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सोमवार, 16 नवंबर 2015

samiksha- giri mohan guru ke navgeet

कृति चर्चा: 
गिरिमोहन गुरु के नवगीत : बनाते निज लीक-नवरीत 
चर्चाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण: गिरिमोहन गुरु के नवगीत, नवगीत संग्रह, गिरिमोहन गुरु, संवत २०६६, पृष्ठ ८८, १००/-, आकर डिमाई, आवरण पेपरबैक दोरंगी, मध्य प्रदेश तुलसी अकादमी ५० महाबली नगर, कोलार मार्ग, भोपाल, गीतकार संपर्क:शिव संकल्प साहित्य परिषद्, गृह निर्माण कोलोनी होशंगाबाद ] 
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विवेच्य कृति नर्मदांचल के वरिष्ठ साहित्यकार श्री गिरिमोहन गुरु के ६७ नवगीतों का सुवासित गीतगुच्छ है जिसमें से कुछ गीत पूर्व में 'मुझे नर्मदा कहो' शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुके हैं। इन गीतों का चयन श्री रामकृष्ण दीक्षित तथा श्री गिरिवर गिरि 'निर्मोही' ने किया है। नवगीत प्रवर्तकों में से एक डॉ. शंभुनाथ सिंह, नवगीत पुरोधा डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' आदि ९ हस्ताक्षरों की संस्तुति सज्जित यह संकलन गुरु जी के अवदान को प्रतिनिधित्व करता है। डॉ. दया कृष्ण विजयवर्गीय के अनुसार इन नवगीतों में 'शब्द की प्रच्छन्न ऊर्जा को कल्पना के विस्तृत नीलाकाश में उड़ाने की जो छान्दसिक अबाध गति है, वह गुरूजी को नवगीत का सशक्त हस्ताक्षर बना देती है।


डॉ. शंभुनाथ सिंह ने नवगीत के वर्ण्य विषयों में धर्म-आध्यात्म-दर्शन, प्रेम-श्रृंगार तथा प्रकृति चित्रण की वर्जना की थी। उन्होंने युगबोधजनित भावभूमि तथा सर्वत्र एक सी टीस जगानेवाले पारंपरिक छंद-विधान को नवगीत हेतु सर्वाधिक उपयुक्त पाया। महाप्राण निराला द्वारा 'नव गति, नव ले, ताल-छंद नव' के आव्हान के अगले कदम के रूप में यह तर्क सम्मत भी था किन्तु किसी विधा को आरम्भ से ही प्रतिबंधों में जकड़ने से उसका विकास और प्रगति प्रभावित होना भी स्वाभाविक है। एक विचार विशेष के प्रति प्रतिबद्धता ने प्रगतिशील कविता को जन सामान्य से काट कर विचार धारा समर्थक बुद्धिजीवियों तक सीमित कर दिया। नवगीत को इस परिणति से बचाकर, कल से कल तक सृजन सेतु बनाते हुए नव पीढ़ी तक पहुँचाने में जिन रचनाधर्मियों ने साहसपूर्वक निर्धारित की थाती को अनिर्धारित की भूमि पर स्थापित करते हुए अपनी मौलिक राह चुनी उनमें गुरु जी भी एक हैं।

नवगीत के शिल्प-विधान को आत्मसात करते हुए कथ्य के स्तर पर निज चिंतन प्रणीत विषयों और स्वस्फूर्त भंगिमाओं को माधुर्य और सौन्दर्य सहित अभिव्यंजित कर गुरु जी ने विधा को गौड़ और विधा में लिख रहे हस्ताक्षर को प्रमुख होने की प्रवृत्ति को चुनौती दी। जीवन में विरोधाभासजनित संत्रास की अभिव्यक्ति देखिए-

अश्रु जल में तैरते हैं / स्वप्न के शैवाल 
नाववाले नाविकों के / हाथ है जाल 
. 
हम रहे शीतल भले ही / आग के आगे रहे 
वह मिला प्रतिपल कि जिससे / उम्र भर भागे रहे


वैषम्य और विडंबना बयां करने का गुरु जी अपना ही अंदाज़ है-

घूरे पर पत्तलें / पत्तलों में औंधे दौने 
एक तरफ हैं श्वान / दूसरी तरफ मनुज छौने


अनुभूति की ताजगी, अभिव्यक्ति की सादगी तथा सुंस्कृत भाषा की बानगी गुरु के नवगीतों की जान है। उनके नवगीत निराशा में आशा, बिखराव में सम्मिलन, अलगाव में संगठन और अनेकता में एकता की प्रतीति कर - करा पाते हैं-
लौटकर फिर आ रही निज थान पर / स्वयं बँधने कामना की गाय 

