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सोमवार, 9 नवंबर 2015

dhanteras


धनतेरसपर विशेष गीत...

प्रभु धन दे...

संजीव 'सलिल'
*
प्रभु धन दे निर्धन मत करना.
माटी को कंचन मत करना.....
*
निर्बल के बल रहो राम जी,
निर्धन के धन रहो राम जी.
मात्र न तन, मन रहो राम जी-
धूल न, चंदन रहो राम जी..

भूमि-सुता तज राजसूय में-
प्रतिमा रख वंदन मत करना.....
*
मृदुल कीर्ति प्रतिभा सुनाम जी.
देना सम सुख-दुःख अनाम जी.
हो अकाम-निष्काम काम जी- 
आरक्षण बिन भू सुधाम जी..

वन, गिरि, ताल, नदी, पशु-पक्षी-
सिसक रहे क्रंदन मत करना.....
*
बिन रमेश क्यों रमा राम जी,
चोरों के आ रहीं काम जी?
श्री गणेश को लिये वाम जी.
पाती हैं जग के प्रणाम जी..

माटी मस्तक तिलक बने पर-
आँखों का अंजन मत करना.....
*
साध्य न केवल रहे चाम जी,
अधिक न मोहे टीम-टाम जी.
जब देना हो दो विराम जी-
लेकिन लेना तनिक थाम जी..

कुछ रच पाए कलम सार्थक-
निरुद्देश्य मंचन मत करना..
*
अब न सुनामी हो सुनाम जी,
शांति-राज दे, लो प्रणाम जी.
'सलिल' सभी के सदा काम जी-
आये, चल दे कर सलाम जी..

निठुर-काल के व्याल-जाल का
मोह-पाश व्यंजन मत करना.....
*

रविवार, 8 नवंबर 2015

samiksha

कृति चर्चा:
अल्लाखोह मची - नवगीतीय भाव-भंगिमा मँजी 
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
[कृति विवरण: अल्लाखोह मची, नवगीत संग्रह, रामकिशोर दाहिया, वर्ष २०१४, ३००/-, पृष्ठ १४३, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, सजिल्द, जैकेट सहित, उद्भावना प्रकाशन, एच ५५ सेक्टर २३, राजनगर, गाज़ियाबाद, चलभाष: ९८११५८२९०२, नवगीतकार संपर्क: गौर मार्ग, दुर्गा चौक, जुहला कटनी ४८३५०१, चलभाष: ०९७५२५३९८९६]
*
'अल्लाखोह मची' अर्थात 'हाहाकार मचा' ऐसी नवगीत कृति है जिसका शीर्षक ही उसके रचनाकार की  दृष्टि और सृष्टि, परिवेश और परिस्थिति, आभ्यंतरिक अन्तर्वस्तु  और बाह्य आचरणजनित प्रभावों का संकेत करता है। नवगीत की रचना वैयक्तिक दर्द और पीड़ाजनित न होकर सामूहिक और पारिस्थितिक वैषम्य एवं विडम्बनाकारित अनुभूतियों के सम्प्रेषण हेतु की जाती है। नवगीत का प्रादुर्भाव होता है या वह रचा जाता है, आदिकवि वाल्मीकि रचित प्रथम काव्य पंक्तियों की तरह नवगीत किसी घटना की स्वत: स्फूर्त  प्राकृतिक क्रिया है अथवा किसी घटना या किन्हीं घटनाओं के कारण उत्पन्न प्रतिक्रियाओं के संचित होते जाने और निराकृत न होने पर रचनाकार के सुचिंतन का सारांश इस पर मत वैभिन्न्य हो सकता है किन्तु यह लगभग निर्विवाद है कि नवगीत आम जन की अनुभूतियों का शब्दांकन है, न कि व्यक्तिगत चिन्तन का प्रस्तुतीकरण। विवेच्य कृति की हर रचना गीतकार के साक्षीभाव का प्रमाण है। 

