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बुधवार, 11 जुलाई 2018

ॐ दोहा शतक: सरस्वती कुमारी


दोहा शतक
सरस्वती कुमारी


जन्म: १.१२.१९७६
आत्मजा: श्रीमती प्रेमलता देवी-स्व. गजाधर प्रसाद
जीवनसाथी: श्री राजकुमार सिंह
शिक्षा: एम.ए.हिंदी
संप्रति: शिक्षिका
संपर्क: गवर्नमेंट मिडिल स्कूल, ईटानगर ७९११११, जिला पापुंपारे, (अरुणाचल प्रदेश) चलभाष: ७००५८८ ४०४६
*
पालनकर्ता जगत के, हे देवों के देव!
प्रभु! मुझको लेकर शरण, रक्षा करो सदैव।।
*
बढ़ता जग में पाप जब, मचता हाहाकार।
लेते प्रभु अवतार तब, करते जन उद्धार।।

*
मल-मल तन निर्मल किया, मिटा न मन का मैल। माया के बाजार में, अंदर कितने गैल।। * निश-दिन नैन बरस रहे, अंधकार चहुँ ओर। बाँह छोड़ मँझधार में, पिया गए किस ओर।। * नारी से ही नर बना, नारी शक्ति महान। सदा सींचती प्रेम से, नारी है रस-खान।। * चरणों में माँ-बाप के, बहती गंगा धार। तन-मन उन पर वार दो, होगा बेड़ा पार।।
*
झांसा देकर प्यार का, लूटें अस्मत रोज।
दंभ भरें पुरुषार्थ का, खोकर अपना ओज।।
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साजन बसे विदेश में, छोड़-छाड़ कर देश।
तन-मन की सुधि कौन ले, सजनी विरहन वेश।।
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जगमग-जगमग दीप सा, ह्रदय जेल दिन-रात।
मनमंदिर मोहन बसा, थोथी जग की बात।।
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पिया मिलन की रात री!, होगा मृदु अभिसार। घूँघट का पट खोलकर, दूँगी तन-मन वार।।
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पिया गये प्रदेश में, लेकर सारे साज। विरहन सजनी रो रही, क्यों कहते हमराज़।।
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पर्व मना कर क्या करें, उनके बिन इस बार। पिया बसे परदेश में, नाव बिना पतवार।।
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जनम -जन्म का साथ है, जन्मों की है प्रीत। साजन तेरा साथ पा, मन गाए नवगीत।।
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सज-धज आई राधिका, मनमोहन के पास। मल-मल गाल गुलाल रे!, करें हास-परिहास।।
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रंग-रंगिली राधिका, छैल-छबीला श्याम। रास रचाते जमुन-तट, दोनों आठों याम।।
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आया फागुन झूमकर, बरसे रंग-अबीर। खुशी लुटाते आज भी, राम, रहीम, कबीर।।
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पंडित जी उपदेश दें, मिले स्वर्ग; कर दान। पाई-पाई जोड़कर, होते नहीं महान।।
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क्रोध नाश का मूल है, क्रोध बनाता दास।
नाश सुयोधन का हुआ, रहा न कोई पास।।
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बहू नहीं बेटी कहो, हो रिश्तों का मान। बहू-बहू कहकर सभी, लेते उसकी जान।।
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झूठे सुख को सुख कहे, करता है मन मोह। छोड़ चला जल मीन को, करता नहीं विछोह।।
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सास बहू सह बेटियाँ, अलग-अलग किरदार। धारावाहिक में लगें, तीर छुरी तलवार।।
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पिया बसे परदेश में, आया है मधुमास। विरह तपन कैसे बुझे, कौन बुझाये प्यास।।
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पीकर प्याला प्रेम का, मीरा हुई मलंग। जोगन बन फिरती रही, जैसे उड़े पतंग।।
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जाँच किए बिन लोन दो, सर! मत करो सवाल। बड़े-बड़ों की बात है, मत लो शीश बवाल।।