हृदय बछड़े सा खड़ा है द्वार पर / एकटक सा देखता निरुपाय 
हौसला भी एक निर्मम ग्वाल बन / दूध दुहने बाँधता है, छोड़ता है


छंद-विधान, बिम्ब, प्रतीक, फैंटेसी, मिथकीय चेतना, प्रकृति चित्रण, मूल्य-क्षरण, वैषम्य विरोध और कुंठा - निषेध आदि को शब्दित करते समय गुरु जी परंपरा की सनातनता का नव मूल्यों से समन्वय करते हैं।

कृषक के कंधे हुए कमजोर / हल से हल नहीं हो पा रही / हर बात 
शहर की कृत्रिम सडक बेधड़क / गाँवों तक पहुँच / करने लगी उत्पात


गुरु जी के मौलिक बिम्बों-प्रतीकों की छटा देखे-

इमली के कोचर का गिरगिट दिखता है रंगदार 
शाखा पर बैठी गौरैया दिखती है लाचार 
. 
एक अंधड़ ने किया / दंगा हुए सब वृक्ष नंगे 
हो गए सब फूल ज्वर से ग्रस्त / केवल शूल चंगे 
. 
भैया बदले, भाभी बदले / देवर बदल गए 
वक्त के तेवर बदल गए 
. 
काँपते सपेरों के हाथ साँपों के आगे 
झुक रहे पुण्य, स्वयं माथ, पापों के आगे


सामाजिक वैषम्य की अभिव्यक्ति का अभिनव अंदाज़ देखिये-

चाँदी के ही चेहरों का स्वागत होता झुक-झुक 
खड़ा भोज ही, बड़ा भोज, कहलाने को उत्सुक 
फिर से हम पश्चिमी स्वप्न में स्यात लगे खोने 
. 
सपने में सोन मछरिया पकड़ी थी मैंने 
किन्तु आँख खुलते ही 
हाथ से फिसल गयी 
. 
इधर पीलिया उधर खिल गए 
अमलतास के फूल 
.

गुरु के नवगीतों का वैशिष्ट्य नूतन छ्न्दीय भंगिमाएँ भी है। वे शब्द चित्र चित्रित करने में प्रवीण हैं।

बूढ़ा चाँद जर्जरित पीपल 
अधनंगा चौपाल
इमली के कोचर का गिरगिट 
दिखता है रंगदार 
नदी किनारेवाला मछुआ 
रह-रह बुनता जाल 
भूखे-प्यासे ढोर देखते 
चरवाहों की और 
भेड़ चरानेवाली, वन में 
फायर ढूंढती भोर 
मरना यदि मुश्किल है तो
जीना भी है जंजाल


गुरु जी नवगीतों में नवाशा के दीप जलाने में भी संकोच नहीं करते-

एक चिड़िया की चहक सुनकर 
गीत पत्तों पर लगे छपने 
. 
स्वप्न ने अँगड़ाइयाँ लीं, सुग्बुआऎ आस 
जिंदगी की बन गयी पहचान नूतन प्यास


छंदों का सधा होना उनके कोमल-कान्त पदावली सज्जित नवगीतों की माधुरी को गुलाबजली सुवास भी देता है। प्रेम, प्रकृति और संस्कृति की त्रिवेणी इन गीतों में सर्वत्र प्रवाहित है।

जग को अगर नचाना हो तो / पहले खुद नाचो, मौसम के अधरों पर / विश्वासी भाषा, प्यासों को देख, तृप्ति / लौटती सखेद, ले आया पावस के पत्र / मेघ डाकिया, अख़बारों से मिली सुचना / फिर बसंत आया जैसी अभिव्यक्तियाँ पाठक को गुनगुनाने के लिए प्रेरित करती हैं। नवगीतों को उसके उद्भव काल में निर्धारित प्रतिबंधों के खूँटे से बांधकर रखने के पक्षधरों को नवगीत की यह भावमुद्रा स्वीकारने में असहजता प्रतीत हो सकती है, कोई कट्टर हस्ताक्षर नाक-भौं सिकोड़ सकता है पर नवगीत संसद के दरवाजे पर दस्तक देते अनेक नवगीतकार इन नवगीतों का अनुसरण कर खुद को गौरवान्वित अनुभव करेंगे।
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-समन्वयम , २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ 
salil.sanjiv@gmail.com, ०७६१ २४१११३१

रविवार, 15 नवंबर 2015

चन्द माहिया : क़िस्त 22

चन्द माहिया  :  क़िस्त २२


:१:
एहसास रहे ज़िन्दा
तेरे होने की
इक प्यास रहे ज़िन्दा

:२:

आना हो न गर मुमकिन
जब दिल में मेरे
फिर क्या जीना तुम बिन

:३:

आँखों में समाए वो
अब क्या मैं देखूँ
आ कर भी न आए वो

:४:

जिस दिल में न हो राधा
साँसे तो पूरी
पर जीवन है आधा

:५:

पा कर भी जब खोना
टूटे सपनों का
फिर क्या रोना-धोना !

