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शनिवार, 16 जून 2018

साहित्य त्रिवेणी १६ डॉ.सरस्वती माथुर छंद: एक विवेचन

१६ छंद: एक परिचय
डॉ.सरस्वती माथुर
परिचय: डॉ .सरस्वती माथुर, प्राचार्य पी .जी. कॉलेज, जन्म: ५ अगस्त, शिक्षा: एम. एससी. (प्राणिशास्त्र) पीएच.डी , पी. जी .डिप्लोमा इन जर्नालिस्म (गोल्ड मेडलिस्ट), शिक्षाविद व सोशल एक्टिविस्ट, प्रकाशन: काव्य संग्रह एक यात्रा के बाद, मेरी अभिव्यक्तियाँ, मोनोग्राम  राजस्थान के स्वतंत्रता सेनानी : मोनोग्राम हरिदेव जोशी विज्ञान  जैवप्रोधोयोगिकी (Biotechnology) सम्मान -पुरुस्कार, १९७० में दिल्ली प्रेस द्वारा कहानी "बुढ़ापा" पुरुस्कृत, भारतीय साहित्य संस्थान म.प्र .द्वारा काव्य में बेस्ट कविता के लिये पुरुस्कार, झालावाड डिस्ट्रिक्ट एसोसिएशन द्वारा साहित्य में योगदान के लिये फेलिसिटेशन एवं पुरुस्कार, ऑथर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया, पब्लिक रिलेशंस सोसाइटी ऑफ़ इंडिया राजस्थान चैप्टर की सदस्य, संपर्क: ए - २, हवा सड़क, सिविल लाइन, जयपुर-६  ईमेलjlmathur@hotmail.com।
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छंद क्या है: कविवर रामधारी 'सिंह ' दिनकर' के अनुसार 'छंद स्पंदन समग्र सृष्टि में व्याप्त है। कला ही नहीं जीवन की प्रत्येक शिरा में यह स्पंदन एक नियम  से चल रहा है। विश्व की प्रकृति, सूर्य, पृथ्वी, गृहमंडल मात्र में एक लय है जो समय की ताल पर यति लेती हुई अपना काम कर रही है। एेसा लगता है कि सृष्टि के उस छंद-स्पंदन युक्त आवेग की पहली मानवीय अभिव्यक्ति कविता और संगीत थे। हिंदी में असंख्य छंद हैं। राग रागनियाँ भी छंद ही हैं। हिंदी में वर्णिक छंद के अतिरिक्त मात्रिक छंद भी होते हैं। (हिंदी ही नहीं हर भाषा में वाचिक छंदों का सतीत्व है, जो मात्रिक-वार्णिक छंदों ही नहीं सांगीतिक बंदिशों के भी जनक हैं -सं.) वर्णिक छंद गणों द्वारा निर्धारित किये जाते हैं और मात्रिक मात्राओं के द्वारा। पाणिनी के अनुसार 'जो आल्हादित करे, प्रसन्न करे, वह छंद है।'  उनके अनुसार छंद 'चदि' धातु से निकला है । यास्क ने निरुक्त में छंद की परिभाषा इस प्रकार दी है-'छंदांसि छादनात अर्थात छंद की व्युत्पत्ति छदि धातु से है जिसका अर्थ है 'आच्छादन'। प्रायः सभी भाषाओं के प्राचीन ग्रंथ छंद में ही लिपिबद्ध हैं। पद शीघ्र याद होता है और याद की गई बात शीघ्र नष्ट नहीं होती है।प्रथम छंदकार पिंगल ऋषि नें छंद की कल्पना (रचना) कब की, ज्ञात नहीं किंतु छंद उनके नाम का पर्याय बन गया है। छंद संस्कृत वांग्मय में सामान्यतः लय बताने के लिये प्रयोग किया गया है। प्राचीन काल के ग्रंथों में संस्कृत में कई प्रकार के छंद मिलते है जो वैदिक काल जितने पुराने है। वेद-सूक्त छंदबद्ध है। पिंगल-रचित छंदशास्त्र इस विषय का मूल ग्रंथ है। छंद पर चर्चा सर्वप्रथम ऋृग्वेद  में हुई है। यदि गद्य की कसौटी व्याकरण है तो कविता की कसौटी छंद शास्त्र है। पद्य रचना का समुचित ज्ञान छंद शास्त्र के बिना नहीं होता है। काव्य और छंद का आरंभ  'अगण' यानि अशुभ गण से न हो। 'छंद' शब्द के मूल में गति का भाव है। वाक्यों में प्रयुक्त अक्षरों की संख्या एवं क्रम, मात्रा-गणना तथा यति-गति से संबद्ध विशिष्ट नियोजित पद्य छंद है। छंद योजना को बिना कठिन साधना के कविताओं में साकार नहीं किया जा सकता। किसी वांग्मय की समग्र सामग्री का नाम साहित्य है। छंदों के रचना-विधान तथा गुण-अवगुण के अध्ययन को छंद शास्त्र  कहते है। पिंगल-रचित छंद शास्त्र सबसे प्राचीनतम ग्रंथ है, इसे पिंगल शास्त्र ग्रंथ कहा जा सकता है। विशिष्ट अर्थों में छंद कविता या गीत में वर्णो की संख्या या स्थान से संबंधित नियमों को कहते हैं जिनसे काव्य में लय व रंजकता आती है। छोटी-बड़ी ध्वनियाँ, लघु-गुरु मात्राओं के अनुसार वर्णों की व्यवस्था, एक विशिष्ट नामवाला छंद कहलाता है। जैसे चौपाई, दोहा, सोरठा और गायत्री छंद आदि। इस प्रकार की व्यवस्था में मात्रा अथवा वर्णों की संख्या,विराम,गति,लय,तथा तुक आदि नियमों को भी निर्धारित किया गया है जिसका पालन कवियों को करना होता है।
छंद-भेद: छंद मुख्यत: तीन प्रकार के हैं: क. वर्ण वृत्त: जिन छंदों की रचना वर्णों की गणना के नियमानुसार होती हैं, उन्हें 'वर्ण वृत्त' कहते हैं। ख. मात्रिक छंद: जिन छंदों की रचना मात्रा-गणना-अनुसार की जाती है, वे वे 'मात्रिक' छंद हैं।  ग. मुक्तक: जिन छंदों की रचना में वर्णों अथवा मात्राओं की संख्या का कोई नियम नहीं होता, उन्हें 'मुक्तक' छंद कहते हैं। (वाचिक छंद: जिन छंदों का सृजन गायकी के आधार पर किया जाता है, वे वाचिक छंद हैं। गायक मात्रा अथवा छंद विधान न जानते हुए भी 'लय' के आधार पर गुनगुनाते-गाते हुई छंद-रचना कर लेता है। प्राचीन अनपढ़ या अशिक्षित कवियों ने रचनाएँ इसी प्रकार की हैं। ऐसी रचनाएँ उक्त तीनों मे से किसी भी वर्ग की हो सकती हैं। लोक काव्य के छंद पराया: वाचिक परंपरा में ही जन्मे और रचे जाते हैं। -सं.)  