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नव पल्लव डाली नई,निवल बसंत बहार। वन-उपवन नूतन नवल, भ्रमर करे मनुहार।।
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साथ समय के जो चला, जग में वही महान कुसमय का फल भी कहीं, होता अमिय समान।।
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मीत मिला मन का नहीं, कैसे गाए गीत। प्रीत प्रणय की बात को, समझे झूठी रीत।।
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काया-माया का कभी, भूल न करो गुमान। ढलते जवानी धूप सी, छाया रहे समान।।
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पिया बसे परदेश में, मन अंदेशा घोर सौतन सह सुख पा रहे, होंगे छलिया चोर।।
*
रघुवर के सँग जानकी, खेले रंग-अबीर। भर पिचकारी नयन से, डाले स्नेहिल नीर।।
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उपवन पुष्पित पल्लवित, भ्रमर करे गुंजार। आनंदित उमगित धरा, हँस नभ रही निहार।।
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जब-जब मन हुलसित हुआ, हिय फूटा नवगीत। नवल रूप हरदम मिला, जग-जीवन को जीत।।
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आया फागुन झूमकर, गोरी गाल-गुलाल। उमग-उमग खेले पिया, पाकर संग निहाल।।
*
रुको! मदन सज लूँ पुलक, तब तो अभिसार। भरकर बाँहों में मुझे, करना जी भर प्यार।।
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जागो! वीर जवान तुम, अरि पर करो प्रहार। सुनो-सुनो माँ भारती, करती सतत पुकार।।
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मंदिर-मंदिर घूमकर, ढूँढ रहा भगवान।
मन-मंदिर झाँका नहीं, छिपा वहीं शैतान।।
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आया फागुन झूमकर, वन-उपवन रंगीन। आई ऋतु प्रिय-मिलन की, मौसम लगे हसीन।।
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महके वेणी-मोगरा, नैनन कजरा धार। अधराधर लाली लगा, प्रिय! लगती रतनार।।
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कौन साजना सा जना, है साजन के साथ। किसे बुलाऊँ नाथ मैं, लिए साज ना नाथ!!
*
खनके कंगन-चूड़ियाँ, पायल गाए गीत। आया मौसम मिलन का, आ जा रे मन-मीत!!
*
सजना है सजना मुझे, तेरे ही अनुरूप। लागी तुझसे ही लगन, तू ही मेरा भूप।।
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मत कर रे मन! मूढ़ तू , तन पर झूठ गुमान।
कर ले कर्म महान तब, सद्गति मिले सुजान।।
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तुम बिना सूना दिन लगे, तुम बिन सूनी रैन। तड़प रहा दिल साजना, मिलने को बेचैन।।
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ताल-तलैया सब भरे, आई ऐसी बाढ़। दादुर मोर हुलस रहे, मुस्काता आषाढ़।।
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गुरु सम दाता जगत में, दूजा नहीं महान। निर्मल पावन ह्रदय कर, भर दे अंतस ज्ञान।।
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शिव देवों के देव हैं, महादेव जगनाथ। पालनकर्ता जगत के, शिव अनाथ के नाथ।।
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विपदा आती देखकर, रंग न बदले मीत। राग-द्वेष पल में भुला, करता सच्ची प्रीत।।
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ढूँढ ज़रा ए ज़िंदगी!, तू अपनी पहचान। कर्म कर बदल भाग्य दे,लिख अपना उन्वान।।
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स्याह यामिनी में सुने, जब कोयल की कूक। धड़क-धड़क धड़के जिया, मन में उठती हूक।।
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सत्य कभी झुकता नहीं, सत है सच्चा मीत। सत्य सरल व्यवहार से, नर लेता जग जीत।।