श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार श्री अवधबिहारी श्रीवास्तव के अनुसार 'ईमानदार कवि ने जो करीब से देखा, महसूस किया, भीतर-भीतर जिन घटनाओं की संवेदना उसके भीतर उतर गयी है, उस सच का बयान है, ये गीत फैशन और बहाव में लिखे गीत नहीं हैं. ये गीत एयरकण्डीशनरों में बैठकर कल्पना से गाँव, गरीबी, परिश्रम और पसीने का अनुगायन नहीं है। इन्हें एक गरीब किसान के बेटे ने कड़ी धूप में खड़े होकर भूख और प्यास की पीड़ा सहते हुए धरती की छाती पर लिखा है, इसीलिये इनके गीतों में पसीने से भीगी माटी की गंध आ रही है।' खुद रामकिशोर जी मानते हैं कि उनका लेखन 'घुटन, टूटन, संत्रास, उपेक्षा के शिकार, संघर्षरत आम आदमी की समस्याओं को ज्यों का त्यों रेखांकित करने का प्रयास है।' प्रयास हमेशा सायास होता है, अनायास नहीं। 'ज्यों का त्यों सायास' प्रस्तुतिकरण इन नवगीतों का प्रथम वैशिष्ट्य है।

इन नवगीतों का दूसरा वैशिष्ट्य 'स्वर में आक्रामकता' है, वैषम्य और विडम्बनाओं के प्रहार निरंतर सहनेवाला मन  कितना भी भीरु हो, उनमें सुधारने और सुधार न सके तो तोड़ने की प्रवृत्ति होना स्वाभाविक है। एक बच्चे के पास कोई खिलौना हो और दूसरे के पास न हो तो वह  खिलौना पाने की ज़िद करता है और न मिलने पर तोड़ देता है, भले ही बाद में दंडित हो। यह आक्रामकता इन गीतों में है। 

                                      शीश नहीं / कंधे पर लेकिन / रुण्ड हवा में / लाठी भाँजे।
सोना-तपा / खरा हो निकला / चमका जितना / छीले-माँजे।     

इस आक्रामकता को दिशाहीन होने से जो प्रवृत्ति बचाती है वह है 'गाम्भीर्य'। संयोगवश रामकिशोर जी शिक्षक हैं, वे रचनाकार का गंभीर होना उसका नैतिक दायित्व मानते हैं तो शिक्षक का संयमित होना कैसे भूल सकते हैं? आक्रामकता, गंभीरता और संयम की त्रिवेणी इन नवगीतों को उनके गाँव में प्रवहित झिरगिरी नदी के प्रवाह की तरह उफनने, गरजने, शांत होने, तृषा हरने की प्रवृत्ति से युक्त करते हैं। 

ईंधन आग / जलाने के हम / फिर से / झोंके गए भाड़ में । 
जान सौंपकर / किये काम को / ताकत-हिम्मत / रही हाड़ में । 

इन नवगीतों  का सर्वाधिक उल्लेखनीय तत्व इनकी लोकधर्मिता है। यह लोकधर्मिता रामकिशोर जी को उनके लोकगायक पिता से विरासत में मिली है। बुंदेलखंड-बघेलखण्ड का सीमावर्ती अंचल बुढ़ार, उमरिया, मानपुर, बरही आदि कुछ समय के लिए मेरा और लम्बे समय तक रामकिशोर जी का कार्यक्षेत्र रहा है। वे नयी पीढ़ी को शिक्षित करने में जुटे थे और मैं नदियों पर सेतु परियोजनाओं के प्रस्ताव तैयार करने और निर्माण कराने में जुटा था। तब हमारी भेंट भले ही नहीं हो सकी किन्तु अंचल के आदमी के अभाव, दर्द, बेचैनी, उकताहट के साक्षी होने का अवसर अवश्य ही दोनों को मिला। वहाँ रहकर देखने, भोगने और सीखने के काल ने वह पैनी दृष्टि दी जो आवरणों को भेदकर सत्य की प्रतीति कर सके। 

फूटी पाँव / बिवाई धरती / एक बूँद भी / लगे इमरती 
भारी महा गिरानी / आसों बादल टाँगे पानी। 
आधा डोल / कहे अब आके। / कुएँ लगे पेंदी से जाके। 
गया और / जलस्तर नीचे। / सावन सूखा पड़ा उलीचे। 