रचना: छंद वस्तुत: एक ध्वनि समष्टि है । छोटी-छोटी अथवा छोटी बडी ध्वनियाँ जब एक व्यवस्था के साथ सामंजस्य प्राप्त करती हैं तब उसे एक शास्त्रीय नाम छंद दे दिया जाता है। मात्रा अथवा वर्णॊं की संख्या, विराम, गति, लय तथा तुक आदि के नियमों से युक्त रचना को छंद अथवा पद्य (पद) कहते हैं।  मात्रा-आधारित छंद को मात्र-वृत्त, वर्ण-आधारित छंद को वर्ण-वृत्त कहते हैं। छंदस् शब्द 'छद' धातु से बना है । इसका धातुगत व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है - 'जो अपनी इच्छा से चलता है'। अत:, छंद शब्द के मूल में गति का भाव है। 
छंद के अंग: अ. गति - पद्य के पाठ में जो बहाव होता है उसे गति कहते हैं। आ.यति - पद्य पाठ करते समय गति को तोड़कर जो विश्राम दिया जाता है उसे यति कहते हैं। इ. तुक - समान उच्चारण वाले शब्दों के प्रयोग को तुक कहा जाता है। पद्य प्रायः तुकान्त होते हैं। ई. मात्रा - वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे मात्रा कहते हैं। मात्रा २ प्रकार की होती है लघु और गुरु । ह्रस्व उच्चारण वाले वर्णों की मात्रा लघु होती है तथा दीर्घ उच्चारण वाले वर्णों की मात्रा गुरु होती है। लघु मात्रा का मान १ होता है और उसे । चिह्न से प्रदर्शित किया जाता है। गुरु मात्रा का मान २ होता है और उसे ऽ चिह्न से प्रदर्शित किया जाता है। 
ऊ. गण (ध्वनिखंड): मात्राओं और वर्णों की संख्या और क्रम की सुविधा के लिये तीन वर्णों के समूह को एक गण मान लिया जाता है। गणों की संख्या ८ है: यगण (।ऽऽ), मगण (ऽऽऽ), तगण (ऽऽ।), रगण (ऽ।ऽ), जगण (।ऽ।), भगण (ऽ।।), नगण (।।।) और सगण (।।ऽ)। गणों को आसानी से याद करने के लिए एक सूत्र बना लिया गया है- यमाताराजभानसलगा । सूत्र के पहले आठ वर्णों में आठ गणों के नाम हैं। अन्तिम दो वर्ण ‘ल’ और ‘ग’ छंदशास्त्र के दग्धाक्षर हैं। जिस गण की मात्राओं का स्वरूप जानना हो उसके आगे के दो अक्षरों को इस सूत्र से ले लें जैसे ‘मगण’ का स्वरूप जानने के लिए ‘मा’ तथा उसके आगे के दो अक्षर- ‘ता रा’ = मातारा (ऽऽऽ) । ‘गण’ का विचार केवल वर्ण वृत्त में होता है मात्रिक छंद इस बंधन से मुक्त होते हैं। 
छंद से हृदय को सौंदर्यबोध होता है। छंद मानवीय भावनाओं को झंकृत करते हैं। छंद में स्थायित्व होता है। छंद सरस होने के कारण मन को भाते हैं।    छंद के निश्चित आधार पर आधारित होने के कारण वे सुगमतापूर्वक कण्ठस्त हो जाते हैं। उदाहरण:  भभूत लगावत शंकर को, अहिलोचन मध्य परौ झरि कै। / अहि की फुँफकार लगी शशि को, तब अमृत बूँद गिरौ चिरि कै। / तेहि ठौर रहे मृगराज तुचाधर, गर्जत भे वे चले उठि कै। / सुरभी-सुत वाहन भाग चले, तब गौरि हँसीं मुख आँचल दै॥  अर्थात् (प्रातः स्नान के पश्चात्) पार्वती जी शंकर जीके मस्तक पर भभूत लगा रही थीं। थोड़ा सा भभूत झड़कर शिव जी के वक्ष पर लिपटे साँप की आँखों में गिरा। (आँख में भभूत गिरने से साँप फुँफकारा और उसकी) फुँफकार शंकर जी के माथे पर स्थित चंद्रमा को लगी (वह काँपने लगा जिससे उसके भीतर से) अमृत की बूँद छलक कर गिरी। वहाँ पर (शंकर जी की आसनी) जो बाघम्बर था, वह (अमृत बूँद के प्रताप से जीवित होकर) उठ कर गर्जना करते हुये चलने लगा। सिंह की गर्जना सुनकर गौ पुत्र बैल, जो शिव जी का वाहन है, भागने लगा तब गौरी जी मुँह पर आँचल रख हँसने लगीं मानो शिव जी से प्रतिहास कर रही हों कि देखो मेरे वाहन (पार्वती का एक रूप दुर्गा का है तथा दुर्गा का वाहन सिंह है) से डरकर आपका वाहन कैसे भाग रहा है।वैदिक छंद: वेदों के मंत्रों में प्रयुक्त कवित्त मापों को कहा जाता है। श्लोकों  में मात्राओं की संख्या और उनके लघु-गुरु उच्चारणों के क्रमों के समूहों को छंद कहते हैं। वेदों में लगभग१५ प्रकार के छंद प्रयुक्त हुए हैं। गायत्री छंद इनमें सबसे प्रसिद्ध है जिसके नाम ही एक मंत्र का नाम गायत्री मंत्र पड़ा है। इसके अतिरिक्त अनुष्टुप, त्रिष्टुप इत्यादि छंद हुए हैं। छंद शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है। "छंदस" वेद का पर्यायवाची नाम है। छंद शब्द मूल रूप से छन्दस् अथवा छन्दः है। इसके शाब्दिक अर्थ दो है: ‘आच्छादित कर देने वाला’ और ‘आनंद देने वाला’ । लय और ताल से युक्त ध्वनि मनुष्य के हृदय पर प्रभाव डालकर उसे एक विषय में स्थिर कर देती है और मनुष्य उससे प्राप्त आनंद में डूब जाता है । यही कारण है कि लय और ताल वाली रचना छंद कहलाती है. इसका दूसरा नाम वृत्त है । वृत्त का अर्थ है प्रभावशाली रचना । वृत्त भी छंद को इसलिए कहते हैं, क्यों कि अर्थ जाने बिना भी सुननेवाला इसकी स्वर-लहरी से प्रभावित हो जाता है । यही कारण है कि सभी वेद छंद-रचना में ही संसार में प्रकट हुए थे ।सामान्यतः वर्णों और मात्राओं की गेयव्यवस्था को भी छंद कहा जाता है। इसी अर्थ में पद्य शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। पद्य अधिक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है। भाषा में शब्द और शब्दों में वर्ण तथा स्वर रहते हैं। इन्हीं को एक निश्चित विधान से सुव्यवस्थित करने पर छंद का नाम दिया जाता है। छंदशास्त्र अत्यन्त पुष्ट शास्त्र माना जाता है क्योंकि वह गणित व ध्वनि विज्ञान पर आधारित है। छंदशास्त्र की रचना इसलिये की गई जिससे अग्रिम संतति इसके नियमों के आधार पर छंदरचना कर सके। छंदशास्त्र के ग्रंथों को देखने से यह भी ज्ञात होता है कि जहाँ एक ओर आचार्य प्रस्तारादि के द्वारा छंदो को विकसित करते रहे वहीं दूसरी ओर कविगण अपनी ओर से छंदों में किंचित् परिर्वन करते हुए नवीन छंदों की सृष्टि करते रहे जिनका छंदशास्त्र के ग्रथों में कालांतर में समावेश हो गया।
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छंद कोष महीयसी छंद

छंद कोष की एक झलक:
षड्मात्रीय रागी जातीय छंद प्रकार में महीयसी छंद:
विधान: लघु गुरु लघु गुरु (१२१२)
लक्षण छंद:
महीयसी!
गरीयसी।
सदा रहीं
ह्रदै बसीं।।
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उदाहरण
गीत:
निशांत हो,
सुशांत हो।
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उषा उगी
कली खिली।
बही हवा
भली भली।
सुखी रहो,
न भ्रांत हो...
*
सही कहो,
सही करो।
चले चलो,
नहीं डरो।
विरोध ही
नितांत हो...
