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बुधवार, 18 जुलाई 2018

लहर पर दोहा

१८.७.२०१८
विषय पर दोहे:
लहर, उर्मि, तरंग, वेव
*
नेह नर्मदा घाट पर, पटकें शीश तरंग.
लहर-लहर लहरा रहीं, सिकता-कण के संग.
*
सलिल-धार में कूदतीं, भोर उर्मियाँ झाँक.
टहल रेत में बैठकर, चित्र अनूठे आँक.
*
ओज-जोश-उत्साह भर, कूदें छप्प-छपाक.
वेव लेंग्थ को ताक पर, धरें वेव ही ताक.
*
मन में उठी उमंग या, उमड़ा भाटा-ज्वार.
हाथ थाम संजीव का, कूद पडीं मँझधार.
*
लहँगा लहराती रहीं, लहरें करें किलोल.
संयम टूटा घाट का, गया बाट-दिल डोल.
*
घहर-घहर कर बह चली, हहर-हहर जलधार.
जो बौरा डूबन डरा, कैसे उतरे पार.
*
नागिन सम फण पटकती, फेंके मुख से झाग.
बारिश में उफना लहर, बुझे न दिल की आग.
*
निर्मल थी पंकिल हुई, जल-तरंग किस व्याज.
मर्यादा-तट तोड़कर, करती काज अकाज.
*
कर्म-लहर पर बैठकर, कर भवसागर पार.
सीमा नहीं असीम की, ले विश्वास उबार.
***
१८,७,२०१८, ७९९९५५९६१८

दोहा सलिला: शब्द

'शब्द' पर दोहे
*
अक्षर मिलकर शब्द हों, शब्द-शब्द में अर्थ।
शब्द मिलें तो वाक्य हों, पढ़ समझें निहितार्थ।।
*
करें शब्द से मित्रता, तभी रच सकें काव्य।
शब्द असर कर कर सकें, असंभाव्य संभाव्य।।
*
भाषा-संस्कृति शब्द से, बनती अधिक समृद्ध।
सम्यक् शब्द-प्रयोग कर, मनुज बने मतिवृद्ध।।
*
सीमित शब्दों में भरें, आप असीमित भाव।
चोटिल करते शब्द ही, शब्द मिटाते घाव।।आद्या
*
दें शब्दों का तोहफा, दूरी कर दें दूर।
मिले शब्द-उपहार लें, बनकर मित्र हुजूर।।
*
निराकार हैं शब्द पर, व्यक्त करें आकार।
खुद ईश्वर भी शब्द में, हो जाता साकार।।
*
जो जड़ वे जानें नहीं, क्या होता है शब्द।
जीव-जंतु ध्वनि से करें, भाव व्यक्त बेशब्द।।
*
बेहतर नागर सभ्यता, शब्द-शक्ति के साथ।
सुर नर वानर असुर के,  शब्द बन गए हाथ।।
*
पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ें, मिट-घट सकें न शब्द।
कहें, लिखें, पढ़िए सतत, कभी न रहें निशब्द।।
*
शब्द भाव-भंडार हैं, सरस शब्द रस-धार।
शब्द नए नित सीखिए, सबसे सब साभार।।
*
शब्द विरासत; प्रथा भी, परंपरा लें जान।
रीति-नीति; व्यवहार है, करें शब्द का मान।।
*
शब्द न अपना-गैर हो, बोलें बिन संकोच।
लें-दें कर लगता नहीं, घूस न यह उत्कोच।।
*
शब्द सभ्यता-दूत हैं, शब्द संस्कृति पूत।
शब्द-शक्ति सामर्थ्य है, मानें सत्य अकूत।।
*
शब्द न देशी-विदेशी, शब्द न अपने-गैर।
व्यक्त करें अनुभूति हर, भाव-रसों के पैर।।
*
शब्द-शब्द में प्राण है,  मत मानें निर्जीव।
सही प्रयोग करें सभी, शब्द बने संजीव।।
*
शब्द-सिद्धि कर सृजन के, पथ पर चलें सुजान।
शब्द-वृद्धि कर ही बने, रचनाकार महान।।
*
शब्द न नाहक बोलिए, हो जाएंगे शोर।
मत अनचाहे शब्द कह, काटें स्नेहिल डोर।।
*
समझ शऊर तमीज सच, सिखा बनाते बुद्ध।
युद्घ कराते-रोकते, करते शब्द प्रबुद्ध।।
*
शब्द जुबां को जुबां दें, दिल को दिल से जोड़।
व्यर्थ होड़ मत कीजिए, शब्द न दें दिल तोड़।।
*
बातचीत संवाद गप, गोष्ठी वार्ता शब्द।
बतरस गपशप चुगलियाँ, होती नहीं निशब्द।।
*
दोधारी तलवार सम, करें शब्द भी वार।
सिलें-तुरप; करते रफू, शब्द न रखें उधार।।
*
शब्दों से व्यापार है, शब्दों से बाजार।
भाव-रस रहित मत करें, व्यर्थ शब्द-व्यापार।।
*
शब्द आरती भजन जस, प्रेयर हम्द अजान।
लोरी गारी बंदिशें, हुक्म कभी फरमान।।
*
विनय प्रार्थना वंदना, झिड़क डाँट-फटकार।
ऑर्डर विधि आदेश हैं, शब्द दंड की मार।।
*
शब्द-साधना दूत बन, करें शब्द से प्यार।
शब्द जिव्हा-शोभा बढ़ा, हो जाए गलहार।।
***
salil.sanjiv@gmail.com
18.7.2018, 7999559618

