कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

doha salila

दोहा सलिला
*
नेह-छोह राखब सदा, आपन मन के जोश.
सत्ता का बल पाइ कs, 'सलिल' न छाँड़ब होश..
*
आरक्षित ने मिल दिया, सीता को वनवास.
राम न रक्षा कर सके, साक्षी है इतिहास.
*
अविश्वास प्रस्ताव की, दिखा रहे थे धौंस.
औंधे मुँह गिर पड़े हैं, लड़ें न बाकी हौंस.
*
एक-दूसरे को कहें, हम दोनों मिल चोर.
वेतन-भत्ते मिल बढ़ा, चहकें भाव-विभोर.
*
जिस सीढ़ी से तू चढ़ा, उसको देना तोड़.
दूजा चढ़कर ले सके, 'सलिल' न तुझसे होड़.
*
गौ भाषा को दूहकर, दोहा देता अर्थ.
अर्थ न अन्तर्निहित यदि, तो लिखना है व्यर्थ.
*
सगा न कोई सगा है, गैर सभी हैं गैर.
बैर बैर से पालकर, मने किस तरह खैर?
*
लोक नहीं है लोभ का, तंत्र करे षड्यंत्र.
'गण' पर नित 'गन' तानता, फूँक शोक का मंत्र.
*
'अच्छे दिन अब आ रहे', सुनिए उनकी बात.
नीरव सँग तोते उड़े, हाथ मल रहे तात.
*
घर में ही दुश्मन पले, जब-तब लेते काट.
खोज-खोज पप्पू थका, खोज न पाया काट.
*
पुजती रहीं गणेश सँग, लछमी हरि को छोड़.
'लिव इन' होते देखकर, शीश न अपना फोड़.
*
तू दो दूनी पाँच कह, मैं बोलूँगा तीन.
चार कहे जो वह गलत, नचा बजाकर बीन.
*
क्या लाया? ले जाए क्या?, कौन कभी यह सोच.
जोड़-तोड़ किसके लिए?, कुछ तो कर संकोच.
*
लीक पकड़कर चलाचल, सब ठोंकेंगे पीठ
लीक छुटी कोड़े पड़े, सभी दिखाएँ दीठ
*
सिग्नल चाहे वीक हो, न हो बैटरी लीक
बातों से बातें बढ़ें, मोबाइल पर ठीक
*
इंद्रप्रस्थ के तख़्त पर, नर नरेंद्र आसीन.
शाह ताज बिन घूमता, सेवक के आधीन.
*
पट्टा बाँधे आँख पर, घोड़ा माफिक भाग
हरी घास मत देखना, मालिक देगा त्याग
*
दोहा दुनिया अनोखी, करे गुणों का मोल.
सत-शिव-सुन्दर को रही, करतल ध्वनी से तोल.
*
दिल दिलवर दिलरुबा भी, दोहा है दिलराज
मन मन्मथ मनसिज मधुर, मन मोहे किस काज?
*
जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार.
'सलिल' बचा, पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार.
*
दोहा-धड़कन नित्य सुन, मंत्र आरती श्लोक
भजन कीsर्तन सबद जप, प्रेयर हम्द अशोक
*
कथ्य भाव रस बिंब लय, लक्षण-व्यंजन अंत.
शब्द-शब्द चुन रत्न सम, दोहा कहते संत.
*
पत्थर दिल है हर शहर, अनगिन बने मकान.
घर न खोज मिल पा रहा, गए कहाँ इंसान?
*
पूज रहे सब रमा को, किसको याद रमेश.
बलिहारी है समय की, बालें दिया दिनेश.
*
दोहा-दर्पण में दिखे, 'सलिल' अगर कुछ खोट.
देख अन्य की ओर मत, खुद पर ही कर चोट.
*
मत परिवर्तन का करो, समझे बिना विरोध.
परिवर्तन से ही सखे!, हो उन्नति का बोध.
*
हिंदी आटा माढ़िए, उर्दू मोयन डाल
'सलिल' संस्कृत सान दे, पूरी बने कमाल
*
नियम रोक लें राह ही, यदि न दिखाकर राह.
तो नियमों को बदलकर, पूरी कर लो चाह.
*
परिवर्तन का हेतु हो, स्वार्थ नहीं , सर्वार्थ.
कार्य श्रेष्ठ है वही जो, किया जाए परमार्थ.
*
दोहा कहता युग कथा, प्रस्तुत कर इतिहास.
होता 'सलिल' भविष्य का, दोहे से आभास.
*
कथ्य, भाव, छवि, बिंब, लय, रस, रूपक, का मेल।
दोहा को जीवंत कर, कहे रसिक आ खेल।।
*
दोहे को मत मानिए, शब्दों की दूकान।
शब्द न नहरें भाव बिन, तपता रेगिस्तान।।
*
शब्द-शब्द की अहमियत, लय माधुर्य तुकांत।
भाव, बिंब, मौलिक, सरस, दोहा की छवि कांत।।
*
अलंकार चारुत्व से, दोहे का लालित्य।
बालारुण को प्रखरकर, कहे नमन आदित्य।।
*
दोहे को मत मानिए, शब्दों की दूकान।
शब्द न नहरें भाव बिन, तपता रेगिस्तान।।
*
मत विमर्श को मानिए, आपस का टकराव.
मत-वैविध्य भले रहे, घटे नहीं सद्भाव.
*
मतभेदों का भय नहीं, हो विमर्श से ज्ञान.
मन-भेदों को दें नहीं, हम किंचित भी स्थान.
*
दोहा तो वट वृक्ष है, छाया पा हम धन्य.
भाव पखेरू चहकते, संध्या-उषा अनन्य.
*
कथ्य, भाव, छवि, बिंब, लय, रस, रूपक, का मेल।
दोहा को जीवंत कर, कहे रसिक आ खेल।।
*
शब्द-शब्द की अहमियत, लय माधुर्य तुकांत।
भाव, बिंब, मौलिक, सरस, दोहा की छवि कांत।।
*
शब्द सार्थक-सरल हों, कथ्य कर सकें व्यक्त।
संप्रेषित अनुभूति हो, रस-छवि रहें न त्यक्त।।
*
अलंकार चारुत्व से, दोहे का लालित्य।
बालारुण को प्रखरकर, कहे नमन आदित्य।।
*
दोहे को मत मानिए, शब्दों की दूकान।
शब्द न नहरें भाव बिन, तपता रेगिस्तान।।
*