*
करो भला
वरो भला।
नरेश हो
तरो भला।
न दास हो,
न कांत हो...
*
विराट हो
विशाल हो।
रुको नहीं
निढाल हो।
सुलाक्ष्य छू
दिनांत हो...
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दोहा सलिला

दोहा सलिला
*
कलकल सुन कर कल मिले. कल बनकर कल नष्ट।
कल बिसरा बेकल न हो, अकल मिटाए कष्ट।।
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शब्द शब्द में भाव हो, भाव-भाव में अर्थ।
पाठक पढ़ सुख पा सके, वरना दोहा व्यर्थ।।
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मेरा नाम अनाम हो, या हो वह गुमनाम।
देव कृपा इतनी करें, हो न सके बदनाम।।
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चेले तो चंचल रहें, गुरु होते गंभीर।
गुरु गंगा बहते रहे, चेले बैठे तीर।।
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चेला गुरु का गुरु बने, पल में रचकर स्वांग।
हँस न करता शोरगुल, मुर्गा देता बांग।।
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१६.६.२०१८ -, ७९९९५५९६१८


गुरुवार, 14 जून 2018

अभियांत्रिकी हरिगीतिका

अभियांत्रिकी
हरिगीतिका सलिला
संजीव
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(छंद विधान: १ १ २ १ २ x ४, पदांत लघु गुरु, चौकल पर जगण निषिद्ध, तुक दो-दो चरणों पर, यति १६-१२ या १४-१४ या ७-७-७-७ पर)
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कण जोड़ती, तृण तोड़ती, पथ मोड़ती, अभियांत्रिकी
बढ़ती चले, चढ़ती चले, गढ़ती चले, अभियांत्रिकी
उगती रहे, पलती रहे, खिलती रहे, अभियांत्रिकी
रचती रहे, बसती रहे, सजती रहे, अभियांत्रिकी
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नव रीत भी, नव गीत भी, संगीत भी, तकनीक है
कुछ हार है, कुछ प्यार है, कुछ जीत भी, तकनीक है
गणना नयी, रचना नयी, अव्यतीत भी, तकनीक है
श्रम मंत्र है, नव यंत्र है, सुपुनीत भी तकनीक है
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यह देश भारत वर्ष है, इस पर हमें अभिमान है
कर दें सभी मिल देश का, निर्माण यह अभियान है
गुणयुक्त हों अभियांत्रिकी, श्रम-कोशिशों का गान है
परियोजना त्रुटिमुक्त हो, दुनिया कहे प्रतिमान है
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साहित्य त्रिवेणी २० किरण श्रीवास्तव, मीना धर द्विवेदी -बालशिक्षा में छंद

बाल मन पर छंद का प्रभाव  
प्रो. किरण श्रीवास्तव, मीना धर
परिचय: प्रो. किरण श्रीवास्तव: वनस्पति विज्ञान से परास्नातक, म.प्र. छत्तीसगढ़ में महाविद्यालयीन शिक्षा में प्राध्यापक. म.प्र. लोक सेवा योग में द्वितीय स्थान। वनस्पति विज्ञान में अनेक शोध लेख, हिंदी-अंग्रेजी कविता लेखन। संपर्क: डी १०५ शैलेन्द्र नगर, रायपुर छत्तीसगढ़।                            मीना धर: हिन्दी से परास्नातक, संप्रति अध्यापन, स्वतंत्र लेखन, प्रकाशन: साझा संकलनों, पत्र-पत्रिकाओं में, अंतर्मन ब्लॉग, उपलब्धि: शोभना ब्लॉग रत्न, ‘साहित्यगरिमा’,‘विशिष्ट हिन्दी सेवी’ सम्मान तथा अन्य, संपर्क: ४३७, दामोदर नगर, बर्रा, कानपुर-२०८०२७, चलभाष: ०९८३८९४४ ७१८, ईमेल  meenadhardwivedi1967@gmail.com 
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पिंगल नियमों में बँधी अभिव्यक्ति जिसमे यति, गति, तुक, मात्रा, विराम अदि का ध्यान रखा जाए, छंद कहलाती है। प्रश्न यह है कि यह सब एक छोटे से बच्चे के कोमल मन मस्तिष्क में कैसे समाए ? बाल मन जिज्ञासु होता है पर कोमल भी।  जिज्ञासा सीखने की आतुरता उत्पन्न करती है पर कठिन नियमों को जल्दी आत्मसात करना बच्चे के लिए संभव नहीं होता। उसके नन्हें-कोमल मन को छंदों से कैसे परिचित कराया जाए? यह प्रश्न एक बाल शिक्षक के मन में उठना स्वाभाविक हैं।  एक शिशु जब जन्म लेता है तो उसका पहला स्पर्श माँ से होता है। वह माँ के स्पर्श में जो सुख पाता है, वही उसका पहला छंद है जिसका माध्यम स्पर्श है। पूर्वानुभव न होने पर भी वह माँ के प्रथम स्पर्श में निहित ममता की भावना को आत्मसात कर आनंदित होता है। माँ शिशु के प्रथम स्पर्श से आनंदित हो उसके माथे पर हाथ फेरते हुए जो कुछ गुनगुनाती है, भले ही उनमें सार्थक शब्द, गति-यति न हो, बिंब-प्रतीक न हों या हों भी तो उनकी समझ शिशु में न हो, वह ध्वनि ही शिशु को सुनाई देता प्रथम छंद है। (शिशु-जन्म के समय हुआ रुदन भी आरोह-अवरोह से युक्त होता है. भिन्न-भिन्न शिशुओं के रुदन में भी भिन्नता अनुभव की जा सकती है जिसका विविध छंदों से ध्वनि-साम्य अध्ययन का विषय है। -सं.)  माँ के बंद होठों से नि:सृत होती ध्वनि में  गति-यति, तुक, विराम होता भी है तो काव्यशास्त्र के विधानानुसार नहीं,वात्सल्य की भावनानुसार होता है। शिशु के लिए यही छंद है | उसी छंद के रस में डूबा वह माँ की गोद में दुनिया जहान से बेखबर सुख की नींद सो जाता है।  जैसे-जैसे वह बड़ा होता है उसके लिए चिड़ियों की चहक, कोयल की कूक में जो सुर है, लय है वही उसका छंद है, वर्षा की बूँदों की छम-छम उसका छंद है, पवन के वेग से पत्तों की खनक ही उसका छंद है,जिसमे कहीं कोई व्याकरण का नियम नहीं है (प्रकृति अपने नियमों से चलती है। कोई संगीतकार इन ध्वनियों में किसी राग़ या छंदकार किसी छंद की प्रतीति कर सकता है -सं.) ।शैशवावस्था में बाल मन इन्हीं ध्वनियों से लय को आत्मसात करता है जो उसके लिए छंद की तरह है।  