मंगलवार, 17 जुलाई 2018

पुस्तक समीक्षा: काल है संक्रांति का, डा. श्याम गुप्त


पुस्तक समीक्षा

[समीक्ष्य कृति: काल है संक्रांति का,रचनाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०१६, मूल्य: २००/-, आवरण: मयंक वर्मा, रेखांकन: अनुप्रिया, प्रकाशक-समन्वय प्रकाशन अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर, चलभाष: ७९९९५५९६१८, समीक्षक: डा. श्याम गुप्त, लखनऊ] 
साहित्य जगत में समन्वय के साहित्यकार, कवि हैं आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'।प्रस्तुत कृति ‘काल है संक्रांति का’ की सार्थकता का प्राकट्य मुखपृष्ठ एवं शीर्षक से ही हो जाता है। वास्तव में ही यह संक्रांति-काल है, जब सभी जन व वर्ग भ्रमित अवस्था में हैं। एक और अंग्रेज़ी का वर्चस्व जहाँ चमक-दमक वाली विदेशी संस्कृति दूर से सुहानी लगती है; दूसरी और हिंदी–हिंदुस्तान का, भारतीय स्व संस्कृति का प्रसार जो विदेश बसे को भी अपनी मिट्टी की ओर खींचता है। या तो अँगरेज़ हो जाओ या भारतीय किंतु समन्वय ही उचित पंथ होता है, जो हर युग में विद्वानों, साहित्यकारों को ही करना होता है। सलिल जी की साहित्यिक समन्वयक दृष्टि का एक उदाहरण प्रस्तुत है: 'गीत अगीत प्रगीत न जानें / अशुभ भुला शुभ को पहचानें ।' माँ शारदा से पहले, ब्रह्म रूप में चित्रगुप्त की वंदना भी नवीनता है। कवि की हिंदी भक्ति वंदना में भी छलकती है: हिंदी हो भावी जग वाणी / जय जय वीणापाणी’।
यह कृति लगभग १४ वर्षों के लंबे अंतराल में प्रस्तुत हुई है। इस काल में कितनी विधाएँ आईं–गईं, कितनी साहित्यिक गुटबाजी रही, सलिल मौन दृष्टा की भाँति गहन दृष्टि से देखने के साथ-साथ उसकी जड़ों को, विभिन्न विभागों को अपने काव्य व साहित्य-शास्त्रीय कृतित्वों से पोषण दे रहे थे, जिसका प्रतिफल है यह कृति। 
कितना दुष्कर है बहते सलिल को पन्ने पर रोकना-उकेरना। समीक्षा लिखते समय मेरा यही भाव बनता था जिसे मैंने संक्षिप्त में काव्य-रूपी समीक्षा में इस प्रकार व्यक्त किया है-
“शब्द सा है मर्म जिसमें, अर्थ सा शुचि कर्म जिसमें 
साहित्य की शुचि साधना जो, भाव का नव धर्म जिसमें 
उस सलिल को चाहता है, चार शब्दों में पिरोना।।” 
सूर्य है प्रतीक संक्रांति का, आशा के प्रकाश का, काल की गति का, प्रगति का। अतः, सूर्य के प्रतीक पर कई रचनाएँ हैं | ‘जगो सूर्य लेकर आता है अच्छे दिन’ ( जगो सूर्य आता है ) में आशावाद है, नवोन्मेष है जो उन्नायकी समस्त साहित्य में व इस कृति में सर्वत्र परिलक्षित है। ‘मानव की आशा तुम, कोशिश की भाषा तुम’ (उगना नित) ‘छँट गए हैं फूट के बादल, पतंगें एकता की उड़ाओ”(-आओ भी सूरज)।
पुरुषार्थ युक्त मानव, शौर्य के प्रतीक सूर्य की भाँति प्रत्येक स्थित में सम रहता है। ‘उग रहे या ढल रहे तुम, कांत प्रतिपल रहे सूरज’ तथा ‘आस का दीपक जला हम, पूजते हैं उठ सवेरे, पालते या पल रहे तुम ‘(-उग रहे या ढल रहे ) से प्रकृति के पोषण-चक्र, देव-मनुज नाते का कवि हमें ज्ञान कराता है | शिक्षा की महत्ता ‘सूरज बबुआ’ में, संपाती व हनुमान की पौराणिक कथाओं के संज्ञान से इतिहास की भूलों को सुधारकर लगातार उद्योग व हार न मानने की प्रेरणा दी गई है ‘छुएँ सूरज’ रचना में। शीर्षक रचना ‘काल है संक्रांति का’ प्रयाण गीत है, ‘काल है संक्रांति का, तुम मत थको सूरज’ सूर्य व्यंजनात्मक भाव में मानवता के पौरुष का, ज्ञान का व प्रगति का प्रतीक है जिसमें 'चरैवेति-चरैवेति' का संदेश निहित है। यह सूर्य स्वयं कवि भी हो सकता है।“
युवा पीढ़ी को स्व-संस्कृति का ज्ञान नहीं है, कवि व्यथित हो स्पष्टोक्ति में कह उठता है:
‘जड़ गँवा जड़ युवा पीढ़ी, काटती है झाड़, प्रथा की चूनर न भाती, फेंकती है फाड़ /
स्वभाषा को भूल इंग्लिश से लड़ाती लाड़।’
 