आनन्द.पाठक
09413 395 592

गुरुवार, 12 नवंबर 2015

apanhuti alankar

अलंकार सलिला: ३०  
अपन्हुति अलंकार

*













*
प्रस्तुत का वारण जहाँ, वहीं अपन्हुति मीत
कर निषेध उपमेय का, हो उपमान सप्रीत 
'अपन्हुति' का अर्थ है वारण या निषेध करना, छिपाना, प्रगट न होने देना आदि. इसलिए इस अलंकार में प्रायः निषेध देखा जाता है प्रकृत, प्रस्तुत या उपमेय का प्रतिषेध कर अन्य अप्रस्तुत या उपमान का आरोप या स्थापना किया जाए तो 'अपन्हुति अलंकार' होता है। जहाँ उपमेय का निषेध कर उसमें उपमान का आरोप किया जाये वहाँ 'अपन्हुति अलंकार' होता है
प्रस्तुत या उपमेय का, लें निषेध यदि देख
अलंकार तब अपन्हुति, पल में करिए लेख
प्रस्तुत का वारण जहाँ, वहीं अपन्हुति मीत
आरोपित हो अप्रस्तुत, 'सलिल' मानिये रीत
१. हेम सुधा यह किन्तु है सुधा रूप सत्संग
    यहाँ सुधा पर सुधा का आरोप करना के लिए उसमें अमृत के गुण का निषेध किया गया है अतः, अपन्हुति अलंकार है
२.सत्य कहहूँ हौं दीनदयाला, बन्धु न होय मोर यह काला
    यहाँ प्रस्तुत उपमेय 'बन्धु' का निषेध कर अप्रस्तुत उपमान 'काल' की स्थापना किये जाने से अपन्हुति अलंकार है
३. फूलों पत्तों सकल पर हैं वारि बूँदें लखातीं
    रोते हैं या निपट सब यों आँसुओं को दिखाके
    प्रकृत उपमेय 'वारि बूँदे' का निषेधकर 'आँसुओं' की स्थापना किये जाने के कारण यहाँ ही अपन्हुति है
४.अंग-अंग जारति अरि, तीछन ज्वाला-जाल
    सिन्धु उठी बडवाग्नि यह, नहीं इंदु भव-भाल
    अत्यंत तीक्ष्ण ज्वालाओं के जाल में अंग-प्रत्यंग जलने का कारण सिन्धु की बडवाग्नि नहीं,  शिव के शीश पर चन्द्र का स्थापित होना है. प्रस्तुत उपमेय 'बडवाग्नि' का प्रतिषेध कर अन्य  उपमान 'शिव'-शीश' की स्थापना के कारण अपन्हुति है.
५.छग जल युक्त भजन मंडल को, अलकें श्यामन थीं घेरे
    ओस भरे पंकज ऊपर थे, मधुकर माला के डेरे
    यहाँ भक्ति-भाव में लीन भक्तजनों के सजल नयनों को घेरे काली अलकों के स्थापित उपमेय  का निषेध कर प्रातःकाल तुहिन कणों से सज्जित कमल पुष्पों को घेरे भँवरों के अप्रस्तुत उपमान को स्थापित किया गया है. अतः अपन्हुति अलंकार है.
.हैं नहीं कुल-श्रेष्ठ, अंधे ही यहाँ हैं
    भक्तवत्सल साँवरे, बोलो कहाँ हैं?   -सलिल
    यहाँ द्रौपदी द्वारा प्रस्तुत उपमेय कुल-श्रेष्ठ का निषेध कर अप्रस्तुत उपमान अंधे की स्थापना की गयी है. अतः, अपन्हुति है.
७.संसद से जन-प्रतिनिधि गायब
    बैठे कुछ मक्कार हैं -सलिल
    यहाँ उपमेय 'जनप्रतिनिधि' का निषेध कर उपमान 'मक्कार' की स्थापना किये जाने से अपन्हुति है.
८. अरी सखी! यह मुख नहीं, यह है अमल मयंक 
९. किरण नहीं, पावक के कण ये जगतीतल पर गिरते हैं 
१०. सुधा सुधा प्यारे! नहीं, सुधा अहै सतसंग 
११. यह न चाँदनी, चाँदनी शिला 'मरमरी श्वेत 
१२. चंद चंद आली! नहीं, राधा मुख है चंद 
१३. अरध रात वह आवै मौन 
     सुंदरता बरनै कहि कौन?  
     देखत ही मन होय अनंद
     क्यों सखि! पियमुख? ना सखि चंद
अपन्हुति अलंकार के प्रकार: 
'यहाँ' नहीं 'वह' अपन्हुति', अलंकार लें जान
छः प्रकार रोचक 'सलिल', रसानंद की खान
प्रस्तुत या उपमेय का निषेध कर अप्रस्तुत की स्थापना करने पर अपन्हुति अलंकार जन्मता है. इसके छः भेद हैं.
१. शुद्धापन्हुति:
जहाँ पर प्रकृत उपमेय को छिपाकर या उसका प्रतिषेध कर अन्य अप्रस्तुत का निषेधात्मक शब्दों में आरोप किया जाता है.
१. ऊधो यह सूधो सो संदेसो कहि दीजो भलो,
    हरि सों हमारे ह्यां न फूले वन कुञ्ज हैं
    किंसुक गुलाब कचनार औ' अनारन की
     डारन पै डोलत अन्गारन के पुंज हैं
२. ये न मग हैं तव चरण की रेखियाँ हैं
    बलि दिशा की ओर देखा-देखियाँ हैं
    विश्व पर पद से लिखे कृति-लेख हैं ये
    धरा-तीर्थों की दिशा की मेख हैं ये
३. ये न न्यायाधीश हैं, 
    धृतराष्ट्र हैं ये
    न्याय ये देते नहीं हैं, 
    तोलते हैं
४. नहीं जनसेवक
    महज सत्ता-पिपासु,
    आज नेता बन
    लूटते देश को हैं
५. अब कहाँ कविता?
    महज तुकबन्दियाँ हैं, 
    भावना बिन रचित  
    शाब्दिक-मंडियाँ हैं  
२. हेत्वापन्हुति:
जहाँ प्रस्तुत का प्रतिषेध कर अप्रस्तुत का आरोप करते समय हेतु या कारण स्पष्ट किया जाए वहाँ हेत्वापन्हुति अलंकार होता है.