सोमवार, 23 अप्रैल 2018

doha salila

दोहा सलिला:
*
लीक पकड़कर चलाचल, सब ठोंकेंगे पीठ 
लीक छुटी कोड़े पड़े, सभी दिखाएँ दीठ

*
पट्टा बाँधे आँख पर, घोड़ा माफिक भाग 
हरी घास मत देखना, मालिक देगा त्याग

*
क्या लाया? ले जाए क्या?, कौन कभी यह सोच.
जोड़-तोड़ किसके लिए?, कुछ तो कर संकोच.

*
तू दो दूनी पाँच कह, मैं बोलूँगा तीन. 
चार कहे जो वह गलत, नचा बजाकर बीन.

*
आरक्षित ने मिल दिया, सीता को वनवास. 
राम न रक्षा कर सके, साक्षी है इतिहास.

*
पुजती रहीं गणेश सँग, लछमी हरि को छोड़.
'लिव इन' होते देखकर, शीश न अपना फोड़.

*
'अच्छे दिन अब आ रहे', सुनिए उनकी बात. 
नीरव के सँग उड़ गए, हाथ मल रहे तात.

*
अविश्वास प्रस्ताव की, दिखा रहे थे धौंस.
औंधे मुँह गिर पड़े हैं, लड़ें न बाकी हौंस.

*
घर में ही दुश्मन पले, जब-तब लेते काट.
खोज-खोज पप्पू थका, खोज न पाया काट.

*
एक-दूसरे को कहें, हम दोनों मिल चोर.
वेतन-भत्ते मिल बढ़ा, चहकें भाव-विभोर.

*
लोक नहीं है लोभ का, तंत्र करे षड्यंत्र.
'गण' पर नित 'गन' तानता, फूँक शोक का मंत्र.

*
जिस सीढ़ी से तू चढ़ा, उसको देना तोड़.
दूजा चढ़कर ले सके, 'सलिल' न तुझसे होड़.

*
सगा ना कोई सगा है, गैर सभी है गैर.
बैर बैर से पालकर, मने किस तरह खैर?
*
गौ भाषा को दूहकर, दोहा देता अर्थ.
अर्थ न अन्तर्निहित यदि, तो लिखना है व्यर्थ.
*
इंद्रप्रस्थ के तख़्त पर, नर नरेंद्र आसीन.
शाह ताज बिन घूमता, सेवक के आधीन.
*
२२.४.२०१८ 

geet

चित्र पर रचना:


गीत
*
देहरी बैठे दीप लिए दो 
तन-मन अकुलाए.
संदेहों की बिजली चमकी,
नैना भर आए. 
*
मस्तक तिलक लगाकर भेजा, सीमा पर तुमको. 
गए न जाकर भी, साँसों में बसे हुए तुम तो. 
प्यासों का क्या, सिसक-सिसककर चुप रह, रो लेंगी. 
आसों ने हठ ठाना देहरी-द्वार न छोड़ेंगी.
दीपशिखा स्थिर आलापों सी, 
मुखड़ा चमकाए.
मुखड़ा बिना अन्तरा कैसे  
कौन गुनगुनाए?
*
मौन व्रती हैं पायल-चूड़ी, ऋषि श्रृंगारी सी.
चित्त वृत्तियाँ आहुति देती, हो अग्यारी सी. 
रमा हुआ मन उसी एक में जिस बिन सार नहीं.
दुर्वासा ले आ, शकुंतला का झट प्यार यहीं.
माथे की बिंदी रवि सी 
नथ शशि पर बलि जाए.
*
नीरव में आहट की चाहत, मौन अधर पाले.
गजरा ले आ जा निर्मोही, कजरा यश गा ले. 
अधर अधर पर धर, न अधर में आशाएँ झूलें.
प्रणय पखेरू भर उड़ान, झट नील गगन छू लें. 
ओ मनबसिया! वीर सिपहिया!! 
याद बहुत आए. 
घर-सरहद पर वामा 
यामा कुलदीपक लाए.
*  





doha doha virasat

दोहा-दोहा विरासत:
संत कबीर दास 
*

इस स्तंभ के अंतर्गत कुछ अमर दोहकारों के कालजयी दोहे प्रस्तुत किये जा रहे हैं जिनमें विषम चरण के अंत में 'सरन' के अतिरिक्त ने गण प्रयोग में लाए गए हैं. किसी एक पिंगल ग्रंत्ज की मान्यता के आधार पर क्या हम अपनी विरासत में मिले इन अमूल्य दोहा-रत्नों को ख़ारिज कर दें या इस परंपरा को स्वीकारते हुए आगे बढ़ाएं? विचार करें, अपने अभिमत के पक्ष में तर्क भी दें किन्तु अन्य के अभिमत को ख़ारिज न करें ताकि स्वस्थ्य विचार विनिमय और सृजन हो सके. 
*
कबीर रोड़ा होइ रहु बात का, तजि मनु का अभिमान.
ऐसा कोई दासु होइ, ताहि मिलै भगवानु. विषम चरण पदांत जगण 
*
कबीर पालि समूह सरवरु भरा, पी न सकै कोइ नीर.
भाग बड़े तो पाइ यो तू, भरि-भरि पीउ कबीर. विषम चरण पदांत यगण
*
कबीर मुद्धा मुनारे किया, चढ़हि साईं न बहिरा होइ.
जा कारण तू बाग़ देहि, दिल्ही भीतर जोइ. विषम चरण पदांत जगण
*
कबीर मनु जानै सब बात, जानत ही अवगुन करै.विषम चरण पदांत जगण
काहे की कुसलात, हाथ दीप कूए परै. विषम चरण पदांत जगण
*
कबीर ऐसा बीज बोइ, बारह मास फलंत. विषम चरण पदांत जगण
सीतल छाया गहिर फल, पंखी कल करंत.
*
हरि हैं खांडु रेत महि बिखरी, हाथी चुनी न जाइ.
कह कबीर गुरु भली बुझाई, चीटी होइ के खाइ. विषम चरण पदांत यगण
*
संत तुलसीदास
गिरत अंड संपुट अरुण, जमत पक्ष अन्यास.
आल सुबान उपदेस केहि, जात सु उलटि अकास.विषम चरण पदांत जगण
*
रावण रावण को हन्यो, दोष राम कह नाहिं. विषम चरण पदांत मगण
निज हित अनहित देखू किन, तुलसी आपहिं माहिं.
*
रोम-रोम ब्रम्हांड बहु, देखत तुलसी दास.
बिन देखे कैसे कोऊ, सुनी माने विश्वास. विषम चरण पदांत मगण
*
मात-पिता निज बालकहि करहिं इष्ट उपदेश.
सुनी माने विधि आप जेहि, निज सिर सहे कलेश.विषम चरण पदांत जगण
*
बिहारी
पत्रा ही तिथि पाइये वा, घर कैं चहुँ पास. विषम चरण पदांत यगण
नित प्रति पून्याईं रहै, आनन ओप-उजास.
*
रहति न रन जयसाहि-सुख, लखि लाखनु की फ़ौज.
जाँचि निराखरऊ चलै लै, लाखन की मौज. विषम चरण पदांत यगण
*
सीस-मुकुट कटि-काछनी, कर-मुरली उर-माल.
इहिं बानक मो मम सिद्धा, बसौ, बिहारी लाल. विषम चरण पदांत यगण
*
कहै यहै श्रुति सुमृत्यौ, यहै सयाने लोग. विषम चरण पदांत यगण
तीन दबवात निस कही, पातक रजा रोग.
*