यदि हम शुभ चाहते हैं तो सभी जीवों पर दया करें एवं सामाजिक एकता व परमार्थ भाव अपनाएँ। कवि व्यंजनात्मक भाव में कहता है: ‘शहद चाहें, पाल माखी |’ (उठो पाखी )| देश में भिन्न-भिन्न नीतियों की राजनीति पर भी कवि स्पष्ट रूप से तंज करता है: ’धारा ३७० बनी रहेगी क्या’/ काशी मथुरा अवध विवाद मिटेंगे क्या’? ‘ओबामा आते’ में आज के राजनीतिक-व्यवहार पर प्रहार है | 
अंतरिक्ष में तो मानव जा रहा है परंतु क्या वह पृथ्वी की समस्याओं का समाधान कर पाया है? यह प्रश्न उठाते हुए सलिल जी कहते हैं..’मंगल छू / भू के मंगल का क्या होगा?’ ’पंजाबी  गीत ‘सुंदरिये मुंदरिये ’ तथा बुंदेली लोकगीत ‘मिलती कायं नें’ में कवि के समन्वयता भाव की ही अभिव्यक्ति है।
प्रकृति, पर्यावरण, नदी-प्रदूषण, मानव आचरण से चिंतित कवि कह उठता है:
‘कर पूजा पाखण्ड हम / कचरा देते डाल । मैली होकर माँ नदी / कैसे हो खुशहाल?’
‘जब लौं आग’ में कवि 'उत्तिष्ठ जागृत' का संदेश देता है कि हमारी अज्ञानता ही हमारे दुखों का कारण है:
‘गोड़-तोड़ हम फसल उगा रए/ लूट रहे व्योपारी। जागो बनो मशाल नहीं तो / घेरे तुमें अँधेरा।
धन व शक्ति के दुरुपयोग एवं वे दुरुपयोग क्यों कर पा रहे हैं, ज्ञानी पुरुषों की अकर्मण्यता के कारण।सलिल जी कहते हैं: -‘रुपया जिसके पास है / उद्धव का संन्यास है / सूर्य ग्रहण खग्रास है |’ (-खासों में ख़ास है )
पेशावर के नरपिशाच, तुम बन्दूक चलाओ तो, मैं लडूँगा आदि रचनाओं में शौर्य के स्वर हैं।छद्म समाजवाद की भी खबर ली गयी है –‘लड़वाकर / मसला सुलझाए समाजवादी’।
पुरखों-पूर्वजों के स्मरण बिना कौन उन्नत हो पाया है? अतः, सभी पूर्व, वर्त्तमान, प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष पुरखों, पितृजनों के एवं उनकी सीख का स्मरण में नवता का एक और पृष्ठ है ‘स्मरण’ रचना में:
‘काया माया छाया धारी / जिन्हें जपें विधि हरि त्रिपुरारी’
‘कलम थमाकर कर में बोले / धन यश नहीं सृजन तव पथ हो।’ क्योंकि यश व पुरस्कार की आकांक्षा श्रेष्ठ सृजन से वंचित रखती है। नारी-शक्ति का समर्पण का वर्णन करते हुए सलिल जी का कथन है:
‘बनी अग्रजा या अनुजा तुम / तुमने जीवन सरस बनाया ‘ (-समर्पण)।
'मिली दिहाड़ी' रचना में दैनिक वेतन-भोगी की व्यथा उत्कीर्णित है |
‘लेटा हूँ‘ रचना में श्रृंगार की झलक के साथ पुरुष मन की विभिन्न भावनाओं, विकृत इच्छाओं का वर्णन है। इस बहाने झाडूवाली से लेकर धार्मिक स्थल, राजनीति, कलाक्षेत्र, दफ्तर प्रत्येक स्थल पर नारी-शोषण की संभावना का चित्र उकेरा गया है। ‘राम बचाए‘ में जन मानस के व्यवहार की भेड़चाल का वर्णन है: ‘मॉल जारहे माल लुटाने / क्यों न भीड़ से भिन्न हुए हम’| अनियंत्रित विकास की आपदाएँ ‘हाथ में मोबाइल’ में स्पष्ट की गयी हैं।
‘मंजिल आकर’ एवं ‘खुशियों की मछली’ नवगीत के मूल दोष भाव-संप्रेषण की अस्पष्टता के उदाहरण हैं | वहीं आजकल समय बिताने हेतु, कुछ हो रहा है यह दिखाने हेतु, साहित्य एवं हर संस्था में होने वाले विभिन्न विषयों पर सम्मेलनों, वक्तव्यों, गोष्ठियों, चर्चाओं की निरर्थकता पर कटाक्ष है ‘दिशा न दर्शन’ रचना में:  
‘क्यों आये हैं? / क्या करना है? / ज्ञात न पर / चर्चा करना है |’
राजनैतिक गुलामी से मुक्त होने पर भी अभी हम सांस्कृतिक रूप से स्वतंत्र नहीं हुए हैं। वह वास्तविक आजादी कब मिलेगी, कृतिकार के अनुसार, इसके लिए मानव बनना अत्यावश्यक है:  
‘सुर न असुर हम आदम यदि बन जायेंगे इंसान, स्वर्ग तभी हो पायेगा धरती पर आबाद।’
सार्वजनिक जीवन व मानव आचरण में सौम्यता, समन्वयता, मध्यम मार्ग की आशा की गई है ताकि अतिरेकता, अति-विकास, अति-भौतिक उन्नति के कारण प्रकृति, व्यक्ति व समाज का व्यबहार घातक न हो जाए:
‘पर्वत गरजे, सागर डोले / टूट न जाएँ दीवारें / दरक न पायें दीवारें।’ 
इस प्रकार कृति का भाव पक्ष सबल है | कला पक्ष की दृष्टि से देखें तो जैसा कवि ने स्वयं कहा है ‘गीत-नवगीत‘ अर्थात सभी गीत ही हैं। कई रचनाएँ तो अगीत-विधा की हैं:‘अगीत-गीत’ हैं। वस्तुतः, इस कृति को ‘गीत-अगीत-नवगीत संग्रह’ कहना चाहिए। सलिल जी काव्य में इन सब छंदों-विभेदों के द्वंद नहीं मानते अपितु एक समन्वयक दृष्टि रखते हैं, जैसा उन्होंने स्वयम कहा है ‘कथन’ रचना में:
‘गीत अगीत प्रगीत न जानें / अशुभ भुला, शुभ को पहचाने।’
‘छंद से अनुबंध दिखता या न दिखता / किन्तु बन आरोह या अवरोह पलता।’
‘विरामों से पंक्तियाँ नव बना / मत कह, छंद हीना / नयी कविता है सिरजनी।’
सलिल जी लक्षण शास्त्री हैं। साहित्य, छंद आदि के प्रत्येक भाव, भाग-विभाग का व्यापक ज्ञान व वर्णन कृति में प्रस्तुत किया गया है। विभिन्न छंदों, मूलतः सनातन छंदों दोहा, सोरठा, हरिगीतिका, आल्हा छंद तथा लोकधुनों के आधार पर नवगीत रचना दुष्कर कार्य है। वस्तुतः, ये विशिष्ट नवगीत हैं, प्रायः रचे जाने वाले अस्पष्ट संदेश वाले, तोड़-मरोड़कर लिखे जाने वाले नवगीत नहीं हैं। सोरठा पर आधारित एक गीत देखें:
‘आप न कहता हाल, भले रहे दिल सिसकता।
करता नहीं ख़याल, नयन कौन सा फड़कता।।’
कृति की भाषा सरल, सुग्राह्य, शुद्ध खड़ी बोली हिंदी है। विषय, स्थान व आवश्यकतानुसार भाव-सम्प्रेषण हेतु देशज व बुंदेली का भी प्रयोग किया गया है: यथा ‘मिलती कायं नें ऊंची वारी/ कुरसी हमकों गुइयाँ।|’ उर्दू के गज़लात्मक गीत का एक उदाहरण देखें:
‘ख़त्म करना अदावत है / बदल देना रवायत है / ज़िंदगी गर नफासत है / दीन-दुनिया सलामत है।’
अधिकाँश रचनाओं में प्रायः उपदेशात्मक शैली का प्रयोग किया गया है। वर्णानात्मक व व्यंगात्मक शैली का भी यथास्थान प्रयोग है। कथ्य-शैली मूलतः अभिधात्मक शब्द भाव होते हुए भी अर्थ-व्यंजना युक्त है। एक व्यंजना देखिए: ‘अर्पित शब्द हार उनको / जिनमें मुस्काता रक्षाबंधन।’ एक लक्षणा का भाव देखें:
‘राधा या आराधा सत शिव / उषा सदृश्य कल्पना सुंदर।’
विविध अलंकारों की छटा सर्वत्र विकिरित है: ‘अनहद अक्षय अजर अमर है / अमित अभय अविजित अविनाशी।’ में अनुप्रास का सौंदर्य है।| ‘प्रथा की चूनर न भाती’ व 'उनके पद सरोज में अर्पित / कुमुद कमल सम आखर मनका।’ में उपमा दर्शनीय है। ‘नेता अफसर दुर्योधन, जज वकील धृतराष्ट्र’ में रूपक की छटा है, तो ‘कुमुद कमल सम आखर मनका’ में श्लेष अलंकार है।उपदेशात्मक शैली में रसों की संभावना कम ही रहती है तथापि ओबामा आते, मिलती कायं नें, लेटा हूँ में हास्य व श्रृंगार का प्रयोग है। ‘कलश नहीं आधार बनें हम’ में प्रतीक व ‘आखें रहते भी हैं सूर’ व ‘पौ बारह’ कहावतों के उदाहरण हैं। ‘गोदी चढ़ा उंगलियाँ थामी / दौड़ा गिरा उठाया तत्क्षण ‘ में चित्रमय बिंब-विधान का सौंदर्य दृष्टिगत है। 
पुस्तक आवरण के मोड़-पृष्ठ पर सलिल जी के प्रति विद्वानों की राय एवं आवरण व सज्जाकारों के चित्र, आचार्य राजशेखर की काव्य-मीमांसा का उद्धरण एवं स्वरचित दोहे भी अभिनव प्रयोग हैं। अतः, वस्तुपरक व शिल्प सौंदर्य के समन्वित दृष्टि भाव से ‘काल है संक्रांति का’ एक सफल कृति है। इसके लिए श्री संजीव वर्मा सलिल जी बधाई के पात्र हैं।
लखनऊ, दि.११.१०.२०१६                                                                                                            - डा. श्याम गुप्त
विजय दशमी सुश्यानिदी, के-३४८, आशियाना, लखनऊ-२२६०१२, चलभाष: ९४१५१५६४६४ ।

