्होंने (अपने राजा) इन्द्र से कहा, ‘इस वाणी को हमलोगों के लिए व्याकृत (प्रकृति-प्रत्यादि संस्कार से युक्त) करो।’ . . . इन्द्र ने उस वाणी को मध्य से तोड़कर व्याकृत किया। स्पष्ट है कि आरंभ में वाणी व्याकरणादि नियमों से मुक्त लोकवाणी के रूप में रही होगी। कालांतर में वाणी ने व्याकरण संबंधी नियमों को ग्रहण किया। यही प्राचीन लोकवाणी व्याकरण से संस्कारगत होकर संस्कृत रूप में विकसित हुई। चूँकि व्याकरण आदि नियमों से परिनिष्ठित होकर वाणी संस्कारपूर्ण भाषा रूप (संस्कृत) में सामने आयी, इसलिए उसका यह भाषा-रूप जनसमुदाय से अलग हो गई। अतः हमारे बीच भाषा के दो रूप सामने आये, जो आज भी हैं - 1. व्याकरण के नियमों से बँधी आभिजात्य भाषा अर्थात् पढ़े-लिखे व विद्वानों की भाषा, 2. जन-सामान्य की लोकवाणी।
यह तो सत्य है कि जन-सामान्य की लोकवाणी ही उपयुक्त अवसर पाकर परिनिष्ठित भाषा का रूप ग्रहण करती है। यही स्थिति व्यापक शौर्य-शक्ति सम्पन्न मगध की भाषा ‘मागधी‘ (मगही) के साथ रही। इसने भी कई उत्थान-पतन देखे। कच्चान ने इसे ही ‘मूलभाषा‘ कहकर संबोधित किया है। इसकी गिनती भारोपीय परिवार के भारत-ईरानी वर्ग में आधुनिक भारतीय आर्यभाषा के अन्तर्गत की जाती है। डाॅ0 ग्रियर्सन ने इसे आधुनिक आर्यभाषा की बाहरी उपशाखा के पूर्बी समुदाय में रखकर इसे ‘बिहारी’ कहा है।1 ‘बिहारी’ से तात्पर्य बिहार प्रान्त में बोली जाने वाली भाषा से है। बिहार में मगही, मैथिली, भोजपुरी और अंगिका बोली जाती है और सब का अलग-अलग क्षेत्र है। लेकिन आन्तरिक एकता का तिरस्कार नहीं किया जा सकता। शायद इसी आन्तरिक एकता के कारण इन्हें ‘बिहारी’ कहा गया है। डाॅ0 सुनीति कुमार चटर्जी को यह वैज्ञानिक नहीं लगा और उन्होंने भारतीय आर्यभाषाओं को पाँच वर्गों में विभाजित कर मगही को प्राच्य मागध सम्प्रदाय में रखा।
संस्कृत काल में मागधी (मगही) गाँव की वाणी आर्थात लोकवाणी रही: क्योंकि संस्कृत नाटकों में सामान्य ग्रामीण पात्रों के मुख से मागधी भाषा का प्रयोग मिलता है। प्राचीन काल मंे जिसे ‘मागधी’ कहा गया है, उसे ही आज ‘मगही’ के नाम से जानते हैं। हम जानते हैं कि भाषा का नामाकरण जाति अथवा क्षेत्र के नाम पर होता है। ऋग्वेद में जिसे ‘कीकट’ कहा गया है, अथर्ववेद में उसी को ‘मगध’ के नाम से पुकारा गया है।2  अतः क्षेत्र के नाम पर भाषा के नामाकरण के अनुसार ‘मागधी’ मगध की भाषा थी।3 यह संस्कृत से भिन्न रूप में थी। भगवान बुद्ध ने इसे ही अपने प्रवचन का माध्यम बनाया। बुद्धघोष ने स्थान-स्थान पर ‘मागधी’ शब्द का प्रयोग किया है - ‘‘मागधिकाय सब्बसत्तानं मूलभाषाय,’’ ‘‘सकायनिरुत्तिनाम सम्मासम्मबुद्धेन वुत्तप्पकारो मागध को वोहोरो।’’       विसु0, पृष्ठ 34, समन्त पृष्ठ 308)
पालि का व्याकरण लिखते समय आचार्य मोग्गलान ने कहा है -
सिद्धिमिद्धिगुणं साधु नमस्सित्वा तथागत।
सद्धम्मसङ्ग भासिस्स मागधं सघलक्खणं।’’ - मोग्गलानपच्चिका, पृष्ठ - ३
कच्चान के शब्दों में -
‘‘मागधीकाय बालानं बद्धिया बुद्धसासने।
वक्खं कच्चायनसारं जङधदसकं।।’’ - २२ कारिका
सारिपुत्त संघराज (११५० ई0) ने ‘‘सारत्यदीपिनी’’ नामक विनय अट्ठकथा-टीका के प्रारंभ में लिखा है -
‘‘मागधीकाय भाषाय आरभित्वा पि केनचि।
भासन्तरेहि सम्मिस्सं लिखितं किच्चिदेव च।।’’
संङधविखत थेर (१३०० ई0 के आसपास) ‘बुत्तोदय’ नामक छन्दशास्त्र गं्रथ के मंगलाचरण में कहते हैं -