रविवार, 22 अप्रैल 2018

श्री श्री चिंतन: दोहा मंथन 2

इंद्रियाग्नि:
24.7.1995, माँट्रियल आश्रम,  कनाडा
*
जीवन-इंद्रिय अग्नि हैं, जो डालें हो दग्ध।
दूषित करती शुद्ध भी,  अग्नि मुक्ति-निर्बंध।।
*
अग्नि जले; उत्सव मने, अग्नि जले हो शोक।
अग्नि तुम्हीं जल-जलाते, या देते आलोक।।
*
खुद जल; जग रौशन करें,  होते संत कपूर।
प्रेमिल ऊष्मा बिखेरें,  जीव-मित्र भरपूर।।
*
निम्न अग्नि तम-धूम्र दे,  मध्यम धुआँ-उजास।
उच्च अग्नि में ऊष्णता, सह प्रकाश का वास।।
*
करें इंद्रियाँ बुराई,  तिमिर-धुआँ हो खूब।
संयम दे प्रकृति बदल,  जा सुख में तू डूब।।
*
करें इंद्रियाँ भलाई,  फैला कीर्ति-सुवास।
जहाँ रहें सत्-जन वहाँ, सब दिश रहे उजास।।
***
12.4.2018

शनिवार, 21 अप्रैल 2018

doha salila

दोहा सलिला:
*
पूरी हो या अधूरी, ख्वाहिश हर अनमोल 
श्वास न ले सकते कभी, मोल चुका या तोल 
*
अनुशासन बंधन बिना, भीड़ भोगती दैन्य
अनुशासित हो जीतती, रण हर हरदम सैन्य.
*
नेह नर्मदा नित्य नव, स्नेह सलिल से स्नान
कर के कर में कर कमल, खिलखिल खिल अम्लान
*
दोहा सलिला प्रवाहित, लहरें करें किलोल
छप-छपाक कर भूल जा, कहाँ ढोल में पोल
*
रस का आलिंगन करें, जब-जब मन के भाव
'सलिल' तभी कविता कहे, तुझसे मुझे लगाव
*

रूचि का छंद लिखें सदा, रुचिका करे कमाल
पहले सीख विधान लें, फिर दें मचा धमाल.
*
गति-यति लय में बँध बने, छंद-छंद रस-खान
छंदहीन कविता 'सलिल', मानव बिन ईमान
*
प्रभा विभा आभा लिखें, जी से जी भर छंद.
करें साधना सृजन की, हो गुलाब गुलकंद.
*
२१.४.२०१८

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018

निमाड़ी लघु कथाएँ

निमाड़ी लघुकथाएँ:
१. दो भाई 
पद्म श्री स्व. राम नारायणजी उपाध्याय.  
साहित्य वाचस्पति  