१. रात माँझ रवि होत नहिं, ससि नहिं तीव्र सुलाग
    उठी लखन अवलोकिये, वारिधि सों बड़बाग
२. ये नहिं फूल गुलाब के, दाहत हियो अपार
    बिनु घनश्याम अराम में, लगी दुसह दवार
३. अंक नहीं है पयोधि के पंक को औ' वसि बंक कलंक न जागै
    छाहौं नहीं छिति की परसै अरु धूमौ नहीं बड़वागि को पागै
    मैं मन वीचि कियो निह्चै रघुनाथ सुनो सुनतै भ्रम भागै
    ईठिन या के डिठौना दिया जेहि काहू वियोगी की डीठि न लागै
४. पहले आँखों में थे, मानस में कूद-मग्न प्रिय अब थे
    छींटे वहीं उड़े थे, बड़े-बड़े ये अश्रु कब थे.
५. गुरु नहीं, शिक्षक महज सेवक 
     साध्य विद्या नहीं निज देयक।  
३. पर्यस्तापन्हुति: 
जहाँ उपमेय या वास्तविक धर्मी में धर्म का निषेध कर अन्य में उसका आरोप जाता है वहाँ पर्यस्तापन्हुति अलंकार होता है
१. आपने कर्म करि हौं हि निबहौंगो तौ तो हौं ही करतार करतार तुम काहे के?
२. मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है
    भेंट जहाँ मस्ती की मिलती वह मेरी मधुशाला है
३ . जहाँ दुःख-दर्द
    जनता के सुने जाएँ
    न वह संसद
    जहाँ स्वार्थों का
    सौदा हो रहा
    है देश की संसद
४. चमक न बाकी चन्द्र में 
    चमके चेहरा खूब
५. डिग्रियाँ पाई, 
     न लेकिन ज्ञान पाया। 
     लगी जब ठोकर
     तभी कुछ जान पाया  
४. भ्रान्त्य अपन्हुति:
जहाँ किसी कारणवश भ्रम हो जाने पर सच्ची बात कहकर भ्रम का निवारण किया जाता है और उसमें कोई चमत्कार रहता है, वहाँ भ्रान्त्यापन्हुति अलंकार होता है
१. खायो कै अमल कै हिये में छायो निरवेद जड़ता को मंत्र पढि नायो शीश काहू अरि
    कै लग्यो है प्रेत कै लग्यो है कहूँ नेह हेत सूखि रह्यो बदन नयन रहे आँसू भरि
    बावरी की ऐसी दशा रावरी दिखाई देति रघुनाथ इ भयो जब मन में रो गयो डरि
    सखिन के टरै गरो भरे हाथ बाँसुरी देहरे कही-सुनी आजु बाँसुरी बजाई हरि
२. आली लाली लखि डरपि, जनु टेरहु नंदलाल
    फूले सघन पलास ये, नहिं दावानल ज्वाल    
३. डहकु न है उजियरिया, निसि नहिं घाम
    जगत जरत अस लाग, मोहिं बिनु राम
४. सर्प जान सब डर भगे, डरें न व्यर्थ सुजान
    रस्सी है यह सर्प सी, किन्तु नहीं है जान
५. बिन बदरा बरसात? 
    न, सिर धो आयी गोरी
    टप-टप बूँदें टपकाती 
    फिरती है भोरी
५. छेकापन्हुति:
जहाँ गुप्त बात प्रगट होने की आशंका से चतुराईपूर्वक मिथ्या समाधान से निषेध कर उसे छिपाया जाता है वहाँ छेकापन्हुति अलंकार होता है
१. अंग रंग साँवरो सुगंधन सो ल्प्तानो पीट पट पोषित पराग रूचि वरकी
    करे मधुपान मंद मंजुल करत गान रघुनाथ मिल्यो आन गली कुञ्ज घर की
    देखत बिकानी छबि मो पै न बखानी जाति कहति ही सखी सों त्यों बोली और उरकी
    भली भईं तोही मिले कमलनयन परत नहीं सखी मैं तो कही बात मधुकर की
२. अर्धनिशा वह आयो भौन
    सुन्दरता वरनै कहि कौन?
    निरखत ही मन भयो अनंद
    क्यों सखी साजन?
    नहिं सखि चंद
३. श्यामल तन पीरो वसन मिलो सघन बन भोर
    देखो नंदकिशोर अलि? ना सखि अलि चितचोर
४. चाहें सत्ता?, 
    नहीं-नहीं, 
    जनसेवा है लक्ष्य
५. करें चिकित्सा डॉक्टर 
     बिना रोग पहचान
     धोखा करें मरीज से?
     नहीं, करें अनुमान।     
६. कैतवापन्हुति:
जहाँ प्रस्तुत का प्रत्यक्ष निषेध न कर चतुराई से किसी व्याज (बहाने) से उसका निषेध किया जाता है वहाँ कैतवापन्हुति अलंकार होता है कैटव में बहाने से, मिस, व्याज, कारण आदि शब्दों द्वारा उपमेय का निषेध कर उपमान का होना कहा जाता है 
१. लालिमा श्री तरवारि के तेज में सारदा लौं सुखमा की निसेनी
    नूपुर नील मनीन जड़े जमुना जगै जौहर में सुखदेनी
    यौं लछिराम छटा नखनौल तरंगिनी गंग प्रभा फल पैनी
    मैथिली के चरणाम्बुज व्याज लसै मिथिला मग मंजु त्रिवेनी। 
२. मुख के मिस देखो उग्यो यह निकलंक मयंक 
३. नूतन  पवन के मिस प्रकृति ने सांस ली जी खोल के 
    यह नूतन पवन नहीं है,प्रकृति की सांस है 
४. निपट नीरव ही मिस ओस के 
    रजनि थी अश्रु गिरा रही 
    ओस नहीं, आँसू हैं 
५. जनसेवा के वास्ते 
    जनप्रतिनिधि वे बन गये,
    हैं न प्रतिनिधि नेता हैं
=========================  निरंतर
 आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', 