‘‘पिङलाचारियादीहि  छंद यमुदितं पुरा।
सुद्धमागधिकानं तं न साधेति यथिच्छितं।।
ततो   मागधभासाय  मत्तावण्णविभेदनं।
लक्ष्खलक्खणसंयुत्तं प्रसन्नत्यपदक्कमं।।’’
उपर्युक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि मगध की भाषा मागधी उस समय काफी विकसित थी। इसे ही भगवान बुद्ध के प्रवचन का माध्यम बनने का अवसर प्राप्त हुआ। भिक्षु सिद्धार्थ का कहना है कि ‘‘निःसन्देह भगवान बुद्ध ने अपने उपदेश मगध की टकसाली भाषा में दिये और उसी में शिष्यों ने उन्हें सीखा और उपदेश दिया।’’4 इसी मत का समर्थन पालि भाषा-साहित्य के विद्वान इतिहासकार डाॅ0 भरत सिंह ने भी किया है, ‘‘जिस भाषा में त्रिपिटक लिखा गया है, उसके लिए ‘‘मागधी’’, ‘‘मागध भाषा’’, ‘‘मागधा-निरुक्ति’’, ‘‘मागधिक भाषा’’ जैसे शब्दों का व्यवहार किया गया है, जिसका अर्थ होता है मगध में बोली जाने वाली भाषा।’’5 इस तरह मागधी भगवान बुद्ध के प्रवचन की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हुई। इसका कारण यह था कि भगवान बुद्ध ने उस परंपरा का विरोध किया था, जिसकी भाषा संस्कृत थी। वे जन-सामान्य को परंपरा के विरोध में खड़ा करना चाहते थे, इसलिए संस्कृत की जगह लोकवाणी मागधी को स्वीकार करना आवश्यक था। इसी मागधी को बाद में ‘पालि’ के नाम से जाना गया। ‘‘मागधी’’ उस समय की सम्पन्न भाषा थी। इसका कारण यह है कि मगध प्रतिष्ठित और प्रतापी राजाओं का केन्द्र रहा। बाद में बौद्ध अनुयायी राजाओं के द्वारा इसे संरक्षण भी मिलता रहा। इससे राज-काज के रूप में मागधी को अपनाया गया। उस समय की प्राप्त मूर्तियाँ और शिलालेख इसके प्रमाण हैं। ‘‘भारत में अब तक ऐतिहासिक काल की जो सबसे पुरानी मूर्तियाँ मिली हैं, वे शैशुनागवंश (727-366 ई0 पू0) के कई राजाओं के हैं, जैसा कि उन पर खुदे नामों से विदत होता है। . . . उक्त शैशुनाग की मूर्तियों में सबसे पुरानी अजातशत्रु की है, जो बुद्ध का तुल्यकालीन था।’’ (रायकृष्ण दास, भारतीय मूर्तिकला, पृष्ठ - 13)। इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि मागधी मगध की समुन्नत भाषा के रूप में विकसित थी। यह ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित हो जाता है कि इन मूर्तियों के शिलालेख जिस भाषा में लिखे गये उसी में राज-काज भी होता था। यही कारण है कि भगवान बुद्ध ने अपने प्रवचन के लिए इसी मागधी को अपनाया। भगवान बुद्ध के उपरांत उनके शिष्यों ने मागधी को विकसित किया, लेकिन समय और स्थान के चलते इसके स्वरूप में परिवर्तन होते गये, जिसे भाषा वैज्ञानिक विकास कहा जायगा। इसी परिवर्तन को देखकर कुछ लोगों को इसे मगध की भाषा मानने में भ्रम होता है। वे इसे ‘‘पूर्बी बोली’’ कहकर समूहवाची बना देते हैं, जैसा कि ग्रिर्यसन ने इसी तरह ‘बिहारी’ कहा है। ‘‘इस पालि भाषा को गलती से मगध या दक्षिण बिहार की प्राचीन भाषा मान लिया जाता है ; वैसे यह उज्जैन से मथुरा तक के मध्यदेश के भू भाग की भाषा पर आधारित साहित्यिक भाषा है, वैसे इसे पश्चिमी हिन्दी का एक प्राचीन रूप कहना ही उचित होगा।’’ (भारतीय आर्यभाषा हिन्दी - पृष्ठ - 174-175)। वास्तव में मागधी भाषा (पालि) का व्याकरण इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि मागधी मगध की भाषा रही है।