'सावन सूखा' की विडंबना लगातार झेलती पीड़ा का संवेदनशील चक्षुसाक्षी, नीरो की तरह वेणुवादन कर प्रेम और शांति  के राग नहीं गा सकता। कादम्बरीकार बाणभट्ट और मेघदूत सर्जक कालिदास के काल से विंध्याटवी के इस अंचल में लगातार वन कटने, पहाड़ खुदने और नदियों का जलग्रहण क्षेत्र घटने के बाद भी अकल्पनीय प्राकृतिक सौंदर्य है। सौंदर्य कितना भी नैसर्गिक और दिव्य हो उससे क्षुधा और तृषा शांत नहीं होती। जाने-अनजाने कोलाहल को जीता-पीता हुआ वह मोहकवादियों में भी तपिश अनुभव करता है।

अंतहीन / जलने की पीड़ा / मैं बिन तेल दिया की बाती।
मन के भीतर / जलप्रपात है / धुआँधार की मोहकवादी।
सलिल कणों में / दिन उगते ही / माचिस की तीली टपका दी।  
सूख रही / नर्मदा पेट से / ऊपर जलती धू-धू छाती।
निर्जन वन का / सूनापन भी / भरे कोलाहल भीतर जैसे।
मैं विस्मित हूँ / खोह विजन में / चिल-कूट करते तीतर कैसे? 

बरसों से जड़वत-निष्ठुर राजनैतिक-सामाजिक व्यवस्था और अधिकाधिक संवेदहीन-प्रभावहीन होती सांस्कृतिक-साहित्यिक विरासत सिर्फ और सिर्फ असंतोष को जन्म देती है जो घनीभूत होकर क्षोभ और आक्रोश की अभिव्यक्ति कर नवगीत बन जाती है। विडंबना यह कि विदेशी शासकों के विरुद्ध विद्रोह करने पर देशप्रेम और जनसमर्थन तो प्राप्त होता पर तथाकथित स्वदेशी सम्प्रभुओं ने वह राह भी नहीं छोड़ी है। अब शासन-प्रशासन के विरुद्ध जाने की परिणति नक्सलवादऔर आतंकवाद में होती है। इस संग्रह के प्रथम खंड 'धधकी आग तबाही' के अंतर्गत समाहित नवगीत अनसुनी-अनदेखी शिकायतों के जीवंत दस्तावेज हैं-

डंपर-ट्रॉली / ढोते ट्रक हैं / नंबर दो की रेत। 
महानदी के / तट कैसे / दाबे कुचले खेत।  
लिखी शिकायत / केश उखाड़े / सबको गया टटोला। 
पीली-लाल / बत्तियों पर / संयुक्त मोर्चा खोला। 
छान-बीन / तफ्तीशें जारी / डंडे भूत-परेत। 

असंतुष्ट पर से भूत-प्रेत उतारते व्यवस्था के डंडे कल से कल तक का अकाट्य सत्य है।  आम आदमी को इस सत्य से जूझते देख उसकी जिजीविषा पर विस्मिय होता है। रामकिशोर जी का अंदाज़े-बयां 'कम लिखे से जादा समझना' की परिपाटी का पालन करता है-

दवा सरीखे / भोजन मिलता / रस में टँगा मरीज रहा हूँ।
दैनिक / वेतनभोगी की मैं / फटती हुई कमीज रहा हूँ।
गर्दन से / कब सिर उतार दे / पैनी खड्ग / व्यवस्था इतनी।.... 
.... झोपड़पट्टी के / आँगन में / राखी-कजली / तीज रहा हूँ।

आम आदमी की यह ताकत जो उसे राखी, कजली, तीज अर्थात पारिवारिक-सामाजिक संबंधों के अनुबंधों से मिलती है, वही सर्वस्व ध्वंस के अवांछित रास्तों पर जाने से रोकती है किन्तु अंतत: इससे मुक्ताकाश में पर तौलने के इच्छुक पर कतरे जाकर बकौल रहीम 'रहिमन निज मन की व्यथा मन ही राखो गोय' कहते हैं तो आम आदमी की जुबान से सिर्फ यह कह पाते हैं- 