बुधवार, 11 नवंबर 2015

geet

एक रचना
: पाँच पर्व :











*
पाँच तत्व की देह है,
ज्ञाननेद्रिय हैं पाँच।
कर्मेन्द्रिय भी पाँच हैं,
पाँच पर्व हैं साँच।।
*











माटी की यह देह है,
माटी का संसार।
माटी बनती दीप चुप,
देती जग उजियार।।
कच्ची माटी को पका
पक्का करती आँच।
अगन-लगन का मेल ही
पाँच मार्ग का साँच।।
*











हाथ न सूझे हाथ को
अँधियारी हो रात।
तप-पौरुष ही दे सके
हर विपदा को मात।।
नारी धीरज मीत की
आपद में हो जाँच।
धर्म कर्म का मर्म है
पाँच तत्व में जाँच।।
*









बिन रमेश भी रमा का
तनिक न घटता मान।
ऋद्धि-सिद्धि बिन गजानन
हैं शुभत्व की खान।।
रहें न संग लेकिन पूजें
कर्म-कुंडली बाँच।
अचल-अटल विश्वास ही
पाँच देव हैं साँच।।
*









धन्वन्तरि दें स्वास्थ्य-धनहरि दें रक्षा-रूप।
श्री-समृद्धि, गणपति-मति
देकर करें अनूप।।
गोवर्धन पय अमिय दे
अन्नकूट कर खाँच।
बहिनों का आशीष ले
पाँच शक्ति शुभ साँच।।
*