लेकिन इस तथ्य से इन्कार भी नहीं किया जा सकता है कि मागधी पालि के नाम से विकसित होकर धीरे-धीरे व्याकरणादि नियमों में बँधती गई। कालांतर में जिस रूप में इसका विकास हुआ वह विद्धानों और पढ़े-लिखे लोगों के पास चली गयी। इसने अपने-आप को बौद्ध दर्शन और साहित्य का माध्यम बनाया। बाद में इसका और विकास हुआ। फलतः मगध क्षेत्र के अलावे सुदूर के क्षेत्रों में इसे ‘भाषा’ के रूप में अपनाया गया। इसलिए इसमें स्थानगत विशेषताओं का समावेश हो जाना स्वाभाविक ही है।
दूसरी ओर जन-सामान्य की भाषा गतिशील रही, जिसे हम प्राकृत के रूप में जानते हैं। कालांतर में इसी प्राकृत ने साहित्यिक रूप ग्रहण किया। प्राकृत के अन्य रूपों में मागधी प्राकृत का विशेष स्थान है। यह मागधी प्राकृत मगध की भाषा थी। इसी को सम्राट्र अशोक ने अपनी राजभाषा बना कर सुदूर तक फैलाया। ई0 पू0 चैथी शताब्दी में जब मगध का साम्राज्य चमका तो लक्ष्मी के साथ-साथ सरस्वती ने भी मगध में पधार कर इसे संस्कृति और सभ्यता का केन्द्र बना दिया। फिर तो स्थिति बिल्कुल ही बदल गयी। इसमें उत्पन्न बौद्ध, जैन जैसे महान दार्शनिक सम्प्रदाय जो कि सिंधु की ओर फैलते जा रहे थे, और भी सहायक हुए। फलतः मगध सभ्यता का केन्द्र बन गया और अपनी भाषा को सारे भारत में सम्मानित करने में सफल हुआ।6 इसकी पुष्टि डाॅ0 भरत सिंह उपाध्याय ने भी की है, ‘‘मगध साम्राज्य जब अपनी चरम उन्नति पर पहुँचा तो यही मानना उक्ति संगत है कि मगध की भाषा को ही राष्ट्रभाषा होेने का गौरव प्राप्त हुआ।’’7 इससे स्पष्ट होता है कि       मगध की भाषा उस समय अपने विकास की चरम शिखर पर थी। इसी में राज-काज और धार्मिक, साहित्यिक रचनायें हुआ करती थीं। अशोक ने अपने शिलालेख में इसी मागधी प्राकृत का प्रयोग किया है। यद्यपि स्थान विशेष का प्रभाव उन शिलालेखों में मिलता है, फिर भी कहीं-कहीं इसका मूल रूप विद्यमान है। रामगढ़ की पहाडि़यों की गुफाओं और बोधगया आदि के प्रकीर्ण लेखों में ईसा की पहली शताब्दी की मागधी प्राकृत का रूप मिलता है। दूसरी शताब्दी से छठी शताब्दी तक की मागधी प्राकृत का प्राचीनतम रूप ‘अश्वघोष’ में मिलता है।8
प्राकृतों के विकास के साथ इसके व्याकरणादि की रचना होने लगी। इसे भी व्याकरण के नियमों से बाँध दिए जाने के कारण इसका स्वाभाविक विकास रुक गया और उधर जन-सामान्य की भाषा गतिशील रही, जिसका विकास अपभं्रश के रूप में हुआ।
अपभं्रश मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा और आधुनिक भारतीय आर्य भाषा के बीच की कड़ी है। मागधी प्राकृत नाम की तरह मगध की अपभ्रंश को मागधी अपभं्रश कहा गया। विद्वानों ने इसी मागधी अपभं्रश से बिहारी, बांग्ला, उडि़या और असमिया का विकास माना है। बिहारी के अन्तर्गत मगही, मैथिली, भोजपुरी, और अंगिका का नाम लिया जाता है।
चाहे मागधी हो अथवा मागधी प्राकृत या मागधी अपभं्रश, निश्चय ही इसका मूल केन्द्र मगध रहा है। मगध क्षेत्र की भाषा होने के कारण इन नामों के पूर्व ‘‘मागधी’’ स्थानवाची विशेषण जोड़ा गया। इसलिए मागधी का विकास जब दूसरे क्षेत्र (मगध को छोड़कर) में हुआ तो उसकी क्षेत्रीयता से प्रभावित होकर उसका विकास परिवर्तन की दिशा में हुआ। यह कोई नयी बात नहीं है। आज खड़ी बोली हिन्दी और राष्ट्रभाषा हिन्दी के बीच भी यही स्थिति है। गत्यात्मक रूप से विकसित आज की मगही के पूर्व स्वरूप, जो सिद्ध साहित्य में सुरक्षित है, को देखा जा सकता है। यही कारण है कि सिद्ध साहित्य पर दावा करने वाली अन्य भाषाओं की अपेक्षा वर्तमान मगही से उसकी (सिद्ध साहित्य की भाषा) अधिक समानता है।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने मगही भाषा के विकासात्मक इतिहास को निम्न रूप में प्रस्तुत किया है9 -