मेरी पीड़ा मेरा धन है। / नहीं बाँटता मेरा मन है। 
सूम बने रहना / ही बेहतर / खुशहाली में घर-आँगन है।    

संग्रह का दूसरा खंड 'पागल हुआ रमोली' के हुआ सवेरा जैसे गीत कवि के अंतर्मन में बैठे आशावादी शिक्षक की वाणी हैं- 'उठ जा बेटे! हुआ सवेरा । /  हुई भोर है गया अँधेरा। / जागा सूरज खोले आँखें / फ़ैल रही किरणों की पाँखें'। नवाशा का यह स्वर भोर की ताजगी की ही तरह शीघ्र ही गायब हो जाता है और शेष रह जाती है 'मूँड़ फूट जाएगा लगता / हींसों के बँटवारे में' की आशंका, 'लाल-पीली / बत्तियों का / हो गया / कानून बंधुआ' का कड़वा सच, 'ले गयी है / बाढ़ हमसे / छीनकर घर-द्वार पूरा' का दर्द,  'वजनदार हो फ़ाइल सरके / बाबू बैठा हुआ अकड़ के / पटवारी का काला-पीला' से उपजा शोषण, 'झमर-झिमिर भी / बरसे पानी / हालत सार-सरीखी घर की' की बेचारगी, 'चांवल, दाल / गेहूं सोना है। / रोजी-रोटी का रोना है' की विवशता, 'खौल रहा / अंदर से लेकिन / बना हुआ गंभीर लेड़ैया / नहीं बोलता / हुआ हुआ का' की हताशा और 'झोपड़पट्टी टूट रही है / सिर की छाया छूट रही है .... चलता / छाती पर / बुलडोजर / बेजा कब्जा खाली होता' की आश्रय हीनता।

'मेरी अपनी जीवन शैली / अलग सोच की अलग / कहन है' कहनेवाले रामकिशोर जी का शब्द भण्डार स्पृहणीय है। वे कुनैते, दुनका, चरेरू, बम्हनौही, कनफोर, क़मरी, सरौधा, अइसन, हींसा, हरैया, आसन, पिटपासों, दुनपट, फरके, छींदी, तरोगा, चिंगुटे, हँकरा, गुंगुआना, डहडक, टूका, पुरौती, ठोंढ़ा, तुम्मी, अकिल, पतुरिया, कुदारी, चुरिया, मिड़वइया आदि देशज बुंदेली-बघेली शब्द, इंटरनेट, लान, ड्रीम, डम्पर, ट्रॉली, ट्रक, नंबर, लीज, लिस्ट, सील, साइन, एटम बम, कोर्ट, मार्किट, रेडीमेड, ऑप्शन, मशीन, पेपरवेट, रेट, कंप्यूटर, ड्यूटी जैसे अंग्रेजी शब्द तथा फरेब, रोज, किस्मत, रकम, हकीम, ऐब, रौशनी, रिश्ते, ज़हर, अहसान, हर्फ़, हौसला, बोटी, आफत, कानून, बख्शें, गुरेज, खानगी, फरमाइश, बेताबी, खुराफात, सोहबत, ख़ामोशी, फ़क़त, दहशत, औकात आदि उर्दू शब्द खड़ी हिंदी के साथ समान सहजता और सार्थकता के साथ उपयोग कर पाते हैं। पूर्व नवगीत संग्रह की तरह ठेठ देशज शब्दों के अर्थ पाद टिप्पणी में दिए जान शहरी तथा अन्य अंचलों के पाठकों के लिए आवश्यक है क्योंकि ऐसे शब्दों के अर्थ सामान्य शब्दकोशों में भी नहीं मिलते हैं। 