ओ तुम!

एक रचना:
ओ तुम!
*
चित्र में ये शामिल हो सकता है: Tapsi Nagraj, मुस्कुराते हुए, खड़े रहना





















ओ तुम! मेरे गीत-गीत में बहती रस की धारा हो.
लगता हर पल जैसे तुमको पहली बार निहारा हो.
दोहा बनकर मोहा तुमने, हाथ थमाया हाथों में-
कुछ न अधर बोले पर लगता तुमने अभी पुकारा हो.
*
ओ तुम! ही छंदों की लय हो, विलय तुम्हीं में भाव हुए.
दूर अगर तुम तो सुख सारे, मुझको असह अभाव हुए.
अपने सपने में केवल तुम ही तुम हो अभिसारों में-
मन-मंदिर में तुम्हीं विराजित, चौपड़ की पौ बारा हो.
*
ओ तुम! मात्रा-वर्ण के परे, कथ्य-कथानक भाषा हो.
अलंकार का अलंकार तुम, जीवन की परिभाषा हो.
नयनों में सागर, माथे पर सूरज, दृढ़संकल्पमयी-
तुम्हीं पूर्णिमा का चंदा हो, और तुम्हीं ध्रुव तारा हो.
*
तुम्हीं लावणी, कजरी, राई, रास, तुम्हीं चौपाई हो.
सावन की हरियाली हो तुम, फागों की अरुणाई हो.
कथा-वार्ता, व्रत, मेला तुम, भजन, आरती की घंटी -
नेह-नर्मदा नित्य निनादित, तुम्हीं सलिल की धारा हो.
***
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१७.७.२०१८, ७९९९५५९६१८






