पवन, भूत, शर, अँगुलि मिल
हर मुश्किल लें जीत।
पाँच प्राण मिल जतन कर
करें ईश से प्रीत।।
परमेश्वर बस पंच में
करें न्याय ज्यों काँच।
बाल न बाँका हो सके
पाँच अमृत है साँच










*****

mahalakshayamashtak stotra

II श्री महालक्ष्यमष्टक स्तोत्र II मूल पाठ-तद्रिन, हिंदी काव्यानुवाद-संजीव 'सलिल' II ॐ II











II श्री महालक्ष्यमष्टक स्तोत्र II नमस्तेस्तु महामाये श्रीपीठे सुरपूजिते I शंख चक्र गदा हस्ते महालक्ष्मी नमोsस्तुते II१II सुरपूजित श्रीपीठ विराजित, नमन महामाया शत-शत. शंख चक्र कर-गदा सुशोभित, नमन महालक्ष्मी शत-शत.. नमस्ते गरुड़ारूढ़े कोलासुर भयंकरी I सर्व पापहरे देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II२II कोलाsसुरमर्दिनी भवानी, गरुड़ासीना नम्र नमन. सरे पाप-ताप की हर्ता, नमन महालक्ष्मी शत-शत.. सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्ट भयंकरी I सर्व दु:ख हरे देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II३II सर्वज्ञा वरदायिनी मैया, अरि-दुष्टों को भयकारी. सब दुःखहरनेवाली, नमन महालक्ष्मी शत-शत.. सिद्धि-बुद्धिप्रदे देवी भुक्ति-मुक्ति प्रदायनी I मन्त्रमूर्ते सदा देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II४II भुक्ति-मुक्तिदात्री माँ कमला, सिद्धि-बुद्धिदात्री मैया. सदा मन्त्र में मूर्तित हो माँ, नमन महालक्ष्मी शत-शत.. आद्यांतर हिते देवी आदिशक्ति महेश्वरी I योगजे योगसंभूते महालक्ष्मी नमोsस्तुते II५II हे महेश्वरी! आदिशक्ति हे!, अंतर्मन में बसो सदा. योग्जनित संभूत योग से, नमन महालक्ष्मी शत-शत.. स्थूल-सूक्ष्म महारौद्रे महाशक्ति महोsदरे I महापापहरे देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II६II महाशक्ति हे! महोदरा हे!, महारुद्रा सूक्ष्म-स्थूल. महापापहारी श्री देवी, नमन महालक्ष्मी शत-शत.. पद्मासनस्थिते देवी परब्रम्ह स्वरूपिणी I परमेशीजगन्मातर्महालक्ष्मी नमोsस्तुते II७II कमलासन पर सदा सुशोभित, परमब्रम्ह का रूप शुभे. जगज्जननि परमेशी माता, नमन महालक्ष्मी शत-शत.. श्वेताम्बरधरे देवी नानालंकारभूषिते I जगत्स्थिते जगन्मातर्महालक्ष्मी नमोsस्तुते II८II दिव्य विविध आभूषणभूषित, श्वेतवसनधारे मैया. जग में स्थित हे जगमाता!, नमन महालक्ष्मी शत-शत.. महा लक्ष्यमष्टकस्तोत्रं य: पठेद्भक्तिमान्नर: I सर्वसिद्धिमवाप्नोति राज्यंप्राप्नोति सर्वदा II९II जो नर पढ़ते भक्ति-भाव से, महालक्ष्मी का स्तोत्र. पाते सुख धन राज्य सिद्धियाँ, नमन महालक्ष्मी शत-शत.. एककालं पठेन्नित्यं महापाप विनाशनं I द्विकालं य: पठेन्नित्यं धन-धान्यसमन्वित: II१०II एक समय जो पाठ करें नित, उनके मिटते पाप सकल. पढ़ें दो समय मिले धान्य-धन, नमन महालक्ष्मी शत-शत.. त्रिकालं य: पठेन्नित्यं महाशत्रु विनाशनं I महालक्ष्मीर्भवैन्नित्यं प्रसन्नावरदाशुभा II११II तीन समय नित अष्टक पढ़िये, महाशत्रुओं का हो नाश. हो प्रसन्न वर देती मैया, नमन महालक्ष्मी शत-शत.. II तद्रिन्कृत: श्री महालक्ष्यमष्टकस्तोत्रं संपूर्णं II तद्रिंरचित, सलिल-अनुवादित, महालक्ष्मी अष्टक पूर्ण. नित पढ़ श्री समृद्धि यश सुख लें, नमन महालक्ष्मी शत-शत.. ******************************************* आरती क्यों और कैसे? संजीव 'सलिल' * ईश्वर