विचार तथा आचार  दोनों सगे भाई थे, दोनों एक ही दिन पैदा हुए, विचार पहले आचार उसके बाद में। उम्र में बड़ा होने पर भी विचार चंचल स्वभाव का था। वह कभी एक जगह टिकता नहीं था, हमेशा दूर-दूर की सोचता रहता था। आयु में छोटा होने पर भी आचार गंभीर स्वभाव का था। उसके मुखमण्डल पर सदा शालीनता उभरती थी, वह हमेशा कुछ न कुछ करता रहता था। शरीर से भारी-भरकम और सदा काम-धंधे से लदे  होने के कारण वह मन होने के बाद भी विचार के साथ खेल-कूद नहीं पाता था।    
एक दिन न जाने किस बात पर दोनों भाइयों में कहा-सुनी और मन-मुटाव हो गया। विचार गुस्सा होकर अपने घर से इतनी दूर निकल गया कि आचार उसे खोज ही नहीं सका। विचार के अभाव में आचार सूखने लगा, बहुत दुबला हो गया। अब उसका मन किसी काम में नहीं लगता था। वह करना कुछ चाहता हो और हो कुछ जाता। लोगों की निगाह में उसका कोई महत्व नहीं रह गया, वह एकदम भावशून्य हो गया।
घर से भागकर विचार ने सीधा रास्ता पकड़ा किन्तु बाद में वह तर्क-कुतर्क के आड़े-टेढ़े रास्ते पर भटकता रहा। आचार का घर छोड़ने के बाद से कोई विचार की बात का भरोसा नहीं करता था। वह जहाँ भी जाता लोग उसे आचारहीन कहकर उसकी उपेक्षा करते थे। आखिर में एक दिन अपने उजड्डपन से थक-हार कर विचार अपने घर वापिस आ गया। 
आचार ने दौड़कर उसकी आवभगत की। तब दोनों भाइयों में समझौता हुआ कि विचार जहाँ भी जाएगा अपने छोटे भाई आचार को भी साथ ले जाएगा। आचार जो भी करेगा अपने बड़े भाई विचार को साथ में लेकर करेगा। इस तरह मिल-जुलकर दोनों भाई सुखी-संपन्न हो गए। 
*
संपर्क: साहित्य कुटीर  पं . राम नारायण उपाध्याय वार्ड, खण्डवा म.प्र. 
चलभाष: ९४२५० ८६२४६, ९४२४९४९८३९,  ७९९९७४९१२५ gangourknw@gmail.com lekhakhemant17@gmail.com 
============================
२. खिलौने 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
दिन भर कार्यालय में व्यस्त रहने के बाद थका-हारा घर पहुँचा तो पत्नी ने किराना न लाने का उलाहना दिया। उलटे पैर बाजार भागा, किराना लेकर लौटा तो बिटिया रानी शिकायत लेकर आ गई "मम्मी पिकनिक नहीं जाने दे रही।" जैसे-तैसे  श्रीमती जी को मनाकर अनुमति दिलवाई तो मुँह लटकाए बेटे ने बताया: "कोचिंग जाना है,  फीस चाहिए।" जेब खाली देख, अगले माह से जाने के लिए कहा और सोचने लगा कि धन कहाँ से जुटाए? माँ के खाँसने और पिता के कराहने की आवाज़ सुनकर उनसे हाल-चाल पूछा तो पता चला कि दवाई  खत्म हो गई और शाम की चाय भी नहीं मिली। बिटिया को चाय बनाने के लिए कहकर बेटे को दवाई लाने भेजा ही था कि मोबाइल बजा। जीवन बीमा एजेंट बोला: "किस्त तुरंत न चुकाई तो पॉलिसी लैप्स हो जाएगी।" एजेंट से शिक्षा ऋण पॉलिसी की बात कर कपड़े बदलने जा ही रहा था कि दृष्टि आलमारी में रखे,  बचपन के खिलौनों पर पड़ी।
पल भर ठिठककर उन पर हाथ फेरा तो लगा खिलौने कहने लगे: "तुम्हरे चहरे से मुस्कान क्यों गायब है? तुम्हें ही जल्दी पड़ी थी बड़ा होने की, अब भुगतो। छोटे थे तो हम तुम्हारे हाथों के खिलौने थे,  बड़े होकर तुम हो गए हो दूसरों के हाथों के खिलौने।
***
संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष़:७९९९५५९६१८ /९४२५१८३२४४, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com 
===========================
३. किस्मत 
सुरेश कुशवाहा 'तन्मय' 
*
रात के १० बजे ठेकेदार के चंगुल से छूटकर घर की ओर लौटते हुए दिहाड़ी मजदूर रास्ते में खड़े एक सब्जी वाले से सब्जी के भाव कम करने की मिन्नतें कर रहे थे: "भैया! थोड़ा कम दाम लगा लो न, हम सबको मिल कर ज्यादा भी तो लेना है।"
सब्जीवाले द्वारा भाव कम नहीं करने पर अंतिम कोशिश  के रूप में पुनः मजदूर आग्रह के स्वर में कहने लगे: "भैया! वैसे भी सब्जी बासी हो कर सड़ने-गलने लगी है, सुबह तक तो ये किसी के खाने लायक भी नहीं रहेगी। अब इतनी रात को दूसरे ग्राहक तुम्हें कहाँ मिलेंगे?"
"देखो भाई लोगो! जैसे आप लोग अपने परिवार का पेट पालने के लिए इतनी रात तक काम करते रहे हो, वैसे ही मैं भी यहाँ किसी उम्मीद से ही खड़ा हूँ और ये तो कहो मत कि सब्जियाँ खराब हो गई तो फेंकने में जाएगी। वे चमचमाती होटलें दिख रही हैं न, थोड़ी देर बाद सुनसान होने पर मेरी और मेरे जैसे ठेलों की पूरी सब्जियाँ खुशी-खुशी वहाँ खप जाएँगी। रात भर उनके फ़्रिज में आराम कर, चटपटे मसलों के साथ यही सब्जियाँ  फिर से ताजी हो कर मँहगी प्लेटों में सज कर बड़े-बड़े रईस लोगों को परोस दी जाएगी।
यह जानने के बाद जरूरत की सब्जी लेकर मजदूर आपस में बातें करते अपने मुकाम की ओर लौट चले: "यार! हम तो अभी तक सोचते थे कि, तंगी की वजह से हमारी किस्मत में ही ताजी सब्जियाँ नहीं है, पर आज पता चला कि पैसे वाले इन बड़े लोगों की किस्मत भी इस मामले में अपने से अच्छी नहीं है।"
*
संपर्क: २२६ नर्मदे नगरबिलहरीजबलपुर,चलभाष: ९८९३२६६०१४, ,ईमेल: sureshnimadi@gmail.com