दोहा सलिला: जाति

'जाति' पर दोहे
*
'जा' से आशय जन्मना, 'जाया' जननी अंब।
'जात्रा' यात्रा लक्ष्य तक, पहुँचाती अविलंब।।
*
'जातक' लेता जन्म जग, हो आनंद विभोर।
रहा गर्भ में सुप्त जग, थाने जीवन डोर।।
*
बौद्धों की 'जातक कथा', गह जीवन का सार।
विविध योनि में बुद्ध का, बतलाती अवतार।।
*
जो 'जाता' वह पहुँचता, दृढ़ हो यदि संकल्प।
श्रम-प्रयास कर अनवरत, दूजा नहीं विकल्प।।
*
'जा ना' को कर अनसुना,  'जाना' ले जो ठान।
पाना वह ही जानता, जग गाता जयगान।।
*
'जाति' वर्ग संवर्ग या, कुनबा वंश समूह।
गोत्र अल्ल एकत्व का, रचते सुदृढ़ व्यूह।।
*
कास्ट क्लास कैडर करें, संप्रेषित कुछ अर्थ।
सैन्य वाहिनी फौज दल, बल बिन होते व्यर्थ।
*
'जात दिखा दी' कहावत, कहती क्या सच खोल।
'जात' ग्यात तो असलियत, ग्यात नहीं तो पोल।।
*
'जनता' 'जनती' जन्म दे, जिसे वही जनतंत्र।
जनता द्वारा-हेतु-की, रक्षा-हित मन-मंत्र।।
*
'जात-जाति' से वास्तविक, गुण-अवगुण हो ग्यात।
सामाजिक अनुमान की, रीति-नीति चिर ख्यात।।
*
'जाति' बताती जन्मना, खूबी-कमी विशेष।
प्रथा-विरासत जन्म से, पाई-गही विशेष।।
*
वंशगती गुण-सूत्र जो, 'जाति' करे संकेत।
जो समझे आगे बढ़े, टकराकर हो खेत।।
*
मिल विजाति से 'जाति' ही, रचे नया संसार।
तज कुजाति को बच-बचा, होती भव से पार।।
*
रूढ़ न होती 'जाति' सच, अटल लीजिए मान।
'जाति' भेद करती नहीं, हर गुण मान समान।।
*
गुण से गुण मिल गुण बढ़ें, अवगुण हों कम-दूर।
जाति-व्यवस्था है यही, देख न पाते सूर।।
*
भिन्न जातियों के मिलें, जातक सोच-विचार।
ताल-मेल ताजिंदगी रखें, 'जाति' का सार।।
*
नीर-क्षीर का मिलन शुभ, चंदन-कीचड़ हेय।
'जाति' परखती मिलन-फल, मिले श्रेष्ठ को श्रेय।।
*
'जाति' न अत्याचार है, नहीं जिद्द या स्वार्थ।
उच्छृंखलता रोकनी, 'जाति' साध सर्वार्थ ।।
*
मर्यादा हर व्यक्ति की, होती एक समान।
नहीं जीविका; कर्म से, श्रेष्ठ-हेय अनुमान।।
*
आत्मा काया में बसे, हो कायस्थ न भूल।
समता का वैषम्य में, 'जाति' सुगंधित फूल।।
*
'जाति' देखती अंत में, क्या होगा परिणाम।
आदि भले हो कष्टप्रद, सुखद रहे अंजाम।।
*
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17.7.2018, 7999559618

सोमवार, 16 जुलाई 2018

व्यंग्य गीत

व्यंग्य गीत:
अभिनंदन लो
*
युग-कवयित्री! अभिनंदन लो....
*
सब जग अपना, कुछ न पराया
शुभ सिद्धांत तुम्हें यह भाया.
गैर नहीं कुछ भी है जग में-
'विश्व एक' अपना सरमाया.
जहाँ मिले झट झपट वहीं से
अपने माथे यश-चंदन लो
युग-कवयित्री अभिनंदन लो...
*
मेरा-तेरा मिथ्या माया
दास कबीरा ने बतलाया.
भुला परायेपन को तुमने
गैर लिखे को कंठ बसाया.
पर उपकारी अन्य न तुमसा
जहाँ रुचे कविता कुंदन लो
युग-कवयित्री अभिनंदन लो....
*
हिमगिरी-जय सा किया यत्न है
तुम सी प्रतिभा काव्य रत्न है.
चोरी-डाका-लूट कहे जग
निशा तस्करी मुदित-मग्न है.
अग्र वाल पर रचना मेरी
तेरी हुई, महान लग्न है.
तुमने कवि को धन्य किया है
खुद का खुद कर मूल्यांकन लो
युग-कवयित्री अभिनंदन लो....
*
कवि का क्या? 'बेचैन' बहुत वह
तुमने चैन गले में धारी.
'कुँवर' पंक्ति में खड़ा रहे पर
हो न सके सत्ता अधिकारी.
करी कृपा उसकी रचना ले
नभ-वाणी पर पढ़कर धन लो
युग-कवयित्री अभिनंदन लो....
*
तुम जग-जननी, कविता तनया
जब जी चाहा कर ली मृगया.
किसकी है औकात रोक ले-
हो स्वतंत्र तुम सचमुच अभया.
दुस्साहस प्रति जग नतमस्तक
'छद्म-रत्न' हो, अलंकरण लो
युग-कवयित्री अभिनंदन लो....
*
(टीप: एक श्रेष्ठ कवि की रचना कुछ उलट-फेर के साथ २३-५-२०१८ को प्रात: ६.४० बजे काव्य धारा कार्यक्रम में आकाशवाणी पर प्रस्तुत कर धनार्जन का अद्भुत पराक्रम करने के उपलक्ष्य में यह रचना समर्पित उसे ही जो इसका सुपात्र है)

बालगीत

बाल गीत:
धानू बिटिया
*
धानू बिटिया रानी है। 
सच्ची बहुत सयानी है।।
यह हरदम मुस्काती है।
खुशियाँ खूब लुटाती है।।
है परियों की शहजादी।
तनिक न करती बर्बादी।।
आँखों में अनगिन सपने।
इसने पाले हैं अपने।।
पढ़-लिख कभी न हारेगी।
हर दुश्मन को मारेगी।।
हर बाधा कर लेगी पार।
होगी इसकी जय-जयकार।।
**

भाषा गीत

भारत का भाषा गीत 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
हिंद और हिंदी की जय-जयकार करें हम 
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम 
*
भाषा सहोदरा होती है, हर प्राणी की 
अक्षर-शब्द बसी छवि, शारद कल्याणी की 
नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम 
जो बोले वह लिखें-पढ़ें, विधि जगवाणी की 
संस्कृत सुरवाणी अपना, गलहार करें हम 
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम 
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम 
*
असमी, उड़िया, कश्मीरी, डोगरी, कोंकणी,
कन्नड़, तमिल, तेलुगु, गुजराती, नेपाली,
मलयालम, मणिपुरी, मैथिली, बोडो, उर्दू 
पंजाबी, बांगला, मराठी सह संथाली 
​'सलिल' पचेली, सिंधी व्यवहार करें हम 
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम 
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम 

ब्राम्ही, प्राकृत, पाली, बृज, अपभ्रंश, बघेली,
अवधी, कैथी, गढ़वाली, गोंडी, बुन्देली, 
राजस्थानी, हल्बी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, 
भोजपुरी, मारिया, कोरकू, मुड़िया, नहली,
परजा, गड़वा, कोलमी से सत्कार करें हम 
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम 
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम 