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जग-जीवन कहते जिसे, माया का बाज़ार। बाहर-बाहर सब हँसे, भीतर है लाचार।।
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मधुर मृदुल व्यवहार से, लेते थे मन मोह। मधुर-मधुर दो बोल कह, प्रिय! दे गए विछोह।।
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फूल दिया महबूब को, था खुश बड़ा मिजाज। बोली हँसकर सुन प्रिये!, तू मेरा सरराज।।
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तन पर रमा भभूत शिव, करें हलाहल-पान।
हर संकट हर दे रहे, भक्तों को वरदान।।
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गेहूँ झूमे खेत में, चना बजाए ढोल। चूनर धानी पहनकर, सरसों दी शुभ बोल।।
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राम दरस की आस में, द्वार खड़े रैदास। मन माया में भटकता, कैसे जाए पास।।
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साजन तेरी प्रीत में, खोया मन का चैन। मिलने को आतुर रहे, आकुल-व्याकुल नैन।।
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चाँद चाँदनी से कहे, तू है बड़ी हसीन। बोली हँसकर चाँदनी, तेरी छटा नवीन।।
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गुल गुलाब पर है फिदा, गुल गुलाब हैरान। गुल से गुल है कह रहा, तू ही मेरी जान।।
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फूल फूल को खत दिया, भेजा सुर्ख गुलाब। दिखा अक्स था फूल में, मन महका महताब।।
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राजनीति विष बेल ने, बाँट दिया है देश। भाग देश का जो रहा, हाय! बना परदेश।।
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मन मेरा फागुन हुआ, खेले रंग हजार। हुआ बावला प्रीत में, झूमे संग बहार।।
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नश्वर तन क्यों मोहता, मन को बारंबार। मन लें चल गुरु शरण में, होगा बेड़ा पार।।
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झूठे सुख की खोज में, भटक रहा इंसान। ठगी-डकैती कर कहे, हूँ राजा-दीवान।।
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भारत पावन देश है, बहुत सुखद संयोग। खेलें आ भगवान भी, मिल-जुल रहते लोग।।
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मीठी वाणी बोलिए, कानों में रस घोल। कहें जगत में सब तभी, बोली है अनमोल।।
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नयन नयन को देखकर, करने लगा धमाल। नयन-नयन से कह रहा, तू ने किया कमाल।।
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वर्ण-मात्रा-मेल से, बनता छंद विधान। यति-गति लय के मिलन से, बढ़ता भाव निधान।।
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मन से मन जब मिल गया, प्रीत मिली अनमोल। भरता अब तन आह!है, जान न पाया मोल।।
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सरसों के सर फूल है, गेहूँ के सिर मौर। मन-मन हरषाए कृषक, खाए भर-भर कौर।।
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सखा!पूछ मत प्रीत में, दो नैनों का हाल। रैन-दिवस कटते नहीं, जीना हुआ मुहाल।।
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नज़र नज़र से मिली जब, दिल का गया करार। नज़र नज़र पर कर गई, पल में तीखा वार।।
*
सभा बीच नारी खड़ी, करती रही गुहार।
मानवता निर्बल हुई, घूरे आँख पसार।।
*
बात न पूछो विरह की, पल-पल बढ़ती पीर। उठती मन में हूक सी, नैन बहाये नीर।।
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धन-दौलत की चाह ने, लूटा निज सम्मान। पद गरिमा दोनों गए, बचा रहा अभिमान।।