. अशोक के पूर्व की मागधी - ई0 पू0 ६०० से ३०० तक (अनुपलब्ध)
. अशोक की मागधी       - ई0 पू0 ३०० से २०० तक (सुलभ)
. अशोक के पीछे की मागधी - ई0 पू0 २०० से ई0 सन् २०० तक (दुर्लभ)
. प्राकृत मागधी           - ई0 सन् ५०० तक (सुलभ)
. अपभं्रश मागधी           - ई0 सन् ५०० से ७०० तक (अनुपलब्ध)
. मगही प्राचीन           - ई0 सन् ८०० से १२०० तक (सुलभ)
. मध्यकालीन मगही       - ई0 सन् १२०० से १६०० तक (अनुपलब्ध)
८. आधुनिक मगही         - ई0 सन्   १६०० से . . . (जीवित)
इस तरह यह कहना समीचीन होगा कि मगही भाषा का अतीत अत्यंत ही गौरवमय रहा है। मगध के इतिहास की तरह मगही भाषा अपने समय के थपेड़े खाते-खाते आगे बढ़ती रही है। इसे ही भगवान बुद्ध की प्रवचन-भाषा, बौद्ध साहित्य की भाषा, अशोक के शिलालेख की भाषा और बौद्ध सिद्धों की साहित्यिक भाषा बनने का अवसर मिला। ‘भाषा बहता नीर’ के कारण वत्र्तमान काल की मगही और प्राचीन काल की मगही में जो अंतर मिलता है वह स्वाभाविक है ; फिर भी प्रकृति और प्रवृत्ति पर विचार किया जाय तो भाषा वैज्ञानिक अक्षुण्णता मिल जायगी।
मागधी प्रसूत भाषायें और मगही
नवजागरण काल की चेतना ने लोगों को सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक और भाषायी परंपराओं की तलाश के लिए प्रेरित किया। फिर खण्डहरों, भग्नावशेषों और शिलालेखों की महत्ता समझी गई। यहाँ तक कि लोक साहित्य से लेकर दंतकथाओं और किंवदन्तियों आदि का अन्वेषण होने लगा। ठाकुरबाडि़यों, तहखानों, खानकाहों, राजाओं, जमींदारों आदि में रक्षित दस्तावेजों में अपने प्राचीनतम अस्तित्व और अस्मिता की संभावनायें जागीं और उसकी निरंतर खोज चलती रही। खुदायी से मिले अवशेषों, मूर्तियों और शिलालेखों आदि ने उस चेतना को और भी गतिशील बना दिया। पुरातात्त्विक अध्ययन के मार्ग खुले।
अपनी सांस्कृतिक परंपराओं की खोज मंे लोगों का ध्यान भाषा साहित्य की ओर गया। इसके लिए लोक साहित्य, लोककंठ और अतीतकालीन भाषा साहित्य को समझने-परखने का काम हुआ। देश-विदेश के मंदिरों, मठों, पुस्तकालयों से सामग्रियाँ खोजी गईं। इस दिशा में हरप्रसाद शास्त्री, सुनीति कुमार चटर्जी, और महापंडित राहुल सांकृत्यायन आदि का नाम विशेष रूप से लिया जायगा। महापंडित राहुल सांकृत्यायन तो ऐसी सामग्रियों को तिब्बत से खच्चर पर लाद कर लाये। ये सामग्रियाँ भाषा साहित्य की परंपरा को निर्धारित करने मंे विशेष महत्व की चीज साबित हुईं।
लेकिन अवशेषों के स्वरूप, सामग्रियों की अल्पता और कहीं-कहीं भावात्मक आग्रहों ने मिलकर जो विचार प्रस्तुत किये, उससे निर्णयात्मक और वैज्ञानिक निष्कर्ष संदेहास्पद होने लगा। तभी तो बहुत दिनों तक विद्यापति का अस्तित्व बंगाल में बना रहा। यह क्षेत्रीय आग्रह का परिणाम था। फिर भी कुछ ऐसे विद्वान चिंतक अवश्य हुए जिनकी तटस्थता प्रामाणिक चिंतन उपस्थित करती रही।