बाल-मन का छंद से दूसरा परिचय विद्यालय में होता है। बचपन की कुछ धुंधली सी यादें हैं जब हमारी कक्षा वृक्षों की छाँव में लगा करती थी, चटाइयों के रोल खोलकर हम सब छात्र-छात्राएँ मिल कर बिछाते और उसी पर कतारबद्ध बैठते, एक कक्षा में सिर्फ एक ही लकड़ी की कुर्सी होती थी जिसपर मास्साब बैठते थे और उनके हाथ में पतली नीम की छड़ी हुआ करती थी। मुझे आज भी याद है, अपने विद्यालय की पहली प्रार्थना (जो आज-कल लुप्त सी हो गयी है) जो गाते हुए हम ऐसे भक्ति रस में डूबते थे कि राष्ट्रगान के लिए आँखें न खुलती थीं। वह प्रार्थना आज भी कंठस्थ है:
वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्त्तव्य मार्ग पर डट जावें।
पर-सेवा पर-उपकार में हम, जग-जीवन सफल बना जावें॥ (१६-१६ मात्रिक पंक्तियाँ- चौपाई छंद)
प्रार्थना, राष्ट्रगान और भारतमाता की जय के बाद पहली कक्षा हिंदी की होती थी। मात्रा ज्ञान देने के भी छंद का ही सहारा लिया जाता था। 'राजा आ राजा / मामा ला बाजा / कर मामा ढम-ढम, नच राजा छम-छम ( दस मात्रिक दैशिक जातीय छंद)। बड़ी ई की मात्रा सिखाने के लिए 'मछली जल की रानी है' (मानव जातीय, सखी छंद), 'चुहिया रानी बड़ी सयानी' (संस्कारीजातीय, पादाकुलक छंद), ओ की मात्रा सिखाने के लिए ’उठो लाल अब आँखें खोलो’ (संस्कारीजातीय, अरिल्ल छंद) आदि गीत सिखाए, याद कराए और गवाए जाते थे। मात्रा या वर्ण गिने बिना रहीम और कबीर के दोहे हम सस्वर गा कर याद किया करते थे। तब हमें लेश मात्र भी ज्ञान नही था कि यह दोहा छंद है, इसमें चार चरण और १३-११ की मात्राएँ भी होती हैं। 'लोट रहा सागर चरणों में, सर पर मुकुट हिमालय / जन्म भूमि हम सबकी प्यारी / भारत माता की जय' (यौगिक जातीय कर्णा छंद), यह कदंब का पेड़ अगर माँ, होता यमुना तीरे / मैं भी उस पर बैठ कन्हैया, बनता धीरे-धीरे (यौगिक जातीय कर्णा छंद) आदि कवितायें आज नहीं पढ़ाई जा रहीं किंतु जिन्होंने इन्हें पढ़ा है वे आजन्म भुला नहीं सकते। छंद में रूचि हो या न हो किंतु लय को भुलाना संभव नहीं होता। लय से ही गीत याद आ जाता है। 'यादों की बारात' शीर्षक चलचित्र में बिछड़े भाई बचपन में साथ गाए गीत की धुन वाद्य पर सुनकर ही बरसों बाद एक दूसरे को पहचान पाए थे। यह भी देखा गया है कि बीमार बच्चे के कानों में अपनी माँ से सूनी लोरी के बोल पड़े तो वह कष्ट होते हुए भी उसकी पीड़ा की अनुभूति कम करता है। 
पहले  बच्चों को सात वर्ष, फिर पाँच वर्ष की आयु के बाद ही विद्यालय भेजा जाता था। आजकल बच्चा ढाई-तीन वर्ष की उम्र में विद्यालय नहीं गया तो वह अपनी शिक्षा की दौड़ में पिछड़ा माना जाता है। आज की शिक्षा ज्ञान के लिए नहीं बल्कि धनार्जन के लिए ली और दी जा रही है किंतु जो बात आज नहीं बदली वह है 'प्रार्थना' जो बच्चा पहले दिन ही सबके खड़े हो हाथ जोड़कर गाता है, भले ही भाषा कोई भी हो यहीं उसका परिचय होता है स्कूल के पहले छंद से। 
बाल-मन पर छंद की तीसरी छाप कक्षा में पड़ती है। अध्यापिका ‘तितली रानी इतने सुन्दर पंख कहाँ से लाई हो’ आदि कविताएँ गाती है तो बच्चा सुर में सुर मिलाकर मात्रा, यति, गति, तुक, विराम आदि के ज्ञान के बिना भी छंदों को आत्मसात करता है। बाल मन में सीखने की तीव्र ललक होती है। (प्रतिभावान बच्चे घर / शाला में सुनी हुई लय के आधार पर खुद भी तुकबंदी करते हैं। पूज्य बुआश्री महीयसी महादेवी जी ने मुझे बताया था कि वे अपनी माँ का साथ  भजन गुनगुनाते हुए ही कविता लिखना सीखीं। एक दिन उनकी माँ ठाकुर जी को स्नान-चंदन-श्रृंगार पश्चात् भोग लगा रही थीं तभी उनके मुँह से पहली कविता नि:सृत हुई: 'माँ के ठाकुर जी भोले हैं / ठंडे पानी से नहलातीं / गीला चन्दन उन्हें लगतीं / उनका भोग स्वयं खा जातीं / फिर भी कभी नहीं बोले हैं' -सं.)  
समस्या तब आती है जब शिक्षक उसे व्याकरण के आधार पर सिखाने का प्रयास करते हैं, तब सीखना बच्चे के लिए कठिन हो जाता है | बच्चे को लालित्यपूर्ण ढंग से सिखाया जाए तो वह आजीवन नहीं भूलता। ( मुझे शालेय शिक्षा के समय ख्यात कवि श्री सुरेश उपाध्याय से हिंदी पढ़ने का सौभाग्य मिला। तब अलंकारों की परिभाषा दोहों में सीखी थी जो आजीवन पते के रूप में साथ है: 'एक वर्ण की आवृत्ति, होवे बारम्बार / कहते हैं कविजन उसे, अनुप्रासालंकार' -सं) 
बच्चे को सीधे-सीधे छंद-प्रकार, उनकी पहचान,  विधान बताने पर वह शीघ्र ही ऊब जाता है और उसके लिए सीखना बोझिल हो जाता है। वह विद्यालय जाने से कतराने लगता है | इसलिए शिक्षक और माता-पिता दोनों का दायित्व है कि सरस और रुचिपूर्ण शिक्षा के माध्यम से बच्चे का सर्वांगीण विकास करें। आज की शिक्षा व्यवसायिक हो गई है।विद्यालय में निरंतर नीरस पढ़ाई और घर में पूरे दिन गृह-कार्य करता बच्चा वह रोबोट या रट्टू तोता बन कर रह जाता है। 
बाल-आचरण और छंद:  
सीखने की कोई उम्र नहीं होती परंतु बालपन में सीखे हुए का मन पर प्रभाव हमेशा बना रहता है। बच्चे छंदों में लिखी कविताओं के माध्यम से सदाचरण, सुनीति, प्रकृति के उपकार, पर्यावरण के प्रति दायित्व आदि छंदों के माध्यम से समझें तो अपनी भूमिका बाल्यकाल से ही समझ और निभा सकेंगे। बच्चा ही देश का भविष्य है। वह कैसा नागरिक बनेगा इसकी नींव बचपन में ही पड़ जाती है और इस नींव को मजबूत करने में छन्दों का विशेष योगदान है। बाल शिक्षा में छंद उतना ही महत्व रखता है जितना कि भोजन में नमक का जो कहीं नहीं दिखता पर जिसके बिना भोजन बेस्वाद हो जाता है। 'हम भारत के वीर सिपाही, मिलकर कदम बढ़ाएँगे / कितनी भी मुश्किल आ जाए / कभी नहीं घबराएँगे' (महातैथिक जातीय, ताटंक छंद) जैसे गीत गाते हुए कदमताल या परेड करने से बालमन में विकसित होता हुआ अनुशासन और ऐक्य भाव ही अनुशासित किशोर और युवक को जन्म देता है।
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मंगलवार, 12 जून 2018