शेखावाटी, डिंगल, हाड़ौती, मेवाड़ी 
कन्नौजी, मागधी, खोंड, सादरी, निमाड़ी, 
सरायकी, डिंगल, खासी, अंगिका, बज्जिका, 
जटकी, हरयाणवी, बैंसवाड़ी, मारवाड़ी,
मीज़ो, मुंडारी, गारो मनुहार करें हम 
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम 
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम 
*
देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़ 
शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़ 
गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर 
समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़ 
'सलिल' विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम 
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम 
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम 
**** 
-विश्ववाणी हिंदी संस्थान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१.
चलभाष: ९४२५१८३२४४, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com

व्यंग्य कविता: मेरी श्वास-श्वास में कविता

हास्य रचना:
मेरी श्वास-श्वास में कविता 
*
मेरी श्वास-श्वास में कविता 
छींक-खाँस दूँ तो हो गीत। 
युग क्या जाने खर्राटों में
मेरे व्याप्त मधुर संगीत।
पल-पल में कविता कर देता
पहर-पहर में लिखूँ निबंध।
मुक्तक-क्षणिका क्षण-क्षण होते
चुटकी बजती काव्य प्रबंध।
रस-लय-छंद-अलंकारों से
लेना-देना मुझे नहीं।
बिंब-प्रतीक बिना शब्दों की
नौका खेना मुझे यहीं।
धुंआधार को नाम मिला है
कविता-लेखन की गति से।
शारद भी चकराया करतीं
हैं; मेरी अद्भुत मति से।
खुद गणपति भी हार गए
कविता सुन लिख सके नहीं।
खोजे-खोजे अर्थ न पाया
पंक्ति एक बढ़ सके नहीं।
एक साल में इतनी कविता
जितने सर पर बाल नहीं।
लिखने को कागज़ इतना हो
जितनी भू पर खाल नहीं।
वाट्स एप को पूरा भर दूँ
अगर जागकर लिख दूँ रात।
गूगल का स्पेस कम पड़े,
मुखपोथी की क्या औकात?
ट्विटर, वाट्स एप, मेसेंजर
मुझे देख डर जाते हैं।
वेदव्यास भी मेरे सम्मुख
फीके से पड़ जाते हैं।
वाल्मीकि भी पानी भरते
मेरी प्रतिभा के आगे।
जगनिक और ईसुरी सम्मुख
जाऊँ तो पानी माँगे।
तुलसी सूर निराला बच्चन
से मेरी कैसी समता?
अब के कवि खद्योत सरीखा
हर मेरे सम्मुख नमता।
किस्में क्षमता है जो मेरी
प्रतिभा का गुणगान करे?
इसीलिये मैं खुद करता हूँ,
धन्य वही जो मान करे.
विन्ध्याचल से ज्यादा भारी
अभिनंदन के पत्र हुए।
स्मृति-चिन्ह अमरकंटक सम
जी से प्यारे लगें मुए।
करो न चिता जो व्यय; देकर
मान पत्र ले, करूँ कृतार्थ।
लक्ष्य एक अभिनंदित होना,
इस युग का मैं ही हूँ पार्थ।
***
१४.६.२०१८, ७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com

दोहा सलिला: भोर

भोर पर दोहे
*
भोर भई, पौ फट गई, स्वर्ण-रश्मि ले साथ।
भुवन भास्कर आ रहे, अभिनंदन दिन-नाथ।।
*
नीलाभित अंबर हुआ, रक्त-पीत; रतनार।
निरख रूप-छवि; मुग्ध है, हृदय हार कचनार।।
*
पारिजात शीरीष मिल, अर्पित करते फूल।
कलरव कर स्वागत करें, पंछी आलस भूल।।
*
अभिनंदन करता पवन, नमित दिशाएँ मग्न।
तरुवर ताली बजाते, पुनर्जागरण-लग्न।।
*
छत्र छा रहे मेघ गण, दमक दामिनी संग।
आतिशबाजी कर रही, तिमिरासुर है तंग।।
*
दादुर पंडित मंत्र पढ़, पुलक करें अभिषेक।
उषा पुत्र-वधु से मिली, धरा सास सविवेक।।
*
कर पल्लव पल्लव हुए, ननदी तितली झूम।
देवर भँवरों सँग करे, स्वागत मचती धूम।।
*
नव वधु जब गृहणी हुई, निखरा-बिखरा तेज।
खिला विटामिन डी कहे,  करो योग-परहेज।।
*
प्रात-सांध्य नियमित भ्रमण, यथासमय हर काम।
जाग अधिक सोना तनिक, शुभ-सुख हो परिणाम।।
*
स्वेद-सलिल से कर सतत, निज मस्तक-अभिषेक।
हो जाएँ संजीव हम, थककर तजें न टेक।।
*
नव आशा बन मंजरी, अँगना लाए बसंत।
मन-मनोज हो मग्न बन, कीर्ति-सफलता कंत।।
*
दशरथ दस इंद्रिय रखें, सिया-राम अनुकूल।
निष्ठा-श्रम हों दूर तो, निश्चय फल प्रतिकूल।।
*
इंद्र बहादुर हो अगर, रहे न शासक मात्र।
जय पा आसुर वृत्ति पर, कर पाए दशगात्र।।
*
धूप शांत प्रौढ़ा हुई, श्रांत-क्लांत निस्तेज।
तनया संध्या ने कहा, खुद को रखो सहेज।।
*
दिनकर को ले कक्ष में, जा करिए विश्राम।
निशा-नाथ सुत वधु सहित, कर ले बाकी काम।।
*
वानप्रस्थ-सन्यास दे, गौरव करे न दीन।
बहुत किया पुरुषार्थ हों, ईश-भजन में लीन।।
***
salil.sanjiv@gmail.com
16.7.2018, 7999559618.