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रही सींचती अमृत से, ताकि बने फौलाद। जालिम निकली हाय रे!, अपनी ही औलाद।।
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काम क्रोध मद कामना, चारों ही बलवान।
शरण गहे बिन नाथ की, कटे नहीं व्यवधान।।
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जीवन नैया भँवर में, कैसे उतरे पार। गुरु दयालु ने बाँह गह ,पार किया मझँधार ।।
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मोह निशा के जाल में, फँसता मन बेचैन। गुरु अँधियारा दूर कर, दें उजियारा चैन ।। * साथ अहिंसा के चला, बना सत्य हथियार। दूर फिरंगी को किया, जीत दिया संसार।। * नारी मन अबला नहीं, सिर्फ न कोमल जान। जब-जब संकट में पड़ी, निकली मुट्ठी तान।।
*
मन से मन का मिलन ही, होता सच्चा प्यार। तन से तन का मिलन तो, थोथा है व्यापार।। * द्वार खड़े प्रियतम सखी!, कैसे जाऊँ पास। मन मेरा निर्मल नहीं, कैसे मिले सुवास।। *
मोहन तेरी बाँसुरी, लेती है मन मोह।
काम-काज सब छोड़कर, रही बाट मैं जोह।।
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खड़ी कामिनी द्वार पर,कर सोलह सिंगार। नयन कटारी से करे ,प्रिय पर विहँस प्रहार।।
*
मन मेरा पंछी प्रिया!, उड़ नापे आकाश। शुचिते!तूने बाँह गह, हिय भर दिया प्रकाश।।
*
पुष्प-पुष्प में सिय लखें, मोहक छवि रघुनाथ। नत पलकों से कह रहीं, तुम ही मेरे नाथ।।
*
लिख-लिख पाती मैं थकी, आया नहीं जवाब। क्यों कहते थे झूठ प्रिय!, 'तुम हो सनम गुलाब'।।
*
साजन तेरी प्रीत में, रहा नहीं कुछ भान। छूट गया घर-बार सब, वैरी हुआ जहान।।
*
कोयल कूके बाग में, बौराया है आम। फूल-फूल को चूमकर, वसुधा हुई ललाम।। * आज प्रणय की रात है, हो जी भर अभिसार। आ जा प्रियतम!मैं करूँ, तुझको जी भर प्यार।। * उदित भानु नभ में हुआ, लिए अनंत प्रकाश। कर घूँघट भागी निशा,हुआ तिमिर का नाश।।
*
कमलनयन रघुनाथ के, सीता-मन लें मोह। विनत नयन उठ-मिल-झुकें, कर खुद से विद्रोह।।
*
मन मंदिर प्रियतम !बसे, कैसे खोलूँ नैन। मधुरिम मधु रस घोल कर, दिया ह्रदय को चैन।।
*
श्याम नाम सुमिरन करो, होगा बेड़ा पार। डरना फिर किस बात से, रक्षक जब सरकार।।
*
मछली तड़पे जल बिना, मन तड़पे बिन नेट। थाली में रोटी न हो, हो मोबाइल सेट।।
*
पीत चुनर ओढ़े धरा, खुद पर करती नाज़। बीत शिशिर के दिन गए, घर आए ऋतुराज।।
*
पास एक था मन सखी, दिया श्याम को दान। इस विरही मन को उधो, देने आया ज्ञान।। * मय छलकाता है अधर,, नैनन अंजन धार। मुखमण्डल है चाँद सा, प्रिय! लगती कचनार।। * पिया मिलन की आस में, ठाढ़ी सजनी द्वार। खाली सेज न भा रही, व्याकुल पंथ निहार।। * कोरा कागज ही रहा, ये मन धवल सफेद। रवि सा चमका गगन में, मिटा सभी मतभेद।। * माटी से पैदा हुआ, माटी मिला शरीर। भज ले मन प्रभु नाम को, क्यों हो रहा अधीर।। * जल से ही जीवन बना,जल ही है आधार। रखो बचाकर जल सदा, जल जीवन का सार।।
*
राह तकी नैना थके, दिखे नही भरतार।
नागिन सी वेणी डँसे, दग्ध करे सिंगार।।
*
सुख-दुख दोनों में कलम, बनी रही हथियार।
घायल मन की पीर हर, लेती कलम उबार।।
*
समय-समय की बात है, समय-समय का खेल।
समय कराता दुश्मनी, समय कराये मेल।।
*
अहंकार से मिट गया, कुल, वैभव, सम्मान।
सोने की लंका जली, मिला अमित अपमान।।
*
शिक्षा पाने का मिले, बच्चों को अधिकार।
स्वस्थ, निरोगी, सुखी हों, मिले जगत का प्यार।।
*
गुरु रहता गुरु ही सदा, लो उससे गुरु-ज्ञान।
गुरुता तम को दूर कर, मेटे भ्रम-अभिमान।।
*
हो काँटों की राह या, फूलों की हो सेज।
दोनो में ही सम रखे, केवल गुरु का तेज।।
*
अंतर्मन जब व्यथित हो, बाहर साधो मौन।
ताप घटे मन शांत हो, अंतस निर्मल गौण।।
*