'अपने दम पर / मैं अभाव के / छक्के छुड़ा दिआ', 'मैं फरेबी धुंध की / वह छोर खोजा हूँ'  जैसी एक-दो त्रुटिपूर्ण अभिव्यक्ति के अपवाद को छोड़कर पूर्ण संग्रह भाषिक दृष्टि से निर्दोष है। पारम्परिक गीत की छंदरूढ़ता और प्रगतिवादी काव्य की छंदहीनता के बीच सहज साध्य छंदयोजना के अपनाते हुए रामकिशोर जी इन नवगीतों की लयबद्धता को सरस और रूचि पूर्ण रख सके हैं। 'ज़िंदा सरोधा' शीर्षक नवगीत के मुखड़े में २३ मात्रिक छंद रौद्राक जातीय उपमान छंद का, मुखड़े में २६ मात्रिक महाभागवत जातीय छंद का, 'भरे कोलाहल भीतर', 'रस में टँगा मरीज' शीर्षक नवगीतों के मुखड़े-अंतरों में ३२ मात्रिक लाक्षणिक छंद,  'रुण्ड हवा में' शीर्षक नवगीत के मुखड़े में ४२ मात्रिक कोदंड जातीय तथा अँतरे में ३२ मात्रिक लाक्षणिक जातीय छंद का, 'घूँघट वाला अँचरा' में ३० मात्रिक महातैथिक जातीय छंद का मुखड़ा, २८ मात्रिक यौगिक जातीय छंद का अन्तरा, 'हींसों के बँटवारे' में ३० मात्रिक महातैथिक जातीय छंद का मुखड़ा तथा १६ मात्रिक संस्कारी जातीय ७ पंक्तियों का अंतरा प्रयोग किया गया है। अपवादस्वरूप कुछ नवगीतों में अंतरों में भी अलग-अलग छंद प्रयुक्त हुए है जो नवगीतकार की प्रयोगधर्मिता को इंगित करता है।

समीक्ष्य संग्रह के नवगीत रामकिशोर के व्यक्तित्व और चिंतन के प्रतीति कराते हैं। लेखनमें किसी अन्य से प्रभावित हुए बिना अपनी लीक आप बनाते हुए, पारम्परिकता, नवता और स्वीकार्यता की त्रिवेणी प्रवाहित करते हुए रामकिशोर जी के अगले संकलन की प्रतीक्षा हेतु उत्सुकता जगाता है यह संग्रह।

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-समन्वयम २०४ विजय, अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, सुभद्रा वार्ड, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ salil.sanjiv@gmail.com, o७६१ २४१११३१ / ९४२५१८३२४४ 
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laghukatha

लघुकथा:
थोड़ा सा चन्द्रमा
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अभियांत्रिकी महाविद्यालय में प्रवेश, पति को हृद्रोग दोनों सूचनाएँ साथ-साथ पाकर उनका जी धक से रह गया... अपना बक्सा खोला उसमें रखे पैसे गिने, बैंक की पास बुक देखी, दवाई-इलाज का काम तो खींच-तान कर चला लेंगी पर अभियांत्रिकी महाविद्यालय में प्रवेश कैसे?, प्रवेश न कराये तो बच्चे का भविष्य अंधकारमय, पति के लिये तनाव भी घातक, क्या करें?…

''आइये, आइये' दरवाज़े पर उन्हें ठिठका देख मैंने पूछा 'कहिये, डॉक्टर क्या कह रहे हैं?' और सोफे पर बैठने का संकेत किया।

खुद को संयत करते हुए उन्होंने उक्त परिस्थति की चर्चाकर मागदर्शन चाहा। एक क्षण को मैं हतप्रभ हुआ,क्या कहूँ? परिस्थिति वाकई जटिल थी। कुछ सोचकर कहा: 'फ़िक्र न करें,हम सब मिलकर स्थिति को सुलझा लेंगे। बच्चे को कितनी फीस कब भरनी है बता दें, मैं बैंक से लाकर भिजवा दूँगा, आप इलाज पर ध्यान दें।'

'आपसे यही उम्मीद थी, पर ५ साल पढ़ाई का खर्च कैसे? अभी २ माह ये नौकरी पर भी नहीं जा सकेंगे, तनखा भी बाद में ही मिलेगी' -वे बोलीं, चाहती तो नहीं थी पर मजबूरी में आपसे …

इस बीच मैं अपना मन स्थिर कर चुका था कहा: 'आपने तुरंत बताकर बिलकुल ठीक किया। एक ही रास्ता है लेकिन आपको बहुत मेहनत'