साहित्य त्रिवेणी १७. विवेक रंजन श्रीवास्तव 'विनम्र' हास्य, व्यंग्य काव्य में छंद


हास्य, व्यंग्य काव्य में छंद

विवेक रंजन श्रीवास्तव
परिचय: जन्म २८.७.१९५९, अभियांत्रिकी स्नाकोत्तर, व्यंग्य लेख, नाटक तथा तकनीकी लेखन हेतु ख्यात। प्रकाशित आक्रोश -कविताएँ, रामभरोसे तथा कौआ कान ले गया -व्यंग्य संग्रह, हिन्दोस्तान हमारा -नाटक संग्रह, जादू शिक्षा का नाटक पुरस्कृत, जल जंगल और जमीन तथा बिजली का बदलता परिदृश्य -तकनीकी। संप्रति अधीक्षण अभियंता विद्युत् मंडल मध्य प्रदेश।    संपर्क: ए १ , शिला कुंज , रामपुर , जबलपुर ४८२००८  मो ७०००३७५७९८, vivekranjan.vinamra@gmail.com 
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हास्य-व्यंग्य एक सहज मानवीय प्रवृति है। दैनिक व्यवहार में भी हम जाने-अनजाने कटाक्ष, परिहास, व्यंग्योक्तियो आदि का उपयोग करते हैं। साहित्य की दृष्टि से  मानवीय वृत्तियों को आधार मानकर व्याकरणाचार्यों ने ९ मूल मानवीय भावों हेतु  ९ रसों का वर्णन किया है।श्रंगार रस अर्थात रति भाव, हास्य रस अर्थात हास्य की वृत्ति, करुण रस अर्थात शोक का भाव, रौद्र रस अर्थात क्रोध, वीर रस अर्थात उत्साह, भयानक रस अर्थात भय, वीभत्स रस अर्थात घृणा या जुगुप्सा, अद्भुत रस अर्थात आश्चर्य का भाव  तथा शांत रस अर्थात निर्वेद भाव में सारे साहित्य को विवेचित किया जा सकता है। १० वें रस के रूप वात्सल्य रस को में अलग से विश्लेषित किया गया है, किंतु मूलतः वह श्रंगार का ही एक सूक्ष्म उप विभाजन है। मनोविज्ञान के विशेषज्ञों ने हास्य को मूल प्रवृत्ति के रूप में समुचित स्थान दिया है। आनंद के साथ हास्य का सीधा संबंध है। हास्य तन-मन के तनाव दूर करता है, स्वभाव की कर्कशता मिटाता है, व्यंग्य  आत्मनिरीक्षण और आत्मपरिष्कार के साथ ही मीठे ढंग से समाज सुधार का मार्ग प्रशस्त करता है, व्यक्ति और समाज की थकान दूर कर उनमें ताजगी भरता  है। भरत का नाट्यशास्त्र , भाव प्रकाश , साहित्य दर्पणकार , दशरूपककार आदि  साहित्य में रसछंद के प्रामाणिक पुरातन ग्रंथ हैं। 
       विपरीतालंकारैर्विकृताचाराभिधान वेसैश्च
      विकृतैरर्थविशेषैहंसतीति रस: स्मृतो हास्य:।। - भरत मुनि, नाट्यशास्त्र  
       प्रीतिर्विशेष: चित्तस्य विकासो हास उच्यते।  - भावप्रकाश 
वर्णदि वैकृताच्चेतो विकारो हास्य इष्यते  - साहित्य दर्पणकार 
       विकृताकारवाग्वेशचेष्टादे: कुहकाद् भवेत्।।
       विकृताकृतिवाग्वेरात्मनस्यपरस्य वा
       हास: स्यात् परिपोषोऽस्य हास्य स्त्रिप्रकृति: स्मृत:।। -दश रूपककार 
निष्कर्षत: हास्य एक प्रीतिपरक भाव है। हास्य का प्रादुर्भाव आकार, वेष, आचार, अभिधान, अलंकार, अर्थविशेष, वाणी, चेष्टा आदि भाव भंगिम आदि की असामान्यता से होता है। वैचित्र्य से निर्मित असामान्य स्थितियाँ अभिनेता, वक्ता, गायक, संचालक या अन्य किसी की हों उनसे हास्य का उद्रेक होता है। कवि कौशल द्वारा हमें  रचना में इस तरह के अनुप्रयोग से  आल्हादित करता है।  यह विचित्रता हमारे मन को पीड़ा न पहुँचाकर,  गुदगुदाती है, यह अनुभूति ही हास्य है। हास्य के भाव का उद्रेक देश-काल-पात्र-सापेक्ष होता है. घर पर कोई खुली देह बैठा हो तो दर्शक को हँसी न आएगी किंतु किसी उत्सव में भी वह इसी तरह पहुँच जाए तो उसका आचरण प्रत्याशित से विपरीत या विकृत माना जाकर उसे हँसी का पात्र बना देगा। युवती श्रृंगार करे तो उचित है किंतु किसी  वृद्धा का श्रृंगार परिहास का कारण होगा। केले के छिलके पर फिसलने वाले को देखकर हम हँसते हैं परंतु छत से गिरनेवाले बच्चे के प्रति  हमारी करुणा उमड़ेती है। हास्य का उद्भव परिस्थिति सापेक्ष होता है। 
हास्य के दो भेद आत्मस्थ और परस्थ हैं। हास्य पात्र का स्वत: हँसना आत्मस्थ हास्य और दूसरों को हँसाना परस्थ हास्य है। हास्य के छह स्मित, हसित, विहसित, उपहसित, अवहसित और अतिहसित हैं। विदेशी विद्वानों ने हास्य रचना  के पाँच प्रमुख प्रकार ह्यूमर (विनोद), विट (वाग्वैदग्ध्य), सैटायर (व्यंग्य), आइरनी (वक्रोक्ति) और फार्स (प्रसहन) बताये हैं। ह्यूमर और फार्स हास्य के विषय से संबंधित हैं जबकि विट, सैटायर और आइरनी का संबंध उक्ति के कौशल से है। पैरोडी (रचना परिहास) भी हास्य की एक विधा है जिसका संबंध रचना कौशल से है। आइरनी का अर्थ कटाक्ष या परिहास है। विट अथवा वाग्वैदाध्य को एक विशिष्ट अलंकार कहा जा सकता है। 
आकृतिक बेतुकापन, मोटापा, कुरूपता, भद्दापन, अंग-भंग, अति कोमलता, तोंद, कूबड़, अटपटी चाल, नारी-उपहासपरक हास्य अब उपयुक्त नहीं माना जाता। प्रकृति या स्वभाव का बेतुकापन, उजड्डपन, बेवकूफी, पाखंड, झेंप, चमचागिरी, अमर्यादित फैशनपरस्ती, कंजूसी, दिखावा पांडित्य का बेवजह प्रदर्शन, अनधिकार अहं, बेतुकापन, पारिस्थितिक वैचित्र्य,  समय की चूक, समाज की असमंजसता में व्यक्ति की विवशता आदि हास्यपरक छंद-काव्य के विषय हैं। वेश का बेतुकापन, हास्य पात्रों, नटों और विदूषकों का प्रिय विषय  रहा है और प्रहसनों, रामलीलाओं, रासलीलाओं, "गम्मत", तमाशों आदि में छांदस हास्य प्रयोग बहुधा प्रस्तुत किये जाते हैं।
प्राचीन संस्कृत साहित्य हास्य-व्यंग्य से भरपूर है। कालिदास के रचना कौशल का यह एक उदाहरण दृष्टव्य है: राजा भोज ने घोषणा की जो नया श्लोक रचकर लाएगा उसे एक लाख मुद्राएँ पुरस्कार में मिलेंगी परंतु पुरस्कार किसी को मिल ही नहीं पाता था क्योंकि  मेधावी दरबारी पंडित नया श्लोक सुनते ही उसे दुहरा देते और इस प्रकार उसे पुराना घोषित कर देते थे। कालिदास ने श्लोक में दावा किया राजा निन्नानबे करोड़ रत्न देकर अपने पिता को ऋणमुक्त करें और इस पर पंडितों का साक्ष्य ले लें। यदि पंडितगण कहें कि यह दावा उन्हें विदित नहीं है तो फिर इस नए श्लोक की रचना के लिए एक लाख मुद्रा दी जाए। इसमें "कैसा छकाया" का भाव सन्निहित है। 