=======================
४.  सही कौन? 
हेमंत उपाध्याय
*
एक दावत में बहुत स्वादिष्ट पकवान बने थे। 
नगर सेठ से पूछा कि भोजन कैसा बना है तो उसने कहा: 'दाल में नमक अधिक है।'                        
कालेज के  प्राचार्य साहब से पूछा तो वे बोले: 'भात में नमक काम है।'     
गाँव के मुखिया से पूछा तो उन्होंने दाल-भात मिलाकर खाते हुए कहा: 'सब एकदम बढ़िया बना है, अन्नपूर्णा माँ की साक्षात कृपा है तुम पर।'                                   
*
संपर्क: साहित्य कुटीर  पं . राम नारायण उपाध्याय वार्ड, खण्डवा म.प्र. 
चलभाष: ९४२५० ८६२४६, ९४२४९४९८३९,  ७९९९७४९१२५ 
gangourknw@gmail.com / lekhakhemant17@gmail.com 
============================



५. बीच सड़क पर
-मोहन परमार मोहन
*



खरगोन शहर, तपती दुपहरी,  आती-जाती भीड़ पर कोई असर नहीं,  न जाने कहाँ से आते इतने लोग और न जाने कहाँ जाते,  डाकघर चौराहे पर दो चौड़े रास्ते एक दूसरे को काटकर सँकरी राह में बदल जाते हैं। दिन भर लगा रहता जाम, आठ-आठ घंटे खड़े यातायात पुलिसवालों की कड़ी परीक्षा होती हर समय, जब लोग यातायात  नियमों की धज्जियाँ उड़ाते। चौराहे के बीच में लगी छतरी की छाया कभी पुलिसकर्मी को नहीं मिलती। धूप असह्य होने पर पुलिसकर्मी किनारे पर पान की दूकान पर जा खड़ा हुआ।
उसी समय तेजी से साइकिल चलाकर आता एक लड़का अधेड़ महिला से टकरा गया। पुलिसवाला जोर से चिल्लाया- "क्यों बे! सड़क पर चलना नहीं आता? बाएँ हाथ से चलने का नियम नहीं जानता क्या?"
लड़के ने उठते हुए उत्तर  दिया- "तू वहाँ क्यों खड़ा है?, तू भी नियम नहीं जानता क्या?" भीड़ ठठाकर हँस पड़ी, पुलिसवाला कभी भागता हुए लड़के को देखता,  कभी हँसी हुई भीड़ को। उसे लगा वह छत्री भी उसकी हँसी उड़ी रही है।
***
संपर्क: ए २२ गौरीधाम,  खरगोन ४४५००१. चलभाष: ९८२६७४४८३७ 
================
६. रोटियाँ
अशोक  गर्ग "असर"
*
माँ-बाप ने शहर में पढ़ रही बेटी के पास जाने का सोचा। बेटी को शहर में ढंग का खाना नहीं मिलता होगा सोचकर माँ ने जल्दी-जल्दी रोटी-सब्जी बनाकर, बाप ने जरूरी सामान समेटा और सुबह ६ बजे वाली बस से लंबा सफर तयकर बेटी के पास पहुँचे। सफर की थकान मिटाकर माँ-बाप, बेचारा साथ खाना खाने बैठे। थाली पर नजर पड़ते ही बेटी गुस्सा कर माँ से बोली "यह क्या ले आई? ठंडी रोटियाँ और बेस्वाद सब्जी,  कौन खाएगा?" 
बेटी तनतनाते हुए बगैर रोटी खाए अपने कमरे में चली गई। माँ को अपनी माँ याद आ गई,  जब वह शहर में पढ़ती थी तो अपनी माँ की दी रोटियाँ २-३ दिन तक बचा-बचाकर खाती थी, उसे उन रोटियों में अपनी माँ की असीम ममता नजर आती थी। माँ की आँखें डबडबा रही थीं और पिता की भी।
***
द्वारा: आर. के. महाजन, २६ विवेकानंद कॉलोनी,  खरगोन। चलभाष: ९४२५९ ८१२१३ 
====================
७. फोर जी
शरदचंद्र त्रिवेदी 
*
"मम्मी! हम छुट्टियों में कहाँ जाएंगे?"
"बेटा! हम नाना जी के घर चलेंगे।"
"वहाँ क्या है?" चिंटू ने मम्मी से पूछा।
"वहाँ नाना - नानी हैं,  मामा-मामी और उनके बच्चे हैं। नाना जी की बड़ी सी बखरी है,  आम का बाग, खेलने के लिए खलिहान, तैरने के लिए तालाब सब कुछ है। नानी बता रही थीं इस साल आमों पर बहार आई है। हम पूरी गर्मी वहीं रहेंगे,  खूब मजे करेंगे।"
"मम्मी मुझे नहीं जाना वहाँ।"
माँ ने चौंकते हुए पूछा "क्यों?"
"क्योंकि वहाँ फोर जी नहीं मिलता।
*
संपर्क: ए ४५ गौरी धाम,  खरगौन, चलभाष:९४०६८१६४११   
=================
८. वापसी
ब्रजेश बड़ोले
*
पति-पत्नी के बीच घरेलू काम-काज को लेकर आए दिन झगड़े होते रहते थे। पत्नी चूल्हा-चौका कर जताती कि वह पूरे परिवार पर अहसान कर रही है। वह अकसर कहती- "मैं यदि घर छोड़कर चली जाऊँ तो सबको मालूम पड़ जाए, सुबह से उठकर चाय भी नहीं मिल पाएगी।"
पत्नी आखिर एक दिन अपना बोरिया-बिस्तर बाँधकर मायके चली गई। माता-पिता,  भाई-भाभी, भरा-पूरा परिवार था उसका,  सबने उसका स्वागत किया। आठ-दस दिनों तक तो सब ठीक  चलता रहा,  फिर गड़बड़ होने लगी। उसका बैठे-बैठे खाना सबको अखरने लगा, खासकर भाभियों को। सबका लाड़-प्यार कुछ ही दिनों में काफूर हो गया। अब उसे भी काम करना पड़ता था। परिवार बड़ा होने के कारण काम भी अधिक था, भाभियाँ आए दिन मायके जाने लगीं। जिस काम से बचने के लिए वह भागता यहाँ आई थी,  उसने यहाँ भी  पीछा नहीं छोड़ा था। 
अब वह पुन: घर जाने की तैयारी कर रही थी।
*
संपर्क: ए १३ गौरीधाम, खरगोन चलभाष: ९९७७०७२८६४ 
==================
९. मोक्ष