'मैं कुछ भी कर लूँगी' मेरे वाक्य पूरा करने के पहले ही बोल पड़ीं वे और फिर अपनी हड़बड़ी पर झेंप भी गयीं।

'मुझे कार्यालय के मित्रों को पार्टी देना है, ये कॉलेज में ही इतना थक जाती हैं कि चाह कर भी बना नहीं पाएंगी औए बाजार का बना मैं खिलाना नहीं चाहता, सामान भेज दूँ तो बना देंगी मेरे लिये?' मैंने उन्हें मिठाई-नमकीन की सूची दे दी। उन्हें अटपटा तो लगा किन्तु चुप रहीं। श्रीमती जी के घर लौटने पर मैंने पूरी बात और अपनी योजना बताई और उनसे पूछकर किरानेवाले को फोन कर सामान भिजवा दिया। 

अगले ही दिन उन्होंने कहे अनुसार सामान बनाकर भेज दिया था। हमने अपने कार्यालयों में साथियों को वह मीठा-नमकीन खिलाकर त्यौहार पर इन्हीं से खरीदने का आग्रह किया। बाजार भाव से १०% कम दर बताई तो उनका सब सामान बिक गया था। किरानेवाले का बिल चुकाकर अच्छी रकम बच गयी। श्रीमती जी ने बची राशि व नये आदेश उन्हें देते हुए बताया कि किरानेवाला सामान भी भेज रहा है, आप सुविधा से बना देना तो हम दोनों ग्राहकों तक पहुँचा देंगे। वे अवाक सी सुनती रहीं मानों विश्वास न कर पा रही हों, चेहरे पर एक रंग आ रहा था तो एक जा रहा था, अंत में ख़ुशी ने स्थाई डेरा जमा लिया तो हमने चैन की सांस ली

'अरे! ऐसे क्या देख रही हैं? आपने तो तीर मार दिया, बेटा जाने कब कमायेगा पर आपने तो कमाना शुरू भी कर दिया। अब बेटे की पढ़ाई में कोई बाधा नहीं आएगी लेकिन पहले रुपये गिन लीजिये, आपकी सहेली ने कम तो नहीं कर दिए और पहली कमाई पर खीर तो खिलानी ही पड़ेगी।' 

मेरी आवाज सुनकर उन्होंने आश्चर्य और कृतज्ञता के भाव से मुझे देखा और श्रीमती जी से बोलीं: 'डाइबिटीजवालों को तो खीर मिलेगी नहीं' 

'अच्छा! मेरी बिल्ली मुझी से म्याऊं?' श्रीमती जी बोलीं, तब मुझे ध्यान आया कि उनके श्रीमान और मेरी श्रीमती जी मधुमेहग्रस्त हैं। वे तो चली गयीं पर खिड़की से झाँक रहा था थोड़ा सा चन्द्रमा

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संदेह अलंकार

अलंकार सलिला: २९  

संदेह अलंकार
*
















*
किसी एक में जब दिखें, संभव वस्तु अनेक। 

अलंकार संदेह तब, पहिचानें सविवेक।। 

निश्चय करना कठिन हो, लख गुण-धर्म समान 
अलंकार संदेह की, यह या वह पहचान     

गुरुदत्त जी, वहीदा जी, रहमान जी तथा जॉनी वाकर जी के जीवंत अभिनय, निर्देषम, कथा और मधुर गीतों के लिये 

स्मरणीय हिंदी सिनेमा की कालजयी कृति 'चौदहवीं का चाँद' को हम याद कर रहे हैं शीर्षक गीत के लिये... 

चौदहवीं का चाँद हो / या आफताब हो?

जो भी हो तुम / खुदा की कसम / लाजवाब हो

नायिका के अनिंद्य रूप पर मुग्ध नायक यह तय नहीं कर पा रहा कि उसे चाँद माने या सूर्य? एक अन्य पुराना फिल्मी गीत है-

ख्वाब हो तुम या कोई हकीकत / कौन हो तुम बतलाओ?