के आव्हान तथा पूजन के पश्चात् भगवान की आरती, नैवेद्य (भोग) समर्पण तथा अंत में विसर्जन किया जाता है। आरती के दौरान कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। आरती करने ही नहीं, इसमें सम्मिलित होंने से भी पुण्य मिलता है। देवता की आरती करते समय उन्हें 3बार पुष्प अर्पित करें। आरती का गायन स्पष्ट, शुद्ध तथा उच्च स्वर से किया जाता है। इस मध्य शंख, मृदंग, ढोल, नगाड़े , घड़ियाल, मंजीरे, मटका आदि मंगल वाद्य बजाकर जयकारा लगाया जाना चाहिए। आरती हेतु शुभ पात्र में विषम संख्या (1, 3, 5 या 7) में रुई या कपास से बनी बत्तियां रखकर गाय के दूध से निर्मित शुद्ध घी भरें। दीप-बाती जलाएं। एक थाली या तश्तरी में अक्षत (चांवल) के दाने रखकर उस पर आरती रखें। आरती का जल, चन्दन, रोली, हल्दी तथा पुष्प से पूजन करें। आरती को तीन या पाँच बार घड़ी के काँटों की दिशा में गोलाकार तथा अर्ध गोलाकार घुमाएँ। आरती गायन पूर्ण होने तक यह क्रम जरी रहे। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरा धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग [मस्तिष्क, दोनों हाथ-पांव] से। आरती पूर्ण होने पर थाली में अक्षत पर कपूर रखकर जलाएं तथा कपूर से आरती करते हुए मन्त्र पढ़ें: कर्पूर गौरं करुणावतारं, संसारसारं भुजगेन्द्रहारं। सदावसन्तं हृदयारवंदे, भवं भवानी सहितं नमामि।। पांच बत्तियों से आरती को पंच प्रदीप या पंचारती कहते हैं। यह शरीर के पंच-प्राणों या पञ्च तत्वों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव पंच-प्राणों (पूर्ण चेतना) से ईश्वर को पुकारने का हो। दीप-ज्योति जीवात्मा की प्रतीक है। आरती करते समय ज्योति का बुझना अशुभ, अमंगलसूचक होता है। आरती पूर्ण होने पर घड़ी के काँटों की दिशा में अपने स्थान पट तीन परिक्रमा करते हुए मन्त्र पढ़ें: यानि कानि च पापानि, जन्मान्तर कृतानि च। तानि-तानि प्रदक्ष्यंती, प्रदक्षिणां पदे-पदे।। अब आरती पर से तीन बार जल घुमाकर पृथ्वी पर छोड़ें। आरती प्रभु की प्रतिमा के समीप लेजाकर दाहिने हाथ से प्रभु को आरती दें। अंत में स्वयं आरती लें तथा सभी उपस्थितों को आरती दें। आरती देने-लेने के लिए दीप-ज्योति के निकट कुछ क्षण हथेली रखकर सिर तथा चेहरे पर फिराएं तथा दंडवत प्रणाम करें। सामान्यतः आरती लेते समय थाली में कुछ धन रखा जाता है जिसे पुरोहित या पुजारी ग्रहण करता है। भाव यह हो कि दीप की ऊर्जा हमारी अंतरात्मा को जागृत करे तथा ज्योति के प्रकाश से हमारा चेहरा दमकता रहे। सामग्री का महत्व आरती के दौरान हम न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक आधार भी हैं। कलश-कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। कहते हैं कि इस खाली स्थान में शिव बसते हैं। यदि आप आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप शिव से एकाकार हो रहे हैं। किंवदंतिहै कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है। जल-जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। दरअसल, हम जल को शुद्ध तत्व मानते हैं, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं। दीपमालिका कल हर दीपक अमल-विमल यश-कीर्ति धवल दे...... शक्ति-शारदा-लक्ष्मी मैया, 'सलिल' सौख्य-संतोष नवल दें...