रविवार, 15 जुलाई 2018

ॐ दोहा शतक शशि त्यागी

ॐ दोहा शतक शशि त्यागी 

नाम - शशि त्यागी शिक्षा-एम. ए. हिन्दी, बी. एड, गायन प्रभाकर, बोम्बे आर्ट संप्रति -अध्यापिका दिल्ली पब्लिक स्कूल, मुरादाबाद निवास - 38 अमरोहा ग्रीन जोया रोड अमरोहा पिन कोड 244221 उत्तर प्रदेश साहित्यिक परिचय - प्रकाशित साहित्य -साझा संकलन 1 • वर्ण पिरामिड- अथ से इति 2 • शत हाइकुकार -शताब्दी वर्ष 3 • ताँका की महक 4• अंतर्राष्ट्रीय ई मैगजी़न "प्रयास" कनाडा से प्रकाशित पत्रिका में रचनाएँ प्रकाशित



















भोले बालक चीन दिए, मुग़ल-काल बतलाय। 
दर्म के रक्षा कीजिए, गुरु गोबिंद सहाय। 
पंच प्यारे साधते, हाथों में तलवार।
सिक्ख समर्पण झलकता धर्म हेतु हर बार। 
सदा गवाही दे रहा, जलियाँवाला बाग़। 
आज़ादी कि बली चढ़ा, देश-धर्म अनुराग. 
निर्दयी वह दायर था, दिन था बहुत विशेष। 
सत्य प्रमाणित कर रहे, गोलिन के अवशेष. 
आज़ादी की नीव गड, नर-नारी बलिदान।
आज़ादी तब ही मिली, भारत तू यह जान. 
भोले बालक चिन दिए,मुगल काल बतलाय। 
धर्म की रक्षा कीजिए,गुरु गोविंद सहाय।। 7 
पञ्च प्यारे साधते,हाथों में तलवार। 
सिक्ख समर्पण झलकता,धर्म हेतु हर बार।। 8 
सदा गवाही दे रहा, जलियाँवाला बाग। 
आज़ादी की बलि चढ़ा, देश धर्म अनुराग।। 9 
निर्दयी वह डायर था,दिन था बहुत विशेष। 
सत्य प्रमाणित कर रहे,गोलिन के अवशेष।। 10 
आजादी नींव गड़ा, नर-नारी बलिदान। 
आजादी तब ही मिली,भारत यह तू जान।।11 
घोर कलयुगी काल में,हीरे-मोती मान। 
मनभावन सुख देत है,अविकारी संतान।। 12 
नोंक-झोंक लगती भली, जीवन साथी-साथ। 
इक दूजे को छेड़ते,ले हाथों में हाथ।। 13 
हँसी ठिठोली हो भली, बिखरे हों सब रंग। 
कुछ पल सभी बिताइए,अनमोल मीत संग।। 14 
घर आए अतिथि का, खूब कीजिए मान। 
यश-कीर्ति घर से चले, यही लीजिए जान।। 15 
जीवन में उल्लास हो,रख मन में विश्वास। 
मिलेगा फल निश्चित ही , जिसको जिसकी आस।।16 
अंग-अंग में प्रभु रमा,शुचि गंगा माँ गाय। 
नित इनकी सेवा करो,मन कोमल हो जाए।। 17 
जून माह घर यूँ लगे,हो शीतल जल कूप। 
तन को शीतलता मिले,मन के हो अनुरूप।। 18 
धरा-अंबर डोल रहा,अंधड़ रहयो डरा। 
मानव के दुष्कर्म का, भरन लगा है घड़ा।। 19 
पढ़ा-लिखा संतान को, भेज दिया परदेस। 
सेवा करने के लिए, किसको दें आदेश।। 20 
पढ़-लिखकर उन्नति करे,करे देश हित काम। 
र क्षेत्र विकसित करे,करे देश का नाम।।२१ 