जैसा कि प्रमाणित हो चुका है कि मागधी अथवा मागधी प्राकृत मगध की भाषा थी जिसमें भगवान बुद्ध ने अपना प्रवचन दिया था। कालांतर में इसी मागधी अपभ्रंश में सिद्ध साहित्य की रचना हुई। सिद्ध साहित्य की भाषा के संबंध में वही विवाद ख्ड़ा हुआ, जो कभी विद्यापति के संबंध में हुआ था। यह सही है कि मागधी अपभ्रंश से मैथिली, भोजपुरी, असमिया, उडि़या आदि का विकास हुआ। लेकिन अस्मिता की तलाश में कहीं-कहीं आग्रहों का इतना दबाव रहा कि सिद्ध साहित्य की भाषा विवादास्पद हो गई। मागधी प्रसूत होने के कारण इन भाषाओं की आंतरिक एकता स्वयंसिद्ध है। इसी आन्तरिक एकता के आधार पर लोगों ने एक-दूसरे की अस्मिता को नजरअंदाज कर दिया। यही कारण है कि बहुत दिनों तक विद्यापति बंगला के कवि माने जाते रहे। इतना ही नहीं, महामहिम हरप्रसाद शास्त्री, बी0 एन0 भट्टाचार्य और सुनीति कुमार चटर्जी ने ‘‘बौद्धगान ओ दूहा’’ की भाषा को पुरानी बंगला कहा। श्रीवरूआ ने इसे पुरानी असमिया कही। श्री प्रहराज और प्रियरंजन सेन ने इसे पुरानी उडि़या और जयकांत मिश्र ने मैथिली कहकर संबोधित किया।10
इसी तरह की बात बिहारी भाषाओं के साथ भी है, जिसमें भोजपुरी की भाषागत विशेषता सबसे अलग है। बात रह गई मगही और मैथिली की, तो इस संबंध में डाॅ0 इकवाल सिंह राकेश ने मैथिली को साहित्य सम्पदा की दृष्टि से अपनी बहनों (मगही, भोजपुरी आदि) में सबसे प्राचीन माना है। लेकिन यह कितना वैज्ञानिक है, जबकि वे स्वयं विद्यापति को मैथिली का प्रथम कवि घोषित करते हैं ; जबकि मगही के प्रथम कवि के रूप मंे सरहप्पा स्वयंसिद्ध हैं।
जहाँ तक मैथिली और मगही के भाषागत अस्तित्व का प्रश्न है तो इस संबंध में डाॅ0 जयकांत मिश्र और प्रो0 श्रीकांत मिश्र ने मगही को मैथिली की उपबोली घोषित किया है। ‘‘मगही नाम की एक उपभाषा प्राचीन मगध साम्राज्य के केन्द्र में बोली जाती रही है।.. . . बहुत भेद रहते हुए भी मैथिली के साथ इसके अन्यतम साम्य और आधुनिक काल में इसके कोई अपने स्वतंत्र अस्तित्व के अभाव को देखकर यही उचित मालूम होता है कि मगही भाषी लोगों को हिन्दी प्रान्त (भोजपुरी) के साथ मिलाने की अपेक्षा मैथिली भाषा प्रान्त के संग मिलाने में अधिक सुविधा होगी।’’11 अपनी इस बात की पुष्टि के लिए उन्होंने ग्रियर्सन के इस तथ्य का सहारा लिया है कि ‘‘मगही को एक स्वतंत्र बोली मानने की अपेक्षा आसानी से मैथिली की उपबोली के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।12 सुभद्रा झा ने भी यही माना है।13
ऐसा लगता है, मानो जिस तरह मगध पर बार-बार आक्रमण होते रहे उसी तरह इसके भाषायी अस्तित्व के ऊपर भी आक्रमण की परंपरा बनी रही। ऐसे लोगों के पास या तो सामग्रियों का अभाव रहा अथवा वे मगध की राजनीतिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक व भाषायी इतिहास की पृष्ठभूमि की जानकारी से अनभिज्ञ रहे। स्पष्ट हो चुका है कि बिहार की अन्य भाषायें मागधी प्रसूत हैं, मगही मागधी प्रसूत नहीं, मागधी-विकसित है। दूसरी बात यह कि   मागधी भाषा क्षेत्र मगध का गौरवमय इतिहास रहा है। मिथिला से अलग इसकी सांस्कृतिक परंपराएँ रही हैं। तीसरी बात यह कि मिथिला बहुत दिनों तक मगध के अधीन रहा है। ज्ञात हो कि विजयी की भाषा विजीत पर लागू होती है न कि विजीत की विजयी पर। इन सब के अतिरिक्त मिथिला और मगध के बीच गंगा जैसी भाषा विभाजक नदी बहती है। स्पष्ट है कि मगध का गौरवपूर्ण अतीत, विपुल लोक साहित्य और परिनिष्ठित साहित्य तथा प्राचीन काल से इस क्षेत्र में राजधानी की परंपरा के बावजूद मगही भाषा के अस्तित्व पर प्रश्न लगाया जाय, तो बात एकदम हास्यास्पद हो जायगी।