सोमवार, 9 नवंबर 2015

laghukatha

लघुकथाः
जीवन मूल्य
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फेसबुक पर मित्रता अनुरोध पाकर उसका प्रोफाइल देखा, पति एक छोटा व्यवसायी, एक बच्चा, एक बच्ची। रचनाओं की प्रशंसा कर उसने मेरे बारे में पूछा तो मैंने सहज भाव से उत्तर दे दिया। कुछ दिन औपचारिक चैट-चर्चा के बाद उसने पति की कम आय और आर्थिक कठिनाई की चर्चा की।

दो शिशुओं की शिक्षा आदि पर संभावित व्यय को देखते हुए मैंने उसे पति के व्यवसाय में सहयोग करने अथवा खुद कुछ काम करने का परामर्श दिया। वह कैसे भी सरकारी नौकरी चाहती थी। मैंने स्पष्ट कहा कि सामान्य द्वितीय श्रेणी से स्नातक के लिये सरकारी नौकरी संभव नहीं है। घर से दूर कुछ हजार रुपये की निजी नौकरी में बच्चों की देखरेख नहीं हो सकेगी, बेहतर है मीठा-नमकीन, बड़ी-पापड़ आदि बनाकर दोपहर में बैंक, कॉलेज, सरकारी दफ्तरों में कार्यरत महिलाओं को बेचे। कम पूँजी में अच्छा लाभ हो सकता है, चूँकि नौकरीपेशा महिलायें इस कार्य के लिये समय नहीं निकाल पातीं, बाजार भाव से १०% कम कीमत में अच्छा सामान जरूर खरीदेंगी, फिर भी पूँजी से दोगुना लाभ होगा।

उसने उत्तर दिया कि इस सबमें बहुत समय बर्बाद होगा। उसे बहुत जल्दी और अधिक धन चाहिए ताकि चैन की ज़िंदगी जी सके। मैंने सोच लिया उसे उसके हाल पर छोड़ दूँ। अचानक उसका सन्देश आया आपसे कुछ पूछूँ बुरा तो नहीं मानेंगे? पूछो कहते ही सन्देश मिला मैं आपके शहर में जहाँ आप कहें आ जाऊँ तो मुझे आपके साथ रात बिताने का कितना रूपया देंगे?

काटो तो खून नहीं की स्थिति में मेरा मस्तिष्क चकरा गया, तुरंत उससे पूछा कि किसी की विवाहिता और दो-दो बच्चों की माँ होते हुए भी वह अपने पिता के समान के व्यक्ति से ऐसा कैसे कह सकती है? बच्चों और गृहस्थी पर कैसा दुष्प्रभाव होगा क्या सोचा है? पति की कमाई में कुछ संयम से इज्जत की ज़िंदगी गुजरना बहुत अच्छा है। अब मुझसे संपर्क न करे। मैंने अपनी मित्र मंडली से उसे निकाल दिया। यदा-कदा अब भी फेसबुक पर उसकी क्षमायाचना और शुभकामनायें रचनाओं की प्रतिक्रिया में प्राप्त होती है पर मैं उत्तर न देने की अशिष्टता के अलावा कुछ नहीं कर पाता, किन्तु चिंतित अवश्य करते है बदलते जीवन मूल्य।

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 लघुकथा:
धनतेरस
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वह कचरे के ढेर में रोज की तरह कुछ बीन रहा था, बुलाया तो चला आया। त्यौहार के दिन भी इस गंदगी में? घर कहाँ है? वहां साफ़-सफाई क्यों नहीं करते?त्यौहार नहीं मनाओगे? मैंने पूछा।
'क्यों नहीं मनाऊँगा?, प्लास्टिक बटोरकर सेठ को दूँगा जो पैसे मिलेंगे उससे लाई और दिया लूँगा।' उसने कहा।
'मैं लाई और दिया दूँ तो मेरा काम करोगे?' कुछ पल सोचकर उसने हामी भर दी और मेरे कहे अनुसार सड़क पर नलके से नहाकर घर आ गया। मैंने बच्चे के एक जोड़ी कपड़े उसे पहनने को दिए, दो रोटी खाने को दी और सामान लेने बाजार चल दी। रास्ते में उसने बताया नाले किनारे झोपड़ी में रहता है, माँ बुखार के कारण काम नहीं कर पा रही, पिता नहीं है।
ख़रीदे सामान की थैली उठाये हुए वह मेरे साथ घर लौटा, कुछ रूपए, दिए, लाई, मिठाई और साबुन की एक बट्टी दी तो वह प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखते हुए पूछा: 'ये मेरे लिए?' मैंने हाँ कहा तो उसके चहरे पर ख़ुशी की हल्की सी रेखा दिखी। 'मैं जाऊं?' शीघ्रता से पूछ उसने कि कहीं मैं सामान वापिस न ले लूँ। 'जाकर अपनी झोपडी, कपडे और माँ के कपड़े साफ़ करना, माँ से पूछकर दिए जलाना और कल से यहाँ काम करने आना, बाक़ी बात मैं तुम्हारी माँ से कर लूँगी।
'क्या कर रही हो, ये गंदे बच्चे चोर होते हैं, भगादो' पड़ोसन ने मुझे चेताया। गंदे तो ये हमारे फेंके कचरे को बीनने से होते हैं। ये कचरा न उठायें तो हमारे चारों तरफ कचरा ही कचरा हो जाए। हमारे बच्चों की तरह उसका भी मन करता होगा त्यौहार मनाने का।
'हाँ, तुम ठीक कह रही हो। हम तो मनायेंगे ही, इस बरस उसकी भी मन सकेगी धनतेरस'
कहते हुए ये घर में आ रहे थे और बच्चे के चहरे पर चमक रहा था थोड़ा सा चन्द्रमा।
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