       स्वस्तिश्री भोजराज! त्रिभुवनविजयी धार्मिकस्ते पिताऽभूत्
       पित्रा ते मे गृहीता नवनवति युता रत्नकोटिर्मदीया।
       तान्स्त्वं मे देहि शीघ्रं सकल बुधजनैज्र्ञायते सत्यमेतत्
       नो वा जानंति केचिन्नवकृत मितिचेद्देहि लक्षं ततो मे।।    
हिंदी के वीरगाथाकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल में छंद बद्ध हास्य रचना के अनेक प्रसंग हैं। रामचरिमानस का नारद मोह प्रसंग, शिव विवाह प्रसंग, परशुराम प्रसंग आदि  सूरसागर का माखन चोरी प्रसंग, उद्धव-गोपी-संवाद आदि छांदस हास्य के अच्छे उदाहरण हैं। तुलसीदास जी जैसे धीर-गंभीर कवि ने जरा जर्जर तपस्वियों की श्रंगार लालसा पर मजेदार चुटकी ली है:
       विंध्य के वासी उदासी तपोव्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे
       गौतम तीय तरी तुलसी सो कथा सुनि भे मुनिवृंद सुखारे।
       ह्वै हैं सिला सब चंद्रमुखी, परसे पद मंजुल कंज तिहारे
       कीन्हीं भली रघुनायक जू जो कृपा करि कानन को पगु धारे।।   
घाघ, भड्डरी, गिरधर, गंग, बेनी कविरा के भड़ौवे आदि इस काल की प्रसिद्ध हास्य व्यंग्य रचनायें हैं। भारत जीवन प्रेस ने इस काल की फुटकर हास्य रचनाओं का कुछ संकलन अपने "भड़ोवा संग्रह" में प्रकाशित किया था। इस काल में, विशेषत: दान के प्रसंग को लेकर, कुछ मार्मिक रचनाएँ हुई हैं जिनकी रोचकता आज भी कम नहीं कही जा सकती:
       चीटे न चाटते मूसे न सूँघते, बांस में माछी न आवत नेरे,
       आनि धरे जब से घर में तबसे रहै है जा परोसिन घेरे,
       माटिहु में कछु स्वाद मिलै, इन्हैं खात सो ढूढ़त हर्र बहेरे,
       चौंकि परो पितुलोक में बाप, सो आपके देखि सराध के पेरे।। 
एक कंजूस  ने संकट आने पर अपने वजन के बराबर दान करना कबूल किया। फिर वजन घटाने की नानाविध तरकीबें कीं:  
       बारह मास लौं पथ्य कियो, षट मास लौं लंघन को कियो कैठो
       तापै कहूँ बहू देत खवाय, तो कै करि द्वारत सोच में पैठो
       माधौ भनै नित मैल छुड़ावत, खाल खँचै इमि जात है ऐंठो
       मूछ मुड़ाय कै, मूड़ घोटाय कै, फस्द खोलाय, तुला चढ़ि बैठो।।
अपने समय के शिखर हस्ताक्षर, हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू  के महारथी प्रेमा संपादक रामानुज लाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी' (जन्म २८ अगस्त १८९८-निधन २६ अप्रैल १९७६) ने मधुशालाकार बच्चन जी की प्रथम कविता प्रेमा में प्रकाशित की थी। ऊँट जी के हास्य दोहे तत्कालीन परिदृश्य प्रस्तुत करते हैं:
कहा कहों छवि आज की, भले बने हो लाल / बिन इस्त्री की पेंट है, बिना सेंट रूमाल
कमर हमारी लचलची, गला सुराहीदार / कहैं असुन्दर ऊँट को, जो वे निपट गँवार
भूख छिपाए णा छिपे, कोटक करो उपाय/या ते भारत-नारि अब, पेट रहीं दिखराय
'पत्नीवाद' के प्रणेता हास्यरसावतार गोपाल प्रसाद व्यास की कालजयी रचना ससुराल  (१६ मात्रिक संस्कारी जातीय पादाकुलक, पदपादाकुलक तथा पद्धरि छंद मिश्रित -सं.) की कुछ पंक्तियों का आनंद लें:
तुम बहुत बन लिए यार संत, अब ब्रम्हचर्य में नहीं तंत,
क्यों दंड व्यर्थ में पेल रहे, ससुराल चलो बुद्धू बसंत।
मुख में बीड़ा, कर में गजरा, आँखों में मस्ताना कजरा,
कुर्ते में चुन्नट डाल चलो, ससुराल चलो, ससुराल चलो...
काका की फुलझड़ियाँ, काका के प्रहसन, लूटनीति मंथन करि,  खिलखिलाहट,  काका तरंग, जय बोलो यार सप्तक, जय बोलो बेईमान की, काका के व्यंग्य बाण आदि के रचयिता काका हाथरसी की हास्य कविताओं में छंद का बोलबाला रहा है। काका की षट्पदियों में विविध छंदों का सम्मिश्रण है किंतु जन सामान्य उन्हें कुण्डलियाँ कहता रहा।  
पत्रकार दादा बने, देखो उनके ठाठ।
कागज़ का कोटा झपट, करें एक के आठ।। -दोहा छंद 
करें एक के आठ, चल रही आपाधापी ।
दस हज़ार बतलाय, छपें ढाई सौ कापी ।। -रोला छंद 
विज्ञापन दे दो तो, जय-जयकार कराएं।
मना करो तो उल्टी-सीधी न्यूज़ छपाएं ।। -दिक्पाल / मृदुगति छंद 
कभी-कभी मस्तिष्क में, उठते प्रश्न विचित्र।
पानदान में पान है, इत्रदान में इत्र।।        -दोहा 
इत्रदान में इत्र,सुनें भाषा विज्ञानी।    ११-१३, रोला 
चूहों के पिंजड़े को, कहते चूहेदानी।   १२-१२ दिक्पाल 
कह 'काका' इनसान रात-भर सोते रहते। ११-१३ सोरठा 
उस परदे को मच्छर दानी क्यों कर कहते।। १२-१२
हास्य-व्यंग्य के साथ राष्ट्रीय भावधारा के सशक्त कवि निर्भय हाथरसी की रचनाओं में देश-चिंता व्याप्त है। राजनैतिक भ्रष्टाचार पर प्रहार करती निम्न रचना ( २९ मात्रिक माहयौगिक जातीय छंद में है जिसमें १६-१३ पट यति है-सं.) आज और अधिक प्रासंगिक है :
कुर्सी पर कपटी बैठे हैं, गद्दी पर गद्दार हैं
नोटों की बौछार हुई है, वोटों का व्यापार है
बढ़ती आबादी निश्चय बर्नादी को बेज़ार है
आज़ादी की दुल्हन का अंगारों से श्रृंगार है
उनका सौदा नगद हुआ है, इनका अभी उधार है
जिसको देखो वही यहाँ पर हिंसा को तैयार है
केंकड़ा तथा अन्य हास्य संग्रहों के रचयिता झलकन लाल वर्मा 'छैल' की रचनाओं में मौलिकता तथा सामयिकता का सम्मिश्रण है। निम्न गीत (२४ मात्रिक अवतारी जातीय  वस्तुवदनक छंद में मुखड़ा और ३२ मात्रिक लाक्षणिक जातीय सवाई  छंद में मुखड़ा -सं.) में रहनैतिक नेताओं पर शब्द-प्रहार देखने योग्य है- 
दुनिया मंहगाई में पिसती है, पिसा करे
मैं क्यों न भला अवसर पाकर व्यापार करूँ.