geet

गीत:
अविनाश ब्योहार 
*
सौंधी सौंधी
गंध उठ रही
माह जुलाई है!

आ गया 
मौसम काली
घटाओं का!
बाग में 
बिखरी मोहक
छटाओं का!!

शिखरों के
मुखड़ पे चिपकी
हुई लुनाई है!

डैने फैलाये
अब्र उड़
रहे हैं!
फुहार लगे
गूंगे का
गुड़ रहे हैं!!

वर्षा के पानी
की सरिता करे
ढुलाई है!
*
रायल एस्टेट, माढ़ोताल, कटंगी रोड
जबलपुर  ९८२६७९५३७२  

दोहा सलिला:

मेघ की बात
*
उमड़-घुमड़ अा-जा रहे, मेघ न कर बरसात।
हाथ जोड़ सब माँगते,  पानी की सौगात।।
*
मेघ पूछते गगन से, कहाँ नदी-तालाब।
वन-पर्वत दिखते नहीं, बरसूँ कहाँ जनाब।।
*
भूमि भवन से पट गई, नाले रहे न शेष।
करूँ कहाँ बरसात मैं, कब्जे हुए अशेष।।
*
लगा दिए टाइल अगिन, भू है तृषित अधीर।
समझ नहीं क्यों पा रहे, तुम माटी की पीर।।
*
स्वागत तुम करते नहीं, साध रहे हो स्वार्थ।
हरी चदरिया उढ़ाओ, भू पर हो परमार्थ।।
*
वर्षा मंगल भूलकर, ठूँस कान में यंत्र।
खोज रहे मन मुताबिक, बारिश का तुम मंत्र।।
*
जल प्रवाह के मार्ग सब, लील गया इंसान।
करूँ कहाँ बरसात कब, खोज रहा हूँ स्थान।।
*
रिमझिम गिरे फुहार तो, मच जाती है कीच।
भीग मजा लेते नहीं, प्रिय को भुज भर भींच।।
*
कजरी तुम गाते नहीं, भूले आल्हा छंद।
नेह न बरसे नैन से, प्यारा है छल-छंद।।
*
घास-दूब बाकी नहीं, बीरबहूटी लुप्त।
रौंद रहे हो प्रकृति को,  हुई चेतना सुप्त।।
*
हवा सुनाती निरंतर, वसुधा का संदेश।
विरह-वेदना हर निठुर, तब जाना परदेश।।
*
प्रणय-निमंत्रण पा करूँ, जब-जब मैं बरसात।
जल-प्लावन से त्राहि हो, लगता है आघात।।
*
बरसूँ तो संत्रास है, डूब रहे हैं लोग।
ना बरसूँ तो प्यास से,  जीवनांत का सोग।।
*
मनमानी आदम करे, दे कुदरत को दोष।
कैसे दूँ बरसात कर, मैं अमृत का कोष।।
*
नग्न नारियों से नहीं, हल चलवाना राह।
मेंढक पूजन से नहीं, पूरी होगी चाह।।
*
इंद्र-पूजना व्यर्थ है, चल मौसम के साथ।
हरा-भरा पर्यावरण, रखना तेरा हाथ।।
*
खोद तलैया-ताल तू, भर पानी अनमोल।
बाँध अनगिनत बाँध ले, पानी रोक न तोल।।
*
मत कर धरा सपाट तू, पौध लगा कर वृक्ष।
वन प्रांतर हों दस गुना, तभी फुलाना वक्ष।।
*
जूझ चुनौती से मनोज, श्रम को मिले न मात।
स्वागत कर आगत हुई, ले जीवन बरसात
***
11.7.2018, 7999559618

मंगलवार, 10 जुलाई 2018

दोहा शतक: मधुकर

सुन मुरली की  तान
दोहा शतक
उदयभानु तिवारी 'मधुकर'




जन्म१८.८.१९४६, बरही, जिला कटनी।                                                                        
आत्मज: स्व. गिरिजा बाई-स्व. लखनलाल तिवारी।                                                                    
जीवन संगिनी: स्व. वंदना तिवारी।                                                                                                     शिक्षा​: डिप्लोमा सिविल इंजी., डी.एच.एम.एस., आयुर्वेद रत्न।                                                      
संप्रति:​ सेवानिवृत्त उपअभियंता, जल संसाधन विभाग मध्य प्रदेश।                                                  
लेखन विधा: दोहा, चौपाईसवैया, सोरठा आदि छंद।                                                              
प्रकाशन: गीता मानस (श्रीमद्भगवद्गीता काव्यानुवाद), महारानी दुर्गावती काव्यगाथा।          उपलब्धि:                                                              
संपर्क:  फ्लैट क्र. ५०१दत्त एवेन्यूनेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१।      चलभाष: ९४२४३२३२९७ । ईमेल: dr.u.b.tiwari1946@gmail.com

dwipadi

द्विपदी:
करें शिकवे-शिकायत आप-हम, दिन-रात अपनों से।
कभी गैरों से कोई बात मन की, कह नहीं सकता।।
*