सुनील गीते
*
ससुर के श्राद्ध दिवस पर ब्रम्हभोज का आयोजन चल रहा था। वृद्ध सास स्वयं अपने हाथों से ब्राह्मणों को परोसने के उद्देश्य से खड़ी हुई तो पानी के गिलास से टकरा गई।
बिखरा पानी देख बहू बिफरी- "मांजी! आप चुपचाप एक जगह बैठी क्यों नहीं रहती?" फिर  बुदबुदाई, " न जाने कब इनसे मुक्ति मिलेगी?"
मकान की छत पर बैठे एक कौवे ने यह बात सुनी और अपना हिस्सा लिए बिना, दूर आकाश में उड़ गया।
संपर्क: वयम, १०२ आदर्श नगर, खंडवा रोड़, खरगोन ४५१००१, चलभाष ९८२७२३१३१६  
===========================

१०. जीवन डोर
कुंवर उदय सिंह ‘अनुज’
*
एक गाँव में भारुड नाम का एक व्यक्ति रहता था। एकदम सीधा-सादा, अँगूठा छाप, स्वभाव से भोला। काम के नाम पर रोज बकरी चराने जाना और शाम को आकर रूखा-सूखा खाकर सो जाना। 
बकरी चराने के रास्ते के बीच में एक श्मशान था. रोज दो-चार मुर्दों को जलते हुए टकटकी लगाकर देखता था। मुर्दे का साथ आये लोगों से पूछता इस व्यक्ति को क्या हो गया? लोग बताते कि जीवन डोर कट गई तो यह आदमी मर गया।  
रोज-रोज जीवन डोर टूटने की बात सुनकर भारुड मन ही मन हँसता और सोचता कि ये कैसे मूर्ख लोग हैं कि जीवन की डोर मजबूती से नहीं भाँजते। यदि जीवन डोर मजबूत होती तो फिर मरने का सवाल ही नहीं है. इस विचार के साथ उसने अपने लिए एक मोटी और मजबूत रस्सी बाँट ली और उस रस्सी को अपनी जीवन डोर समझ एक पेटी में बंद कर ताला लगा दिया। इस निश्चिन्तता के साथ कि इस मजबूत और सुरक्षित जीवन डोर के रहते हुए मेरी मृत्यु कैसे होगी?
बकरी चराते-चराते कई दिनों बाद उसे जीवन-डोर की याद आए. उत्सुकतावश उसने पेटी खोली, देखा तो उसका यह देखकर दिल धक् से रह गया कि रस्सी में दीमक लग गयी गई और पूरी रस्सी तुकडे-तुकडे में बदल गयी है।   
भारुड को बोध हुआ आदमी कुछ भी कर ले जीवन रस्सी को टूटना है तो टूटेगी ही।   
=========================
११. ककड़ी चाहिए, बेटी नहीं
 विजय जोशी 
काकी ने काका जी  से कहा कि एक खुश-खबरी है। अपनी बड़ी बहुरानी फिर से गर्भवती हो गई। काका जी  के चेहरे पर कोई खुशी की झलक नहीं दिखाई दी। एक गंभीर भाव से बिना कोई खुशी व्यक्त किए बोले- "हे ईंश्वर  चौथी बार बेटा ही देना यदि चौथी बार भी बेटी ही हुई तो,  क्या करेंगे?" काका ने काकी से कहा: "सुनो भाग्यवान! क्यों ना हम बहू का लिंग परीक्षण करा लें और यदि बेटी हुई तो वह अंग्रेजी में क्या कहते हैं ना!  हाँ अबार्शन वही करवा देते हैं।"