अगर आन्तरिक एकता को लेकर मगही को मैथिली की उपबोली कही जाती है, तो मैथिली को पहले बंगला से हिसाब करना होगा। बिहारी भाषाओं के व्याकरण रूपों की समानता न केवल मगही और मैथिली के बीच है अपितु भोजपुरी के बीच भी विद्यमान है। ऐसा प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डाॅ0 उदयनारायण तिवारी ने स्पष्ट किया है।14
इस समस्या पर अपना तटस्थ निर्णय देते हुए महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने कहा कि ‘‘ब्रजभाषा को कोई गुजराती बनाने की कोशिश नहीं करता, फिर मगही और मैथिली के बारे में ऐसा क्यों ?. . . मगही, मैथिली, उडि़या और आसामी को खड़ी करने पर सर्वप्रथम किसे स्थान मिलना चाहिए ? मगही को ही न।’’15 स्वयं जयकांत मिश्र ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि डंहीप पे पद ं ूंल जीम उवेज कपतमबज तमउेदज व िजीम ंदबपमदज डंहीकीप च्तंातपजण्16
इस तरह मागधी प्रसूत भाषायें और उसके अस्तित्व की तलाश निरंतर जारी है। बिहार की प्रमुख भाषाओं में मगही को मागधी से प्रसूत होने का नहीं, मागधी से विकसित होने का गौरव प्राप्त हुआ है। यह सत्य है कि इसमें विद्यापति और भिखारी ठाकुर नहीं हुए, फिर भी मगही के पास अपना इतिहास है, सिद्ध साहित्य रूपी धरोहर, समृद्ध भक्ति साहित्य और नवजागरणपूर्ण वर्तमान है। वर्तमान में मगही साहित्य की विपुलता, पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन, मगही अकादमी, आकाशवाणी केन्द्र, पटना से स्वतंत्र प्रसारण और इंटरमीडिएट, स्नातक व स्नातकोत्तर तक शिक्षण संस्थानों में पठन-पाठन की व्यवस्था आदि इसके स्वतंत्र अस्तित्व की जागृत पहचान हैं।



राष्ट्रभाषा हिंदी और मगही



राष्ट्रभाषा हिन्दी के साथ मगही की जितनी समानता है उतनी बिहार की अन्य भाषाओं के साथ नहीं है। यों तो बिहारी भाषाओं के बीच आंतरिक एकता है, फिर भी इन भाषाओं की कुछ अपनी विशेषतायें हैं, जो एक-दूसरे से अलग करती हैं। मगही की प्रकृति कुछ ऐसी है जिसके आधार पर यह कहना समीचीन होगा कि बिहार की अन्य भाषाओं की अपेक्षा इसका सीधा संबंध राष्ट्रभाषा हिन्दी के साथ हो जाता है। हम जानते हैं कि भाषाओं की सहायक क्रियायें बहुत दूर तक उसकी प्रकृति को निर्देशित और निर्धारित करती हैं। मगही की वत्र्तमानकालिक सहायक क्रिया ‘हइ’ है, जो हिन्दी के ‘है’ से समता रखती है। बिहार की अन्य भाषाओं में भोजपुरी में इसके लिए ‘बा, बाड़न, बाटे, बानी या बानू’ का प्रयोग होता है। मैथिली में ‘अछि, छी, छै’ का प्रयोग होता है। इसी तरह आप के लिए भोजपुरी में ‘राउर’ का प्रयोग होता है लेकिन मगही में ‘आप’, अपने’ का। यथा-
 हिंदी मगही भोजपुरी
आपका क्या नाम है ?   अपने के की नाम हइ ?  रउआ/राउर के का नाम बा ?
राष्ट्रभाषा हिन्दी का ‘तू’ मगही में ज्यों का त्यों (कहीं-कहीं अनुनासिकता के कारण ‘तूँ’ ) रह जाता है। इसी तरह ‘तुम’ के लिए मगही में ‘तों’ और ‘तुम्हारा’ के लिए ‘तोर’ तोहर,’ और ‘तेरा’ के लिए ‘तोरा’ का प्रयोग होात है, जबकि बिहार की अन्य भाषाओं में ऐसा नहीं होता है। मगही का वाक्य विन्यास राष्ट्रभाषा हिन्दी के समान है।
ध्वनि परिवर्तन
 (क) मगही में ‘र’ ध्वनि है, फिर भी राष्ट्रभाषा हिन्दी के बहुत से ऐसे शब्द हैं जिनका ‘र’ झ ‘ल’ में बदल ताजा है। जैसे -
हिन्दी मगही हिंदी  मगही