31 
निशिदिन सुमिरन कीजिए,लीजै हरि का नाम। 
हरख-हरख जस गाइए,सुघरें बिगड़े काम।। 32 
खड़े प्रतीक्षा कर रहे, अमलतास के पेड़। 
कब लाओगे घट भरे, काले काले मेघ।। 33 
भगवन अब तो खेंच दे, इंद्र धनुष की रेख। 
मानव मन पुलकित हुआ,अंबर मेघा देख।। 34 
रूठे सुजन मनाइए,बढ़े प्रीत दिन रैन। 
तम में दीप जलाइए,भरे ज्ञान से नैन।। 34 
मीठी वाणी जग सुने,सुनकर हर्षित होय। 
बालकपन में जो गुने,वही कोकिला होय।। 35 
प्रात:शीतल पवन चली,
36
कन्या भ्रूण बचाइए, बेटी घर की  शान।
घर खुशहाली लाइए,समृद्धि की पहचान।।
37
वधू सुता सम जानिए,इनको दो सम्मान।
देहरी सेतु मानिए, मत कीजै अपमान।।
38
मात-पिता बेटी जनी, सदा देत सम्मान।
देस पराई हो चली,रखती सदा ध्यान।।
39
मुगलों ने घूंघट दिया,शिक्षा का किया नाश।
तब नारी अनपढ़ बनी,हुआ विकास विनाश।।
40
झाँसी की लक्ष्मीबाई, घूँघट कोसों दूर।
लम्बा सा घूँघट ओढ़े, नही चाहिए हूर।।
41
लम्बा घूँघट काढ़ के, नैनन को मटकाय।
निशिदिन ताना मार के,घूमन को लठियाय।।
42
कपटी को क्या देखता,अपने मन को देख।
कपट यदि हृदय छा गया,खींच लक्ष्मण रेख।।
43
मानव जब क्रोधित हुआ,बुद्धि भ्रष्ट हो जाय।
मनवा इसको साध ले,जीवन सफल बनाय।।
44
नया जमाना आ गया,नारी करती काम।
नव युग में है छा गया,अब नारी का नाम।।
45
चक्कर धिन्नी से दिन कटे, दुखिया  रोती रात।
जोहे बाट सखियन की,हो मन की ही बात।।
46
इकलौती संतान को,बहुत लड़ाया लाड।
ज्ञानी हो वह इसलिए ,माँ ने तोड़े हाड।।
47
मीठा जल वहीं मिले, जहाँ हो गहरा कूप।
मन गहराई राखिए,बनना हो यदि भूप।।
48
सब जन मिलकर बैठिए,खुश रहिए दिन-रात।
हँस बोल कह दीजिए,करिए मन की बात।।
49
सुख में सब साथी मिले,है यह जग की रीत।
बुरे समय में साथ दे,सो ही सच्चा मीत।।
50
भूलवश कभी मत करो ,नारी का अपमान।
मान हानि दावा सही,तब ही मिले सम्मान।।
51
अमरोहा के आम भी, होते हैं कुछ खास।
विशेष प्रजाति के सभी,आते सबको रास।।
52
मुँह छुट दावत में सभी,छबड़े में थे आम।
खास-खास पहले चखे,खास हुए फिर आम।।
53
मंडी में थे बिक रहे ,आम जो न थे खास।
विदेश को भेजे गए ,जो थे खासम-खास।।
54
लँगड़ा खासा बिक रहा,चौंसा बिकता आम।
आम की दावत में रखे,खास सभी थे आम।।
55
आम-आम चिल्ला रहा,जन-मन भाता खास।
खास सभी को सोहता,आम ही बिकता खास।।
56
मुंबई के अल्फाँसो, ठेले सजते खास।
चाकू से कटते रहे, जो थे खासम खास।।
57
शहर का तालाब पटा,बने अनेक मकान।
बरसाती पानी भरा, डूबी सभी दुकान ।।
58
हाथ जोड़ जग कर रहा, अच्छे दिन की आस।
राम राज इक दिन बने,रखो अटल विश्वास।।
59
आया समय प्रयास का,भारत बने अखण्ड।
बन जाएगा विश्व गुरू, बहु मत मिले प्रचण्ड।।
60
घने मेघ की छाँव में,झिलमिल करता ताल।
खिले कमल पुलकित हुए, हर्षाया वह काल।।
61
मुख से फेन निकालता,सागर तट तक धाय।
कण बालू के सोखता,अपनी प्यास बुझाय।।
62
जीवन को खा जात है,तन-मन होत खराब।
अपना दुश्मन मान ले,गुटका, नशा शराब।।
63
आतंकी ही खेलते, खूनी होली रोज़।
कैसे इनका नाश हो,इसका हल अब खोज।।
64
दुश्मन हैं अब कर रहे,हरदम भीतर घात।
हे प्रभु जल्दी से बिता, विकट अँधेरी रात।।
65
बचपन वाले खेल भी, खो गए सब आज।
घर के अंदर खेलते,वायु को मोहताज।।
65
भोला बचपन खेलता, माटी में मुस्काय।/मुस्कात।
रज स्वदेश की चूमता, तनिक युवा हो जाय/जात।।
घने मेघ की  छाँव में, झिलमिल करता ताल।
खिले कमल पुलकित हुए,पुलक उठा वह काल।।
बैठ अकेला ताकता, भौंकत रहे श्वान।
चोरों से रक्षा करता,रखे घर का ध्यान।।
67
जीव की रक्षा कीजिए , रखिए सभी ध्यान।
स्वामी भक्त सब कहें ,जबकि योनी श्वान।।
68
झूठ बिना गाड़ी चला, जाना यद्यपि दूर।
भरम टूट ही जाएगा,होकर चकनाचूर।।
69
शांत मन से वह मिलता, मन में जिसका वास।
निशिदिन उसे पुकारता,ईश मिलन की आस।।
70 (कुछ दोहे -एक दिव्यांग जिसके हाथ कटे हुए हैं)
प्यासा व्याकुल हुआ, करता सोच विचार।
हाथ बिना दुख भोगता, है अपंग लाचार।।
71
मुख डुबोय जल पी रहा,करके सोच विचार।
हाथ जल में डुबो रहा, अंजुलि को लाचार।। 
72
भोला बालक कर रहा,पशुवत है लाचार।
खुद ही अनुभव कर रहा,पशुओं का आचार।।
73
बचपन भोला न रहा,सरल नहीं आचार।
दुर्व्यसन में पड़ रहा,पशु समान व्यवहार।।
74
देखकर मन द्रवित हुआ,रोग का कर उपचार।
पर पीड़ा अवगत हुआ,कर उस पर उपकार।।
75
दया क्षमा न बिसारिए, होती जन से भूल।
ईश मगन हो जाइए,कट जाएंगे शूल।।
76
शहरों की मत बूझिए,जो जल है अनमोल।
ईश्वर ने सबै दिया, वह जल बिकता मोल।।
77
जैसी संगति बैठिए, वैसा ही मन होय।
संतन के ढिग बैठिए,प्रभु के दर्शन होय।।
78
सबसे अग्रिम प्रेम है,जिससे सृष्टि बसाय।
जीवन के इस चक्र में,इस विध ईश समाय।।
79
राम-नाम रसना रटे,हिय लगन लग जाय।
राम नाम की नाव से, यह जीवन तर जाय।।
80
माया के इस फेर में,मन को मत भटकाय।
राम ही राम फेर ले,भव सागर तर जाय।।
81
हर पल हरि का भजन कर,मन को मत भटकाय।
राम नाम जो जन जपे,भव सागर तर जाय।।
82
ब्रज की शोभा श्याम से, श्यामा प्रिय घनश्याम।
अधर मधुर मुरली धरी,सुने धेनु अविराम।।
83
मेरे देश का बच्चा, रोज़ करेगा योग।
तन बलवान मन सच्चा, पास न आए रोग।।
84
झर-झर नैना बरसते,बढे़ ईश की आस।
होंगे दर्शन राम के,हृदय गली हरि वास।।
85
मन को हल्का राखिए,भजे राम ही राम।
भव सागर तर जाइए,हिय धर हरि का नाम।।
86
मुरली सुन राधा चली,बैठी यमुना तीर।
कान्हा छवि निहारती ,कालिंदी के  नीर।।
87
पल-पल गाय पुकारती,हे गिरिधारी श्याम।
अपलक धेनु निहारती,जित लखै तित श्याम।।
88
लकुटि कमरिया लै चले,दौड़े ग्वाल-बाल।
मधुर मुरलिया हाथ में,हिय पहनी बनमाल।।
89
सिर पर धर मटकी धरी,दधि लिए चली नार।
कंकड़ से फोड़ मटकी, भीगे चुनरी हार।।
90
यशोदा के घर-आँगना,घुटरुनि चले श्याम।
कंचन सी चमके धरा,सजा नंद कौ धाम।।



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