सोमवार, 9 जुलाई 2018

दोहा सलिला:

बेटी पचीसा
(बेटी पर २५ दोहे)
*
सपना है; अरमान है, बेटी घर का गर्व।
बिखरा निर्झर सी हँसी, दुख हर लेती सर्व।।
*
बेटी है प्रभु की कृपा, प्रकृति का उपहार।
दिल की धड़कन सरीखी, करे वंश-उद्धार।।
*
लिए रुदन में छंद वह, मधुर हँसी में गीत।
मृदुल-मृदुल मुस्कान में, लुटा रही संगीत।।
*
नन्हें कर-पग हिलाकर, मुट्ठी रखती बंद।
टुकुर-टुकुर जग देखती, दे स्वर्गिक आनंद।।
*
छुई-मुई चंपा-कली, निर्मल श्वेत कपास।
हर उपमा फीकी पड़े, दे न सके आभास।।
*
पूजा की घंटी-ध्वनि, जैसे पहले बोल।
छेड़े तार सितार के, कानों में रस घोल।।
*
बैठ पिता के काँध पर, ताक रही आकाश।
ऐंठ न; बाँधूगी तुझे, निज बाँहों के पाश।।
*
अँगुली थामी चल पड़ी, बेटी ले विश्वास।
गिर-उठ फिर-फिर पग धरे, होगा सफल प्रयास।।
*
बेटी-बेटा से बढ़े, जनक-जननि का वंश।
एक वृक्ष के दो कुसुम, दोनों में तरु-अंश।।
*
बेटा-बेटी दो नयन, दोनों कर; दो पैर।
माना नहीं समान तो, रहे न जग की खैर।।
*
गाइड हो-कर हो सके, बेटी सबसे श्रेष्ठ।
कैडेट हो या कमांडर, करें प्रशंसा ज्येष्ठ।।
*
छुम-छुम-छन पायल बजी, स्वेद-बिंदु से सींच।
बेटी कत्थक कर हँसी, भरतनाट्यम् भींच।।
*
बेटी मुख-पोथी पढ़े, बिना कहे ले जान।
दादी-बब्बा असीसें, 'है सद्गुण की खान'।।
*
दादी नानी माँ बुआ, मौसी चाची सँग। 
मामी दीदी सखी हैं, बिटिया के ही रंग।।
बेटी से घर; घर बने, बेटी बिना मकान।
बेटी बिन बेजान घर, बेटी घर की जान।।
*
बेटी से किस्मत खुले, खुल जाती तकदीर। 
बेटी पाने के लिए, बनते शाह फकीर।।
*
बेटी-बेटे में 'सलिल', कभी न करिए फर्क। 
ऊँच-नीच जो कर रहे, वे जाएँगे नर्क।।
*
बेटी बिन निर्जीव जग, बेटी पा संजीव।   
नेह-नर्मदा में खिले, बेटी बन राजीव।।
*
सुषमा; आशा-किरण है, बेटी पुष्पा बाग़। 
शांति; कांति है; क्रांति भी, बेटी सर की पाग।।
*
ऊषा संध्या निशा ऋतु, धरती दिशा सुगंध। 
बेटी पूनम चाँदनी, श्वास-आस संबंध।।
*
श्रृद्धा निष्ठा अपेक्षा, कृपा दया की नीति। 
परंपरा उन्नति प्रगति, बेटी जीवन-रीति।। 
*
ईश अर्चना वंदना, भजन प्रार्थना प्रीति। 
शक्ति-भक्ति अनुरक्ति है, बेटी अभय अभीति।। 
*     
धरती पर पग जमाकर, छूती है आकाश।
शारद रमा उमा यही, करे अनय का नाश।।
*
दीपक बाती स्नेह यह, ज्योति उजास अनंत।
बेटी-बेटा संग मिल, जीतें दिशा-दिगंत।।
***
१०.७.२०१८, ७९९९५५९६१८
प्रतिभा गरिमा संपदा, श्री समृद्धि का कोष।
ममता समता क्षमा है, बिटिया ही संतोष।।
*
छाया माया सुकाया, बिटिया ही लालित्य।
कविता रचना समीक्षा, बेटी ही साहित्य।।
*
तनजा मनजा वंशजा, अमला विमला कीर्ति।
राम उमा
कमला
सुता कामिनी भामिनी, सुता दामिनी आग।
सुता तूलिका लेखनी, रेखा आकृति
*
कामना भावना 
माला ज्वाला
  