देर से इतनी दूर खड़ी हो / और करीब आ जाओ

यह तो आप सबने समझ ही लिया है कि नायक नायिका को देखकर सपना है या सच है? का निश्चय नहीं कर पा रहा है 

और यह तय करने के लिये उसे निकट बुला रहा है। एक और फिल्मी गीत को लें-

मार दिया जाये कि छोड़ दिया जाए 

बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जाए?

आप सोच रहे होंगे अलंकार चर्चा के इच्छुक काव्य रसिकों से यह कैसा सलूक कि अलंकार छोड़कर सिनेमाई गीत वो भी 

पुराने दोहराये जाएँ? धैर्य रखिये, यह अकारण नहीं है

घबराइये मत, हम आपसे न तो गीत सुनाने को कह रहे हैं, न गीतकार, गायक या संगीतकार का नाम ही पूछ रहे हैं 

बताइए सिर्फ यह कि इन गीतों में कौन सी समानता है?

क्या?..  पर्दे पर नायक ने गाया है... यह तो पूछने जैसी बात ही नहीं है असल में ...समानता यह है कि तीनों गीतों में 

नायक दुविधा का शिकार है- चाँद या सूरज?, सपना या सच?, मारे या छोड़े ?

यह दुविधा, अनिर्णय, संशय, शक या संदेह की मनःस्थिति जिस अलंकार की जननी है, उसका नाम है संदेह अलंकार

रूप, रंग आदि की समानता होने के कारण उपमेय में उपमान का संशय होने पर संदेह अलंकार होता है

जहाँ रूप, रंग और गुण की समानता के कारण किसी वस्तु को देखकर यह निश्चचय न हो सके कि यह वही वस्तु है या 

नहीं? वहाँ संदेह अलंकार होता है

यह अलंकार तब होता है जब एक वस्तु में किसी दूसरी वस्तु का संदेह तो हो पर निश्चय न हो इसके वाचक शब्द कि, 

किधौं, धौं, अथवा, या आदि हैं

यह-वह का संशय बने, अलंकार संदेह

निश्चय बिन हिलता लगे, विश्वासों का गेह

इस-उस के निश्चय बिना हो मन हो डाँवाडोल

अलंकार संदेह को, ऊहापोह से तोल

उदाहरण:

१. कौन बताये / वीर कहूँ या धीर / पितामह को?

२. नग, जुगनू या तारे? / बूझ न पाये हारे 

३. नर्मदा हो, वर्मदा हो / शर्मदा हो धर्मदा 
    जानता माँ मात्र इतना / तुम सनातन मर्मदा  

४.  सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है

    सारी ही कि नारी है कि नारी ही कि सारी है

    यहाँ द्रौपदी के चीरहरण की घटना के समय का चित्रण है कि द्रौपदी के चारों और चीर के ढेर देखकर दर्शकों को संदेह 

हुआ कि साड़ी के बीच नारी है या नारी के बीच साड़ी है?

५. को तुम तीन देव मँह कोऊ, नर नारायण की तुम दोऊ

    यहाँ संदेह है कि सामने कौन उपस्थित है ? नर, नारायण या त्रिदेव (ब्रम्हा-विष्णु-महेश)

६ . परत चंद्र प्रतिबिम्ब कहुँ जलनिधि चमकायो

    कै तरंग कर मुकुर लिए शोभित छवि छायो

    कै रास रमन में हरि मुकुट आभा जल बिखरात है

    कै जल-उर हरि मूरति बसत ना प्रतिबिम्ब लखात है

    पानी में पड़ रही चंद्रमा की छवि को देखकर कवि संशय में है कि यह पानी में चन्द्र की छवि है या लहर हाथ में दर्पण लिये 

है? यह रास लीला में निमग्न श्री कृष्ण के मुकुट की परछाईं है या सलिल के ह्रदय में बसी प्रभु की प्रतिमा है?

७. तारे आसमान के हैं आये मेहमान बनि,

                    केशों में निशा ने मुक्तावलि सजायी है

    बिखर गयी है चूर-चूर है के चंद कैधों,

                   कैधों घर-घर दीपमालिका सुहाई है

    इस प्रकृति चित्रण में संशय है कि आसमान में तारे अतिथि बनकर आये हैं, अथवा रजनी ने मुक्तावलि सजायी है, 

चंद्रमा चूर होकर बिखर गया है या घर -घर में दिवाली मनाई जा रही है.