नेता हूँ, मुझको क्या डर है? मेरे दिमाग में लेक्चर है.
फटकार जहाँ पर दिया वहाँ पूरा कर लिया किला सर है।
पाँचों उँगली घी में तर है, घी भरी कड़ाही सर पर है.
हर एक महकमा मेरा है, हर दफ्तर खला का घर है
मैं नगद घूस ही लेता हूँ, कौड़ी भी नहीं उधार करूँ
जबलपुर के ख्यात हास्य कवि रासबिहारी पांडे के छकडे (षट्पदी) काका हाथरसी की हे तरह हैं जिनमें दोहा और रोला का मिश्रण है किंतु  आदि-अंत में शब्द या शब्द समूह साम्य नहीं है-
नेताजी बेहाल हैं, आया निकट चुनाव
वोटर के छूकर चरण, दिखलाये कुछ भाव
दिखलाये कुछ भाव, कि भौंचक वोटर भोले
'अरे, अरे क्या करते?, हाथ जोड़कर बोले 
नेता बोले: आज हमें बस नाक रगड़ना
तुमको तो है पाच साल तक पूरे सड़ना 
हुल्लड़ मुरादाबादी की रचनाओं में भी कथ्य को शिल्प  पर वरीयता दी गयी है-
चार बच्चों को बुलाते, तो दुआएँ मिलतीं,   १४-११
साँप को दूध पिलाने, की जरूरत क्या थी ? १३-११ -सारस छंद 
मत करो बुढ़ापे में, इश्क की तमन्नाएँ              १२-१२ 
क्योंकि फ्यूज बल्बों में, बिजलियाँ नहीं होतीं।। १२-१२ अवतारी जातीय छंद 
हुल्लड़ जी में  तात्क्षणिक रचनाधर्मिता की अद्भुत प्रतिभा थी। एक बार उनसे किसी श्रोता ने लालू जी पर कुछ सुनाने की माँग की।  हुल्लड़ जी मंच से "अच्छा है पर कभी कभी" उन्वान की रचना पढ़ रहे थे , उन्होने तुरंत ही सुनाया:
हमने देखा कल सपने में, लालू जी ने दूध दिया        १६-१४ 
गाय, भैंस का चारा खाना, अच्छा है पर कभी-कभी।।१६-१४ महातैथिक जातीय छंद 
कविता का मूल उद्देश्य केवल हँसी या मनोरंजन ही नहीं होता। श्रोता/ पाठक को हँसी के अतिरिक्त कुछ न मिले तो वह कविता बेमानी है, व्यर्थ है। हुल्लड़जी ने वर्षों भौतिक तापों की प्रबल आँच झेली किंतु उनकी आशावादी जिजीविषा और सृजनात्मक कर्मनिष्ठा ने उस जीवन संघर्ष पर विजय पाई जिसमें कोई अन्य व्यक्ति टूट जाता।  एक कुण्डलिया छंद में उन्होंने इसकी चर्चा की है: 
बीता हर गम मर चुका, मत ढो उसकी लाश।
वर्तमान में जिए जा, छू लेगा आकाश।।         -दोहा 
छू लेगा आकाश, समय जो आनेवाला,
कैसा होगा कौन, तुझे बतलाने वाला।
सुख-दु:ख मन के खेल, व्यर्थ मत करो फजीता,
अब आगे की सोच, भूल जा जो भी बीता।      -रोला 
१७ मई १९३७ को जन्मे अल्‍हड़ बीकानेरी (श्‍याम लाल शर्मा) की  'रेत पर जहाज' संग्रह में प्रकाशित एक गजल दिल को छूने वाली है :
     ''मरुस्‍थल तो मनाता है नदी को    १९ 
      तरस लेकिन कब आता है नदी को १९
      नए शाइर-सा ये गुस्‍ताख झरना   १९ 
      गजल अपनी सुनाता है नदी को   १९ 
      हिमाकत देखिए इक बुलबुले की  १९ 
      इशारों पर नचाता है नदी को''     १९ महापौराणिक जातीय, पिंडी छंद
ओम प्रकाश आदित्य की (मनहरण या कवित्त घनाक्षरी में ८-८-८-७ वर्णिक बंधन में निबद्ध -सं) निम्न रचना उनकी भाषिक तथा छांदस सामर्थ्य की परिचायक है- 
छंद को बिगाड़ो मत, गंध को उजाड़ो मत   
कविता-लता के ये सुमन झर जाएँगे।        
शब्द को उघाड़ो मत, अर्थ को पछाड़ो मत,
भाषण-सा झाड़ो मत गीत मर जाएँगे।
हाथी-से चिंघाड़ो मत, सिंह से दहाड़ो मत
ऐसे गला फाड़ो मत, श्रोता डर जाएँगे।
घर के सताए हुए आए हैं बेचारे यहां
यहाँ भी सताओगे तो ये किधर जाएँगे। 
प्रदीप चौबे की सत्रह मात्रा भार के महासंस्कारी जातीय छंद में रचित निम्न रचना उच्चारण के आधार पर रची गयी वाचिक रचना है, इसलिए वर्णानुसार गिने जाने पर अंतर मिलता है. 
हर तरफ गोलमाल है साहब      १७ 
आपका क्या खयाल है साहब     १७ 
कल का भगुआ चुनाव जीता तो १८ 
आज भगवत दयाल है साहब     १७ 
लोग मरते रहें तो अच्छा है        १८ 
अपनी लकड़ी की टाल है साहब १८ 
आपसे भी अधिक फले फूले      १७ 
देश की क्या मजाल है साहब     १७ 
मुल्क मरता नहीं तो क्या करता१८ 
आपकी देखभाल है साहब         १७ 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' पेशे से इंजीनियर हैं। अंतर्जाल पर बोलोग, ऑरकुट, फेसबुक, वाट्सएप, मेसेंजर, ऑरकुट अर्थात हर मंच और दिव्य नर्मदा जाल पत्रिका में गत २ दशकों से निरंतर लिखने ही नहीं छंद शिक्षण के महा अभियान में प्राणप्रण से समर्पित रहने के साथ हास्य रचनाओं में छंद पिरोने में उनका सानी नहीं है। 'अंतर्राष्ट्रीय बुक डे' पर षट्पदी देखे:
राह रोक कर हैं खड़े, 'बुक' ले पुलिस जवान
वाहन रोकें 'बुक' करें, छोड़ें ले चालान       -दोहा 
छोड़ें ले चालान, कहें 'बुक' पूरी भरना
छूट न पाए एक, न नरमी तनिक बरतना -रोला 
कारण पूछा- कहें, आज 'बुक डे' है भैया  
अगर हो सके रोज, नचें कर ता-ता थैया  -रोला 
बत्तीस मात्रिक अश्वावातारी जातीय सार सवैया में रचित 'ठेंगा' शीर्षक रचना की कुछ पंक्तियाँ उनकी मौलिकता का नमूना हैं-
है ठेंगे में 'ठ', ठाकुर में 'ठ', ठठा हँसा जो वह ही जीता १६-१६
कौन ठठेरा?, कौन जुलाहा?, कौन कहाँ कब जूते सीता?१६-१६
ठेंगा दर्शन बेज़ार करे, ठेंगे बिन मिलता चैन नहीं १६-१६
ठेंगे बिन दिवस नहीं कटता, ठेंगे बिन कटती रैन नहीं १६-१६
अवतारी जातीय सारस छंद में रचित हास्य-व्यंग्य मुक्तिका का आनंद लें:
आँख खुले भी ठोकर खाई धत्तेरे की / नेता से उम्मीद लगाई धत्तेरे की
पूज रहा गोबर गणेश पोंगा पण्डज्जी / अंधे ने आँखें दिखलाई धत्तेरे की
चौबे चाहे छब्बे होना, दुबे रह गए / अपनी टेंट आप कटवाई धत्तेरे की
अपन लुगाई आप देख के आँख फेर लें / छिप-छिप ताकें नार पराई धत्तेरे की
एक कमा दो खरचें, ले-लेकर उधार वे / अपनी शामत आप बुलाई धत्तेरे की 
हास्य दोहों के माध्यम से अंग्रेजी प्रेम और शब्दों के गलत प्रयोग पर सलिल जी व्यंग्य बाण अपनी मिसाल आप हैं:  
शब्दों से खिलवाड़ का, लाइलाज है रोग..  