कार्यशाला: एक रचना दो रचनाकार

कार्यशाला: एक रचना दो रचनाकार 
सोहन परोहा 'सलिल'-संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'सलिल!' तुम्हारे साथ भी, अजब विरोधाभास।
तन है मायाजाल में, मन में है सन्यास।।         -सोहन परोहा 'सलिल'

मन में है सन्यास, लेखनी रचे सृष्टि नव। 
जहाँ विसर्जन वहीं निरंतर होता उद्भव।। 
पा-खो; आया-गया है, हँस-रो रीते हाथ ही। 
अजब विरोधाभास है, 'सलिल' हमारे साथ भी।। -संजीव वर्मा 'सलिल'
*
९.७.२०१८  

'जान' पर दोहे

दोहा सलिला:
जान जान की जान है
*
जान जान की जान है, जान जान की आन.
जहाँ जान में जान है, वहीं राम-रहमान.
*
पड़ी जान तब जान में, गई जान जब जान.
यह उसके मन में बसी, वह इसका अरमान.
*
निकल गई तब जान ही, रूठ गई जब जान.
सुना-अनसुना कर हुई, जीते जी बेजान.
*
देता रहा अजान यह, फिर भी रहा अजान.
जिसे टेरता; रह रहा, मन को बना मकान.
*
है नीचा किरदार पर, ऊँचा बना मचान.
चढ़ा; खोजने यह उसे, मिला न नाम-निशान.
*
गया जान से जान पर, जान देखती माल.
कुरबां जां पर जां; न हो, जब तक यह कंगाल.
*
नहीं जानकी जान की, तनिक करे परवाह.
आन रहे रघुवीर की, रही जानकी चाह.
*
जान वर रही; जान वर, किन्तु न पाई जान.
नहीं जानवर से हुआ, मनु अब तक इंसान.
*
कंकर में शंकर बसे, कण-कण में भगवान.
जो कहता; कर नष्ट वह, बनता भक्त सुजान.
*
जान लुटाकर जान पर, जिन्दा कैसे जान?
खोज न पाया आज तक, इसका हल विज्ञान.
*
जान न लेकर जान ले, जो है वही सुजान.
जान न देकर जान दे, जो वह ही रस-खान.
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जान उड़ेले तब लिखे, रचना रचना कथ्य.
जान निकाले ले रही, रच ना; यह है तथ्य.
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कथ्य काव्य की जान है, तन है छंद न भूल.
अलंकार लालित्य है, लय-रस बिन सब धूल.
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९.७.२०१८, ७९९९५५९६१८

रविवार, 8 जुलाई 2018

मन के दोहे

मन के दोहे
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मन जब-जब उन्मन हुआ, मन ने थामी बाँह।
मन से मिल मन शांत हो,  सोया आँचल-छाँह।।
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मन से मन को राह है, मन को मन की चाह।
तन-धन हों यदि सहायक, मन पाता यश-वाह।।
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चमन तभी गुलजार हो, जब मन को हो चैन।
अमन रहे तब जब कहे,  मन से मन मृदु बैन।।
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द्वेष वमन जो कर रहे, दहशत जिन्हें पसंद।
मन कठोर हो दंड दो, मिट जाए छल-छंद।।
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मन मंजीरा हो रहा, तन कीर्तन में लीन।
मनहर छवि लख इष्ट की, श्वास-आस धुन-बीन।।
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नेह-नर्मदा सलिल बन, मन पाता आनंद।
अंतर्गमन में गूँजते, उमड़-घुमड़कर छंद।।
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मन की आँखें जब खुलीं, तब पाया आभास।
जो मन से अति दूर है, वह मन के अति पास।।
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मन की सुन चेता नहीं, मनुआ बेपरवाह।
मन की धुन पूरी करी, नाहक भरता आह।।
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मन की थाह अथाह है, नाप सका कब-कौन।
अंतर्गमन में लीन हो, ध्यान रमाकर मौन।।
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धुनी धूनि सुलगा रहा, धुन में हो तल्लीन।
मन सुन-गुन सुन-गुन करे, सुने बिन बजी बीन।।
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मन को मन में हो रहे, हैं मन के दीदार।
मन से मिल मन प्रफुल्लित, सिर पटरे दीवार।।
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८.७.२०१८, ७९९९५५९६१८ 