फलना फरना जलना जरना
ढालना ढारना गाली गारी
साला सारा साली सारी
ससुराल ससुरार कलेजा करेजा
हल हर फाल फार
कुदाल कुदार कुदाली कुदारी
काली कारी उजला उजरा  आदि
(ख)  मगही में ‘श’, ‘ष’ के सथान पर स‘ प्रवृत्ति है, लेकिन साहित्यिक प्रयोग ध्वनिगत आवश्यकता व मगही की प्रकृति के अनुरूप होता है। जैसे -
हिन्दी मगही हिन्दी  मगही
शिव सिव आशा आसा
आकाश आकास भाषा भासा
अभिलाषा अभिलासा निराशा निरासा
(ग) कहीं-कहीं ‘ष’ ‘ख’ या ‘स’ में बदल जाता है। जैसे -  विष झ विख, दोष झ दोख/दोस, धनुष झ धनुख/धनुस
(घ) मगही में ‘ण’ का ‘न’ हो जाता है। जैसे कारण झ कारन, प्राण झ परान, व्याकरण  वेयाकरन
(च) मगही में ‘ऋ’ का रि’, ‘त्र’ का ‘त्त/र’, ‘ज्ञ’ का ‘ग्य’/गे’ हो जाता है। - जैसे
ऋषी झ रिसि, पत्र झ पत्तर/पत्ता, ज्ञान झ गेयान/ग्यान, ज्ञानवान झ गेयानमान/ग्यानमान
(छ) उपसर्गों में किसी तरह का परिवर्तन नहीं होता है, लेकिन प्रत्यय में परिवर्तन संभव है। धातु में लगनेवाला ‘ना’ प्रत्यय का ‘नइ’ हो जाता है। जैसे - पढ़ना झ पढ़नइ, लिखना झ लिखनइ, जाना  झ जनइ, खाना झ खनइ, बैठना झ बइठनइ, गाना झ गनइ, उठना झ उठनइ, सोना झ सोनइ, चलना  झ चलनइ आदि।
(ज) ‘वान’ प्रत्यय ‘मान’ में बदल जाता है। जैसे - गाड़ीवान झ गाड़ीमान, कोचवान झ कोचमान, विद्वान  झ विदमान आदि।
(झ) ‘आई प्रत्यय ‘आय’ में बदल जाता है। जैसे - पढ़ाई झ पढ़ाय, लिखाई झ लिखाय, मिठाई झ  मिठाय, लड़ाई झ लड़ाय, बड़ाइ झ बड़ाइ, जमाई झ जमाय आदि।
(ट) भूतकालिक (पूर्ण) प्रत्यय ‘आ’ अथवा प्रत्यय के लिए मगही में ‘लक’ का प्रयोग होता है। जैसे-
प्रत्यय धातु शब्द
पढ़ पढ़ा झ पढ़लक
लिख लिखा झ लिखलक
या सो सोया झ सोलक/सुतलक
(ठ) भाववाचक ‘इमा’ प्रत्यय का मगही में ‘इया’ हो जाता है। जैसे - मधुरिमा झ मधुरिया, कालिमा  झ करिया
(ड) ‘वाला’ प्रत्यय ‘हार, हरबा, हारा’ और ‘अइया’ में बदल जाता है। जैसे - देखनेवाला झ  देखनहार, देखनहारा, देखबइया, पढ़नेवाला झ पढ़निहार, पढ़बइया, करनेवाला झ करनिहार, करबइया,
इसी तरह ‘वाला’ कहीं-कहीं ‘वला या ओला रूप में भी मिलता है। जैसे - जानेवाला झ  जायवला/जायओला/जवइया, आनेवाला
झ आवइवला/आवइओला/अवइया आदि।सामान्यतः हर भाषा के वाक्य में क्रिया की संरचना या तो कर्ता से निर्धारित होती है या
कर्म से। जैसे राम रोटी खाता है। राम ने रोटी खायी। यहाँ पर पहले वाक्य मंे क्रिया की संरचना कर्ता ‘राम’ के अनुसार है और
दूसरे वाक्य में कर्म ‘रोटी’ के अनुसार है। लेकिन मगही मंे एक और ही रूप मिलता है। जैसे राम रोटी खैलको। इस क्रिया की
संरचना नहीं तो कर्ता के अनुसार है और कर्म के अनुसार भी नहीं है। इस क्रिया की संरचना उसके अनुसार है जिससे कहा जा रहा
है। लेकिन जिससे कहा जा रहा है वह तो वाक्य में है ही नहीं। यह मगही की अपनी खासियत है।
मगही की शब्द संपदा
भाषा की प्रकृति उसके शब्द विन्यास और शब्द संपदा से दिखाई पड़ती है। भाषा-विशेष के शब्द उसकी कोमलता अथवा परुषता के परिचायक होते हैं। भाषा की प्रकृति का निर्धारण इससे भी होता है कि जब किसी अन्य भाषाओं के शब्द उस भाषा में आते हैं तब उसके परिवर्तन की दिशा किस रूप में होती है। ज्ञात हो कि एक भाषा के शब्द जब दूसरी भाषा में आते हैं तो उसमें ध्वनि परिवर्तन होता है। मगही की भी अपनी शब्द संपदा है। मगही की शब्द-रचना अथवा शब्द संपदा को देखा जाय तो यह स्पष्ट हो जायगा कि कोमलता मगही की अपनी प्रकृति है। यहाँ मगही के कुछ शब्दों को प्रस्तुत किया जा रहा है -