कहें 'स्टेशन' आ गया, आते-जाते लोग.
'पौधारोपण' कर कहें, 'वृक्षारोपण' आप.
गलत शब्द उपयोग कर, करते भाषिक पाप..
'ट्रेन' चल रही किन्तु हम, चला रहें हैं 'रेल'. 
हिंदी माता है दुखी, देख शब्द से खेल..
कहते 'हैडेक' पेट में, किंतु नहीं 'सिरदर्द'.
बने हँसी के पात्र तो, मुख-मंडल है ज़र्द..
'फ्रीडमता' 'लेडियों' को, मिले दे रहे तर्क.
'कार्य' करें तो शर्म है, गर्व करें यदि 'वर्क'..
सीतापुर के वास्तुविद अभियंता अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर' ने हास्य-व्यंग्य दोहों के माध्यम से अपना स्थान बनाया है:
चिमटा बेलन प्रेम का, खुलकर करें बखान.
जोश भरें हर एक में, ले भरपूर उड़ान.
चमचों से डरते रहें, कभी करें मत बैर.
चमचे पीछे यदि पड़े, नहीं आपकी खैर..
नैनों से सुख ले रहे, नाप रहे भूगोल.
सारे भाई-बंधु हैं, नहीं इन्हें कुछ बोल.
गलती कर मत मानिए, बने खूब पहचान.
अड़े रहें हल्ला करें, सही स्वयं को मान..
अहंकार दिखता बड़ा, ‘मैं’ छाया बिन प्राण.
‘मैं’ ‘मैं’ ‘मैं’ ही कीजिये, होगा अति कल्याण..
लखनऊ के अभियंता-गायक-हास्य कवि राजेश अरोरा 'शलभ'रचित पैरोडी संग्रह, हास्य पिटारा, हास्य बम, ग़ज़ल संग्रहों, कैसेटों तथा सीडी आदि ने उन्हें शिखरस्थ किया है. उनके एक गीत में  (२९ मात्रिक महायौगिक जातीय छंद, १६-१३ पर यति -सं.) अन्तर्निहित व्यंग्य सोचने को विवश करता है:
देश न इसका, देश न उसका, देश हमारे बाप का
जितना चाहूँ उतना खाऊँ, क्या जाता है आपका?
मेरे घर में छापा डाले, किसकी ये औकात है?
कोतवाल है ताऊ मेरा, इंस्पेक्टर दामाद है
मेरे दो-दो मुँह हैं भैया, इक नर का, इक साँप का  
मूलतः संस्कृत काव्यों के हिन्दी काव्यानुवाद तथा राष्ट्रीय कवि के रूप में समादृत   प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध' ने हास्य में भी पताका फहराई है:
होली का त्यौहार है सभी खेलते रंग 
मैं भी इससे आ गया ले पिचकारी संग 
उनकी एक संदेश पूर्ण व्यंग्य कविता है ...
हो रहा आचरण का निरंतर पतन,राम जाने कि क्यो राम आते नहीं
हैं जहां भी कहीं हैं दुखी साधुजन देके उनको शरण क्यों बचाते नहीं
विवेक रंजन श्रीवास्तव 'विनम्र' हास्य-व्यंग्य लेखों के साथ-साथ व्यंग्य कविता लेखन में भी स्थान बना चुके हैं:
सड़क हो न हो मंजिलें तो हैं फील गुड  
अपराधी को सजा मिले न मिले 
अदालत है , पोलिस भी फील गुड 
उद्घाटन हो पाये न हो पाये 
शिलान्यास तो हो रहे हैं फील गुड 
 डा. अजय जनमेजय की हिंदी गजल ( मापनी २२२ २२२ २२२ २२)  में हास्य-व्यंग्य मिश्रित है:
संबंधों को यार निभाना सीख गया       
हाँ, मैं भी अब आँख चुराना सीख गया
मन्वन्तर के हास्य हाइकु (५-७-५ ध्वनि आधारित वर्ण संख्या पर लिखित जापानी त्रिपदिक छंद-सं.) अभिनव प्रयोग है:
अजब गेट / कोई न करे पार / रे! कोलगेट।
एक ही सेंट /  नहीं सकते सूंघ / है परसेंट।
कौन सी बला / मानी जाती है कला? / बजा तबला।
सारत:, छंद ने हास्य-व्यंग्य कविताओं की सरसता में वृद्धि कर उन्हें लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचाया है। छंद मुक्त हास्य कविताओं में कोइ एक छं भले ही न हो किन्तु उनकी विविध पंक्तियाँ विविध छंदों का मिश्रण होती है। यति-स्थान से पंक्ति परिवर्तन कर देने पर पंक्तियाँ छोटी-बड़ी दिखने लगती हैं। छंद हास्य-व्यंग्य को उभारने और उसे श्रोता-पाठक तक पहुँचाने में उत्प्रेरक का कार्य करता है।  
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सोमवार, 11 जून 2018

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गीत:
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
*
भाव भूलकर क्यों शब्दों में सिमट गए? 
शिव बिसराकर, शव से ही क्यों लिपट गए?
फ़िक्र पर्व की, कर पर्वों को ठुकराया-
खुशी-खुशी खुशियों से दबकर चिपट गए। 
व्यथा-कथा के बने पुरोहित हम खुद ही- 
तिनका हो, कहते: "पर्वत पर भारी" क्यों? 
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
*
किसकी इच्छा है वह सच को सही कहे?
कौन यहाँ पर जो न स्वार्थ की बाँह गहे?
देख रहे सब अपनेपन के किले ढहे-
किंतु न बदले, द्वेष-घृणा के वसन तहे। 
यक्ष-प्रश्न का उत्तर, कहो! कौन देगा-
हुई निराशा हावी, आशा हारी क्यों?
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
*
क्षणभंगुर है सृष्टि सत्य यह जान लिया। 
अचल-अटल निज सत्ता-संतति मान लिया।
पानी नहीं आँख में किंचित शेष रहा-
धानी रहे न धरती, हठ यह ठान लिया। 
पूज्या रही न प्रकृति, भोग्या मान उसे
शोषण कर बनते हैं हमीं पुजारी क्यों?
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
*
कक्का-मम्मा, मौसा-फूफा हार गए,
'अंकल' बिना लड़े रण सबको मार गए। 
काकी-मामी, मौसी-फूफी भी न रहीं-
'आंटी' के पाँसे नातों को तार गए। 
हलो-हाय से हाय-हाय के पथ पर चल-
वाह-वाह की सोचें चाह बिसारी क्यों?.
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
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मुखपोथी से जुड़े, न आँखों में देखा 
नेह निमंत्रण का करते कैसे लेखा?
देह देह को वर हँस पुलक विदेह हुई-
अंतर्मन की भूल गयी लछमन रेखा। 
घर ही जिसमें जलकर ख़ाक हुआ पल में-
उन शोलों को कहा कहो अग्यारी क्यों?
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
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११.६.२०१८, ७९९९५५९६१८