लेकिन काकी ने कहा: ''बड़ा बेटा रमेश कह रहा था कि इसमें बहू की जान को खतरा है।" 
काका बोले: " रमेश क्या जाने दुनियादारी को ?  हमने दुनिया देखी है। क्या हम बहू की जान के दुश्मन हैं? हमें भी तो परिवार का वारिस उसी से मिलने वाला है लेकिन यदि रमेश और बहू अपनी मनमानी करेंगे और यदि बेटी हुई तो मैं उन्हें बच्चों सहित अपने घर जायदाद से बेदखल कर दूँगा।" 
इतनी चर्चा चल ही रही थी कि खेत से, मजदूर दौड़ते दौड़ते हुए हाँफते-हाँफते  आकर कहने लगा "काका जी, काका जी ' हमने जो सौ सवाँ सौ काकड़ी के बीज लगाए थे उसमे से 80 -90 पेड़ ककड़ी के बीज नर प्रजाति के निकले जिसमें ककड़ी फलों का आना संभव नहीं है। मात्र १०  से २० पेड़ ही मादा प्रजाति के है।" 
 इतना सुनकर काका के होश उड़ गए: "अरे! यह तो बहुत नुकसान का सौदा हो जाएग । सुनो तुम जल्दी से जाओ और वह मंगत तांत्रिक को बुला कर लाओ।  वह  नर ककड़ी के पेड़ों पर अभिमंत्रित खिला कूटकर नर पेड़ को मादा  पेड़ों  में बदलने की लगाने की क्रिया जानता है।  अतः उसे जल्दी बुला कर लाओ वरना हमारा लाखों का नुकसान हो जाएगा।"
मंगत दाजी ने काका के घर आकर वस्तुस्थिति को देखा और बड़ी बहू के चेहरे की भाव भंगिमा को देख कर वह सारी वस्तुस्थिति जान गया।
"वाह रे काका!  तुमको उत्पादन के लिए काकड़ी चाहिए और घर में बेटी नहीं। बेटी के लिए परहेज करते हो बहू को परेशान करते हो । जाओ ऐसे दोगले इंसानों के घर मैं कोई अभिमंत्रित खिले नहीं कूटनेवाला।"
मंगत दाजी की बात सुनकर काका की आँखें खुल गई।
*
विजय कुमार जोशी, सहस्त्रार्जुन मार्ग महेश्वर, खरगोन ४५१२२४, 
चलभाष: ९६१७२५९५३५ ईमेल: vijayjoshimhs@gmail.com
--------------------------------
१२. पहले अच्छे थे 
डॉ. पारवती व्यास 'प्रीति'  
*
एक मित्र अपने मित्र को उदास देखकर पूछा: 'तू दुखी क्यों बैठा है यार? तुझे तो खुश होना चाहिए तेरे चचा आए हैं जो तुझे सौ-सौ के कोरे नोट देते हैं। कुछ वे देते हैं, कुछ तू उनकी जेब से चुपचाप निकल लिया करता है अब तो तेरे मजे ही मजे हैं'
 
दूसरा मित्र मुँह लटका कर बोला: 'यार! चाचा जी अब पहले जैसे नहीं रहे

पहले मित्र ने पूछा: क्यों उनके पास अब पैसे नहीं रहते?' 

'बात ऐसी नहीं है, अब उन्होंने पीना छोड़ दिया है" पहले मित्र ने उत्तर दिया. 

'इससे तो पहले ही अच्छे थे' दूसरे ने कहा
*
४४ विश्व सखा कोलोनी, खरगोन ४५१००१, चलभाष: ७९७४९९७७५ 
*