मगही शब्द - अन्नस, अउंखा, उदवास, उरेहल, उखी-विखी, सुरता, सेराल, सवासिन, सिझल, भुरकुस, सपरनइ, डगरिन, छुच्छुम, चसका, चोख, सितुआ, टहपर इंजोरिया, घुप्प अन्हरिया, बदरकट्टू, माँड़र, पनछोछर, परसौत, परसन, पलानी, पोहपित, फरहर, बउसाव, बापुत, बित्ता, बेगार, बोहनी, बीहन, बिहान, भदराह, भरता, भदेस, भनसार, भुरकुस, भूर, मटकोर, मसकल, मसुआल, मिंझाल, मुआर, रउद, साइत, सितुआ, सिलपट, हकासल, हुज्जत, हिलोर, हिलकोर, हिंड़ल, हिगराल, हेहर, हौ/हव, हौआल/हवआल इत्यादि।
शब्द-युगल - मगही में शब्द-युगल की प्रवृत्ति मिलती है। इसके अन्तर्गत दो शब्दों का मेल होता है। कभी एक ही शब्द की पुनरुक्ति से, कभी विपरीतार्थक शब्दों के मेल से और कभी सार्थक शब्दों के साथ निरर्थक शब्द लगाकर शब्द-युगल बनाया जाता है। जैसे -
पुनरुक्ति - घुमा-घुमा, पीछु-पीछु, हाली-हाली, लुरेठ-लुरेठ, सले-सले, बेर-बेर, हउले-हउले, पातर-पातर, गुजुर-गुजुर, सुनते-सुनते,
गइते-गइते, खइते-खइते, पीते-पीते, साँय-साँय, कभियो-कभियो इत्यादि।
समान अर्थवाले भिन्न शब्द-युगल - राँड़-बेवा, जोर-पगहा, खम्हा-खुट्टा, चीरल-फारल, हल्ला-गदाल, गरदा- धूरी, झंडा-पताखा,
कूड़ा-कचरा, डोल-बालटी, रगड़इत-मंइजइत, पियासल-तरासल, घिस्सल-पिस्सल, जउर-पगहा इत्यादि।
विपरीतार्थक शब्द-युगल - आगू-पाछू, ऊपर-नीचे, अनइ-जनइ, देखा-सुनी, कउर-घोंट, अँगना-ओसरा, एन्ने-ओन्ने, आवा-जाही,
आल-गेल, साँझ-बिहान, दिन-दोपहरिया रात-अधरतिया इत्यादि।
निरर्थक शब्दों से युगलबंदी - नामी-गिरामी, चिरइं-चिरगुन, बचल-खुचल, तनी-मनी, लेटल-पोटल, चोरी-चमारी, पान-पतउरा,
अन्हार-पन्हार, चोर-चिल्लर, मइल-कुचइल, जुआन-जहान, गरदा-गुवार, लगुआ-भगुआ इत्यादि।
युगल शब्दों से शब्द विन्यास - उक्खि-विक्खि, साथी-संगी, सोंटल-सिलोर, सिक्खा-बुद्धि, दिक्कत-सिक्कत, अहल-बहल, मिलल
-जुलल, कुली-कलाला, कउर-घोंट, लुत्ती-पुत्ती, गोल-गंटा, रोजी-रोटी, चुक्को-मुक्को इत्यादि।
इस तरह मगही बिहार की अन्य भाषाओं के साथ भिन्नत्व का निर्धारण करती है। इसकी प्रकृति और प्रवृति में कुछ ऐसी
विशेषतायें हैं जिनसे यह राष्ट्रभाषा हिन्दी के साथ समानता स्थापित करते हुए बिहार की अन्य भाषाओं से अपना अलग स्वरूप
ग्रहण करती है।
 
१. लिंग्विस्टिक सर्वे आॅफ इंडिया,  पृष्ठ - १२०
२. अथर्ववेद संहिता, का0 ५. सूत्र २२
३. हिन्दी भाषा का उद्भव और विकास, उदयनारायण तिवारी
४. बुद्धिस्टिक स्टडीज,  डाॅ0 लाहा द्वारा संपादित, पृष्ठ - ६४९
५. पालि साहित्य का इतिहास, पृष्ठ - १०
६. पुरातत्व निबंधावली, महापंडित राहुल सांकृत्यायन, पृष्ठ - १८६
७. पालि साहित्य का इतिहास - पृष्ठ - ११४
८. संस्कृत और संस्कृति, पृष्ठ - डाॅ राजेन्द्र प्रसाद,
९. गंगा पुरातत्वांक, जनवरी, १९३३
१०. मगही भाषा साहित्यिक निबंधावली, रासबिहारी पाण्डेय, पृष्ठ - २८
११. मैथिली साहित्य का इतिहास, (,डाॅ0 सम्पति आर्याणी की पुस्तक ‘मगही व्याकरण कोश’ पृष्ठ - १४ से उद्धृत)
१२. लिंग्विस्टिक सर्वे आॅफ इंडिया, भाग दो, पृष्ठ - ३
१३. द फारमेशन आॅफ मैथिली लिट्रेचर, भूमिका
१४. ‘भोजपुरी भाषा साहित्य’ में  ‘बिहारी बोलियों की आन्तरिक एकता’ शीर्षक निबंध से।
१५. गंगा पुरातत्वांक, जनवरी १९३३
१६. ए हिस्ट्री आॅफ मैथिली लिट्रेचर, भाग १, पृष्ठ - ५८