शनिवार, 7 जुलाई 2018

दोहा सलिला

दोहा सलिला:
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अधिक कोण जैसे जिए, नाते हमने मीत। 
न्यून कोण हैं रिलेशन, कैसे पाएँ प्रीत।। 
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हाथ मिला; भुज भेंटिए, गले मिलें रह मौन। 
किसका दिल आया कहाँ बतलायेगा कौन?
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रिमझिम को जग देखता, रहे सलिल से दूर।
रूठ गया जब सलिल तो, उतरा सबका नूर
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माँ जैसा दिल सलिल सा, दे सबको सुख-शांति
ममता के आँचल तले, शेष न रहती भ्रांति
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वाह, वाह क्या बात है, दोहा है रस-खान।
पढ़; सुन-गुण कर बन सके, काश सलिल गुणवान
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आप कहें जो वह सही, एक अगर ले मान
दूजा दे दूरी मिटा, लोग कहें गुणवान
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यह कवि सौभाग्य है, कविता हो नित साथ
चले सृजन की राह पर, लिए हाथ में हाथ
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बात राज की एक है, दीप न हो नाराज
ज्योति प्रदीपा-वर्तिका, अलग न करतीं काज
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कभी मान-सम्मान दें, कभी लाड़ या प्यार
जिएँ ज़िंदगी साथ रह, करें मान-मनुहार
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साथी की सब गलतियाँ, विहँस कीजिए माफ़
बात न दिल पर लें कभी, कर सच्चा इंसाफ
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साथ निभाने का यही, पाया एक उपाय
आपस में बातें करें, बंद न हो अध्याय
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खुद को जो चाहे कहो, दो न और को दोष
अपना गुस्सा खुद पियो, व्यर्थ गैर पर रोष
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सबक सृजन से सच मिला, आएगा नित काम
नाम मिले या मत मिले, करे न प्रभु बदनाम
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जो न सके कुछ जान वह, सब कुछ लेता जान
जो भी शब्दातीत है, सत्य वही लें मान
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ममता छिप रहती नहीं, लिखा न जाता प्यार। 
जिसका मन खाली घड़ा, करे शब्द-व्यवहार।।
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७.७.२०१८, ७९९९५५९६१८  

दिल के दोहे

दोहा सलिला:
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दिल ने दिल को दे दिया, दिल का लाल सलाम।
दिल ने बेदिल हो कहा, सुनना नहीं कलाम।।
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दिल बुजदिल का क्या हुआ, खुशदिल रहा न आप।
था न रहा अब जवां दिल, गीत न सुन दे थाप।।

कौन रहमदिल है यहाँ?, दिल का है बाज़ार।
पाया-खोया ने किया, हर दिल को बेज़ार।।
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दिलवर दिल को भुलाकर, जब बनता दिलदार।
सह न सके तब दिलरुबा, कैसे हो आज़ार।।

टूट गया दिल पर न की, किंचित भी आवाज़।
दिल जुड़ता भी किस तरह, भर न सका परवाज़।।
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दिल दिल ने ले तो लिया पर, दिया न दिल क्यों बोल?
दिल ही दिल में दिल रहा, मौन लगता बोल।।
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दिल दिल पल-पल दुखता रहा, दिल चल-चल बेचैन।
थक-थककर दिल रुक गया, दिल ने पाया चैन।।
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दिल के हाथों हो गया, जब-जब दिल मजबूर।
दिल ने अन्देख करी, दिल का मिटा गुरूर।।
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७.७.२०१८, ७९९९५५९६१८