८. कज्जल के तट पर दीपशिखा सोती है कि,

                    श्याम घन मंडल में दामिनी की धारा है?

    यामिनी के अंचल में कलाधर की कोर है कि,

                    राहू के कबंध पै कराल केतु तारा है?

    'शंकर' कसौटी पर कंचन की लीक है कि,

                    तेज ने तिमिर के हिए में तीर मारा है?

    काली पाटियों के बीच मोहिनी की मांग है कि,

                    ढाल पर खांडा कामदेव का दुधारा है.?

    इस छंद में संदेह अलंकार की ४ बार आवृत्ति है. संदेह है कि- काजल के किनारे दिये की बाती है या काले बादलों के बीच बिजली?, रात के आँचल में चंद्रमा की कोर है या राहू के कंधे पर केतु?, कसौटी के पत्थर पर परखे जा रहे सोने की रेखा है या अँधेरे के दिल में उजाले का तीर?, काले बालों के बीच सुन्दरी की माँग है या ढाल पर कामदेव का दुधारा रखा है?

९. नित सुनहली साँझ के पद से लिपट आता अँधेरा,

    पुलक पंखी विरह पर उड़ आ रहा है मिलन मेरा

    कौन जाने बसा है उस पार

    तम या रागमय दिन? - महादेवी वर्मा

१०. जननायक हो जनशोषक

    पोषक अत्याचारों के?

    धनपति हो या धन-गुलाम तुम

    दोषी लाचारों के? -सलिल

११. भूखे नर को भूलकर, हर को देते भोग

    पाप हुआ या पुण्य यह?, करुँ हर्ष या सोग?.. -सलिल

१२. राधा मुख आली! किधौं, कैधौं उग्यो मयंक?

१३. कहहिं सप्रेम एक-इक पाहीं। राम-लखन सखि! होब कि नाहीं।।   

१४. संसद या मंडी कहूँ? 
      हल्ला-गुल्ला हो रहा
      आम आदमी रो रहा   

१५. जीत हुई या हार 
      भाँज रहे तलवार
      जन हित होता उपेक्षित।                 

संदेह अलंकार का प्रयोग सामाजिक विसंगतियों और त्रासदियों के चित्रण में भी किया जा सकता है

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गुरुवार, 5 नवंबर 2015

muktika

मुक्तिका:
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ज़िंदगी जीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
होंठ हँस सीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
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क्या कहे? कैसे कहें? किससे कहें? बहरा समय
अश्रु चुप पीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
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तुहिन, ओले, आग, बरखा, ठंड, गर्मी या तुषार
झेलते रीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
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मिल तो अंगूर मीठे, ना मिले खट्टे हुए 
फेंकते तीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
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सत्य से साक्षात् कर ये ज़िंदगी दूभर हुई
राम तज सीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
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नहीं अबला, ना बला, सबला लगाते पार हम
पल नहीं बीते रहे हम पुस्तकों के बीच में?
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कर रही कुदरत नहीं क्या आदमी से भी मजाक
'सलिल' हो बहते रहे हम पुस्तकों के बीच में
*** 

navgeet

एक रचना:
जमींदार
*
जमींदार नवगीत के
ठोंको इन्हें सलाम
.
इन्हें किया था नामजद
किसी शाह ने रीझ.
बख्शी थी जागीर कह  
'कर मनमानी खूब.
पाल-पोस चेले बढ़ा
कह औरों को दूब.
बदल समय के साथ मत
खुद पर खुद ही खीझ.
लँगड़ा करता है सफर
खुद की बाजू थाम.
जमींदार नवगीत के
ठोंको इन्हें सलाम
.
बँधवाया, अब बाँधना  
तू गंडा-ताबीज़.
शब्द न समझें लोग जो  
लिखना खोज अजूब.
गलत और का सही भी 
कहना मद में डूब.
निज पीड़ा संवेदना
दर्द अन्य का चीज.
दाम-नाम के लिये कर 
शब्दों का व्यायाम.
जमींदार नवगीत के
ठोंको इन्हें सलाम
***